ध्यान में दर्शन दिया भगवान ऋषभदेव ने- २३ अक्टूबर १९९२ धनतेरस तिथि को मैं प्रातः ४ बजे सामायिक के पश्चात् पिण्डस्थ ध्यान कर रही थी, उस मध्य मुझे विशालकाय खड्गासन भगवान ऋषभदेव के दर्शन हुए और अनुभूति कुछ ऐसी हुई कि ये अयोध्या के भगवान हैं। उनके दर्शन करते-करते मानों एक प्रेरणा मिली कि इन प्रथम तीर्थंकर भगवान का महामस्तकाभिषेक महोत्सव होना चाहिए तथा शाश्वत तीर्थ का जीर्णोद्धार एवं विकास समय रहते करना आवश्यक है।
मैंने ध्यान विसर्जित करके सर्वप्रथम आर्यिका चंदनामती को यह बात बताई पुनः क्षुल्लक मोतीसागर एवं ब्र. रवीन्द्र कुमार को बुलाकर चर्चा की और कहा कि मेरी इच्छा अयोध्या की ओर विहार करने की है, तब सबने मुस्कराकर यही कहते हुए बात टाल दी कि माताजी!
अब आपका स्वास्थ्य इतनी दूर विहार करने लायक नहीं है अतः ऐसा कुछ सोचा भी नहीं जा सकता है। इन लोगों के कहने से मैं कुछ दिन तो शांत रही पुनः मेरी भावना और प्रेरित होती गर्इं। एक दिन संयोग से अवध प्रान्त से मेरठ किसी के विवाह में पधारे कुछ प्रतिष्ठित लोग हस्तिनापुर आये, उनमें तहसील फतेहपुर के अध्यक्ष सरोज कुमार जैन थे, उनसे चर्चा करते-करते मैंने अयोध्या का मार्ग पूछकर अपनी डायरी में लिखना शुरू कर दिया। तब सभी ने समझ लिया कि अब माताजी अयोध्या अवश्य जाएंगी।
आगे ६ दिसंबर १९९२ को अयोध्या में बाबरी मस्जिद टूटने से जो भीषण हिन्दू-मुस्लिम झगड़ा हुआ उससे घबड़ाकर देशभर से अनेक साधु एवं श्रावकों ने यह कहकर मुझे रोकने का प्रयत्न किया कि ‘‘अयोध्या तो इस समय सम्प्रदायवाद के संघर्ष की आग में जल रही है अतः माताजी को अयोध्या कदापि नहीं जाना चाहिए।’’ किन्तु इन सब बातों को सुनकर मेरे मन में और अधिक दृढ़ता आई और मैंने कहा कि मैं तो अहिंसा के अवतार भगवान ऋषभदेव के पास जाना चाहती हूँ अतः ये संघर्ष मेरा क्या बिगाड़ेंगे? दूसरी बात अयोध्या अभी तक केवल राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद के नाम से ही जानी जा रही है,
भगवान ऋषभदेव जन्मभूमि के नाम से क्यों नहीं जानी जाती है? इस बात की मेरे अंतरंग में बहुत ही पीड़ा थी। कुल मिलाकर मैंने ११ फरवरी १९९३ फाल्गुन कृष्णा पंचमी को संघसहित जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से अयोध्या की ओर मंगल विहार (प्रस्थान) किया। तीन माह की यात्रा के पश्चात् १६ जून १९९३ को मैंने अयोध्या में भगवान के साक्षात् दर्शन किये, उस समय मुझे स्वयं बड़ी सुखद अनुभूति हुई, साथ ही आश्चर्य भी हुआ कि इन ऋषभदेव भगवान को मैंने इससे पूर्व कभी देखा भी नहीं था फिर भी ध्यान में जो रूप भगवान का देखा, वही सामने देखकर मैंने इसे भगवान का चमत्कार ही माना पुनः वहाँ चातुर्मास के साथ-साथ १० माह और रहने का सुयोग प्राप्त हुआ।
उस प्रवास काल में अनेक नवनिर्माण, तीर्थ एवं प्राचीन टोकों का जीर्णोद्धार, जनकल्याण के अनेक कार्य तथा तीर्थंकर ऋषभदेव का राष्ट्रीय स्तर पर महामस्तकाभिषेक महोत्सव सम्पन्न हुआ। इस यात्रा को संघपति बनकर सम्पन्न कराने का श्रेय एवं पुण्य प्राप्त किया टिकैतनगर के धर्मनिष्ठ श्रावक श्री प्रद्युम्न कुमार जैन (छोटीशाह) एवं उनके परिवार ने। उनकी गुरुभक्ति वास्तव में अनुकरणीय रही है। इन सभी तथ्यों एवं कार्यों का दिग्दर्शन आर्यिका चंदनामती द्वारा लिखित अयोध्या यात्रा (अयोध्या स्मारिका में प्रकाशित) मेें कराया गया है।
यहाँ मुझे अपनी अयोध्या यात्रा की अनुभूतियों में विशेषरूप से यह प्रतीत हुआ कि तीर्थंकर भगवन्तों की विशाल प्रतिमाओं के मस्तकाभिषेक महोत्सव की परम्परा जैन समाज में अवश्य होनी चाहिए। चौबीसों तीर्थंकरों की जन्मभूमियों के जीर्णोद्धार एवं विकास अत्यन्त आवश्यक हैं क्योंकि ये तीर्थ ही हमारी संस्कृति के जीवन्त प्रतीक हैं। समस्त तीर्थों में अयोध्या (जन्मभूमि) एवं सम्मेदशिखर (निर्वाणभूमि) ये दो ही शाश्वत तीर्थ हैं इनकी रक्षा करना तो प्रत्येक जैन श्रावक का कर्तव्य है। इसके साथ ही साधु संघों को तीर्थयात्रा कराने वाले श्रावक हमेशा खूब यश और पुण्य संचित कर सुखी जीवन व्यतीत करते हैं।
वर्तमान युग में हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से शाश्वत जन्मभूमि अयोध्या में केवल पाँच तीर्थंकरों (ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ) ने जन्म लिया तथा शेष १९ तीर्थंकरों ने पृथक्-पृथक् स्थानों पर जन्म लिया जिससे २४ तीर्थंकरों की १६ जन्मभूमियाँ प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार शाश्वत सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर से २० तीर्थंकर मोक्ष गये तथा शेष ४ तीर्थंकर अन्यत्र स्थलों से मोक्ष गये अतः चौबीस भगवन्तों की पाँच निर्वाणभूमियाँ (कैलाशपर्वत, चम्पापुरी, पावापुरी, गिरनार एवं सम्मेदशिखर) प्रसिद्ध हैं। इन सभी तीर्थों को मेरा शत-शत नमन।
अयोध्या तीर्थक्षेत्र कमेटी का नया चुनाव
अयोध्या के महामस्तकाभिषेक महोत्सव की सम्पन्नता के पश्चात् चैत्र कृष्णा नवमी, १९९४ को भगवान ऋषभदेव जन्मजयंती का कार्यक्रम मेरे संघ सानिध्य में हुआ। उसमें दिल्ली, अवध एवं अनेक स्थानों से पधारे जनसमूह के मध्य अयोध्या तीर्थक्षेत्र कमेटी का नया चुनाव भी हुआ।
सम्पूर्ण जनता तथा अवध और दिल्ली के विशिष्ट महानुभावों ने अयोध्या की अल्पकाल में हुई भारी उन्नति को देखते हुए ब्र. रवीन्द्र जी को वहाँ का अध्यक्ष तथा श्री सरोज कुमार जैन-तहसील फतेहपुर (बाराबंकी-उ.प्र.) को महामंत्री बनाना निश्चित कर दिया। रवीन्द्र कुमार की व्यस्तता और जंबूद्वीप-हस्तिनापुर संस्थान की जिम्मेदारियाँ देखते हुए मैंने जब उन्हें अध्यक्ष पद की स्वीकृति प्रदान नहीं की, तब दिल्ली के लाला श्रीपाल जी (मोटर वाले), राजेन्द्र प्रसाद ‘‘कम्मोजी’’ आदि कई वरिष्ठ श्रावक एवं अवध प्रान्त के सम्भ्रान्त श्रेष्ठियों ने मेरे सामने झोली फैलाकर निवेदन किया कि माताजी!
हम लोगों की विनती मानिए और अयोध्या की ओर ध्यान देकर रवीन्द्र जी को अध्यक्ष के रूप में थोड़े दिन हमें प्रदान कर दीजिए। सबके अश्रु भरे शब्दों को मैं उस समय टाल नहीं सकी और मेरी मौन स्वीकृतिपूर्वक एवं विशाल सभा की सर्वसम्मति से रवीन्द्र कुमार को अध्यक्ष बना दिया गया। महामंत्री के रूप में चुने गये सरोज कुमार जी आज भी यही कहते हैं कि यदि भैय्या अध्यक्ष नहीं बनते तो मैं कभी भी महामंत्री का पद स्वीकार नहीं कर सकता था। टिकैतनगर के श्रावक छोटीशाह जी को वहाँ का कोषाध्यक्ष बनाकर पूरी कमेटी समर्पणभाव से कार्यरत हो गई।
मुझे प्रसन्नता है कि १० वर्षों से कार्य कर रही उस अयोध्या तीर्थक्षेत्र कमेटी की कार्यप्रणाली से अयोध्या जैन तीर्थ की दिन-दूनी रात चौगुनी वृद्धि हुई है। महामंत्री सरोज जी की कर्मठता भी सराहनीय है जो प्रतिदिन रवीन्द्र जी को भाई जी-भाई जी कहकर फोन से अयोध्या के बारे में सारी बातें बताकर परामर्श लेते हैं और मेरे संघ के प्रति भी उनका अपनत्वभाव अनुकरणीय है।
राजधानी लखनऊ का लघु प्रवास
अयोध्या में सन् १९९४ की ऋषभदेव जन्मजयंती के बाद मैंने लखनऊ की ओर विहार किया। वहाँ मेरे सानिध्य में महावीर जयंती का समारोह बहुत अच्छी प्रभावना के साथ सम्पन्न हुआ पुनः वैशाख कृ. दूज को लखनऊवासियों ने ‘‘रवीन्द्रालय’’ नामक एक ऑडिटोरियम में मेरा ‘‘आर्यिका दीक्षा जयंती समारोह’’ मनाया, तब तमाम लोगों ने अणुव्रत का नियम लेकर मेरे संयम दिवस को सार्थक किया। मई में डालीगंज-लखनऊ में लघु पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं अक्षयतृतीया पर्व का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।
लखनऊ में चारबाग, डालीगंज, चौक, सआदतगंज, अहियागंज, अमीनाबाद आदि स्थानों में शिक्षणशिविर, विधान आदि धार्मिक आयोजनों में सानिध्य प्रदान करते हुए मैं ११ जून १९९४ को इन्द्रानगर कॉलोनी पहुँची वहाँ १४ से १८ जून तक धार्मिक संगोष्ठी हुई पुनः १९ जून को ‘‘अवध प्रान्तीय दिगम्बर जैन श्रावक सम्मेलन’’ का आयोजन हुआ। इस सम्मेलन में श्रावकों को अष्टमूलगुण एवं पंच अणुव्रत धारण करके सद्गृहस्थ बनने की प्रेरणा प्रदान की गई तथा इन्द्रानगर में निर्मित हो रहे जिनमंदिर के लिए लोगों ने दिल खोलकर दान दिया, अनेक महिलाओं ने अपनी अंगूठी, चैन, चूड़ी आदि का स्वर्णदान भी किया।
जन्मभूमि-टिकैतनगर में चातुर्मास
यद्यपि लखनऊ प्रवास के मध्य वहाँ के निवासियों ने मुझे वहाँ चातुर्मास करने हेतु अनेक बार श्रीफल चढ़ाकर निवेदन किया किन्तु सन् १९९३ में टिकैतनगर में मैंने ९९/ चातुर्मास की स्वीकृति देकर एक प्रतिशत की छूट में अयोध्या तीर्थ पर चातुर्मास कर लिया था सो उस समय टिकैतनगर के लोग बहुत दुःखी हो गये थे, इसलिए मैंने उन लोगों की भावनाओं के अनुरूप सन् १९९४ के चातुर्मास की पक्की स्वीकृति टिकैतनगर के लिए कर दी और वहाँ चातुर्मास के मध्य अनेक प्रकार के प्रभावनात्मक कार्यक्रम सम्पन्न हुए ।
चातुर्मास समापन करके जब टिकैतनगर से संघ का मंगल विहार हुआ, तो पूरे नगरवासियों की अश्रुधारा वास्तव में एक करुणक्रन्दनरूप थी। अत्यन्त कठोर हृदय करने के बावजूद भी उन सबके शोक की उमड़ती सरिता देखना मेरे लिए भी कठिन जैसा हो रहा था। आर्यिका चंदनामती जी ने अयोध्या यात्रा के संस्मरणों में सचमुच ही लिखा है कि ‘‘नहीं लेखनी लिख सकती है जन्मभूमि के आँसू को’’।
वास्तव में जन्मभूमि का अपनत्व और वात्सल्य अविस्मरणीय होता है तभी तो नीतिकारों ने लिखा है-‘‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’’ अर्थात् जननी (माँ) एवं जन्मभूमि (मातृभूमि) स्वर्ग से भी श्रेष्ठ होती है। सन् १९५२ में गृहत्याग करने के पश्चात् क्षुल्लिका दीक्षा लेकर मेरा प्रथम चातुर्मास सन् १९५३ में गुरुदेव आचार्य श्रीदेशभूषण महाराज के साथ टिकैतनगर में हुआ था, तब स्वाध्याय-अध्ययन ही मेरा प्रमुख लक्ष्य रहता था पुनः जब ४० वर्षों के बाद जन्मभूमि का यह द्वितीय चातुर्मास (आर्यिका दीक्षा का प्रथम) मेरे जीवन की अद्वितीय यादों के साथ जुड़ गया। संयोग से इसी चातुर्मास के अंतर्गत शरदपूर्णिमा को मैंने अपने जीवन के ६० वर्ष पूरे किए अतः ‘‘षष्ठिपूर्ति समारोह’’ के रूप में १८-१९ अक्टूबर को विशाल कार्यक्रम आयोजित हुआ।
उत्तरप्रदेश के तत्कालीन महामहिम राज्यपाल श्री मोतीलाल जी वोरा, कारागार मंत्री-श्री अवधेश प्रसाद जी एवं फैजाबाद के पूर्व विधायक श्री जयशंकर पांडे आदि अनेक शासन-प्रशासन के लोग पधारे। मुझे याद है कि कारागार मंत्री ने इस अवसर पर जेल से ६१ कैदियों को रिहा करने की घोषणा करते हुए स्वयं भी मानव कल्याण के पथ पर चलने का संकल्प लिया।
इसी शृंखला में समारोह मंच पर देश भर के चुनिन्दे ६१ श्रेष्ठियों को मोमेंटो भेंट कर सम्मानित किया गया, ६१ सिलाई मशीनें निकटवर्ती ग्रामों की गरीब महिलाओं को प्रदान की गई अनेक महानुभावों की ओर से साड़ियाँ, कम्बल आदि बांटे गये, स्फटिक की माला भेंट की गई तथा नगर की कुमारी कन्याओं द्वारा नवगठित बालिका समिति ने आगंतुकों को ‘‘ज्ञानमती ट्री’’ के नाम से फूलों के सुन्दर गमले भेंट किये। जैनसमाज के प्रीतिभोज के साथ ही टिकैतनगर के समस्त जाति व धर्मावलम्बियों के लिए श्री हंसराज जैन-लखनऊ की ओर से भंडारा किया गया अतः आस-पास गाँवों के भी हजारों नर-नारियों ने प्रसादरूप भोजन ग्रहण किया। इस प्रकार मेरी षष्ठिपूर्ति को जन्मभूमि के भक्तों ने मनाकर धर्मवात्सल्य का परिचय प्रदान किया।
चातुर्मास के अनंतर मैं एक बार पुनः अयोध्या गई और वहाँ फरवरी १९९५ में नवनिर्मित समवसरण मंदिर का पंचकल्याणक कराया, दोनों मंदिरों (तीन चौबीसी मंदिर एवं समवसरण रचना मंदिर) के शिखरों पर कलशारोहण हुआ एवं राजकीय उद्यान में भगवान ऋषभदेव की सीमेंट कांक्रीट की प्रतिमा स्थापित हुई पुनः भगवान ऋषभदेव जन्मजयंती के पश्चात् अवध प्रान्त से विहार करके हस्तिनापुर पहुँची वहाँ जम्बूद्वीप स्थल पर मेरा सन् १९९५ का ससंघ चातुर्मास हुआ। उस चातुर्मास के मध्य अक्टूबर में पंचवर्षीय ‘‘जम्बूद्वीप महोत्सव’’ सम्पन्न हुआ और उसी समय ध्यान मंदिर एवं शांतिनाथ मंदिर के शिखरों पर कलशारोहण हुआ।
विश्वविद्यालय ने डी.लिट्. उपाधि प्रदान की
एक छोटे कस्बे के प्राथमिक विद्यालय में धर्मशिक्षा से अपने ज्ञान की नींव की मंजिल बनाने वाली मुझ जैसी लौकिक ज्ञान से अनभिज्ञ साध्वी को क्या मालूम कि कोई विश्वविद्यालय पी.एच.डी. या डी.लिट्. जैसी उपाधियाँ भी किसी को प्रदान करती हैं? मैं तो यही सुना करती थी कि स्कूल, कॉलेज में १५-१६ वर्षों तक कठिन पढ़ाई करने के बाद जब स्नातक किसी विषय पर अन्वेषणात्मक तथ्यों के आधार पर २ से ५ वर्ष तक परिश्रमपूर्वक बड़ा भारी लेखनकार्य करते हैं तब उन्हेें विश्वविद्यालय द्वारा पी.एच.डी. (विद्यावाचस्पति) या डी.लिट्. (विद्यावारिधि) की उपाधि प्राप्त होती है।
उस उपाधिग्रहण की भी एक विशेष विधि होती है जब कुलाधिपति (प्रदेश के राज्यपाल) एवं कुलपति (विश्वविद्यालय के वायस चान्सलर.) के द्वारा एक दीक्षान्त समारोह में शोध प्रबंध लिखने वालों को यह उपाधि प्रदान की जाती है, तब परिधान विशेष में सुसज्जित वह स्नातक अपने भाग्य की सराहना करता हुआ अपनी ओर से विश्वविद्यालय एवं कुलाधिपति, कुलपति आदि के प्रति विशिष्ट सम्मान प्रदर्शित करता है पुनः वह अपने नाम के आगे गौरवपूर्वक डॉक्टर लिखने का अधिकारी हो जाता है।
किन्तु उस दिन मुझे अयोध्या में आश्चर्य हुआ जब दिसम्बर १९९४ में अवध विश्वविद्यालय के कुलपति श्री के.पी. नौटियाल मेरे संघ के दर्शनार्थ रायगंज मंदिर में पधारे और किंचित् परिचयात्मक वार्ता के पश्चात् उन्होंने कहा कि हमारे अवधप्रान्त की जन्मी ज्ञानमती माताजी ने इतने विशाल साहित्य का लेखन किया है, यह हमारे प्रदेश का महान गौरव हैं अतः हम इन्हें विश्वविद्यालय की सबसे बड़ी मानद् उपाधि-डी.लिट्. से सम्मानित करके अपने विश्वविद्यालय का गौरव बढ़ाना चाहते हैं।
इस बात को सुनकर मैंने स्पष्ट इंकार करते हुए उनसे कहा कि हमारे पास तो अपने गुरु द्वारा प्रदत्त आर्यिका और गणिनी पद ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, शेष हमें कोई पदवी नहीं चाहिए। थोड़ी देर चली बहस के दौरान मैंने और मेरे संघस्थ सभी शिष्य-शिष्याओं ने उन्हें अस्वीकृति के रूप में सारी बात समझा दी अतः वे उन्मनस्क होकर चले गये और हम लोग भी अपने कार्यों में व्यस्त हो गये।
कुलपति की तकनीकी प्रक्रिया सफल हुई
कहते हैं कि किसी विचारक व्यक्ति के मन में यदि गहराई से कोई विचार समा जाता है तो वह एक न एक दिन मूर्तरूप अवश्य लेता है। यही अवधविश्वविद्यालय के कुलपति श्री नौटियाल जी के साथ मैंने देखा कि उस समय तो वे हतोत्साहित होकर चले गये और हम लोग भी विषय भूल गये पुनः जनवरी १९९५ के अंतिम सप्ताह में एक दिन विश्वविद्यालय से समाचार आया कि मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह यादव द्वारा आपके भगवान ऋषभदेव मस्तकाभिषेक महोत्सव के मंच से घोषित ‘‘ऋषभदेव जैन चेयर’’ के भवन बनाने हेतु सरकार से पैसा प्राप्त हो गया है
अतः पूज्य माताजी भवन के शिलान्यास का मुहूर्त निश्चित कर दें तथा शिलान्यास समारोह में ससंघ अपना सानिध्य भी देने की स्वीकृति प्रदान करें। मैंने साधारण रूप से ५ जनवरी १९९५ का मुहूर्त बता दिया और अपने ससंघ सानिध्य की स्वीकृति भी प्रदान कर दी क्योंकि मुझे यह प्रसन्नता हुई कि मेरी प्रेरणा और मुख्यमंत्री की घोषणा केवल मंच या कागज तक ही सीमित न रहकर शीघ्र ही मूर्तरूप ले रही है अतः शुभ कार्य में देरी कैसी?
अपनी स्वीकृति के अनुसार मैं ससंघ ५ फरवरी १९९५ को अयोध्या से फैजाबाद पहुँची, वहाँ विधिवत् जैनपीठ के भवन का शिलान्यास हुआ पुनः मुझे विश्वविद्यालय के एक विशाल हाल में मंच पर ले जाकर बिठाया गया कि यहाँ प्रवचनसभा का आयोजन है। वहाँ थोड़ी देर बैठने के बाद मुझे सब कुछ पता चल गया कि यह कुलपति जी की सूझबूझ का परिणाम है। विश्वविद्यालय परिसर में वह दीक्षान्त समारोह आयोजित करने हेतु विशेष भवन था जहाँ ‘‘विशेष दीक्षान्त समारोह’’ का बैनर लगा था और सामने कतारबद्ध पंक्तियों में सैकड़ों स्नातक छात्र-छात्राएं बैठे थे जिनके मुखमण्डल पर संतसमागम से प्राप्त होने वाले ज्ञान को ग्रहण करने की ललक प्रतिभासित हो रही थी।
मुझे संघस्थ जनों से ज्ञात हुआ कि यहाँ आपको डी.लिट्. की मानद् उपाधि से विभूषित करने हेतु कुलपति जी ने यह कार्यक्रम आयोजित किया है अतः आप इस समय कुछ भी विरोध प्रदर्शित न करें। कुलपति जी ने इन लोगों के माध्यम से यह भी कहलाया कि माताजी के पास आखिर समाज द्वारा प्रदत्त आर्यिका शिरोमणि, न्याय प्रभाकर आदि कई उपाधियाँ तो हैं ही, फिर हमारी ही मानद् उपाधि को लेने से क्यों मना किया जा रहा है? ये शब्द सुनकर मैं उदासीन भाव से बैठी रही पुनः अत्यन्त सुरम्य नारी स्वरों में एक गीत के साथ सभा प्रारंभ हुई। गीत के बोल थे-‘‘यही है ज्ञान का मंदिर, कला विज्ञान का मंदिर, हमारा विश्वविद्यालय अवध की शान का मंदिर’’।
अनंतर कुछ औपचारिकताओं के पश्चात् विश्वविद्यालय के कुलपति आदि अनेक विशिष्ट पदाधिकारियों ने मेरे निकट आकर श्रद्धापूर्वक एक लिखित प्रशस्ति प्रदान कर चरणों में नमन किया एवं मंच से घोषित किया कि ‘‘आज विश्वविद्यालय के इस ग्यारहवें दीक्षान्त समारोह के अवसर पर पूज्य गणिनी आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी को उनके जैनधर्म, जैनदर्शन तथा जैन साहित्य द्वारा लोकसेवा के क्षेत्र में दिये गये विशिष्ट योगदान के प्रति सम्मान ज्ञापित करते हुए, डी.लिट्. की मानद् उपाधि से विभूषित करते हुए हम गौरव का अनुभव करते हैं।’’
पुनः मैंने अपने आशीर्वादात्मक प्रवचन में उपस्थित जनसमूह को सम्बोधित करते हुए कहा कि- दीक्षांत समारोह गुरुकुल प्रणाली से निकला हुआ शब्द है। जब शिक्षा पूर्ण हो जाती है तब गुरुकुल के प्रवास की अवधि में पाले जाने वाले नियमों का समापन कर देना दीक्षांत कहलाता है। दीक्षा शब्द की परिभाषा हमारे ऋषियोें ने इस प्रकार भी की है-
दीयते ज्ञानसद्भावं, क्षीयते पशुभावना।
दानक्षपणयुत्तेन, दीक्षा तेनैव कथ्यते।।
अर्थात् जहाँ ज्ञान दिया जाता है एवं पशुत्व भावना का क्षय किया जाता है उसी दान और क्षय की भावना को दीक्षा कहते हैं। जैनधर्म की इस आर्यिका दीक्षा लेने के बाद मेरे पास तो केवल पिच्छी, कमंडलु व एक साड़ी मात्र परिग्रह है अतः मैं इस उपाधि को कहाँ रखूँगी? फिर भी आपके द्वारा किया गया यह सम्मान मेरा नहीं प्रत्युत् माता सरस्वती का सम्मान है।
मैं आपकी इस भावना का आदर करती हूँ तथा मेरा आप सबको यही मंगल आशीर्वाद है कि आपकी ऐसी ही भावना निरंतर बलवती हों, आप सरस्वती का सदैव सम्मान करते हुए अहिंसा आदि सिद्धांतों के प्रचार और अध्ययन-अनुसंधान के कार्य में निरंतर जैनपीठ के माध्यम से उन्नति करते रहें, यही मंगलकामना।
यहाँ पाठकगण सोचेंगे कि विश्वविद्यालय द्वारा प्रदत्त डी.लिट्. की मानद् उपाधि के पश्चात् तो हमारी ज्ञानमती माताजी भी डॉक्टर माताजी बन गई हैं किन्तु यह सच नहीं है। मैंने कभी अपने नाम के साथ किसी पद का प्रयोग नहीं किया है, न मुझे मोक्ष के अतिरिक्त किसी पद की इच्छा ही है। यूँ तो संसारी दुःखी प्राणियों को ज्ञानामृत की औषधि पिलाकर सच्चे धर्म के मार्ग पर लगाने वाले साधु-साध्वी असली चिकित्सक-डॉक्टर माने ही जाते हैं।