कालद्रव्य के दो भेद हैं-व्यवहार और निश्चय। जो द्रव्यों में परिवर्तन कराने वाला है और परिणाम, क्रिया आदि लक्षण वाला है वह व्यवहारकाल है तथा वर्तना लक्षण वाला परमार्थकाल है।
जीव, पुद्गल आदि द्रव्यों के परिवर्तन में अर्थात् नई या जीर्ण अवस्थाओं के होने में काल द्रव्य सहायक हैं, इनमें घड़ी, घण्टा, दिन, रात आदि व्यवहार काल है और वर्तनारूप सूक्ष्म-परिणमनरूप निश्चयकाल है।
लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित है जो कि रत्नों की राशि के समान पृथक्-पृथक् है। काल द्रव्य असंख्यात हैं अर्थात् लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश पर अलग-अलग एक-एक कालद्रव्य स्थित है इसलिए वे कालद्रव्य असंख्यात हैं।
यहाँ पर अजीव के अन्तर्गत धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य और कालद्रव्य का वर्णन किया है। संसारी जीवों के लिए ये चारों द्रव्य सहकारी तो हैं ही हैं किन्तु मुक्त जीवों के लिए भी सहकारी कारण हैंं। देखिए, जब यह आत्मा कर्मों से छूटता है, तब धर्म की सहायता से ही इस मध्यलोक से ऊपर सात राजू जाकर सिद्धशिला से आगे लोक के अग्रभाग में पहुँचता है। लोकाकाश के बाहर क्यों नहीं चला जाता ? तो आगे धर्म द्रव्य का अभाव है। उसी प्रकार वहाँ लोकाग्र पर ठहरने में अधर्म द्रव्य सहकारी कारण है। वैसे ही आकाश द्रव्य में ही सिद्ध जीव निवास कर रहे हैं अत: लोकाकाश ने अवकाश भी दिया है। साथ ही प्रतिसमय अनंतगुणों में षट्गुण हानि-वृद्धिरूप सूक्ष्म परिणमन भी काल द्रव्य की सहायता से हो रहा है इसलिए सिद्धों के लिए भी ये द्रव्य सहकारी कारण हैं तो हम और आपके लिए तो हैं ही हैं। यद्यपि प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र है फिर भी निमित्त कारण अवश्य मिलते हैंं। निश्चयनय की अपेक्षा प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र है और अपने में ही है किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा से पर की सहायता स्वीकार किये बिना सिद्धांत ग्रंथों से बाधा आती है। स्वयं श्री कुन्दकुन्ददेव ने भी नियमसार में कहा है कि-
कर्म से रहित आत्मा लोक के अग्रभाग पर चला जाता है क्योंकि जीवों और पुद्गलों का गमन जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहीं तक जानो। यह मुक्त जीव धर्मास्तिकाय के अभाव में लोकाकाश से बाहर नहीं जा सकते हैं१।
इस प्रकार से इन द्रव्यों के अस्तित्व को तथा कार्य को आगम से जानकर उस पर दृढ़ श्रद्धान रखना ही सम्यग्दर्शन है।