श्री महावीर स्वामी को नमस्कार करके आगे उत्सर्पिणी के चतुर्थकाल में होने वाले भावी—प्रथम तीर्थंकर श्री पद्मनाभ भगवान को भी हम नमस्कार करते हैं।
जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखंड में मगधदेश है। इसकी राजधानी राजगृही नगर में भगवान मुनिसुव्रतनाथ के गर्भ, जन्म, दीक्षा व केवलज्ञान ऐसे चार कल्याणक हुए हैं। ऐसे वर्तमानकालीन बीसवें तीर्थंकर की जन्मभूमि की भी हम वंदना करते हैं।
आज से लगभग छब्बीस सौ वर्ष पूर्व भगवान महावीर के समय इस राजगृही के महाराजा श्रेणिक अपनी महारानी चेलना के साथ राज्य संचालन कर रहे थे। इनके पूर्वज—पिता उपश्रेणिक जैन थे तथा ये श्रेणिक भी जैन थे लेकिन राज्य प्राप्ति एवं रानी चेलना के विवाह से पूर्व कुछ कारणवंश बौद्ध बन गये थे।
महात्मा बुद्ध द्वारा संस्थापित ‘बौद्धधर्म’ भगवान महावीर के काल में ही उत्पन्न हुआ है यह आपको ध्यान में रखना है। यह जैनधर्म सार्वधर्म है यह अनादि निधन शाश्वत है। सदा-सदा १६० विदेहों में रहता है वा रहेगा। पांच भरत क्षेत्रों व पाँच ऐरावत क्षेत्रों में षट्काल परिवर्तन के निमित्त से चतुर्थकाल व पंचमकाल में जैनधर्म रहता है।
इसका विस्तृत विवेचन ‘तिलोयपण्णत्ति’ आदि ग्रंथ व ‘जैनभारती’ आदि ग्रंथों से समझना चाहिये।
यहाँ ‘श्रेणिक चरित’ के अनुसार राजा श्रेणिक का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। ये राजा श्रेणिक ही आगे आने वाले चतुर्थकाल में प्रथम तीर्थंकर ‘पद्मनाभ’ होंगे। कथा इस प्रकार है—
राजा श्रेणिक बौद्ध धर्मी बन गये थे एवं रानी चेलना जैनधर्मावलंबी थीं। इस निमित्त से राजा श्रेणिक हमेशा बौद्ध गुरुवों की प्रशंसा करते हुये रानी को बौद्धधर्मी बनाना चाहते थे और रानी चेलना अपने पति राजा श्रेणिक को जैनधर्मी बनाना चाहती थीं।
इस विषय में अनेक संघर्ष के प्रसंग श्रेणिक चरित में वर्णित हैं यहाँ संक्षेप में एक प्रसंग दिखाया जा रहा है।
एक दिन राजा ने कहा—हे देवि ! हमारे गुरु महाराज जब ध्यान का अवलम्बन करते हैं, तब वे अपनी आत्मा को बुद्धभवन में ले जाते हैं और वहाँ सुख में मग्न हो जाते हैं। यह सुनकर रानी ने कहा, तो महाराज उनका वह अविचल ध्यान एक बार नगर के बाहर मुझे दिखलाइये, यदि वह सच्चा ध्यान होगा तो मैं आपके धर्म को उसी समय स्वीकार कर लूंगी। तब उस नगर के बाहर मंडप में वे सब साधु वायुधारण (प्राणायाम) करके बैठ गये और वहाँ राजा रानी चेलिनी को लेकर उनके दर्शनों को गया। वहाँ रानी चेलिनी ने एक सखी के द्वारा उस मंडप में आग लगवा दी और आप तमाशा देखने लगी। आग के प्रज्वलित होते ही देखा कि वे सब के सब साधु उस मंडप में से निकलकर भाग खड़े हुये। यह देख राजा रानी पर अतिशय कुपित हुआ और बोला—यदि भक्ति नहीं थी, तो क्या उनको मारने का प्रयत्न करना तुम्हें उचित था ? रानी ने कहा—महाराज ! एक कथा सुनिये—
‘‘वत्सदेश में एक कौशाम्बी नाम की नगरी है। वहाँ के राजा का नाम वसुपाल और रानी का यशस्विनी था। नगरी में दो सेठ अधिक प्रसिद्ध थे, एक सागरदत्त और दूसरा समुद्रदत्त। सागरदत्त की स्त्री का नाम वसुमती और समुद्रदत्त की स्त्री का नाम सागरदत्ता था। एक बार सागरदत्त और समुद्रदत्त ये दोनों सेठ परस्पर स्नेह बढ़ाने के लिए इस प्रकार वचनबद्ध हो गये कि हम दोनों के पुत्र-पुत्रियों का विवाह जब होगा, तब परस्पर ही होगा।
कुछ काल बीतने पर सागरदत्त और वसुमती के एक सर्प-पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम वसुमित्र रखा और दूसरे समुद्रदत्त सेठ के नागदत्ता नाम की कन्या हुई। प्रतिज्ञानुसार विवाह योग्य होने पर दोनों सेठों ने उन दोनों का विवाह कर दिया। नागदत्ता यौवनवती हुई। उसे देखकर एक दिन उसकी माता सागरदत्ता रोने लगी कि हाय ! मेरी पुत्री को वैâसा वर मिला ! माता को रोती देख पुत्री ने पूछा—माँ तू क्यों रोती है ? माता ने कहा—बेटी, तेरे भाग्य को देखकर रोती हूँ। नागदत्ता बोली, नहीं तुझे चिन्ता नहीं करनी चाहिये, मेरा भाग्य बुरा नहीं है। मेरा पति दिन को तो सर्प बन कर पिटारे में रहता है, परन्तु रात्रि को दिव्य पुरुष होकर मेरे साथ दिव्य भोगों को भोगता है। माता ने विस्मित होकर कहा कि यदि ऐसा है तो रात को उसके पिटारे में से निकलने पर वह पिटारा तू मुझे दे देना। पुत्री ने यह बात स्वीकार की और तदनुसार अवसर पाकर माँ के हाथ में उसने वह पिटारा दे दिया। माता ने उसे पाकर तत्काल ही जला दिया और उसके जल जाने से वसुमित्र फिर सर्प न हो सका, मनुष्य रूप में ही रहने लगा।’’
राजन! इसी प्रकार ये आपके गुरु महाराज भी जो कि ध्यान के बल से बुद्धभवन में आनन्द करते हैं, जल जाने से सदा के लिए वहाँ ठहर जावेंगे, ऐसा विचार कर मैंने यह आग लगवाई थी, अपराध क्षमा करें। यह तर्क सुनकर राजा अपने क्रोध को दबाकर और मन मसोस कर रह गया।
एक दिन राजा शिकार खेलने के लिए जा रहा था कि मार्ग में यशोधर मुनि को तपस्या करते हुये देखकर उसे धर्मद्वेष उत्पन्न हुआ, इसलिए उसने क्रोधित होकर मुनिराज पर कुत्ते छोड़ दिये। परन्तु जब देखा कि मुनि की तपस्या के प्रभाव से उन कुत्तों ने कुछ भी उपद्रव नहीं किया, बल्कि नमस्कार करके वे उनके निकट बैठ गये, तब एक मरे हुये साँप को उठाकर उसने मुनिराज के गले में डाल दिया और साथ ही उन तीव्र-कषाय जनित परिणामों से उसने सातवें नरक की आयु अपने गले में डाल ली।
इसके पश्चात् चौथे दिन रात्रि को जब एकान्त में यह कथा राजा ने रानी चेलिनी को सुनाई तब उसने अतिशय दुखी होकर कहा—महाराज, आपने यह बहुत बुरा कर्म किया, व्यर्थ ही आपने अपने हाथ से दुर्गति का मार्ग साफ किया। परम निर्ग्रंथ मुनियों को उपसर्ग पहुँचाने के समान संसार में कोई दूसरा पाप नहीं है। राजा ने कहा—तो क्या वे जिनके गले में मैंने साँप डाला है, उसको अलग करके वहाँ से नहीं जा सके होंगे ? रानी ने कहा—वे महामुनि स्वयं ऐसा नहीं कर सकते। जब तक उनका उपसर्ग निवारण न होगा, तब तक वे वहाँ ही अचल रहेंगे। ‘यदि ऐसा है, तो मैं अभी देखने को जाऊँगा, ऐसा कहकर राजा उठ खड़ा हुआ और अनेक दीपकों का प्रकाश कराकर सेवकों के साथ वहाँ गया। देखा, महामुनि जैसे के तैसे तपस्या करते हुये अडोल खड़े हैं और साँप उनके गले में पड़ा है। उस समय राजा के हृदय में भक्ति उत्पन्न हुई। इसलिये उसने अपनी रानी सहित मुनिराज का उष्ण जल से शरीर स्वच्छ करके पूजा की और चरणों की सेवा करते हुये शेषरात्रि वहीं बिताई। सूर्योदय के समय प्रदक्षिणा करके रानी ने हाथ जोड़कर कहा—हे संसार समुद्र से पार लगाने वाले भगवन् ! उपसर्ग दूर हो गया है हम लोगों पर अनुग्रह (कृपा) कीजिये। यह सुनकर मुनि ध्यानासन छोड़कर बैठ गये और नमस्कार के उत्तर में दोनों से बोले—तुम दोनों के ‘धर्म की वृद्धि होवे।’ दोनों को इस प्रकार समान आशीर्वाद दिया। इस बात का राजा के चित्त पर बड़ा असर हुआ। वह सोचने लगा अहो ! मुनिराज के हृदय में वैâसी अद्वितीय क्षमा है, जो मुझ अपराधी में और अपनी परम भक्त रानी में कुछ भी भेद न रखकर एक रूप धर्मवृद्धि देते हैं। इनके चरणों पर तो अपना सिर काटकर चढ़ाना चाहिये। राजा ऐसा विचार कर ही रहा था कि उसे जानकर मुनिराज बोले—राजन् ! तूने बहुत बुरा विचार किया है, ऐसी अपघात की इच्छा तुझे नहीं करनी चाहिये। राजा आश्चर्ययुक्त होकर रानी से बोला—प्रिये ! मुनि महोदय ने मेरे मन की इस बात को वैâसे जान लिया कि मेरी आत्मघात करने की इच्छा है ? रानी ने कहा—महाराज, मन की बात का जान लेना तो मुनियों का एक साधारण कार्य है, आप तो इनसे अपने पूर्व जन्मों का भी वर्णन पूछ सकते हैं और उससे संतोष लाभ कर सकते हैं। राजा ने यह सुनकर बड़ी नम्रता से कहा—प्रभो! कृपा कर कहिये कि मैं पूर्व जन्म में कौन था ? मुनिराज कहने लगे—
इसी आर्यखंड के सूरकान्त देश में प्रयत्नपुर नाम का एक नगर है। वहाँ के राजा का नाम मित्र था। मित्र के पुत्र सुमित्र और प्रधान के पुत्र सुषेण में बड़ी मित्रता थी। सुषेण सुमित्र को अपने साथ जलक्रीड़ा करने के लिये बड़े स्नेह से ले जाता था और एक बावड़ी में स्नान कराता था, परन्तु इससे सुमित्र को बड़ा कष्ट होता था।
कुछ दिनों बाद जब सुमित्र राजा हुआ, तब सुषेण उसके भय से भागकर तापस हो गया। एक दिन राजसभा में सुषेण को न देखकर सुमित्र ने पूछा कि सुषेण कहाँ है ? तब लोगों ने कहा कि वह तापसी हो गया है। सुनकर राजा वहाँ गया जहाँ सुषेण था और उसके पांव पड़कर बोला—भाई, मेरा कोई अपराध हो तो क्षमा करो और अब इस वेष को छोड़ दो। परन्तु जब सुषेण किसी प्रकार तपस्या छोड़ने को राजी नहीं हुआ तब सुमित्र ‘‘यदि तप नहीं छोड़ते हो तो न सही परन्तु मेरे यहाँ आकर भिक्षा तो ग्रहण किया करो।’’ ऐसा निवेदन करके अपने घर चला गया।
सुषेण मासोपवास करके पारणे के दिन उक्त प्रार्थना के अनुसार राजा के यहाँ भिक्षा माँगने के लिये गया, परन्तु उस समय किसी कारण से राजा का चित्त स्थिर नहीं था, उसने तापसी को देखा नहीं, इसलिए उसे वापिस लौट जाना पड़ा। इसके पश्चात् तापसी उपवास करके फिर दूसरे, तीसरे पारणे को भी राजा के यहाँ गया, परन्तु कारणवश उसे दोनों दिन फिर भी भूखा लौटना पड़ा। यह देख किसी पुरुष ने कहा—यह राजा बड़ा कृपण है। आप स्वयं तो किसी को भिक्षा देता नहीं है और देने वालों को भी देने से रोक देता है। इस बेचारे तापसी को उसने व्यर्थ भूखे मारा। सुषेण तापसी यह सुनकर क्रोध के कारण असावधानी से बिना विचारे वहाँ से चला कि एक पत्थर की ठोकर खाकर गिर पड़ा और उसी ठोकर से वह मरकर व्यन्तरदेव हुआ।
उधर जब राजा ने सुना की तापसी की मृत्यु हो गई तब आप भी तापसी हो गया और जीवन के अन्त में शरीर छोड़कर व्यन्तरदेव हुआ। फिर उस व्यन्तर पर्याय को पूरी करके तू श्रेणिक राजा हुआ और वह सुषेण तापसी का जीव आगे तेरी इस महारानी से कुणिक नाम का पुत्र होगा। अपने इस प्रकार भवान्तर सुनकर राजा को जातिस्मरण हो गया और ‘‘एक जिनदेव ही सच्चा देव है, दिगम्बर मुनि ही सच्चे गुरु हैं और अिंहसालक्षणयुक्त जिनधर्म ही सच्चा धर्म है।’’ इस प्रकार का श्रद्धान करके वह उपशम सम्यग्दृष्टि हो गया।
कुछ दिनों के बाद महारानी चेलिनी गर्भवती हुई और उसे दोहला उत्पन्न हुआ। परन्तु उसकी पूर्ति न होने से वह (दुबली) होने लगी। राजा से अपनी इच्छा प्रगट नहीं की। एक दिन जब राजा ने बड़े भारी आग्रह से पूछा, तब रानी ने कहा—हे नाथ ! इस पापिनी की ऐसी इच्छा होती है कि आपके वक्षस्थल को विदारण करके रुधिर का पान करूँ। तब राजा ने अपने सरीखा बेसन का पुतला बनाकर उससे रानी की इच्छा पूर्ण की। पश्चात् कुछ दिनों में उस के पुत्र उत्पन्न हुअा। उसका मुख देखने के लिए राजा गये तो बालक उन्हें देखकर भौंहें चढ़ाकर और लाल-लाल नेत्र करके अपने होठों को डसने लगा। तब ‘‘यह मेरे लिए दुखदाई होगा’’ ऐसा विचार करके राजा ने रुष्ट होकर उस बालक को किसी बगीचे में छुड़वा दिया, परन्तु रानी राजा से छुपाकर उसे ले आई और धाय को सौंप दिया, सो कुणिक नाम से बढ़ने लगा। पश्चात् चेलिनी के क्रम से वारिषेण, हल्ल, विहल्ल और जितशत्रु आदि पाँच पुत्र और भी हुए। छट्ठे गर्भ में रानी को दोहला हुआ कि हाथी पर आरूढ़ होकर वर्षा ऋतु में भ्रमण करूँ। इस दोहले की अप्राप्ति से रानी क्षीण शरीर होने लगी। तब राजा ने क्षीण होने का कारण पूछा। रानी ने अपने दोहले का स्वरूप कहा। सुनकर राजा को बड़ी िंचता हुई कि, ग्रीष्म ऋतु में वर्षाकाल की वांछा वैâसे पूर्ण की जावे। तब राजा को िंचचित देखकर अभयकुमार ने कहा कि मैं वर्षाकाल की वृष्टि करूँगा। और रात को व्यन्तरादिकों को देखने के लिये श्मशान भूमि में गया। वहाँ एक बड़ के वृक्ष के नीचे अनेक दीपकों का प्रकाश किये हुये धूप धूयें से अनेक व्यन्तरों को अपने मन्त्र की शक्ति से बुलाये हुये और सुगन्धित फूलों से मन्त्र जपते हुये एक उद्विग्न (जिसका चित्त ठिकाने न था) पुरुष को देखकर पूछा कि तुम कौन हो ? क्या जपते हो ? उसने कहा कि—
विजयार्द्ध की उत्तर श्रेणी के गगनवल्लभ नगर का मैं पवनवेग नाम का राजा हूँ। मैं एक दिन जिनमन्दिरों की वन्दना के लिये सुमेरुगिरि पर गया था। वहाँ बालपुर के राजा विद्याधर चक्रवर्ती की कन्या सुभद्रा भी उसी समय आई थी। उसके देखने ही से मेरे हृदय के कामवाण से सौ टुकड़े हो गए, अतएव मैं उसे लेकर भागा और इस दक्षिण भरत के ऊपर आकाशमार्ग से जा रहा था कि सुभद्रा की सखियों के द्वारा मेरा गमन इस ओर को जानकर उसका पिता कुपित होकर पीछे लगा और आखिर मुझे उस (चक्रवर्ती) से युद्ध करना पड़ा। परन्तु मैं हार गया। मेरी विद्या का छेदन करके तथा अपनी कन्या को लेकर वह चला गया और अब मैं यहाँ भूमिगोचरी होकर रहता हूँ। मेरे लिए यह उपदेश था कि बारह वर्ष के पीछे इस मन्त्र के जाप से फिर से विद्या सिद्ध हो जावेगी। परन्तु उससे दूने अर्थात् २४ वर्ष जाप करने से भी वह मुझे सिद्ध न हुई, अतएव अशान्तचित्त होकर अब मैं अपने घर को जाने की इच्छा करता हूँ।
यह सुनकर अभयकुमार ने कहा कि वह मंत्र तो सुनाओ। पवनवेग ने मंत्र सुनाया, तो उसमें जो अक्षर न्यून थे उन्हें पूर्ण करके अभयकुमार ने कहा कि अब जाप करो। पवनवेग ने शुद्ध मंत्र का जाप किया कि तत्काल ही विद्या सिद्ध हो गई। इसलिए अभयकुमार को उसने तुरन्त उठकर नमस्कार किया। और इसके बाद उसी ने कुमार की इच्छानुसार वर्षादिक की, जिससे रानी का दोहला पूर्ण हुआ और उसने गजकुमार नाम के पुत्र को जना। इसके बाद कुछ दिनों के पीछे रानी के मेघकुमार नाम के पुत्र ने भी जन्म लिया। इस प्रकार सात पुत्रों की माता होकर चेलिनी महारानी सुख से रहने लगी।
एक दिन वनमाली ने आकर राजा को सूचना दी कि हे देव, विपुलाचल पर्वत पर भगवान् वर्द्धमान स्वामी का समवसरण आया है। तब राजा श्रेणिक सम्पूर्ण परिजनों के साथ भगवान् की पूजा के लिए गया और पूजा करके जिन भगवान् की विभूति के अतिशय को देखकर अधिक परिणामों की विशुद्धि से क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो गया और उसी समय तीर्थंकर प्रकृति का भी उसने बन्ध किया।
राजा श्रेणिक भगवान महावीर के समवसरण में मुख्य श्रोता रहे हैं और इन्होंने भगवान से ६० हजार प्रश्न किए हैं ऐसा वर्णन पुराणों में आता है।
समवसरण में गौतम स्वामी के मुख से भवान्तर सुनकर श्रेणिक राजा के अभयकुमार, गजकुमारादिक पुत्रों को बड़ा वैराग्य हुआ, इसलिए उन्होंने दीक्षा ले ली, साथ ही अभयकुमार की माता नन्दश्री ने भी आर्यिका की दीक्षा ले ली। राजा श्रेणिक को जिन जिन बातों की सुनने की इच्छा थी सो सब सुनकर महारानी चेलिनी के साथ अपने नगर में आये और महामंडलेश्वर की विभूति सहित सुख से काल व्यतीत करने लगे।
एक दिन सौधर्म स्वर्ग का सौधर्मेन्द्र अपनी सभा में सम्यक्त्व का स्वरूप निर्णय कर रहा था कि इतने में एक देव ने पूछा—क्या इस प्रकार का सम्यक्त्वधारी पुरुष कोई भरतक्षेत्र में है ? इन्द्र महाराज ने कहा कि हाँ, ऐसा सम्यग्दृष्टि राजा श्रेणिक है। ये सुनकर दो देव उसकी परीक्षा के लिए भरतक्षेत्र में आये और राजा के क्रीड़ा को जाने के मार्ग में एक नदी में दोनों ने स्वांग धारण किया। एक तो दिगम्बर मुनि का वेष धारण करके और मछली पकड़ने का जाल बिछाकर बैठा तथा दूसरा आर्यिका का वेष लेकर उस जाल में से निकली हुई मछलियों को कमंडलु में डालने के काम में मग्न हुआ। राजा ने क्रीड़ा को जाते हुए उक्त जोड़े को देखा और समीप जाकर नमस्कारपूर्वक पूछा—आप ये क्या कर रहे हैं ? ‘‘धर्मवृद्धि हो’’ ऐसा कह वेषी यति ने कहा—इस आर्यिका के गर्भधारण हुआ है, सो इसे मछली का मांस खाने की इच्छा हुई है, अतएव मैं मछलियों को पकड़ रहा हूँ। राजा ने कहा—इस उत्तम वेष को धारण करके ऐसा करना सर्वथा अनुचित है। मायावी यति ने कहा—राजन् ! जब प्रयोजन आ पड़ा, तब क्या किया जावे ? राजा ने कहा—तो भी दिगम्बरों को अनुचित है। वेषी मुनि ने कहा कि राजन ! प्रयोजन आ पड़ने पर सब ही साधु मुझ सरीखे हो जाते हैं। राजा ने कहा तब तुम सम्यग्दृष्टि भी नहीं हो, अत्यन्त निकृष्ट हो। यति ने कहा—तो क्या में असत्य कहता हूँ? जब तू मुझसे ऐसा कहता है, तब परम यतियों को गाली देने के कारण तू अवश्य जैन नहीं है, हम तो जैन हैं ही। राजा ने कहा—सम्यक्त्व के संवेगादि लक्षणों के अभाव से तथा जैन मुनियों की अप्रभावना करने के कारण तुम वैâसे जैनी कहला सकते हो ? और सुनो, यदि तुम इस पवित्र वेष को धारण करके ऐसा करोगे, तो तुम ही जानोगे ! मायावी यति ने कहा—क्या करोगे? राजा ने कहा—दर्शनभ्रष्ट होने के कारण तुम दिगम्बर मुनि नहीं हो सकते, इसलिए मैं तुम्हें गधे पर चढ़ाकर निकालूँगा। ऐसा कहकर उन दोनों को घर लाया। मंत्रियों ने देखकर राजा से पूछा हे देव, ऐसे भ्रष्ट मुनियों के नमस्कार करने से क्या सम्यग्दर्शन में अतिचार का दूषण नहीं लगता ? श्रेणिक ने कहा—ये वेषधारी जैन हैं, ऐसा जानकर मैंने नमस्कार किया था, इस कारण दर्शनातिचार नहीं हो सकता। हाँ, यदि मेरे चारित्र होता, तो सचमुच में चारित्र में अतिचार लगता। तब राजा को इस प्रकार सम्यग्दर्शन में दृढ़ देखकर वे दोनों देव अत्यन्त प्रसन्न होकर प्रगट हो गए और नमस्कार करके राजदम्पति का (राजा-रानी का) गंगाजल से अभिषेक करके तथा स्वर्गलोक के दिव्य वस्त्राभरणों (कपड़े और गहनों) से पूजन करके स्वर्गलोक को चले गये।
इस प्रकार देवों से पूजित राजा श्रेणिक ने एक दिन यह सोचकर कि पुत्र को राज्य देकर मैं सुख से रहूँ, कुणिक को राज्य सौंपकर आप एकांतवास करने लगा। पर कुणिक ने उसके बदले में क्या किया, उसके पिता को (श्रेणिक को) ही लोहे के पिंजरे में वैदकर दिया। माता को बड़े आग्रह से बचाया, नहीं तो उसकी भी ऐसी ही दशा करता। पिंजरे में श्रेणिक को बिना नमक की कांजी और कोदों का भोजन मिलता था और ऊपर से पुत्र के कड़े वचन सुनना पड़ते थे। खेद की बात है कि ऐसे प्रतापी राजा को भी कर्म के वश में पड़कर ऐसे दु:खों को सहते हुये रहना पड़ता है।
दूसरे दिन राजा कुणिक भोजन कर रहा था, उस समय उसके पुत्र ने उसकी थाली में पेशाब कर दिया। मोह के कारण राजा ने पुत्र पर कोप नहीं किया और थाली के भात को एक ओर करके खा लिया। पश्चात् माता चेलिनी से कहा—क्या मेरे सिवाय ऐसा अपत्यमोही (सन्तान पर ममता करने वाला) कोई दूसरा पुरुष है ? माता ने दु:खी होकर कहा—बेटा, तू कितना मोही है? तू अपने पिता के मोह की बात सुन। एक बार बालपन में तेरी अँगुली में पीव और रस से अत्यन्त दुर्गंधियुक्त एक फोड़ा हुआ था, उस समय जब किसी भी उपाय से तुझे चैन नहीं मिलता था, तब तेरा पिता उस अँगुली को अपने मुख में डाल रखता था। यह सुनकर कुणिक ने कहा—हे माँ, पैदा होने के दिन मुझे जंगल में डलवा दिया, यह कहाँ का पुत्रमोह है ? माता ने कहा—बेटा, जंगल में तुझे मैंने छोड़ा था, वे तो जंगल से ले आये थे और राजा भी तुझे उन्होंने ही बनाया था। फिर उनके पुत्रमोह की बराबरी कौन कर सकता है ? उनके साथ ऐसा बुरा बर्ताव करना क्या तुझे उचित है ?
माता की उक्त बात सुनकर कुणिक को अपने किये का बड़ा पछतावा हुआ। वह अपनी निन्दा करता हुआ पिता को िंपजरे से (बंधन से) छुड़ाने को चला। परन्तु इसका फल बिलकुल उल्टा ही हुआ। श्रेणिक को उसके विरूपक मुख के देखने से भय हुआ कि वह इससे भी अधिक दु:ख देने के लिये आ रहा है, अतएव तलवार की धार पर गिरकर वह मर गया और पहले नरक को गया।
कुणिक को पिता की मृत्यु से बहुत दु:ख हुआ। अग्निसंस्कारादि करने के पश्चात् मृतात्मा की मुक्ति के लिये उसने ब्राह्मणादिकों को गृह, आहारादि दिये। माता चेलिनी ने कुणिक को बहुत समझाया, परन्तु उसने जैनधर्म अंगीकार नहीं किया। तब निराश होकर चेलिनी ने वर्द्धमान स्वामी के समवसरण में अपनी बहिन चन्दना नाम की आर्यिका के निकट दीक्षा ले ली और अन्त में समाधि से शरीर छोड़कर स्वर्गलोक में देव हुई। अभयकुमारादि मुनि तपस्या के अनुसार यथायोग्य गतियों को प्राप्त हुए।
इस प्रकार राजा श्रेणिक ने सातवें नरक की आयु बाँध करके भी जिन भगवान के दर्शन और पूजन से सम्यक्त्व को पाकर उससे तीर्थंकर पदवी का उपार्जन किया और सातवें नरक का बंध न्यून (कम) करके प्रथम नरक को ही पाया। आगामी काल में श्रेणिक इसी भरत क्षेत्र के ‘महापद्म’ नामक प्रथम तीर्थंकर होंगे तो फिर दर्शनपूर्वक चारित्र को धारण करने वाले अन्य भव्यजीव जिनपूजा से क्या त्रैलोक्यनाथ नहीं हो सकते ? अवश्य होंगे। अतएव सम्पूर्ण सज्जनों को भगवान् की पूजा करने में निरन्तर तत्पर रहना चाहिए।