भावार्थ—जिस पुरुष के मन में, वचन में व काय में क्रोधादिक कषाय प्रकट होते हैं, उसके शुद्धोपयोगरूप भाव प्राणों का घात तो पहले होता है क्योंकि कषाय के प्रादुर्भाव से भावप्राण का व्यपरोपण होता है, यह प्रथम हिंसा है। पश्चात् यदि कषाय की तीव्रता से, दीर्घ श्वासोच्छ्वास से, हस्तपादादिक से वह अपने अंग को कष्ट पहुँचाता है अथवा आत्मघात कर लेता है, तो उसके द्रव्य प्राणों का व्यपरोपण होता है, यह दूसरी िंहसा है। फिर उसके कहे हुए मर्मवेधी कुवचनादिकों से, हास्यादि से लक्ष्यपुरुष के अन्तरंग में पीड़ा होकर उसके भाव प्राणों का व्यपरोपण होता है, यह तीसरी िंहसा है और अन्त में इसकी तीव्र कषाय और प्रमाद से लक्ष्य पुरुष को जो शारीरिक अंग छेदन आदि पीड़ा पहुँचाई जाती है, सो परद्रव्यप्राणव्यपरोपण होता है, यह चौथी िंहसा है। सारांश—कषाय से अपने, पर के भावप्राण व द्रव्यप्राण का घात करना यह हिंसा का लक्षण है।
भावार्थ—अपने शुद्धोपयोगरूप प्राण का घात रागादिक भावों से होता है, अतएव रागादिक भावों का अभाव ही अिंहसा है और शुद्धोपयोगरूप प्राणघात होने से उन्हीं रागादिक भावों का सद्भाव िंहसा है। परम अिंहसाधर्म प्रतिपादक जैनधर्म का यही रहस्य है।।४४।।
भावार्थ—यदि किसी सज्जनपुरुष के सावधानपूर्वक गमनादि करने में भी उसके शरीर सम्बन्ध से कोई जीव पीड़ित हो जावें, तो उसे िंहसा का दूषण कदापि नहीं लग सकता क्योंकि उसके परिणाम कषाययुक्त नहीं थे। यही कारण है कि ‘‘प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा’’ यह हिंसा का लक्षण कहा है। यदि केवल ‘‘प्राणव्यपरोपणं हिंसा’ अर्थात् प्राणों को पीडा देना मात्र ही हिंसा का लक्षण कहा होता तो ऐसे अवसर पर अतिव्याप्तिदूषण का सद्भाव होता, इसके सिवाय अव्याप्तिदूषण का भी प्रवेश हो जाता, जो आगे के श्लोक से प्रकट होगा।।४५।।
भावार्थ—जो प्रमादी जीव कषायों के वशीभूत होकर गमनादि क्रिया यत्नपूर्वक नहीं करता, वह ‘जीव मरे अथवा नहीं मरे’,हिंसा के दोष का भागी अवश्य ही होता है, क्योंकिहिंसा कषायभाव से उत्पन्न होती है और इसके कषायभाव का सद्भाव हैं ही। इस वाक्य से प्राणों को पीड़ा न होते हुए भी हिंसा सिद्ध होती है। यदि पूर्वकथित प्राणव्यपरोपण मात्र (प्राणपीड़नमात्र) लक्षण कहा होता तो अव्याप्तिदूषण आता। बिना किसी के प्राणों का घात हुए ही हिंसा क्यों हो गई ? इस प्रश्न का समाधान आगे के श्लोक से हो जायगा।।४६।।
भावार्थ-हिंसा शब्द का अर्थ घात करना है, परन्तु यह घात दो प्रकार का है, एक आत्मघात और दूसरा परघात। जिस समय आत्मा में कषाय भावों की उत्पत्ति होती है, उसी समय आत्मघात हो जाता है। पीछे यदि अन्य जीवों की आयु पूरी हो गई हो अथवा पाप का उदय आ गया हो तो उनका भी घात हो जाता है, अन्यथा आयुकर्म पूर्ण न हुआ हो, पाप का उदय न आया हो, तो कुछ भी नहीं होता क्योंकि उनका घात उनके कर्मों के अधीन है, परन्तु आत्मघात तो कषायों की उत्पत्ति होते ही हो जाता है और आत्मघात तथा परघात दोनों ही हिंसा है।।४७।।
भावार्थ—परजीव के घातरूप हिंसा दो प्रकार की होती है—पहली अविरमणरूप और दूसरी परिणमनरूप। १. अविरमणरूप हिंसा उसे कहते हैं, जो जीव के परघात में प्रवृत्त न होने पर भी हिंसा त्याग की प्रतिज्ञा के बिना हुआ करती है। क्रिया के बिना ही यह हिंसा क्यों होती है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जिस पुरुष के िंहसा का त्याग नहीं है, वह यद्यपि सोते हुए बिलाव की तरह किसी समय िंहसा में प्रवृत्ति नहीं भी करता, परन्तु उसके अन्तरंग में हिंसा करने के भाव का सद्भाव है, अतएव वह अविरमणरूप िंहसा का भागी होता है। २. परिणमनरूप िंहसा उसे कहते हैं, जो जीव को परजीव के घात में मन, वचन, काय से प्रवृत्त होने पर होती है। इस दोनों प्रकार की हिंसाओं में प्रमादसहित योग का अस्तित्व पाया जाता है और जब तक प्रमाद पाया जाता है, तब तक हिंसा का अभाव किसी प्रकार नहीं हो सकता क्योंकि प्रमादयोग में सदाकाल परजीव की अपेक्षा भी प्राणघात का सद्भाव होता है। अतएव प्रमाद के परिहारार्थ परजीवों की हिंसा के त्याग में दृढ़प्रतिज्ञ होना चाहिये, जिससे दोनों प्रकार की हिंसाओं से बचा जा सके।
भावार्थ—रागादिक कषाय भावों का होना ही िंहसा है। परवस्तु का इससे कोई सम्बन्ध नहीं है, परन्तु रागादिक परिणाम परिग्रहादिक के निमित्त से ही होते हैं, इस कारण परिणामों की विशुद्धता के अर्थ परिग्रहादि का भी त्याग करना चाहिये क्योंकि जिस माता का सुभट पुत्र होता है, उसी से यह कहा जाता है कि मैं तेरे सुभट को मारूँगा। परन्तु जिस बाँझ के पुत्र ही नहीं है, उस पर यह परिणाम क्यों कर सकते हैं कि मैं तेरे पुत्र को मारूँगा ? सारांश—परिग्रहादि का अवलम्बन होने से ही कषाय की उत्पत्ति होती है, परन्तु जब उनसे सम्बन्ध ही नहीं है तो कषाय कहाँ से हो ?
जो जीव निश्चयनय के स्वरूप को न जानकर व्यवहाररूप बाह्य परिग्रह के त्याग को निश्चय से मोक्षमार्ग जान अंगीकार करता है, वह मूर्ख शुद्धोपयोगरूप आत्मा की दया को नष्ट करता है।
भावार्थ—जो कोई पुरुष यह कहता है कि मेरे अन्तरंग परिणाम स्वच्छ होने चाहिये, बाह्य परिग्रहादिक रखने या भ्रष्टरूप आचरण करने से मुझमें कोई दोष नहीं आ सवता, वह अिंहसा के आचरण को नष्ट करता है, क्योंकि बाह्य निमित्त से अन्तरंग परिणाम अशुद्ध होते ही हैं। अतएव एक ही पक्ष ग्रहण करके निश्चय और व्यवहार दोनों ही अंगीकार करने चाहिये।।५०।।
भावार्थ—जिसके परिणाम हिंसारूप हुए, चाहे वे परिणाम िंहसा का कोई कार्य न कर सके हों तो भी वह जीव हिंसा के फल को भोगेगा और जिस जीव के शरीर से किसी कारण हिंसा तो हो गई परन्तु परिणामों में िंहसा नहीं आई, वह हिंसा करने का भागी कदापि नहीं होगा।।५१।।
भावार्थ—जो पुरुष बाह्य हिंसा तो थोड़ी कर सका हो, परन्तु अपने परिणामों को हिंसा भाव से अधिक लिप्त रखे हो, वह तीव्र कर्मबंध का भागी होगा और जो पुरुष परिणामों में हिंसा के अधिक भाव न रखकर बाह्य हिंसा अचानक बहुत कर गया हो, वह मन्द कर्मबंध का भागी होगा।।५२।।
भावार्थ—यदि दो पुरुष मिलकर कोई हिंसा करे, तो उनमें से जिसके परिणाम तीव्र कषायरूप हुए हों, उसे िंहसा का फल अधिक भोगना पड़ेगा और जिसके परिणाम मन्द कषायरूप रहे हों, उसे अल्प फल भोगना पड़ेगा।।५३।।
भावार्थ—किसी ने हिंसा करने का विचार किया, परन्तु अवसर न मिलने से िंहसा के करने के पहले ही उन कषाय परिणामों के द्वारा (जिनसे िंहसा का संकल्प किया गया था) बँधे हुए कर्मों का फल उदय में आ गया और तब इच्छित िंहसा करने को समर्थ हो सका, ऐसी अवस्था में िंहसा करने से पहले ही उस िंहसा का फल भोग लिया जाता है। इसी प्रकार किसी ने हिंसा करने का विचार किया और उस विचार द्वारा बाँधे हुए कर्मों के फल को उदय में आने की अवधि तक वह उक्त िंहसा करने को समर्थ हो सका तो ऐसी दशा में हिंसा करते समय ही उसका फल भोगना सिद्ध होता है। किसी ने सामान्यत: िंहसा करके फिर उसका फल उदयकाल में पाया अर्थात् कर चुकने पर फल पाया। किसी ने हिंसा करने का आरम्भ किया था, परन्तु किसी कारण िंहसा करने में शक्तिमान नहीं हो सका, तथापि आरंभजनित बंध का फल उसे अवश्य ही भोगना पड़ेगा अर्थात् न करने पर भी हिंसा का फल भोगा जाता है। प्रयोजन केवल इतना ही है कि कषाय भावों के अनुसार फल मिलता है।।५४।।
भावार्थ—किसी जीव को मारते देखकर अन्य देखने वाले जो अच्छा कहते और प्रसन्न होते हैं, वे सब ही िंहसा फल के भागी होते हैं। इसी से कहते हैं कि एक करता है और फल अनेक भोगते हैं। तथा इसी प्रकार संग्राम में हिंसा तो अनेक पुरुष करते हैं, परन्तु उन पर आज्ञा करने वाला राजा उस हिंसा के फल का भागी होता है अर्थात् अनेक करते हैं और फल एक भोगता है।
भावार्थ—कोई जीव किसी जीव के बुरा करने का यत्न कर रहा हो, परन्तु उस (जीव) के पुण्य से कदाचित् बुरे की जगह भला हो जावे, तो भी बुराई का यत्न करने वाला बुराई के फल का भागी होगा। इसी प्रकार कोई वैद्य नीरोग करने के अर्थ किसी रोगी की औषध कर रहा हो और वह रोगी कदाचित् कारणवश मर जावे, तो वैद्य अिंहसा के ही फल को भोगेगा।५७।।
इस प्रकार अत्यन्त कठिनाई से पार किये जाने वाले और नाना भंगों से गहन वन में मार्ग मूढ़दृष्टि पुरुषों को अर्थात् मार्ग भूले हुए पुरुषों को अनेक प्रकार के नय समूह को जानने वाले श्रीगुरु ही शरण होते हैं।
भावार्थ—हिंसा के अनेक भेदों को वे ही गुरु समझा सकते हैं, जो नयचक्र के अच्छे ज्ञाता हों।।५८।।
जिनेन्द्र भगवान का अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाला और दुस्साध्य नयचक्र धारण किया हुआ मिथ्याज्ञानी पुरुषों के मस्तक को शीघ्र ही खंड खंड कर देता है।
भावार्थ—जैनमत के नयभेद समझना बहुत कठिन है। जो कोई मूढ़पुरुष बिना समझे नयचक्र में प्रवेश करते हैं, वे लाभ के बदले हानि उठाते हैं।।५९।।
निरन्तर संवर में उद्यमवान् पुरुषों को यथार्थता से िंहस्य, िंहसक, िंहसा और िंहसा के फलों को जानकर अपनी शक्त्यनुसार हिंसा छोड़ना चाहिये।।६०।।