य: सर्वाणीत्यादि। यो वीरो भगवान् जानीते तस्मै नम:। कि जानीते ? सर्वाणि द्रव्याणि।। कथम्भूतानि? चराचराणि।। चराणि सक्रियाणि जीवपुद्गलद्रव्याणि। अचराणि निष्क्रियाणि धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि। कथं तान्यसौ जानीते? विधिवद् यथावत्। न केवलं तान्येवासौ जानीते, अपि तु तेषां गुणान्पर्यायानपि। तेषां सर्वद्रव्याणां ये सम्बन्धिनो गुणा: सहभुवो धर्मा:, ये च पर्याया: क्रमभुवो विवर्तास्तानपि सर्वान् सर्वथा अशेषविशेषतो जानीते। कथम्भूतान् ? भूतभाविभवत: अतीतानागतवर्तमानान्। कि कदाचिदेवासौ तांस्तथा ज्ञास्यतीत्याह—युगपत्। एकहेलयैव, न पुनर्देशकालस्वभावक्रमेण, करणक्रमव्यवधानातिवर्तिज्ञानस्वभावत्वात्तस्य। तर्हि किंस्मश्चिदेव क्षणे तांस्तथा ज्ञास्यति, पश्चात्क्रमेणेत्याह—प्रतिक्षणं क्षणं क्षणं प्रति तांस्तथा जानीते, न पुन: किंस्मश्चिचदेव क्षणे। यत एवंविधो भगवान्, अत: सर्वज्ञ इत्युच्यते। सर्वं हि वस्तु युगपद्यथावज्जानातीति सर्वज्ञस्तस्मै सर्वज्ञाय। जिनेश्वराय देशजिनस्वामिने। महते गुणोत्कृष्टाय।। वीराय अन्तिमतीर्थंकराय। नम:।
अर्थ-जो महावीर भगवान चर-जीव, पुद्गल और अचर-धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन सभी द्रव्यों को तथा इन द्रव्यों के सभी गुणों को और भूत, भविष्यत्, वर्तमान सर्व पर्यायों को भी यथावत्-जैसे का तैसा सर्वकाल अशेष विशेषरूप से युगपत् और प्रतिक्षण जानते हैं-देश, काल, स्वभाव के क्रम से या इन्द्रियों के व्यवधान से नहीं, प्रत्युत एक साथ सब कुछ जानते हैं। कहा भी है-
सम्पूर्ण वस्तु को-तीनों लोकों को एक साथ ज्यों की त्यों जानते हैं, अत: वे सर्वज्ञ कहलाते हैं। उन सर्वगुणों से उत्कृष्ट, सर्वज्ञ, जिनेश्वर अंतिम तीर्थंकर वीर भगवान को मेरा नमस्कार हो।
तदेव तन्महत्त्वं सप्तविभक्तिनिर्देशेन गुणस्तवनद्वारेण प्रदर्शयति—वीर: सर्वसुरासुरेन्द्रमहित:। सर्वे च ते सुरासुरेन्द्राश्च वैमानिकभवनवास्यादीन्द्रास्तैर्महित: पूजित:। वीरं बुधा: संश्रिता:। बुधा गणधरादयो वीरं संश्रिता: संसारसमुद्रोत्तरणार्थं समाश्रिता:। वीरेणाभिहतो। विनाशित:। कोऽसौ? स्वकर्मनिचय:। स्वस्य स्वकीयानां वा भव्यानां कर्मनिचयो ज्ञानावरणादिकर्मसंघात:। इत्थम्भूताय वीराय भक्त्या नम:। वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्तं—तीर्यते संसारसमुद्रो येन तत्तीर्थं श्रुतम्। इदमंगांगबाह्य—भेदभिन्नम्। िंकविशिष्टम् ? अतुलं निर्बाधत्वेन। विशिष्टार्थप्रतिपादकत्वेन चानुपमम्। वीरस्य घोरं तपो। घोरं दुष्करं तपो बाह्यमाभ्यन्तरं च वीरस्य भगवत: संबन्धि, नान्येषाम्। वीरे श्रीद्युतिकांतिकी—र्तिधृतय:। श्रीरन्तरंगा बहिरंगा चानन्तज्ञानादिसमवसरणादिविभूति:। द्युतिर्देहज्योति:। कान्ति: कमनीयता लावण्यविशेषो वा। कीर्ति: सार्वत्रिकी ख्यातिर्वाणी वा, कीर्त्यन्ते जीवादयोऽर्था: ययेति व्युत्पत्ते:। धृतिर्निराकांक्षणम्। (ता:) यत: एतास्त्वयि विद्यन्ते, अत:। हे वीर भद्र परमकल्याणं त्वयि।।
अर्थ-इस पद्य में सप्त विभक्तियों द्वारा वीर भगवान की स्तुति की गई है। वीर भगवान सर्व सुरेन्द्र-कल्पवासी देवेन्द्र और असुरेन्द्र-भवनवासी आदि देवों के इन्द्रों से पूज्य हैं। गणधर देवादि बुद्धिमान पुरुषों ने ऐसे वीर भगवन् का संसार समुद्र से पार होने के लिए आश्रय लिया है। वीर भगवान ने अपने एवं भव्यों के भी कर्मसमूह का नाश कर दिया है। ऐसे वीर भगवान के लिए मेरा नमस्कार हो। वीर भगवान से इस तीर्थ की प्रवृत्ति हुई है। ‘तीर्यते संसार समुद्रो येन तत्तीर्थं’ जिसके द्वारा संसार समुद्र तिरा जाता है वह तीर्थ कहलाता है यह अंग और अंगबाह्य श्रुतज्ञानरूप है यह तीर्थ निर्बाध होने से और विशिष्ट अर्थ का प्रतिपादक होने से अतुल है-अनुपम है। वीर भगवान का तप घोर है-दुष्कर है तथा बाह्य और अभ्यंतर के भेद से दो भेदरूप है। इन वीर भगवान में अनंत चतुष्ट्यादि अंतरंग लक्ष्मी और समवसरण विभूति आदि बहिरंग लक्ष्मीरूप श्री द्युति-देहकी ज्योति, कांति-सुंदरता या लावण्यविशेष, कीर्ति-सर्वत्र व्याप्त होने वाली ख्याति या वाणी-जिसके द्वारा जीवादिपदार्थ कहे जाते हैं ऐसी दिव्यवाणी एवं धृति-धैर्य-निराकांक्षा विशेष गुण विद्यमान हैं। ऐसे हे वीर! आप में परमकल्याण है।
इत्थम्भूते च त्वयि भगवन् ये भक्तिं कुर्वन्ति तेषां फलमुपदर्शयन्नाह—ये वीरेत्यादि। ये भव्यजना: वीरपादौ प्रणमंति नित्यं। िंकविशिष्टा:? ध्याने स्थिता: एकाग्रतां गता:। संयमयोगयुक्ता: संयमेन द्वादशप्रकारेण यावज्जीवव्रतलक्षणेन वा उपलक्षितो योगो मनोवाक्कायव्यापारश्चित्तवृत्तिनिरोधो वा। तेन युक्ता: सन्त:। ते वीतशोका:। विनष्टशोका हि स्फुटं लोके त्रिभुवने भवन्ति। शोको ह्यधर्मप्रभव:। तत्प्रणामे च विशिष्ट—धर्मोत्पत्तेरधर्मप्रक्षयाच्छोका—भावा:। एवंविधाश्च ते संसारदुर्गं विषमं तरांfत। संसार एव दुर्गं महाटवी विषमं रौद्रमनेकप्रकारदु:ख—दायित्वेन भयानकत्वात्। तत् तरन्ति अतिक्रामन्ति लंघयंति।
अर्थ-जो ध्यान में स्थित तथा जीवदयालक्षण और इन्द्रियमन के निग्रहरूप संयम से मन, वचन, काय के व्यापार को रोककर एकाग्रचित्त हुए नित्य ही वीर भगवान के चरणों में नमस्कार करते हैं, वे भव्यात्मा शोकरहित होते हुए संसाररूपी विषम दुर्ग से पार हो जाते हैं। भगवान को प्रणाम करने से विशेष धर्म की उत्पत्ति होती है और अधर्म का क्षय हो जाने से शोक का अभाव हो जाता है। यहाँ संसार को दुर्ग-महान् वन की संज्ञा दी है, विषम-रौद्र अनेक प्रकार के दु:खों को देने वाला होने से यह संसार भयानक है। ऐसे विषम संसार को वीर भगवान के नमस्कार से पार कर लेते हैं।
इदानीं भगवदुपदिष्टश्चारित्रवृक्षोऽस्माकं भवविभवहान्यै भवत्वित्यभिनन्दयन्नाह। व्रतेत्यादि। वृक्षस्य हि मूलानि भवंति। अयं तु चारित्रवृक्षो व्रतसमुदयमूल: व्रतानां समुदय: समृद्धि:। समुदायो वा मूलानि यस्य। तथा वृक्षस्य स्कन्धो भवति। अयं तु चारित्रवृक्ष: संयमस्कन्धबन्ध: संयम एव स्कन्धबन्ध: शास्त्रनिर्गमप्रदेशसन्निवेशविशेषो यस्य। वृक्षो जलेन वर्धते, अयं पुन: यमनियमपयोभिर्वर्धित:। यमो यावज्जीवव्रतं, नियमो नियतकालं व्रतम्। तावेव पयांसि तैर्वर्धित:। तथा वृक्षस्य शाखा भवंति, अयं तु शीलशाख:। व्रतपरिरक्षणं शीलमष्टादशसहस्रसंख्यानि वा शीलानि। तान्येव शाखा यस्य। तथा वृक्ष: कलिकासमूहसमन्वितो भवति, चारित्रवृक्षस्तु समितिकलिकभार:। कलिकानां पुष्पचों (बों) डिकानां भार: संघात: कलिकभार:। ‘त्वे द्याप्यो: (ङ्यापो:) क्वचित् खौ च’ (जै. ४/३/१७३) इति प्रादेश:, शिंशपस्थलमित्यादिवत्। समितय एव कलिकाभारो यस्य। तथा वृक्ष: सत्पल्लवो भवति, अयं तु गुप्तिगुप्तप्रवाल:। गुप्तीनां गुप्तं रक्षणं तदेव प्रबाला: पल्लवा यस्य। गुप्तय एव वा गुप्ता रक्षिता (नि. (ति.) रोहिता वा प्रवाला यस्य। तथा वृक्ष: पुष्पसुगन्धिर्भवति, अयं तु गुणकुसुमसुगंधि:। चतुरशीतिलक्षसंख्या गुणा एव कुसुमानि तैस्सुगंधि: परिमलामोद:। तथा वृक्ष: पत्राढ्यो भवति, अयं तु सत्तपश्चित्रपत्र:। सत्तपांसि सम्यक्तपांसि तान्येव चित्राणि नानाप्रकाराणि पत्राणि यस्य। तथा वृक्ष: फलप्रदो भवति, चारित्रवृक्ष: पुन: शिवसुखफलदायी शिवसुखं मोक्षसुखमनंतम्। तदेव फलम्। तद्ददातीत्येवंशील:। तथा वृक्षो घनच्छाय: पथिकानां खेदापहारी दिनकरतापापनोदकारी च भवति, अयं तु दयाछाययोद्य: (द्ध:) दयैव छाया प्राणिनामसंतापकारित्वेन शीतलत्वात्। तया छाययोद्य: (द्ध:) प्रशस्त:। शुभजनपथिकानां खेदनोदे समर्थ:। शुभजना भव्यजनास्त एव पथिका मोक्षमार्गे प्रस्थितास्तेषां खेद: संसारपरिभ्रमणक्लेश१ स्तस्य नोदो विनाशस्तत्र समर्थ:। कि कुर्वन् ? दुरितरविजतापं प्रापयन्नन्तभावम् प्रापयन् नयन्। अन्तभावं प्रध्वंसरूपताम्। कम् ? दुरितरविजतापम्। दुरितं पापं तदेव रवि: प्राणिनां संतापकारित्वात्। तस्माज्जातो दुरितरविज:। स चासौ तापश्चतुर्गतिदु:खसंतापस्तम्। इत्थम्भूतो यश्चारित्रवृक्ष: सोऽस्तु भवतु। नोऽस्माकम्। किमर्थं भवतुं ? भवविभवहान्यै। भवे संसारे विविधा नाना-प्रकारा भवास्तेषां हान्यै विनाशाय।
अर्थ-भगवान के द्वारा उपदिष्ट चारित्रवृक्ष हम सभी के भव को नष्ट करने वाला होवे।
व्रतों का समुदाय इस चारित्रवृक्ष की जड़ है, संयम ही इस वृक्ष का स्कंध-तना है, नियमरूप जल के द्वारा यह वृक्ष वृद्धिंगत होता रहता है-जीवनपर्यंत के लिए ग्रहण किये गये व्रत यम कहलाते हैं और कुछ सीमित काल के लिए ग्रहण किये व्रत नियम कहलाते हैं। व्रत के परिरक्षणरूप शील अथवा अठारह हजार शील के भेद ही इस वृक्ष की शाखाएँ हैं। समितियाँ ही इस वृक्ष की कलियाँ हैं। गुप्तिरूपी प्रवाल कोंपल इस वृक्ष में निकले हुए हैं। गुण-चौरासी लाख उत्तरगुण वे ही पुष्प अपनी सुरभि बिखेर रहे हैं। सम्यक्त्वश्चरणरूपी अनेक प्रकार के पत्ते इस वृक्ष में लगे हुए हैं। ऐसा यह चारित्ररूपी वृक्ष मोक्षसुखरूपी अनंत फल को देने वाला है।
सूर्य के ताप से संतप्त पथिकों के खेद-श्रम को दूर करने में समर्थ ऐसा यह वृक्ष दयारूपी छाया को प्रदान करने वाला है। पापरूपी सूर्य से उत्पन्न हुआ जो ताप-चतुर्गति का दु:ख उसको यह नष्ट करने वाला है। ऐसा यह चारित्ररूपी वृक्ष हम सभी के संसार में उत्पन्न होने वाला नाना प्रकार के भवों को नष्ट करने वाला होवे।
यतश्चैवंविधोऽसौ चारित्रवृक्षस्तस्मादात्मनस्तत्प्राप्तिमिच्छन्ग्रंथकारश्चारित्रं स्तोतुं। चारित्रमित्याद्याह—प्रणमामि। िंक तत् ? चारित्रम्। िंक विशिष्टम् ? पंचभेदं सामायिकादिपंचप्रकारम्। तथा सर्वजिनैश्चरितं कर्मक्षयार्थं स्वयमनुष्ठितम्। प्रोक्तं च सर्वशिष्येभ्य:। प्रस्पष्टं यथा भवत्येवमुक्तं प्रतिपादितं सकलभव्यजनेभ्य:। किमर्थं तद्भवतां प्रणम्यते ? पंचमचारित्रलाभाय। पंचमचारित्रं नि:शेषकर्मप्रक्षय—प्रसाधकं यथाख्यातचारित्रम्। तस्य लाभाय प्राप्तये।
अर्थ-सभी तीर्थंकरों ने कर्मों का क्षय करने के लिए स्वयं इस चारित्र को पाला है और सभी शिष्यों के लिए-सभी भव्यों के लिए इसी चारित्र का प्रतिपादन किया है। ऐसे सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात इन पाँच भेदरूप चारित्र को मैं सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करने वाले ऐसे पाँचवें यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ।
तस्यैव चारित्रस्य सद्धर्मापरशब्दाभिधेयस्य सप्तविभक्तिनिर्देशेन स्वरूपं प्रशस्यात्मनस्ततो रक्षां प्रार्थयमान: प्राह—धर्म इत्यादि। धर्मश्चारित्रमुत्तमक्षमादिश्च। तत्र चारित्रस्य प्रस्तुतत्वादिह ग्रहणम्। धर्मश्चारित्रम्। सर्वसुखाकर:। सर्वसुखानां स्वर्गापवर्गादिसुखानामाकर उत्पत्तिस्थानम्। तथा हितकर:। हितस्य परिणाम पथ्यस्य पुण्यस्य जनक:। यत एवंविधो धर्मोऽतस्तं धर्मं बुधा: परमविवेक-सम्पन्नास्तीर्थकरादयश्चिन्वत उपचयं नयन्ति। मोक्षप्राप्त्यर्थं पुष्टिमनुतिष्ठन्तीत्यर्थ:। यतो धर्मेणैव समाप्यते सम्यक्प्राप्यते शिवसुखं मोक्षसुखम्। तस्मा एवंविधाय धर्माय नम:। यतो धर्मान्नास्त्यपर: सुहृद्भवभृतां सुहृदुपकारको भवभृतां संसारिणां धर्मात्सकाशादपरोऽन्यो नास्ति। इत्थम्भूतस्य च धर्मस्य मूलं कारणं दया करुणा, निर्दयस्य धर्मांशस्याप्यसम्भवात्। एवंविधे च धर्मे प्रतिदिनमहं चित्तं दधे धरामि तत्र दत्तावधानी भवामि। त्वयि चित्तं दधानं च मां हे धर्म पालय संसारमहार्णवे पतंतं रक्ष।
अर्थ-यहाँ चारित्र और उत्तम क्षमादिरूप धर्म स्वर्ग-मोक्ष आदि सम्पूर्ण सुखों की खान है-उत्पत्तिस्थान है। परिणाम में पथ्यस्वरूप है, पुण्य का जनम है अत: सभी का हित करने वाला है। परमविवेक सम्पन्न तीर्थंकर आदि महापुरुष इसी धर्म का संचय करते हैं-मोक्ष की प्राप्ति के लिए इसी धर्म का अनुष्ठान करते हैं क्योंकि धर्म से ही सम्यक्त्वप्रकार से मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। ऐसे धर्म के लिए मेरा नमस्कार हो।
संसारी प्राणियों के लिए इस धर्म से बढ़कर और कोई मित्र-उपकारक नहीं है। इस धर्म का मूल दया है क्योंकि निर्दयी के धर्म का अंश भी असंभव है। ऐसे धर्म में मैं प्रतिदिन अपने चित्त को स्थिर करता हूँ-सावधान होकर धर्म में चित्त को लगाता हूँ।
ऐसे धर्म से मैं प्रार्थना करता हूँ कि हे धर्म! आप संसार समुद्र में गिरते हुए ऐसे मेरी रक्षा करो-मेरा पालन करो।
इदानीं धर्मादीनां मलगालनादिहेतुतया परममंगलत्वं प्ररूपयन्नाह। धम्मो इत्यादि। धर्म उक्तलक्षण:। मंगलं। मलं पापं गालयति विध्वंसयति वा मंगलम्। मंगं वा परमसुखं लात्यादत्त इति मंगलम्। उक्किट्ठं। उत्कृष्टमनुपचरितं परमम्। न केवलं धर्म एव मंगलमपि तु अिंहसा संजमो तवो अहिंसा संयमस्तपश्च। न केवलं मलगालनहेतुरेवायमपि तु पूजादिहेतुरपि। यत: देवा वि तस्स पणमंति जस्स धम्मे सया मणो देवा अपि तस्य प्रणमंति यस्य धर्मे सदा मन:।
अर्थ-यह धर्म मंगल स्वरूप है-जो मल को, पाप को गलावे, नष्ट करे अथवा ‘मंग’ परमसुख को लावे-प्रदान करे वह मंगल कहलाता है। ऐसा यह मंगल उत्कृष्ट है-अनुपचरित है, परम-श्रेष्ठ है। यह धर्म ही मंगलस्वरूप है ऐसा नहीं प्रत्युत अहिंसा, संयम और तप भी मंगलस्वरूप हैं, पूजादि के लिए हेतु हैं। जिसका मन सदा धर्म में स्थित है उसे देवगण भी नमस्कार करते हैं।
यहाँ प्रतिक्रमण ग्रंथत्रयी में ‘देवा वि तस्स पणमंति’ पाठ है इससे यह प्रतीत होता है कि टीकाकार प्रभाचंद्राचार्य तक यही पाठ मान्य रहा है। आजकल कुछ विद्वान् ‘देवा वि तं णमस्संति’ पाठ लिखने लगे हैं। श्री गौतम स्वामी की रचना में ऐसा संशोधन उचित नहीं है।