सूत्रार्थ —दर्शनविशुद्धता, विनयसम्पन्नता, शील-व्रतों में निरतिचारता, छह आवश्यकों में अपरिहीनता, क्षण-लवप्रतिबोधनता, लब्धि-संवेगसम्पन्नता, यथाशक्ति तप, साधुओं को प्रासुकपरित्यागता, साधुओं की समाधिसंधारणता, साधुओं की वैयाव्रत्ययोगयुक्तता, अरहंतभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावनता और अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता, इन सोलह कारणों से जीव तीर्थंकर नाम-गोत्रकर्म को बांधते हैं।।४१।।’
श्री उमास्वामी आचार्य ने निम्न प्रकार से सोलहकारण भावनाओं के नाम लिए हैं। वर्तमान में इन्हीं भावनाओं का क्रम प्रसिद्ध है—
अर्थ — दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और व्रतों में अतिचार न लगाना, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग और संवेग, यथाशक्तित्याग और तप, साधुसमाधि, वैयावृत्य, अर्हदभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना और प्रवचनवत्सलता इन १६ भावनाओं से तीर्थंकर नाम प्रकृति का आस्रव होता है।
विशेषार्थ —इन भावनाओं में दर्शनविशुद्धि मुख्य भावना है। उसके अभाव में सबके अथवा यथासंभव हीनाधिक होने पर भी तीर्थंकर प्रकृति का आस्रव नहीं होता और उसके रहते हुए अन्य भावनाओं के अभाव में भी तीर्थंकर प्रकृति का आस्रव होता है।
षट्खंडागम ग्रन्थराज एवं तत्त्वार्थसूत्र में कथित सोलहकारण भावनाओं में अन्तर–षट्खंडागम, दर्शनविशुद्धता, विनयसंपन्नता, शीलव्रतों में निरतिचारता, छह आवश्यकों में अपरिहीनता , क्षणलवप्रतिबोधनता, लब्धिसंवेगसंपन्नता, यथा शक्तितप, साधुओं को प्रासुक परित्यागता, साधुओं की समाधिसंधारणता, साधुओं की वैयावृत्ति योगयुक्तता, अरिहंतभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकअपरिहाणि, प्रवचनप्रभावनता, अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता तत्त्वार्थसूत्र, दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शीलव्रतों में अनतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग , शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति , बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचनवत्सलता, मार्गप्रभावना, प्रवचनवत्सलत्व|