(८५)
श्री अनंतवीर्य केवली ने, इक बार भविष्यवाणी की थी।
सुनकर चल दिये रामलक्ष्मण, उस कोटिशिला की पूजा की।।
सिद्धों को नमस्कार करके, लक्ष्मण ने उसको उठा लिया।
तब देवों ने की पुष्पवृष्टि, और दोनों का सम्मान किया ।।
(८६)
सबने आपस में कर विमर्श, फिर हनूमान को बुलवाया।
श्री रामचंद्र ने अंगूठी, देकर लंका में भिजवाया।।
जब पहुँचे लंका के सन्मुख, उनकी सेना की गति रुकी।
मायावी रचना देख समझ, घुस गये गदा ले ‘‘शैलश्री’’।।
(८७)
लड़कर सारी बाधाओं से, वे लंका नगरी में पहुंचे।
पहले वे मिले विभीषण से, जो सीता दुख से दुखी दिखे।।
बोले सीताजी दस दिन से, आहार छोड़कर बैठी हैं।
फिर भी विरक्ति नहीं रावण को, विपरीत हो गयी बुद्धि है।।
(८८)
यह सुन दयाद्र्र हो हनूमान, सीधे पहुँचे उस उपवन में।
जहाँ रामदेव की प्राणप्रिया, बैठी थी चिंतित सी मन से।।
उनका ये सुन्दर रूप देख, हनुमान सोचने लगे अहो!।
ऐसा सौंदर्य स्वर्ग की भी, शायद ही बालाओं में हो।।
(८९)
वे समझ गये क्यों पागल है, रावण जैसा भी बलशाली।
फिर भी जो अपनी चीज नहीं, उसकी न चाह करें ज्ञानी।।
यह सोच पवनसुत हनूमान, ने रामचंद्र की अंगूठी।
उनकी गोदी में डाल दिया, सहसा सीता मुस्कुरा उठी।।
(९०)
सीता को खुशी देख करके, वो चली सुनाने समाचार।
तब आयी मंदोदरी वहाँ, और माना सीता का आभार।।
हे सीते! चलकर रावण की, सेवाकर यौवन सार्थक कर।
सीता तब क्रोधित हो बोली, ना समझ सकी नारी होकर।।
(९१)
मैं हूँ प्रसन्न इसलिए मुझे, मेरे पति का संदेश मिला ।
सिंदूर तेरा मिटने वाला, रह जायेगा ना किला—विला।।
सब विद्याधरियाँ यह सुनकर, बोली इसे वायुरोग हुआ।
यह क्षुधा रोग से पीड़ित है, इसलिए नहीं कुछ सूझ रहा।।
(९२)
सीता ने कहा बंधु मेरे, जो भी हो आकर दर्शन दो।
तत्क्षण हनुमान हाथ जोड़े, हो गये खड़े मां आज्ञा दो।।
श्रीराम चंद्र ने भेजा है, वह विरह अग्नि से घायल है।
तुम बिन वह स्वर्ग सदृश वैभव, अरु सूना मन का आँगन है।।
(९३)
उनसे पिछली बातें सुनकर, विश्वास प्राप्त करके सीता।
इक क्षण को हर्ष हुआ मन में, दूजा क्षण दुख में था बीता।।
प्राणों की रक्षा की खातिर, हनुमान प्रार्थना करते हैं।
हे माते! भोजन ग्रहण करो, श्रीराम तभी मिल सकते हैं।।
(९४)
हनुमान स्वयं निज हाथों से, सीता को भोजन करवाया।
कुछ क्षण पश्चात कहा देवी, चलने का अवसर आया।।
कंधे पर मेरे बैठ जाएँ, श्रीराम निकट ले चलता हूँ।
अब कुछ भी कष्ट नहीं होगा, यह आज वचन मैं देता हूँ ।।
(९५)
तब सीता बोली हे भ्राता !, इस तरह उचित न लगता है ।
मेरे स्वामी आकर मुझको, ले जाये यही अब जँचता है।।
अपने मस्तक का चूड़ामणि, देकर सीता ने पुन: कहा।
हे भद्र ! जरा जल्दी जाकर, स्वामी को सब कुछ विदित करा।।
(९६)
पर तभी किंकरों ने आकर, घेरा शस्त्रों से युद्ध किया ।
कर दिया पराजित सबको था, पर इंद्रजीत ने बांध लिया।।
यद्यपि हनुमान छूट सकते थे, नागपास के बंधन से ।
लेकिन उत्सुकता रावण से, मिलने की अत: स्वयं बंध के ।।
(९७)
रावण बोले धिक्कार तुझे, जिससे वृद्धी को प्राप्त हुआ ।
बन गया आज शत्रू उसका, निर्लज्ज कृतघ्नी मुख न दिखा ।।
तुझको कुछ शर्म नहीं आती, जो भूमीचर का दूत बना।
इस तरह वचन रावण के सुन, उसको भी आया क्रोध घना।।
(९८)
फिर भी रावण को समझाया, तब वे क्रोधित हो भड़क उठे।
रहने दे अपनी विद्वत्ता, तू नहीं पवनसुत पता चले।।
हनुमान गरजकर तब बोले, लगता है अन्त समय आया।
अपकीर्ति पताका को वरना, इस तरह नहीं तू फहराता।।
(९९)
यह सुन रावण ने आज्ञा दी, इसे बाँध नगर में घुमवाओ।
सब नगर निवासी भी जानें इसलिए ढ़ोल भी बजवाओ।।
निज स्वामी संग विश्वासघात का, दंड इसे मिलना चाहिए।
मेरे शत्रू का दूत बना, इसका फल भी चखना चाहिए।।
(१००)
क्रोधित होकर हनुमान चले, ना कोई बंधन रोक सका।
पैरों से चूर्ण—चूर्ण करके, क्या हाल किया था लंका का ।।
जब सुना पराक्रम सीता ने, उसको मंगल आशीष दिये।
हो पूर्ण मनोरथ सब तेरे, जो कार्य प्रभू ने तुझे दिये।।
(१०१)
हनुमान पहुँचकर पलभर में, श्रीराम चरण में झुक करके ।
सीता का हाल बयान किया, तब हृदय लगाया रघुवर ने।।
क्या सचमुच में तुमने मेरी, सीता को देखा मेरे भ्रात!।
वे बार—बार ये पूछ रहे, कैसे संकट में धरे प्राण।।
(१०२)
सीता का चूड़ामणि देकर, तब बोले प्रभु से हनूमान।
वे सिर्प आपका ध्यान करें, रो—रोकर आँखें हुई लाल।।
जब सुना आपका समाचार, तब ही था भोजन ग्रहण किया।
रावण की सुख—सुविधाओं का, ना किंचित् भी उपभोग किया।।
(१०३)
इस तरह सभी बातें सुनकर,थी प्रिया मिलन की आश जगी।
हर चुभन हँसी हर घुटन हँसी, हर आँसू में मुसकान खिली।।
सब विद्याधर से कर विमर्श, वे लगे युद्ध तैयारी में।
था शुभ मुहूर्त सूर्योदय का, प्रस्थान किया उस नगरी से।।
(१०४)
उस समय कई शुभ शकुनों ने, उनका उत्साह बढ़ाया था।
घंटे की मधुर ध्वनी बजती, दधिपात्र सामने आया था।
सब साथ प्रमुख राजागण थे, हनुमान—सुग्रीव—नील आदि ।
सबकी सेवाओं के मधि में, शोभित होते थे रामबली।।