सिद्धान्तचिंतामणिटीका-‘जे ते बंधगा णाम’ ये ते बंधकाः कर्मबंध सहिताः ते संसारिणो जीवाः नाम इति वचनं बंधकानां जीवानां पूर्वप्रसिद्धत्वं सूचयति। पूर्वं कस्मिन् प्रसिद्धे बंधके सूचयति ? महाकर्मप्रकृतिप्राभृतग्रन्थे सूचयति। तद्यथा—महाकर्मप्रकृतिप्राभृतस्य कृतिवेदनादिचतुर्विंशतिअनुयोगद्वारेषु षष्ठस्य बंधनानियोगद्वारस्य बंधः बंधकः बंधनीयं बंधविधानमिति चत्वारोऽधिकाराः कथिताः। तेषु चतुर्षु ‘बंधकः’ इति यः द्वितीयोऽधिकारः स एतेन वचनेन सूचितोऽस्ति। ये ते महाकर्मप्रकृति प्राभृते बंधकाः निर्दिष्टाः तेषामयं निर्देशो ज्ञातव्यः इत्यत्र उक्तं भवति। बंधकाः नाम जीवाश्चैव, अजीवस्य मिथ्यात्वादिप्रत्ययैः त्यक्तस्य रहितस्य बंधकत्वानुपपत्तेः। कश्चिदाह-ते च बंधकाः जीवाः जीवस्थाने चतुर्दशगुणस्थानविशिष्टाः, चतुर्दशमार्गणास्थानेषु सत्संख्यादि-अष्टानुयोगद्वारैः मार्गिताः। संप्रति तेषामेव जीवानां सत्त्वादिना अवगतानां पुनरपि प्ररूपणायां क्रियमाणायां पुनरुक्तदोषः आगच्छति इति चेत् ? पुनरुक्तदोष आगच्छति यदि तेषां जीवानां तैरेव गुणस्थानैः विशेषितानां चतुर्दशसु मार्गणास्थानेषु तैश्चैवाष्टभिरनियोगद्वारैः मार्गणा क्रियेत्, किन्तु नैतत् अत्र तु चतुर्दशगुणस्थान-विशेषणमपनीय चतुर्दशसु मार्गणास्थानेषु एकादशानुयोगद्वारैः पूर्वोक्तजीवानां प्ररूपणा क्रियते, तेन पुनरुक्तदोषो नागच्छति इति ज्ञातव्यं। जीवस्थाने कृतप्ररूपणायाश्चैव अत्र प्ररूप्यमाणोऽर्थः येन ज्ञायते तेन अस्याः प्ररूपणाया न किञ्चित् फलं पश्यामो वयम् ? नैतद् वक्तव्यं, मार्गणास्थानेषु चतुर्दशगुणस्थानानां सदादिप्ररूपणायाः मार्गणास्थानविशेषितजीव-प्ररूपणायाः एकत्वानुपलम्भात्। यदि तत्प्ररूपणया अस्याः प्ररूपणायाः एकत्वमस्ति तर्हि अवगम्येत, किन्तु न चैकत्वं दृश्यते। अथवा एतेन क्रमेण स्थितद्रव्यादि-अनुयोगद्वाराणि गृहीत्वा जीवस्थानं कृतमिति ज्ञापनार्थं बंधकानां प्ररूपणा आगता। तस्मात् बंधकानां प्ररूपणा न्यायप्राप्ता इति। चतुर्विधबंधकानां कथनं-नामबंधकाः स्थापनाबंधकाः द्रव्यबंधकाः भावबंधकाश्चेति चतुर्विधाः बंधकाः भणिताः। तत्र नामबंधकाः ‘बंधकः’ इति शब्द: जीवाजीवादिअष्टभंगेषु प्रवर्तितः। एषः नामनिक्षेपः द्रव्यार्थिकनयमवलम्ब्य स्थितः। नाम्नः सामान्ये प्रवृत्तिदर्शनात् दृष्टानन्तरसमये नष्टपदार्थेषु संकेतग्रहणानुपपत्तेः। काष्ठ-पोत-लेप्यकर्मादिषु सद्भावासद्भावभेदेन ये स्थापिता बंधकाः इति ते स्थापनाबंधकाः नाम। एष निक्षेपः द्रव्यार्थिकनयमवलंब्य स्थितः। ‘स एषः’ इत्येतदध्यवसायेन विना स्थापनाया अनुपपत्तेः। ये ते द्रव्यबंधका नाम ते द्विविधाः आगमनोआगमभेदेन। बंधकप्राभृतज्ञायकाः अनुपयुक्ताः आगम-द्रव्यबंधकाः नाम। आगमेन विप्रमुक्तस्य जीवद्रव्यस्य आगमव्यपदेशः कथम् ? नैष दोषः, आगमाभावेऽपि आगमसंस्कारसहितस्य पूर्वं लब्धागमव्यपदेशस्य जीवद्रव्यस्य आगमव्यप-देशोपलंभात्। एतेनैव भृष्ट संस्कारजीवद्रव्यस्यापि ग्रहणं कर्तव्यं, तत्रापि आगमव्यपदेशोपलंभात्। नोआगमात् द्रव्यबंधकाः त्रिविधाः-ज्ञायकशरीर-भावि-तद्व्यतिरिक्तबंधकभेदेन। ज्ञायकशरीर-भाविद्रव्यबंधकाः सुगमाः। तद्व्यतिरिक्तद्रव्यबंधकाः द्विविधाः-कर्मबंधका नोकर्मबंधकाश्चेति तत्र ये नोकर्मबंधकास्ते त्रिविधाः—सचित्तनोकर्मद्रव्यबंधकाः अचित्तनोकर्मद्रव्यबंधकाः मिश्रनोकर्मद्रव्यबंधकाश्चेति। तत्र सचित्तनोकर्मद्रव्यबंधका: यथा हस्तिनां बंधका: अश्वानां बंधका इत्येवमादय:। अचित्तनोकर्मद्रव्यकर्मबंधका: यथा काष्ठानां बंधकाः सूर्पाणां बंधकाः कटकानां बंधकाः इत्येवमादयः। मिश्रनोकर्मद्रव्यकर्मबंधकाः यथा साभरणानां हस्तिनां बंधकाः इत्येवमादयः। ये कर्मबंधकास्ते द्विविधाः-ईर्यापथकर्मबंधकाः सांपरायिककर्मबंधकाश्च। तत्र ये ईर्यापथकर्मबंधकास्ते द्विविधाः छद्मस्थाः केवलिनश्च। ये छद्मस्थास्ते द्विविधाः-उपशान्तकषायाः क्षीणकषायाश्चेति। ये सांपरायिकास्तेऽपि द्विविधाः-सूक्ष्मसांपरायिकाः बादरसांपरायिकाश्चेति। ये सूक्ष्मसांपरायिकाः बंधकास्ते द्विविधा-असंपरायिकादयः बादरसांपरायिकादयश्च। ये बादरसांपरायिकाः ते त्रिविधाः-असंपरायिकादयः सूक्ष्मसांपरायिकादयः अनादिबादरसांपरायिकाश्च। तत्र ये अनादिबादरसांपरायिकाः ते त्रिविधाः-उपशामकाः क्षपकाः अक्षपकानुपशामकाश्च। तत्र ये उपशामकाः ते द्विविधा-अपूर्वकरणोपशामकाः अनिवृत्तिकरणोपशामकाश्च। ये क्षपकास्ते द्विविधा-अपूर्वकरणक्षपकाः अनिवृत्तिकरणक्षपकाश्च। तत्र ये अक्षपकानुपशामकास्ते द्विविधाः-अनादिअपर्यवसितबंधाः अनादिसपर्यवसितबंधाश्चेति। अनाद्यनन्तबंधकाः ते अभव्याः मिथ्यादृष्टिजीवाः। अनादिसान्तबंधकास्ते मिथ्यादृष्ट्यादि-अप्रमत्तगुणस्थानवर्तिनो जीवाःभवन्ति। तत्र ये भावबंधकास्ते द्विविधाः-आगमनोआगमभावबंधकभेदेन। तत्र ये बंधप्राभृतज्ञायका उपयुक्तास्ते आगमभावबंधकाः नाम। नोआगमभावबंधकाः यथा क्रोधमानमायालोभप्रेमद्वेषादिभावान् आत्मसात्कुर्वाणाः जीवाः इति। इत्थमत्र बंधकानां प्रतिपादनप्रकरणे नामस्थापनाद्रव्यभावनिक्षेपैः संक्षिप्तव्याख्यानं कृतं। एतेषु कथितेषु बंधकेषु कर्मबंधकानां जीवानां अत्राधिकारोऽस्ति। एषां बंधकानां निर्देशे क्रियमाणे चतुर्दशमार्गणास्थानानि आधारभूतानि भवन्ति।
अथ बंधकसत्वप्ररूपणा प्रारंभ
-मंगलाचरण-
श्लोकार्थ-जगत् पूज्य समस्त सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार करके पुन: मंदिर में (जयपुर नगरी में खानिया जी में) विराजमान मूलनायक भगवान वासुपूज्य जिनेन्द्र को तथा चूलगिरि पर्वत पर विराजमान समस्त जिनप्रतिमाओं को मेरा बारम्बार नमस्कार है।।१।। सरस्वती माता की स्तुति करके मैंने उन्हें अपने हृदयमें अवतरित-स्थापित कर लिया है, जिनकी कृपाप्रसाद से हम सभी के इच्छित कार्य सिद्ध हो जाते हैं।।२।। श्रीधरसेन आचार्य तथा श्रीमत् पुष्पदंत और भूतबली मुनिराजों की मेरे द्वारा श्रद्धापूर्वक स्तुति की जाती है।३।। इस ‘‘खानिया’’ नाम के तीर्थक्षेत्र पर (सन् १९५७ में) बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर मुनिराज के प्रथम पट्टशिष्य ने समाधिमरण करके स्वर्ग को प्राप्त किया है।।४।। उन प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर महाराज के श्रीचरणों में मेरा नमन है, जिन्होंने मुझे (सन् १९५६ में) र्आियका दीक्षा देकर ‘‘ज्ञानमती’’ नाम प्रदान किया और संसार समुद्र से तिराने वाले जगतारक कहलाए।।५।। इस खानिया जी के पर्वत पर जिन्होंने जिनालय का निर्माण करवाकर उसे ‘‘चूलगिरि’’ तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध किया है, वे आचार्य श्री देशभूषण महाराज इस लोक में जयशील होवें, जो कि मेरे आद्यगुरु हैं।।६।। इसके स्वाध्याय से मेरे कर्मबंध शिथिल होवें, यही मेरी अभिलाषा है इसीलिए इस ‘‘क्षुद्रकबंध’’ नामक गं्रथ को मेरा बारम्बार नमस्कार है।।७।।
भावार्थ-पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने सन् १९९७ में मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र से दिल्ली की ओर मंगल विहार के मध्य फाल्गुन शुक्ला चतुर्थी (१२ मार्च १९९७) को जयपुर-खानिया जी में इस षट्खण्डागम के द्वितीय खण्ड के इस प्रकरण का लेखन किया था, इसीलिए उन्होंने इस स्थल से जुड़ी घटनाओं-आचार्यश्री वीरसागर महाराज की समाधि एवं चूलगिरि तीर्थ निर्माण का प्रकरण इसमें समाविष्ट किया है। अब षट्खण्डागम ग्रंथ के क्षुद्रकबंध नाम के द्वितीय खण्ड में भूमिकारूप में तेंतालिस सूत्रों के द्वारा चौदह स्थलों में विभक्त बंधकसत्वप्ररूपणा नाम का अधिकार प्रारंभ होता है। उनमें से प्रथम स्थल में गतिमार्गणा में बंधक जीव के अस्तित्व का प्रतिपादन करने की प्रतिज्ञारूप से ‘‘जे ते बंधगा….’’ इत्यादि सात सूत्र हैं। उसके बाद द्वितीय स्थल में इन्द्रियमार्गणा में बंधक जीव का अस्तित्व निरूपण करने हेतु ‘‘इंदियाणु…..’’ इत्यादि तीन सूत्र हैं। पुन: तृतीय स्थल में कायमार्गणा में बंधक जीवों का अस्तित्व बतलाने वाले ‘‘कायाणु……’’ इत्यादि तीन सूत्र हैं। तदनंतर चतुर्थ स्थल में योगमार्गणा के अंदर बंधक जीवों का अस्तित्व बतलाने हेतु ‘‘जोगा…..’’ इत्यादि दो सूत्र हैं। आगे पंचम स्थल में वेदमार्गणा के अंदर बंधकोें का अस्तित्व बतलाने वाले ‘‘वेदा…..’’ इत्यादि तीन सूत्र हैं। उसके पश्चात् छठे स्थल में कषायमार्गणा में बंधकों का अस्तित्व बतलाने वाले ‘‘कसाया……’’ इत्यादि तीन सूत्र हैं। तत्पश्चात् सातवें स्थल में ज्ञानमार्गणा में बंधकोें का अस्तित्व बतलाने हेतु ‘‘णाणा….’’ इत्यादि तीन सूत्र हैं। तदनंतर आठवें स्थल में संयममार्गणा में बंधक जीवों का अस्तित्व कथन करने वाले ‘‘संजमा…..’’ इत्यादि तीन सूत्र हैं। उसके बाद नवमें स्थल में दर्शनमार्गणा के अंदर बंधक जीवों का अस्तित्व प्रतिपादित करने वाले ‘‘दंसणा…..’’ इत्यादि तीन सूत्र हैं। पुन: दशवें स्थल में लेश्या मार्गणा में बंधक जीवों का अस्तित्व निरूपण करने वाले ‘‘लेस्सा….’’ इत्यादि दो सूत्र हैं। उसके आगे ग्यारहवें स्थल में भव्यमार्गणा में बंधसहित जीवों का अस्तित्व प्रतिपादन करने हेतु ‘‘भविया…..’’ इत्यादि दो सूत्र हैं। पुन: बारहवें स्थल में सम्यक्त्वमार्गणा में बंधकों का अस्तित्व बतलाने हेतु ‘‘सम्मत्ताणु…….’’ इत्यादि तीन सूत्र हैं। तदनंतर तेइसवें स्थल में संज्ञीमार्गणा में बंधक जीवों का कथन करने हेतु ‘‘सण्णिया….’’ इत्यादि तीन सूत्र हैं। पुन: चौदहवें स्थल में आहारमार्गणा के अंदर बंधक जीवों का अस्तित्व बतलाने वाले ‘‘आहाराणु…..’’ इत्यादि तीन सूत्र हैं। यह अधिकार के प्रारंभ में सूत्रों की समुदायपातनिका हुई।
अब बंधक संसारी जीवों का प्रतिपादन करने हेतु श्री भूतबलि आचार्य के द्वारा प्रतिज्ञासूत्र अवतरित किया जा रहा है-
सूत्रार्थ- जो वे बंधक जीव हैं उनका यहाँ निर्देश किया जाता है।।१।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-‘‘जो वे बंधक हैं’’ इसका अर्थ यह है कि जो वे बंधक अर्थात् कर्मबंध सहित जीव हैं वे संसारी जीव इस नाम से जाने जाते हैं अत: यह वचन बंधकों की पूर्व में प्रसिद्धि को सूचित करता है। प्रश्न-पहले किस ग्रंथ में प्रसिद्ध बंधकों की सूचना है ? उत्तर-महाकर्मप्रकृति प्राभृत ग्रंथ में बंधकों की सूचना दी गई है। वह इस प्रकार है-महाकर्मप्रकृति प्राभृत के कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वारों में छठे बंधन अनुयोगद्वार के बंध, बंधक, बंधनीय और बंधविधान, ये चार अधिकार हैं। उनमें जो बंधक नाम का दूसरा अधिकार है वही इस सूत्र वचन द्वारा सूचित किया गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो वे महाकर्मप्रकृतिप्राभृत में बंधक कहकर निर्दिष्ट किये गये हैं, उन्हीं का यहाँ निर्देश है। जीव ही बंधक होते हैं, क्योंकि मिथ्यात्व आदिक बंध के कारणों से रहित अजीव के बंधकभाव की उपपत्ति नहीं बनती। यहाँ कोई शंका करता है कि-उन्हीं बंधक जीवों का जीवस्थान खण्ड में चौदह गुणस्थानों की विशेषता सहित चौदह मार्गणस्थानों में सत् संख्या आदि आठ अनुयोगों के द्वारा अन्वेषण किया गया है। अब सत् आदि प्ररूपणाओं द्वारा जाने हुए उन्हीं जीवों का फिर प्ररूपण करने पर पुनरुक्ति दोष उत्पन्न होता है ? समाधान-पुनरुक्ति दोष प्राप्त होता, यदि उन जीवों का उन्हीं गुणस्थानों की विशेषता सहित चौदह मार्गणाओं में उन्हीं आठ अनुयोगों द्वारा अन्वेषण किया जाता। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि यहाँ तो चौदह गुणस्थानों की विशेषता को छोड़कर चौदह मार्गणास्थानों में ग्यारह अनुयोगद्वारों से पूर्वोक्त जीवों की प्ररूपणा की जा रही है। अत: यहाँ पुनरुक्ति दोष नहीं प्राप्त होता है। शंका-जीवस्थान खण्ड में जो प्ररूपणा की गई है, उसी से यहाँ प्ररूपित किये जाने वाले अर्थ का ज्ञान हो जाता है, अत: इस प्ररूपणा में हमें तो किंचित् भी फल दिखाई नहीं देता है ? समाधान-ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि मार्गणास्थानों में चौदह गुणस्थानों की सत् संख्या आदिरूप प्ररूपणा से मार्गणास्थान विशेषित जीवप्ररूपणा का एकत्व नहीं पाया जाता है। यदि उस प्ररूपणा से इस प्ररूपणा में एकत्व होता, तो हम जान लेते। किन्तु हमें उन दोनों प्ररूपणाओं में एकत्व दिखाई नहीं देता ? अथवा, इस क्रम से स्थित द्रव्यादि अनुयोगद्वारों को लेकर जीवस्थान खण्ड की रचना की गई है, यह बतलाने के लिए बंधकों की प्ररूपणा प्रस्तुत है। अतएव बंधकों की प्ररूपणा न्यायप्राप्त है। चार प्रकार के बंधक का कथन करते हैं-नामबंधक, स्थापनाबंधक, द्रव्यबंधक और भावबंधक। उनमें नामबंधक तो ‘बंधक’ यह शब्द ही है, जो जीवबंधक, अजीवबंधक आदि आठ भंगों में प्रवृत्त होता है। यह नाम विशेष द्रव्यार्थिक नय का अवलम्बन करके स्थित है, क्योंकि नाम की सामान्य में प्रवृत्ति देखी जाती है, चूँकि दिखाई देने के अनन्तर समय में ही नष्ट हुए पदार्थों में संकेत ग्रहण करना नहीं बनता। काष्ठकर्म, पोतकर्म, लेप्यकर्म आदि में सद्भाव और असद्भाव के भेद से जिनकी ‘ये बंधक है’ ऐसी स्थापना की गई हो, वे स्थापनाबंधक हैं। यह निक्षेप भी द्रव्यार्थिक नय के अवलम्बन से स्थित है। क्योंकि ‘वह यही है’ ऐसे एकत्व का निश्चय किये बिना स्थापना निक्षेप बन नहीं सकता। जो द्रव्यबंधक हैं, वे आगम और नोआगम के भेद से दो प्रकार के हैं। बंधक प्राभृत के जानकार किन्तु उसमें अनुपयुक्त जीव आगमद्रव्यबंधक हैं। शंका-जो आगम के उपयोग से रहित हैं, उस जीव द्रव्य को ‘आगम’ कैसे कहा जा सकता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि आगम संज्ञा को प्राप्त न होने पर भी आगम के संस्कार सहित एवं पूर्व काल में आगम संज्ञा को प्राप्त जीव द्रव्य को आगम कहना पाया जाता है। इसी से जिस जीव का आगम संस्कार भ्रष्ट-छूट गया है। उसका ग्रहण कर लेना चाहिए, क्योंकि उसके भी आगम संज्ञा पाई जाती है। ज्ञायकशरीर, भावि और तद्व्यतिरिक्त के भेद से नोआगम द्रव्यबंधक तीन प्रकार के हैं। उनमें ज्ञायकशरीर और भाविद्रव्यबंधक ये दो भेद सुगम हैं। तद्व्यतिरिक्त द्रव्यबंधक दो प्रकार के हैं-कर्मबंधक और नोकर्मबंधक। उनमें जो नोकर्मबंधक हैं वे तीन प्रकार के हैं-सचित्तनोकर्मद्रव्यबंधक, अचित्तनोकर्मद्रव्यबंधक और मिश्रनोकर्मद्रव्यबंधक। उनमें सचित्तनोकर्मद्रव्यबंधक जैसे-हाथी बांधने वाले, घोड़े बांधने वाले इत्यादि। अचित्तनोकर्मद्रव्यबंधक, जैसे-लकड़ी बांधने वाले, सूपा बांधने वाले, कट-चटाई बांधने वाले इत्यादि। मिश्रनोकर्मद्रव्यबंधक, जैसे-आभरणों सहित हाथियों के बांधने वाले इत्यादि। जो कर्मों के बंधक हैं वे दो प्रकार के हैं-ईर्यापथकर्मबंधक और साम्परायिककर्मबंधक। उनमें जो ईर्यापथकर्मबंधक हैं वे दो प्रकार के हैं-छद्मस्थ और केवली। जो छद्मस्थ हैं वे दो प्रकार के हैं-उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय। जो साम्परायिकर्मबंधक हैं वे दो प्रकार के हैं-सूक्ष्मसाम्परायिक और बादरसाम्परायिक। जो सूक्ष्मसाम्परायिक बंधक हैं वे दो प्रकार के हैं-असाम्परायिक और बादरसाम्परायिक। जो बादरसाम्परायिक हैं वे तीन प्रकार के हैं-असाम्परायादिक, सूक्ष्मसाम्परायादिक और अनादिबादरसाम्परायिक। उनमें जो अनादिबादरसाम्परायिक हैं वे तीन प्रकार के हैं-उपशामक, क्षपक और अक्षपकानुपशामक। उनमें जो उपशामक हैं वे दो प्रकार के हैं-अपूर्वकरण उपशामक और अनिवृत्तिकरण उपशामक। जो क्षपक हैं वे दो प्रकार के हैं-अपूर्वकरण क्षपक और अनिवृत्तिकरण क्षपक। उनमें से जो अक्षपकानुपशामक हैं वे दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित बंधक आदि अनादि-सपर्यवसित बंधक। अनादि-अनंत बंधक जो जीव हैं वे अभव्य मिथ्यादृष्टि होते हैं। अनादि-सान्त बंधक जो हैं वे मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्त गुणस्थान तक के जीव होते हैं। उनमें जो भावबंधक हैं वे आगम भावबंधक और नोआगमभावबंधक के भेद से दो प्रकार के हैं। उनमें जो बंध प्राभृत के जानकार और उसमें उपयोग रखने वाले हैं वे आगमभावबंधक हैं। नो आगमभावबंधक वे हैं, जैसे कि-क्रोध, मान, माया, लोभ व प्रेम, द्वेष आदि भावों को आत्मसात् करने वाले जीव। इस प्रकार यहाँ बंधकों के प्रतिपादन प्रकरण में नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव इन चार निक्षेपों के द्वारा संक्षिप्त व्याख्यान किया गया है। इन सब बंधकों में कर्मबंधकों का ही यहाँ अधिकार है। इन बंधकों का निर्देश करने पर चौदह मार्गणास्थान आधारभूत हैं।
अब चौदह मार्गणास्थानों का प्रतिपादन करने हेतु श्री भूतबली आचार्य सूत्र को अवतरित करते है-
सूत्रार्थ-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहारक ये चौदह मार्गणास्थान हैं।।२।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-इन मार्गणाओं का लक्षण यद्यपि पूर्व में किया जा चुका है फिर भी विस्मरणशील शिष्यों का अनुग्रह करने हेतु यहाँ संक्षेप में मार्गणाओं का व्युत्पत्ति अर्थ किया जा रहा है। गमन करने का नाम गति है। अर्थात् जिस स्थान के लिए जीव गमन करता है उस स्थान को गति कहते हैं। यहाँ कोई शंका करता है कि-गति की ऐसी निरुक्ति करने से तो ग्राम, नगर, खेड़ा, कर्वट आदि स्थानों को भी गतिपना प्राप्त हो जाता है ? इस शंका का समाधान किया जाता है-ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि रूढ़ि के बल से गतिनामकर्म द्वारा जो पर्याय निष्पन्न की गई है, उसी में गति शब्द का प्रयोग किया जाता है। गतिनामकर्म के उदय के अभाव के कारण सिद्धिगति होती है, वह अगति कहलाती है। अथवा एक भव से दूसरे भव में संक्रान्ति का नाम गति है और एक भव से दूसरे भव के लिए संक्रान्ति न होना सिद्धिगति है। जो अपने-अपने विषय में निरत हों, वे इन्द्रियाँ हैं, अर्थात् अपने-अपने विषयरूप पदार्थों में रमण करने वाली इन्द्रियाँ कहलाती हैं। अथवा इन्द्र आत्मा को कहते हैं और इन्द्रों के लिंग का नाम इन्द्रिय है। आत्मा की प्रवृत्ति द्वारा उपचित किये गये पुद्गलपिंड को काय कहते हैं। अथवा पृथिवीकाय आदि नामकर्मों के द्वारा उत्पन्न परिणाम को कार्य में कारण के उपचार से काय कहा है। अथवा, जिसमें जीवों का संचय किया जाये, ऐसी व्युत्पत्ति से काय बना है। आत्मा की प्रवृत्ति से उत्पन्न संकोच-विकोच का नाम योग है, अर्थात् मन, वचन और काय के अवलम्बन से जीव प्रदेशों में परिस्पन्दन होने को योग कहते हैं। आत्मा की प्रवृत्ति से मैथुनरूप सम्मोह की उत्पत्ति का नाम वेद है। सुख-दु:खरूपी खूब फसल उत्पन्न करने वाले कर्मरूपी क्षेत्र का जो कर्षण करते हैं वे कषाय हैं। जो यथार्थ वस्तु का प्रकाशक है अथवा जो तत्वार्थ प्राप्त कराने वाला है, वह ज्ञान है। व्रत रक्षण, समितिपालन, कषायनिग्रह, दंडत्याग और इन्द्रियजय का नाम संयम है। अथवा सम्यक् रूप से यम का नाम संयम है। प्रकाशरूप प्रवृत्ति का नाम दर्शन है। आत्मप्रवृत्ति में संश्लेषण करने वाली लेश्या है। अथवा लिंपन करने वाली लेश्या है। जिस जीव ने निर्वाण को पुरस्कृत किया है अर्थात् अपने सन्मुख रखा है वह भव्य है और उसमें विपरीत अर्थात् निर्वाण को पुरस्कृत नहीं करने वाला जीव अभव्य है। तत्वार्थ के श्रद्धान का नाम सम्यग्दर्शन है। अथवा तत्वों में रुचि होना ही सम्यक्त्व है। अथवा प्रथम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य की अभिव्यक्ति ही जिसका लक्षण है, वही सम्यक्त्व है। शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलाप को ग्रहण करने वाला जीव संज्ञी है, उससे विपरीत अर्थात् शिक्षा क्रियादि को ग्रहण नहीं कर सकने वाला जीव असंज्ञी है। शरीर बनाने के योग्य पुद्गलवर्गणा को ग्रहण करना ही आहार है, उससे विपरीत अर्थात् शरीर के योग्य पुद्गलवर्गणा को ग्रहण नहीं करना अनाहार है। इन्हीं पूर्वोक्त गति आदि चौदह स्थानों में जीवों की मार्गणा अर्थात् खोज की जाती है, इसीलिए इनका नाम मार्गणा है। यहाँ किञ्चित् विशेष कहते हैं- गतिमार्गणा में मनुष्यगति से ही सिद्धि गति प्राप्त होती है अत: यह मनुष्यगति ही संसार में सारभूत और उत्कृष्ट गति है। इन्द्रियमार्गणा में द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा पाँचों इन्द्रिय की पूर्णता होने पर ही जैनेश्वरी दीक्षा प्राप्त होती है, इन पाँचों इन्द्रियों के द्वारा इंद्रिय निरोध व्रतों को परिपालन करके ही अतीन्द्रिय सुख प्राप्त होता है अत: पाँचों इन्द्रियों की पूर्णता होना महत्वपूर्ण है। कायमार्गणा में त्रसकाय को प्राप्त करके आत्मकल्याण में प्रवृत्तिरूप भाव उत्पन्न होता है। योगमार्गणा में मन-वचन-काय इन तीनों योगों को प्राप्त करके औदारिककाययोग के द्वारा ही परमौदारिक दिव्यशरीर प्राप्त होता है इसलिए उस शरीर को प्राप्त करके चारित्ररत्न को ग्रहण करके उस मनुष्यपर्याय को सफल करना चाहिए। वेदमार्गणा की मीमांसा में द्रव्यपुरुषवेद के द्वारा ही रत्नत्रय की पूर्णता प्राप्त होती है अत: उसे प्राप्त करके पुरुषवेद को सफल बनाना चाहिए, यदि द्रव्य से स्त्रीवेद है तो भी उपचार महाव्रतों को-आर्यिका दीक्षा ग्रहण करके सम्यक्त्वरत्न के द्वारा संसार संतति को नष्ट करना चाहिए। चारों कषायों के कारण जीव संसारसमुद्र में गोते लगा रहे हैं अत: उन कषायों को दु:ख का हेतु मानकर उन्हें वश में करना-कृश करना चाहिए। अथवा जैसे बने वैसे अनन्तानुबंधी कषाय को नष्ट करके अनेक प्रयत्नों से अपने सम्यग्दर्शनरूपी रत्न का संरक्षण करना चाहिए। ज्ञानमार्गणा के संक्षिप्त लक्षण का सम्यक्रूप से चिन्तन करके ज्ञात होता है कि द्रव्य-भाव श्रुतज्ञान के बल से केवलज्ञान प्राप्त होता है अत: श्रुतज्ञान की सतत आराधना करना चाहिए अर्थात् धर्मग्रंथों का खूब स्वाध्याय-अध्ययन करके ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम करना चाहिए। संयममार्गणा में सामायिक संयम ही सभी संयमों में प्रथम और मूलकारण है, ऐसा जानकर जब तक वह सामायिक संयम प्राप्त न होवे, तब तक संयमासंयमरूप अणुव्रत धारण करना चाहिए। दर्शनमार्गणा में केवलदर्शन की उपलब्धि हेतु स्वात्मदर्शन की अवस्था प्राप्त करना चाहिए। लेश्यामार्गणा को जानकर अशुभलेश्याओं को छोड़कर शुभ लेश्याओं में प्रवृत्ति करना चाहिए। भव्यमार्गणा में ‘‘हम भव्य हैं’’ ऐसा निश्चित करके रत्नत्रय के बल से भव्यत्व शक्ति को प्रगट करना चाहिए। सम्यक्त्वमार्गणा का ज्ञान प्राप्त करके सर्वप्रथम औपशमिक सम्यक्त्व को प्रगट करके क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का संरक्षण करते हुए वर्तमान के इस दु:षमकाल में यहाँ क्षायिकसम्यक्त्व की भावना भानी चाहिए। संज्ञी मार्गणा में संज्ञी अवस्था को प्राप्त करके स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्न करना चाहिए। पुनश्च आहारमार्गणा में अनाहारक सिद्धिपद को प्राप्त करने हेतु आहारक अवस्था में भी छियालीस दोषों से रहित एषणासमिति का पालन करना चाहिए, क्योंकि इस समिति के पालन से ही अतीन्द्रिय मोक्षसुख प्राप्त होगा। तात्पर्य यह है कि-इन चौदह मार्गणाओं को जानकर कर्मबंध की स्थिति को कराने वाले कर्मों का फल चतुर्गति का परिभ्रमण ही है अत: उन संसार के कारणों को धीरे-धीरे नष्ट करना चाहिए। आज चैत्र कृष्णा प्रतिपदा के दिन ही चवालीस वर्ष पूर्व श्री महावीर जी अतिशय क्षेत्र तीर्थ पर आचार्यरत्न श्री देशभूषण मुनिराज के करकमलों से मैंने ग्यारह प्रतिमारूप व्रतों को प्राप्त करके ‘‘वीरमती’’ नाम की क्षुल्लिका का पद ग्रहण किया था। तब से लेकर आज ४४ वर्षों में पहले तीन वर्ष तक देशसंयम का पालन किया पुन: प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर महाराज के करकमलों से उपचारमहाव्रतसहित अट्ठाईस मूलगुणरूप आर्यिका दीक्षा प्राप्त की और अब गणिनी पद में छत्तीस मूलगुणों का पालन करते हुए आज हरियाणा प्रदेश के ‘रेवाड़ी’ नगर में मैंने पैंतालिसवें वर्ष (संयम वर्ष) में प्रवेश किया है। श्री महावीर स्वामी को कोटि-कोटि वन्दन करके और दोनों गुरुओं को नमन करके आगे भी मेरा जीवन निराबाध संयम सहित व्यतीत होवे, यही सरस्वती माता के चरणकमलों में मेरी प्रार्थना है। भावार्थ-इस टीका को लिखते हुए पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने अपनी दीक्षा तिथि का स्मरण किया है। वीर निर्वाण संवत् २५२३ की चैत्रकृष्णा एकम तिथि को दिनाँक २५ मार्च १९९७ के दिन वे ‘‘रेवाड़ी’’ नाम के नगर में थीं। जब सारे देश की रागी जनता होली के रंगों में डूबी थी उस दिन वीतराग मार्ग की अनुगामिनी श्री ज्ञानमती माताजी इस सिद्धांत ग्रंथ का स्वाध्याय-लेखन करती हुई ज्ञान के अपूर्व रंग में निमग्न थीं। जैसा कि उनके मुख से मैंने सदैव सुना है कि ‘‘अपने दीक्षा दिवस को हमेशा याद रखना चाहिए, क्योंकि दीक्षा के समय के उत्कृष्ट परिणाम स्मरण करने से ज्ञान और वैराग्य की अतीव वृद्धि होती है।’’ रेवाड़ी नगर की दिगम्बर जैन समाज ने उस दिन पूज्य माताजी के दीक्षा दिवस का समारोह भी आयोजित किया था। ज्ञानमती माताजी बीसवीं सदी की प्रथम बालब्रह्मचारिणी साध्वी हैं। इनका जन्म सन् १९३४ में आश्विन शुक्ला पूर्णिमा (शरदपूर्णिमा) के दिन (बाराबंकी-उ.प्र.) में लाला श्री छोटेलाल जैन की धर्मपत्नी श्रीमती मोहिनी देवी की पवित्र कुक्षि से कन्या मैना के रूप में हुआ था। पूर्व जन्म में संचित किये गये पुण्य प्रभाव एवं इस भव में अपनी माँ को दहेज में प्राप्त पद्मनंदिपंचविंशतिका ग्रंथ के स्वाध्याय से प्रगट हुए वैराग्यवश उन्होंने सन् १९५२ में शरदपूर्णिमा के ही दिन आजन्म ब्रह्मचर्यव्रतरूप सप्तम प्रतिमा ग्रहण करके गृहत्याग किया पुन: सन् १९५३ में चैत्र कृ. एकम् को महावीर जी अतिशय क्षेत्र पर आचार्य श्री देशभूषण महाराज के करकमलों से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की थी, उसी दिवस का स्मरण कर पूज्य ज्ञानमती माताजी ने सरस्वती माता से ज्ञान और चारित्र की वृद्धि हेतु मंगल प्रार्थना की है। आज इस ग्रंथ की हिन्दी टीका लिखते हुए मुझे भी अत्यन्त हर्ष एवं गौरव का अनुभव हो रहा है कि पूज्य ज्ञानमती माताजी का ५४वाँ आर्यिका दीक्षा त्रिदिवसीय समारोहपूर्वक मनाया जा रहा है। आज से एक माह पूर्व चैत्र कृष्णा एकम्, ११ मार्च २००९ को इन्होंने क्षुल्लिका दीक्षा के ५६ वर्ष पूर्ण किये अत: कुल मिलाकर ५६ वर्ष की संयमसाधना से वे एक अतिशयकारी प्रतिमा के समान जगत् पूज्य बन गई हैं। इन्होंने सन् १९९५ में शरदपूर्णिमा के दिन षट्खण्डागम सूत्र ग्रंथ पर संस्कृत टीका लेखन जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में प्रारंभ किया और सन् २००७ मेें वैशाख कृष्णा द्वितीया के दिन सोलहों पुस्तकों की टीका ३१०० से अधिक पन्नों में लिखकर परिपूर्ण किया। लगभग ११ वर्ष ६ माह के अंदर उन्होंने षट्खण्डागम ग्रंथ की संस्कृत टीका लिखकर साहित्य जगत् में एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया है।
अब चारों गतियों में बंध करने वाले जीवों का प्रतिपादन करने हेतु चार सूत्र अवतरित होते है-
सूत्रार्थ-गतिमार्गणा के अनुसार नरकगति में नारकी जीव बंधक हैं।।३।। तिर्यञ्चगति के जीव बंधक हैं।।४।। देवगति के जीव बंधक होते हैं।।५।। मनुष्य बंधक भी होते हैं और अबंधक भी होते हैं।।६।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-यहाँ सूत्रों में वर्णित ‘‘बंधा’’ शब्द से ‘‘बंधक जीव’’ ही ग्रहण किये जाते हैं। नारकी, तिर्यञ्च और देव बंधक ही हैं, क्योंकि उनमें बंध के कारणभूत मिथ्यात्व, असंयम, कषाय, योग का सद्भाव पाया जाता है। मनुष्य बंधक भी होते हैं और अबंधक भी होते हैं। कर्मबंध के कारणभूत मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग इन सबका अयोगिकेवली गुणस्थान में अभाव होने से अयोगी जिन अबंधक ही होते हैं। शेष सब मनुष्य बंधक हैं, क्योंकि वे मिथ्यात्वादि बंध के कारणों से संयुक्त पाये जाते हैं।
गति से रहित सिद्ध भगवन्तों के अबंधकपने को बतलाने हेतु सूत्र अवतरित होता है-
सूत्रार्थ-सिद्ध अबंधक हैं।।७।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-अनन्तानन्त सिद्ध भगवान अबधंक ही होते हैं, क्योंकि वे बंध के कारणों से भिन्न मोक्ष के कारणों से समन्वित होते हैं। यहाँ कोई प्रश्न करता है कि- बंध के कारण कौन से हैं, क्योंकि बंध और बंध के कारण जाने बिना मोक्ष के कारणों का ज्ञान नहीं हो सकता। कहा भी है- गाथार्थ-अध्यात्म में जो बंध के उत्पन्न करने वाले भाव हैं और जो मोक्ष को उत्पन्न करने वाले भाव हैं तथा जो बंध और मोक्ष दोनों को नहीं उत्पन्न करने वाले भाव हैं, वे सब भाव जानने योग्य हैं। अतएव आपको बंध के कारण बतलाना चाहिए ? आचार्य इसका समाधान देते हैं कि-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये चार बंध के कारण हैं और सम्यग्दर्शन, संयम, अकषाय और अयोग ये चार मोक्ष के कारण हैं। समयसार ग्रंथ में कहा भी है- गाथार्थ-सामान्य से प्रत्यय-आश्रव चार हैं वे ही बंध के करने वाले कहे गये हैं। वे मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार जानने चाहिए।।१०९।। और भी कहा है- गाथार्थ-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये कर्मों के आस्रव भाव हैं अर्थात् कर्मों के आगमनद्वार हैं तथा सम्यग्दर्शन, संयम अर्थात् विषयविरक्ति, कषायनिग्रह और मन-वचन-काय का निरोध ये संवर अर्थात् कर्मों के निरोधक भाव हैं।।२।। पुन: कोई शंका करता है-यदि ये ही मिथ्यात्वादि चार बंध के कारण हैं, तो- गाथार्थ-औदयिक भाव बंध करने वाले हैं, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव मोक्ष के कारण हैं तथा पारिणामिक भाव बंध और मोक्ष दोनों के कारण से रहित हैं।।३।। इस सूत्रगाथा के साथ विरोध उत्पन्न होता है ? इसका समाधान करते हैं कि-ऐसा नहीं कहना चाहिए, ‘औदयिक भाव बंध के कारण हैं’ ऐसा कहने पर भी सभी औदायिक भावों का ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि वैसा मानने पर गति, जाति आदि नामकर्मसंबंधी औैदायिक भावों के भी बंध के कारण होने का प्रसंग आ जायेगा। पुन: कोई शंका करता है-देवगति के उदय के साथ भी कितनी ही प्रकृतियोें का बंध होना देखा जाता है फिर देवगति का उदय उनका कारण क्यों नहीं होता ? आचार्य देव इसका समाधान देते हैं-देवगति का उदय बंध का कारण नहीं होता है, क्योंकि देवगति के उदय के अभाव में नियम से उनके बंध का अभाव नहीं पाया जाता। ‘‘जिसके अन्वय और व्यतिरेक के साथ नियम से अन्वय और व्यतिरेक पाये जावें, वह उसका कार्य और दूसरा कारण होता है’’ (अर्थात् जब एक के सद्भाव में दूसरे का सद्भाव और उसके अभाव में दूसरे का भी अभाव पाया जावे, तभी उनमें कार्य- कारणभाव संभव हो सकता है अन्यथा नहीं) इस न्याय से मिथ्यात्व आदिक ही बंध के कारण हैं। इन कारणों में मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय जाति, हुंडकसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिका शरीरसंहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन सोलह प्रकृतियों के बंध का मिथ्यात्वोदय कारण है, क्योंकि मिथ्यात्वोदय के अन्वय और व्यतिरेक के साथ इन सोलह प्रकृतियों के बंध का अन्वय और व्यतिरेक पाया जाता है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचायु, तिर्यंच गति, न्यग्रोध, स्वाति, कुब्जक और वामन शरीर संस्थान, वङ्कानाराच, नाराच, अर्धनाराच और कीलित शरीरसंहनन, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र इन प्रकृतियों के बंध में अनन्तानुबंधीचतुष्क का उदय कारण है, क्योंकि उसी के उदय के अन्वय और व्यतिरेक के साथ उन प्रकृतियों के बंध में अन्वय और व्यतिरेक पाया जाता है। अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिकरशरीर, औदारिकरशरीरांगोपांग, वङ्कावृषभसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी इन दश प्रकृतियों के बंध में अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क का उदय कारण है, क्योंकि उसके बिना इन प्रकृतियों का बंध नहीं पाया जाता। प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियों के बंध में कारण इन्हीं का उदय है, क्योंकि अपने उदय के बिना इनका बंध नहीं पाया जाता है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश:कीर्ति इन छह प्रकृतियों के बंध का कारण प्रमाद है, क्योंकि प्रमाद के बिना इन प्रकृतियों का बंध नहीं पाया जाता है। शंका-प्रमाद किसे कहते हैं ? समाधान-चार संज्वलन कषाय और नव नोकषाय इन तेरह के तीव्र उदय का नाम प्रमाद है। शंका-पूर्वोक्त चार बंध के कारणों में प्रमाद का अन्तर्भाव कहाँ होता है ? समाधान-कषायों में प्रमाद का अन्तर्भाव होता है, क्योंकि कषायों से पृथक् प्रमाद नहीं पाया जाता है। देवायु के बंध का भी कारण कषाय ही है, क्योंकि प्रमाद के हेतुभूत कषाय के उदय के अभाव से अप्रमत्त होकर मंदकषाय के उदयरूप से परिणत हुए जीव के देवायु के बंध का विनाश पाया जाता है। निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों के भी बंध का कारण कषायोदय ही है, क्योंकि अपूर्वकरण काल के प्रथम सप्तम भाग में संज्वलन कषायों के उस काल के योग्य तीव्रोदय होने पर इन प्रकृतियों का बंध पाया जाता है। देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, आहारकशरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर इन तीस प्रकृतियों के भी बंध का कारण कषायोदय ही है, क्योंकि अपूर्वकरण काल के सात भागों में से प्रथम छह भागों के अंतिम समय में मन्दतर कषायोदय के साथ इनका बंध पाया जाता है। हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार के बंध में अध:प्रवृत्त और अपूर्वकरणनिमित्तक कषायोदय कारण है, क्योंकि उन्हीं दोनों परिणामों के कालसंबंधी कषायोदय में ही प्रकृतियों का बंध पाया जाता है। चार संज्वलन कषाय और पुरुषवेद इन पाँच प्रकृतियों के बंध का कारण बादर कषाय है, क्योंकि सूक्ष्मकषाय के सद्भाव में इनका बंध नहीं पाया जाता है। पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यश:कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इन सोलह प्रकृतियों के बंध में सामान्य कारण कषायोदय है, क्योंकि कषायों के अभाव में इन प्रकृतियों का बंध नहीं पाया जाता है। सातावेदनीय के बंध में योग ही कारण है, क्योंकि मिथ्यात्व, असंयम और कषाय इनका अभाव होने पर भी अकेले योग के साथ ही इस प्रकृति का बंध पाया जाता है और योग के अभाव में इस प्रकृति का बंध नहीं पाया जाता और इनके अतिरिक्त अन्य कोई बंध योग्य प्रकृतियाँ नहीं है, जिससे कि उनका कोई अन्य कारण हो। शंका-असंयम भी बंध का कारण कहा गया है, सो वह किन प्रकृतियों के बंध का कारण है ? समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि संयम के घातक कषायरूप चारित्रमोहनीय कर्म के उदय का ही नाम असंयम है। शंका-यदि असंयम कषायों में ही अन्तर्भूत होता है, फिर उसका पृथक उपदेश किसलिए किया जाता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि व्यवहारनय की अपेक्षा से उसका पृथक् उपदेश किया जाता है। बंध कारणों की यह प्ररूपणा पर्यायार्थिकनय का आश्रय करके की गई है। पर द्रव्यार्थिकनय का अवलम्बन करने पर तो बंध का कारण केवल एक ही है, क्योंकि कारणचतुष्क के समूह से ही बंधरूप कार्य उत्पन्न होता है। इस कारण मिथ्यात्व आदिक ये चार बंध के कारण हैं। इनके प्रतिपक्षी सम्यक्त्वोत्पत्ति, देशसंयम, संयम, अनन्तानुबंधि-विसंयोजन, दर्शनमोहक्षपण, चारित्रमोहोपशमन, उपशान्तकषाय, चारित्रमोहक्षपण, क्षीणकषाय और सयोगिकेवली ये परिणाम मोक्ष के कारणभूत हैं, क्योंकि इनके निमित्त से प्रतिसमय असंख्यात गुणश्रेणीरूप से कर्मों की निर्जरा पाई जाती है।
जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व आदि जो पारिणामिक भाव है, वे बंध और मोक्ष दोनों में से किसी के भी कारण नहीं है, क्योंकि उनके द्वारा बंध या मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है।
प्रश्न-किस कर्म के क्षय से सिद्धों में कौन सा गुण उत्पन्न होता है ?
उत्तर-इस कर्म के क्षय से सिद्धों के यह गुण उत्पन्न हुआ है इस बात का ज्ञान कराने के लिए कुछ गाथाएँ यहाँ प्ररूपित की जाती हैं-
गाथार्थ-जिस ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव जिन द्रव्य, गुण और पर्याय इन तीनों को ही नहीं जानता है, उसी ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से वही जीव उन सभी तीनों को एक साथ जानने लगता है।।१।। जिस दर्शनावरणीय कर्म के उदय से जीव जिन द्रव्य, गुण और पर्याय इन तीनों को नहीं देखता है, उसी दर्शनावरणीय कर्म के क्षयसे वही जीव उन सभी तीनों को एक साथ देखने लगता है।।२।। जिस वेदनीय कर्म के उदय से जीव सुख और दु:ख इन दो प्रकार की अवस्था का अनुभव करता है, उस कर्म के क्षय से आत्मोत्थ अनंतसुख उत्पन्न होता है।।३।। जिस मोहनीय कर्म के उदय से जीव मिथ्यात्व, कषाय और असंयमरूप से परिणमन करता है, उसी मोहनीय के क्षय से इनके विपरीत गुणों को-सम्यक्त्व, संयम आदि गुणों को प्राप्त करता है।।४।। जिस आयु कर्म के उदय से बेचारा जीव प्रतिसमय मरता और जीता है, उसी कर्म के क्षय से वह जीव जन्म और मरण से रहित हो जाता है।।५।। जिस नाम कर्म के उदय से आंगोपांग, शरीर, इन्द्रिय मन और उच्छ्वास से योग्य निष्पत्ति होती है, उसी नाम कर्म के क्षय से सिद्ध अशरीरी होते हैं।।६।। जिस गोत्र कर्म के उदय से जीव उच्चोच्च, उच्च, उच्चनीच, नीचोच्च, नीच-नीच कुल में उत्पन्न होता है। उसी गोत्र कर्म के क्षय से यह जीव नीच और उच्च गोत्र से मुक्त होता है।।७।। जिस अन्तराय कर्म के उदय से जीव के वीर्य, उपभोग, भोग, दान और लाभ में विघ्न उत्पन्न होता है, उसी कर्म के क्षय से सिद्ध पाँच प्रकार की लब्धि से संयुक्त होते हैं।।८।। इन गाथाओं का अभिप्राय यह है कि-ज्ञानावरण कर्म के क्षय से महामुनि केवली भगवान केवलज्ञान की प्राप्ति करते हैं। दर्शनावरण कर्म के विनाश से केवलदर्शन प्राप्त होता है। वेदनीय कर्म के नाश से आत्मा अनन्तसुख का वेदन करता है। मोहनीयकर्म के घात से क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। आयुकर्म का निर्मूल नाश करने से अवगाहन गुण की प्राप्ति होती है। नामकर्म को नष्ट करके जीव अशरीरीर-शरीर रहित होकर सूक्ष्मत्व गुण को प्राप्त कर लेता है। गोत्रकर्म का विनाश करके अगुरुलघुत्व गुण को प्राप्त किया जाता है। अन्तराय कर्म के क्षय से अनन्तवीर्यपना प्राप्त होता है। ये आठ गुण सिद्ध परमेष्ठियों के मुख्यरूप से होते हैं तथा वे अनन्तानन्त गुणों से युक्त भी होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। गाथार्थ-जो जग में मंगलभूत हैं, विमल हैं, ज्ञान-दर्शनमय हैं और त्रैलोक्य के शेखर-मुकुटरूप हैं ऐसे समस्त सिद्धों को मेरा सदाकाल नमस्कार होवे।।९।। तात्पर्य यह है कि-गतिमार्गणा से रहित सिद्धों का पद प्राप्त करने हेतु हम उन्हें बारम्बार नमस्कार करते हैं। इस प्रकार बंध सत्व की प्ररूपणा के प्रथम स्थल में चतुर्गति के बंधक-अबंधक जीवों का प्रतिपादन करने वाले सात सूत्र पूर्ण हुए।
अब इंद्रियमार्गणा में बंधक और अबंधक जीवों का प्रतिपादन करने के लिए तीन सूत्रों का अवतार होता है-
सूत्रार्थ-इन्द्रियमार्गणा के अनुसार एकेन्द्रिय जीव बंधक हैं, द्वीन्द्रिय जीव बंधक हैं, त्रीन्द्रिय जीव बंधक हैं और चतुरिन्द्रिय जीव बंधक हैं।।८।। पंचेन्द्रिय जीव बंधक भी हैं, अबधंक भी हैं।।९।। अनिन्द्रिय जीव अबंधक हैं।।१०।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-एकेन्द्रिय जीव से आरंभ करके चार इंद्रिय जीव तक सभी नियम से मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग सहित ही होते हैं, अत: वे बंधक ही हैं। पञ्चेन्द्रियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगकेवली गुणस्थान तक के जीव बंधक ही हैं, क्योंकि वहाँ बंध के कारणभूत मिथ्यात्व-असंयम-कषाय और योग का सद्भाव पाया जाता है। अयोगकेवली भगवान अबंधक ही होते हैं। यहाँ कोई शंका करता है कि-जिन्होंने केवलज्ञान और केवलदर्शन से समस्त प्रमेय अर्थात् ज्ञेय पदार्थों को देख लिया है और जो करण अर्थात् इन्द्रियों के व्यापार से रहित हैं, ऐसे सयोगी और अयोगी केवलियों को पंचेन्द्रिय कैसे कह सकते हैं ? इसका समाधान करते हैं कि-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उनमें पंचेन्द्रिय नामकर्म का उदय विद्यमान है अत: उसकी अपेक्षा से उन्हें पंचेन्द्रिय कहा गया है। वहाँ पर वे द्रव्यपञ्चेन्द्रिय होते हैं, भावरूप से उनके इन्द्रियाँ नहीं होती हैं। ‘‘लब्धि और उपयोगरूप भावेन्द्रिय होती है’’ तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित इस सूत्र के कथनानुसार केवली भगवान के भावेन्द्रियाँ नहीं होती हैं, अत: वे केवली भगवान द्रव्यरूप से पञ्चेन्द्रिय कहलाते हैं। निरंजन सिद्धों में समस्त कर्मबंध का अभाव है, क्योंकि निरामय अर्थात् परम स्वस्थ जीवों में बंध के कारणों का अभाव पाया जाता है और वे गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान अनिन्द्रिय होते हैं, क्योंकि वे मूर्ति विरहित-अमूर्तिक होते हैं। तात्पर्य यह है कि-जो महामुनि स्वसंवेदनज्ञान के बल से पाँचों इन्द्रियों को संयमित करके निज शुद्ध-बुद्ध परमात्मा का ध्यान करते हैं, वे ही अनिन्द्रिय हो सकते हैं। इस प्रकार बंधक सत्त्व प्ररूपणा में द्वितीय स्थल में पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त जीवों के बंध-अबंध का कथन करने वाले तीन सूत्र पूर्ण हुए।
अब कायमार्गणा में बंधक-अबंधक जीवों का प्रतिपादन करने हेतु तीन सूत्र अवतरित होते हैं-
सूत्रार्थ-कायमार्गणानुसार पृथिवीकायिक जीव बंधक हैं, अप्कायिक जीव बंधक हैं, तेजस्कायिक जीव बंधक हैं, वायुकायिक जीव बंधक हैं और वनस्पतिकायिक जीव बंधक हैं।।११।। त्रसकायिक जीव बंधक भी हैं, अबंधक भी हैं।।१२।। अकायिक जीव अबंधक हैं।।१३।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-सभी सूत्रों का अर्थ सुगम है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगकेवली तक यहाँ भी बंध के कारण पाये जाते हैं किन्तु अयोगकेवली अबंधक होते हैं। कायरहित सिद्ध भगवान् सर्वथा अबंधक होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार तृतीय स्थल में कायमार्गणा में बंधक और अबंधक का निरूपण करने वाले तीन सूत्र पूर्ण हुए।
अब योगमार्गणा में बंधक और अबंधकों का स्वरूप बतलाने हेतु दो सूत्र अवतरित हो रहे है-
सूत्रार्थ- योगमार्गणानुसार मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी बंधक हैं।।१४।। अयोगी जीव अबंधक हैं।।१५।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-दोनों सूत्रों का अर्थ सुगम है। मन, वचन और काय संबंधी पुद्गलों के आलम्बन से जो जीव प्रदेशों का परिस्पन्दन होता है, वही योग कहलाता है। शंका-यदि ऐसा है तो अयोगी जीव नहीं होते हैं, क्योंकि क्रिया सहित जीव द्रव्य को अक्रियपना मानने में विरोध आता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि आठों कर्मों के क्षीण हो जाने पर जो ऊध्र्वगमनोपलम्बी क्रिया होती है वह जीव की स्वाभाविक क्रिया है, क्योंकि वह कर्मोदय के बिना प्रवृत्त होती है। स्वस्थित प्रदेश को न छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीव द्रव्य में अपने अवयवों द्वारा परिस्पन्दन होता है वह अयोग है, क्योंकि वह कर्मक्षय से उत्पन्न होता है। अत: सक्रिय होते हुए भी शरीरी जीव अयोगी सिद्ध होते हैं, क्योंकि उनके जीव प्रदेशों के तप्तायमान जल प्रदेशों के सदृश उद्वर्तन और परिवर्तनरूप क्रिया का अभाव है। इसीलिए अयोगियों को अबंधक कहा है। इस प्रकार योगमार्गणा में चतुर्थ स्थल में बंधक और अबंधक जीवों का कथन करने वाले दो सूत्र पूर्ण हुए।
अब वेदमार्गणा में बंधक और अबंधकों का निरूपण करने हेतु तीन सूत्र अवतरित होते है-
सूत्रार्थ-वेदमार्गणानुसार स्त्रीवेदी जीव बंधक होते हैं, पुरुषवेदी जीव बंधक हाते हैं और नपुंसकवेदी जीव भी बंधक होते हैं।।१६।। अपगतवेदी बंधक भी होते हैं, अबंधक भी होते हैं।।१७।। सिद्ध अबंधक होते हैं।।१८।। सिद्धान्तचिंतामणिटीका-तीनों वेद वाले जीव नवमें गुणस्थान तक बंधक ही होते हैं। अपगतवेदी तेरहवें गुणस्थान तक के जीव भी बंधक होते हैं, क्योंकि कषायसहित और कषायरहित जीवों के योग के सद्भाव में भी वेदरहित अवस्था पाई जाती है। अयोगकेवली भगवान अबंधक होते हैं। इस प्रकार पंचम स्थल में वेदमार्गणा में बंधक और अबंधकों का निरूपण करने वाले तीन सूत्र पूर्ण हुए।
अब कषायमार्गणा में बंधक और अबंधक जीवों का अस्तित्व बतलाने हेतु तीन सूत्र अवतरित होते हैं-
सूत्रार्थ-कषायमार्गणानुसार क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीव बंधक होते हैं।।१९।। अकषायी जीव बंधक भी हैं और अबंधक भी हैं।।२०।। सिद्ध अबंधक हैं।।२१।। सिद्धान्तचिंतामणिटीका-जिस कारण से संसारी जीव के ज्ञानावरण आदि मूलप्रकृति और उत्तर प्रकृति के भेद से भिन्न शुभ-अशुभ कर्मरूप क्षेत्र को अर्थात् धान पैदा होने की भूमि को यह कृषति अर्थात् जोतती है, उसी कारण से इन क्रोधादिरूप जीव परिणाम को श्रीवर्धमान भट्टारक के गौतम गणधर आदि देव कषाय कहते हैं। ये कषायें क्या-क्या कार्य करती हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यातचारित्ररूपी परिणामों को जो कषे-घाते-न होने दे, उसको कषाय कहते हैं। इसके अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलन इस प्रकार चार भेद हैं। अनन्तानुबंधी आदि चारों के क्रोध, मान, माया, लोभ इस तरह चार-चार भेद होने से कषाय के उत्तर भेद सोलह होते हैं। किन्तु कषाय के उदय स्थानों की अपेक्षा से असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं।। जो सम्यक्त्व को रोके उसको अनन्तानुबंधी, जो देशचारित्र को रोके उसको अप्रत्याख्यानावरण, जो सकल चारित्र को रोके उसको प्रत्याख्यानावरण, जो यथाख्यातचारित्र को रोके उसको संज्वलन कषाय कहते हैं।। तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व, अणुव्रतरूप देशचारित्र, महाव्रतरूप सकलचारित्र और यथाख्यातचारित्ररूप आत्मा के विशुद्ध परिणामों को कषति अर्थात् घातते हैं इसलिए इन्हें कषाय कहते हैं। इसका स्पष्टीकरण-अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभकषाय आत्मा के सम्यक्त्व परिणाम को घातती है, क्योंकि अनन्त संसार का कारण हैं। अनन्त अर्थात् मिथ्यात्व या अनन्तभव के संस्कार काल को ‘अनुबध्नन्ति’ बांधती हैं इसलिए उसे अनन्तानुबंधी कहते हैं, इस निरुक्ति के बल पर उसका कथन सिद्ध होता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय अणुव्रत परिणामों को घातती है। अप्रत्याख्यान अर्थात् ईषत् प्रत्याख्यान अर्थात् अणुव्रत को आवृण्वन्ति अर्थात् घातती है इस निरुक्ति से सिद्ध होता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय सकलचारित्ररूप महाव्रत परिणामों को घातती है। प्रत्याख्यान अर्थात् सकल संयम को आवृण्वन्ति अर्थात् घातती है, इस निरुक्ति से सिद्ध है। संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्ररूप परिणामों को घातती है। सं अर्थात् समीचीन विशुद्ध संयम यथाख्यात चारित्र को ‘ज्वलन्ति’ जो जलाती है, वह संज्वलन है इस निरुक्ति के बल से संज्वलन कषाय के उदय में सामायिक आदि अन्य संयमों के होने में कोई विरोध नहीं है, यह सिद्ध होता है। इस प्रकार की कषाय सामान्य से एक है। विशेष विवक्षा में अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से चार हैं। पुन: वे चारों भी प्रत्येक के क्रोध, मान, माया लोभ भेद होने से सोलह हैं। यथा अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ। पुन: सभी कषाय उदय स्थान विशेष की अपेक्षा असंख्यात लोक प्रमाण हैं, क्योंकि उसके कारण चारित्रमोहनीय के उत्तरोत्तर प्रकृतिभेद असंख्यात लोकमात्र हैं। अकषायी जीव बंधक भी होते हैं और अबंधक भी होते हैं। इसमें अभिप्राय यह है कि ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली तक बंधक-बंध करने वाले हैं और अयोगकेवली अबंधक-बंध रहित हैं। ये दोनों ही प्रकार के जीव कषायरहित-अकषायी कहे जाते हैं। अकषायी जीवों का लक्षण कहते हैं-
गाथार्थ-जिनके स्वयं को, दूसरे को तथा दोनों को ही बाधा देने और बंधन करने तथा असंयम करने में निमित्तभूत क्रोधादिक कषाय नहीं हैं तथा जो बाह्य और अभ्यन्तर मल से रहित हैं, ऐसे जीवों को अकषायी-कषाय रहित कहते हैं। यद्यपि गाथा में कषाय शब्द का ही उल्लेख है तथापि यहाँ नोकषाय का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। गुणस्थानों की अपेक्षा ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर सभी जीव अकषायी हैं। अपने, दूसरे और दोनों के इस प्रकार तीनों स्थानों में भी बंधन, बाधा तथा असंयम के निमित्तभूत क्रोधादि कषाय और पुरुषवेद आदि नोकषाय जिन जीवों के नहीं हैं, वे द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूप मल से रहित सिद्ध परमेष्ठी अकषाय-कषाय रहित हैं। यहाँ उपशान्तकषाय आदि चार गुणस्थानवर्तियों की विवक्षा नहीं है। सिद्ध भगवन अबंधक ही होते हैं, क्योंकि वे द्रव्यकर्म-भावकर्म और नोकर्म मल से सदैव अस्पृष्ट रहते हैं। इस प्रकार छठे स्थल में कषायसहित और कषायरहित जीवों के बंध-अबंध का निरूपण करने वाले तीन सूत्र पूर्ण हुए।
अब कषायमार्गणा में बंधक और अबंधक जीवों का अस्तित्व बतलाने हेतु तीन सूत्र अवतरित होते हैं-
सूत्रार्थ-कषायमार्गणानुसार क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीव बंधक होते हैं।।१९।। अकषायी जीव बंधक भी हैं और अबंधक भी हैं।।२०।। सिद्ध अबंधक हैं।।२१।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-जिस कारण से संसारी जीव के ज्ञानावरण आदि मूलप्रकृति और उत्तर प्रकृति के भेद से भिन्न शुभ-अशुभ कर्मरूप क्षेत्र को अर्थात् धान पैदा होने की भूमि को यह कृषति अर्थात् जोतती है, उसी कारण से इन क्रोधादिरूप जीव परिणाम को श्रीवर्धमान भट्टारक के गौतम गणधर आदि देव कषाय कहते हैं। ये कषायें क्या-क्या कार्य करती हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं- गाथार्थ-सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यातचारित्ररूपी परिणामों को जो कषे-घाते-न होने दे, उसको कषाय कहते हैं। इसके अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलन इस प्रकार चार भेद हैं। अनन्तानुबंधी आदि चारों के क्रोध, मान, माया, लोभ इस तरह चार-चार भेद होने से कषाय के उत्तर भेद सोलह होते हैं। किन्तु कषाय के उदय स्थानों की अपेक्षा से असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं।। जो सम्यक्त्व को रोके उसको अनन्तानुबंधी, जो देशचारित्र को रोके उसको अप्रत्याख्यानावरण, जो सकल चारित्र को रोके उसको प्रत्याख्यानावरण, जो यथाख्यातचारित्र को रोके उसको संज्वलन कषाय कहते हैं।। तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व, अणुव्रतरूप देशचारित्र, महाव्रतरूप सकलचारित्र और यथाख्यातचारित्ररूप आत्मा के विशुद्ध परिणामों को कषति अर्थात् घातते हैं इसलिए इन्हें कषाय कहते हैं। इसका स्पष्टीकरण-अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभकषाय आत्मा के सम्यक्त्व परिणाम को घातती है, क्योंकि अनन्त संसार का कारण हैं। अनन्त अर्थात् मिथ्यात्व या अनन्तभव के संस्कार काल को ‘अनुबध्नन्ति’ बांधती हैं इसलिए उसे अनन्तानुबंधी कहते हैं, इस निरुक्ति के बल पर उसका कथन सिद्ध होता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय अणुव्रत परिणामों को घातती है। अप्रत्याख्यान अर्थात् ईषत् प्रत्याख्यान अर्थात् अणुव्रत को आवृण्वन्ति अर्थात् घातती है इस निरुक्ति से सिद्ध होता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय सकलचारित्ररूप महाव्रत परिणामों को घातती है। प्रत्याख्यान अर्थात् सकल संयम को आवृण्वन्ति अर्थात् घातती है, इस निरुक्ति से सिद्ध है। संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्ररूप परिणामों को घातती है। सं अर्थात् समीचीन विशुद्ध संयम यथाख्यात चारित्र को ‘ज्वलन्ति’ जो जलाती है, वह संज्वलन है इस निरुक्ति के बल से संज्वलन कषाय के उदय में सामायिक आदि अन्य संयमों के होने में कोई विरोध नहीं है, यह सिद्ध होता है। इस प्रकार की कषाय सामान्य से एक है। विशेष विवक्षा में अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से चार हैं। पुन: वे चारों भी प्रत्येक के क्रोध, मान, माया लोभ भेद होने से सोलह हैं। यथा अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ। पुन: सभी कषाय उदय स्थान विशेष की अपेक्षा असंख्यात लोक प्रमाण हैं, क्योंकि उसके कारण चारित्रमोहनीय के उत्तरोत्तर प्रकृतिभेद असंख्यात लोकमात्र हैं। अकषायी जीव बंधक भी होते हैं और अबंधक भी होते हैं। इसमें अभिप्राय यह है कि ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली तक बंधक-बंध करने वाले हैं और अयोगकेवली अबंधक-बंध रहित हैं। ये दोनों ही प्रकार के जीव कषायरहित-अकषायी कहे जाते हैं। अकषायी जीवों का लक्षण कहते हैं- गाथार्थ-जिनके स्वयं को, दूसरे को तथा दोनों को ही बाधा देने और बंधन करने तथा असंयम करने में निमित्तभूत क्रोधादिक कषाय नहीं हैं तथा जो बाह्य और अभ्यन्तर मल से रहित हैं, ऐसे जीवों को अकषायी-कषाय रहित कहते हैं। यद्यपि गाथा में कषाय शब्द का ही उल्लेख है तथापि यहाँ नोकषाय का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। गुणस्थानों की अपेक्षा ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर सभी जीव अकषायी हैं। अपने, दूसरे और दोनों के इस प्रकार तीनों स्थानों में भी बंधन, बाधा तथा असंयम के निमित्तभूत क्रोधादि कषाय और पुरुषवेद आदि नोकषाय जिन जीवों के नहीं हैं, वे द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूप मल से रहित सिद्ध परमेष्ठी अकषाय-कषाय रहित हैं। यहाँ उपशान्तकषाय आदि चार गुणस्थानवर्तियों की विवक्षा नहीं है। सिद्ध भगवन अबंधक ही होते हैं, क्योंकि वे द्रव्यकर्म-भावकर्म और नोकर्म मल से सदैव अस्पृष्ट रहते हैं। इस प्रकार छठे स्थल में कषायसहित और कषायरहित जीवों के बंध-अबंध का निरूपण करने वाले तीन सूत्र पूर्ण हुए।