श्री विद्यानंद स्वामी का यह कहना है कि एक अष्टसहस्री को ही सुनना चाहिए। अन्य हजारों ग्रन्थों को सुनने से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि इस एक अष्टसहस्री ग्रंथ के द्वारा ही स्वसमय और परसमय का स्वरूप जान लिया जाता है।
महान् आचार्य श्री उमास्वामी जी ने महान् ग्रंथराज तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ की रचना के प्रारंभ में ‘मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृतां। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये’ इस मंगल श्लोक को रचा है। श्री समंतभद्र- स्वामी ने इस मंगलाचरण श्लोक का आधार लेकर ‘आप्त मीमांसा’ नाम से एक स्तोत्र रचा है, जिसका अपरनाम ‘देवागमस्तोत्र’ भी है। श्री भट्टाकलंक देव ने आप्तमीमांसा स्तुति पर ‘अष्टशती’ नाम से भाष्य बनाया है जो कि जैन दर्शन का एक अतीव गूढ़ ग्रंथ बन गया है। इसी भाष्य पर आचार्यवर्य श्री विद्यानंद महोदय ने ‘अष्टसहस्री’ नाम से अलंकार टीका बनाई है, जो कि जैन दर्शन का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ कहलाता है। इसमें दश परिच्छेद में १. भाव-अभाव, २. द्वैत-अद्वैत, ३. नित्य-अनित्य, ४. भेद-अभेद, ५. अपेक्षा-अनपेक्षा, ६. हेतु-आगम, ७. अंतरंगार्थ-बहिरंगार्थ, ८. दैव-पुरुषार्थ, ९. पुण्य-पाप, १०. अज्ञान-ज्ञानवाद, इन एक-एक प्रकरणों के एकांतों का पूर्वपक्षपूर्वक निरसन करके सर्वत्र स्याद्वाद प्रक्रिया से वस्तु तत्त्व को समझाया गया है। वास्तव में तत्त्व-अतत्त्व को तत्त्व में समझने के लिए यह न्याय ग्रंथ एक कसौटी का पत्थर है और अधिक तो क्या कहा जाये, स्वामी श्री समंतभद्राचार्यवर्य ने आप्त और अनाप्त की मीमांसा करते हुए आप्त अर्हंतदेव को ही न्याय की कसौटी पर कसकर सत्य आप्त सिद्ध किया है, देखिए-
अतिशय गुणों से युक्त भगवान की स्तुति करने के इच्छुक श्री समंतभद्रस्वामी स्वयं अपनी श्रद्धा और गुणज्ञता लक्षण प्रयोजन से ही इस देवागम स्तव में आप्त की मीमांसा करते हुए भगवान से प्रश्नोत्तर करते हुए के समान ही कहते हैं अर्थात् मानो भगवान् यहां प्रश्न कर रहे हैं कि हे समंतभद्र! मुझ में देवों का आगमन, चमर, छत्रादि अनेकों विभूतियाँ हैं फिर भी तुम मुझे नमस्कार क्यों नहीं करते हो ? तब उत्तर में स्वामी जी कहते हैं कि ‘‘हे भगवन्! आपके जन्मकल्याणक आदिकों में देव, चक्रवर्ती आदि का आगमन, आकाश में गमन, छत्र, चामर, पुष्पवृष्टि आदि विभूतियाँ देखी जाती हैं किन्तु ये विभूतियाँ तो मायावी जनों में भी हो सकती हैं अतएव आप हमारे लिए महान-पूज्य नहीं हैं।
इस पर भगवान मानो पुन: प्रश्न करते हैं कि हे समंतभद्र! बाह्य विभूतियों से तुमने हमें नमस्कार नहीं किया तो न सही किन्तु मरकरी आदि में असंभवी ऐसे अंतरंग में पसीना आदि का न होना एवं बहिरंग में जो गंधोदकवृष्टि आदि महोदय हैं जो कि दिव्य और सत्य हैं वे मुझ में हैं अत: आप मेरी स्तुति करिये। इस पर श्री समंतभद्रस्वामी कहते हैं कि अंतरंग और बहिरंग शरीरादि के महोदय भी रागादिमान देवों में पाये जाते हैं अत: इनसे भी आप महान नहीं हैं अर्थात् देवों के शरीर में भी पसीना, मलमूत्रादि नहीं है उनके यहाँ भी गंधोदक वृष्टि आदि वैभव होते हैं अत: इन महोदय से भी आप हमारे पूज्य नहीं हैं।
मानों पुन: भगवान कहते हैं कि हे समंतभद्र! रागादिमान देवों में भी असंभवी ऐसे तीर्थकृत संप्रदाय को चलाने वाला ‘मैं तीर्थंकर हूूँ’ अत: मैं अवश्य ही तुम्हारे द्वारा स्तुति करने के योग्य हूँ। इस पर श्री समंतभद्र- स्वामी प्रत्युत्तर देते हुए के समान कहते हैं कि हे भगवन्! आगमरूप तीर्थ को करने वाले सभी तीर्थंकरों के आगमों में परस्पर में विरोध पाया जाता है अत: सभी तो आप्त हो नहीं सकते अर्थात् बुद्ध, कपिल, ईश्वर आदि सभी ने अपने-अपने आगमों को रचकर अपना-अपना तीर्थ चलाकर अपने को तीर्थंकर माना है किन्तु सभी के आगम में परस्पर में विरोध होने से सभी सच्चे आप्त नहीं हो सकते हैं इसलिए इन सभी में कोई एक ही परमात्मा-सच्चा आप्त हो सकता है, ऐसा अर्थ ध्वनित कर देते हैं। इस कारिका की अष्टसहस्री टीका में श्री विद्यानंद महोदय ने बहुत ही विस्तार से सभी सम्प्रदायों का परस्पर में विरोध दर्शाया है।
अन्य सम्प्रदायों में वेदों को प्रमाण मानने वाले वैदिक संप्रदायी हैं। उनमें मीमांसक, वैशेषिक, नैयायिक एवं सांख्य वैदिक कहलाते हैं और चार्वाक, बौद्ध आदि वेद को नहीं मानने वाले अवैदिक कहलाते हैं। आजकल कुछ लोग वेद के मानने वालों को आस्तिक एवं नहीं मानने वालों को नास्तिक कहते हैं और उसमें जैन को भी नास्तिक में लिया है क्योंकि जैन भी वेदों को प्रामाणिक नहीं मानते हैं किन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है, जो आत्मा, मोक्ष, परलोक आदि के अस्तित्व को मानते हैं वे आस्तिक एवं आत्मा आदि के अस्तित्व को न मानने वाले नास्तिक कहलाते हैं अत: चार्वाक और शून्यवादी नास्तिक हैं बाकी सभी आस्तिक की कोटि में आ जाते हैं।
श्री समंतभद्रस्वामी कहते हैं कि सभी के सम्प्रदायों में परस्पर में विरोध होने से सभी आप्त नहीं हो सकते हैं किन्तु कोई एक ही आप्त-सच्चा देव हो सकता है। पुन: मानों भगवान यह प्रश्न करते हैं कि सच्चे आप्त में आप क्या गुण चाहते हैं ? तो समंतभद्र स्वामी कहते हैं कि वह सर्वज्ञ होना चाहिए। सूक्ष्म-परमाणु आदि, अंतरित-राम, रावण आदि और दूरवर्ती-हिमवन, सुमेरु आदि पदार्थ अनुमान ज्ञान से जाने जाते हैं जैसे कहीं पर धुएं को देखकर अग्नि का अनुमान लगाया जाता है तो वह अग्नि किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य है और जिनके ये सूक्ष्मादि पदार्थ प्रत्यक्ष होते हैं, वे ही सर्वज्ञ हैं। पुन: प्रश्न होता है कि हम संसारी प्राणी अल्पज्ञ हैं तो सर्वज्ञ वैâसे बन सकते हैं ? इस पर आचार्य कहते हैं कि दोष और आवरणों का अभाव किसी जीव में सम्पूर्णरूप से हो सकता है क्योंकि हम लोगों में दोष-रागादि भाव और आवरण-कर्मों की तरतमता देखी जाती है। किन्हीं में रागादि दोष कम हैं किन्हीं में उससे भी कम हैं। इससे यह अनुमान लगता है कि किसी जीव में ये दोषादि सर्वथा भी नष्ट हो सकते हैं जैसे कि अपने निमित्तों से स्वर्ण पाषाण से किट्ट और कालिमा का सर्वथा अभाव हो जाता है और सुवर्ण शुद्ध हो जाता है।
प्रश्न-दोष और आवरण में क्या अन्तर है ?
उत्तर-कर्म के उदय से होने वाले जीव के राग-द्वेष, अज्ञात आदि परिणाम दोष कहलाते हैं। इन्हें भावकर्म भी कहते हैं। ज्ञानावरण आदि पौद्गलिक कर्म आवरण कहलाते हैं इन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं। इन दोनों में परस्पर में कार्य-कारण भाव निश्चित है जैसे बीज से अंकुर एवं अंकुर से बीज की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। उसी प्रकार से दोष से आवरण और आवरण से दोष होते रहते हैं।
ये दोष सर्वथा पर पुद्गल के निमित्त से ही हों, ऐसी बात नहीं है अन्यथा मुक्त जीवों में भी इनका प्रसंग आ जावेगा क्योंकि पुद्गल वर्गणाएं तो वहाँ भी मौजूद हैं किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता है। उन सिद्धों में अज्ञान आदि दोष के न होने से केवल पुद्गल के निमित्त से वहाँ पर कर्मबंध नहीं होता है। निष्कर्ष यह निकलता है कि राग-द्वेष आदि से कर्मबंध होता है और कर्म के उदय से दोष होते हैं। जैसे-ज्ञानावरण कर्म के उदय से जीव में अज्ञान, दर्शनावरण के उदय से अदर्शन, दर्शनमोहनीय के उदय से मिथ्यात्व, चारित्रमोहनीय के उदय से अचारित्र आदि दोष होते हैं। वैसे ही प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य, अंतराय आदि भावों के निमित्त से ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म का आस्रव होता है। केवली, श्रुत, संघ, धर्म आदि को झूठा दोष लगाने से दर्शनमोहनीय का एवं कषायों की तीव्रता से चारित्रमोहनीय का आस्रव होकर बंध होता है। इस प्रकार से भावकर्म के लिए निमित्त कारण द्रव्यकर्म हैं एवं द्रव्यकर्म के लिए निमित्त कारण भावकर्म हैं, ऐसा निश्चय हो जाता है।
जो लोग ऐसा समझते हैं कि मेरी भूल से ही संसार है कर्म का उदय मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकता, उन्हें अपनी एकांत मान्यता को हटा देना चाहिए।
प्रश्न-जैसे किसी जीव में दोष और आवरण का पूर्णतया नाश हो सकता है, ऐसे ही किसी जीव में बुद्धि ज्ञान का भी पूर्णतया नाश मान लेना चाहिए ?
उत्तर-ठीक है, हम स्याद्वादी हैं। किसी जीव ने पृथ्वीकाय आदि को शरीररूप से ग्रहण करके छोड़ दिया है अत: उन पाषाण, मिट्टी आदि में चैतन्य ज्ञान का सर्वथा अभाव हो गया। इससे यह समझना चाहिए कि भस्म, लोष्ठ आदि पृथ्वीकाय सर्वथा अजीव हैं। पृथ्वीकायिक में ही जीव विद्यमान रहता है। दूसरी बात यह है कि मति, श्रुत आदिरूप क्षयोपशम ज्ञान का अभाव हो जाता है किन्तु पूर्ण-केवलज्ञान का किसी जीव में अभाव होना संभव नहीं है क्योंकि ज्ञान यह जीव का स्वाभाविक परिणाम है।
आत्मा के परिणाम दो प्रकार के हैं-स्वाभाविक और आगंतुक। अनंतज्ञान आदि गुण स्वाभाविक हैं और अज्ञान आदि मल आगंतुक हैं। आगंतुक मिथ्यात्व, राग-द्वेष, अज्ञान आदि दोष के प्रतिपक्षी सम्यग्दर्शन आदि गुणों की वृद्धि हो जाने से दोषों का अभाव हो जाता है।
सूक्ष्म परमाणु आदि और राम-रावण, सुमेरु आदि पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं क्योंकि वे अनुमान ज्ञान के विषय हैं। सर्वज्ञ भगवान अतीन्द्रिय ज्ञान से ही सूक्ष्मादि पदार्थों को जानते हैं, इन्द्रिय ज्ञान से नहीं क्योंकि इन्द्रियाँ तो वर्तमान और नियत पदार्थ को ही विषय करती हैं, भूत, भविष्यत् के अनंत पदार्थों को नहीं। वेद-वाक्यों से सूक्ष्मादि पदार्थों का ज्ञान मानने में तो सबसे पहले वेद को सर्वज्ञ का वाक्य कहना होगा अन्यथा हम आप जैसे अल्पज्ञ का कथन निर्दोष नहीं हो सकेगा।
अत: कोई न कोई कर्ममल कलंक रहित अकलंक आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी है, वही निर्दोष है यह बात सिद्ध हो जाती है। अब वह निर्दोष, सर्वज्ञ आत्मा कौन हो सकता है ? इस बात की सिद्धि करते हैं-
चार्वाक-कोई तीर्थंकर प्रमाण नहीं हैं, न कोई आगम हैं, न वेद हैं अथवा न कोई तर्क अनुमान ही है बस एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन भूतचतुष्टय से ही चैतन्य की उत्पत्ति होती है।
जैनाचार्य-यह बात ठीक नहीं है, देखिए। यदि आप प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं तब तो कोई भी प्रत्यक्ष से सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध नहीं कर सकते हैं। अच्छा! आप पहले इन्द्रिय प्रत्यक्ष से सारे विश्व में घूमकर देख लो कि कहीं भी सर्वज्ञ तीर्थंकर नहीं हैं, तभी आपका कहना सत्य होगा और यदि आपने सारे विश्व को देख लिया, जान लिया तब तो आप स्वयं ही सर्वज्ञ बन गये क्योंकि ‘सर्वं जानातीति सर्वज्ञ:’ जो सभी को जानता है, वही सर्वज्ञ है।
विशेष-मीमांसक, चार्वाक और तत्त्वोपप्लववादी ये तीनों सर्वज्ञ को मानते ही नहीं हैं एवं बौद्ध, सांख्य, वैशेषिक और ब्रह्मवादी ये लोग सर्वज्ञ को तो मानते हैं किन्तु उनकी मान्यताएं भिन्न—भिन्न हैं, इस बात का स्पष्टीकरण आगे समयानुसार होगा। हे भगवन्! जो आत्मा कर्ममलरहित, निर्दोष और सर्वज्ञ है वह आप ही हैं क्योंकि आपके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोधी हैं। वह आपका अविरोध इष्ट-शासन, प्रसिद्ध-प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित नहीं होता है अर्थात् घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने से वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशता ये तीन गुण आप अर्हंत में ही घटित होते हैं अन्यत्र किसी में घटित नहीं होते हैं इसलिए आप अर्हंत ही निर्दोष सर्वज्ञ हैं क्योंकि आपके वचनोें में किसी प्रकार का विरोध न होने से आपका मत बाधारहित सर्व प्राणी को हितकर है और आपके शासन में संसार और मोक्ष तथा संसार के कारण और मोक्ष के कारण ये चार तत्त्व बाधारहित हैंं। ये चारों बाधारहित वैâसे हैं ? इनकी समीक्षा देखिए-
सांख्य-प्रकृति और पुरुष का भेद ज्ञान हो जाने पर चैतन्य मात्र स्वरूप में आत्मा का अवस्थान हो जाना मोक्ष है। सर्वज्ञता प्रधान-जड़ का स्वरूप है आत्मा का नहीं क्योंकि ज्ञानादि अचेतन हैं। वे प्रकृति के ही स्वरूप हैं।
जैनाचार्य-यह आपका कथन असंभव है। हमारे यहाँ तो अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख आदि स्वरूप चैतन्य में अवस्थान हो जाने को ही मोक्ष कहा है क्योंकि ज्ञानादि आत्मा के स्वभाव हैं, जैसे -चैतन्य। वे ज्ञानादि आत्मा को छोड़कर अन्यत्र अचेतन में नहीं पाये जाते हैं। ज्ञान से ही आत्मा सुख-दु:ख का अनुभव करता है। ज्ञान को आत्मा का स्वभाव नहीं मानने पर तो आत्मा का अस्तित्व ही समाप्त हो जावेगा।
वैशेषिक-बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन नव विशेष गुणों का नाश हो जाना ही मोक्ष है क्योंकि बुद्धि आदि आत्मा के स्वभाव नहीं हैं, आत्मा से भिन्न हैं।
जैनाचार्य-यह आपका कथन असंभव है। हमारे यहाँ तो अनंतज्ञान, दर्शन, सुख आदि स्वरूप चैतन्य में अवस्थान हो जाने को ही मोक्ष कहा है क्योंकि ज्ञानादि आत्मा के स्वभाव हैं, जैसे-चैतन्य। वे ज्ञानादि आत्मा को छोड़कर अन्यत्र अचेतन में नहीं पाये जाते हैं। ज्ञान से ही आत्मा सुख-दु:ख का अनुभव करता है। ज्ञान को आत्मा का स्वभाव नहीं मानने पर तो आत्मा का अस्तित्त्व ही समाप्त हो जायेगा।
यदि मुक्ति में बुद्धि-ज्ञान और सुख का ही विनाश माना जायेगा तब मुक्ति के लिए कौन बुद्धिमान प्रयत्न करेगा।
ज्ञान आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं है कर्ता और करण की अपेक्षा से कथंचित् ही भिन्न है। हाँ! इतनी बात अवश्य है कि क्षायोपशमिक ज्ञान और सातावेदनीयजन्य सुख का तो हम लोग भी मुक्ति में विनाश मान लेते हैं किन्तु क्षायिक-पूर्ण ज्ञान और अतीन्द्रिय अव्याबाध सुख का तो मोक्ष में अभाव नहीं है प्रत्युत ज्ञान और सुख की पूर्णता के लिए ही मोक्ष के लिए प्रयत्न किया जाता है।
अत: जैनों द्वारा मान्य ‘कृत्स्नकर्म विप्रमोक्षौ मोक्ष:’ सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से पृथक् हो जाना मोक्ष है, वहाँ पर अनंत गुणों की सिद्धि हो जाती है।
नैयायिक शब्द को अमूर्तिक आकाश का गुण अमूर्तिक ही मानता है उसका कहना है कि ‘शब्द पुद्गल का स्वभाव नहीं है क्योंकि उसका स्पर्श नहीं पाया जाता है सुखादि के समान’ यदि शब्द को पुद्गल की पर्याय मानोगे तब तो उनका चक्षु से देखना, मर्यादा को उल्लघंन कर आगे भी पैâलना, बिखरना, कर्ण में भर जाना, एक ही श्रोत्रेन्द्रिय में प्रवेश हो जाना आदि अनेक दोष आते हैं।
शब्द तो निश्छिद्र महल के भीतर से निकल जाते हैं एवं आभ्यंतर में बाहर से आकर प्रवेश कर जाते हैं, व्यवधान का भेदन भी नहीं करते हैं अतएव वे पौद्गलिक नहीं हैं।
जैनाचार्य-शब्द पुद्गल की ही पर्याय हैं अत: मूर्तिक ही हैं, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से सहित हैं क्योंकि ‘‘स्पर्शरसगंधवर्णवन्त: पुद्गला:’’ यह सूत्र है। बहुत से पुद्गल स्कंध भी ऐसे अचाक्षुष हैं जिनका स्पर्श आदि व्यक्त नहीं है एतावता उनको अमूर्तिक नहीं कह सकते एवं न उनका अभाव ही कर सकते हैं तथा शब्द से प्रतिघात भी देखा जाता है। कोई मोटी एवं कड़ी पूड़ी आदि खा रहा है, उसके कड़-कड़ शब्दों से प्राय: प्रतिघात देखा जाता है। जैसे-कोई पुरुष उच्च ध्वनि से पाठ कर रहा है और दूसरा धीरे-धीरे बोल रहा है, तो उसकी ध्वनि दब जाती है अत: शब्द का स्पर्श नहीं मानना गलत है।
जो आपने ‘चक्षु आदि से दिखना चाहिए’ इत्यादि दोष दिये हैं वे भी दोष गंध परमाणुओं में भी मानने पड़ेंगे क्योंकि गंध परमाणु भी पुद्गल की पर्याय हैं, वे भी नहीं दिखते हैं। यदि आप कहें कि गंध परमाणु अदृश्य हैं अत: चक्षु इन्द्रिय से नहीं देखे जाते हैं पुन: शब्दों को भी तथैव मानो, क्या बाधा है ? पवन से प्रेरित होने पर उन शब्दों का विस्तृत होना आदि मानो तो गंध परमाणुओं में भी मानना पड़ेगा। भित्ति आदि से परमाणुओं का प्रतिघात प्रसिद्ध है तथैव शब्दों का भी प्रतिघात प्रसिद्ध है एवं जो आपने कहा कि स्कंधरूप से परिणत मूर्तिमान शब्द परमाणुओं के द्वारा श्रोता का कान पूर्णतया भर जायेगा एवं पौद्गलिक शब्द एक ही श्रोता के कान में प्रविष्ट हो जावेंगे पुन: उसी योग्य देश में स्थित अन्य श्रोताओं को कुछ भी शब्द सुनाई नहीं पड़ेंगे, इत्यादि दोष तो आपके गंध परमाणुओं में भी आ जावेंगे। वे भी गंध परमाणु नाक में भर जावेंगे तो स्वांस लेना ही कठिन हो जावेगा एवं वे नाक में भी घुस जावेंगे तो अन्य किसी सूंघने वाले को कुछ भी गंध नहीं आ सकेगी, इस पर नैयायिक ने कहा कि हमारे यहाँ ऐसा माना है कि सदृश परिणाम वाले गंध परमाणु सब तरफ पैâल जाते हैं अत: उक्त दोष नहीं आते हैं। यदि समान परिणाम वाले गंध परमाणु सब तरफ पैâल जाते हैं अत: उक्त दोष नहीं आते हैं तब तो समान परिणाम वाले शब्द परमाणु भी नाना दिशाओं में पैâल जाते हैं अत: एक श्रोता को ही सुनाई देवे इत्यादि दोष नहीं आते हैं। यदि आप कहें कि गंध परमाणुओं को ज्ञान विशेष की अन्यथानुपपत्ति होने से निश्चय हो जाता है उसमें भाग्य की कल्पना नहीं है किन्तु शब्द के आगमन में भाग्य की कल्पना कीजिए।
इस पर आचार्यों का कहना है कि-श्रोताओं के जिन-जिन श्रुत ज्ञानावरणरूप शब्दावरण का क्षयोपशम होता है उसी प्रकार से उपलब्धि योग्य परिणाम विशेष के होने से उन-उन ही अक्षरों का सुनना होता है।
जो आपने कहा कि निश्छिद्र महल से निकलना आदि होने से शब्द पुद्गल नहीं है सो भी ठीक नहीं है क्योंकि छिद्ररहित भवन से निकलना एवं प्रविष्ट होना पुद्गल में विरुद्ध नहीं है क्योंकि वे शब्द पुद्गल सूक्ष्म स्वभाव वाले हैं जैसे तेल, घी आदि चिकने पदार्थ निश्छिद्र घड़े से बाहर निकलकर घड़े को चिकना कर देते हैं एवं उष्ण, शीत, स्पर्श आदि निश्छिद्र घड़े में प्रविष्ट होकर उसकी अभ्यंतर की वस्तु गर्म या ठंडी कर देते हैं यह बात सर्वजन सुप्रसिद्ध है।
तत्त्वार्थसूत्र में ‘‘शब्दबंधसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवंतश्च’’ इस सूत्र में शब्द को पुद्गल की पर्याय सिद्ध किया है। अत: शब्द आकाश का गुण नहीं है और न अमूर्तिक ही है, ऐसा समझना चाहिए। यही कारण है कि आजकल शब्दों को टेपरिकार्डर में भर लेते हैं, रेडियो, टेलीफोन आदि द्वारा हजारों मील दूर पहुँचा देते हैं यह सब पौद्गलिक शक्ति का ही विकास हो रहा है। इन सभी आविष्कारों से भी शब्द पौद्गलिक और मूर्तिक सिद्ध हो रहे हैं।