सा मे चित्ते सदा तिष्ठेत्, वाणीं च विमलीक्रियात्।।२।।
सिद्धं जैनं प्रकृष्टत्वाद् वच: प्रवचनाभिधम्।
तन्मे चित्ते सदा स्थेयात्, सत्पथं चापि निर्दिशेत्।।३।।
उपदिश्यु: जनान् सन्त:, आनुपूव्र्या ह्यतो मया।
तेषां प्रवचनस्यैषा, निर्देशिका प्रवक्ष्यते।।४।।
अर्हंत भगवान सर्वज्ञ हैं, वीतरागी हैं और मोक्षमार्ग के उपदेष्टा हैं। मैं उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ वे मेरे मनोरथ को सफल करें। अर्हंत भगवान की जो दिव्यवाणी स्याद्वाद रूपी अमृत से सहित है, वह मेरे हृदय में सदा स्थित रहे और मेरे वचनों को विमल-निर्दोष करे।।१-२।। जिनेन्द्र भगवान के वचन प्रकृष्ट-सर्वश्रेष्ठ होने से प्रवचन इस नाम से सिद्ध हैं। वे वचन सदैव मेरे हृदय में स्थित रहें और मुझे सत्पथ का निर्देश करें।।३।। सज्जन लोग गुरु परम्परा से लोगों को उपदेश देवेें अत: उन विद्वानों के लिए यह प्रवचन की ‘‘निर्देशिका’’ मेरे द्वारा कही जायेगी।।४।।
(१) प्रवचन पद्धति
प्रवचनकर्ता विद्वान् को पहले निम्नलिखित चार बातों को समझ लेना अति आवश्यक है-प्रवचनकर्ता, प्रवचन का विषय, प्रवचन और प्रवचन का फल। अर्थात् प्रवचनकर्ता कैसा होना चाहिए ? उसमें क्या-क्या गुण आवश्यक हैं ? प्रवचन का विषय क्या है ? प्रवचन किसे कहते हैं ? और प्रवचन का फल क्या है ? इन चारों को समझकर प्रवचन करने वाला विद्वान् स्वपर हितकारी होता है।
१.प्रवचनकर्ता रत्नत्रय से विभूषित आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन प्रकार के दिगम्बर मुनि ही मुख्य रूप से प्रवचनकर्ता होते हैं, किन्तु गौण रूप से विद्वान् श्रावक भी हो सकते हैं। श्री गुणभद्र सूरि ने प्रवक्ता आचार्य के गुणों का वर्णन बहुत ही सुंदर किया है-प्राज्ञ: प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदय: प्रव्यक्तलोकस्थिति:, प्रास्ताश: प्रतिभापर: प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तर:। प्राय: प्रश्नसह: प्रभु: परमनोहारी परानिंदया, ब्रूयाद् धर्मकथां गणी गुणनिधि: प्रस्पष्टमिष्टाक्षर:।।५।।
अर्थ- बुद्धिमान्, समस्त शास्त्रों के रहस्य का ज्ञाता, लोक व्यवहार से परिचित, आशारहित, प्रतिभावान्, शांतचित्त, पहले ही उत्तर को देखकर रखने वाला, प्राय: प्रश्नों को सहन करने वाला, प्रभावशाली, पर को मनोज्ञ, पर की निंदा नहीं करने वाला, स्पष्ट और मधुर वचन बोलने वाला तथा गुणों का निधान ऐसा आचार्य धर्म का उपदेश देता है। इस श्लोक में धर्मोपदेशक आचार्य के प्रमुख १२ गुण माने गये हैं। ये ही गुण विद्वान्, प्रवक्ता में भी होने चाहिए। यद्यपि इन सामान्य गुणों में सभी विशेष गुण अंतर्भूत हो जाते हैं तो भी वर्तमान की स्थिति के अनुसार वक्ता के कुछ आवश्यक गुणों का चयन निम्नानुसार है-
आवश्यक गुण
१. प्रवचनकर्ता विद्वान् को सच्चे देव, शास्त्र और गुरु पर दृढ़ श्रद्धान होना चाहिये।
२. चारों अनुयोगों का स्वाध्याय करके उनका तलस्पर्शी ज्ञान होना चाहिये।
३.कम से कम पाँच अणुव्रतों का पालन, सप्त व्यसन, रात्रि भोजन और अभक्ष्यभक्षण का त्याग अवश्य होना चाहिए। पर्व के दिनों में शुद्ध भोजन करने वाला तथा कुलीन और शीलवान होना चाहिये।
४.नित्य ही देव पूजा, गुरुभक्ति आदि करने वाला होना चाहिए। कम से कम देवदर्शन का नियम तो अवश्य ही होना चाहिये।
५.स्वाध्यायप्रेमी, शांतचित्त और गम्भीर हो्नाा चाहिये।
६.पूर्वाचार्यों के ग्रंथों को साक्षात् भगवान की वाणी बताते हुये उन ग्रंथों के प्रति व उनके रचयिता आचार्यों के प्रति सभा में श्रद्धा का स्रोत प्रवाहित कर देना चाहिए।
७. चारित्र की दुर्लभता और उपादेयता का वर्णन करते हुए वर्तमान के चारित्रधारी त्यागी-व्रती के प्रति श्रद्धालु बनाते हुये श्रावकों को उनकी भक्ति करने की व शक्त्यनुसार देशचारित्र ग्रहण करने की प्रेरणा देनी चाहिए।
८. निश्चयनय और व्यवहारनय के विषय को सही समझाकर व्यवहार कहाँ तक उपादेय है और निश्चय कहाँ से प्रारंभ होता है ? इस पर विशद प्रकाश डालना चाहिये।
९. ‘मैं एक भी शब्द यदि आगम के विरुद्ध बोल दूँगा, तो निगोद का भागी हो जाऊँगा, ऐसे भय से सहित होकर जिनेन्द्रदेव की आज्ञा के भंग से सदैव डरते रहना चाहिये।
१०. किसी के दबाव से या ख्याति, लाभ, पूजादि की लालसा से कभी भी आगम विरुद्ध प्रतिपादन नहीं करना चाहिये और न आगम विरुद्ध कथन का समर्थन ही करना चाहिये।
११. उपदेश की सभा में प्रश्नोत्तर न रखकर उससे अतिरिक्त समय में प्रश्नों के लिये समय देना चाहिये क्योंकि सभा के मध्य प्रश्नोत्तर से उपदेश का क्रम भंग हो जाता है।
१२.यदि कदाचित् सभा में प्रश्न आ भी जावें तो शांति से उनका आगम के अनुकूल उत्तर देना चाहिये। कैसे ही प्रश्न क्यों न हों, किन्तु उत्तेजित नहीं होना चाहिये। शांति से यदि समस्या न सुलझे तो मौनपूर्वक सभा विसर्जित कर देनी चाहिये। पुन: वार्तालाप करना चाहिये, किन्तु उपदेश की गद्दी से अतिचर्चा या विसंवाद नहीं करना चाहिए।
१३.उपदेश में ग्राम्य, अश्लील या हल्के शब्दोें का तथा ऐसे ही हीन उदाहरणों का प्रयोग नहीं करना चाहिये।
१४.उपदेश में उदाहरण प्राय: अपने प्रथमानुयोग से ही लेना चाहिये। इससे श्रोताओं को अपने सही इतिहास का ज्ञान भी हो जाता है और प्रामाणिकता भी रहती है। यदि कदाचित् अन्य कोई श्वेताम्बर कथायें या अन्य सम्प्रदाय की कथायें कहें भी तो उन्हें स्पष्ट कर देना चाहिये कि यह कथा श्वेताम्बर मत के आधार से है अथवा अन्य सम्प्रदाय की है।
१५. तेरहपंथ-बीसपंथ की चर्चा उपदेश में नहीं लाना चाहिये। यदि कोई समझना चाहता है तो उसे पृथक् से आगम के प्रमाण दिखा देना चाहिये। चूँकि इस पंथभेद का उल्लेख आगम में तो है नहीं, वर्तमान में मात्र यह पूजन पद्धति से ही संबंध रखता है। अत: इस विषय को सभा में मुख्य नहीं करना चाहिये।
१६. सभा में श्रीमन्तों आदि के बार-बार नाम नहीं लेना चाहिए, प्राय: इससे पक्षपात का वातावरण बन जाता है।
१७.वर्तमान के विवादास्पद विषयों में किसी का व्यक्तिगत नाम लेकर उसकी निंदा सभा में नहीं करनी चाहिये। किसी के प्रति आक्षेप, किसी की भत्र्सना या आलोचना सभा में नहीं करना चाहिये।
१८.उपदेश करते समय भौहें नहीं चलाना चाहिए, न उँगलियाँ चटकाना चाहिये। गंभीर मुद्रा में बैठकर या खड़े होकर न अति उच्च और न अति धीमे किन्तु मध्यम स्वर से मधुर शब्दों में उपदेश करना चाहिये। कदाचित् बड़ी सभा में उच्च स्वर से भी बोलना पड़े तो बोल सकते हैं किन्तु शब्दों में कर्कषता (कठोरता) नहीं होनी चाहिये।
१९.शुभभाव कब छूटते हैं ? किस नय से या किस गुणस्थान में वे हेय हैं ? श्रावकों का कर्तव्य क्या है ? इन विषयों पर स्पष्ट विवेचन करना चाहिये।
२०. सार्वजनिक सभाओं में मद्य, माँस, मधु त्याग, सप्त व्यसन त्याग, अहिंसा का पालन और पाँच अणुव्रत ग्रहण आदि का उपदेश प्रधान रखना चाहिये। सम्यक्त्व व मिथ्यात्व की चर्चा गौण रखनी चाहिए।
२१.उपदेश के विषय का चयन प्राय: श्रोताओं की योग्यता के अनुरूप होना चाहिये, उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं।
२. प्रवचन का विषय
जिनेन्द्रदेव की वाणी ही प्रवचन का विषय है। अत: कम से कम निम्नलिखित ग्रंथों का स्वाध्याय प्रवचनकत्र्ता को अवश्य ही होना चाहिए।
२. करणानुयोग में- जैन ज्योतिर्लोक, त्रिलोकभास्कर, जम्बूद्वीप, गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, पंचसंग्रह आदि। यदि लब्धिसार, त्रिलोकसार, जम्बू़द्वीपपण्णत्ति, तिलोयपण्णत्ति, धवला, जयधवला, महाबंध आदि ग्रंथ भी पढ़ लेवें तो विशेषता ही रहेगी।
३. चरणानुयोग में- रत्नकरण्ड श्रावकाचार, वसुनंदि श्रावकाचार, उमास्वामी श्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, सागारधर्मामृत, भावसंग्रह, आत्मानुशासन, पद्मनंदिपंचिंवशतिका आदि आवश्यक हैं। पुन: हो सके तो मुद्रित हुए सभी श्रावकाचार, मूलाचार, अनगार धर्मामृत, भगवती आराधना आदि भी पढ़ लेवें।
४. द्रव्यानुयोग में- द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र, बृहद्द्रव्यसंग्रह, सर्वार्थसिद्धि, समाधिशतक, आलापपद्धति, नयचक्र, सप्तभंगीतरंगिणी, परमात्मप्रकाश, नियमसार, प्रवचनसार, समयसार आदि ग्रंथों को क्रम से पढ़ना चाहिए। इन ग्रंथों में से किसी भी ग्रंथ को प्रवचन का विषय बनाना चाहिए। जिस ग्रंथ पर प्रवचन करना है उसे पुन: एक बार आद्योपांत पढ़ लेना चाहिए। यदि अकस्मात् बीच में से किसी विषय पर बोलना है तो भी इन्हीं के आधार से कोई विषय लेना चाहिए। आचार्य कुंदकुंद के ग्रंथों का व उनके पूर्ववर्ती आचार्य गुणधर, यतिवृषभ, पुष्पदंत और भूतबली के ग्रंथों के भी प्रमाण उद्धृत करके बोलना चाहिए तथा कुंदकुंददेव के उत्तरवर्ती आचार्य उमास्वामी, समंतभद्र, अमृतचंद्रसूरि आदि के वचन भी प्रस्तुत करना चाहिए। चूँकि आर्षवाणी ही प्रवचन का विषय है।
३. प्रवचन
रत्नत्रय का उपदेश देना या उनसे संबंधित महापुरुषों का इतिहास सुनाना, जीवादि सात तत्त्व का विवेचन करना, आत्मा के-बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्मा आदि भेदों को कहना, इसका नाम प्रवचन है।
४. प्रवचन का फल
प्रवचन सुनकर श्रोता मिथ्यात्व, असंयम, प्रमाद और कषाय से डरकर उनसे यथाशक्ति हटकर मोक्षमार्ग में-सम्यक्त्व, संयम और समभाव में प्रवृत्त हो जावे यही प्रवचन का फल है। इसी फल के साक्षात् और परम्परा ऐसे दो भेद हो जाते हैं।
१. साक्षात् फल
(क) वक्ता का उपदेश ऐसा होना चाहिए कि श्रोतागण मिथ्यात्व को छोड़कर देव, शास्त्र, गुरु के परम भक्त बन जावें। उनमें पूज्य पुरुषों के प्रति आदरभाव और [[विनय]] प्रवृत्ति आ जावे तथा उद्दंड व अनर्गल प्रवृत्ति छूट जावे।
(ख) वर्तमान के उपलब्ध जिनागम के प्रति अकाट्य श्रद्धा व वर्तमान के साधुवर्गों के प्रति असीम भक्ति उमड़ आवे।
(ग) शक्त्यनुसार चारित्र ग्रहण करने में प्रवृत्त हो जावें। अन्याय, अभक्ष्य और दुव्र्यसनों को छोड़ देवें तथा देवपूजा, आहारदान, स्वाध्याय आदि आवश्यक क्रियाओं में प्रमाद छोड़कर तत्पर हो जावें।
२. परम्परा फल—
व्यवहाराभास और निश्चयाभास क्या है ? पूर्वोक्त प्रकार से प्रवचनकत्र्ता आदि चार बातों को संक्षेप से कहा गया है। उसी प्रकार से व्यवहाराभासी-निश्चयाभासी के लक्षण भी समझ लेना चाहिए। प्रवचन का परम्परा फल स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त कर लेना ही है। व्यवहाराभासी जो मुनि या श्रावक व्यवहार चारित्र का पालन करते हैं, अपनी छह आवश्यक क्रियाओं में तत्पर रहते हैं वे व्यवहाराभासी हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनको आत्मतत्त्व का श्रद्धान नहीं है अथवा वे निश्चयनय या शुद्धात्म तत्त्व को उपादेय नहीं समझते हैं ऐसा भी नहीं माना जा सकता है। चूँकि किसी के अंतरंग का निर्णय करना बहुत ही कठिन है, यह बात तो सर्वज्ञगम्य ही है। तत्त्ववेत्ता आत्त्मज्ञानी और तत्त्वशून्य दोनों की बाह्य चर्या समान भी देखने को मिल सकती हैं। हाँ! जो ख्याति, लाभ या प्रतिष्ठा के लिए ही चारित्र ग्रहण करते हैं अथवा यह व्यवहार चारित्र परम्परा से मोक्ष का कारण है ऐसा न समझकर साक्षात् इसी को मोक्ष का कारण मान लेते हैं, आत्मज्ञान से सर्वथा पराङ्मुख हैं, वे व्यवहाराभासी हैं। निश्चयाभासी जो परिग्रह और भोगों में आसक्त रहते हुए भी अपनी आत्मा को सर्वथा शुद्ध, सिद्धस्वरूप मानते हैं, चारित्र से पराङ्मुख हैं और चारित्रधारी मुनि, आर्यिका आदि की मखौल उड़ाते हैं, उन्हें आत्मज्ञान से शून्य, द्रव्यवेषी, पाखण्डी व क्रियाकाण्डी कहते हैं। सदा गर्व से उन्मत्त रहते हैं, त्यागी पुरुषों को देखकर उनका अनादर व अपमान करते हैं, उनकी निंदा करते हैं, उनके चारित्र को सर्वथा सदोष ही समझते हैं और स्वयं चारित्र धारण करते नहीं हैं, ऐसे लोग ही निश्चयाभासी हैं। प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में निश्चय और व्यवहार का समन्वय करके इन एकांत दुराग्रहों को जलांजलि दे देनी चाहिए। चूँकि ये निश्चयाभास अथवा व्यवहाराभास अपनी आत्मा के ही घातक हैं। इस प्रकार इस पुस्तक में प्रवचनकत्र्ता को संक्षेप में मार्गदर्शन दिया गया है। जिसका उद्देश्य केवल वर्तमान के संघर्ष को दूर कर श्रोताओं का सही मार्ग प्रदर्शन करना ही है। प्रत्येक विद्वान् दुराग्रह को छोड़कर आगम के आधार से सही तत्त्व का प्रतिपादन करके मोक्षमार्ग को अक्षुण्ण बनाते रहें, ऐसी मेरी भावना है। (इस प्रकार प्रवचन पद्धति को कहने वाला यह प्रथम परिच्छेद पूर्ण हुआ।)