-शंभु छंद-
हे आदिनाथ! हे आदीश्वर! हे वृषभ जिनेश्वर! नाभिललन!
पुरुदेव! युगादिपुरुष! ब्रह्मा, विधि और विधाता मुक्तिकरण।।
मैं अगणित बार नमूँ तुझको, वन्दूं ध्याऊँ गुणगान करूँ।
स्वात्मैक परम आनन्दमयी, सुज्ञान सुधा का पान करूँ।।१।।
षट् मास योग में लीन रहे, लंबित भुज नासा दृष्टी थी।
निज आत्म सुधारस पीते थे, तन से बिल्कुल निर्ममता थी।।
फिर ध्यान समाप्त किया प्रभु ने, आहार विधी बतलाने को।
भव सिंधू में डूबे जन को, मुनिमार्ग सरल समझाने को।।२।।
षट्मास भ्रमण करते-करते, प्रभु हस्तिनागपुर में आये।
सोमप्रभ नृप श्रेयांस तभी, आहार दान दे हर्षाये।।
रत्नों की वर्षा हुई गगन से, सुरगण मिल जयकार किया।।
धन्य-धन्य हुई वैशाख सुदी, अक्षय तृतीया आहार हुआ।।३।।
क्रोधादिक रिपु को जीत प्रभो, स्वात्मा से जनित सुखामृत को।
पीकर अत्यर्थतया निशदिन, भव से सु निकाला आत्मा को।।
त्रिभुवन के मस्तक पर जाकर, अब तक व अनंते कालों तक।
ठहरेंगे वे पुरुदेव! मुझे लोकाग्रसंपदा देवें झट।।४।।
भव वन में घूम रहा अब तक, किंचित् भी सुख नहीं पाया हूँ।
हे चंद्रप्रभो! तुम ज्ञाता हो, अतएव शरण में आया हूँ।।
सुरपति गणपति नरपति नमते, तव गुणमणि की बहुभक्ति लिए।
मैं भी नत हूँ तव चरणों में, अब मेरी भी रक्षा करिये।।५।।
हे प्रभु! तुमने जहाँ ध्यान धरा, उस वन की शोभा क्या कहिए।
जहाँ शीतल मंद पवन बहती, षट् ऋतु के कमल खिले लहिए।।
सब जात विरोधी गरुड़ सर्प मृग सिंह खुशी से झूम रहे।
सुर खेचर नरपति आ आकर, मुकुटों से जिनपद चूम रहे।।६।।
भव वन में भ्रमते-भ्रमते अब, मुझको कथमपि विज्ञान मिला।
हे नेमि प्रभो! अब नियम बिना, नहिं जाने पावे एक कला।।
मैं निज से पर को पृथक् करूँ, निज समरस में ही रम जाऊँ।
मैं मोह ध्वांत का नाश करूँ, निज ज्ञान सूर्य को प्रकटाऊँ।।७।।
प्रभु समवसरण में कमलासन, पर चतुरंगुल से अधर रहें।
चउदिश में प्रभु का मुख दीखे, अतएव चतुर्मुख ब्रह्मा हैं।।
प्रभु के विहार में चरण कमल, तल स्वर्ण कमल खिलते जाते।
बहु कोसों तक दुर्भिक्ष टले, षट्ऋतुज फूल फल खिल जाते।।८।।
तरुवर अशोक था शोक रहित, सिंहासन रत्न खचित सुन्दर।
छत्रत्रय मुक्ताफल लंबित, भामंडल भवदर्शी मनहर।।
सुरदुंदुभि बाजे बाज रहें, ढुरते हैं चौंसठ श्वेत चमर।
सुर पुष्पवृष्टि नभ से बरसे, दिव्यध्वनि पैâले योजन भर।।९।।
भव संकट हर्ता पार्श्वनाथ! विघ्नों के संहारक तुम हो।
हे महामना हे क्षमाशील! मुझमें भी पूर्ण क्षमा भर दो।।
यद्यपि मैंने शिव पथ पाया, पर यह विघ्नों से भरा हुआ।
इन विघ्नों को अब दूर करो, सब सिद्धि लहूँ निर्विघ्नतया।।१०।।
यदि किसी तरह से हे शीतल! शशि किरण सदृश तव वचन मिले।
भव आतप से झुलसे प्राणी, के तत्क्षण ही मन कुमुद खिले।।
फव्वारागृह अमृतवाणी, मलयाचल चंदन भी फिर क्या ?
त्रिभुवन दुख दाव शांत करते, शीतल तव वचन अहो फिर क्या ?।।११।।
श्री शांतिप्रभो! शरणागत जन, शान्ती के दाता कहें तुम्हें।
यह धन्य हुई हस्तिनापुरी, जहाँ राज्य किया शांतीश्वर ने।।
षोडश तीर्थंकर कामदेव, पंचम चक्री त्रय पदधारी।
वर ज्येष्ठ वदी चौदस के दिन, त्रिभुवन साम्राज्य मिला भारी।।१२।।
सम्यग्दर्शन औ ज्ञान चरण, ये रत्नत्रय निधि मुझे मिली।
तनु से ममता भव बीज अहा! सम्यग्दृक् कलिका आज खिली।।
हे शांतिनाथ! मैं नमूँ सदा, बस भक्ती का फल एक मिले।
नहिं बार-बार मैं जन्म धरूँ, बस मुझको सिद्धी शीघ्र मिले।।१३।।
महावीर वीर सन्मति भगवन्! अतिवीर सदा मंगल करिये।
हे वर्धमान भव वारिधि से, अब मुझको पार तुरत करिये।।
वह कुंडलपुरि जग पूज्य हुई, सिद्धार्थ दुलारे जन्मे थे।
प्रियकारिणि माँ की गोदी में, त्रिभुवन के गुरुवर खेले थे।।१४।।
हे वीरप्रभो! मंगलमय तुम! लोकोत्तम शरणभूत तुम ही।
भव भव के संचित पाप पुंज, इक क्षण में नष्ट करो सब ही।।
मैं बारम्बार नमूँ तुमको, भगवन्! मेरे भव त्रास हरो।
‘सज्ज्ञानमती’ सिद्धी देकर, स्वामिन्! अब मुझे कृतार्थ करो।।१५।।
-दोहा-
सप्तपरमस्थानप्रद, सप्त तीर्थंकर वंद्य।
नमूँ अनंतों बार मैं, पाऊँ सौख्य अनंत।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं सप्तपरमस्थानप्रदायक-श्रीऋषभदेव-चंद्रप्रभ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-शीतलनाथ-
शांतिनाथ-महावीरस्वामितीर्थंकरेभ्य: जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो सप्तपरमस्थान तीर्थंकर विधान सदा करें।
वे भव्य क्रम से सप्तपरमस्थान की प्राप्ती करें।।
संसार के सुख प्राप्त कर फिर सिद्धिकन्या वश करें।
सज्ज्ञानमति रविकिरण से भविमन कमल विकसित करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।
चौबीस तीर्थंकर को वंदूँ, माँ सरस्वती को नमन करूँ।
गणधर गुरु के सब साधू के, श्री चरणों में नित शीश धरूँ।।
इस युग में कुंदकुंदसूरी, का अन्वय जगत् प्रसिद्ध हुआ।
इसमें सरस्वती गच्छ बलात्कार, गण अतिशायि समृद्ध हुआ।।१।।
इस परम्परा में साधु मार्ग, उद्धारक दिग्अंबर धारी।
आचार्य शांतिसागर चारित्र-चक्रवर्ती पद के धारी।।
इन गुरु के पट्टाधीश हुए, आचार्य वीरसागर गुरुवर।
इनकी मैं शिष्या गणिनी-ज्ञानमती आर्यिका प्रथित भू पर।।२।।
वीराब्द पच्चीस शतक उनतालिस, श्रावण सुदि प्रतिपद शुभतम।
हस्तिनागपुर में अनुपम व्रत, सप्तपरमस्थान उत्तम।।
यह सप्तपरमस्थान विधान, भक्ती से मैंने पूर्ण किया।
प्रभु सात तीर्थंकर के नानाविध, गुणगण का स्तवन किया।।३।।
मैंने जिनवर की भक्तीवश, बहुतेक विधान रचें सुंदर।
इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम विधान, सर्वतोभद्र पूजा मनहर।।
श्री जम्बूद्वीप व तीनलोक, आदिक विधान जगमान्य हुए।
भक्तीप्रधान इस युग में तो, भक्तों को अतिशय मान्य हुए।।४।।
श्री सप्तपरमस्थान तीर्थंकर, का विधान जग प्रिय होवे।
जब तक जिनधर्म रहे जग में, तब तक भक्तों का अघ धोवे।।
भव्यों को सप्त परमस्थान का, दाता अतिशयकारी हो।
वैâवल्य ज्ञानमति पाने तक, जिनवर भक्ती सुखकारी हो।।५।।
।।इति सप्तपरमस्थानविधानं संपूर्णं।।
।।जैनं जयतु शासनम्।।