विजयमेरु विदिशा विषै, कहें चार गजदंत।
तिनमें चारों जिननिलय, कहे अनादि अनंत।।१।।
तिनके श्री जिनबिंब जे, सर्व द्वंद्व हरतार।
मैं विधिवत पूजन करूँ, त्रिजगवंद्य भरतार।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिचतुर्गजदंतपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिचतुर्गजदंतपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बसमूह!अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिचतुर्गजदंतपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
दुग्धसिंधु के समान, स्वच्छ नीर लाइये।
पूजते जिनेन्द्रपाद, दाह को मिटाइये।।
चार गजदंत के, जिनेन्द्र सद्म मैं जजूँ।
सर्व ऋद्धि सिद्धिदायि, जैनबिंब मैं जजूूँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिचतुर्गजदंतपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंकुमादि गंध से जिनेन्द्र पाद पूजिये।
सर्व मोहताप नाश, शान्त चित्त हूजिये।।चार.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिचतुर्गजदंतपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
सोमरश्मि के समान, अक्षतों को लाइये।
अक्षयी अनंददायि, पुंज को चढ़ाइये।।
चार गजदंत के, जिनेन्द्र सद्म मैं जजूँ।
सर्व ऋद्धि सिद्धिदायि, जैनबिंब मैं जजूूँ।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिचतुर्गजदंतपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
पारिजात मालती, गुलाब पुष्प लाइये।
मार मल्लहारि देव, पूज सौख्य पाइये।।चार.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिचतुर्गजदंतपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
व्यंजनादि ओदनादि सर्पि से मिलाइये।
आप पूजते क्षुधादि रोग को मिटाइये।।चार.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरâसंबंधिचतुर्गजदंतपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णदीप में कपूर, ज्योति को जलाइये।
आरती करेय मोह, ध्वांत को भगाइये।। चार.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिचतुर्गजदंतपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप ले दशांग अग्नि, संग में जराइये।
अष्ट कर्म भस्म धूम, शीघ्र ही उड़ाइये।।चार.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिचतुर्गजदंतपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेव आम्र निंबुकादि, थाल में भराइये।
आप चर्ण को चढ़ाय, सर्व सौख्य पाइये।।चार.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिचतुर्गजदंतपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अंबु गंध अक्षतादि, दिव्य अर्घ्य लीजिये।
चर्ण में चढ़ाय के, अनर्घ्य राज्य कीजिये।।
चार गजदंत के, जिनेन्द्र सद्म मैं जजूँ।
सर्व ऋद्धि सिद्धिदायि, जैनबिंब मैं जजूूँ।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिचतुर्गजदंतपर्वतसिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षीरोदधि उनहार, उज्ज्वल जल ले भृंग में।
श्रीजिन चरण सरोज, धारा देते भव मिटे।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सुरतरु के सुम लेय, प्रभुपद में अर्पण करूँ।
कामदेव मदनाश, पाऊं आनंद धाम मैं।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
विजयमेरु चारों विदिश, चार कहे गजदंत।
तिनके जिनमंदिर जजूँ पुष्पांजली करंत।।१।।
इति श्रीविजयमेरुसंबंधिगजदंतस्थाने मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
विजयमेरु आग्नेय कोण में, ‘सौमनस्य’ गजदंता।
रौप्यमयी वह सातकूट में, सिद्धकूट अघहंता।।
जिनमंदिर में श्रीजिनप्रतिमा, भानु समान विभासें।
अर्घ लेय मैं जजूँ मुदित मन, ज्ञान भानु परकासे।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरुसंबंधिसौमनसगजदंतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयमेरु नैऋत्य कोण में, ‘विद्युतप्रभ’ गजदंता।
तप्तकनक छवि नवकूटों में, सिद्धकूट चमकंता।।जिन.२।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरâसंबंधिविद्युत्प्रभगजदंतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयमेरु वायव्य कोण में ‘गंधमादनी’ सोहे।
कांचन समद्युति सात कूट युत, सिद्धकूट मन मोहे।।
जिनमंदिर में श्रीजिनप्रतिमा, भानु समान विभासें।
अर्घ लेय मैं जजूँ मुदित मन, ज्ञान भानु परकासे।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरâसंबंधिगंधमादनगजदंतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयमेरु ईशान कोण में, ‘माल्यवान’ गजदंता।
नवकूटों युत सिद्धकूट धर, नीलम छवि छलकंता।।जिन.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरâसंबंधिमाल्यवानगजदंतस्थितसिद्धकूटजिनालय-स्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दुतियमेरु के चारों विदिशा, गजदंतनि जिनधामा।
इन्द्र चक्रि धरणीन्द्र मुनीन्द्रा, वंदत हैं शिवकामा।।जिन.।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरâसंबंधिविदिशायां चतुर्गजदंताचलस्थितसिद्धकूट-जिनालयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं अर्हं शाश्वतजिनालयस्थसर्वजिनबिंबेभ्यो नम:।
गजदंताचल चार, तिनके श्रीजिनभवन में।
जिनवर बिंब महान, तिनकी गुणमाला कहूँ।।१।।
हे नाथ आप त्रैलोक्य वंद्य, त्रिभुवन के स्वामी इन्द्रवंद्य।
तुम ज्योतिरूप मंगल स्वरूप, तुम निर्विकार परमात्म रूप।।२।।
भविजनमन कुमुद विकास चन्द्र, हे नाथ तुम्हीं भुवनैकचन्द्र।
मुनिगण हृदयाम्बुज सूर्यनाथ, शिवरमणी को कीयो सनाथ्।।३।।
तुम दरस ज्ञान सुख वीर्यवान, तुम अतुल अमल अनुपम निधान।
तुम हो अनंत गुण पुंज ईश, गणधर गुणधर तुम नाय शीश।।।४।।
तुम गुणरत्नाकर देवदेव, तुम करुणा सागर देवदेव।
तुम जन्म मृत्यु अरि जीत लीन, सब रोग शोक बाधा विहीन।।५।।
सब क्षुधा तृषादिक दु:ख खान, तुम कर्म शत्रु जीते महान।
तुम मूर्ति रहित भी मूर्तिमान, तुम देहरहित भी कांतिमान।।६।।
तुम शुद्ध बुद्ध ज्ञायक अखंड, भवसिंधु भव्य तारन तरंड।
तुम अविचल आनंद कंद धाम, मेरी भव बाधा हरो आन।।७।।
तुम बिंब अचेतन रत्नसार, फिर भी वांछित फल दे अपार।
उपदेश नहीं देवे कदापि, शिवमार्ग प्रकट करती तथापि।।८।।
ये आदि अन्त से शून्य जान, भविजन को शिव सुख हेतु भानु।
सब वीतराग छविमान बिंब, सब सौम्य मूर्ति द्युतिमान बिंब।।९।।
जिनप्रतिमा वंदों बारबार, सब सिद्धों को नित नमस्कार।
हे नाथ! हरो मेरे कलेश, मुझ को निजपद देवो महेश।।१०।।
जय गजदंताचल, जिनगृह निरमल, जय जय हे त्रैलोक्यपती।
जय मंगलकारी, कर्मविदारी, जय तुम ध्यावें ‘ज्ञानमती’।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरो: गजदन्ताचलस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थसर्वजिनबिंबेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।
जो भक्ति श्रद्धा भाव से यह ‘इन्द्रध्वज’ पूजा करें।
नव निद्धि रिद्धि समृद्धि पा देवेन्द्र सुख पावें खरे।।
नित भोग मंगल सौख्य जग में, फेर शिवललना वरें।
जहं अंत नाहीं ‘‘ज्ञानमति’’ आनंद सुख झरना झरें।।
।।इत्याशीर्वाद:।।