चौबीसों तीर्थंकरों के अनुबद्ध केवलियों में अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी के तीर्थ में तीन अनुबद्ध केवली हुये हैं।
१. श्री गौतम स्वामी, इनके मोक्ष जाने के दिन ही—
२. श्री सुधर्माचार्य केवली हुये, ये द्वितीय अनुबद्ध केवली कहलाये। इनके मोक्ष जाने के दिन ही—
३. श्री जंबूस्वामी केवली हुये, ये तृतीय अनुबद्ध केवली कहलाये हैं।
संस्कृत भाषा में-अस्ति आर्यखंडे मगधदेशस्य एकस्मिन् भागे राजगृही नाम नगरी। यत्र महाराज: श्रेणिको प्रजा: अनुशास्ति स्म, तस्य राज्ञी सम्यक्त्वादिगुणैर्मंडिता पतिधर्मपरायणा सती चेलना नामासीत्। एकदा तत्रैव विपुलाचलपर्वतस्य मस्तकस्योपरि त्रिजगद्गुरो: भगवत: श्री वर्धमानस्य समवसरणं विराजते स्म। तत्र गत्वा जिनेन्द्रभगवतो वंदनानंतरे स्वसभायां स्थित्वा राजा श्रेणिक: श्री गौतमगणधरस्वामिनो मुखारिंवदात् सद्धर्मोपदेशं शृण्वन्नासीत्, अकस्मात् एव आकाशमार्गात् कश्चित् तेज: पुंजोऽवतरन् दृष्टिगोचरोभूत्। आश्चर्यचकितो भूत्वा राजा श्रेणिको गौतमस्वामिनं पृच्छति स्म-भगवन्! कोऽयं दृश्यते? गणधरदेवोऽवोचत्-महाऋद्धिधारी विद्युन्माली नामा देवोऽयं चतसृभिर्महादेवीभि: सह परमधर्मानुरागात् श्री जिनेन्द्रदेववंदनार्थं आगतोऽयं भव्यात्माद्यतनात् सप्तमदिवसे स्वर्गात् च्युत्वा अस्मिन्नेव नगरे मानवजन्मनि आगमिष्यति तथा तद्भवादेव मोक्षं यास्यति।
हिन्दी अनुवाद-इसी आर्यखंड के मगधदेश के एक भाग में राजगृही नाम की नगरी है। वहाँ के राजा महाराज श्रेणिक प्रजा पर अनुशासन करते थे और उनकी रानी सम्यक्त्व आदि गुणों से सहित पतिधर्मपरायणा चेलना नाम की थी। किसी समय वहीं पर विपुलाचल पर्वत के मस्तक पर तीन जगत् के स्वामी श्री वर्धमान भगवान का समवसरण विराज रहा था। उस समवसरण में जाकर जिनेन्द्र भगवान की वंदना के अनंतर मनुष्यों के कोठे में बैठकर राजा श्रेणिक श्री गौतमस्वामी गणधर के मुखकमल से सद्धर्म को सुन रहे थे। अकस्मात् आकाशमार्ग से उतरता हुआ कोई तेजपुंज राजा को दृष्टिगोचर हुआ। आश्चर्यचकित होकर राजा ने श्री गौतम स्वामी से पूछा कि हे भगवन्! यह क्या दिख रहा है ? गणधर देव ने कहा कि-यह महाऋद्धिधारी विद्युन्माली नाम का देव अपनी चार देवियों सहित परमधर्म के अनुराग से श्री जिनेन्द्र भगवान की वंदना के लिए आ रहा है । यह भव्यात्मा आज से सातवें दिन स्वर्ग से च्युत होकर इसी नगर में मनुष्य जन्म में आवेगा तथा उसी भव से मोक्ष प्राप्त करेगा।
हिन्दी अनुवाद-जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के आर्यखंड में मगधदेश में वर्धमान नाम का नगर है। वहाँ पर यज्ञ क्रियाओं में कुशल अनेकों ब्राह्मण रहते थे, उनमें आर्यावसु नाम का एक ब्राह्मण रहता था, उसकी सोमशर्मा नाम की भार्या थी जो कि साध्वी और पतिव्रता धर्म परायणा थी। इन दोनों के भावदेव और भवदेव नाम के दो पुत्र थे। ये दोनों विद्या अभ्यास करके वेदशास्त्र, व्याकरण, तर्क, वैद्यक, छंद, निमित्त, संगीत, काव्य और अलंकार आदि विषयों में प्रवीणता को प्राप्त हो चुके थे और वादविवादों में भी कुशल, यौवन अवस्था को प्राप्त हो चुके थे।
पूर्वोपार्जित पापकर्म के उदय से इनके पिता आर्यावसु ब्राह्मण महाकुष्ट रोग से पीड़ित हो गये, वे गलित कुष्ट की वेदना को सहन करने में असमर्थ होते हुए हमेशा मरण चाहने लगे। पति मृत्यु के बाद उनकी भार्या भी शोक से संतप्त होती हुई पति की चिता में ही जलकर मर गई। माता-पिता के वियोग से भावदेव-भवदेव दोनों ही भाई अत्यन्त दु:ख का अनुभव करते हुए विलाप करने लगे। बंधु-बांधवों ने इनको समझा-बुझाकर जैसे-तैसे शांति प्राप्ति कराई, तब इन दोनों ने शोक को छोड़कर माता-पिता की मरण क्रिया को पूर्ण किया।
अनंतर उसी नगर में श्री सौधर्म नाम के आचार्य पधारे, वे संपूर्ण परिग्रह से रहित, जात-रूपधारी-दिगम्बर, गुप्ति, समिति और दस धर्मों से युक्त शास्त्रपारंगत परमदयालु अपने आठ मुनियों के संघ सहित वहाँ ठहर गये। भावदेव ब्राह्मण भी उन गुरुओं के दर्शन को करके और उनके उपदेश को सुनकर भवभ्रमण से भयभीत होता हुआ विरक्तमना होकर श्री सौधर्म आचार्य से प्रार्थना करने लगा कि हे स्वामिन्! संसार समुद्र में डूबते हुए मेरी रक्षा करो और मुझे पवित्र करो और कृपा करके मुझे जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान करो। भावदेव के वचन को सुनकर और ‘यह विरक्त हो चुका है’ ऐसा समझकर सद्धर्मरूपी अमृत से उसे संतर्पित करके दीक्षा दे दी। ये भावदेव भी सर्वसावद्ययोग-पापयोग से विरत होते हुए और अपने संयम का पालन करते हुए गुरुदेव के साथ विहार करने लगे, ये साधु तपस्वी, विनयी, तत्त्वों का अभ्यास करने वाले, स्वाध्याय के प्रेमी, अपनी शुद्धात्मा का ध्यान करते थे। वे कदाचित् यह सोचते थे कि ‘‘मैं धन्य हो गया हूँ, कृतकृत्य हो गया हूँ, पुण्यशाली हो गया हूँ, जिससे मैं अनादिकाल से नहीं प्राप्त हुए उत्तम जिनधर्म को प्राप्त करके संसार समुद्र को शीघ्र ही पार करूँगा।’ इस प्रकार से वे साधु परम संतोष को प्राप्त हो गये थे।
हिन्दी अनुवाद-कदाचित् विहार करते हुए अपने संघ सहित सौधर्माचार्यवर्य भावदेव मुनि के साथ-साथ उसी वर्द्धमान नगर में पधारे। उस समय विशुद्ध बुद्धिधारी भावदेव मुनि ने अपने छोटे भाई भवदेव का स्मरण किया। वह उस नगर में प्रसिद्ध था विषयासक्त, एकांत मतानुयायी अपने हित को नहीं समझता था। अत्यन्त करुणा से प्रेरित होकर भावदेव मुनि ने उसके संबोधन के लिए गुरु से आज्ञा ले ली और संघ से चलकर भवदेव के यहाँ आकर आहार ग्रहण किया। अनंतर धर्मरूपी अमृत का पान कराकर वे संघ में चल पड़े, तब वह भवदेव भी विनयवृत्ति से गुरु के साथ-साथ चलने लगा, मार्ग से वापस आना चाहता हुआ वह बार-बार अपनी नव विवाहित स्त्री का स्मरण कर रहा था, उसके हाथ में विवाह का कंकण बंधा हुआ था अर्थात् उसी दिन उसका विवाह हुआ था, किन्तु भावदेव मुनि मौन से चले जा रहे थे उनकी आज्ञा न मिलने से मैं घर वापस कैसे जाऊँ ? ऐसा सोचकर बस उन्हीं के साथ संघ तक आ गया। तब मुनियों ने कहा कि हे भावदेव मुनि! तुम धन्य हो, जो भाई को साथ ले आये हो, भावदेव ने भी कहा कि हे भगवन्! यह मुमुक्षु है, उसे दीक्षा दे दीजिए। भवदेव मन में सोचने लगा कि मैं क्या करूं, यदि घर नहीं जाकर नव विवाहित पत्नी का त्याग करता हूँ, तो मुझे आर्तध्यान बना रहेगा और यदि दीक्षा नहीं लेता हूँ, तो भाई का गौरव घटेगा। अनेक प्रकार से ऊहापोह कर करके उसने दीक्षा ही ले ली। वह शल्य सहित होता हुआ काम अग्नि से जलता हुआ अपनी पत्नी का प्रतिदिन स्मरण करता रहता था। फिर भी साधुओं के साथ ध्यान, अध्ययन, तप, व्रत आदि में भी संलग्न हो रहा था।
हिन्दी अनुवाद-कुछ महीने निकल जाने के बाद वे ही सौधर्म आचार्य संघ सहित विहार करते हुए उसी वर्धमान नगर के बाहर बगीचे में ठहर गये। कुछ मुनिगण ध्यान में लीन होकर तपश्चर्या करने लगे और कुछ मुनि अपने स्वाध्याय में तत्पर हो गये। उसी समय भवदेव मुनि आहार के बहाने नगर में घुसे। जाते हुए मार्ग में एक अत्युन्नत भव्य जिनमंदिर देखा। तब मंदिर में जाकर तीन प्रदक्षिणा देकर भक्तिभावपूर्वक जिनेन्द्र प्रतिमा को नमस्कार किया। उसी चैत्यालय में एक आर्यिका रहती थीं उन्होंने आकर मुनिराज को नमस्कार करके रत्नत्रय की कुशल पूछी, मुनिराज भी आर्यिका की कुशल पूछकर बोले कि हे आर्ये! इसी नगर में भावदेव भवदेव नाम के दो सगे भाई रहते हैं। उनमें से छोटे भाई की नव विवाहिता पत्नी कहाँ है ? आपको मालूम है क्या ?
इतना सुनते ही वह आर्यिका समझ गई कि ये ही भवदेव मुनि हैं, जो कि स्खलित होकर आ गये हैं। उस समय वह बहुत ही घबरा गई और सभी पूर्व वृत्तान्त को बतलाकर अनेकों दृष्टांतों से मुनि को संबोधित करते हुए उसका स्थितीकरण करके बोली हे मुनिराज! वह भवदेव की पत्नी मैं ही हूँ। भवदेव की मुनि दीक्षा के अनंतर अपने धन से इस जिनमंदिर का निर्माण कराके पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराकर मैंने संसार समुद्र से पार होने के लिए यह आर्यिका दीक्षा ले ली है।
इतना सुनकर भवदेव के मन में विषय भोगों के प्रति बहुत ही ग्लानि उत्पन्न हो गई। उस आर्यिका की बार-बार स्तुति करते हुए वे मुनिराज वहाँ से चलकर वापस संघ में आ गये।
हिन्दी अनुवाद-अनंतर आर्यिका द्वारा सम्बोधन को प्राप्त हुए भवदेव मुनिराज ने अपने गुरु सौधर्म आचार्यवर्य के पास जाकर विनय सहित सर्व वृत्तांत (दोषों) की आलोचना की। उस समय गुरु ने भी उनके पूर्व की दीक्षा का छेद करके पुनरपि उन्हें संयम में स्थापित किया। अर्थात् पुनर्दीक्षा प्रदान की। तब से ये मुनिराज भावलिंगी श्रमण बन गये और भावों की विशुद्धि से साक्षात् वैराग्यमूर्ति इंद्रिय विजेता हो गये। ये धीर, वीर मुनिराज अपने शरीर में भी निस्पृह थे किन्तु मुक्ति लक्ष्मी के संगम में स्पृहवान-इच्छुक थे। क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण आदि परीषहों को परम साम्य भाव से सहन करने वाले थे। सुख, दु:ख, शत्रु, मित्र, लाभ, अलाभ, जीवन, मरण और निंदा, स्तुति में समभाव धारण करते हुए निर्विकारी और बुद्धिमान हो गये थे। इस प्रकार तपश्चरण करते हुए बहुत से वर्षों को बिताकर अंत समय में भावदेव-भवदेव नाम के ये दोनों मुनिराज पंडितमरण से प्राणों का त्याग करके तीसरे सनत्कुमार स्वर्ग में देव हो गये। वहाँ पर सम्यक्त्व और व्रतों के महात्म्य से चिरकाल तक दिव्य सुखों का अनुभव करते रहे हैं।
हिन्दी अनुवाद-पुन: भावदेव-भवदेवचर उन दोनों देवों ने तृतीय स्वर्ग की सात सागर पर्यंत आयु को समाप्त कर दिया, उसमें जब षट्मासपर्यंत आयु अवशिष्ट रह गई थी, तब कल्पवृक्ष की ज्योति मंद पड़ गई, आदि अनेकों निमित्तों से स्वर्ग से अपना पतन होना जान अत्यन्त शोक करने लगे। उस समय अन्य देवों ने आकर उन दोनों देवों को खूब ही धर्मोपदेशपूर्वक समझाया। तब धर्मबुद्धि से वे दोनों ही देव जिनमंदिर में जाकर भावशुद्धिपूर्वक जिनपूजा करते हुए वहीं ठहरे, अनंतर अंत समय को निकट जानकर कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर समाधान चित्त हुए प्रतिमायोग को ग्रहण करके आत्मध्यान में लीन हो गये और महामंत्र का बार-बार स्मरण करते हुए प्राणों का त्याग करके मध्यलोक में आ गये।
कहाँ पर आये ?-जम्बूद्वीप के महामेरु पर्वत के पूर्व विदेहक्षेत्र में सदा चतुर्थ काल ही रहता है, वहाँ शाश्वत कर्मभूमि की व्यवस्था है। उस पूर्व विदेह में पुष्कलावती नाम का एक देश है, उसमें पुण्डरीकणी नाम की नगरी है, जो कि परकोटे आदि से सुशोभित है। उस विदेह की नगरी में सदैव जिनधर्म का पालन करते हुए लोग श्रावक धर्म का पालन करके मुनि हो जाते हैं और कर्मों का नाश करके देहरहित विदेह (सिद्ध) हो जाते हैं इसलिए उनका ‘विदेह’ यह नाम सार्थक ही है।
इस नगरी के वङ्कादंत महाराज की रानी का नाम यशोधना था। भावदेव का जीव—देव स्वर्ग से च्युत होकर उन दोनों के सागरचन्द्र नाम का पुत्र हो गया।
उसी पुष्कलावती देश में वीतशोका नाम की दूसरी नगरी है। उसके शासक महापद्मचक्रवर्ती थे, उनके छ्यानवे हजार रानियाँ थीं, उनमें से एक वनमाला रानी महापुण्यशालिनी थी। भवदेव का जीव—देव स्वर्ग से च्युत होकर इस वनमाला के शिवकुमार नाम का पुत्र हो गया। यह शिवकुमार माता-पिता के सुख को बढ़ाता हुआ स्वयं चन्द्रमा की कला के समान बढ़ता हुआ शोभित हो रहा था। सभी जनों का प्रिय यह बालक क्रम से अंत:पुर में खेलता हुआ शैशव अवस्था को समाप्त कर युवा हो गया।
हिन्दी अनुवाद-अथ किसी समय राजभवन के निकट किसी के घर में चारणऋद्धिधारी श्रुतकेवली ऐसे सागरचन्द्र नाम के मुनिराज आहार के लिए पधारे। सेठ जी ने शुद्धभावपूर्वक नवकोटी विशुद्ध प्रासुक आहार मुनिराज को दिया। ऋद्धिधारी मुनिराज को दान देने के माहात्म्य से सेठ के आंगन में आकाश से रत्नों की वृष्टि आदि पंच आश्चर्य होने लगे। उस समय जयजयकार शब्दों के द्वारा कोलाहल के पैल जाने पर राजभवन में स्थित शिवकुमार ने कौतुकपूर्वक बाहर देखा। अहो! मैंने किसी भव में इन मुनिराज का दर्शन किया है, ऐसा सोचते ही उसे तत्क्षण जातिस्मरण हो गया। पूर्व भव के ये बड़े भाई हैं, ऐसा निश्चित करके वह मुनिराज के पास आया और स्नेह के अतिरेक से मूर्च्छित हो गया। इस वृत्तांत को सुनकर चक्रवर्ती स्वयं वहाँ आकर पुत्र के मोह से व्याकुल होते हुए अत्यधिक विलाप करने लगे। पिता के इस प्रकार के शोक को देखकर अत्यर्थ विरक्त भी कुमार ने जैसे-तैसे घर में रहना स्वीकार कर लिया और उसी दिन से ब्ा्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए यह शुद्ध सम्यग्दृष्टि अपने मित्र दृढ़वर्मा के द्वारा भिक्षा से लाए गए कृतकारित आदि दोषों से रहित शुद्ध भोजन को कभी-कभी गृहण करता था। कहा भी है—
उसी दिन से कुमार निश्चित ही सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके एक वस्त्रधारी, ब्रह्मचारी होता हुआ मुनि के समान घर में रहता था। बहुत प्रकार के पक्ष-मास उपवास आदिरूप से अनशन आदि तपों को करते हुए महाविरक्तमना कुमार ने पाँच सौ स्त्रियों के बीच में रहते हुए असिधाराव्रत का पालन किया था। इस प्रकार से चौंसठ हजार वर्ष तक असिधाराव्रत का पालन करते हुए आयु के अंत में दिगम्बर मुनि होकर समाधिपूर्वक मरण करके ब्रह्मोत्तर नामक छठे स्वर्ग में दश सागर की आयु को प्राप्त करने वाला विद्युन्माली नाम का महान इन्द्र हो गया।
हिन्दी अनुवाद-श्रेणिक महाराज द्वारा अनुशासित राजगृह नगर में अर्हद्दास नाम के सेठ रहते थे। उनकी धर्मपरायण जिनमती नाम की भार्या थीं। किसी समय रात्रि के पिछले भाग में जिनमती सेठानी ने जंबूवृक्षादि पंच उत्तम-उत्तम स्वप्न देखे। प्रात:काल अपने पतिदेव के साथ जिनमंदिर में जाकर तीनज्ञानधारी मुनिराज के मुखारविंद से चरम शरीरी पुत्र का तुम्हें लाभ होगा, ऐसा सुनकर दोनों जन बहुत ही संतुष्ट हुए। पूर्वोक्त विद्युन्माली नाम का अहमिन्द्रचर जीव स्वर्ग से च्युत होकर जिनमती के गर्भ में आया और नवमास के अनन्तर मनुष्य पर्याय को प्राप्त किया।
फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन प्रात:काल पुत्र का जन्म होने पर उत्सव मनाया गया। दान, सन्मान, नृत्य, गीत आदि के द्वारा सर्वत्र हर्षोल्लास का वातावरण हो गया। माता-पिता ने उस बालक का जंबूकुमार यह नामकरण किया। बचपन में वे कुमार सभी गुण और सभी कलाओं में विख्यात थे, पवित्रमूर्ति और पुण्यात्मा थे।
युवावस्था में प्रवेश करने पर उसी नगर के सागरदत्त आदि चार सेठों ने अपनी-अपनी पुत्रियों की जंबूकुमार के साथ ब्याह करने के लिए सगाई कर दी। वे कन्याएँ पद्मश्री, कनकश्री विनयश्री और रूपश्री नाम वाली बहुत ही सुन्दर और नवयौवना थीं। कदाचित् बसन्त ऋतु की क्रीड़ा में जम्बूकुमार ने अपनी शक्ति के बल से एक मन्दोन्मत्त हाथी को वश में कर लिया, जिससे कि सर्वत्र प्रशंसा को प्राप्त हुए।
किसी समय रत्नचूल नाम के विद्याधर को युद्ध में जीत कर मृगांक नामक राजा की विशालवती कन्या की रक्षा की और राजा श्रेणिक के साथ उस कन्या का विवाह हो गया। अनन्तर युद्ध क्षेत्र को देखकर जंबूकुमार के मन में महती दया के साथ-साथ ही वैराग्य उत्पन्न हो गया।
हिन्दी अनुवाद-राजगृही नगरी के उपवन में अपने पाँच सौ शिष्यों से सहित श्री सुधर्माचार्य वर्य पधारे। जंबूकुमार वहाँ पहुुँचे उन्हें नमस्कार कर स्तुति आदि के द्वारा उनकी पूजा करके और उनसे पूर्व जन्म के वृत्तांत को सुनकर जैनेश्वरी दीक्षा की याचना की। आचार्यश्री ने कहा कि तुम घर में जाकर माता-पिता की आज्ञा लेकर, क्षमा करके और क्षमा कराके आवो, तब मैं दीक्षा दूँगा। (क्योंकि यह सनातन परम्परा है) इस प्रकार गुरु के वचन के अनुरूप बिना इच्छा के ही कुमार ने घर जाकर माता-पिता से दीक्षा की बात कह दी। मोह के माहात्म्य से माता-पिता ने जिस किसी प्रकार से उसी दिन ही जिन से सगाई हुई थी उन चारों कन्याओं के साथ ब्याह करा दिया और उसी रात्री में एक कमरे में चारों ही नव विवाहित पत्नियों के साथ जम्बूकुमार बैठे हुए थे। कुमार उन स्त्रियों से अलिप्त रहते हुए वैराग्य की बढ़ाने वाली कथाओं से रात्रि बिताने लगे।
इसी बीच अत्यन्त चिंतित हुई माता जिनमती बार-बार जंबूकुमार के कमरे के पास घूम रही थी कि कुमार इन स्त्रियों में आसक्त होता है या नहीं ? उसी समय विद्युच्चर नाम का चोर चोरी करने के लिए उस भवन में आया था। इस घटना को जानकर माता जिनमती के आग्रह से वह चोर बहुत प्रकार के उपायों से जंबूकुमार को घर में रहने के लिए समझाने लगा। किन्तु कुमार ने सभी की उपेक्षा करके प्रात:काल ही गुरु के पास पहुँचकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली, उस समय विद्युच्चर चोर भी अपने पाँच सौ साथियों के साथ दीक्षित हो गया, पिता अर्हद्दास ने भी दीक्षा ले ली। माता जिनमती ने भी अपनी चारों बहुओं के साथ सुप्रभा आर्यिका के समीप आर्यिका दीक्षा ले ली। जिस दिन सुधर्माचार्य गुरु मुक्ति को प्राप्त हुए हैं, उसी दिन जंबूस्वामी को केवलज्ञान प्रगट हो गया, इसीलिए जम्बूस्वामी अनुबद्ध केवली कहलाये हैं। जंबूस्वामी के मोक्ष जाने पर उस दिन कोई केवली नहीं हुए हैं।
धन्य हैं ये जंबूस्वामी जिन्होंने पूर्वभव में असिधारा व्रत का अनुष्ठान करके इस भव में तत्काल विवाही हुई नवीन पत्नियों में सर्वथा अनासक्त होते हुए अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके मुक्ति- लक्ष्मी में आसक्त हो गये, उन्हें मेरा बारम्बार नमस्कार होवे।
इस प्रकार अति संक्षेप में श्री जम्बूस्वामी चरित पूर्ण हुआ।