प्रश्न—योग किसे कहते हैं ?
उत्तर—पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव की जो कर्मों के ग्रहण करने की कारणभूत शक्ति है उसको योग कहते हैं अर्थात् आत्मा की अनंत शक्तियों में से एक योग शक्ति भी है, उसके दो भेद हैं—भावयोग और द्रव्ययोग। कर्मों को ग्रहण करने में कारणभूत जीव की शक्ति भावयोग और जीव के प्रदेशों का परिस्पंदन द्रव्ययोग है।
प्रश्न—योग के कितने भेद हैं ?
उत्तर—सत्य, असत्य, उभय और अनुभय के निमित्त से चार मन के और चार वचन के ऐसे आठ योग हुए और औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियक, वैक्रियक मिश्र, आहारक, आहारक मिश्र और कार्मण ऐसे सात काय के ऐसे मन, वचन, काय संबंधी पंद्रह योग होते हैं।
सत्य के दश भेद हैं— जनपद—जो व्यवहार में रूढ़ हों जैसे—भक्त, भात, चोरु आदि, सम्मति सत्य जैसे—साधारण स्त्री को देवी कहना, स्थापना—प्रतिमा को चंद्रप्रभ कहना, नाम—जिनदत्त कहना, रूपसत्य—बगुले को सपेâद कहना, प्रतीत्यसत्य—बेल को बड़ा कहना, व्यवहार—सामग्री संचय करते समय भात पकाता हूँ, ऐसा कहना, सम्भावना—इंद्र जम्बूद्वीप को पलट सकता है ऐसा कहना। भावसत्य—शुष्क पक्व आदि को प्रासुक कहना, उपमा सत्य—पल्योपम आदि से प्रमाण बताना। ये दस प्रकार के सत्य वचन हैं। इनसे विपरीत असत्य वचन हैं। जिनमें दोनों मिश्र हों वे उभय वचन हैं एवं जो न सत्य हों न मृषा हों वे अनुभव वचन हैं।
अनुभय वचन के नव भेद हैं— आमंत्रणी—यहाँ आओ, आज्ञापनी—यह काम करो, याचनी—यह मुझको दो, आपृच्छनी—यह क्या है? प्रज्ञापनी—मैं क्या करूँ? प्रत्याख्यानी—मैं यह छोड़ता हूँ, संशयवचनी—यह बलाका है या पताका, इच्छानुलोम्नी—मुझको ऐसा होना चाहिए और अनक्षरगता—जिसमें अक्षर स्पष्ट न हों, क्योंकि इनके सुनने से व्यक्त और अव्यक्त दोनों अंशों का ज्ञान होता है। द्वीन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय तक अनक्षर भाषा है और सैनी पंचेन्द्रिय की आमंत्रणी आदि भाषाएँ होती हैं। केवली भगवान के सत्य मनोयोग, अनुभय मनोयोग, सत्यवचनयोग, अनुभयवचनयोग, औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मण ये सात योग होते हैं। शेष संसारी जीवों में यथासम्भव योग होते हैं। चौदहवें गुणस्थान में योगरहित अयोगी होते हैं।
औदारिक, औदारिक मिश्रयोग तिर्यंच व मनुष्यों के होते हैं। वैक्रियक मिश्र देव तथा नारकियों के होते हैं। आहारक, आहारक मिश्र छट्ठे गुणस्थानवर्ती मुनि के ही कदाचित् किन्हीं के हो सकता है। प्रमत्तविरत मुनि को किसी सूक्ष्म विषय में शंका होने पर या अकृत्रिम जिनालय की वंदना के लिए असंयम के परिहार करने हेतु आहारक पुतला निकलता है और यहाँ पर केवली के अभाव में अन्य क्षेत्र मेें केवली या श्रुतकेवली के निकट जाकर आता है और मुनि को समाधान हो जाता है। आहारक ऋद्धि और विक्रियाऋद्धि का कार्य एक साथ नहीं हो सकता है, बादर अग्निकायिक, वायुकायिक और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के भी विक्रिया हो सकती है। देव, भोगभूमिज, चक्रवर्ती पृथक विक्रिया से शरीर आदि बना लेते हैं किन्तु नारकियों में अपृथक विक्रिया ही है। वे अपने शरीर को ही आयुध, पशु आदि रूप बनाया करते हैं। देव मूल शरीर को वहीं स्थान पर छोड़कर विक्रिया शरीर से ही जन्मकल्याणक आदि में आते हैं, मूल शरीर से कभी नहीं आते हैं। कार्मणयोग विग्रहगति में एक, दो या तीन समय तक होता है और समुद्घात केवली के होता है। जो योग रहित, अयोगीजिन अनुपम और अनंत बल से युक्त हैं वे अ इ उ ऋ ऌ इन पंच ह्रस्व अक्षर के उच्चारण मात्र काल में सिद्ध होने वाले हैं, उन्हेें मेरा नमस्कार होवे।