चौबीस तीर्थंकरों के तीर्थकाल में दश—दश अनगारमुनि दारुण उपसर्गों को जीतकर संपूर्ण कर्मों के क्षय से अन्तकृत्केवली हुये हैं जिन्होंने संसार का अंत किया उन्हें अन्तकृत्केवली कहते हैं।
श्री वर्द्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में १. नमि, २. मतंग, ३. सोमिल, ४. रामपुत्र, ५. सुदर्शन, ६. यमलीक, ७. बलीक, ८. किष्कंबिल, ९. पालम्ब और १०. अष्टपुत्र ये दश अन्तकृत्केवली हुये हैं।
इनमें से पांचवें अंतकृत्केवली सुदर्शन मुनि का चरित्र प्रसिद्ध है। अत: यहाँ पर उनका चरित्र दे रहे हैं—
मुनिराज उस निर्जन वन में एक शिला पर योगमुद्रा में स्थित हैं। आगम के प्रकाश में अंत:चक्षु के द्वारा वे अपनी आत्मा को देखने का प्रयत्न कर रहे हैं। ऐसी भयंकर शीत ऋतु में वे नग्न दिगम्बर मुनि धैर्यरूपी कंबल ओढ़ रहे हैं और आत्मा को अपने शरीर से भिन्न समझकर मन को एकाग्र करने के पुरुषार्थ में तन्मय हैं। इधर सुभग ग्वाला निकलता है, खुले बदन बैठे हुए महासाधु को देखकर मन में सोचने लगता है—
‘अहो! ये महात्मा वैâसे हैं? इनके पास न लंगोटी है न चादर, ऐसी भयंकर ठंडी में जहाँ घर में बैठकर कंबल में मुँह छिपाकर भी दाँत कड़-कड़ बजते हैं, बाहर निकलते ही हाथ-पैर कंपते हैं। ओह! सूर्य अस्त हो चुका है, रात्रि पिशाचनी अपने अंधेरे से सबको ग्रसित करने वाली है। अभी कुछ ही क्षण बाद हाथ पसारा भी नहीं दीखेगा। ठंडी-ठंडी हवा चल रही है, अभी तुषार कण गिरने लगेंगे और देखते ही देखते बरसात के समान वृक्षों के पत्तों से पानी टपकने लगेगा। सुबह होने तक कुहरा छाया रहेगा। बिना वस्त्र के ये बेचारे महात्मा आज की रात वैâसे पूरी करेंगे ? ऐसी ठंडी झेलकर वैâसे जीवित रह सकेंगे ?
नाना तरह के विचारों के झूले में झूलता हुआ वह ग्वाला कुछ क्षण तक वहाँ स्तब्ध खड़ा रहता है पुन: देखता है मेरी गाय-भैंसें तो बहुत दूर निकल गई हैं। जल्दी-जल्दी पैर उठाकर शहर की ओर बढ़ जाता है। सेठजी की गौशाला में गाय-भैंसों को पहुँचाकर घर पहुँचकर कुछ लकड़ियाँ और आग लेकर वापस गाँव के बाहर उन्हीं मुनिराज के निकट आ जाता है। भक्ति से प्रणाम करता है पुन: मुनिराज के पास में ही बैठकर लकड़ियाँ जला-जलाकर आप स्वयं तापता रहता है। इस प्रकार से वह रात भर जागता हुआ मुनि के पास अग्नि जलाता हुआ, उनकी शीत बाधा को दूर करने में लगा हुआ है। उसे स्वयं को ठंड लग रही है या नहीं, इसका उसे भान नहीं है। बस! उसे एक ही धुन है कि किसी भी तरह से मुनिराज को ठंड न लग जाय। लगभग चौदह घंटे की इतनी बड़ी ठंड की रात पूरी हो जाती है, चारों तरफ कुहरा छाया होने से आकाश में बादल छाये हुए के समान दिख रहा है। पूर्व दिशा में सूर्य उदित हो चुका है किंतु उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा है मानों सूर्य देवता को भी ठंड लग रही है और इसीलिए वे कुहरा-रूपी कंबल में अपना मुँह ढके हैं। धीरे-धीरे पुरुषार्थ करके सूर्य देवता अपनी हजार किरणों से कुहरे को तितर-बितर कर देते हैं और अपना प्रकाश व प्रताप एक साथ भूमंडल पर पैâला देते हैं। मुनिराज अपना ध्यान समाप्त कर उस निकट भव्य ग्वाले की ओर देखते हैं। उसे उपदेश देते हैं।
‘भद्र! मैं तुम्हें एक मंत्र देता हूँ तुम अपने हर एक कार्यों में प्रथम ही इस मंत्र को बोला करो-‘णमो अरिहंताणं।’
ग्वाला हाथ जोड़कर गुरु का प्रसाद समझते हुए बड़ी श्रद्धा से उस मंत्र को सुनता है पुन: उच्चारण करता है
मुनिराज कहते हैं—
‘भव्य! यह मंत्र तुम्हें संसार समुद्र से पार कर देगा, इसलिए तुम इसे कभी नहीं छोड़ना, हमेशा ही इसका उच्चारण करते रहना।’
वह ग्वाला भी प्रसन्न होकर बार-बार गुरु चरणों में प्रणाम करता है और मंत्र का उच्चारण करता जाता है। मुनिराज उसे आशीर्वाद देकर स्वयं भी ‘णमो अरिहंताणं’ मंत्र का उच्चारण करते हुए आकाशमार्ग से विहार कर जाते हैं। वह ग्वाला एकटक देखता ही रह जाता है, आश्चर्यचकित होने लगता है। ‘अहो! यह मंत्र कितना चमत्कारी है, देखो तो सही, महात्माजी इसी मंत्र को बोलते हुए आकाश में अधर उड़ते हुए चले गये।’
इस प्रसंग से उसे इस मंत्र पर और भी अधिक श्रद्धा हो जाती हैै और वह प्रात:काल इसी मंत्र को जपता हुआ अपने घर आ जाता है। स्नान, भोजन आदि प्रत्येक काम करते हुए वह ग्वाला इस मंत्र का उच्चारण कर रहा है। सेठ वृषभदास देखते हैं कि घर का प्रत्येक कार्य करते समय यह मेरा नौकर आज ‘णमो अरिहंताणं’ इस मंत्र को बोल रहा है वह प्रसन्न होकर पूछते हैं—
‘सुभग! तुझे यह मंत्र किसने दिया है ?’
ग्वाला कहता है—
‘सेठजी! मैंने कल रात में जंगल में एक महात्मा की सेवा की थी। वे बिल्कुल नंगे बदन बैठे हुए थे। उनके पास मैंने अग्नि जला-जलाकर उनकी ठंड दूर की थी। तब वे प्रसन्न होकर हमें यह प्रसाद दे गये हैं और उन्होेंने कहा है कि ‘तू इसे घर के हर एक काम करते समय भी बोलते रहना छोड़ना नहीं’ इसीलिए आज मैं सभी काम करते समय इस मंत्र को बोल रहा हूँ।’
सेठ जी कहते हैं—
‘बहुत अच्छा, सुभग! तू बड़ा भाग्यशाली है जो कि तुझे यह गुरु प्रसाद मिला है। सचमुच में इस मंत्र से हर एक जीव संसार समुद्र पार कर सकता है। अच्छा देख, आज तू उस सामने वाले मकान में आ जा, वहीं रहना, अपनी टूटी-फूटी झोपड़ी का मोह छोड़ दे।’
ग्वाला मन ही मन सोचने लगता है—
‘अरे! आज सेठजी मेरे ऊपर इतने प्रसन्न हो रहे हैं……मुझे अपना एक पक्का मकान रहने के लिए दे रहे हैं। अहो! इस मंत्र का फल तो मुझे आज ही मिल गया। यह मंत्र कितना बढ़िया है।’
सेठ वृषभदास सेठानी जिनमती से कहते हैं—
‘देखा, यह ग्वाला प्रत्येक कार्य करते समय महामंत्र के प्रथम पद का उच्चारण कर रहा है। यह कोई होनहार जीव दिखता है।……अब तुम इसे प्रतिदिन अच्छा-अच्छा भोजन देते रहना।’
सेठानी कहती है—
‘सच में, आज मैं सुबह से देख रही हूँ यह नौकर बड़ी भक्ति से मंत्र बोल रहा है। इसका भविष्य बहुत ही उज्ज्वल दिख रहा है।’
सेठजी भोजन आदि से निवृत्त हो चले जाते हैं। ग्वाला भी खुशी-खुशी सेठ जी के द्वारा बताये हुए मकान में सपरिवार आकर रहने लगता है। खूब रुचि से सेठजी के गाय-भैंसों की संभाल करता हुआ अपना समय व्यतीत कर रहा है।
एक दिन जंगल में गाय-भैंसों को चरा रहा था कि अकस्मात् कुछ भैंसें नदी के उस पार निकल जाती है। उन्हें लाने के लिए वह नदी में कूद जाता है। कूदते समय भी ‘णमो अरिहंताणं’ इस मंत्र का उच्चारण करता रहता है। अकस्मात् नदी में कूदते ही उसके पेट में एक पैनी लकड़ी घुस जाती है और उसके प्राण निकल जाते हैं। मरते समय महामंत्र का उच्चारण करते-करते वह शांति से इस नश्वर काया को छोड़कर परलोक चला जाता हैं। इधर समय पर गाय-भैंसें सेठजी के घर वापस आ जाती हैं। ग्वाले को न देखकर सेठजी उसकी खोज कराते हैं। वह मर गया सुनकर उसकी पत्नी आदि रोना-धोना करने लगती हैं। सेठ वृषभदास सबको सान्त्वना देते हुए उसके गुणों का विचार करते हुए घर आ जाते हैं।
सेठानी जिनमती उसी दिन रात्रि के पिछले प्रहर में स्वप्न में सुदर्शन मेरु, कल्पवृक्ष, देवभवन, समुद्र और अग्नि इन पाँच उत्तम-उत्तम स्वप्नोें को देखती हैं। प्रात:काल उठकर पति से कहती हैं। सेठ वृषभदास भी स्वप्नों को सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं। दोनों दंपती नित्यक्रिया से निवृत्त होकर जिनमंदिर पहुँचकर जिनेन्द्र देव की पूजा करते हैं। अनंतर सुगुप्त मुनिराज की वंदना करके उनसे प्रार्थना करते हैं—
‘‘भगवन्! आज रात्रि के पिछले प्रहर में सेठानी जिनमती ने कुछ स्वप्न देखे हैं वे आपके श्रीमुख से उनका फल सुनना चाहती हैं सो कृपाकर उसका फल बताकर हमें अनुग्रहीत कीजिए।’
उसी समय सेठानी हाथ जोड़कर मुनिराज के समक्ष पाँचों स्वप्न सुना देती हैं। मुनिराज कहते हैं—
‘हे जिनमति! इन स्वप्नों का फल यह है कि तुम्हारे गर्भ में कोई पुण्यशाली जीव आ गया है। सुदर्शन मेरु के देखने से वह धीर-गंभीर होगा। कल्पवृक्ष के देखने से वह संपत्तिशाली होकर दानी होगा। देवभवन के देखने से वह देवों द्वारा वंदनीय होगा। समुद्र के देखने से वह गुणरूप रत्नों की खान होगा और अग्नि के देखने से वह इसी भव से कर्मरूपी ईंधन को जलाकर मुक्तिरूपी स्त्री का वरण करेगा। ऐसा महाभाग्यशाली चरमरशरीरी पुत्ररत्न तुम्हें प्राप्त होगा।’
इतना सुनते ही वृषभदास और जिनमती का मुख कमल प्रफुल्लित हो जाता है। उनके हर्ष का पारावार नहीं रहता है। पुन: पुन: गुरु को नमस्कार कर वे दंपती घर आ जाते हैं। और उसी दिन से घर में मंगलाचार शुरु हो जाते हैं। नव महीने व्यतीत होने पर पौष शुक्ला चतुर्थी के दिन शुभ नक्षत्र में जिनमती पुत्ररत्न को जन्म देती है। वृषभदास सेठ अपने वैभव के अनुसार पुत्र जन्म का महोत्सव मनाते हैं। याचकों को खुले हाथ से दान देते हैं और गरीबों को मुँह मांगा धन देकर उनकी कई पीढ़ियों तक की गरीबी समाप्त कर देते हैं। स्वप्न में सेठानी ने सुदर्शन मेरु पर्वत देखा था। इसीलिए वृषभदास सेठ उस पुत्र का नाम ‘सुदर्शन कुमार’ रख देते हैं। राजा के पुरोहित को भी पुत्ररत्न की प्राप्ति होती है। वह पुरोहित अपने पुत्र का नाम ‘कपिल कुमार’ रखता है। यह ‘सुदर्शन’ उस ‘कपिल’ के साथ क्रीड़ा करता हुआ अपने गुणों के साथ-साथ वृद्धि को प्राप्त होता रहता है।
इसी चंपापुर नगर में एक सागरदत्त श्रावक रहते हैं। उनकी पत्नी का नाम सागरसेना है। इन दंपती के मनोरमा नाम की एक पुत्री है जो नाम के अनुरूप ही सौंदर्य की खान होने से सभी का मन बरबस ही अपनी ओर खींच लेती है। सागरदत्त सेठ कन्या मनोरमा को सर्वगुणों के साथ-साथ यौवन से भी संपन्न देखकर सुदर्शन कुमार के लिए देना सोचकर उनके घर पहुँचते हैं और कहते हैं—
‘‘मित्र! मेरी कन्या मनोरमा रूप, वय और गुणों से सुदर्शन के योग्य है। मालूम होता है कि विधाता ने बड़े प्रयत्न से ही इस जोड़े का निर्माण किया है।’’
वृषभदेव कुछ क्षण सोचकर कहते हैं—
‘‘हाँ मित्र! जोड़ी तो सर्वथा उपयुक्त ही है। आपकी कन्या मेरे पुत्र के योग्य तो है इसमें संशय नहीं है फिर भी मैं सेठानी जिनमती से राय लेकर ही कुछ निणर्य कर सकता हूँ।’’
सेठजी अंदर जाकर सेठानी से परामर्श करके वापस आते हैं और प्रसन्न मुद्रा में कहते हैं—
‘‘आपने बात अनुकूल ही रखी है अत: हमें स्वीकार करना ही होगा।’’
सेठ सागरदत्त भी प्रसन्न होकर कहते हैं—
‘‘बंधुवर! पुन: ‘‘शुभस्य शीघ्र’’ के अनुसार विवाह का मुहूर्त निकलवाइये।’’
वृषभदास उसी समय नौकर को भेजकर श्रीधर ज्योतिषी को बुलवा लेते हैं। ज्योतिषी जी आकर बैठते हैं। सेठजी कहते हैं—
‘‘पंडित जी! सुदर्शन कुमार के विवाह का मुहूर्त निकालना है।’’
पंडित जी प्रसन्न होकर पंचांग खोलकर कुछ क्षण सोचकर कहते हैं—
‘‘सेठजी! आपके सुपुत्र के विवाह का मुहूर्त वैशाख शुक्ला पंचमी सर्वश्रेष्ठ है।’’
सेठ सागरदत्त हर्ष से रोमांचित होकर वृषभदास का अभिवादन करते हैं पुन: अपने घर आकर सागरसेना भार्या को शुभ समाचार सुना देते हैं। उचित मुहूर्त में दोनों का विवाह हो जाता है। नवदंपती गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर देवपूजा-गुरुभक्ति आदि धर्माराधना करते हुए सुख से अपना काल यापन कर रहे हैं। गृहस्थाश्रम के फलस्वरूप मनोरमा एक पुत्ररत्न को जन्म देती है जिसका नाम सुकांत रखते हैं। यह पुण्यवान् बालक घर के आँगन में खेलता हुआ सेठ वृषभदास और सेठानी जिनमती के प्रमोद को द्विगुणित करता रहता है।
एक दिन समाधिगुप्त नामक महर्षि अपने विशाल संघ के साथ आकर चंपापुर के बाहर उद्यान में ठहर जाते हैं। माली से समाचार ज्ञात कर राजा धात्रीवाहन, सेठ वृषभदास आदि सपरिवार मुनियों के दर्शन हेतु उद्यान पहुँचते हैं। गुरुओं की वंदना, पूजा, स्तुति करके उपदेश सुनते हैं। तत्पश्चात् वृषभदास गृहवास से विरक्त होकर अपने पुत्र सुदर्शन कुमार को राजा के लिए समर्पित कर आप जैनेश्वरी दीक्षा ले लेते हैं। उसी समय माता जिनमती भी आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिकाओं के पास में रहने लगती है। इधर सुदर्शन अपने सद्व्यवहार से चंपापुर में अपनी कीर्ति पताका फहराते हुए सुखपूर्वक धर्माराधना कर रहे हैं।
सुदर्शन के मित्र कपिल ब्राह्मण की पत्नी कपिला सुदर्शन के अनुपम सौंदर्य को देखकर काम से विहृल हो जाती है। सुदर्शन से मिलने का उपाय सोचने लगती है। जिसके मन में जो भावना होती है उसी के अनुसार उसे समय मिल ही जाता है। एक दिन कपिल कार्यवश कहीं बाहर चला जाता है तब कपिला अपनी सखी को समझा-बुझाकर सुदर्शन को बुलाने हेतु भेज देती है। वह कुशल बुद्धि सखी सुदर्शन के पास पहुँचकर कहती है—
‘बंधु! आपके मित्र कपिल अत्यधिक अस्वस्थ हो रहे हैं। आप शीघ्र ही चलकर उनके दु:ख प्रसंग में उनका उपचार कीजिए।’
सुदर्शन अपने घर से चलकर मित्र के घर पहुँचते हैं। अंदर कमरे में प्रवेश करते हैं। सखी बाहर ही रह जाती है। कुमार सुदर्शन मित्र के पलंग के पास पहुँचते हैं। एक क्षण कुछ सोचते हैं पुन: मित्र को अधिक अस्वस्थ समझकर पलंग पर बैठ जाते हैं और मित्र के मुख की चादर हटाकर कुशल पूछना चाहते हैं। उसी समय षड्यंत्र को करने वाली कपिला सुदर्शन का हाथ पकड़ कर अपनी छाती पर रख लेती है और कहती है—
‘हे सुभग! अपने वियोग से संतप्त हुए मेरे हृदय को अब संतुष्ट करो।’ सुदर्शन एकदम चौंक पड़ते हैं और सहसा अपना हाथ छुड़ा लेते हैं। पुन: एक क्षण मन में कुछ सोचते हैं कि इस समय युक्ति से कार्य करना अच्छा होगा। ऐसा सोचकर कहते हैं—
‘भद्रे! मैं केवल बाहर से ही सुंदर दिखता हूँ मैं पुरुषत्व से शून्य हूँ, नपुंसक हूँ। अतएव तुम्हारे साथ रमण करने के योग्य ही नहीं हूँ।
यह सुनकर कपिला लज्जित हो जाती है और मन ही मन पश्चात्ताप करते हुए सोचती है—
‘अहो! व्यर्थ ही मैंने इससे अपनी दुर्वासना की भावना व्यक्त कर दी। यदि यह कदाचित् अपने मित्र कपिल से कह देगा तो क्या होगा’’ मुझे पहले इसके नपुंसक होने का पता लगा लेना चाहिए था…..
सुदर्शन कुमार पुन: वहाँ अधिक देर ठहरना उचित न समझकर अपने घर वापस आ जाते हैं। कुलटा स्त्रियों की दुर्भावना और षड्यंत्र का विचार करते हुए संसार की स्थिति के विचार में निमग्न हो जाते हैं और मन में संवेग भाव को वृद्धिंगत करते हुए पुन: अपने सुख-वैभव में निमग्न हो जाते हैं।
ऋतुओं का राजा बसंत अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित करता हुआ चंपापुर में उद्यान में अपनी मुधरिमा बिखेर रहा है। राजा धात्रीवाहन अपने इष्ट मित्र और परिवार के साथ वनक्रीड़ा के लिए आ रहे हैं। रानी अभयमती भी अपने अंत:पुर से साथ चली आ रही हैं। उनके रथ में उनके पास ही उनकी प्यारी सखी कपिला बैठी हुई उनका मनोरंजन करा रही है। चारों तरफ की नगर की शोभा देखते हुए रानी का मन मयूर नाच रहा है। धीरे-धीरे शहर के बाहर का दृश्य दिखने लगता है। तब प्राकृतिक छटा को देखते हुए रानी पुलकित हो उठती है। इसी बीच रथ में बैठी हुई मनोरमा अपने सुकांत पुत्र को गोद में खिलाते हुए उसे दिखती है। रानी की दृष्टि उस मनोरमा के मनोरम चेहरे पर टिक जाती है। उसके पुत्र का कांतिमान शरीर उसके नेत्रों को लुभावना हो जाता है। सखी से पूछने लगती है—
‘प्रिय सखी! यह पुत्रवाली सुंदरी किसकी वल्लभा है’?
कपिला पहचानती है और आश्चर्य चकित हो जाती है। एक क्षण मौन का अवलम्बन ले लेती है। तब पुन: रानी उसकी ओर देखकर पूछती है—
‘बता तो सही कपिला! यह किसकी कुलवधू है’ ?
तब कपिला कहती है—
‘महारानी! आपके नगर सेठ वृषभदास के सुपुत्र सुदर्शन कुमार की यह पत्नी है…..अहो! इसकी गोद में किलकारियाँ भरता हुआ बालक कितना सुंदर है ?’
अभयमती रानी कहती है—
‘यह धन्य है जो ऐसे उत्तम पुत्र की माँ बनने का सौभाग्य इसे मिला है।’
कपिला संदेह भरे वचनों में कहती है—
‘परन्तु जब सुदर्शन नपुंसक है तब भला उसकी पत्नी के यह पुत्र वैâसे उत्पन्न हुआ ?’
रानी आश्चर्य चकित हो पूछती है—
‘ऐं! क्या कहा ? क्या सुदर्शन नपुंसक है ?’
कपिला कहती है—
‘हाँ महारानी! वह नपुंसक है। उसमें पुरुषत्व नहीं है।’
‘यह तूने वैâसे जाना ? रानी पूछती है ‘अरे!! भला इतना सुंदर और भाग्यशाली पुरुष कभी नपुंसक हो सकता है ? तुझे किसने ऐसा कहा है ? बता तो सही!’
कपिला एक क्षण चुप रहती है पुन: अपना पूर्व का रहस्य बता देती है—
‘रानी! एक बार मैं इस सुदर्शन पर आसक्त हो गई। जैसे तैसे उपायों से इसे अपने घर बुलाया और उसका हाथ पकड़ लिया। इससे प्रणय की भीख माँगी तब इसने दुखी हो स्वयं यह बताया था कि मैं नपुंसक हूँ, मैं स्त्री के साथ भोग करने के योग्य नहीं हूँ।’
सुनते ही रानी अवाक् रह जाती है पुन: सोचकर कहती है—
‘कपिले! उसने तुझे धोखा दिया है ऐसा होना कथापि संभव नहीं है। भला जो पुरुष स्वयं नपुंसक हो और उसकी पत्नी की गोद में बालक खेले वह सहन कर सकता है ? और कुलीन घरानों में ऐसी दुर्घटना खप सकती है क्या ? सर्वथा असंभव है। कपिला खेदखिन्न होते हुए रानी के चेहरे की तरफ एकटक देखती है। रानी के मनोभावों की अनुमान लगाते हुए तीखे स्वर में व्यंग्य करती है।
‘मैं मूर्ख ब्राह्मणी तो ठगाई गई, अब आप तो सर्वश्रेष्ठ हैं और सर्वगुणसंपन्न हैं। आपके सौभाग्य को मैं तभी सफल समझूँगी कि जब आप उसके साथ भोग-भोग लें अन्यथा…… आपका यह सौंदर्य और आपकी यह बुद्धि सब विफल ही समझी जायेगी।’
इतना सुनकर रानी अभयमती सुदर्शन के रूप में आसक्त हो जाती है और मद से विहृल होती हुई कहती है—
‘अच्छा देख, मैं प्रतिज्ञा करती हूूँ कि सुदर्शन के साथ कामसुख का अनुभव करके रहूँगी और यदि…..यह सौभाग्य मुझे नहीं मिल सका तो मैं अपने प्राणों को समाप्त कर दूँगी।’
कपिला के मन में एक क्षण के लिए विवेक उत्पन्न होता है और वह सोचने लगती है—
‘ओह! यह महारानी अभयमती राजा धात्रीवाहन को कितनी प्यारी है। राजा का सौंदर्य क्या सुदर्शन से कुछ कम है ? राजा का वैभव, राजा के गुण, राजा का ऐश्वर्य क्या सुदर्शन जैसे सेठ पुत्र के पास है ? फिर भी यह रानी ऐसा क्यों सोच रही है ? इसके मन में यह दुर्वासना वैâसे आ गई ?…… सचमुच में यह अब अपने पिता और पति दोनों के कुलों को कलंकित करने के लिए सन्नद्ध दिख रही है।’
पुन: कपिला सोचती है—
‘जो भी हो हमें क्या करना ?……इस दुष्ट सुदर्शन ने मुझे तो धोखा दिया ही है। अब देखती हूँ यह रानी के प्रेमपाश से बचकर कहाँ जाता है ? जब मैं इसे रानी के मोहजाल में पँâसा हुआ देखूूँगी तक पूछूँगी—तू तो नपुंसक था अब पुरुष वैâसे बन गया ?’
इधर रानी मन में अनेक कल्पनाओं का जाल बुनते हुए उद्यान में पहँुचती हैं। जलक्रीड़ा का आनंद लेती हैं पुन: महल में आकर सुदर्शन की स्मृति में खो जाती है। उन्मनस्क हुई अपने शयनागार में जाकर पलंग पर पड़ जाती हैं। धाय आकर रानी की दुरवस्था देखकर पूछती है—
‘हे पुत्री! आज तुझे क्या हो गया है ? तू अकस्मात् इतनी उदास क्यों हो रही है ? मुझे इसका कारण तो बता ?’
रानी जैसे-तैसे उठकर बैठती है और कहना शुरू करती है—
‘माँ! मुझे इस समय ऐसी चिंता ने आ घेरा है कि मैं किसी से कुछ कह नहीं सकती हूँ।’
‘बेटी! तू मुझसे संकोच क्यों करती है ? देख तेरे मन की बात मेरे सिवाय क्या किसी अन्य से कही जा सकती है ? तू नि:संकोच हो मुझे अपने मन की व्यथा कह, मैं उसका शीघ्र ही प्रतिकार करूँगी।’
धाय के आश्वासन से आश्वस्त हो रानी कहती है—
‘मात:! आज मैं बसंत महोत्सव के अवसर पर जब उद्यान की तरफ जा ही रही थी तब ……एक महासौंदर्य की खान ऐसा पुरुष मेरी दृष्टि में पड़ा। उसका नाम है सुदर्शन, वह अपनी राजसभा का एक भूषण है। तू उसे जानती है क्या ?’
पंडिता धाय एकदम अवाक् रह जाती है पश्चात् साहस बटोर कर कहती है—
‘हाँ बेटी! मैं उसे अच्छी तरह से जानती हूँ। परन्तु…बेटी अपने राजा धात्रीवाहन का तो वह आज्ञाकारी किंकर है। अरी पगली! क्या अपने राजा उस तुच्छ पुरुष के गुण व रूप में किसी भी प्रकार से कम हैं ? अरे! तेरे मन में यह पापवासना वैâसे आ गई ?’
रानी खिन्न हो उठती है और बोलती है—
‘पंडिते! यह समय मेरे प्राणों की रक्षा का उपाय सोचने का है न कि शिक्षा देने का। मुझे तेरा उपदेश नहीं चाहिए और न ही अपने राजा के गुणों से किसी की तुलना ही चाहिए। बस, मैं तो अब या तो सुदर्शन के साथ कामसुख का अनुभव करूँगी या तो चिता में शरीर का शोषण करूँगी।’
पंडिता कहती है—
‘महारानी! यदि राजा को इस पाप का पता चल जायेगा तो क्या होगा ?’
रानी उत्तर देती है—
‘पता कैसे चल जायेगा ? तुझे सर्वथा यह कार्य गुप्तरीति से करना होगा।’
‘बेटी! तुझे मालूम नहीं है क्या ? तेल की बिंदु जल में डालने पर वह ऊपर ही आती है वैसे ही कितनी ही छिपाकर पाप क्यों न किया जाए वह ऊपर चढ़कर पुकारता है।’
‘पंडिते! जो भी होना होगा सो तो होकर ही रहेगा अत: अब तू ज्यादा सोच विचार न करो, बस! मेरे जीवित रहने का उपाय उस सुदर्शन को लाना ही है ऐसा समझकर शीघ्र ही उसे यहाँ लाने का प्रयास कर।
धाय कुछ सोचती है पुन: कहती है—
‘रानी! मैंने सुना हुआ है कि उसके एकपत्नी व्रत है अत: वह यहाँ इस पाप कार्य के लिये वैâसे लाया जा सकता है ? दूसरी बात यह है कि तेरे राजभवन को वेष्टित कर सात परकोटे स्थित हैं अत: उसका यहाँ लाना दु:साध्य ही है।’
रानी दीर्घ नि:श्वास खींचकर कहती है—
‘यदि तू मुझे जीवित देखना चाहती है तो तू पंडिता है। तेरे लिए सब कुछ उपाय साध्य हो जावेगा अत: तुझे कुछ न कुछ उपाय करना ही पड़ेगा।’
पंडिता कुछ देर तक सोच-विचार करती है पुन: रानी से कहती है—
‘अच्छा बेटी! तू उठ और भोजन पान कर, मैं तेरी मनोकामना सिद्ध करने के लिए सब कुछ करने को तैयार हूँ।’
’इतना कहकर धाय वहाँ से चली जाती है।
पंडिता धाय कुंभकार के घर पहुँचती है और कुंभकार को पुरुष के बराबर प्रमाण सुंदर सात मूर्तियां बनाने का आदेश देती है और सुदर्शन की सारी दैनिकचर्या का पता लगा लेती है। (उसे पता चलता है कि सुदर्शन प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को उपवास करके रात्रि में निर्जन वन में जाकर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े होकर ध्यान करता है। धाय अपना कार्य सिद्ध हुआ ही समझकर मन ही मन प्रसन्न हो जाती है। पुन: प्रतिपदा की रात्रि को मिट्टी की पुरुषाकार एक मूर्ति लेकर अपने कंधे पर रखकर अभयमती के भवन की तरफ चल देती है। पहले परकोटे का द्वारपाल ही उसे अंदर जाने से रोक देता है तब पंडिता पूछती है।
‘क्या रात्रि में मेरे लिए भी रानी के पास जाना मना है ?’
द्वारपाल कहता है—
‘हाँ, इतनी रात में तुम भी वहाँ नहीं जा सकती हो।’
इतना कहने पर भी धाय नहीं मानती है और हठपूर्वक अंदर प्रवेश करने लगती है। तब द्वारपाल बलपूर्वक उसे रोकने का प्रयत्न करता है कि वह स्वयं ही झुँझला कर कंधे का पुतला जमीन पर गिरा देती है और स्वयं धरती पर पड़कर बकने लगती है।
‘अरे मूर्ख! तूने यह क्या कर डाला ? हाय-हाय बड़ा अनर्थ हो गया। अब देख प्रात: तेरी क्या दशा होती है ?’
द्वारपाल घबड़ाकर गिड़गिड़ाने लगता है।
‘‘अहो!! क्या हुआ ? यह मूर्ति फूट गई अब क्या होगा ? अम्माजी! अब तुम मेरी रक्षा करो……।’’
धाय कहती है—
‘‘अरे मूर्ख! आज रानी का व्रत है वह इस कामदेव की मूर्ति की पूजा करके रात्रि में जागरण करने वाली थी। तूने इसे फोड़ डाला, अब प्रात:काल तेरे कुटुम्ब सहित ही तेरा नाश समझ।’
यह सुनकर द्वारपाल भयभीत होता हुआ धाय के पैरों में गिर पड़ता है और कहता है—
‘अम्मा जी! मुझे क्षमा कर दो। आज से मैं ऐसी गलती नहीं करूँगा! अब तुम्हें कभी भी महल में जाने से नहीं रोवूँâगा।’
इतना सब कुछ षड्यंत्र करके वह धाय अपने घर चली जाती है। दूसरे दिन पुन: दूसरी मूर्ति कंधे पर रखकर आती है तब पहला द्वारपाल कुछ नहीं बोलता हैं किन्तु दूसरे परकोटे पर पहुँचते ही दूसरा द्वारपाल अड़ जाता है। वहाँ भी वह पहले के समान ही पुतला फोड़ कर द्वारपाल को डरा देती है तब वह क्षमा माँग कर आगे के लिए ऐसी गलती न करने का वचन देता है। इसी तरह यह धाय आगे पाँच दिन तक पाँच और पुतले फोड़-फोड़ कर उन पाँचों द्वारपालों को भी अपने अनुकूल कर लेती है।
सात दिन के बाद आठवें दिन रात्रि में वह उसी श्मशान में पहुँच जाती है जहाँ पर सेठ सुदर्शन वस्त्राभूषण त्याग कर प्रतिमायोग में खड़े होकर ध्यान कर रहे हैं। वह मधुर शब्दों में कहती है—
‘सुदर्शन कुमार! तुम धन्य हो कि आज अभयमती महारानी तुम्हारे ऊपर अनुरक्त हो रही हैं। अब तुम मेरे साथ राजमहल में चलो और रानी के साथ दिव्य काम सुखों का अनुभव करो।’
कुछ क्षण उत्तर की प्रतीक्षा करती है किन्तु जब सुदर्शन को पाषाण की मूर्ति के समान अचल ही खड़ी पाती है तब वह उन्हें उठाकर अपने कंधे पर रख लेती है और राजमहल की ओर चल पड़ती है। एक-एक परकोटे को पार कर रही है। उस समय बेचारे द्वारपाल हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं और एक शब्द भी नहीं कहते हैं। वह पंडिता बिना बाधा के सातों परकोटे पार कर रानी के महल के अंदर पहुँच जाती है। रानी तो प्रतीक्षा कर ही रही थी। धाय के कंधे पर सुदर्शन को देखकर स्वागत के लिए उठ खड़ी हो जाती है। तब रानी सुदर्शन से अनेक प्रकार का अनुनय विनय करना प्रारंभ कर देती हैं—
‘हे सुदर्शन! आँखें खोलो और मेरी ओर देखो, यह राजमहल का वैभव और मेरा यौवन तुम्हारे पर न्यौछावर है। ध्यान को विसर्जित करो और मेरे साथ काम भोगों का अनुभव करो। अरे! यह तुम्हारी योगसाधना की उम्र नहीं है। वृद्धावस्था में योग साधना करना। अभी जवानी का आनंद लूटो।’
इतना सब कुछ कहने पर भी सुदर्शन मृतक के समान निश्चेष्ट हैं। तब वह पुन: कहती है—
‘प्रियवल्लभ! तुम्हारे संयोग के बिना अब मैं जीवित नहीं रह सकती हूँ। तुम अहिंसा धर्म के पालक हो। क्या मेरा मरण तुम्हें इष्ट है। बोलो, एक बार बोलो और नेत्र खोलो…..।’’
सब कुछ बेकार है ऐसा समझकर भी रानी काम वासना से अंधी हो रही है अत: पुनरपि वह अनेक प्रकार की कुचेष्टायें करने लगती है, पूर्ण प्रयत्न से सुदर्शन के साथ भोग करना चाहती है। सब प्रयत्न करते-करते जब वह हार जाती है तब निराश हो धाय को पुकारती है—
‘अरी पंडिते! अंदर आओ।’
पंडिता आ जाती है। तब रानी कहती है—
‘आप इसे जहाँ से लाई हो, शीघ्र ही वहीं पहुँचा दो।’
धाय बाहर की तरफ दृष्टि डालती है तो देखती है कि प्रभात हो चुका है। तब वह कहती है—
‘रानी! अब तो सबेरा हो चुका है, अब इसे बाहर लेकर जाना असम्भव है।’
रानी घबड़ा उठती है।
‘अब क्या किया जाए ?’
अंत में वह कुछ उपाय न देखकर आप स्वयं शयनागार में ही धरती पर बैठ जाती है। अपने वस्त्रों को फाड़ डालती है, बाल बिखेर लेती है, शरीर को नखों से नोंच-खसोंट लेती है और जोर-जोर से चिल्लाने लगती है—
‘अरे, दौड़ो-दौड़ो!! मेरी रक्षा करो, यह कौन प्ाापी दुष्ट मेरे महल में घुस आया है। हाय, हाय, यह पापी मेरे शील को भंग करना चाहता है।’
सेवक लोग अंदर आ जाते हैं और सारा दृश्य देखकर महाराजा धात्रीवाहन के पास सूचना पहुँचा देते हैं।
‘राजन्! आज घोर अनर्थ हो गया है। पता नहीं पापी सुदर्शन सेठ आपके राजमहल में कब और वैâसे चला गया था, उसने रानी को कष्ट पहुँचाया है।’
महाराज स्वयं महल में आते हैं सारा दृश्य देखकर अवाक् रह जाते हैं। रानी कहती है—
‘महाराज! पता नहीं किस जन्म का पुण्य आज मेरे काम आया है कि जिससे आज मेरे शील की रक्षा हुई है। यह पापी सेठ मेरा शील भंग करना चाहता था। देखो इसने मेरी वैâसी दुर्दशा की ओह!……बड़े पुरुषार्थ से मैंने इस दुष्ट से अपने को बचाया है।’
राजा क्रोध में आकर कड़ककर बोलते हैं—
‘अरे कर्मचारियों! तुम इस पापी, नराधम को शीघ्र ही यहाँ से उठावो और श्मशास भूमि में ले जाकर इसका शिर धड़ से अलग कर दो।……ओह! देखो तो सही, अब यह अधम आँख मींचकर वैâसा ढोंग दिखा रहा है। इसने शहर भर में अपने धर्मात्मापने का नाम उजागर कर रखा है। लोग कहते हैं कि सुदर्शन सेठ हर अष्टमी, चतुर्दशी को श्मशान में जाकर ध्यान करता है। अरे रे! तू इतना धूर्त निकला ?’
कर्मचारी लोग राजा की आज्ञा पाते ही सुदर्शन को घसीटकर कमरे के बाहर निकाल लाते हैं और श्मशान की तरफ ले जाते हैं।
कर्मचारी लोग सुदर्शन को ले जाकर श्मशान में बिठा देते हैं। जल्लाद लोग नंगी तलवार लिए आ जाते हैं और सुदर्शन की ध्यानमुद्रा देखकर अट्टहास करके हँसते हैं। पुन: एक कहता है—
‘अरे! धर्म का बाना पहनकर पाप करना बहुत आसान दिख रहा था तुझे, लेकिन एक दिन भंडाफोड़ होगा ही होगा यह तूने शायद नहीं समझा था।
दूसरा कहता है—
‘मारो, मारो जल्दी से इसे मौत के घाट उतारो, भाई देर क्यों कर रहे हो।’
तीसरा कहता है—
‘भाई! जरा ठहरो, कुछ देर इसके दम्भ को देख लो….. देखो, वैâसी ध्यान मुद्रा है। अ ह ह ह ह!!……..मानो साक्षात् कोई योगिराज ही ध्यान कर रहे हैं।’
पुन: पहला जल्लाद कहता है—
‘अरे भाई! इसकी निश्चलता देखकर तो ऐसा लगता है कि मानों कोई पत्थर की गढ़ी गढ़ाई मूर्ति ही यहाँ थाप दी गई है।’
दूसरा कहता है—
‘बड़े-बड़े नामी धर्मात्मा जब पाप करेंगे तब वे यदि ऐसा ढोंग न रचें तो फिर उनकी शान वैâसे बढ़ेगी।’
पुन: तीसरा कहता है—
‘अरे! अपने खानदान की शान तो इसने मिट्टी में मिला ही दी है अब खाक ध्यान कर रहा है।’
कर्मचारी कहते हैं—
‘जल्लादों! तुम लोग आपस में ही क्या बकवास कर रहे हो? इस पापी अधम को ज्यादा देर तक जिंदा क्यों रख रहे हो ? जल्दी इसका काम तमाम करो।’
इतना सुनते ही जल्लाद लोग एक साथ तलवार उठाते हैं और ‘हुंकार’ शब्द करते हुए सुदर्शन की गरदन पर वार करते हैं। परंतु यह क्या ? तलवार के प्रहार से तो सुदर्शन के गले में फूलों के हार बनते जा रहे हैं। जल्लादों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता है।
‘अरे!! यह क्या चमत्कार है ?
इसी बीच सुदर्शन के शील के प्रभाव से वन के रक्षक यक्षदेव का आसन कंपायमान हो जाता है। वह अवधिज्ञान से सुदर्शन महापुरुष पर उपसर्ग होता हुआ जान करके शीघ्र ही वहाँ आ जाता है और उन सभी राजपुरुषों को कीलित कर देता है। दूर खड़ा होकर यह दृश्य देखने वाला एक नागरिक दौड़ा हुआ राजदरबार में पहँुचता है और राजा को सारी बातें सुना देता है।
यह सब समाचार सुनकर राजा ऐसा समझता है कि यह सुदर्शन कुछ मंत्रसिद्धि जानता है अत: मालूम होता है कि उसने अपने पाप को छिपाने के लिए मंत्र के बल से ही उन राजपुरुषों को कील दिया है। राजा के क्रोध का पारा अधिक चढ़ जाता है और वह तत्काल मंत्रियों को आदेश देता है—
‘मंत्रियों! बड़े-बड़े मल्ल योद्धओं को वहाँ श्मशान भूमि में भेज दो। देखो, उस दुष्ट सुदर्शन सेठ ने कुछ कर्मचारियों को और जल्लादों को कील दिया है।’
राजा की आज्ञा पाते ही मंत्रीगण योद्धाओं को उस श्मशान भूमि में भेज देते हैं किन्तु पुन: समाचार मिलता है। वे सभी योद्धा भी वहाँ कील दिये गये हैं। तब राजा स्वयं ही बहुत बड़ी सेना लेकर युद्ध के लिए निकल पड़ता है। युद्ध का तुमुल बज उठता है। उधर यक्षदेव भी अपनी विक्रिया से चतुरंग सेना निर्मित करके रणभूमि में उपस्थित हो जाता है। कुछ ही क्षणों में देखते-देखते दोनों ही सेनाओं में घोर युद्ध होने लगता है।
बहुत देर तक घनघोर युद्ध होता रहता है। तब स्वयं राजा और यक्ष दोनों हाथी पर सवार होकर आमने-सामने उपस्थित हो जाते हैं। तब यक्षदेव कहता है—
‘राजन्! मैं देव हूँ, तू मेरे हाथ से व्यर्थ ही क्यों प्राण गँवाता है। तू सुदर्शन सेठ की चिंता छोड़ दे और सुखपूर्वक राज्य कर। उसे दण्ड देने का विचार ही छोड़ दे वह सर्वथा निर्दोष है।’
राजा कहता है—
‘अरे देव! तू व्यर्थ ही इस पापी का पक्ष लेने वाला कौन है ? क्या तू मेरी शक्ति और मेरे धर्म प्रिय न्याय को नहीं जानता हैै जो कि यहाँ मेरे बीच में आकर अपना अपमान करा रहा है ? तू जहाँ से आया है वहीं भाग जा।’
देव कहता है—
‘राजन्! तुझे मेरे बल का ज्ञान नहीं है इसीलिए तू मेरा सामना करना चाहता है।’
राजा उत्तर देता है—
‘देवता भी राजाओं के दास होते हैं यह बात क्या तुझे मालूम नहीं है ? अरे यक्ष! तू मेरे नगर का ही तो रक्षक देव है फिर भी मेरे अनुशासन के बाहर क्यों ?’
उस समय क्रुद्ध होकर यक्ष कहता है—
‘अरे अन्यायी राजन्! अब मैं देखता हूँ तेरे में कितनी शक्ति है ? आ, मेरे साथ युद्ध कर।’
राजा भी क्रोध में भड़क कर गर्जता हुआ बोलता है—
‘अरे यक्ष! अब मैं तुझे अपना बाहुबल दिखाता हूँ।’
दोनों ही एक दूसरे पर बाणों की वर्षा शुरू कर देते हैं। कुछ देर तक दोनोें में से एक भी नहीं हारते हैं। पुन: यक्षदेव राजा के ऊपर लगे हुए छत्र और ध्वजा को गिरा देता है पुन: एक प्रहार में हाथी को भी गिरा देता है। राजा रथ पर सवार होकर युद्ध करने में तत्पर है। यक्ष पुन: उसके रथ को तोड़ डालता है। राजा पृथ्वी पर खड़े-खड़े भी बाण वर्षा जारी रखता है तब यक्ष राजा को बुरी तरह से पराजित कर देता है। राजा के हाथ से धनुष गिर जाता है तब वह भागने को उद्यत होता है। यक्ष भी राजा के पीछे दोड़ता है और कहता है—
अरे मूर्ख! देख, अगर तू सेठ सुदर्शन की शरण में जाता है तो तेरे प्राणों की रक्षा हो सकती है, अन्यथा नहीं हो सकती है।’
तब राजा भागता हुआ सेठ के निकट पहुँच कर उनके चरणों में गिर पड़ता है और बोलता है—
‘बचाओ-बचाओ! मुझे बचाओ……।’
सेठ सुदर्शन आँख खोलते हैं और यक्ष की तरफ देखकर पूछते हैं—
‘हे भद्र! आप कौन हैं ?’
यक्ष सुदर्शन को नमस्कार करके अपना परिचय देते हुए कहता है।
‘हे धर्मधुरंधर! मैं आप जैसे धर्मात्माओं का सेवक यक्ष जाति का देव हूँ। आपके शील के प्रभाव से मेरा आसन कंपित हो उठा, तब मैंने अपने दिव्यज्ञान से यह जाना कि आपके ऊपर उपसर्ग आया हुआ है। भला धर्म पर आये हुए संकट का निवारण हम जैसे देव नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा ?’
पुन: वह यक्ष राजा से कहता है—
‘राजन्! तुम्हें अब मैं अपने अवधिज्ञान से जानी हुई सारी स्थिति स्पष्ट कर रहा हूँ। तेरी रानी अभयमती इन सुदर्शन के रूप को देखकर कामांध हो गई और पुन: उसने पंडिता धाय के द्वारा इस पुण्य पुरुष को श्मशान से ध्यान करती हुई अवस्था में ही मंगवा लिया। रात्रि में उसके साथ भोग-भोगने का प्रयत्न किया, किन्तु जब वह सफल नहीं हो सकी तब उसने अपना त्रिया चरित्र पैâलाया। आश्चर्य इस बात का है कि आप जैसे न्यायप्रिय, धर्मनिष्ठ राजा भी उसके वाग्जाल में आ गये, कुछ आगापीछा नहीं सोचा और इन महापुरुष को कष्ट पहुँचाने का आदेश दे दिया। खैर! अब तुम इनकी शरण में आ चुके हो अब ये महानुभाव जो कुछ हमें आदेश देंगे मैं वही करूँगा।
राजा इतना सब कुछ सुनकर आश्चर्य से भर जाते हैं। रानी के प्रति क्रोध, द्वेष और ग्लानि से उनका हृदय भर जाता है और सुदर्शन के प्रति आदर से उनका मस्तक झुक जाता है। राजा विनम्र होकर हाथ जोड़कर निवेदन करते हैं—
‘हे शील शिरोमणे! सुदर्शन! मेरे अपराध क्षमा करो। मैंने बिना विचारे जो भी कार्य किया है उसका मुझे घोर पश्चात्ताप है। हे पुण्य पुरुष! आप जैसे पुण्यशाली नररत्नों से ही यह धरा पवित्र मानी जाती है। यह चंपापुर नगर का अहोभाग्य है, जो कि आप जैसे शील धुरंधर नररत्न यहाँ पैदा हुए हैं।
इत्यादि प्रकार से राजा सुदर्शन सेठ की प्रशंसा करते हैंं। उधर यक्षदेव भी सुदर्शन के चरणों में पुष्पांजलि समर्पण करके उनकी पूजा करता है, उनके ऊपर रत्नों की और पुष्पों की वर्षा करता है। पुन: राजा के मरे हुए सैनिकों को जीवित करके अपने स्थान को वापस चला जाता है।
राजा सुदर्शन सेठ से कहते हैं—
‘हे सुदर्शन! मैंने जो भी अज्ञानतावश दुर्व्यवहार किया है उसे भुला दो और अब आप मेरे आधे राज्य को स्वीकार करो।’
सुदर्शन सेठ कहते हैं—
‘राजन्! जिस समय मुझे श्मशान से धाय उठा कर ले चली थी। मैंने उसी समय यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि ‘यदि मैं इस उपसर्ग से जीवित रहूँगा तो पाणिपात्र में ही भोजन करूँगा। अर्थात् मुनि हो जाउँगा।’ इसलिए अब मैं जैनेश्वरी दीक्षा लेऊॅँगा।’
उसी समय सेठ की भार्या मनोरमा भी अपने पुत्र सुकांत को लिए हुए वहाँ आ जाती है। नगर के अन्य और भी गणमान्य स्त्री-पुरुष वहाँ एकत्रित हो जाते हैं। इस पवित्र दृश्य को देखकर सभी सेठ सुदर्शन की जय बोलते हैं और उनकी शील की प्रशंसा करते हैं। एक वृद्ध सज्जन कहते हैं।
‘अहो सुदर्शन! तुमने आज धर्म की ध्वजा फहराई है तुम धन्य हो और धन्य है तुम्हारा शील।’
दूसरा पुरुष कहता है—
‘हे शीलशिरोमणि! तुम युग-युग तक इस धरा पर जीवित रहो और पामर मनुष्यों को धर्म का मार्ग दिखलाते रहो।’
तीसरा कहता है—
‘सुदर्शन! तुम्हारी कीर्र्ति युग-युग तक अमर रहे।’
मनोरमा सामने आकर हाथ जोड़कर खड़ी हो जाती है और प्रसन्न चित्त हो कहती है—
‘प्राणनाथ! अब आप घर चलिये। धर्म के प्रसाद से आपका बहुत बड़ा संकट टल चुका है।’
सुदर्शन कहते हैं—
‘हे प्रिये! अब आप अपने पुत्र की सुरक्षा करते हुए उसे धर्ममार्ग पर तत्पर करो। मैं तो अब जैनेश्वरी दीक्षा लेने के लिए जा रहा हूँ।’
इतना सुनते ही मनोरमा घबराती हुई बोलती है—
‘स्वामिन्! आप यह क्या कह रहे हैं ?…..क्या आपके बिना मैं घर में रह सवूँâगी ?…..क्या अभी आपकी दीक्षा लेने की उम्र है ?’
‘मनोरमे! दीक्षा के लिए भी कोई उमर होती है क्या ? देखो, इस संकट के आते समय ही मैंने नियम कर लिया था कि ‘यदि मैं इस संकट से जीवित रहूँगा तो मुनिव्रत ले लूँगा।’ अत: अब मेरा दीक्षा लेने का दृढ़ संकल्प है।’
इतना सुनते ही मनोरमा मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर जाती हैं उसके माता-पिता आदि उसे सँभालते हैं। सेठ सुदर्शन वहाँ से चलकर जिनमंदिर में आ जाते हैं।
सेठ सुदर्शन जिनमंदिर में आकर जिनेन्द्रदेव की पूजा करते हैं। विमलवाहन नामक मुनिराज की वन्दना-पूजा करके उनसे अपने पूर्वभवों को पूछते हैं। ‘महामंत्र के प्रभाव से मैं ग्वाले की पर्याय से यहाँ जैनकुल में सेठ का पुत्र हुआ हूँ’ यह सुनकर ‘महामंत्र’ को हृदय में धारण करते हैं। अनंतर सुदर्शन, राजा धात्रीवाहन आदि से क्षमा कराकर महामुनि के समीप मुनि दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं।
राजा धात्रीवाहन भी सुदर्शन के धर्मपूर्ण अतिशय को देखकर तथा रानी के निंद्य चरित्र से विरक्त होकर अपने पुत्र को राज्य देकर सुदर्शन के पुत्र सुकांत को राज्यश्रेष्ठी पद पर नियुक्त कर आप भी महामुनि के समीप मुनि बन जाते हैं। राजा की अन्य अनेक रानियाँ तथा और भी नगर के कतिपय श्रावक-श्राविकाएँ दीक्षित हो मोक्षमार्ग की साधना में तत्पर होते हुए संघ में स्थित हो जाते हैं।
इधर रानी अभयमती को जब यह समाचार विदित होता है तब वह सोचती है ‘अब मैं अपने मुख को किसी के सामने वैâसे दिखलाऊँगी’ ऐसा सोचकर वृक्ष में फाँसी लगाकर अपना अपघात कर डालती है और अकामनिर्जरा से मरकर पटना शहर में व्यंतरी की योनि में जन्म ले लेती है। वह पंडिता धाय भी भय से भाग कर पटना शहर में पहुँच जाती है। वहाँ देवदत्ता वेश्या के यहाँ ठहर कर उससे कपिला, रानी अभयमती और सुदर्शन की सारी घटना सुना देती है। वेश्या कपिला और अभयमती की हँसी उड़ाते हुए कहती है—
‘‘पंडिता! अब तू मेरी कला देख, यदि मैं उस सुदर्शन मुनि को देख लूँगी तो अवश्य ही उसके तप को समाप्त कर दूँगी। यह विश्वास रख।
उधर विमलवाहन आचार्य अपने चतुर्विध संघ के साथ चंपापुर से विहार कर देते हैं। सुदर्शन मुनि कुछ ही दिनों में समस्त आगम के ज्ञाता होकर गुरु की आज्ञा से एकाकी विहार करने लगते हैं। वे अनेक तीर्थ स्थानों की वंदना करते हुए पटना शहर में पहुँचते हैं। वहाँ आहार के लिए निकलते हैं। अकस्मात् पंडिता धाय की दृष्टि उन पर पड़ती है वह दौड़ी हुई जाकर देवदत्ता वेश्या को कहती है—
‘‘अरे चतुरे! देख यही वह सुदर्शन सेठ है जिसने अपने मंत्र के प्रभाव से चंपापुर में धर्म का चमत्कार दिखलाया है।’’
देवदत्ता अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार एक दासी को भेजकर सुदर्शन का पड़गाहन कराती है। सुदर्शन मुनि उस दासी को श्राविका समझ कर वहाँ पर खड़े हो जाते हैं। फिर उन्हें वह भीतर ले जाकर कमरे में बैठने के लिए निवेदन करती है। उसी समय देवदत्ता वहाँ आ जाती है और कहती है—
‘हे भद्र! तुम अभी तरुण हो, तुम्हें शरीर को कष्ट दे कर इस तप से क्या प्रयोजन है ? मेरे पास बहुत-सा धन है। तुम उसके स्वामी बनकर मेरे साथ काम सुखों का अनुभव करो।’
‘हे मूर्ख! यह शरीर अपवित्र है, दु:खों का घर है, मल, मूत्र, वात, पित्त, कफ आदि से भरा हुआ है और नश्वर है। इसे सुख नहीं किन्तु ‘सुख की’ कल्पना मात्र ऐसे भोगों का साधन बनाना उचित नहीं है।’
वेश्या कहती है—
‘महानुभाव! इस तरुणाई को विषय सुखों से सफल करके पुन: वृद्धावस्था में तप करते हुए नीरस जीवन बिताना ही सनातन परंपरा है। अत: अभी आपको भोग सुखों का आस्वादन करना ही चाहिए।’
मुनि कहते हैं—
‘हे भद्रे! कौन ऐसा बुद्धिमान है जो कि सरसों के बराबर किंचित् भोग सुख के लिए मेरुपर्वत के समान इतने विशाल दु:खों को आमंत्रित करेगा ? पहली बात तो भोग स्वयं हालाहल विष के समान हैं पुन: व्यभिचार तो एक सबसे बड़ा महापाप है। अगर हमें भोगों में ही सुख दिखता तो अपनी पत्नी को छोड़कर मुनि क्यों बनते ?’
वेश्या कहती है—
‘वर्तमान के सुखों को छोड़कर शरीर को सुखाने से भविष्य में क्या सुख मिलेगा ? भला जिन कारणों से तत्काल में ही दु:ख मिल रहा हो उनसे आगे सुख की प्राप्ति वैâसे हो सकती है ?’
मुनिराज उत्तर देते हैं—
‘अरी मुग्धे! किंपाक का फल देखने में बड़ा सुंदर और खाने में मधुर होता है किन्तु उसका फल प्राणघातक ही होता है। वैसे ही यह विषय-सुख प्रारंभ में ही सुंदर और मधुर दिखते हैं किन्तु फल देने के काल में नरक निगोदों में डाल देते हैं और फिर व्यभिचार के पाप से बढ़कर तीन लोक और तीन काल में न कोई पाप हुआ है और न होगा ही। यदि तुझे भोगों की ही इच्छा थी तो किसी कुलीन पुरुष से विवाह करके गृहस्थाश्रम के भोग सुखों का अनुभव करती।…..किन्तु हाय ? इस पापवासना से अपने आपको स्वयं तू अनंत-अनंत दु:खों का स्थान ऐसा नरक और जहाँ से अनंत कालों तक निकलना कठिन है ऐसे निगोद स्थान का पात्र बना रही है। अत: तू पापवासना को छोड़ और पवित्र ब्रह्मचर्य का पालन कर, जिससे परलोक में देवी पर्याय को प्राप्त कर चिरकाल तक देव के साथ इंद्रिय सुख को भी भोग सकेगी। पुन: परंपरा से आत्मा के सुख का यदि तुझे आस्वाद मिल जायेगा तो तुझे संसार के इंद्रिय सुख दु:ख-रूप ही प्रतिभासित होने लगेंगे।’
वेश्या कहती है—
‘हे साधु! इस उपदेश को बस कर, अब तो तुम सरलता से मेरे साथ भोग करो तो ठीक, अन्यथा मैं बलात् ही तुमसे काम सेवन करूँगी।’
इतना कहकर वह अपने घर के दरवाजे बंदकर मुनि को उठाकर शय्या पर बिठा देती है। मुनिराज उपसर्ग आया समझकर मन में नियम कर लेते हैं कि—
‘इस उपसर्ग के दूर होने पर ही मैं आहार-विहार करूँगा अन्यथा मेरे चतुराहार का त्याग है।
साथ ही वे यह भी नियम ले लेते हैं कि—
‘यदि इस उपसर्ग का निवारण हो जावेगा त्ाो भी अब मैं नगर में विचरण नहीं करूँगा। वन में रहकर ही आत्मध्यान करूँगा।’
वह दुष्टा वेश्या नाना प्रकार की कुचेष्टाओं द्वारा सुदर्शन को चलायमान करने का प्रयास करती है। बलात् उपभोग करने की चेष्टा करती है किन्तु वे मुनिराज कछुए के समान अपनी इंद्रियों को संकुचित करके अपनी आत्मा से शरीर को भिन्न समझते हुए बारह भावनाओं का चिंतवन कर रहे हैं। वह वेश्या इस तरह तीन दिन, दो रात्रि पर्यंत नाना प्रकार की पीड़ा देती है, डर दिखाती है और काम को उद्दीपन करने वाले अनेक कारण को उपस्थित करती है।
जब वह सर्वथा ही असफल हो जाती है तब तीसरे दिन की रात्रि में उन्हें उठाकर ले जाकर पटना शहर के बाहर श्मशान में खड़ा कर देती है। सुदर्शन मुनि श्मशान में प्रतिमायोग से स्थित हुए शुद्धात्मा का अवलोकन कर रहे हैं।
इसी रात्रि में आकाश मार्ग से जाती हुई एक व्यंतरी का विमान उनके ऊपर रुक जाता है आगे नहीं बढ़ता है। वह व्यंतरी (अभयमती रानी का जीव) नीचे उतर कर देखती है और सुदर्शन को देखते ही क्रोध व अहंकार से चूर हो कहती है—
‘‘अरे दुर्मूर्ख! तूने अहंकार में आकर मेरी बात नहीं मानी थी और मुझे अपयश का पात्र बनाया था। देख, तेरे लिए आर्तध्यान से मरकर मैं व्यतंरी हुई हूँ। अब मैं तुझे मजा चखाऊँगी। उस समय तो किसी देव ने तेरी रक्षा की थी अब मैं देखती हूँ यहाँ तेरी रक्षा करने वाला कौन है ?’’
सुदर्शन मुनि समझ लेते हैं कि पुन: मुझ पर उपसर्ग आ चुका है। अत: वे पुनरपि उपसर्ग दूर होने तक चतुराहार का त्याग कर आत्म चिंतवन में लीन हो जाते हैं। वह व्यंतरनी विकराल डाकिनी का रूप बनाकर अपनी विक्रिया से आंधी, तूफान, पत्थर बरसाना आदि अनेक प्रकार के घोर उपद्रव शुरू कर देती है।
कभी-कभी वह स्त्रियों के हाव, भाव, विलास, विभ्रम, नृत्य, गान आदि करते हुए उन्हें ब्रह्मचर्य से च्युत करने का प्रयत्न करती है। पुन: असफल होकर मारना, पीटना, बांधना आदि कष्टों के द्वारा उन्हें बाधा पहुँचाती है। वह व्यंतरी सात दिनों तक घोर उपसर्ग करती रहती है। अकस्मात् चंपापुर में सुदर्शन की रक्षा करने वाला वही यक्ष उधर आ जाता है और ‘सुदर्शन मुनि पर पुनरपि वह रानी का जीव व्यंतरी होकर उपसर्ग कर रहा है’ समझकर वहीं ठहर जाता है। वह उस व्यंतरी के सामने आकर ललकारता है।
‘अरे अभयमती! देख, तूने ऐसा दुष्कृत्य किया है कि जिससे राजकुल को ही कलंकित नहीं किया है बल्कि युग-युग के लिए कुलटा नारियों में अपना नाम अमर कर दिया है। कुछ अकामनिर्जरा के पुण्य से तुझे यह व्यंतरी योनि मिल गई है अब पुन: तू इन महामुनि पर दारुण उपसर्ग कर ऐसे निकाचित कर्मों को बाँध रही है कि शायद जिसका फल तुझे एकेंद्रिय पर्याय में ले जावे और वहाँ से पुन: तुझे निगोदवास में डाल दे।…अरे मूर्खे! अपने आप तू अपने परलोक को क्यों बिगाड़ रही है ?
वह व्यंतरनी कहती है—
‘‘अरे यक्ष! तूने उस समय अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया था और अब तुझे मालूम होना चाहिए कि मैं भी देवयोनि में आ चुकी हूँ, अत: मैं तुझे भी परास्त करने में समर्थ हूँ अत: अब तू बकवास मत कर, यहाँ से भाग जा, मुझे इस मेरे शत्रु से निपट लेने दे।’’
यक्ष कहता है—
‘‘हे भद्रे! मैं तेरे हित की बात कहता हूँ सो मान ले अन्यथा मेरे आगे तेरी कितनी शक्ति है सो अभी पता चल जायेगा।’’
व्यंतरी कहती है—
‘‘मैं जब तक इसके अहंकार को चूर्ण नहीं कर दूँगी तब तक इसका पीछा नहीं छोडूँगीं। इसने जैसे मुझे अपकीर्ति का भाजन बनाया है ऐसे ही मैं भी दुर्गति का भाजन बनाऊँगी। यह उपसर्ग से घबड़ाकर जब दुर्ध्यान से मरकर दुर्गति में चला जायेगा तभी मैं शांति ग्रहण करुँगी।’
पुन: वह विक्रिया से गर्जती हुई मुँह से अग्नि उगलते हुए सुदर्शन की तरफ दौड़ती है कि यक्ष अपनी गर्जना से उसे पराजित कर देता है। तब वह हारकर अंत में वहाँ से भाग जाती है।
इधर उपसर्ग से रंचमात्र भी विचलित न होने वाले महामुनि सुदर्शन आत्मध्यान से विशुद्धि बढ़ाते हुए शुक्लध्यान में आरूढ़ हो जाते हैं। देखते ही देखते मोहनीय कर्म का नाश कर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्मों को भी निर्मूल कर देते हैं। उसी समय उनके अंदर केवलज्ञानरूपी सूर्य उदित हो जाता है। स्वर्ग में देवों के आसन कम्पायमान हो जाते हैं, वे अवधिज्ञान से सारा समाचार विदित कर वहाँ आ जाते हैं। अर्धनिमिष मात्र में वहाँ गंधकुटी की रचना कर देते हैं। महामुनि सुदर्शन केवलज्ञान प्रगट होते ही इस पृथ्वीतल से ५००० धनुष (२०००० हाथ) ऊपर आकाश में अधर पहुँच जाते हैं और वहाँ पर देवों द्वारा रची गई गंधकुटी के मध्य कमलासन पर अधर विराजमान हो जाते हैं।
यह यक्षदेव भक्ति से गद्गद हो केवली भगवान की पूजा कर अपने जीवन को धन्य समझता है। पटना शहर के राजा अपने अंत:पुर परिवार और प्रजा के साथ आकर भगवान् केवली का दर्शन करके उनकी पूजा करते हैं। इस अतिशय को देखकर वह व्यंतरी भी वहाँ आती है और गंधकुटी के मध्य विराजमान सुदर्शन केवली के सन्मुख शांतचित होकर अपने अपराधों की क्षमा याचना करते हुए सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लेती है। पंडिता धाय और देवदत्ता भी वहाँ आकर अपने दुष्टकृत्यों का प्रायश्चित करते हुए सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लेती हैं तथा अपने योग्य व्रतों को भी धारण कर लेती हैं।
सुदर्शन मुनि के केवलज्ञान का समाचार स्ाुनकर चम्पापुर से मनोरमा भी अपने पुत्र सुकांत के साथ वहाँ आती है। केवली भगवान् का दर्शन करके सुकांत को गृहस्थोचित शिक्षा देकर आप आर्यिका के व्रत ग्रहण कर लेती हैं। अन्य कितने ही भव्य जीव मुनि, आर्यिका हो जाते हैं कितने ही श्रावक-श्राविकाओं के व्रत ग्रहण कर लेते हैं।
सुदर्शन केवली अंत में अघातिया कर्मों को भी नष्ट कर पौष शुक्ला पंचमी के दिन निर्वाण धाम को प्राप्त कर लेते हैं। असंख्य देव-देवियों के साथ इंद्र आकर सुदर्शन मुनि का निर्वाण महोत्सव मनाते हैं। तभी से वह पुण्यस्थल तीर्थ बन जाता है।
स्त्री परीषह को जीतने वाले शीलधुरंधर सुदर्शन केवली अपने आश्रित भव्यजीवों को अपने ही समान शीलधुरंधर बनावें और इस चारित्र को पढ़ने-सुनने वाले भी सुदर्शन सेठ का अनुसरण करते हुए अपने जीवन को पवित्र बनावें यही इस कथा को लिखने का सार है।