चौबीसों तीर्थंकरों के तीर्थ में दश—दश महामुनि दारुण उपसर्गों को जीतकर पांच अनुत्तर विमानों में जन्म लेते हैं। इन साधुओं का जिसमें वर्णन हो वह अनुत्तरौपपादिक दशांग कहलाता है। विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पांच अनुत्तर कहलाते हैं।
श्री वर्द्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में १. ऋषिदास, २. धन्य, ३. सुनक्षत्र, ४. कार्तिकेय, ५. आनंद, ६. नंदन, ७. शालिभद्र, ८. अभय, ९. वारिषेण और १०. चिलातपुत्र ये दश महासाधु घोर उपसर्गों को सहन कर अनुत्तरों में उत्पन्न हुये हैं।१ उनमें से धन्यकुमार, वारिषेण और चिलातपुत्र इनके कथानक प्रसिद्ध हैं। अत: यहाँ पर इनके चरित का वर्णन कर रहे हैं।
अवंती देश की उज्जयनी नगरी में राजा अवनिपाल राज्य करता था। उस समय वहां एक धनपाल नाम का धनवान वैश्य था। उसकी स्त्री प्रभावती के देवदत्त आदि सात पुत्र थे। उनमें से कई एक विद्याभ्यास करते थे और कई एक व्यापार करते थे। प्रभावती एक दिन चतुर्थ स्नान करके अपने पति के साथ शयन कर रही थी कि रात्रि के पिछले प्रहर में उसने ऊँचा सफेद बैल, कल्पवृक्ष, चन्द्रादि पदार्थों को स्वप्न में अपने घर में प्रवेश करते हुए देखे। उसने सवेरे अपने पति से उनकी वार्ता कही। पति ने स्वप्न का फल विचार कर कहा—प्रिये, तेरे गर्भ से वैश्य कुल में प्रधान और अपनी कीर्ति से तीनों जगत को धवल करने वाला महात्मा पुत्र उत्पन्न होगा। यह सुन वह अतिशय प्रसन्न हुई और नौ महीने व्यतीत होने पर उसके गर्भ से एक सुन्दर पुत्र ने जन्म लिया।
उस भाग्यवान पुत्र की नाल गाड़ने के लिए जो जमीन खोदी गई, उसमें द्रव्य से भरा हुआ एक घड़ा निकला। इसी प्रकार उसके स्नान कराने के लिए जो जगह खोदी गई, वहां से भी बहुत सा धन निकला। तब धनपाल ने राजा को इस धन के मिलने की सूचना दी, परन्तु उन्होंने कह दिया कि वह धन तुम्हारे पुत्र के प्रभाव से मिला है, अतएव उसका स्वामी भी वही है। इससे संतुष्ट होकर श्रेष्ठी ने घर आकर पुत्र का जन्मोत्सव धूमधाम से किया और नगर के सम्पूर्ण जिनमन्दिरों में अभिषेकादि करके दीन, अनाथों को सुवर्ण आदि का दान दे प्रसन्न किया। इस पुत्र के जन्म से माता पिता अपने वर्ण में धन्य हुए, इस कारण उसका नाम धन्यकुमार रखा गया।
वह धन्यकुमार अपनी बालकीड़ा से बन्धुओं को सन्तुष्ट करके जैनोपाध्याय के निकट विद्याभ्यास कर सम्पूर्ण कलाओं में कुशल हो गया। वह बड़ा उदार और भाग्यशाली था, इस कारण उसके देवदत्तादि सातों भाई कहते थे कि हम लोग कमाने वाले हैं और यह गमाने वाला है। यह बात एक दिन प्रभावती ने सुन कर अपने पति से कहा—धन्यकुमार को किसी व्यापार के काम में लगाओ तो अच्छा हो। तब श्रेष्ठी ने अच्छे मुहूर्त में सौ रुपया देकर पुत्र को बाजार में बैठा दिया और समझा दिया कि यह द्रव्य देकर कोई वस्तु खरीदना, फिर उसे बेचकर दूसरी खरीदना, फिर तीसरी खरीदना, इस प्रकार से जब तक भोजन का समय न हो, तब तक खरीद-बिक्री करते रहना और फिर आखिर में जो वस्तु खरीदो, उसे मजदूर के हाथ देकर भोजन के लिए घर चले आना। यह कहकर श्रेष्ठी तो घर चले आये और धन्यकुमार अपने अंगरक्षकों सहित दुकान में बैठा। इतने में कोई पुरुष एक चार बैलों की गाड़ी में लकड़ी भरकर बेचने को आया। सो कुमार ने रुपये देकर उस गाड़ी को खरीद लिया, पश्चात् उसे बेचकर एक भेड़ खरीदी और उसे बेचकर पलंग के पाये खरीदकर वह भोजन के लिये घर आ गया। उस दिन पुत्र को पहले पहल व्यापार करके आया जान माता ने बड़ा भारी उत्सव मनाया। यह देख बड़े पुत्र बोले,—बड़ा आश्चर्य है कि यह पहले ही दिन सौ रुपया खोकर आ गया है, तो भी माता इतना उत्सव मनाती है और हम लोग प्रतिदिन हजारों रुपया कमाकर आते हैं, तो भी माता हमारे सामने भी नहीं देखती। पुत्रों के वचन सुनकर माता ने मन में धर लिये और सबको भोजन कराके आपने भी भोजन किया। पश्चात् एक काठ के बर्तन में (कठोती में) जल भरकर पुत्र के लाए हुये वे पलंग के पाये धोने को बैठ गई। सो अधिक प्रक्षालन करने से उसके भीतर से एक लिखा हुआ भोजपत्र और बहुत से रत्न निकल पड़े। उन्हें उसने सब पुत्रों को दिखलाया, जिससे वे सब के सब गर्व रहित हो गए।
वे पलंग के पाये किसके थे और उस भोजपत्र में किसने क्या लिखा था, इसकी कथा इस प्रकार है—पहले उस नगर में वसुमित्र नाम का राजश्रेष्ठी रहता था। वह बड़ा भारी पुण्यवान था, इसलिए उसके पुण्य के उदय से नव निधियाँ उत्पन्न हुई थीं। उसने एक दिन वहाँ के उद्यान में आए हुए अवधिज्ञानी मुनि से पूछा—भगवन् मेरे बाद इन नव निधियों का स्वामी कौन होगा ? तब उन्होंने कहा—‘‘धनपाल श्रेष्ठी का पुत्र धन्यकुमार इनका स्वामी होगा।’’ यह सुन वसुमित्र ने घर आकर उक्त भोजपत्र लिखा और उसे रत्नों के साथ पलंग के पायों में रखकर वह सुख से रहने लगा। उस पत्र में उसने लिखा था कि ‘‘श्रीमन्ममहामण्डलेश्वर अवनिपाल के राज्यपाल में जो वैश्यकुलतिलक धन्यकुमार हो, वह मेरे गृह में अमुक-अमुक स्थानों में रखी हुई नव निधियों को ग्रहण करके सुख से रहे। मंगलं महाश्रीरिति।’’ वसुमित्र श्रेष्ठी कुछ दिन में अपनी आयु पूरी होने पर संन्यासपूर्वक मरण कर स्वर्ग गए आैर उनके बाद उस घर में रहने वाले उनके कुटुम्बी महामारी से मर गए। सो जो मरा, उसे उसी पलंग पर डालकर चांडाल संस्कार करने के लिये ले गये और कुछ दिन बाद वे चांडाल लोग उन पलंग के पायों को बाजार में बेचने के लिए लाये। उनमें से एक पलंग के पाये धन्यकुमार ने खरीद लिए। जिनमें कि उक्त भोजपत्र और रत्न निकले।
पश्चात् भोजपत्र को धन्यकुमार ने पढ़ा। उनकी लिखी हुई बात जानकर वह राजा के समीप गया और वसुमित्र सेठ का घर माँगा। राजा ने वह दे दिया। उसमें प्रवेश करके सम्पूर्ण निधियों को पाकर और बहुत सा दानादि देकर धन्यकुमार वहीं सुख से रहने लगा।
धन्यकुमार के रूपादि अतिशय को देखकर किसी वैश्य ने धनपाल से निवेदन किया—मैं अपनी पुत्री धन्यकुमार को देना चाहता हूँ। धनपाल ने कहा—बड़े पुत्र को दो। तब वह बोला—यदि दूँगा, तो धन्यकुमार को दूंगा, अन्य को कदापि नहीं दूंगा। यह समाचार ज्ञात कर उस दिन से सातों भाई धन्यकुमार से द्वेष करने लगे, परन्तु यह बात धन्यकुमार को मालूम नहीं हुई।
एक दिन वे सब मिलकर उद्यान की एक बावड़ी में धन्यकुमार को क्रीड़ा करने के लिए ले गए। वे सब बावड़ी में क्रीड़ा करने लगे। धन्यकुमार उनका कौतुक देखता हुआ बावड़ी के तट पर बैठ रहा। इतने में एक ने आकर उसे पीछे से बावड़ी में धकेल दिया। धन्यकुमार ‘णमो अरहंताणं’’ कहता हुआ गिर पड़ा। तब वे सबके सब ऊपर से बहुत से पत्थर डाल उसे मरा समझ संतुष्ट हो चले गए, उधर जलदेवता ने धन्यकुमार को जल निकलने के द्वार से बाहर निकाल दिया। निकल कर वह नगर के बाहर आया और वहां से भाइयों के द्वेष से अब यहाँ रहना ठीक नहीं हैं’’ ऐसा सोच कर देशांतर को चल दिया।
रास्ते में एक किसान को हल जोतते हुए देख धन्यकुमार यह विचारकर कि ‘‘सम्पूर्ण विद्यायें मैंने सीखीं, परन्तु यह एक अपूर्व ही देखी इसे भी सीखना चाहिये’’ उसके समीप गया। उसके प्रभावशाली रूप को देख कर किसान को अचम्भा हुआ। महापुरुष जानकर उसने प्रार्थना की, प्रभो! मैं किसान हूँ, परन्तु कुटुम्ब मेरा शुद्ध है और मेरे निकट दही-भात तैयार है, क्या आप भोजन करेंगे ? कुमार ने भोजन करना स्वीकार किया। तब किसान उन्हें हल के पास बिठाकर आप पत्तल बनाने के लिए पत्ते लाने को गया। उसके चले जाने पर कुमार ने हल की मूठ पकड़ कर बैलों को हांकना शुरू किया। थोड़ी सी जमीन खुदी थी कि एक सोने से भरा हुआ घड़ा हल में उलझ आया। उसे देख कुमार ने सोचा, पूरा घड़ा ऐसे विद्याभ्यास से, जिसमें पहले ही यह उपद्रव की जड़ निकली। यदि यह इसे देख लेगा, तो मेरे साथ अनर्थ करेगा। इस विचार के होते ही वह उस द्रव्य के कलश को मिट्टी के नीचे जैसा का तैसा छुपाकर हल छोड़ स्वस्थता से एक ओर बैठा रहा। इतने में किसान पत्ते लेकर आ गया। उसने एक गड्ढे में रखे हुए पानी के घड़े तथा दही भात को निकाला और धन्यकुमार के पाँव धोकर पत्तल में परोसकर प्रेम से भोजन कराया।
भोजन के बाद धन्यकुमार राजगृह का रास्ता पूछ कर चल दिया। इधर किसान ने आकर हल को ज्यों ही जमीन में दबाया कि वह कलश उसमें फिर उलझ गया। उसे देखकर किसान यह निश्चय करके धन्यकुमार के पीछे भागा ‘‘यह कलश उसी महाभाग्य का है इसलिये मुझे लेना उचित नहीं है, उसी को लौटा देना चाहिये।’’ थोड़ी दूर चलकर कुमार उसे आता हुआ देख एक वृक्ष की छाया में बैठ गया। उसने जाकर नमस्कार किया और कहा—आप अपने द्रव्य को छोड़ कर क्यों चले आये ? कुमार ने उत्तर दिया—भाई, मेरे पास द्रव्य कहाँ से आया ? मैं ऐसे ही आया था और तेरा दिया हुआ भोजन करके ऐसे ही जा रहा हूँ। फिर वह द्रव्य मेरा वैâसे ? किसान बोला—इस खेत को मेरे परदादा ने जोता, दादा ने जोता, बाप ने जोता और अब तक मैं जोतता रहा हूँ। परन्तु यह द्रव्य किसी को अब तक क्यों नहीं मिला ? आज आप आये, तब ही मिला, इसलिये यह आपका ही है। तब कुमार ने यह सोचकर कि इस विवाद से क्या प्रयोजन है ? कहा—भाई, खैर मेरा ही वह द्रव्य सही, परन्तु आज मैं यह सब तुम्हें दे देता हूँ। सो तुम इसे यत्न के साथ भोगना, तब किसान आभारपूर्वक उस द्रव्य को ग्रहण कर और यह कहकर कि मैं अमुक गाँव और अमुक शहर का एक पामर प्राणी हूँ, जिस समय सेवक की जरूरत हो, मुझे सूचना देना। मैं अवश्य ही सेवा में हाजिर होऊँगा, यह कहकर वह अपने ग्राम को चला गया।
धन्यकुमार ने वहां से आगे चलकर एक स्थान में अवधिबोध मुनि को देखकर नमस्कार किया और धर्म श्रवण करके पूछा—भगवन् मेरे भाई मुझसे द्वेष क्यों करते हैं ? माता अधिक स्नेह क्यों करती है ? और किस पुण्य के फल से ऐसा हुआ हूँ ? मुनिराज बोले—
मगध देश के भोगवती ग्राम में कामवृष्टि नाम का ग्रामपति (मालगुजार) था। उसके मृष्टदाना नाम की भार्या और सुकृतपुण्य नाम का नौकर था। कुछ दिनों में भृष्टदाना गर्भवती हुई और कामवृष्टि की मृत्यु हो गई। पीछे ज्यों ज्यों गर्भ बढ़ने लगा, त्यों त्यों कुटुम्बीजन मरने लगे और जब बालक उत्पन्न हुआ, तब माता की माता अर्थात् नानी चल बसी। पश्चात् सुकृतपुण्य नौकर तो ग्रामपति हो गया और मृष्टदाना बड़े कष्ट से दूसरे के घर पेट पालती हुई बालक की जीवन—रक्षा करने लगी। इन अशुभ उदयों के आने से उसने पुत्र का नाम अकृतपुण्य रख दिया। यह सुनकर धन्य्ाकुमार ने पूछा—नाथ, किस पाप के फल से वह बालक प्रसन्न हुआ ? कृपा करके यह भी समझाइए। मुनि बोले—
भूतिलक नगर में एक धनपति नाम का विपुल धन का स्वामी वैश्य रहता था। उसने एक बड़ा भारी जिनमन्दिर बनवाया, जो कि नाना प्रकार के मणिमयी कंचनमयी उपकरणों से सुशोभित था। उन उपकरणों को देखकर एक व्यसनी का मन चला गया। इसलिए वह मायाचारी ब्रह्मचारी बनकर अतिशय कायक्लेशादि करके देश भर में क्षोभ उत्पन्न करता हुआ भूतिलक नगर में आया। धनपति सेठ बड़े सत्कार से उसे अपने जिनमन्दिर में ले गया। कुछ दिन के पश्चात् उन सम्पूर्ण उपकरणों का उसे रक्षक बना कर धनपति सेठ तो द्वीपान्तर को चला गया। इधर ब्रह्मचारी महाराज ने अपनी तृप्ति के लिए थोड़े ही दिनों में वे सब उपकरणादि हजम कर लिये। भरपूर व्यसन सेवन किये। पाप का फल भी जल्दी मिल गया। अर्थात् थोड़े ही समय में जिनप्रतिमा बिलोपन के पाप से उसको कुष्ट रोग उत्पन्न हुआ, जिससे उसका सारा शरीर गलने लगा। इस रोग में सड़ते हुए वह मृत्यु की बाट देख रहा था कि धनपति सेठ देशान्तर से लौट कर आ पहुँचा। उसे देखकर मायाचारी सोचने लगा कि यह क्यों आ गया, वहीं क्यों नहीं मर गया ? लौटकर नहीं आता तो अच्छा होता। इस प्रकार के रौद्रध्यान में ही उसका शरीर छूट गया और वह सातवें नरक में जा पहुँचा। वहाँ के घोर दु:ख सहते हुए आयु पूरी करके फिर वह स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य हुआ। उस पर्याय को पूरी कर फिर सातवें नरक में गया। छ्यासठ सागर तक नरक का दुख भोगकर अनेक त्रस-स्थावर योनियों में जन्म ले वह जीव जिसकी कथा चल रही है, अन्त में अकृतपुण्य हुआ।
अकृतपुण्य एक दिन सुकृतपुण्य के चनों के खेत पर गया और बोला—हे सुकृतपुण्य, मैं तुम्हारे चने चुन दूंगा इसके बदले में क्या तुम मुझे कुछ दोगे ? तब ‘‘इसके पिता के प्रसाद से मैं ग्रामपति हुआ हूँ और आज यह हमसे भिक्षा मांगता है ! भाग्य बड़ा विचित्र है’’ ऐसा विचार कर वह दुखी हुआ और अपनी थैली में से कुछ द्रव्य निकालकर उसे दिया, परन्तु वह द्रव्य उसके हाथ में पड़ते ही अंगार हो गया। तब अकृतपुण्य बोला—सबको तो चने देते हो और मुझे अंगार क्यों ? क्या तुम्हें ऐसा करना उचित है ? सुकृतपुण्य ने कहा, अच्छा भाई, मेरा अंगार मुझे दे दो और तुमसे इस राशि में से जितने लेते बने, चने भर ले जाओ। तब वह एक पोटली में चने बाँधकर घर ले आया। उन्हें देखते ही माता ने पूछा—इन्हें कहां से लाया ? पुत्र ने उनके लाने के सब समाचार कहे। सुनकर उसे बड़ा दु:ख हुआ कि मेरे सेवक ने भी सेवकपना छोड़ दिया। इसलिए वह पुत्र को लेकर और उन्हीं चनों का पाथेय (कलेव) बना वहां से चल दी। कुछ दिन में अवन्ती देश के सोसवाक ग्राम के बलभद्र नाम के ग्रामपति के घर प्रार्थना करके ठहर गई। ग्रामपति ने उससे अपना घर पूछा, परन्तु उसने कुछ उत्तर न दिया। परन्तु ग्रामपति के बहुत आग्रह करने पर अन्त में मृष्टदाना ने अपनी सब दु:खकथा उससे कह ही, तब ग्रामपति ने कहा अच्छा, तुम मेरे यहाँ रसोई बनाया करो और यह बालक हमारे बछड़े चराया करेगा। इसके बदले में मैं तुम दोनों को भोजन, वस्त्र दिया करूँगा। यह बात माँ—बेटे ने स्वीकार कर ली। तब ग्रामपति ने अपने घर के पास एक फूस की झोंपड़ी बनवा दी और वे दोनों उसकी सेवा करते हुए अन्न—वस्त्र पा उसमें रहने लगे।
बलभद्र के सात पुत्र थे। उन्हें प्रतिदिन खीर का भोजन करते हुए देख कर बालक अकृतपुण्य अपनी माता से खीर मांगता था और इस पर वे सातों उसे मारते थे। परन्तु जब बलभद्र देख पाता था, तब उसकी रक्षा करता था। एक दिन खीर मांगते-मांगते बालक के मुँह में पैâन आने लगा, उसे देख बलभद्र ने पूछा—यह बालक दुर्बल क्यों हो रहा है ? माता ने कहा—खीर न मिलने पर रोने से। सुनकर बलभद्र को दया आ गई और दूध, घी, चावल देकर कहा—घर पर खीर बना आज इस बालक को प्रसन्नता से भोजन कराना। माता ने ऐसा ही स्वीकार किया। घर जाकर पुत्र से कहा—बेटा, आज तुझे खीर खिलाऊँगी, इसलिए बछड़ा चराकर जल्दी आ जाना। पुत्र ने ‘ऐसा ही करूंगा’’ कहकर जंगल की राह ली। इधर माता ने प्रेम से खीर बनाई। पीछे दो पहर होने पर पुत्र लौटकर आ गया, तब माता उसे घर की रखवाली सौंपकर पानी भरने को गई और कह गई कि यदि कोई मुनि भोजन के लिए आवें तो उन्हें जाने नहीं देना, उन्हें भोजन कराकर हम दोनों भोजन करेंगे। तदनुसार पुत्र ने मासोपवास का पारणा करने के लिए आए हुये एक मुनिराज को देख, उन्हें वस्त्रादि रहित कोई महाभिक्षुक जान उनके सम्मुख जाकर कहा—हे पितामह, मेरी माता ने आज खीर बनाई है, सो तुम्हें भी उसका भोजन करावेंगे, इसलिए जब तक वह न आ जावे, थोड़ा देर ठहरो। तब मुनि यह कहकर कि ‘‘यह हमारा धर्म नहीं है,’’ जाने लगे। परन्तु बालक तत्काल ही उनके चरणों से लिपट गया और बोला—पितामह, अतिशय अपूर्व खीर का भोजन करके जाने में तुम्हारी क्या हानि है ? इतने में मृष्टदाना भी आ गई। घड़े उतार का उसने अन्तरीय वस्त्र को कंधे पर डाला (कंधेला मारा) और हे भगवन् ! हे परमेश्वर ! तिष्ठ, इस प्रकार यथोक्त विधि से उसने पड़गाहन किया। पश्चात् बलभद्र के घर से उष्ण जल लाकर अतिशय विशुद्ध चित्त से उसने मुनिराज को आहार दिया। अकृतपुण्य भी उस आहारदान से हर्षित हुआ और बोला, मेरे घर आज मुनिदेव ने आहार किया, इसलिए मैं धन्य हूँ।
वे मुनिराज अक्षीणमहानस ऋद्धि के धारी थे। इसलिए उन गरीबों की वह रसोई उस दिन मुनि के आहार के प्रभाव से ऐसी अक्षय हो गई कि चक्रवर्ती का कटक भी भोजन कर जावे तो भी क्षीण न हो। मुनिराज के चले जाने पर मृष्टदाना ने अपने पुत्र को और फिर बलभद्र को सकुटुम्ब भोजन कराया। इसके पश्चात् उस गांव के समस्त लोगों को बर्तन भर-भरकर खीर दी, परन्तु वह कम न हुई।
दूसरे दिन अकृतपुण्य खीर का भोजन करके जंगल में बछड़े चराने के लिए गया। वहाँ एक वृक्ष की छाया में सो गया। इधर वक्त होने पर बछड़े घर आ गए। परन्तु पुत्र को नहीं आया देख माता रोने लगी। तब बलभद्र उसके कहने से अपने दो, तीन सेवकों सहित बालक के ढूंढने के लिए निकला उधर से अकृतपुण्य लौट रहा था कि इन्हें देख डर के मारे भागा और पर्वत पर चढ़ गया। वहां एक गुफा के द्वार पर जाकर बैठा। उस गुफा में जिन्हें आहार दिया था; वे ही मुनि विराजमान थे। उन पर उसकी बड़ी भारी श्रद्धा—भक्ति हुई। जब वहाँ बैठे हुए श्रावक मुनि को नमस्कार करके ‘‘णमो अरहंताणं’’ कहते हुए वहां से चलने लगे, तब वह भी ‘‘णमो अरहंताणं’’ कहता हुआ उनके साथ चल पड़ा। थोड़ी दूर गया था कि एक विकराल व्याघ्र ने उसे पकड़ लिया। सो ‘णमो अरहंताणं’’ महामन्त्र का स्मरण करते हुए ही उसने प्राण छोड़ दिए और सौधर्म स्वर्ग में बड़ी भारी ऋद्धि का धारी देव हुआ। भवप्रत्यय—अवधि के बल से यह देवपर्याय अपने पूर्वभव में किए हुए दानादि के फल से पाई जानकर वह जिनपूजादि सत्कृत्य करता हुआ सुखपूर्वक काल यापन करने लगा।
उधर सेवेरे बलभद्र के साथ मृष्टदाना ने जाकर अपने पुत्र का कलेवर देख बहुत शोक किया। तब उस पुत्र के जीव देव ने आकर उसे समझाया और शोक दूर किया। उस समय वह अपने मन में यह निदान करके कि आगे के जन्म में यही देव मेरा पुत्र हो और वह आर्यिका हो गई और कुछ दिन में समाधि सहित मरकर सौधर्म स्वर्ग में देवी हुई। पश्चात् बलभद्र भी संसार से विरक्त हो गया और अन्त में मरण कर उसी स्वर्ग में देव हुआ।
सौधर्म स्वर्ग के दिव्य सुखों को बहुत काल तक भोगकर बलभद्र का जीव तुम्हारा पिता धनपाल हुआ, मृष्टदाना का जीव तुम्हारी माता प्रभावती हुई और अकृतपुण्य के जीव ने तुम्हारी पर्याय पाई है तथा बलभद्र्र के जो पहले सात लड़के थे, वे ही अब धनपाल के सात पुत्र हुए हैं। वे पुत्र उस जन्म में जिस तरह तुम्हें दुख देते थे, उसी प्रकार अब भी द्वेष करते हैं। माता जैसे पहले प्यार करती थी, उसी तरह अब भी करती है। इस प्रकार मुनि महाराज के मुख से अपने पूर्व भव सुन उन्हें नमस्कार कर धन्यकुमार ने प्रसन्नता से आगे को गमन किया।
क्रम क्रम से चलते हुए कुछ दिन में धन्यकुमार राजगृह नगरी के पास पहुँचा। वहाँ एक सूखे हुए वृक्षों का वन था। उसका स्वामी एक कुसुमदत्त नाम का वैश्य था, जो राजा के सम्पूर्ण मालियों का नायक था। कुसुमदत्त ने एक बार इस वन को सूखा जानकर काट डालने का विचार किया परन्तु एक अवधिज्ञानी मुनि से पूछने पर उसने जाना कि कोई पुण्यात्मा पुरुष उस वन में जावेगा, तो उसी समय वह हरा-भरा और फल-फूलों से शोभित हो जावेगा। इसलिए तब से कुसुमदत्त उस वन की रक्षा करता रहता था। सो उस दिन ज्यों ही धन्यकुमार ने उस वन में प्रवेश किया, त्यों ही वहाँ के सूखे सरोवर निर्मल जल से परिपूर्ण और वृक्षादि हरे-भरे तथा फल-फूल सहित हो गये। धन्यकुमार ने जिनदेव का स्मरण करके एक सरोवर में से थोड़ा सा जल पिया और एक वृक्ष की छाया में बैठकर वह विश्राम करने लगा। उधर वन को हरा-भरा देख, कुसुमदत्त को आश्चर्य हुआ। मुनि महाराज के वचनों का स्मरण करके उसने उन्हें मन ही मन नमस्कार किया और फिर वन में प्रवेश करके धन्यकुमार को देखा। प्रणाम करके पूछा आप कहाँ से आये ? उसने कहा, मैं वैश्य हूँ। देशान्तर से आ रहा हूँ। कुसुमदत्त सत्कारपूर्वक उसे अपने घर ले आया और अपनी स्त्री से बोला—ये मेरे भानजे हैं। स्त्री बहुत प्रसन्न हुई। उसने समझा कि यह मेरा जामाता (दामाद) होगा। इसलिए स्नान, भोजनादि से उनका खूब ही सत्कार किया। उसी समय कुसुमदत्त की पुत्री पुष्पवती धन्यकुमार का रूप लावण्य देखकर उन पर अतिशय आसक्त हो गई।
एक दिन पुष्पवती ने धागा और बहुत से फूल धन्यकुमार के सामने लाकर रख दिए। उन्होंने उन फूलों की एक अतिशय सुन्दर माल बनाकर तैयार कर दी। पुष्पवती वहां के राजा श्रेणिक और रानी चेलिनी की पुत्री गुणवती के लिए प्रतिदिन माला बनाकर ले जाया करती थी। सो उस दिन वह धन्यकुमार की बनाई हुई माला को लेकर राजमहल में गई। गुणवती ने पूछा—पुष्पवती! तुम तीन दिन से क्यों नहीं आई ? उसने कहा—मेरे पिता के भानजे आये हुए हैं, उनके सत्कारादि करने के कारण मुझे आने का अवकाश नहीं मिला। ये बातें हो ही रही थी कि गुणवती की दृष्टि उस नवीन माला पर गई। उसे आश्चर्य के साथ देखकर पूछा-पुष्पवती ! आज यह माला किसकी बनाई हुई ले आई हो ? यह तो तेरी बनाई हुई जान नहीं पड़ती। बड़ी सुन्दर माला बनी है। तब पुष्पवती ने कहा—उन्हीं धन्यकुमार की बनाई हुई है। तब गुणवती ने हँस कर कहा—तब तो तुझे बहुत अच्छा वर मिला है। यह सुनकर पुष्पवती लज्जित होकर चली गई।
एक दिन धन्यव् धन्यकुमार किसी धनी की चित्र-विचित्र दुकान देख वहाँ जा बैठा। उस दिन उसे व्यापार में बहुत भारी लाभ हुआ। इसलिए वह धनी बोला—मैं अपनी पुत्री का विवाह तुम्हारे साथ करूँगा क्योंकि तुम कोई बड़े पुण्यात्मा हो। दूसरे दिन कुमार शालिभद्र नाम के प्रसिद्ध वैश्य की दुकान पर जा बैठा। उस दिन उसे भी बहुत नफा (लाभ) हुआ। इसलिए वह भी बोला—मैं अपनी महाभागिनी पुत्री सुभद्रा तुम्हें दूँगा। फिर एक दिन वहाँ के राजश्रेष्ठी ने कीर्तिपुर नगर में घोषणा करा दी कि जो वैश्य का पुत्र एक दिन में एक कौड़ी से एक हजार दीनार कमा सकता हो, उसे मैं अपनी पुत्री धनवती ब्याह दूँगा। यह घोषणा धन्यकुमार ने सुनी। उसने उसी समय श्रेष्ठी के यहाँ जाकर कौड़ी ले, उससे मालालंवन तृण खरीद किये, पश्चात् वे तृण माली को देकर फूल लिये और उनकी एक सुन्दर माला तैयार की। उसे उद्यान को हवा खाने के लिये जाते हुये राजकुमारों को दिलाई और उनके पूछने पर उसका एक हजार दीनार मूल्य बतलाया। एक कौतुकी राजकुमार उसे एक हजार दीनार देकर ले गया। धन्यकुमार ने वह द्रव्य ले जाकर श्रेष्ठी को सौंप दिया और उसने की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार अपनी पुत्री धन्यकुमार को भेंट कर दी। इस प्रकार धन्यकुमार की नाना प्रकार से प्रशंसा सुन उसके रूप यौवन को देख गुणवती अतिशय आसक्त हो गई और कुमार की विरह चिन्ता में दिन पर दिन क्षीण शरीर अर्थात् दुर्बल होने लगी।
एक दिन धन्यकुमार ने राजमंत्री आदि के पुत्रों को द्यूतक्रीड़ा में (जुआ में) हरा दिया और राजा का पुत्र अभयकुमार अपने विज्ञान के (चतुराई के) मद में अतिशय गर्वित हो रहा था, सो चन्द्रकबेध को बेध करके उसे भी जीत लिया, परन्तु इन सब बातों से वे सब के सब धन्यकुमार से द्वेष करने लगे और उसके मार डालने की चिन्ता करने लगे।
यहाँ गुणवती के दिन पर दिन दुर्बल होते जाने का कारण जानकर राजा श्रेणिक ने अभयकुमारादि के साथ सलाह की कि धन्यकुमार को कन्या देनी चाहिए अथवा नहीं ? अभयकुमार ने कहा—नहीं, क्योंकि उसका कुल ज्ञान नहीं है अर्थात् कोई यह नहीं जानता है कि धन्यकुमार किसी ऊँच कुल का है अथवा नीच कुल का ? श्रेणिक ने कहा—यदि ऐसा होगा अर्थात् धन्यकुमार के साथ गुणवती का विवाह नहीं किया जावेगा तो वह मर जावेगी। तब अभयकुमार ने कहा—जब तक वह जीता है, तब तक कुमारी दु:खी रहेगी और जब तक वह निरपराधी है, तब तक उसका मारना ठीक नहीं है। इसलिए कोई उपाय करके उसे मार डालना चाहिए और वह उपाय यही है कि नगर के बाहर जो राक्षस का मन्दिर है, उसमें पहले बहुत से मनुष्य जाकर मर गए हैं। इसलिए ऐसी घोषणा करा देनी चाहिए कि जो पुरुष उस राक्षस—भवन में प्रवेश करेगा, उसे आधा राज्य और अपनी गुणवती पुत्री दूँगा। इस घोषणा को सुनकर घमंड से वह वहां अवश्य जावेगा और मारा जावेगा। राजा ने यह बात स्वीकार कर ली और सब लोगों के निषेध करने पर भी धन्यकुमार उस राक्षस भवन में गया। परन्तु उसके दर्शन करते ही वह राक्षस उपशान्तचित्त हो गया। उसने सम्मुख आकर नमस्कार किया और धन्यकुमार को दिव्य िंसहासन पर बैठाकर कहा—हे स्वामिन् , इतने दिन तक आपका भांडागारिक (खचांची) बनकर मैं प्रसन्नता से इस द्रव्य की रखवाली करता रहा हूूँ। अब आप आ गए इसलिए यह सब धन—भंडार स्वीकार कीजिए। मैं आपका सेवक हूँ। जिस समय आप समरण करेंगे, मैं हाजिर होऊँगा। इतना कह राक्षस तो अदृश्य हो गया। धन्यकुमार रात्रि भर वहीं रहा। उधर जब कुमार की राक्षस मन्दिर में जाने की बात सुनी, तब ऐसी प्रतिज्ञा करके कि जो गति उनकी होगी वही हमारी होगी, गुणवती ने भी वह रात जिस किसी तरह व्यतीत की।
प्रात:काल हुआ। धन्यकुमार मन्दिर में से निकल कर नगर की ओर रवाना हुआ। उन्हें देख राजा तथा नगर निवासियों को बड़ा भारी कौतुक तथा आश्चर्य हुआ। पश्चात् राजा अभयकुमारादि पुत्रों के साथ उसे लेने के लिए आधी दूर सम्मुख गए। उन्हें राजमहल में ले जाकर बड़ा भारी सत्कार किया और अवसर पाकर पूछा—आपका कुल क्या है ? तब धन्यकुमार ने कहा—मैं उज्जयनी के एक वैश्य का पुत्र हूँ और तीर्थयात्रा के लिए निकला हूँ। इससे राजा को संतोष हुआ और उसने गुणवती आदि सोलह कन्याओं के साथ धन्यकुमार का विवाह करके अपना आधा राज्य दे दिया। तब धन्यकुमार उस राजमहल के आस-पास नगर बनाकर उसी में राज्य करता हुआ सुख से दिन काटने लगा।
उधर उज्जयनी में धन्यकुमार के चले आने पर राजादिकों को बहुत दु:ख हुआ। माता-पिता के दु:ख का तो कहना ही क्या ? उसी समय धन्यकुमार को जो नव निधियाँ प्राप्त हुई थीं, उनके रक्षक देवों ने उन्हें (धन्यकुमार के माता-पिताओं को) सातों पुत्रों सहित उस वसुमित्र श्रेष्ठी के घर से निकाल दिया। वे सबके सब अपने पहले घर में आकर रहने लगे। यह देख पुरवासियों को अचरज हुआ। वे लोग यह भी कहने लगे कि अहो ! देखो तो धनपाल वैâसा कठोर वङ्काहृदय है, जो ऐसे महाभाग्य पुत्र के चले जाने पर भी जीता है और भी जिसके जी में जो आया, सो कहकर धनपाल की निदा की।
कुछ दिनों के बाद धनपाल श्रेष्ठी के ऐसा अशुभ का उदय हुआ कि उन्हें जीविका की चिन्ता हो गई। भोजन का भी ठिकाना नहीं रहा। लाचार उसी राजगृही नगरी में जहाँ कि धन्यकुमार राज्य करता था, धनपाल सेठ अपने भानजे शालिभद्र का पता लगाते हुए निकले। धन्यकुमार के महल के सामने वे शालिभद्र का घर पूछ रहे थे कि धन्यकुमार की दृष्टि उनपर पड़ी। तत्काल ही समीप आकर वे पिता के चरणों पर गिर पड़े। यह देख लोग आश्चर्य करने लगे कि इस राहगीर बनिये के पैरों पर इतना बड़ा राजा क्यों पड़ गया ? धनपाल ने भी कहा—राजन् इतने बड़े प्रतापी यशस्वी राजा होकर आप यह क्या करते हैं ? आप पृथ्वीपृति हैं और मैं एक मन्दभागी वैश्य हूँ। आप मेरे नमस्कार के योग्य हैं। तब पुत्र ने कहा—नहीं, आप पिता हैं और मैं आपका पुत्र हूँ। यह सुनते ही धनपाल का हृदय भर आया। पुत्र को गले लगा लिया। दोनों ही परस्पर मिलाप के आनन्द में रोने लगे। तब मन्त्री आदि ने बड़ी कठिनाई से उन्हें रोका। पीछे सबके सब राजमहल में गए। वहाँ धन्यकुमार ने अपनी सब कथा कह सुनाई और अपनी माता आदि के कुशल समाचार पूछे। धनपाल ने कहा—सब जीते हैं, परन्तु भोजन के लिए वहां किसी को भी कुछ नहीं है। यह सुनकर धन्यकुमार ने तत्काल ही बहुत से सेवक भेजकर सब कुटुम्बियों को बुलवा लिया। उनके आगमन के समाचार सुनकर धन्यकुमार बड़ी भारी विभूति के साथ आधी दूर तक लेने के लिए गया। मिलते ही पहले माता को नमस्कार किया और फिर भाइयों को। उस समय अर्थात् धन्यकुमार के नमस्कार करते समय सातों भाई लज्जा से नीचा मुख करके रह गए। तब धन्यकुमार ने कहा—भाइयों, आप लोगों के प्रसाद से मुझे यह राज्य मिला है। आप लोग क्यों व्यर्थ लज्जित हो रहे हैं ? अब आपके जी में जो कुछ शल्य हो, उसको निकाल दीजिए। भाई की इस प्रकार उदार वाणी सुन वे सब भाई नि:शल्य हो गए। पश्चात् सबको नगर तथा महल में ले गया और खूब सेवा आदर कर सबको यथायोग्य ग्रामादि दे धन्यकुमार सुख से रहने लगा।
एक दिन अपनी सुभद्रा स्त्री का मुख उदास देखकर धन्यकुमार ने पूछा—प्रिये, तुम्हारा मुख विरूप क्यों हो रहा है ? सुभद्रा ने कहा—मेरा भाई शालिभद्र घर में वैराग्य भावों का अभ्यास करता हुआ रहता है, इसका मुझे बड़ा भारी दु:ख है। तब धन्यकुमार ने कहा—प्रिये, मैं उन्हें जाकर समझा दूँगा, वे वैराग्य नहीं लेवेंगे। तुम शोक को छोड़ दो। इसके बाद धन्यकुमार अपनी ससुराल गया। वहाँ अपने साले से पूछा—आप आजकल मेरे यहाँ क्यों नहीं आते हैं ? वे बोले—आजकल मैं तप का अभ्यास किया करता हूँ, इससे आपके यहां नहीं पहुँच पाता। धन्यकुमार ने कहा—यदि आपकी इच्छा तप करने की है, तो फिर अभ्यास करने से क्या ? श्रीवृषभदेव आदि तीर्थंकरों ने क्या तप का अभ्यास किया था ? उन्होंने तो बिना अभ्यास किये ही ऐसा कठिन तप किया था, जो किसी से न हो सके। अच्छा आप तो अभ्यास ही किया करें, परन्तु मैं तो अब तप ही ले लेता हूँ। मुझे अभ्यास नहीं करना है। ऐसा कह धन्यकुमार ने घर आकर अपने धनपाल नाम के बड़े पुत्र को राज्य दिया और राजा श्रेणिक आदि सबसे क्षमा मांगकर श्री वर्द्धमान भगवान के समवसरण में माता-पिता तथा शालिभद्र आदि बहुत से लोगों के साथ जिनदीक्षा ले ली।
कुछ काल में सम्पूर्ण आगमों के धारी होकर और बहुत काल तक तपस्या करके तथा अन्त में सल्लेखना लेकर प्रायोपगमन विधि से श्री धन्यकुमार मुनि ने शरीर छोड़ा और सर्वार्थसिद्धि स्वर्ग के सुख प्राप्त किये। धनपालादि अपनी-अपनी तपस्या के अनुसार यथायोग्य गतियों को प्राप्त हुए।
इस प्रकार अकृतपुण्य एक बार के आहारदान की अनुमोदना के प्रभाव से ही इस प्रकार सुख को प्राप्त हुआ। फिर अन्य लोग क्यों नहीं आहारदान के फल से सब प्रकार के सुखों को पावेंगे ?