केवलज्ञान जिनका प्रकाशमान नेत्र हैं, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर चिलातपुत्र की कथा लिखी जाती है।
राजगृह के राजा उपश्रेणिक एक बार वन की शोभा देखने के लिए शहर से बाहर गए। वे जिस घोड़े पर सवार थे, वह बड़ा दुष्ट था। सो उसने एक भयानक वन में जा छोड़ा। उस वन का मालिक एक यमदंड नाम का भील भा। यह यमदण्ड उच्चकुलीन क्षत्रिय राजा था, परन्तु कुछ कारणवश राज्य से निकलकर यहाँ आकर रहने लगा था इसकी विद्युन्मती रानी थी। इसके एक लड़की थी, उसका नाम तिलकवती था। वह बड़ी सुन्दरी थी। उपश्रेणिक उसे देखकर काम के बाणों से अत्यन्त बींधे गये। उनकी यह दशा देखकर यमदण्ड ने उनसे कहा—राजाधिराज, यदि आप इससे उत्पन्न होने वाले पुत्र को राज्य का मालिक बनाना मंजूर करें तो मैं इसे आप के साथ ब्याह सकता हूँ। उपश्रेणिक ने यमदण्ड की शर्त मंजूर कर ली। यमदण्ड ने तब तिलकवती का ब्याह उनके साथ कर दिया। वे प्रसन्न होकर उसे साथ लिये राजगृह लौट आये।
बहुत दिनों तक उन्होंने तिलकवती के साथ सुख भोगा, आनन्द मनाया। तिलकवती के एक पुत्र हुआ। इसका नाम चिलातपुत्र रखा गया। उपश्रेणिक के पहली रानियों से उत्पन्न हुये और भी कई पुत्र थे। यद्यपि राज्य वे तिलकवती के पुत्र को देने का संकल्प कर चुके थे, तो भी उनके मन में यह खटका सदा बना रहता था कि कहीं इसके हाथ में राज्य जाकर नष्ट न हो जाय ! जो हो, पर वे अपनी प्रतिज्ञा के न तोड़ने को लाचार थे। एक दिन उन्होंने एक अच्छे विद्वान् ज्योतिषी को बुलाकर उनसे पूछा—पंडितजी, अपने निमित्तज्ञान को लगाकर मुझे आप यह समझाइए कि मेरे इन पुत्रों में राज्य का मालिक कौन होगा ? ज्योतिषी जी बहुत कुछ सोच—विचार के बाद राजा से बोले—सुनिये महाराज, मैं आप को इसका खुलासा कहता हूँ। आपके सब पुत्र खीर का भोजन करने को एक जगह बैठाये जायें और उस समय उन पर कुत्तों का एक झुंड छोड़ा जाय। तब उन सब में जो निडर होकर वहीं रखे हुए सिंहासन पर बैठे नगारा बजाता जाय और भोजन करता जाय और दूसरे कुत्तों को भी डालकर खिलाता जाय, उसमें राजा होने की योग्यता है। मतलब यह कि अपनी बुद्धिमानी से कुत्तों के स्पर्श से अछूता रहकर आप भोजन कर ले।
दूसरा निमित्त यह होगा कि आग लगने पर जो सिंहासन, छत्र, चँवर आदि राज्य चिन्हों को निकाल सके, वह राजा हो सकेगा। इत्यादि और कई बाते हैं, पर उनके विशेष कहने की जरूरत नहीं।
कुछ दिन बीतने पर उपश्रेणिक ने ज्योतिषी जी के बताये निमित्त की जाँच करने का उद्योग किया। उन्होंने िंसहासन के पास ही एक नगारा रखवाकर वहीं अपने सब पुत्रों को खीर खाने को बैठाया। वे जीमने लगे कि दूसरी ओर से कोई पाँच सौ कुत्तों का झुण्ड दौड़कर उन पर लपका। उन कुत्तों को देखकर राजकुमारों के तो होश गायब हो गये। वे सब चीख मारकर भाग खड़े हुए। पर हाँ एक श्रेणिक जो इन सबसे वीर और बुद्धिमान था, उन कुत्तों से डरा नहीं और बड़ी फुरती से उठकर उसने खीर परोसी हुई बहुत—सी पत्तलों को एक ऊँची जगह रख कर अपने आप ही रखे हुए िंसहासन पर बैठ गया और आनन्द से खीर खाने लगा। साथ में वह उन कुत्तों को भी थोड़ी—थोड़ी देर बाद एक एक पत्तल उठा—उठा डालता गया और नगारा बजाता गया, जिससे कि कुत्ते उपद्रव न करें।
इसके कुछ दिनों बाद उपश्रेणिक ने दूसरे निमित्त की भी जाँच की। अब की बार उन्होंने कहीं कुछ थोड़ी—सी आग लगवा लोगों द्वारा शोरगुल करवा दिया कि राजमहल में आग लग गई। श्रेणिक ने जैसे ही आग लगने की बात सुनी वह दौड़ा गया और झटपट राजमहल से सिंहासन, चँवर आदि राज्यचिन्हों को निकाल बाहर हो गया। यही श्रेणिक आगे तीर्थंकर होगा।
श्रेणिक की वीरता और बुद्धिमानी देखकर उपश्रेणिक को निश्चय हो गया कि राजा यही होगा इसी के यह योग्य भी है। श्रेणिक के राजा होने की बात तब तक कोई न जान पाये, जब तक वह अपना अधिकार स्वयं अपनी भुजाओं द्वारा प्राप्त न कर ले, इसके लिए उन्हें उसके रक्षा की चिन्ता हुई। कारण उपश्रेणिक राज्य का अधिकारी तिलकवती के पुत्र चिलात को बना चुके थे और इस हाल में किसी दुश्मन को या चिलात के पक्षपातियों को यह बात पता लग जाती कि इस राज्य का राजा तो श्रेणिक ही होगा, तब यह असम्भव नहीं था कि वे उसे राजा होने देने के पहले ही मार डालते। इसलिये उपश्रेणिक को यह चिन्ता करना वाजिब था, समयोचित और दूरदर्शिता का था। इसलिये उन्हें एक अच्छी युक्ति सूझ गई और बहुत जल्दी उन्होंने उसे कार्य में भी परिणित कर दिया। उन्होंने श्रेणिक के सिर पर यह अपराध मढ़ा कि उसने कुत्तों का झूँठा खाया, इसलिये वह भ्रष्ट है। अब वह न तो राजघराने में ही रहने योग्य रहा और न देश में ही। इसलिये मैं उसे आज्ञा देता हूँ कि वह बहुत जल्दी राजगृह से बाहर हो जाये। सच है पुण्यवानों की सभी रक्षा करते हैं।
श्रेणिक अपने पिता की आज्ञा पाते ही राजगृह से उसी समय निकल गया। वह फिर पलभर के लिए भी वहाँ न ठहरा। वहाँ से चलकर वह द्राविड़ देश की प्रधान नगरी काञ्ची में पहुँचा। इसने अपनी बुद्धिमानी से वहाँ कोई ऐसा कार्य किया जिससे इसके दिन बड़े सुख से कटने लगे।
इधर उपश्रेणिक कुछ दिनों तक तो और राजकाज चलाते रहे। इसके बाद कोई ऐसा कारण उन्हें देख पड़ा जिससे संसार और विषयभोगों से वे बहुत उदासीन हो गये। अब उन्हें संसार का वास एक बहुत ही पेचीला जाल जान पड़ने लगा। उन्होंने तब अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार चिलातपुत्र को राजा बनाकर सब जीवों का कल्याण करने वाला मुनिपद ग्रहण कर लिया।
चिलात—पुत्र राजा हो गया सही, पर उसने प्रजा पर जबरन जोर—जुल्म करना शुरू किया। यह एक साधारण बात है कि अन्यायी का कोई साथ नहीं देता और यहीं कारण हुआ कि मगध के प्रजा की श्रद्धा उस पर से बिल्कुल ही उठ गई, सारी प्रजा उससे हृदय से नफरत करने लगी। प्रजा का पालक होकर जो राजा उसी पर अन्याय करे तब इससे बढ़कर और दु:ख की बात क्या हो सकती है?
परन्तु इसके साथ ही यह भी बात है कि प्रकृति अन्याय को नहीं सहती। अन्यायी को अपने अन्याय का फल तुरन्त मिलता है। चिलातपुत्र के अन्याय की डुगडुगी चारों ओर पिट गई। श्रेणिक को जब यह बात सुन पड़ी तब उससे चिलातपुत्र का प्रजा पर जुल्म करना न सहा गया। वह उसी समय मगध की ओर रवाना हुआ। जैसे ही प्रजा को श्रेणिक के राजगृह आने की खबर लगी उसने उसका एकमत होकर साथ दिया। प्रजा की इस सहायता से श्रेणिक ने चिलात को राज्य से बाहर निकाल आप मगध का सम्राट बना। सच है, राजा होने के योग्य वही पुरुष है जो प्रजा का पालन करने वाला हो। जिसमें यह योग्यता नहीं वह राजा नहीं, बल्कि इस लोक में तथा परलोक में अपनी कीर्ति का नाश करने वाला है।
चिलात पुत्र मगध से भागकर एक वन में जाकर बसा। वहाँ उसने एक छोटा—मोटा किला बनवा लिया और आसपास के छोटे—छोटे गाँवों से जबरदस्ती कर वसूल कर आप उनका मालिक बन बैठा। इसका भर्तृमित्र नाम का एक मित्र था। भर्तृमित्र के मामा रुद्रदत्त के एक लड़की थी। सो भर्तृमित्र ने अपने मामा से प्रार्थना की वह अपनी लड़की का ब्याह चिलातपुत्र के साथ कर दे। उसकी बात पर कुछ ध्यान न देकर रुद्रदत्त चिलातपुत्र को लड़की देने से साफ मना कर दिया। चिलातपुत्र से अपना वह अपमान न सहा गया। वह छुपा हुआ राजगृह में पहुँचा और विवाह के स्नान करती हुई सुभद्रा को उठा चलता बना। जैसे ही यह बात श्रेणिक के कानों में पहुँची वह सेना लेकर उसके पीछे दौड़ा। चिलातपुत्र ने जब देखा कि अब श्रेणिक के हाथ से बचना कठिन है, तब उस दुष्ट निर्दयी ने बेचारी सुभद्रा को तो जान से मार डाला और आप जान लेकर भागा। वह वैभारपर्वत पर से जा रहा था कि उसे वहाँ एक मुनियों का संघ देख पड़ा। चिलातपुत्र दौड़ा हुआ संघाचार्य श्री मुनिदत्त मुनिराज के पास पहुँचा और उन्हें हाथ जोड़ सिर नवा उसने प्रार्थना की कि प्रभो, मुझे दीक्षा दीजिए, जिससे मैं अपना हित कर सवूँâ। आचार्य ने तब उससे कहा—प्रिय, तूने बड़ा अच्छा सोचा जो तू तप लेना चाहता है। तेरी आयु अब सिर्फ आठ दिन की रह गई है। ऐसे समय जिनदीक्षा लेकर तुझे अपना हित करना उचित ही है। मुनिराज से अपनी जिन्दगी इतनी थोड़ी सुन उसने उसी समय तप ले लिया जो संसार समुद्र से पार करने वाला है। चिलातपुत्र तप लेने के साथ ही प्रायोपगमन संन्यास ले धीरता से आत्मभावना भाने लगा। इधर उसके पकड़ने को पीछे आने वाले श्रेणिक ने वैभार पर्वत पर आकर उसे इस अवस्था में जब देखा जब उसे चिलातपुत्र की इस धीरता पर बड़ा चकित होना पड़ा। श्रेणिक ने तब उसके इस साहस की बड़ी तारीफ की। इसके बाद वह उसे नमस्कार कर राजगृह लौट आया। चिलातपुत्र ने जिस सुभद्रा को मार डाला था, वह मरकर व्यन्तर देवी हुई, उसे जान पड़ा कि मैं चिलातपुत्र द्वारा बड़ी निर्दयता से मारी गई हूँ, मुझे भी तब अपने बैर का बदला लेना ही चाहिए। यह सोचकर वह चील का रूप ले चिलात मुनि के सिर पर आकर बैठ गई उसने मुनि को कष्ट देना शुरू किया। पहले उसने चोंच से उनकी दोनों आँखे निकाल लीं और बाद मधुमक्खी बनकर वह उन्हें काटने लगी। आठ दिन तक उन्हें उसने बेहद कष्ट पहुँचाया। चिलातमुनि ने विचलित न हो इस कष्ट को बड़े शान्ति से सहा। अन्त में समाधि से मरकर उसने सर्वार्थसिद्धि प्राप्त की।
चिलात मुनि ने ऐसा दु:सह उपसर्ग सहकर भी अपना धैर्य न छोड़ा और जिनेन्द्र भगवान के चरणों का, जो कि देवों द्वारा भी पूज्य हैं, खूब मन लगाकर ध्यान करते रहे और अन्त में जिन्होंने अपने पुण्यबल से सर्वार्थसिद्धि प्राप्त की, वे मुझे भी मंगल दें।