थोस्सामि हं जिणवरे, तित्थयरे केवली अणंतजिणे।
णरपवरलोयमहिए, विहुयरयमले महप्पण्णे।।
(चौबीस तीर्थंकर भक्ति गाथा-१)
—शंभु छन्द—
श्री जिनवर तीर्थंकर केवलज्ञानी, अर्हत्परमात्मा हैं।
जो हैं अनन्तजिन मनुजलोक में, पूज्य परम शुद्धात्मा हैं।।
निज कर्म मलों को धो करके, जो महाप्राज्ञ कहलाते हैं।
ऐसे जिनवर की स्तुति कर, चरणों में शीश झुकाते हैं।।
अर्थ—जो जिनवर—कर्मशत्रु को जीतने वालों में श्रेष्ठ हैं, केवली—केवलज्ञानी हैं, अनंतजिन—अनंत संसार को जीतने वाले हैं, नरप्रवरलोकमहित—लोक में श्रेष्ठ चक्रवर्ती आदि से पूजित हैं, विधुतरजोमल—ज्ञानावरण—दर्शनावरण नामक रजरूपी मल को धो चुके हैं और महाप्राज्ञ—सर्वोत्कृष्ट ज्ञानी हैं, ऐसे तीर्थंकरों की मैं स्तुति करूँगा।
भावार्थ—श्री कुन्दकुन्ददेव ने तीर्थंकर भक्ति आदि दश भक्तियाँ बनाई हैं जिनमें से मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका के कृतिकर्म में प्रत्येक भक्ति की प्रारम्भ विधि में इस ‘थोस्सामि’ स्तव को पढ़ा जाता है। यह चौबीस तीर्थंकर भक्ति है। इसे ‘थोस्सामि स्तव’ से भी जाना जाता है।
लोयस्सुज्जोययरे, धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे।
अरहंते कित्तिस्से, चउवीसं चेव केवलिणो।।
(चौबीस तीर्थंकर भक्ति गाथा-२)
निजज्ञान किरण के द्वारा जो, त्रैलोक्य ज्ञेय उद्योत करें।
उन धर्म तीर्थकर्त्ता जिन का, वंदन निज में सुख स्रोत भरे।।
अरहंत अवस्था प्राप्त केवली, जितने भी तीर्थंकर हैं।
उन त्रैकालिक चौबिस जिनवर का, वंदन सबको सुखकर है।।
अर्थ—लोक को प्रकाशित करने वाले, धर्मरूपी तीर्थ के कर्त्ता जिनवरों की मैं वंदना करता हूँ और अर्हंत पद को प्राप्त, केवलज्ञानी चौबीस तीर्थंकरों की मैं स्तुति करता हूँ।
भावार्थ—भरतक्षेत्र और ऐरावतक्षेत्र के आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। इनमें से चौथे काल में चौबीस तीर्थंकर होते हैं। ढाई द्वीप में पाँच भरत, पाँच ऐरावत हैं। विदेह एक सौ साठ हैं, इनमें हमेशा ही चतुर्थकाल की व्यवस्था रहने से तीर्थंकर होते ही रहते हैं अत: एक साथ यदि अधिकतम तीर्थंकर भगवान होवें तो एक सौ सत्तर (१७०) हो सकते हैं, उन सबको मेरा नमस्कार होवे।
उड्ढमहतिरियलोए, छव्विहकाले य णिव्वुदे सिद्धे।
उवसग्गणिरुवसग्गे, दीवोदहिणिव्वुदे य वंदामि।।
(सिद्धभक्ति गाथा-३)
जो ऊर्ध्व-अधो अरु मध्यलोक से, सिद्ध हुए शुद्धात्मा हैं।
सुषमा आदिक छह कालों में, निर्वाण प्राप्त सिद्धात्मा हैं।।
उपसर्ग सहन करके अथवा, उपसर्ग बिना जो शुद्ध हुए।
मैं नमन करूँ सब सिद्धों को, जो द्वीप उदधि से सिद्ध हुए।।
अर्थ—जो ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक्लोक से सिद्ध हुए हैं, जो सुषमा-सुषमा आदि छह कालों में निर्वाण को प्राप्त हुए हैं, जो उपसर्ग सहन कर या बिना उपसर्ग से सिद्ध हुए हैं तथा जो द्वीप अथवा समुद्र से निर्वाण को प्राप्त हुये हैं ऐसे समस्त सिद्धों की मैं वंदना करता हूँ।
भावार्थ—इस सिद्धभक्ति में बारह गाथाओं द्वारा श्री कुन्दकुन्ददेव ने भूत नैगमनय से नाना भेद को प्राप्त सिद्धों की वन्दना की है। इसे पढ़कर प्रथमानुयोग का स्वाध्याय करके इन सिद्धों के भेदों को समझना चाहिये। ऊर्ध्वलोक और अधोलोक से या छहों कालों से जो सिद्ध होते हैं, वे संहरण सिद्ध कहलाते हैं। किसी ने उन्हें उठाकर ऐसे स्थलों पर छो़ड़ा, वहीं से केवली होकर मोक्ष चले गये ऐसे ही समुद्रों से समझना।
अरुहा सिद्धाइरिया, उवज्झाया साहु पंचपरमेट्ठी।
एयाण णमुक्कारा, भवे भवे मम सुहं िंदतु।।
(पंचपरमगुरु भक्ति गाथा-७)
अर्हंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय, साधु पंचपरमेष्ठी हैं।
इन पाँचों की भक्ती भव-भव में, हब सबको सुख देती है।।
इन पंचपरमगुरु भक्ती में, श्री कुन्दकुन्द भी लीन हुए।
हम भी उनसे प्रेरित होकर, जिनवर भक्ती को किया करें।।
अर्थ—अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच परमेष्ठी हैं। इन पाँचों को किया गया नमस्कार भव-भव में मुझे सुख प्रदान करे।
भावार्थ—पंचपरमगुरुभक्ति करते हुए श्रीकुन्दकुन्ददेव ने सुख की याचना की है। ऐसे महान आचार्य भी भक्ति और उसका फल सुख की प्राप्ति की भावना रखते हैं अत: हम और आप सभी को भी भगवान की और गुरुओं की भक्ति करके सच्चे सुख की भावना करते रहना चाहिये।
अट्ठावयम्मि उसहो, चंपाए वासुपुज्जजिणणाहो।
उज्जंते णेमिजिणो, पावाए णिव्वुदो महावीरो।।
(निर्वाणभक्ति गाथा-१)
अष्टापद से श्री वृषभदेव, अरु वासुपूज्य चंपापुरि से।
गिरनारगिरी से नेमिनाथ, अरु महावीर पावापुरि से।।
निर्वाणधाम को प्राप्त जिनेश्वर, को मैं वंदन करता हूँ।
श्री कुन्दकुन्द गुरु के सदृश, निर्वाणभक्ति मैं करता हूँ।।
अर्थ—भगवान ऋषभदेव वैâलाश पर्वत से, भगवान वासुपूज्य चंपापुरी से, भगवान नेमिनाथ गिरनार पर्वत से और भगवान महावीर स्वामी पावापुरी से निर्वाण को प्राप्त हुए हैं।
भावार्थ—‘इनको मैं नमस्कार करता हूँ’ यह क्रिया आगे है। इसी निर्वाण भक्ति में पंचकल्लाणठाणि वि कहकर पंचकल्याणक से पवित्र क्षेत्रों की, पर्वतों की और अतिशय क्षेत्रों की वंदना की है। श्री गौतम स्वामी ने भी अष्टापद पर्वत आदि तीर्थों की वंदना की है। वास्तव में भगवान के कल्याणक आदि से पवित्र स्थल और तिथियाँ भी पूज्य बन जाती हैं।
वीसं तु जिणवरिंदा, अमरासुरवंदिदा धुदकिलेसा।
सम्मेदे गिरिसिहरे, णिव्वाणगया णमो तेिंस।।
(निर्वाण भक्ति गाथा-२)
सम्मेदशिखर पर्वत से बीस, जिनेश्वर मोक्ष पधारे हैं।
सब कर्मक्लेश को धो करके, लोकाग्र शिखर पर राजे हैं।।
अमरासुर से वंदित वे प्रभु, उन सबको मेरा वंदन है।
व्यवहार नयाश्रित तीर्थंकर के, मुक्तिधाम को वंदन है।।
अर्थ—श्री अजितनाथ से लेकर शेष बीस तीर्थंकर सुर-असुर, इन्द्रों से वंदित होते हुए कर्मों से छूटकर सम्मेदशिखर पर्वत से निर्वाण को प्राप्त हुए हैं। इन सभी चौबीस तीर्थंकरों को मेरा नमस्कार होवे।
भावार्थ—निर्वाण क्षेत्रों के नामों का उच्चारण करके जो निर्वाणभक्ति की गयी है वह व्यवहारनय के आश्रित ही है। श्रीकुन्दकुन्ददेव यहाँ स्वयं व्यवहारनय से भक्ति करते हुए महामुनियों के लिये भी व्यवहारनय की उपयोगिता को सिद्ध कर रहे हैं, पुन: अविरती और श्रावकों के लिये तो व्यवहारनय के आश्रित भक्ति, पूजा, वंदना आदि क्रियाएं उपयोगी हैं ही, यह निष्कर्ष निकलता है।
देसकुलजाइसुद्धा, विसुद्धमणवयणकायसंजुत्ता।
तुम्हं पायपयोरुहमिह, मंगलमत्थु मे णिच्चं।।
(आचार्यभक्ति गाथा-१)
जो देश जाति-कुल से विशुद्ध, होकर जिनदीक्षा लेते हैं।
मन-वचन-काय की शुद्धि से, संयुत मुनिदीक्षा लेते हैं।।
इन गुण से युत आचार्यप्रवर, तुम चरण कमल मंगलकारी।
होवें सदैव मेरे जीवन के, लिये तथा जनहितकारी।।
अर्थ—देश-कुल और जाति से शुद्ध, विशुद्ध तथा मन-वचन-काय से संयुक्त हे आचार्यवर्य! आपके चरणकमल नित्य ही मेरे मंगल के लिये होवें।
भावार्थ—यहाँ यह समझना कि कुल और जाति को माने बिना कुल, जाति से शुद्धि नहीं बन सकती है अत: सज्जातीयत्व के बिना दिगम्बर मुनि नहीं हो सकते हैं। यह बात भी श्रीकुन्दकुन्ददेव के शब्दों से स्पष्ट हो जाती है। सज्जाति, सद्गृहस्थ, पारिव्राज्य, सुरेन्द्रता, साम्राज्य, आर्हंत्यपद और निर्वाण ये सात परम-स्थान हैं। इनमें से सज्जाति के बिना आगे कोई भी स्थान प्राप्त नहीं हो सकते हैं।
एवं मए अभित्थुया, अणयारा रागदोसपरिसुद्धा।
संघस्स वरसमािंह, मज्झवि दुक्खक्खयंदिंतु।।
(योगभक्ति गाथा-२३)
इस विधि मेरे द्वारा संस्तुत, रागद्वेषादि रहित मुनिवर।
वर बोधि-समाधी दो मुझको, चउविधि संघ को तुम हे यतिवर!।
मेरे भी दु:खों का क्षय करके, सिद्धगती दिलवा दीजे।
मुझ कुन्दकुन्द का हृदय कमल, निज ज्ञान किरण से भर दीजे।।
अर्थ—इस प्रकार मेरे द्वारा स्तुत तथा रागद्वेष से रहित—विशुद्ध अनगार—मुनिगण संघ को उत्तम समाधि प्रदान करें और मेरे भी दु:खों का क्षय करें।
भावार्थ—योगभक्ति में आचार्यदेव ने तेईस गाथाओं द्वारा सर्व प्रकार से तपस्वी मुनियों की वंदना करके याचना की है कि वे सर्वमुनिगण संघ को समाधि धर्मध्यान की सिद्धि प्रदान करें। इससे स्पष्ट हो जाता है कि ये बहुत बड़े चतुर्विध संघ के आचार्य थे, एकाकी नहीं थे।
एवमए सुदपवरा, भत्तीराएण संत्थुया तच्चा।
सिग्घं मे सुदलाहं, जिणवरवसहा पयच्छंतु।।
(श्रुत भक्ति गाथा-११)
हे जिनवर मैंने भक्तिराग से, श्रुतसागर में रमण किया।
जो द्वादशांगमय श्रेष्ठ आपकी, वाणी में मैं मगन हुआ।।
उस जिनवाणी की भक्ती से, मैं शीघ्र ज्ञान का लाभ करूँ।
अज्ञान हटाकर आत्मा का, मैं आत्म लाभ को प्राप्त करूँ।।
अर्थ—इस प्रकार मैंने ‘भक्ति के राग’ से द्वादशांगरूप श्रेष्ठ श्रुत का स्तवन किया है। जिनवर वृषभदेव या जिनवरों में श्रेष्ठ सभी तीर्थंकर देव मुझे शीघ्र ही श्रुत का लाभ देवें।
भावार्थ—श्रुतभक्ति की ग्यारह गाथाओं में द्वादशांगरूप श्रुत की वंदना करके आचार्यदेव ने श्रुत के लाभ की याचना की है तथा यह भी कहा है कि मैंने ‘भक्तिराग’ से स्तवन किया है। टीकाकार श्रीप्रभाचन्द्राचार्य ने ‘‘भक्तानुरागाभ्यां—श्रद्धाप्रीतिभ्यां’’ भक्ति और अनुराग—‘श्रद्धा और प्रीति से’ ऐसा अर्थ किया है जिससे श्रीकुन्दकुन्ददेव भी भक्ति के राग से सहित थे, ऐसा स्पष्ट हो जाता है।
आरोग्ग बोहिलाहं, दिंतु समािंह च मे जिणविंरदा।
किं ण हु णिदाणमेयं, णवरि विभासेत्थ कायव्वा।।
(मूलाचार गाथा-५६८)
जिनदेव मुझे आरोग्य लाभ, अरु बोधि-समाधि प्रदान करें।
ऐसी स्तुति का भाव कहो, क्या निंह निदान परिणाम करें।।
यह तो वैकल्पिक भाषा है, जिनवर की स्तुति करने में।
यह निंह निदान का बन्ध करे, मुक्ती का कारण है सच में।।
अर्थ—वे जिनेन्द्रदेव मुझे आरोग्य, बोधि का लाभ और समाधि प्रदान करें। क्या यह निदान नहीं है ? अर्थात् नहीं है, यह तो मात्र वैकल्पिक भाषा है, ऐसा समझना।
भावार्थ—जिनेन्द्रदेव से आरोग्य लाभ—जन्म-मरण का अभाव, बोधिलाभ—जिनागम का श्रद्धान या दीक्षा लेने का परिणाम और समाधिमरण के समय धर्मध्यानरूप परिणाम, इनकी याचना करना निदान नहीं है यह एक भक्ति की भाषा का प्रकार है।
भासा असच्चमोसा, णवरि हु भत्तीय भासिदा एसा।
ण हु खीणरागदोसा, दिंति समािंह च बोिंह च।।
(मूलाचार गाथा-५६९)
याचनारूप संस्तुति असच्चमोसा, भाषा कहलाती है।
यह भाषा केवल भक्ती करने, के प्रयोग में आती है।।
रागद्वेषादि रहित जिनवर, बोधी-समाधि नहीं देते हैं।
परिणामविशुद्धी के बल पर, वे भक्त उन्हें पा लेते हैं।।
अर्थ—पूर्व में की गयी याचना एक असत्यमृषा है, वास्तव में यह केवल भक्ति से कही गयी है क्योंकि रागद्वेष से रहित भगवान समाधि और बोधि को नहीं देते हैं।
भावार्थ—यह बोधि समाधि के लिये की गई याचना न सत्य है, न असत्य है, प्रत्युत् अनुभय भाषा है क्योंकि वीतराग भगवान कुछ भी नहीं देते। यदि वे देने लगेंगे तो रागी-द्वेषी हो जावेंगे किन्तु उनसे याचना करने से फल मिलता ही मिलता है। तात्पर्य यही है कि भक्ति से परिणामों में निर्मलता आने से जो पुण्य बन्ध होता है, उसी से सर्व मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। यह भक्ति मुक्ति की प्राप्ति में भी कारण है।
जं तेिंह दु दादव्वं, तं दिण्णं जिणवरेिंह सव्वेिंह।
दंसणणाणचरित्तस्स, एस तिविहस्स उवदेसो।।
(मूलाचार गाथा-५७०)
जो कुछ भी देने योग्य रहा, सब कुछ जिनवर ने दे डाला।
रत्नत्रय के उपदेशों से, भव्यों को पावन कर डाला।।
जिनके प्रसाद से कितने ही, नर मुक्तिधाम में पहुँच गये।
पर को उपदेशित कर प्रभुवर भी, सिद्धिधाम को प्राप्त किये।।
अर्थ—उनके द्वारा जो देने योग्य था, सभी जिनवरों ने वह दे दिया है। सो वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों का उपदेश है।
भावार्थ—भगवान ने देने योग्य ऐसे रत्नत्रय का उपदेश दिया है जिसके प्रसाद से अनन्त भव्यजीव मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, कर रहे हैं और करते रहेंगे अत: उन्हें अब कुछ भी देना शेष नहीं रहा है फिर भी भव्य जो कुछ माँगते हैं, उनकी वह इच्छा पूर्ण होती ही है।
भत्तीए जिणवराणं, खीयदि जं पुव्वसंचियं कम्मं।
आयरियपसाएण य, विज्जा मंता य सिज्झंति।।
(मूलाचार गाथा-५७१)
जिनवर की भक्ती से भव-भव के, संचित कर्म विनशते हैं।
आचार्यों के प्रसाद से विद्या, मन्त्र सिद्ध नर करते हैं।।
जैसे जिनवर की भक्ति बिना, निंह मुक्ति प्राप्त हो सकती है।
वैसे ही गुरु की भक्ति बिना, निंह मंत्र सिद्धि हो सकती है।।
अर्थ—जिनेन्द्रदेव की भक्ति से पूर्व भवों में संचित कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं और आचार्यों के प्रसाद से विद्या तथा मंत्र सिद्ध हो जाते हैं।
भावार्थ—जिनेन्द्रदेव की भक्ति, पूजा, वंदना, स्तुति आदि पूर्वक उपासना करने से अनंत-अनंत जन्म में संचित अनंतों पाप नष्ट हो जाते हैं और आचार्य, उपाध्याय, साधु आदि दिगम्बर मुनियों की वंदना, भक्ति, स्तुति आदि करने से विद्या-मन्त्र आदि तो सिद्ध होते ही हैं, परम्परा से मुक्ति की प्राप्ति भी हो जाती है। लोक में भी यह नियम है कि बिना गुरु प्रसाद से विद्या और मन्त्रों की सिद्धि नहीं हो सकती।
आइरियउवज्झायाणं, पवत्तयत्थेरगणधरादीणं।
एदेसिं किदियम्मं, कादव्वं णिज्जरट्ठाए।।
(मूलाचार गाथा-५९३)
आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तक, स्थविर तथा गणधर माने।
श्री कुन्दकुन्द ने पाँचों ही, आधार संघ चउ के माने।।
कृतिकर्म सहित इनका वंदन, पापों का नाश कराता है।
निर्जरा पूर्व कर्मों की कर, शुभ कर्म बन्ध करवाता है।।
अर्थ—आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर इनको कृतिकर्म विधिपूर्वक वंदना और भक्ति कर्मों की निर्जरा के लिये करना चाहिये।
भावार्थ—आचार्य, उपाध्याय आदि मुनियों की भक्ति, वंदना, स्तुति से असंख्य पाप कर्मों की निर्जरा हो जाती है अत: गुरुओं की भक्ति सतत करते ही रहना चाहिये। आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर संघ में ये पाँच पद मूलाचार में माने गये हैं।
सम्मत्तणाणचरणे, जो भिंत्त कुणइ सावगो समणो।
तस्स दु णिव्वुदिभत्ती, होदि त्ति जिणेहिं पण्णत्तं।।
(नियमसार गाथा-१३४)
जो श्रावक या मुनि सम्यग्दर्शन, ज्ञान-चरित भक्ती करते।
वे ही निर्वाण भक्ति करके, क्रम से मुक्तीश्री को वरते।।
व्यवहार और निश्चय रत्नत्रय, के अधिकारी मुनि ही हैं।
लेकिन भक्ती के अधिकारी, श्रावक अरु मुनि दोनों ही हैं।।
अर्थ—जो श्रावक या मुनि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में भक्ति करते हैं उनके ही निर्वाण भक्ति-मुक्ति की भक्ति या प्राप्ति होती है, ऐसा श्रीजिनेन्द्रदेव ने कहा है।
भावार्थ—नियमसार ग्रन्थ में श्रीकुन्दकुन्ददेव ने चार अधिकार तक व्यवहार रत्नत्रय का वर्णन किया है पुन: आगे पाँचवें अधिकार से ग्यारहवें अधिकार तक निश्चय रत्नत्रयस्वरूप निश्चय प्रतिक्रमण आदि का वर्णन किया है। इस पूरे ग्रन्थ में परम भक्ति अधिकार में श्रावक का नाम लिया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार और निश्चय रत्नत्रय के अधिकारी मुनि ही हैं किन्तु भक्ति के अधिकारी श्रावक भी हैं और मुनि भी हैं।