-स्थापना-
तर्ज-ऊँचे-ऊँचे शिखरों वाला है……
सोलहकारण भावन में, नवमी भावना है।
रत्नत्रय आराधन में, उसकी साधना है।।टेक.।।
वैयावृत्ति नाम है इसका, प्रासुक सेवा काम है इसका।
आतमशक्ति बढ़ावन में, नवमी भावना है।।
सोलहकारण भावन में, नवमी भावना है।
रत्नत्रय आराधन में, उसकी साधना है।।१।।
इस भावना की पूजन हेतु मैं, आह्वानन स्थापन करूँ मैं।
तन की शक्ति बढ़ावन में, नवमी भावना है।।
सोलहकारण भावन में, नवमी भावना है।
रत्नत्रय आराधन में, उसकी साधना है।।२।।
ॐ ह्रीं वैयावृत्त्यकरण भावना! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं वैयावृत्त्यकरण भावना! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं वैयावृत्त्यकरण भावना! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
तर्ज-पार्श्वनाथ देव सेव आपकी…..
गंग नदि को नीर लाय, स्वर्ण भृंग में भरूँ।
श्री जिनेन्द्र के चरण में, तीन धार मैं करूँ।।
वैयावृत्ति भावना के, हेतु करूँ साधना।
गुरुचरण की सेवा करके, पूर्ण होगी कामना।।१।।
ॐ ह्रीं वैयावृत्तिभावनायै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरि केशरादि, स्वर्ण पात्र में भरूँ।
श्री जिनेन्द्र के चरण में, चर्च ताप मैं हरूँ।।
वैयावृत्ति भावना के, हेतु करूँ साधना।
गुरुचरण की सेवा करके, पूर्ण होगी कामना।।२।।
ॐ ह्रीं वैयावृत्तिभावनायै संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ्र अक्षत धवल, स्वर्ण थाल में धरूँ।
पुंज को चढ़ायके, सौख्य शाश्वत भरूँ।।
वैयावृत्ति भावना के, हेतु करूँ साधना।
गुरुचरण की सेवा करके, पूर्ण होगी कामना।।३।।
ॐ ह्रीं वैयावृत्तिभावनायै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्प चुन चुन मंगाय, अंजली में भरूँ।
नाथ पाद में चढ़ाय, काम ध्वंसन करूँ।।
वैयावृत्ति भावना के, हेतु करूँ साधना।
गुरुचरण की सेवा करके, पूर्ण होगी कामना।।४।।
ॐ ह्रीं वैयावृत्तिभावनायै कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
रसमलाई पूरियाँ, बनाय थाल में भरूँ।
नाथ को चढ़ाय, क्षुध रोग नाशन करूँ।।
वैयावृत्ति भावना के, हेतु करूँ साधना।
गुरुचरण की सेवा करके, पूर्ण होगी कामना।।५।।
ॐ ह्रीं वैयावृत्तिभावनायै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नदीप को जलाय, स्वर्णथाल में धरूँ।
प्रभु की आरती उतार, मोहनाशन करूँ।।
वैयावृत्ति भावना के, हेतु करूँ साधना।
गुरुचरण की सेवा करके, पूर्ण होगी कामना।।६।।
ॐ ह्रीं वैयावृत्तिभावनायै मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध चंदनादि मलय-गिरि धूप लाय के।
कर्मनाशन करूँ, अग्नि में जलाय के।।
वैयावृत्ति भावना के, हेतु करूँ साधना।
गुरुचरण की सेवा करके, पूर्ण होगी कामना।।७।।
ॐ ह्रीं वैयावृत्तिभावनायै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम अंगूर बादाम, फल लायके।
मोक्षफल की आश है, नाश को चढ़ायके।।
वैयावृत्ति भावना के, हेतु करूँ साधना।
गुरुचरण की सेवा करके, पूर्ण होगी कामना।।८।।
ॐ ह्रीं वैयावृत्तिभावनायै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरगंध अक्षतादि, अष्टद्रव्य लायके।
‘‘चन्दनामती’’ अनर्घ्य-पद मिले चढ़ायके।।
वैयावृत्ति भावना के, हेतु करूँ साधना।
गुरुचरण की सेवा करके, पूर्ण होगी कामना।।९।।
ॐ ह्रीं वैयावृत्तिभावनायै अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिधारा करूँ, शुद्ध जल मंगाय के।
विश्व में शांति हो, नाथ पद चढ़ायके।।
वैयावृत्ति भावना के, हेतु करूँ साधना।
गुरुचरण की सेवा करके, पूर्ण होगी कामना।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
भांति भांति के गुलाब, आदि पुष्प लायके।
नाथ पुष्पांजली , आप पद चढ़ायके।।
वैयावृत्ति भावना के, हेतु करूँ साधना।
गुरुचरण की सेवा करके, पूर्ण होगी कामना।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(नवमें वलय में १० अर्घ्य, १ पूर्णार्घ्य)
-दोहा-
वैयावृत्ती भावना, को निज मन में ध्याय।
रत्नत्रय आराधना, हेतू पुष्प चढ़ाय।।१।।
इति मण्डलस्योपरि नवमदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-दोहा-
छत्तिस गुणयुत सूरि की, वैय्यावृत्ति सुखदाय।
तीर्थंकर पद प्राप्ति हित, अर्घ्य चढ़ाऊँ आय।।१।।
ॐ ह्रीं आचार्यवैयावृत्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण पचीस उपाध्याय के, उन सेवा सुखदाय।
तीर्थंकर पद प्राप्ति हित, अर्घ्य चढ़ाऊँ आय।।२।।
ॐ ह्रीं उपाध्यायवैयावृत्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दुर्द्धर तप धारक मुनि, की सेवा सुखदाय।
तीर्थंकर पद प्राप्ति हित, अर्घ्य चढ़ाऊँ आय।।३।।
ॐ ह्रीं तपस्वीमुनिवैयावृत्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शैक्ष्य भेद वाले यती, की सेवा सुखदाय।
तीर्थंकर पद प्राप्ति हित, अर्घ्य चढ़ाऊँ आय।।४।।
ॐ ह्रीं शैक्ष्यमुनिवैयावृत्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रोगी भी हों साधु यदि, उन सेवा सुखदाय।
तीर्थंकर पद प्राप्ति हित, अर्घ्य चढ़ाऊँ आय।।५।।
ॐ ह्रीं ग्लानमुनिवैयावृत्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण वय ज्येष्ठ समूह मुनि, की सेवा सुखदाय।
तीर्थंकर पद प्राप्ति हित, अर्घ्य चढ़ाऊँ आय।।६।।
ॐ ह्रीं गणभेदयुतमुनिवैयावृत्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीक्षा विधि ज्ञाता मुनि, कुल सेवा सुखदाय।
तीर्थंकर पद प्राप्ति हित, अर्घ्य चढ़ाऊँ आय।।७।।
ॐ ह्रीं कुलभेदयुतमुनिवैयावृत्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चउविध संघ समूह की, वैयावृत्ति सुखदाय।
तीर्थंकर पद प्राप्ति हित, अर्घ्य चढ़ाऊँ आय।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विधसंघवैयावृत्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुत ज्येष्ठ दीक्षित मुनि, की सेवा सुखदाय।
तीर्थंकर पद प्राप्ति हित, अर्घ्य चढ़ाऊँ आय।।९।।
ॐ ह्रीं साधुभेदयुतमुनिवैयावृत्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब मनहारि मनोज्ञ मुनि, की सेवा सुखदाय।
तीर्थंकर पद प्राप्ति हित, अर्घ्य चढ़ाऊँ आय।।१०।।
ॐ ह्रीं मनोज्ञभेदयुतमुनिवैयावृत्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (शंभु छंद)-
दश भेद सहित मुनियों की वैया-वृत्ति परम सुखदायी है।
हमने हे जिनवर! तभी सु वैया-वृत्ति भावना भायी है।।
पूर्णार्घ्य चढ़ाकर इसी भावना, की अर्चा हम करते हैं।
सोलहकारण की प्राप्ति हेतु, जिनगुण चर्चा हम करते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं दशभेदयुक्तमुनिवैयावृत्तिभावनायै पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं वैयावृत्तिभावनायै नम:।
तर्ज-फूलों सा चेहरा तेरा……
सार्थक हो जीवन मेरा, पाया जो वरदान है।
पुण्यकार्य कर सवूँ, भवसमुद्र तर सवूँ, मन में ये अरमान है।।टेक.।।
इस तन में है, एक चैतन्य आत्मा,
उसका ही सारा, चमत्कार है।
जिस दिन निकल जाय, तन से वो आत्मा,
रह जाता पुद्गल का, संसार है।।
नरजनम को पाके, आत्मतत्त्व ध्याके, पाना परममुक्ति का धाम है।
जड़ चेतन को समझूँ अलग, यह ज्ञानी की पहचान है।
पुण्यकार्य कर सवूँ, भवसमुद्र तर सवूँ, मन में ये अरमान है।।१।।
चारों गती में मानुषगती ही,
कहलाती सबसे उत्तम यहाँ।
क्योंकि उसी के द्वारा सभी जन,
करते हैं आतम चिन्तन यहाँ।।
सिद्ध जो बने हैं, सिद्ध जो बनेंगे, नरतन से ही पाते निजधाम हैं।
विषयों में फंसना नहीं, देते गुरू ज्ञान हैं।
पुण्यकार्य कर सवूँ, भवसमुद्र तर सवूँ, मन में ये अरमान हैं।।२।।
जिनवर की पूजा, गुरुओं की भक्ति,
स्वाध्याय करके संयम धरूँ।
शक्ती के अनुसार करके तपस्या,
दानी बनूँ कुछ नियम भी करूँ।।
‘‘चन्दनामती’’ ये, कर्म षट् कहे हैं, हो इनसे आतम का कल्याण है।
क्रम क्रम से पाना है फिर, संयम सकल धाम है।
पुण्यकार्य कर सवूँ, भवसमुद्र तर सवूँ, मन में ये अरमान हैं।।३।।
सोलह सुकारण की भावना में,
इक वैयावृत्ती की भावना है।
इस भावना को पूर्णार्घ्य अर्पित,
करके रतनत्रय को साधना है।।
अष्टद्रव्य लाके, अर्चना रचाके, पूजा करूँ तेरी भगवान मैं।
जय जय हो जय हो प्रभू, पाऊँ परम धाम मैं।
पुण्यकार्य कर सवूँ, भवसमुद्र तर सवूँ, मन में ये अरमान हैं।।४।।
ॐ ह्रीं वैयावृत्त्यभावनायै जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो रुचिपूर्वक सोलहकारण, भावना की पूजा करते हैं।
मन-वच-तन से इनको ध्याकर, निज आतम सुख में रमते हैं।।
तीर्थंकर के पद कमलों में जो, मानव इनको भाते हैं।
वे ही इक दिन ‘चन्दनामती’, तीर्थंकर पदवी पाते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।