किसी भी देश का राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीयगान और राष्ट्रीय संविधान उस देश की आत्मा होते हैं। पूर्ण प्रभुता- सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक देशों में जहाँ भी लिखित संविधान है वहां उनका निर्माण जनता ने प्राय: संविधान सभाओं के माध्यम से ही किया है। भारतीय संविधान निर्माण की कहानी बहुत पुरानी नहीं है। आजादी के आन्दोलन के समय भारतीयों द्वारा ही भारत का संविधान बनाने की मांग समय-समय पर की जाती रही है। स्वराज्य और स्वशासन की माँग के पीछे यह विचार भी किसी न किसी रूप में रहा है कि भारतीय ही अपनी वैधानिक व्यवस्था का निर्माण करें।
भारतीयों द्वारा भारत का संविधान बनाये जाने की स्पष्ट माँग सर्वप्रथम महात्मा गाँधी ने ५ जनवरी, १९२२ को की थी। १९२४ में पं. मोतीलाल नेहरू ने ‘‘राष्ट्रीय माँग’’ नाम से प्रख्यात प्रस्ताव प्रस्तुत किया था, जिसमें गवर्नर जनरल से भारत में पूर्ण उत्तरदायी शासन की स्थापना करने के उद्देश्य से भारत के लिए एक संविधान की योजना संस्तुत करने की माँग की गई थी। ब्रिटिश सरकार ने १९२७ में सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में एक ‘‘भारतीय संविधि आयोग’’ की स्थापना की थी जिसे ‘‘साइमन कमीशन’’ के नाम से जाना जाता है। इस कमीशन में एक भी भारतीय नहीं था अत: इसका व्यापक विरोध हुआ। परिणामस्वरूप १९२७ में ही कांग्रेस के बम्बई और मद्रास अधिवेशनों में एक प्रस्ताव पास हुआ, जिसके अनुसार कांग्रेस कार्यकारिणी को केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान मण्डलों के निर्वाचित सदस्यों तथा विभिन्न दलों के नेताओं से मिलकर एक ‘‘स्वराज्य संविधान’’ बनाने का अधिकार सौंपा गया था। १९२८ में पं. मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में बनी समिति ने भी संविधान निर्माण की चेष्टा की थी। १९३४ में स्वराज्य पार्टी ने आत्मनिर्णय के अधिकार हेतु एक मात्र उपाय के रूप में भारतीय प्रतिनिधियों की एक संविधान सभा बुलाने का सुझाव दिया था। कांग्रेस ने भी इसका पूरा-पूरा समर्थन किया था।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान कांग्रेस ने १४ सितम्बर १९३९ के अपने एक प्रस्ताव में पुन: संविधान सभा की माँग दोहरायी। १९४२ में सर स्टेफर्ड क्रिप्स ने विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद संविधान सभा की स्थापना का विचार स्पष्ट रूपेण स्वीकार किया था। १९४२ के ‘भारत छोड़ो प्रस्ताव’ में भी कांग्रेस ने घोषणा की थी कि स्वाधीनता के बाद कार्यकारी सरकार एक संविधान सभा बनाकर देश के लिए संविधान बनायेगी। १९ सितम्बर १९४५ को बाइसराय वेवेल ने घोषणा की थी कि सरकार शीघ्र ही संविधान सभा का आयोजन करना चाहती है किन्तु इससे पूर्व केन्द्रीय और प्रान्तीय विधान मण्डलों के चुनाव जरूरी हैं।
१९४५ के अन्त में केन्द्रीय सभा और १९४६ के प्रारंभ के प्रान्तीय विधान मण्डलों के चुनाव हुए। १६ मई १९४६ को प्रकाशित अपनी योजना में ‘‘मंत्री मिशन’’ ने स्पष्ट कर दिया था कि उसका उद्देश्य एक ऐसी व्यवस्था को आरंभ कर देना है जिसके द्वारा भारतीय भारतीयों के लिए संविधान बना सकें। इस योजना के अनुसार ब्रिटिश भारत के लिए २९६ और देशी राज्यों के लिए ९३ स्थान रखे जाने थे। तदनुसार ब्रिटिश भारत के सदस्यों के १९४६ में संविधान सभा के लिए चुनाव हुए।
संविधान सभा में सभी राजनैतिक दलों के प्रमुख नेता सभी जातियों और धर्मों के लोग, वकील, डॉक्टर, शिक्षाविद् , उद्योगपति, व्यापारी, श्रमिक प्रतिनिधि, लेखक, पत्रकार आदि थे। देश की गणमान्य महिलायें भी यहाँ विराजमान थीं।
९ दिसम्बर १९४६ को संविधान सभा का विधिवत् उद्घाटन हुआ था। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सभा के अध्यक्ष चुने गये। देशी राज्यों के प्रतिनिधि भी क्रमश: आते गये। इस प्रकार १५ अगस्त १९४७ तक सभा पूर्ण रूप से प्रभुतासम्पन्न संस्था बन गयी। डॉ. अम्बेडकर प्रारूप समिति के अध्यक्ष चुने गये।
संविधान सभा लगभग ३ वर्ष (२ वर्ष ११ महीने १७ दिन) कार्यरत रही। उसके कुल ११ सत्र हुए और १६५ बैठकें हुईं। प्रारूप समिति की १४१ बैठकें हुईं। स्पष्ट है कि हमारी संविधान सभा ने बहुत ही कम दिनों में अपना संविधान बना लिया था।
संविधान सभा के अंतिम दिन २४ जनवरी १९५० को सभी सदस्यों के हस्ताक्षर हुए। संविधान की तीन प्रतियाँ—एक हस्तलिखित अंग्रेजी में, एक छपी अंग्रेजी में व एक हस्तलिखित हिन्दी की प्रति पर सभी सदस्यों ने हस्ताक्षर किये। पूरी प्रति चित्रों से सुसज्जित की गई। चित्रों के माध्यम से क्रमश: पूरा इतिहास दर्शाया गया। प्रथम पृष्ठ पर मोहनजोदड़ो से प्राप्त उस सील को दर्शाया गया है, जिस पर एक बैल अंकित है। पृष्ठ ६३ पर भगवान महावीर का चित्र अंकित है। पृष्ठ १५१ पर महात्मा गाँधी को तिलक करती एक महिला चित्रित है, जो संभवत: गाँधीजी की दांडी यात्रा के समय का है। ध्यातव्य है कि गाँधीजी की दांडी यात्रा के समय महिलाओं का नेतृत्व श्रीमती सरला देवी साराभाई (जैन) ने किया था।
संविधान निर्माण में विभिन्न प्रान्तों से चुने हुए जैन धर्मावलम्बियों ने भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। इनमें से कुछ का परिचय यहाँ प्रस्तुत है—
क्या कोई सोच सकता है कि ‘‘मालवीय’’ उपनाम वाला कोई व्यक्ति जैन भी हो सकता है, उत्तर शायद नकरात्मक ही होगा। पर श्री रतनलाल मालवीय (१९०७-१९८४) ऐसे व्यक्तित्व थे, जो सागर (म. प्र्ा.) के प्रसिद्ध जैन वंश ‘‘मलैया’’ में जन्में और एक अध्यापक द्वारा ‘‘मलैया’’ के स्थान पर ‘‘मालवीय’’ लिख देने पर ‘‘मालवीय’’ उपनाम से ही विख्यात हो गये। बाद में उन्होंने मलैया उपनाम का प्रयोग करना चाहा पर सफल नहीं हुए। स्वयं उन्हीं के शब्दों में—‘‘सन् १९२७ में जब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी. ए. का विद्यार्थी था तब मेरे अर्थशास्त्र के प्रोफेसर ताराचन्द अग्रवाल ने यह प्रश्न पूछा—‘‘मैं मलैया क्यों कहलाता हूँ……. मैंने माँ से पूछकर बताया कि—‘कुरवाई को मालय कहने पर और हमारे कुरवाई निवासी होने से हम मलैया कहलाये।’ हमारे प्रोफेसर ने कहा—‘तब तो हमें मालवीय कहलाना चाहिए था।’ उन्होंने हाजिरी का रजिस्टर उठाकर मलैया की जगह मालवीय लिख दिया। तभी से मैं मालवीय हो गया।’’
‘‘सन् १९४८ में कान्सटीट्यूशनल असेम्बली और पार्लियामेन्ट का सदस्य बन जाने के बाद ‘‘मलैया’’ शब्द प्रयोग करने का प्रयत्न मैंने किया पर सम्पूर्ण रिकार्ड, जिसमें यूनिवर्सिटी की डिग्रियाँ भी शामिल है, में मैं मालवीय था इसलिए गवर्नमेन्ट के सचिवालय ने मालवीय ही कायम रखा। इससे कुछ विषमता होने पर भी मलैया शब्द का उपयोग नहीं कर सका। मुझे जगह-जगह मालवीय शब्द के उपयोग का स्पष्टीकरण करना पड़ता।
मालवीय जी का जन्म ८ नवम्बर १९०७ को सागर (म. प्र.) में हुआ। आरम्भिक शिक्षा सागर में ही हुई आपका परिवार कट्टर जैन था। स्वयं आपने लिखा है—‘‘माँ कट्टर जैन धर्मावलम्बी थीं, गीता अध्ययन से उनका माथा ठनकता, गीता क्यों ? अपने धर्म का अध्ययन क्यों नहीं ? और इसी स्पर्धा में माँ ने सान्ध्यशाला जैन बच्चों के लिए शुरू कर ली अपने ही घर में। अब हमें गीता के साथ भक्तामर स्तोत्र भी कंठस्थ कराया जाने लगा। जब तक भक्तामर का एक श्लोक सुना न देते सुबह का दूध न मिलता। मुझे कंठस्थ है। उसके ४८ श्लोक बोलते समय किस श्लोक पर कितने आंसू टपके थे, आज भी याद आ जाता है।’’
असहयोग आन्दोलन के दौरान आप कक्षा ८ में पढ़ते थे। प्रधानाध्यापक के लाख समझाने पर भी आपने स्कूल का बहिष्कार कर दिया। बाद में प्रधानाध्यापक श्री खूबचन्द सोधिया महोदय ने भी स्कूल से त्यागपत्र दे दिया। अपनी देशभक्ति के कारण सोधिया जी बाद में भारतीय संसद के लिए चुने गये थे। मालवीय जी वानर सेना में भी रहे, वे राष्ट्रीयशाला के विद्यार्थी रहे। १९२५ में आप काशी हिन्दू वि. वि. और १९२६ में इलाहाबाद वि. वि. में प्रविष्ट हुए वहीं से कानून की पढ़ाई की और स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी सक्रिय रहे। आपने ‘‘चांद’’ के सम्पादकीय विभाग में ४० रुपये मासिक वेतन पर नौकरी की। ‘सरस्वती’ में भी आपके कई लेख छपे।
अध्ययन के बाद आप सागर में वकालत करने लगे और हरिजन संघ के मंत्री बन गये। सन् १९३४ में महात्मा गाँधी जब सागर पधारे और उनका भाषण वर्णीजी द्वारा स्थापित श्री दि. जैन संस्कृत विद्यालय मोराजी—सागर में हुआ तब उसकी व्यवस्था हरिजन सेवक संघ के नाते आपने ही की थी। गाँधीजी की अपील पर महिलाओं ने अपने गहने उतार कर दे दिये थे। अपने मजदूर नेता होने के सम्बन्ध में आपने लिखा है कि ‘‘कुछ सालों बाद मेरा सम्बन्ध स्टेट प्यूपिल काँप्रâेस की उड़ीसा और छत्तीसगढ़ रीजनल काउन्सिल से हो गया। सन् १९४७ के बाद तो कांग्रेस के साथ मजदूर आन्दोलन में डूब सा गया। आप मध्यप्रान्तों के राज्यों की ओर से चुने गये थे। सभा में आपने मजदूरों के हितों पर जोरदार बहस की थी। मालवीय जी के अनुसार—‘सन् १९४८ में संविधान सभा का सदस्य बनते ही मैंने कोयला खानों के बारे में पार्लियामेन्ट में प्रश्न करना प्रारम्भ कर दिये थे’ ‘‘देश के संविधान पर दस्तखत होना मेरे जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य है।’’
बाद में आप ‘कोलयारी इन्क्वायरी कमेटी’ के भी सदस्य रहे। नेशनल कोल डेवलपमेन्ट कॉरपोरेशन की स्थापना का सुझाव आपका ही था। मजदूरों के नेता के रूप में विख्यात मालवीय जी १९५४ और १९६० में राज्यसभा के लिये चुने गये। १९६२ में नेहरूजी के मंत्रिमण्डल में पार्लियामेन्ट्री सचिव नियुक्त हुए और डिप्टी मिनिस्टर भी। श्री लाल बहादुर शास्त्री मन्त्रिमण्डल में भी आप डिप्टी मिनिस्टर रहे। १९६६ में लेबर कमीशन के सदस्य और लेबर वेलफेयर कमेटी के चेयरमैन रहे। इन्टरनेशनल लेबर आर्गनाइजेशन (आई. एल. ओ.) से भी आप जुड़े रहे और जर्मनी, हालैण्ड, इंग्लैण्ड, रूस आदि देशों की आपने यात्रा की थी। मनीला में सम्पन्न आई. एल. ओ. के एशियन राउण्ड टेबल कांप्रâेन्स (२ सितम्बर से १८ सितम्बर १९६९) के चेयरमैन बनने का सौभाग्य भी आपको प्राप्त हुआ था।
मालवीय जी की संविधान के प्रति अटूट आस्था थी। वे स्वयं सदैव संविधान के दायरे में देशसेवा में संलग्न रहे। उनकी सुपुत्री श्रीमती सुधा पटेरिया ने उनकी स्मृतियाँ लिखते हुए लिखा है—वह संविधान की सुनहरी जिल्द वाली वृहदाकार प्रति को शास्त्रों की तरह कपड़े में लपेटकर अपनी गोदरेज की अलमारी में इतने प्यार और श्रद्धा से रखते थे, जैसे कोई अपने जन्म भर की जमापूँजी सहेज रहा हो। दीपावली की लक्ष्मी पूजा के समय भी वह संविधान की पुस्तक को वहाँ आदरपूर्वक रखते, उसकी पूजा करते, वही उनकी लक्ष्मी थी, वही सरस्वती। दीपावली की डायरी में उनका यह महत्वपूर्ण अभिलेख मिला—‘लक्ष्मी पूजन के नाम पर मैं सदैव ही भारत के विधान की पूजा वâरता रहा हूँ। मेरे लिये यह गौरव की बात है कि मैं संविधान सभा का सदस्य रहा हूँ तथा उस पर मेरे दस्तखत हैं, विधान निर्माता के रूप में उस पर श्रद्धा रखना तथा उसके अनुसार काम करना मेरा प्रथम कर्त्तव्य है। संविधान में पूरे देश का हित निहित है।’
केन्द्रशासन में पुनर्वास, खाद्य एवं कृषि मंत्री, केरल के राज्यपाल तथा उ. प्र. कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे श्री अजितप्रसाद जैन का जन्म यद्यपि मेरठ (उ. प्र.) में हुआ किन्तु सहारनपुर में वकालत करते हुए वे वहीं के स्थायी निवासी हो गये। अछूतोद्धार के प्रबल समर्थक श्री जैन को हरिजनों के साथ सहभोज के कारण जाति से बहिष्कृत करने का भी प्रयत्न किया गया। १९३०—१९३२ में आपको गिरफ्तार कर लगभग २ वर्ष जेल में रखा गया। १९३६ में आप यू. पी. असेम्बली के लिए चुने गये। १९४१ में सत्याग्रह करते हुए आप गिरफ्तार हुए और १९४२ के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में आपको मेरठ जेल में रखा गया। आजादी के बाद आप १९५२ व ५७ में संसद सदस्य चुने गये। केन्द्रीय सरकार में आप पुनर्वास, खाद्य एवं कृषि मंत्री रहे। १९६१-६४ में आप उ. प्र. कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष तथा ६५-६६ में केरल के राज्यपाल रहे। १९६८-७४ में आप राज्यसभा के सदस्य रहे थे।
कृषि मामलों के विशेषज्ञ श्री जैन ने अनेकों पुस्तकें व लेख लिखे हैं। उनकी ‘‘यू. पी. टेनेन्सी एक्ट’’ पुस्तक अत्यधिक प्रसिद्ध हुई थी। सेवानिधि ट्रस्ट की स्थापना कर आपने समाज सेवा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। १९४६ में ही आप उ. प्र. असेम्बली की ओर से संविधान सभा के लिए चुने गये थे। श्री जैन ने सम्पत्ति के अधिकार के संबंध में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। ‘सहारनपुर सन्दर्भ’, भाग २ के अनुसार डॉ० हरिदेव शर्मा को दिये एक साक्षात्कार में श्री जैन ने कहा था कि—‘‘हमारे कहने पर ही संविधान के अनुच्छेद ३१ में इस बात की व्यवस्था की गई थी।’’
कच्छ प्रान्त की ओर से संविधान सभा के सदस्य रहे श्री भवानी या भवन जी अर्जुन खीमजी संविधान सभा में भारतीय व्यापारी वर्ग का भी प्रतिनिधित्व करते थे। कांग्रेस के निर्माण में आपका भारी योगदान था। आपका जन्म ‘खाम गाँव’ में हुआ था। यूरोप की यात्रा से आपको संसार की विविध प्रवृत्तियों और समस्याओं का ज्ञान हुआ था।
१९३० के आन्दोलन ने मानो आपका जीवन ही बदल डाला था। तभी से आप व्यापार के साथ-साथ राजनीति एवं सार्वजनिक कार्यों में संलग्न हो गये। आपका रुई का व्यापार था। १९३० में बहिष्कार आन्दोलन में जब आपको गिरफ्तार किया गया तो रुई बाजार में गतिरोध पैदा हो गया, फलत: आपको अविलम्ब रिहा कर दिया गया।
श्री खीमजी तत्कालीन बम्बई कॉटन मर्चेण्ट्स व मुकद्दम एसोसिएशन लि. के अध्यक्ष, ईस्ट इण्डिया कॉटन एसोसिएशन के निदेशक तथा अनेकों दातव्य शिक्षा संस्थाओं के ट्रस्टी भी रहे थे।
१९४० के व्यक्तिगत सत्याग्रह में आप एक वर्ष जेल में रहे थे। १९४२ के आन्दोलन में भी आपको २ वर्ष तक नजरबन्द रहना पड़ा था। गांधीजी और सरदार वल्लभभाई पटेल से आपके घनिष्ठ सम्बन्ध थे। ‘जैन सन्देश’ राष्ट्रीय अंक आपके विषय में लिखता है—‘‘गाँधी जी आपके विचारों में दृढ़ निष्ठा, एस. के. पाटिल आप में विश्वस्त साथी के योग्य गुण और सरदार वल्लभभाई पटेल आपमें अपने विचारों को कार्यान्वित करने के योग्य परखी हुई प्रतिभा पाते हैं। अनेक सार्वजनिक दायित्वों का भार वहन करते हुए भी आप जैन समाज की अनेकों धार्मिक दातव्य और शिक्षा संस्थाओं के पदाधिकारी ट्रस्टी रहे हैं।
संविधान सभा में सबसे कम उम्र—२८ वर्ष के सदस्य श्री कुसुमकान्त जैन का जन्म २३ जुलाई १९२१ को थांदला, जिला झाबुआ (म. प्र.) में हुआ। उनकी आरम्भिक शिक्षा धर्मदास जैन विद्यालय में हुई, जो राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत था। ब्रिटिश शासन के पोलिटिकल एजेण्ट का १९३६ में ही विरोध करने पर आपको विद्यालय छोड़ना पड़ा। आपका अध्ययन अस्त-व्यस्त हो गया, फलत: आपने कुछ समय श्री बिजलाल बियाणी के राष्ट्रीय साप्ताहिक ‘नव राजस्थान’ में भी कार्य किया। खादी पहनने का व्रत आपने बचपन में ही ले लिया था, जिसे उन्होंने हमेशा निभाया है।
श्री कुसुमकान्त जैन होल्कर राज्य से निर्वाचित होकर उज्जैन होते हुए अजमेर पहुँचे, जहाँ श्री जयनारायण व्यास, माणिक्यलाल वर्मा आदि नेताओं से आपका सम्पर्क हुआ। उनके आदेश से आपने राजपूताना और मालवा में प्रजामण्डलों का प्रचार किया। १९३९—४० में उज्जैन आकर आप मजदूर संगठनों से जुड़ गये। आपके घर की तलाशी ली गई और कम्युनिस्ट साहित्य बरामद होने के कारण शांतिभंग तथा युद्ध प्रयासों में बाधा डालने के अपराध में छह माह की सजा हो गई।
अगस्त क्रान्ति के दौरान आप भूमिगत हो गये और वेश बदलकर झाबुआ, रतलाम आदि में क्रान्ति की अलख जगाते रहे अन्तत: मार्च ४३ में गिरफ्तार कर नजरबन्द कर दिये गये। तीन माह बाद रिहाई होने पर बम्बई शासन द्वारा आपको पंचमहल जिले में प्रवेश न करने की आज्ञा थमा दी गई। आजादी के बाद आप झाबुआ लौट आये और उत्तरदायी शासन हेतु आन्दोलन छेड़ दिया। आदिवासियों में आपकी गहरी पैठ थी अत: झाबुआ नरेश को लोकप्रिय मंत्रिमण्डल की घोषणा करने के लिए बाध्य होना पड़ा। १८-१-१९४८ को मंत्रियों ने शपथ ग्रहण की, श्री जैन उनमें एक थे। वे उस समय भारत में सबसे कम उम्र के केबिनेट मंत्री थे।
मध्यभारत राज्य का गठन होने पर आप श्री लीलाधर जोशी के मंत्रिमण्डल में भी वैâबिनेट मंत्री बनाये गये। उसी समय आप संविधान सभा के लिए झाबुआ, रतलाम आदि रियासतों के प्रतिनिधि के रूप में चुने गये। वे सांसद और विधायक भी रहे, पर उनके जीवन का वह चरम उत्कर्ष का समय था जब उन्होंने भारतीय संविधान पर अपने हस्ताक्षर किये। श्री कुसुमकान्त जैन अभिनन्दन स्मारिका के सम्पादक श्री ज्ञान जैन का यह कथन ठीक ही है कि मिनिस्टर, सांसद व विधायक तो हजारों हुए और प्रजातन्त्र में होते रहेंगे लेकिन देश का प्रथम संविधान बनाने का गौरव तो जिन करीब २८८ व्यक्तियों को प्राप्त हुआ, उन महान् संविधान निर्माताओं की विशिष्ट पंक्ति में स्थापित होने का महान गौरव थांदला के इस युवक स्वतन्त्रता सेनानी को सिर्फ २८ वर्ष की अल्प आयु में मिला, यह श्री जैन के जीवन की महान ऐतिहासिक घटना है।
श्री जैन के सम्मान में अनेक समारोह हुए। ११ मार्च १९८९ को महामहिम श्री आर. वेंकटरमन के द्वारा आपको सम्मानित किया गया था। १९९२ में आपके नाम पर एक लोकोपकारी ट्रस्ट की भी स्थापना की गई है। ९ अगस्त १९९७ को आजादी की स्वर्णजयन्ती के अवसर पर संविधान सभा के जिन १०-१२ जीवित सदस्यों का सम्मान संसद भवन में हुआ, उनमें आप भी थे।
श्री बलवन्त सिंह मेहता प्रथम लोकसभा के सदस्य, राजस्थान मंत्रिमंडल में अनेकों बार केबिनेट मंत्री रहे तथा संविधान सभा के सदस्य भी थे। अनेक राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक संस्थाओं से सम्बद्ध मेहता जी का जन्म ८ फरवरी १९०० ई. को उदयपुर के एक खानदानी सामन्त परिवार में हुआ, परन्तु १५ वर्ष की उम्र से ही वे एक विद्रोही के रूप में अपनी वंश परम्परा और सामन्ती जीवन का सदा विरोध और बहिष्कार करते रहे हैं।
१९१५ में आप ‘‘प्रताप सभा’’ के माध्यम से राजनीति में आये और १९३४ से तो सक्रिय राजनीति में संलग्न हो गये। १९३८ में प्रजामण्डल के आन्दोलन में मेहताजी को एक वर्ष जेल में रखा गया। भारत छोड़ो आन्दोलन में आप २१ अगस्त १९४२ को गिरफ्तार कर लिये गये और उदयपुर तथा इसवाल जेलों में एक-डेढ़ वर्ष नजरबन्द रहे। मेवाड के आदिवासियों में आपकी गहरी पैठ रही है। भील आन्दोलन के जनक श्री मोलीलाल तेजावत से आप काफी प्रभावित रहे हैंं, उदयपुर में ‘वनवासी छात्रावास’ और ‘रैन बसेरा’ के संस्थापक आप ही हैं।
मेहता जी ने अपने प्रारम्भिक जीवन में जैन विद्यालय में अध्ययन और अध्यापन किया था अत: उदयपुर के पुराने लोगों में आप आज भी ‘‘मास्टर जी’’ के नाम से विख्यात हैं। जैन समाज के लिए आपने काफी कार्य किये। प्राकृत और जैन विद्या के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था आपने अनेक स्थानों पर कराई है।
जब ‘‘आबू’’ पर्वत गुजरात को दे दिया गया तो संविधान सभा में आपने तीखे प्रहार किये। नेहरूजी और पटेलजी से आपने गहन चर्चा की। लगभग पाँच पृष्ठ का आपका वक्तव्य संविधान सभा की कार्यवाही में पृष्ठ ४०३०-४०३४ पर दर्ज है। अन्तत: आबू राजस्थान को मिला, आपकी विजय हुई।
उनसे यह पूछने पर कि—‘‘संविधान सभा में आपका क्या योगदान रहा ? मेहताजी ने कहा—‘‘मैंने अनेक कानूनों पर चर्चा की थी पर आबू को गुजरात को दिये जाने का सख्त विरोध किया था, बताइये ‘‘माउण्ट आबू’’ को अगर राजस्थान से निकाल दिया जाए तो क्या ‘‘राजस्थान’’ राजस्थान कहा जायेगा मैंने क्रान्ति कर उसे बचाया था। अनेकों सम्मानों के साथ संसद भवन में आपका ९ अगस्त १९९७ को विशिष्ट सम्मान हुआ था।