यहाँ जंबूद्वीप के जिनमंदिरों का दर्शन करके मन में बहुत खुशी हुई। प्रातः फाल्गुन वदी १३, दिनाँक २३ फरवरी को सिद्धान्तसार दीपक का स्वाध्याय प्रारंभ कर दिया।
यहाँ क्षेत्र पर हम लोगों की दिनचर्या सुचारू चलती रहती है। ‘ह्रीं’ में चौबीस तीर्थंकर विराजमान कराकर उसकी प्रतिष्ठा करानी है अतः यहाँ पर वासुदेव से नमूने के लिए मिट्टी का ह्रीं बनवाया गया। इधर कमलमंदिर मेें अंदर पूरा संगमरमर पत्थर लग चुका था। बाहर कमल की बड़ी-बड़ी कलियों में पत्थर लग रहा है।
सुमेरु पर्वत के भीतर भूमि में पत्थर लग रहा है। सुमेरु के अंदर की दीवालों की पुताई हो रही है। यहाँ जैनेतर लोग सुमेरु के अंदर दीवालों में अपने-अपने नाम खोद कर गंदा कर देते हैं, सो बहुत ही दुःख होता है। वास्तव में यह नैतिकता के विरुद्ध है, जहाँ जो मर्यादा है, उसकी सुरक्षा रखते हुए ही दर्शनार्थियों को दर्शन करना चाहिए।
आष्टान्हिक पर्व में विधान
फाल्गुन शु. ७ को चन्द्रप्रभ भगवान का निर्वाण लाडू चढ़ाया गया। ४ मार्च से आष्टान्हिका पर्व शुरू है। हापुड़ से शिखरचंद जैन व दिल्ली से जिनेन्द्रप्रसाद जैन सपरिवार आ गये, जिनेन्द्र प्रसाद जी की बहन सरलाजी भी आर्इं।
फाल्गुन शु. ८, दिनाँक ४ मार्च १९९० को प्रातः १०-१६ पर झण्डारोहण हुआ पुनः अंकुरारोपण सकलीकरण आदि क्रियायें हुई।
महोत्सव की मीटिंग
४ मार्च को मध्यान्ह में प्रतिष्ठा समिति की मीटिंग रखी गई थी। दिल्ली, बड़ौत, अमीनगरसराय, मेरठ, मोदीनगर आदि से उत्साही कार्यकर्ता आ गये।
लोगों को कार्यभार दिये गये थे, सो सभी ने खूब उत्साह दिखाया। फाल्गुन शु. ११ के दिन भगवान नेमिनाथ व सहस्रफणा चिंतामणि भगवान पार्श्वनाथ का प्रतिष्ठापना दिवस होने से दोनों भगवान की पूजाएँ कराई। प्रतिदिन तीस चौबीसी विधान की पूजा की जा रही थी।
ह्रीं व ४५८ मंदिर के आर्डर
मुरादाबाद से कारीगर बुलाये गये थे। रवीन्द्र कुमार ने फाल्गुन शु. १३, ९ मार्च को इन्हें धातु की ५ फुट उँची ‘ह्रीं’ का आर्डर दिया और धातु के ५ मेरु के तथा शेष ३७८ मंदिरों के भी आर्डर दिये, खुशी हुई।
विधानपूर्ति
फाल्गुन शु. १५, दिनाँक ११ मार्च के दिन विधान की पूर्णाहुति की गई। इस विधान में तीस चौबीसी की पूजाएँ हैं और ७२० अर्घ्य हैं। जंबूद्वीप में एक भरत, एक ऐरावत है।
ऐसे ही धातकी खण्ड में दो भरत, दो ऐरावत हैं और पुष्करार्ध द्वीप में भी दो भरत, दो ऐरावत हैं। इन पाँचों भरत व पाँचों ऐरावत क्षेत्रों में षट्काल परिवर्तन होता है। प्रत्येक चतुर्थकाल में इनमें चौबीस-चौबीस तीर्थंकर होते हैं। ऐसे भूत-वर्तमान और भावी तीन-तीन चौबीसी में तीस चौबीसी हो जाती हैं। इनके नामों की छपी एक छोटी सी पुस्तक मुझे दक्षिण में मिली थी। उधर कई एक महिलाएँ तीस चौबीसी के सात सौ बीस उपवास भी करती हैं।
मेरे संघ में आर्यिका पद्मावती जी ने भी ये सात सौ बीस उपवास किये थे। इस विधान की ३-४ जयमालाएँ कु. माधुरी ने टेप में भर दी थीं, सो मैं अभी तक रात्रि में सोेते समय सुनती रहती हूँ। भगवान की माता के १६ स्वप्न और उनके फल, जन्मकल्याणक महोत्सव, आठ प्रातिहार्य आदि का इसमें सुन्दर वर्णन है।
आज दिन में भी बूँदाबाँदी हुई, मौसम ठण्डा रहा। अजमेर से आई बस में स्वरूपचंद कासलीवाल, हेमचंद बड़जात्या आदि पुराने भक्त श्रावक आये, आहार दिया और उपदेश सुना। कुछ सामयिक चर्चायें हुर्इं।
राजस्थान के पुराने भक्त आ जाते हैं, तो उनके प्रति एक अपनापन-सा लगने लगता है। चैत्रवदी एकम् को मेरा सोलहकारण का प्रथम उपवास था। चैत्रवदी दूज को मवाना से श्रीपाल जैन अपने यहाँ सिद्धचक्र विधान पूर्ण करके यहाँ आये, त्रिमूर्ति मंदिर में दूध से बड़ी शांतिधारा की, बहुत ही आनन्द आया पुनः आगे वैशाख में यहाँ इन्द्रध्वज विधान का निर्णय करके गये हैं।
यह इन्द्रध्वज विधान हर एक समस्याओं को सुलझाने के लिए अमोघ उपाय है।
जिनप्रतिमाओं के लिए आदेश
चैत्र वदी ९, दिनाँक २१ मार्च को भगवान ऋषभदेव की जयन्ति थी। चक्रवर्ती भरत का जन्म भी इसी तिथि को हुआ था। यहाँ भरत भगवान की भी प्रतिमा विराजमान है अतः १०८ कलशों से भगवान ऋषभदेव के अभिषेक के साथ ही भरतेश प्रभु का भी अभिषेक कराया गया। रवीन्द्र कुमार इसी दिन दिल्ली होकर जयपुर गये।
वहाँ ह्रीं की चौबीस तीर्थंकरों की मूर्ति के, इन्द्रध्वज मंदिर के मध्यलोक के चार सौ अट्ठावन जिनमंदिरों की ४५८ जिनप्रतिमाओं के एवं यहाँ प्रतिष्ठा में विधिनायक भगवान महावीर की ९ इंची प्रतिमा के आर्डर करके आये हैं। इन जिनप्रतिमा सहित ४५८ जिनमंदिरों का न्योछावर ११११ रुपये रखा गया है।
वास्तव में आज भी जैन समाज में जिनप्रतिमा विराजमान करने का एवं जिनमंदिर बनवाने का बहुत ही चाव है। होना भी चाहिए, शास्त्र में लिखा है कि- ‘‘तीनों कालों और तीनों लोकों में व्रत, ज्ञान, तप और दान के द्वारा मनुष्य के जो पुण्यकर्म संचित होते हैं, वे भावपूर्वक एक प्रतिमा के बनवाने से उत्पन्न हुए पुण्य की बराबरी नहीं कर सकते हैं।’’
गले में दर्द आदि से अस्वस्थता
२१ मार्च से कुछ मौसम की ठण्डी आदि कारणों से मुझे ज्वर आ गया। धीरे-धीरे गले व तालू में बहुत दर्द हो गया। कई दिनों तक रात्रि में खूब सूखी खांसी आई। कमजोरी अधिक हो गई। २४ मार्च को मेरठ से हकीम सेफुद्दीन को बुलाया गया। इन्होंने जुकाम, खांसी के लिए काढ़ा लिख दिया।
प्रतिदिन प्रातः १०० डिग्री बुखार हो जाता था। तालु का दर्द बढ़ता गया, समझ में नहीं आया कि क्या कारण है? तब यहाँ से सूचना पहुँचते ही अमरचंद होमब्रेड, डा. ए.पी. अग्रवाल (आनन्दप्रकाश अग्रवाल) को लेकर आ गये। बात यह है कि डाक्टर की कोई दवा तो साधुओं के काम आती नहीं है।
फिर भी रोग के निर्णय के लिए डाक्टरों को बुलाया जाता है। सन् १९८५ में मेरठ, इंदौर, दिल्ली आदि के पाँच वैद्य यहाँ आये हुए थे, मेरी अतीव मरणासन्न स्थिति में वमन रोकने का इलाज सोच रहे थे और कोई सार नहीं निकल रहा था, उस समय मोतीचन्द, रवीन्द्र कुमार की प्रेरणा से अमरचंद जी इन्हीं डाक्टर को लाये थे और इन्होंने पीलिया रोग का निर्णय दे दिया था, तब अतरसेन जैन वैद्य, दिल्ली वालों का छोटा सा नुस्का कासनी के बीज की ठंडाई का, जो कि ब्र. माधुरी के पास था, उसी से मैं स्वस्थ होकर बैठी हूँं।
तभी से मेरे संघ के साधुओं को इन डाक्टर के प्रति बहुत ही हार्दिक प्रेम है। इस समय भी इन्होंने निर्णय दिया कि जुकाम, खांसी के सिवाय माताजी को कोई बीमारी नहीं है। फिर भी दो-चार दिन तक गले में दर्द घटने के बजाए बढ़ती गई। तब यहाँ के मनोज कुमार जैन ने गले के स्पेशलिस्ट डाक्टर भाटिया को बुलाया, उसने देखकर निर्णय दिया कि ‘‘हिलते हुए दांतों की वजह से तालु में बड़ा सा छाला हो गया है।’’
जब उनका कोई उपचार नहीं सुना गया, तब उन्होंने कहा-‘‘दही से कुल्ले कराओ।’’ बाद में हकीम सेफुद्दीन को पुनः बुलाया गया, उन्होंने भी यही तकलीफ बता कर काढ़ा लिख दिया और कुल्ले के लिए कोई पत्ती दे गये। ये हकीम जी भी फरवरी १९८६ से मेरा उपचार कर रहे हैं बल्कि अब तो ये जंबूद्वीप के तो क्या, हमारे संघ के प्रमुख चिकित्सक बन चुके हैं।
इन्होंने कभी यहाँ आने की फीस नहीं ली है। जबकि ये जल्दी कहीं जाते नहीं हैं। फिर भी यहाँ तो सूचना पाते ही गुरुभक्ति से आ जाते हैं। जब तालु में छाला का निर्णय हो गया, तब उपचार भी सही हो गया।
आचार्य पद की चर्चा
चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज की परंपरा के चतुर्थ पट्टाधीश आचार्यश्री अजितसागर जी महाराज लगभग छह महीने से अस्वस्थ चल रहे हैं। क्षयरोग हो गया है। जनवरी १९९० में रवीन्द्र कुमार उनके दर्शन करके आहार का और प्रवचन का वीडिओ कराकर लाये थे।
१० फरवरी को रवीन्द्र ने मुझे भी यह वीडियो दिखाया। आचार्यश्री को हड्डी का ढांचा सा देखकर बहुत ही दुःख हुआ। छह महीने के अंतर्गत कई बार रवीन्द्र कुमार जी दर्शन करके आये हैं। संघ से आर्यिका जिनमती, ब्र. सूरजमल जी, कु. कला आदि के पत्रों से स्वास्थ्य के समाचार मिलते रहते हैं। इस संदर्भ में अनेक बार मेरे पास यह चर्चा आती ही रहती है कि ‘‘इन आचार्यश्री के बाद इस पाँचवे आचार्यपट्ट के योग्य कौन है?’’ मैंने अपना यही निर्णय दिया है कि- ‘‘इस परंपरा में पांचवे पट्टाचार्य के योग्य आचार्यकल्प श्री श्रेयांससागर जी महाराज हैं।
चूँकि ये वर्तमान में इस परम्परा में मुनिदीक्षा में प्रौढ़ हैं। चारित्र में, तपश्चरण में भी प्रौढ़ हैं तथा उम्र में, ज्ञान में व परम्परा के संरक्षण में भी प्रौढ़ हैं। चारित्रचक्रवर्ती गुरुणांगुरु आचार्यश्री शांतिसागर जी ने भी उपर्युक्त गुणों में प्रौढ़, वयोवृद्ध आचार्यकल्प श्री वीरसागर जी को ही अपना आचार्य पट्ट भेजा था। सन् १९६९ में महावीर जी में भी दीक्षा में बड़े और गंभीरता आदि गुणों में प्रौढ़, ऐसे धर्मसागर जी महाराज को तृतीय पट्टाधीश बनाया गया था और उनके आचार्यत्व में परम्परा का गौरव बढ़ा ही था।
संघ परम्परा के अनेक दिगम्बर मुनि, जैसे कि उपाध्याय श्री अभिनन्दनसागर जी आदि ने भी श्रेयांससागर जी के लिए ही निर्णय दिया है। संघ के अनुभवी सबसे पुराने ब्र. सूरजमल जी प्रतिष्ठाचार्य भी अपनी सूझ-बूझ से हमेशा उचित ही निर्णय देते आये हैं। ये ब्रह्मचारी जी गुरुदेव आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के गणधर और सुपुत्र तथा बायें हाथ कहे जाते थे। अभी इन्होंने मुनि श्री श्रेयांससागर जी महाराज के लिए ही भावी आचार्यपट्ट का निर्णय दिया है।
उनकी सूचना के अनुसार मैंने भी यही अपना निर्णय उन्हें भेज दिया है। मैं तो जिनेन्द्रदेव से प्रतिदिन यही प्रार्थना किया करती हूँ- ‘‘भगवन् ! आचार्यश्री अजितसागर जी महाराज स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करें और चिरकाल तक दीर्घायु होकर धर्मप्रभावना करते रहें। इनके बाद भी चिरकाल तक निर्दोष आचार्य परम्परा चलती रही। यही मेरी भावना है ।’’
रवीन्द्र कुमार यहाँ से २९ मार्च को आचार्यकल्प श्रेयांससागर जी के दर्शनार्थ व आचार्यश्री अजितसागर जी के दर्शनार्थ गये थे पुनः एक अप्रैल को यहाँ आकर उन्होंने बताया कि ‘‘बहुतेक मुनिगण व आर्यिकायें तथा प्रमुख ब्रह्मचारीगण सभी लोग भावी आचार्य के लिए आचार्यकल्प श्री श्रेयांससागर जी का ही निर्णय कर चुके हैं।’’ उचित निर्णय सुनकर प्रसन्नता हुई।
व्रत साधना
इन दिनों मेरा सोलह कारण व्रत चल रहा है। (चैत्र माह १९९० में) यद्यपि व्रतों में एक उपवास एक पारणा करना होता है। मेरी शक्ति न होने से मात्र व्रतों की भावना भाने के लिए ही अथवा साधुपद में प्रतिदिन एकाशन है ही है, इस हेतु से भी मैं माह के प्रथम दिन जैसे चैत्र वदी एकम् को उपवास करके, एक दिन आहार में दो रस और दूसरे दिन (उपवास के दिन) नीरस आहार लेकर पुनः अंत में जैसे वैशाख वदी एकम् को उपवास करके आदि-अंत की प्रतिपदा को उपवास करके यह व्रत करती हूँ।
ये सोलहकारण पर्व वर्ष में तीन बार-भाद्रपद, माघ और चैत्र में आते हैं। मेरा स्वास्थ्य कमजोर रहने से उपवास के लिए संघस्थ चंदनामती आदि बहुत ही रोका करती हैं। सन् १९५६ में चातुर्मास में मैंने गुरुदेव आचार्यश्री वीरसागर जी से कर्मदहन व्रत उपवास करने के लिए माँगा था। तब गुरुदेव बोले थे-‘‘ज्ञानमती! मैंने तुम्हारा जो नाम रखा है, उसी के अनुसार ज्ञान की आराधना में लगी रहो, तुम्हारा शरीर कमजोर है, तुम उपवास आदि में मत पड़ो।’’
फिर भी मैंने बार-बार प्रार्थना की-‘‘महाराज जी! मैं महीने के एक उपवास का अभ्यास करना चाहती हूँ’’ पुनः अति अनुनय-विनय करके मैंने गुरुदेव से छोटा सा व्रत ज्ञान-पचीसी लिया तथा उसमें ग्यारह अंग, चौदह पूर्व के पच्चीस उपवास किये थे। पुनः सन् १९५८ में गिरनार क्षेत्र पर मैंने आचार्य श्री शिवसागर जी से कर्मदहन व्रत लिया था, जिसमें एक सौ अड़तालिस कर्मप्रकृतियों के नाश करने वाले सिद्ध परमेष्ठी की एक-एक जाप्य थीं।
आचार्य महाराज ने मेरे लिए ‘‘एक माह में एक व्रत नहीं भी हो, तो भी चलेगा’’ ऐसी विशेष छूट कर दी थी। इस व्रत को पूर्ण करके मैंने चक्रवाल व्रत लिया था। यह व्रत प्रतिमाह उस महीने के नक्षत्र के दिन ही आता है। लगभग तीन वर्ष में इसे पूर्ण किया पुनः मैंने पंचमेरु के अस्सी (८०) उपवास किये। इस व्रत में पाँच मेरु के ४-४ वनों के २० बेला भी किये जाते हैं। किन्तु मैंने मात्र ८० उपवास किये थे। विधिवत् व्रत न करके (एक भी बेला न करके) किया था। ऐसे ही नंदीश्वरद्वीप के ५२ चैत्यालयों के ५२ उपवास किये थे। इसमें ४ अंजनगिरि के ४ बेले थे।
मैंने बेले के लिए एक उपवास व द्वितीय उपवास में सेव आदि फल का रस ले लिया था। यह व्रत सन् १९८२ में पूरा करके मैंने तीन चौबीसी के ७२ उपवास किये हैं। इस व्रत में सन् १९८५-८६ में अधिक बीमारी होने से महीने में एक नहीं हो सका। मैंने व्रत लेते समय आचार्य श्री शिवसागर जी की आज्ञानुसार महीने में एक अवश्य हो ऐसा बंधन नहीं रखा था।
सन् १९७६ में बृहत्पल्यव्रत किया था, इसमें महीने में कई व्रत आ जाते थे अतः उपवास की शक्ति न होने से मट्ठा लेकर यह व्रत किया था। इसी प्रकार भाद्रपद में भी मैंने पहले रत्नत्रय व्रत लिया था, इसमें सर्वप्रथम श्रवणबेलगोल में मैंने भाद्रपद में तीन उपवास किये थे।
मेरी जन्मभूमि-टिकैतनगर में प्रति भादों में अनेक स्त्री, पुरुष, बालक बालिकाएँ बेला-तेला किया करते थे। मैं खूब ललचाती रहती थी किन्तु शारीरिक कमजोरी से एक उपवास से अधिक कभी सोच ही नहींं पाती थी। दीक्षा के बाद खानिया चातुर्मास में गुरुदेव श्री वीरसागर जी के चरण सानिध्य में मनोबल बढ़ाकर-साहस करके मैंने भादों में बेला (दो उपवास) किये थे, तब निराबाध हो जाने से कई बार तेला (तीन उपवास) करने की इच्छा हुई थी। श्रवणबेलगोल में मौसम अनुकूल देखकर मैंने साहस कर लिया किन्तु तीसरे उपवास में घबराहट बहुत बढ़ गई, तब संघस्थ शिष्यायें कहने लगीं-‘‘अम्मा! आप को शरीर के साथ इतना अन्याय नहीं करना चाहिए। आपका संग्रहणी व्याधि से ग्रसित शरीर है इत्यादि।’’
पुनः मैंने यह रत्नत्रय व्रत वर्ष में भादों, माघ, चैत्र में तीन वर्ष तक किया है। इसमें तेरस-पूर्णिमा को आहार एवं चतुर्दशी का उपवास करके किया है। इसके बाद सन् १९६८ में पंचमेरुव्रत लिया। इसे भी मात्र भादो में पंचमी और नवमी के उपवास व मध्य के तीन दिन आहार करके पांच वर्ष तक यह व्रत सम्पन्न किया है।
पुनः सन् १९७३ में सुगंधदशमी व्रत लेकर, दस वर्ष तक इस दिन उपवास करके यह व्रत पूर्ण किया है। तत्पश्चात् हस्तिनापुर में सन् १९८२ में यह सोलहकारण व्रत लिया था। अभी यही व्रत चल रहा है। बात यह है कि मुझे प्रारंभ से ही व्रत-उपवास करने की खूब रुचि थी किन्तु शक्ति न होने से व्रतों के ग्रंथ ‘हरिवंशपुराण’ ‘मराठी व्रतकथा संग्रह’ आदि पढ़-पढ़कर संतोष किया करती थी और भावना भाया करती थी। आज भी अनेक साधु-साध्वी क्या श्रावक-श्राविका भी ऐसे हैं, जो आठ-आठ, दस-दस उपवास करके भी स्वस्थ रहते हैं। सिद्धान्त के अनुसार उनके स्थिर नामकर्म का उदय ही समझना चाहिए और पूर्व पुण्य भी समझना चाहिए कि जो वे अपनी शक्ति को तत्पश्चरण में लगाते हैं।
फिर भी ऐसा सोचकर ही संतोष कर लेती हूँ कि-‘‘इस पंचमकाल में ऐसे हीन संहनन के शरीर को प्राप्त कर बचपन से ही मैं संयम साधना में लग गई हूँ। त्रैलोक्यपूज्य ऐसे ब्रह्मचर्य को आजन्म ग्रहण करके स्त्री पर्याय में सर्वोत्कृष्ट ऐसी आर्यिका दीक्षा को प्राप्त कर चुकी हूँ। सम्यग्दर्शन से शुद्ध अभीक्ष्णज्ञानोपयोग भावना को भाती रहती हूँ।
तब ही तीव्र रुचि के होते हुए, जितने भी नाममात्र उपवास आदि कर लिये हैं, उनकी भावना ही आगे तपश्चरण की शक्ति प्रदान करेगी क्योंकि मैंने सदा तपस्वी साधुओं की तो प्रशंसा की ही है, तपश्चरण करने वाले श्रावक, श्राविकाओं की भी खूब सराहना की है। उनके साहस को भी बढ़ाया है।
यह सब विशेष पूर्वपुण्य के उदय से ही प्राप्त हुआ है। अब अपनी आत्मा को शक्ति रूप से या निश्चयनय से परमात्मा-भगवान आत्मा सिद्ध स्वरूप समझकर उसको पूर्णशुद्ध करने के उपाय में लगी हुई हूँ। इसलिए मेरे लिए यह पंचमकाल भी और हीन संहनन भी, मोक्षप्राप्ति का साधन होने से उत्तम ही हैं। शास्त्र की एक गाथा याद आती रहती है कि ‘‘अस्थिर शरीर से स्थिर पद, मलिन शरीर से निर्मल आत्मा और कर्मसहित देह से कर्मरहित सिद्ध पद यदि प्राप्त किया जा सकता है, तो इस नश्वर, मलिन, सकर्मा शरीर से वही उपाय करना चाहिए ।’’
रसपरित्याग में अनुभव
मेरे से उपवास प्रायः नहीं हो पाते थे अतः त्याग भावना से प्रेरित हो मैं रस त्याग और अन्न त्याग बहुत किया करती थी। आहार में कभी एकमात्र गेहूँ अन्न लेती थी, तो कई वर्षों तक मात्र चावल ही एक अन्न लिया था। बड़े संघ में इस त्याग से कई बार पानी से रोटी या भात खाकर आना पड़ता था किन्तु यह बात मैं किसी को कहती नहीं थी। अभी भी मैं मात्र दो अन्न ही लेती हूँ। रस त्याग में दीक्षा के बाद मीठा तो बहुत ही कम लिया है।
सन् १९५७ में गुरुदेव आचार्य श्री वीरसागर जी की समाधि के बाद उनकी स्मृति में जीवन भर के लिए गुड़, शक्कर का त्याग कर दिया था। दही और तेल भी छोड़ दिया था। आचार्य महावीरकीर्ति जी महाराज ने कई बार कहा था कि-‘‘त्याग की वस्तु को बीमारी में व पथ्य में खुला रखना चाहिए।’’ पुनः सम्मेदशिखर में सन् १९६३ से मैंने नमक नहीं लिया था। इससे पूर्व भी मैं प्रायः वर्ष में ४-६ महीने का नमक त्याग कर ही दिया करती थी।
फल और सब्जी में भी १०-१२ वर्ष तक मात्र मैं सेब, अनार और केला व सब्जी में परवल और कच्चा केला ही लेती थी। १० वर्ष से प्रायः घी का त्याग ही चल रहा है, कभी महीने, दो महीने में एक बार लेती हूँ। सन् १९८५-८६ की लम्बी बीमारी में डाक्टरों, वैद्यों व हकीम ने यही कहा कि ‘‘माताजी ने घी, नमक, मीठा आदि त्याग करके तथा नीरस भोजन व अर्धपेट भोजन करके अपने शरीर के साथ बहुत अन्याय किया है।
अब इनके शरीर में नमक, शक्कर, कैल्शियम आदि तत्वों की बहुत ही कमी हो गई है, इत्यादि ।’’ यह सब सुनकर हमारी डायरी से त्याग की विधि को पढ़कर हमारे शिष्य-शिष्याओं ने हमें आहार में नमक लेने को बाध्य कर दिया। बोले-‘‘माताजी! आपने बीमारी के समय औषधि व पथ्य में नमक खुला रखा हुआ है, सो भला इससे अधिक बीमारी और क्या आयेगी? ’’
आज भी मैं जब कभी नमक छोड़ देती हूँ तो प्रायः नजला आदि रोग कुपित हो जाते हैं अतः हकीम जी की प्रेरणा और शिष्यों के आग्रह विशेष से मुझे नमक लेना पड़ रहा है। अब मैं सोचा करती हूूँ-‘‘अनगार धर्मामृत आदि ग्रंथों में लिखा है कि शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप-शक्ति के अनुसार ही त्याग और तपश्चरण करना चाहिए किन्तु ‘सर्वशक्त्या वैयावृत्यं’ साधु आदि की वैयावृत्ति करने में सर्वशक्ति लगा देनी चाहिए’’
अतः इसी वाक्य के अनुसार अपने शिष्य-शिष्याओं को मैं अधिक रस परित्याग, अधिक उपवास आदि नहीं देती हूूँ और यही कहा करती हूँ कि ‘‘तुम लोगों ने परिग्रह आदि छोड़ा है, यही बहुत बड़ा त्याग है और फिर चौबीस घण्टों में मात्र एक बार आहार, वह भी निरन्तराय मिल गया तो ठीक है अतः अच्छी तरह से स्वास्थ्य की रक्षा करते हुए ही रसादि छोड़ना चाहिए तथा जीवन भर के लिए तो मैं अब अपने शिष्यों को कोई भी रस या अन्न या फलादि नहीं छोड़ने देती हूँ। अब मैं यह अपना अनुभव ज्ञान अपने शिष्य परिकरों को भी सुनाया करती हूँ।
फिर भी सर्वथा एकांत नहीं लेना चाहिए, मेरा तो यह दृढ़ श्रद्धान रहा है कि रसादि त्याग करने से आत्मिक शक्ति अवश्य बढ़ती है। आदि पुराण में एक श्लोक आया है-
‘‘रसत्यागप्रतिज्ञस्य रसऋद्धिरभून्मुनेः।’’
रस त्याग करने वाले मुनि के रस ऋद्धियाँ प्रगट हो जाती हैं। अभी चंदनामती को आहार में भक्त लोग हलुआ, खीर आदि लेने का विशेष आग्रह करते हैं, तब वे आहार के बाद आकर घबराने लगती हैं, कहती हैं-माताजी! मुझे नीरस भोजन से शांति रहती है
घी दूध आदि लेने से प्रायः घबराहट हो जाती है, तो मैं यही कहा करती हूँ कि-‘‘ठीक है, तुम नीरस भोजन लेवो अच्छा है, जो पचेगा उसी से शक्ति आयेगी, देखो! मैंने रूखा, सूखा नीरस आदि आहार करके भी अपने दीक्षित जीवन के अड़तीस वर्षों में दशों हजार मील की पदयात्रा कर ली है और पठन-पाठन व ग्रंथ लेखन आदि के इतने कार्य कर लिये हैे इसलिए श्रावकों के कहने पर लक्ष्य न देकर अपने स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखो तथा भोजन में रसों की लंपटता-गृद्धि कभी मत रखो इत्यादि।
मेयर एवं सभासदों के लिए
५ अप्रैल को मेरठ से उत्तर-प्रदेश की नगरपालिकाओं के अध्यक्ष, सदस्य व मेयरों के होने वाले सम्मेलन में भाग लेने के लिए आये महानुभावों में से यहाँ दर्शनार्थ अनेक लोग आये। जंबूद्वीप देखकर प्रसन्न हुए।
उन्हें क्षुल्लक मोतीसागर जी ने जंबूद्वीप क्या है? जैन साधु-साध्वियों की चर्या क्या है? मनुष्यों के कर्तव्य क्या हैं? इस पर अच्छा प्रवचन दिया पुनः मैंने कहा कि-‘‘आप लोग सदाचार से अपने जीवन को आदर्श बनाते हुए अहिंसा आदि धर्म के बल पर परलोक की सिद्धि करो इत्यादि।’’
पुनः‘ॐ नमः’ मंत्र की महिमा बतलाकर सभी को यह लघु मंत्र होते हुए भी अतिशायि मंत्र प्रदान किया। महिने में अनेक बार यहाँ बालक, बालिकाओं के समूह या एन.सी.सी. आदि के कैप पुलिस विभाग के या मिलेट्री के लोगों को उपदेश देने के अवसर आते हैं। व्यक्तिगत भी अनेक राजनैतिक या प्रबुद्ध परिवार आते रहते हैं।
इन लोगों को अहिंसा प्रधान उपदेश सुनाकर मैं प्रायः अधिकांश लोगों को मांस, अण्डे व शराब का त्याग कराती रहती हूँ। कोई-कोई तो सहज ही छोड़ देते हैं और कुछ लोगों को इन वस्तुओं के छुड़ाने में अधिक प्रयास करना पड़ता है, फिर भी अभक्ष्य भक्षण का त्याग कर देने से मन में प्रसन्नता हो जाती है।
ऐसा लगता है कि-‘‘इन लोगों ने महानतीर्थ हस्तिनापुर के व गुरु के दर्शन का फल प्राप्त कर लिया है।’’ यदि त्याग निभा लेंगे, तो इस भव में भी सुख,शांति व समृद्धि को पायेंगे और परलोक में दुर्गति में जाने से अवश्य ही बच जायेंगे।
मृत्युंजय विधान
बात यह है कि ‘‘शास़्त्रों में अकालमृत्यु को टालने व असाध्य रोग को दूर करने के लिए अनेक धर्मानुष्ठान माने गये हैं। पोदनपुर के राजा विजय अपनी मृत्यु का योग जानकर सर्वराज्य त्यागकर मंदिर में विधानानुष्ठान में लग गये, उनकी अकालमृत्यु टल गई। यह कथा उत्तर-पुराण में वर्णित है।
मैनासुन्दरी ने अपने पति और ७०० कुष्ट रोगियों के रोग को दूर करने के लिए सिद्धचक्र विधान का अनुष्ठान किया था। मेरे पास कई लोग ज्योतिषी के कहे अनुसार पुत्रादि के मृत्युयोग की समस्या लेकर आये और मैंने उन्हें मृत्युंजय के यंत्र-मंत्र आदि बताये हैं, जिससे उनके पुत्रादि दीर्घायु हुए हैं।
औषधि आदि भी सफल देखी जाती है, अन्यथा चिकित्सा शास्त्र, औषधालय आदि व्यर्थ हो जायेंगे। श्लोकवार्तिकालंकार जैसे महाग्रंथ में भी लिखा है कि- ‘‘अंतरंग में असातावेदनीय का उदय होने पर और बहिरंग में वात आदि विकार के होने पर दुःख-रोग होता है, उस समय उसके विरोधी औषधि का उपयोग करने पर दुःख-रोगादि का अभाव हो जाने से उसका उपचार हो जाता है।