वचन रचना के क्रम से नय चक्र नामक ग्रंथ के आधार से आलाप पद्धति कही जाती है। आलाप नाम शब्दोच्चारण करने को और पद्धति विधि या रीति को कहते हैं अथवा नयादिकोें के भेदों के प्रतिपादन की शैली को आलाप पद्धति कहते हैं। वह किसलिए कही जाती है ? द्रव्य के लक्षण की सिद्धि के लिए और स्वभाव लक्षण की सिद्धि के लिए कही जाती है। द्रव्य क्या है ? जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं। द्रव्य का लक्षण सत् है। सत् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त होता है।
इस प्रकार द्रव्याधिकार हुआ।
लक्षण किसे कहते हैं-‘‘व्यतिकीर्णवस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणं’’।
परस्पर मिले हुए पदार्थों में से किसी एक के भिन्न करने वाले हेतु को लक्षण कहते हैं। द्रव्यों का लक्षण क्या हैं ? अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व ये द्रव्यों के दश सामान्य गुण होते हैं और प्रत्येक द्रव्य में वे आठ-आठ पाये जाते हैं।
जीव द्रव्य में अचेतनत्व, मूर्तत्व, पुद्गल द्रव्य में चेतनत्व, अमूर्तत्व, धर्म, अधर्म, आकाश और काल में चेतनत्व और मूर्तत्व नहीं होते हैं। शेष आठ होते हैं।
ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, गति हेतुत्व, स्थिति हेतुत्व, अवगाहन हेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व द्रव्यों में ये सोलह विशेष गुण पाये जाते हैं। जीव और पुद्गल इन दोनों में इनमें से ६-६ पाये जाते हैं और चार द्रव्यों में ३-३ पाये जाते हैं। ज्ञान-दर्शन, सुख-वीर्य, चेतनत्व, अमूर्तत्व ये जीव में, स्पर्श-रस, गंध-वर्ण, मूर्तत्व, अचेनत्व ये ६ गुण पुद्गल में, धर्म द्रव्य में गति-हेतुत्व, अमूर्तत्व, अचेतनत्व, अधर्म द्रव्य में स्थितिहेतुत्व, अमूर्तत्व, अचेतनत्व, आकाश में अवगाहन हेतुत्व, अमूर्तत्व, अचेतनत्व काल में वर्तनाहेतुत्व, अमूर्तत्व, अचेतनत्व ये ३-३ पाये जाते हैं। इनके विशेष गुणों में अन्त के ४ चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व ये विशेष गुण हैं, वे स्वजाति की अपेक्षा से अर्थात् जीव, जीव की अपेक्षा से सामान्य गुण कहलाते हैं और वे ही विजाति की अपेक्षा से अर्थात् जीव, पुद्गल की अपेक्षा से विशेष गुण कहलाते हैं।
गुणों के विहार को पर्याय कहते हैं। वे दो प्रकार की हैं। स्वभाव पर्याय, विभाव पर्याय, अगुरुलघु गुण के विकार को स्वभाव पर्याय कहते हैं, उसके बारह भेद हैं—छह वृद्धिरूप और छह हानिरूप। अनंतभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनंतगुणवृद्धि, ये छह वृद्धिरूप है। तथैव अनंतभागहानि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभाग हानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि, अनन्तगुणहानि, ये छह हानिरूप हैं। ये स्वभाव पर्याय अथवा अर्थ पर्याय कहलाती हैं।
विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय का उदाहरण-जैसे चार प्रकार की नरनारकादि पर्यायें अथवा चौरासी लाख योनियाँ।
विभाव गुण व्यंजन पर्याय-मतिज्ञानादि।
स्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय जैसे-अंतिम शरीर से किंचित् न्यून सिद्ध पर्याय।
स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय जैसे-जीव का अनंत चतुष्टय स्वरूप है।
पुद्गल की द्वि-अणुकादि विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय है। रस-रसांतर गंध-गंधाँतर आदि पुद्गल की विभाव गुण व्यंजन पर्याय है। अविभागी पुद्गल परमाणु पुद्गल की स्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय है। एक वर्ण, एक गंध, एक रस और दो स्पर्श (स्निग्ध-रुक्ष में एक और शीत-उष्ण में से एक) ऐसे ५ गुण ये पुद्गल की स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं।
विशेष-यहाँ पर्याय के विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय, स्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय तथा विभाव गुण व्यंजन पर्याय और स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय ऐसे चार भेद किये हैं।
जो द्रव्यों में परनिमित्त से होने वाली स्थूल पर्यायों को ग्रहण करे, उसे विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय कहते हैं। जैसे जीव की नरनारकादि पर्याय। जो द्रव्यों में परनिमित्त के अभाव से होने वाली पर्यायों को ग्रहण करे, उसे स्वभाव व्यंजन पर्याय कहते हैं। जैसे-जीव की सिद्ध पर्याय। जो द्रव्यों के गुणों में परनिमित्त से होने वाली अवस्था विशेष को ग्रहण करे, उसे विभाव गुण व्यंजन पर्याय कहते हैं। जैसे-जीव के मति आदि ज्ञान।
जो द्रव्यों के गुणों में परनिमित्त के अभाव से होने वाली अवस्था विशेष को ग्रहण करे उसे स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय कहते हैं। जैसे-जीव के अनंत चतुष्टय आदि गुण। तथैव पुद्गल द्रव्य में भी समझना चाहिए।
अनादि अनिधन द्रव्यों की स्व-स्व पर्यायें प्रतिक्षण ही परिवर्तित होती ही रहती हैं। जैसे कि- समुद्र में लहरें प्रतिक्षण ही उठती और विलीन होती रहती हैं।
धर्म-अधर्म, आकाश और काल इन चारों ही द्रव्यों में अर्थपर्याय अर्थात् स्वभाव पर्यायें ही होती हैं।
इस प्रकार पर्यायाधिकार समाप्त हुआ।
जो गुण और पर्यायों कर सहित होवे, उसे द्रव्य कहते हैं। यह द्रव्य का दूसरी तरह से लक्षण किया गया है।
द्रव्यों के स्वभाव का वर्णन करते हैं। अस्ति, नास्ति, नित्य, अनित्य, एक, अनेक, भेद, अभेद, भव्य, अभव्य और परम स्वभाव ये ११ सामान्य स्वभाव कहलाते हैं।
चेतन, अचेतन, मूर्त, अमूर्त, एक प्रदेश, अनेक प्रदेश, विभाव, शुद्ध, अशुद्ध और उपचरित ये द्रव्यों के दस विशेष स्वभाव हैं।
ये २१ भाव सभी ही जीव और पुद्गल में पाये जाते हैं।
धर्म-अधर्म और आकाश इन तीन द्रव्यों में चेतन स्वभाव, मूर्त स्वभाव, विभाव स्वभाव, एक प्रदेश स्वभाव और अशुद्ध स्वभाव इन पाँच स्वभावों को छोड़कर १६ स्वभाव पाये जाते हैं। यह पाँच व बहु प्रदेश स्वभाव इन ६ स्वभावों के बिना १५ स्वभाव काल द्रव्य में पाये जाते हैं।
अब गुण और पर्यायों का वर्णन करते हैं-
सहभावा गुणा:, क्रमवर्तिन: पर्याया:।
जो द्रव्य के साथ सर्व प्रदेशों में सदा काल व्याप्त करके रहे, उसे गुण कहते हैं और जो एक के नंतर, दूसरी, तीसरी आदि अवस्थाओं में क्रम से रहे, अर्थात् जिनकी काल क्रम से अनन्त अवस्थाएं बीत गई हों व अनन्त होने वाली होवें और एक अवस्था वर्तमान हो, उसे पर्याय कहते हैं।
गुण्यंते पृथक्क्रियंते द्रव्यं द्रव्याद्यैस्ते गुणा:।
जो द्रव्य को द्रव्यांतरों से पृथक् करे, उसे गुण कहते हैं। यहाँ गुण से अभिप्राय लक्षण या विशेष स्वभाव व गुण समझना चाहिए।
जिस गुण के कारण द्रव्य की सत्ता बनी रहे, अर्थात् उसका अस्तित्व बना रहे, उसे अस्तित्व या सत्ता गुण कहते हैं। जिस गुण के कारण वस्तु में वस्तुत्व गुण अर्थात् अर्थ क्रियाकारित्व हो, उसे वस्तुत्व गुण कहते हैं और वस्तु का स्वभाव सामान्य विशेषात्मक ही होता है। जिस गुण के निमित्त से वस्तु सदा एक ही कूटस्थ न रहकर नवीन-नवीन अवस्थाओं के ग्रहण व पूर्व-पूर्व अवस्थाओं के त्यागरूप परिणमन करती रहे, उसे द्रव्यत्व गुण कहते हैं।
जो अपने-अपने प्रदेशों से सहित अखण्ड वृत्ति से स्वभाव किंवा (अथवा) विभाव पर्यायों को प्राप्त होता रहता है व प्राप्त होता था व गुण पर्यायों को प्राप्त करता रहेगा, उसे द्रव्य कहते हैं। द्रव्य का लक्षण सत् है। जो सदैव अपनी-अपनी गुण पर्यायोें को व्याप्त करके रहे, उसे सत् कहते हैं। अथवा-जो उत्पाद व्यय और ध्रौव्य सहित हो वह सत् है।
जिस गुण से पदार्थ किसी न किसी ज्ञान का विषय हो, उसे प्रमेयत्व गुण कहते हैं। प्रमाण के द्वारा जिससे स्वपर स्वरूप का ज्ञान होवे, उसे प्रमेय कहते हैं अथवा प्रमाण के विषय को प्रमेय कहते हैं।
जिससे सदा ही द्रव्य का द्रव्यपना बना रहे, अर्थात् द्रव्य का कोई भी गुण अन्य गुणरूप परिणमन न करे, व कोई द्रव्य अन्य द्रव्य रूप न हो सके अथवा जिसके निमित्त से प्रत्येक द्रव्य में व गुणों में समय-समय प्रति षट्गुण हानि वृद्धि होती रहे, उसे अगुरुलघु गुण कहते हैं। तथैव अगुरुलघु गुण का सूक्ष्म परिणमन प्रतिसमय होता रहता है। वह वचन के अगोचर है तथा आगम प्रमाण से ही जाना जाता है। कहा भी है-
जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा गया तत्व बहुत ही सूक्ष्म है। हेतु, प्रमाण आदि के द्वारा उसका खण्डन नहीं हो सकता है। उस तत्व को आज्ञा मात्र प्रमाण से ही स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि जिनेन्द्र भगवान अन्यथावादी अर्थात् असत्यवादी नहीं होते हैं।
जिस गुण के निमित्त से द्रव्य प्रदेशत्व अर्थात् क्षेत्रपने को प्राप्त हो उसे प्रदेशत्व गुण कहते हैं।
जितने आकाश के क्षेत्र को एक अविभागी पुद्गल परमाणु रोके, उतने क्षेत्र के माप को प्रदेश कहते हैं।
विशेष-समस्त अमूर्तिक द्रव्यों का माप इसी से किया जाता है, जिस गुण के निमित्त से द्रव्य जीव, अजीवादि पदार्थों का जाननेरूप अनुभव करे, उसे चेतनत्व गुण कहते हैं।
अनुभूति को ही चेतना कहते हैं, वह क्रियारूप होती है और क्रिया सदैव मन-वचन-कायों में अन्वयरूप से पाई जाती है।
अचेतन के भाव को अचेतनत्व कहते हैं। इस गुण के निमित्त से यह किसी पदार्थ को जान नहीं सकता है। मूर्त के भाव को अर्थात् रूपादिपने को मूर्तत्व कहते हैं।
इस प्रकार गुणों की व्युत्पत्ति हुई।
जो स्वभाव या विभावरूप से परिणमन करे, उसे पर्याय कहते हैं। इस प्रकार पर्याय का लक्षण हुआ।
जो अपने स्वभाव से कभी भी च्युत न होवे, अर्थात् उसी रूप बना रहे, उसे अस्ति स्वभाव कहते हैं। प्रत्येक द्रव्य अपने स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप स्वचतुष्ट्य की अपेक्षा द्रव्य अस्तिरूप है परस्वरूप अर्थात् परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा कोई भी द्रव्य नास्तिरूप है। इसे नास्ति स्वभाव कहते हैं।
अपनी-अपनी अनेकों पर्यायों में ‘‘यह वही है’’ इस प्रकार के ज्ञान को कराने वाला नित्य स्वभाव है।
और उसी के अनेक पर्याय स्वरूप परिणमन होने को अनित्य स्वभाव कहते है।
अनेक स्वभावों का आधार एक होने से एक स्वभाव कहलाता है। एक ही द्रव्य में अनेक स्वभावों का अनुभव होने से अनेक स्वभाव होता है। गुण-गुणी, पर्याय-पर्यायी में संज्ञा, संख्या, लक्षण व प्रयोजन के वश से भेदरूप कहना सो भेद स्वभाव है। नाम गणना लक्षण प्रयोजन के वश से गुण-गुणी में भेद का कथन होने पर भी, प्रदेश भेद न होने से अर्थात् गुण-गुणी का तादात्म्य होने से अभेद स्वभाव होता है।
आगामी काल में पर (उत्कृष्ट) स्वरूप परिणमन करने की शक्ति के होने को भव्य स्वभाव कहते हैं। त्रिकाल में भी पर स्वभावरूप परिणमन करने की शक्ति के अभाव को अभव्य स्वभाव कहते हैं। कहा भी है-
सभी द्रव्य आपस में एक-दूसरे में प्रवेश करते हुए व एक-दूसरे को अवगाहन देते हुए भी और एक-दूसरे से मिलते हुए भी त्रिकाल में भी अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं।
परम पारिणामिक भाव की प्रधानता से परम स्वभाव होता है। इस प्रकार से सामान्य स्वभावों का व्युत्पत्ति अर्थ हुआ।
प्रदेशादि गुणों की और चेतन आदि विशेष स्वभावों की भी व्याख्या कही गइ&।
धर्म की अपेक्षा से स्वभाव गुण नहीं होते हैं, किन्तु अपने-अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से गुण ही परस्पर में स्वभाव हो जाते हैं तथा द्रव्य भी स्वभाव हो जाते हैं।
स्वभाव के अन्यरूप परिणमने को विभाव कहते हैैं। भाव मात्र अर्थात जिसमें पर का संबंध न हो, उसे शुद्ध भाव और उससे विपरीत पर निमित्तक को अशुद्ध भाव कहते हैं।
किसी भी स्वभाव का अन्यत्र उपचार करना उपचरित स्वभाव है। उसके २ भेद हैं-कर्म जन्य और स्वाभाविक। जैसे-जीव में पौद्गलिक कर्म बंध की अपेक्षा से मुर्तात्व और अज्ञान बहुल की अपेक्षा से अचेतनत्व स्वीकार करना यह कर्म जन्य उपचरित स्वभाव है। उसी प्रकार से स्वाभाविक उपचरित स्वभाव जैसे-सिद्धों में पर पदार्थो का ज्ञानपना व दर्श कपना मानना। इसी प्रकार से अन्य द्रव्यों में भी यथासंभव उपचरित स्वभाव घटा लेना चाहिए।
जो एकांत पक्ष में आरूढ़ है, वे नय दुन&य हैं और अपने अर्थ को अर्थात् वास्तविक अर्थ को कहने में असमर्थ हैं और उससे विपरीत अर्थात अनेकांत पक्ष में आरूढ़ रहने वाले जो नय हैं, वो सुनय हैं और वस्तु स्वरूप का वास्तविक कथन करने वाले हैं क्योंकि परस्पर में साक्षेप नय ही निष्कलंक निर्दोष सम्यक् कहलाते हैं।
वह कैसे ? तो इस प्रकार है कि-द्रव्य को सर्वथा एकांतरूप से सत् ही मान लेवे, तो उसमें कुछ भी व्यवस्था बन नहीं सकेगी और संकर आदि दोष आ जावेंगे। यदि सव&था असत् माने, तो सर्वथा शून्यपने का प्रसंग आता है। यदि सव&था नित्य माने तो नित्य में अर्थ क्रिया हो नहीं सकती और अर्थ क्रिया के अभाव में द्रव्य का ही अभाव सिद्ध हो जायेगा।
यदि सर्वथा अनित्य पक्ष स्वीकार करे, तो द्रव्य अनित्यरूप होने से उसमें अथ&क्रिया कारित्व का अभाव हो जावेगा। तथैव अर्थ क्रिया का अभाव हो जाने से द्रव्य की भी सत्ता सिद्ध नहीं हो सकेगी तथा यदि एकांत से वस्तु का एक स्वरूप माने तो अनेक रूप विशेष धर्मो का अभाव हो जावेगा और विशेष के अभाव में सामान्य का भी अभाव हो जावेगा क्योंकि बिना विशेष के सामान्य गधे के सींग के समान नास्तिरूप है। तथैव सामान्य से रहित विशेष भी गधे के सींग के समान असत्रूप ही है। जैसे-वृक्षत्व सामान्य के बिना वृक्ष नहीं हो सकता, उसी प्रकार नींबू या आम आदि विशेष के बिना भी वृक्ष नहीं रह सकता।
उसी प्रकार एकांत से द्रव्य को अनेकरूप मान लेने से द्रव्य का अभाव हो जायेगा क्योंकि निराधार होने से आधार-आधेय भाव नहीं बन सकेगा। भेद पक्ष में भी विशेष स्वभाव निराधार हो जायेंगे, इससे अर्थ क्रिया का अभाव होने से द्रव्य का भी अभाव हो जायेगा। तथैव अभेद पक्ष में भी सभी को एकपना हो जाने से अर्थ क्रिया का अभाव तथा द्रव्य का अभाव हो जायेगा।
सर्व था भव्यत्व स्वभाव मानने पर भी परिणमनशील ही द्रव्य हो जाने से एक द्रव्य भिन्न द्रव्यपने को प्राप्त हो जायेगा, जिससे संकर (मिश्रण) आदि दोष आ जायेंगे। अर्थात संकर व्यतिकर, विरोध वैयधिकरण, अनवस्था, संशय, अप्रतिपत्ति, अभाव ये आठ दोष आ जाते हैं। इसलिए वस्तुस्वरूप को समझने के लिए इन दोषों से बचना आवश्यक है।
सर्वाथा अभव्यरूप स्वभाव मानने से भी सव& शून्यता प्रसंग आता है, वस्तु जिसरूप है, उस स्वभाव में सव&था ही परिवत&न परिणमन न मानने से संसार का ही अभाव हो जायेगा।
द्रव्य में एकांत से विभाव भाव मान लेवे, तो फिर मोक्ष का ही अभाव हो जायेगा क्योंकि विभाव का अभाव हुए बिना मोक्ष वैâसे हो सकेगी। सव&था चैतन्य स्वभाव मान लेने से भी सभी जीवों में शुद्ध ज्ञान-दर्श नादि चैतन्य परिणामों का प्रसंग आ जाने से ध्यान-ध्येय, ज्ञान-ज्ञेय और गुरु-शिष्य आदि का ही अभाव हो जावेगा।
सव&था शब्द सव& प्रकार वाची है ? या सर्व काल वाची है ? या नियमवाची है ? अथवा अनेकांत सापेक्षी है ?
यदि ‘‘सव&’’ शब्द सर्वादि गण में पढ़ने से सर्व काल वाचक, सर्वथों की प्रतीति आपकोकैसे हो सकेगी ? नित्य, अनित्य, भेद, अभेद, एक, अनेक की प्रतीति भी वैâसे हो सकेगी क्योंकि नियमित पक्ष होने से कोई व्यवस्था नहीं बनेगी तथा सर्वाथा अचेतन पक्ष स्वीकार करने से सम्पूर्ण चैतन्य प्राणियों का ही नाश हो जायेगा। एकांत से जीव को मुर्ति को ही मान लेवें, तो मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकेगी, सव&था अमूर्त ही मानें तो संसार का अभाव हो जायेगा, एक प्रदेशरूप ही जीव को मानें, तो अखण्ड परिपूर्ण रूप आत्मा में अनेक कार्य कारित्वरूप कार्यो का अभाव हो जावेगा।
तथा सर्वथा अनेक प्रदेशपना मानने पर अथ&क्रिया न होने से स्वस्वभाव की शून्यता का प्रसंग आयेगा।
आत्मा को एकांत से शुद्धरूप ही स्वीकार करें, तो कर्म मल कलंक के लेप से रहित मानना होगा क्योंकि सर्वाथा निरंजन है तथा यदि आत्मा को अशुद्ध ही मान लेवें, तो कभी भी शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति नहीं हो सकेगी तन्मय होने से। उपचरित एकांत पक्ष को स्वीकार करने से यह जीव आत्मा के स्वरूप को नहीं जानेगा, नियमित एकरूप ही होने से वास्तविक वस्तु का बोध नहीं हो सकेगा। उसी प्रकार से सव&था अनुपचरित पक्ष मानने से भी आत्मा को परपदार्थो का ज्ञान नहीं हो सकेगा। अतएव-
नाना स्वभाव से युक्त द्रव्य को प्रमाण से जान करके पुन: अपेक्षापूव&क उसको समझने के लिए नयों की विवक्षा से वस्तु तत्व को समझना चाहिए।