-गणिनी आर्यिका ज्ञानमती
नमः श्री पुरुदेवाय, धर्मतीर्थप्रवर्तिने ।
सर्वाविद्या-कला, यस्मा – दाविर्भूता महीतले ।।१।।
इस वर्तमान अवसर्पिणी काल में यहाँ भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में तृतीयकाल में जब पल्य का आठवाँ भाग शेष रह गया तब कुलकरों की उत्पत्ति प्रारंभ हो गयी । इनके नाम – प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित् और नाभिराज थे ।
हरिवंश पुराण में लिखा है कि – बारहवें मरुदेव कुलकर ने अकेले पुत्र ‘प्रसेनजित’ को जन्म दिया, अतः यहाँ से युगलिया परम्परा समाप्त हो गई । इनका विवाह किसी प्रधान कुल की कन्या के साथ सम्पन्न हुआ है । यथा—
प्रसेनजितमायोज्य प्रस्वेदलवभूषितम् ।
विवाहविधिना वीरः प्रधानकुलकन्यया ।।
भोगभूमिज मनुष्यों के शरीर में पसीना नहीं आता था । परन्तु प्रसेनजित् का शरीर कभी-कभी पसीने के कणों से सुशोभित हो उठता था । वीर मरुदेव ने अपने पुत्र प्रसेनजित् को विवाह विधि के द्वारा किसी प्रधान कुल की कन्या के साथ मिलाया था । इन प्रसेनजित् से नाभिराज भी अकेले जन्में । इन्द्र ने इनका विवाह कु. मरुदेवी के साथ सम्पन्न किया । कहा भी है —
तस्यासीन्मरुदेवीति, देवीदेवीवसाशची ।
रूपलावण्यकांतिश्री मतिद्युतिविभूतिभि: ।।२।।
तस्याः किल समुदवाहे, सुरराजेनोदिता ।
सुरोत्तमाः महाभूत्या, चक्रु: कल्याणकौतुकम् ।।३।।
हरिवंश पुराण में भी कहा है—
अथनाभेरभूद्देवी मरुदेवीतिवल्लभा ।
देवी शचीव शक्रस्य शुद्धसंतानसंभवा ।।६।।
शुद्ध कुल में उत्पन्न हुई मरुदेवी राजा नाभिराज की वल्लभा (पटरानी) हुई । जिस प्रकार इन्द्र को इन्द्राणी प्रिय होती है उसी प्रकार वह राजा नाभिराज को प्रिय थी ।
अयोध्या नगरी की रचना—
मरुदेवी और नाभिराज से अलंकृत पवित्र स्थान में जब कल्पवृक्षों का अभाव हो गया तब उनके पुण्य विशेष से इन्द्र ने एक नगरी की रचना करके उसका नाम ‘अयोध्या‘ रखा ।
‘छठे काल के अंत में जब प्रलयकाल आता है तब उस प्रलय में यहाँ आर्यखण्ड में एक योजन नीचे तक भी भूमि नष्ट हो जाती है । उस काल में अयोध्या नगरी स्थान के सूचक नीचे चौबीस कमल देवों द्वारा उत्पन्न किये जाते हैं ।’
इन्हीं चिन्हों के आधार से देवगण पुनः उसी स्थान पर अयोध्या की रचना कर देते हैं ।
इसीलिए ‘अयोध्या’ नगरी शाश्वत मानी गई है ।
वैदिक ग्रन्थों में भी अयोध्या को बहुत ही महत्व दिया है । यथा—
‘अष्टचक्रानवद्वारादेवानां पूरयोध्या ।
यह देवों की नगरी अयोध्या आठ चक्र और नव द्वारों से शोभित है । रूद्रयाचल ग्रन्थ में तो अयोध्यापुरी को विष्णु भगवान का मस्तक कहा है । यथा—
एतद ब्रह्माविदो वदन्ति मुनयोऽयोध्यापुरी – मस्तकम् ।
वाल्मीकि रामायण में इसे मनु द्वारा निर्मित बारह योजन लम्बी माना है ।
हरिवंश पुराण में राजा नाभिराज के महल को ८१ खण्ड ऊँचा, रत्ननिर्मित ‘सर्वतोभद्र’ नाम से कहा है।
श्री ऋषभदेव का स्वर्गावतरण-
छह माह बाद भगवान ऋषभदेव ‘सर्वार्थसिद्धि’ विमान से च्युत होकर यहाँ माता मरुदेवी के गर्भ में आने वाले हैं ऐसा जानकर सौधर्म इन्द्र ने कुबेर को आज्ञा दी- ‘हे धनपते ! तुम अयोध्या में माता मरुदेवी के आंगन में रत्नों की वर्षा प्रारंभ कर दो ।’ उसी दिन से कुबेर ने प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़ प्रमाण उत्तम-उत्तम पंचवर्णी रत्न बरसाना शुरु कर दिया ।
एक दिन मरुदेवी महारानी ने पिछली रात्रि में ऐरावत हाथी आदि उत्तम-उत्तम सोलह स्वप्न देखे । प्रातः पतिदेव के मुख से ‘तुम्हारे गर्भ’ में तीर्थंकर पुत्र अवतरित होंगे, ऐसा सुनकर महान् हर्ष को प्राप्त हुई ।’
जब इस अवसर्पिणी के तृतीय काल में चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष और साढ़े आठ माह शेष रह गये थे तब आषाढ़ कृष्णा द्वितीया के दिन भगवान का गर्भागम हुआ । उसी दिन अपने दिव्य ज्ञान से जानकर इन्द्र ने असंख्य देवों के साथ आकर महाराजा नाभिराज और महारानी मरुदेवीका अभिषेक करके वस्त्राभरण आदि से उनका सम्मान कर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया । इन्द्र की आज्ञा से श्री, ह्रीं आदि देवियाँ माता की सेवा करने लगी ।
क्या भगवान् पुनः अवतार लेते हैं ?
जैन धर्म के अनुसार कोई भी भगवान् पुनः पुनः अवतार नहीं लेते हैं प्रत्युत हम और आप जैसे कोई भी संसारी प्राणी क्रम-क्रम से उत्थान करते हुए तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर पाँच कल्याणकों को प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं । वे पुनः इस संसार में कभी भी अवतार नहीं लेते हैं । जैसा कि भगवान ऋषभदेव के ‘दशावतार’ अर्थात् दशभवों का वर्णन पढ़ने से भगवान का गर्भावतार प्रकरण स्पष्ट हो जाता हैं ।
पूर्व के नवभव —
इसी जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र में गंधिला देश के विजयार्ध की श्रेणी में एक ‘महाबल’ नाम के विद्याधर राजा थे। एक बार इन्होंने अपने स्वयंबुद्ध मंत्री के द्वारा जैनधर्म को स्वीकार करके सल्लेखना से मरण कर स्वर्ग में ‘ललितांग’ नाम के देवपद को प्राप्त किया । वहाँ से च्युत हो विदेह क्षेत्र में राजा ‘वज्रजंघ’ हो गये । इन्होंने अपनी रानी श्रीमती के साथ एक घोर वन में युगल मुनियों को आहारदान दिया । इसके फलस्वरूप उत्तम भोगभूमि में ‘आर्य’ हो गये । वहाँ चारण ऋद्धिधारी मुनियों के सम्बोधन से सम्यग्दर्शन ग्रहण कर आयु के अंत में मरकर दूसरे स्वर्ग में ‘श्रीधर’ देव हो गये । वहाँ से च्युत हो विदेह क्षेत्र में सुसीमा नगरी के राजा ‘सुविधि’ हो गये । यहाँ भी श्रावक धर्म का पालन करते हुए क्षुल्लक बनकर दीक्षा के अनंतर मुनि बनकर समाधिपूर्वक शरीर छोड़कर पुनः सोलहवें स्वर्ग में ‘इन्द्र’ हो गये । वहाँ से च्युत होकर जम्बूद्वीप के विदेह में पुण्डरीकिणी नगरी में ‘वज्रनाभि’ चक्रवर्ती हो गये । इस भव में भी महामुनि बनकर पिता तीर्थंकर वज्रसेन के पादमूल में सोलहकारण भावनाओं को भाते हुए तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया । फलस्वरूप अंत में समाधिपूर्वक शुक्लध्यान से मरण कर ‘सर्वार्थसिद्धि’ में ‘अहमिन्द्र’ हो गये ।
इस प्रकार— (१) महाबल, (२) ललितांगदेव, (३) राजा वज्रजंघ, (४) भोगभूमिज आर्य, (५) श्रीधरदेव, (६) राजा सुविधि, (७) अच्युतेन्द्र, (८) वज्र नाभि चक्रवर्ती, (९) अहमिन्द्र, इन नवों भवों में क्रम-क्रम से उत्थान करते हुए जिनधर्म के प्रसाद से सर्वार्थसिद्धि से च्युत होकर यही अहमिन्द्र का जीव माता मरुदेवी के गर्भ में आ गया । अब ये भगवान ऋषभदेव निर्वाण को प्राप्त कर चुके हैं फलतः अब पुनः कभी भी इस संसार में अवतार नहीं लेंगे ।
जन्मकल्याणक महोत्सव—
पन्द्रह माह तक कुबेर द्वारा रत्नवृष्टि के अनंतर चैत्र कृष्णा नवमी को सूर्याेदय के समय माता मरुदेवी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया । उसी क्षण स्वर्ग में इन्द्रों के आसन कंपित हो गये, मुकुट झुक गये, कल्पवृक्षों से पुष्प बरसने लगे और चारों प्रकार के देवों के यहाँ बिना बजाये अपने आप बाजे बजने लगे । यथा—
कल्पेषु घण्टा भवनेषु शंखो, ज्योतिर्विमानेषु च सिंहनादः ।
दध्वान भेरी वनजालयेषु, यज्जन्मनि ख्यात जिनः स एषः ।।
कल्पवासी देवों के यहां घण्टे बजने लगे, भवनवासी देवों के यहाँ शंख ध्वनि होने लगी, ज्योतिषी देवों के यहाँ सिंहनाद होने लगा और व्यंतर देवों के यहाँ भेरी बजने लगी । जिनके जन्म के समय ऐसा हुआ है ये जिन भगवान वे ही हैं ।
जैसा कि आज टेलीविजन या रेडियो का स्विच दबाते ही हजारों किलोमीटर दूर से भी दृश्य और संगीत सामने आ जाते हैं किन्तु वहाँ तो स्विच दबाने की भी आवश्यकता नहीं पड़ी प्रत्युत तीर्थंकर प्रकृति का पुण्य रूपी स्विच आपने आप ही दब गया और ४० करोड़ मील से अधिक ऊँचाई पर स्थित स्वर्ग लोक में अतिशय आनन्द फैल गया । तत्क्षण ही सौधर्म इन्द्र असंख्य देव परिवारों के साथ मध्यलोक में आये और जन्मजात शिशु को सुमेरू पर्वत पर ले जाकर १००८ कलशों से उनका जन्माभिषेक सम्पन्न किया।
कुछ विद्वान सहज ही कह देते हैं कि वे तीर्थंकर हम आप जैसे साधारण मानव थे लेकिन ऐसा नहीं है, वे तीर्थंकर प्रकृति नाम कर्म के बंध करने तक तो साधारण कहे जा सकते हैं किन्तु तीर्थंकर प्रकृति को बांध लेने के बाद उनमें कुछ विशेष ही अतिशय प्रगट हो जाते हैं इसीलिए तो श्री समन्तभद्र स्वामी ने कहा है—
मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्, देवतास्वापि च देवता यत:
तेननाथ ! परमासि देवता, श्रेयसे जिनवृष ! प्रसीद न: ।।
हे नाथ ! आपने मनुष्य योनि में जन्म तो लिया है किन्तु आप मानुषी प्रकृति का उल्लंघन कर चुके हैं। इसीलिए आप देवताओं के भी देवता हैं । हे जिन ! हे धर्म तीर्थंकर ! आप हमारे कल्याण के लिए हम पर प्रसन्न होइये ।
श्री ऋषभदेव के द्वारा कर्मभूमि व्यवस्था—
श्री नाभिराज ने इन्द्र की अनुमति से ऋषभदेव का यशस्वती और सुनन्दा कुमारिकाओं से साथ विवाह कर दिया । यशस्वती ने भरत आदि १०० पुत्र एवं ब्राह्मी पुत्री को तथा सुनन्दा ने बाहुबली पुत्र एवं सुन्दरी कन्या को जन्म दिया ।
भगवान ने पुत्रियों एवं पुत्रों को सर्वविद्याओं में तथा कलाओं में निष्णात कर दिया । प्रजा की प्रार्थना से असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य षट्क्रियाओं का उपदेश देकर उन्हें जीने की कला सिखायी । वर्णव्यवस्था और विवाह व्यवस्था आदि प्रगट की, वह भी अवधिज्ञान से विदेह क्षेत्र की शाश्वत व्यवस्था को जानकर ही की थी । अतएव वे प्रभु सृष्टा, विधाता, ब्रह्मा आदि भी कहलाये थे ।
श्री नेमिचन्द्राचार्य ने कहा है—
पुरगामपट्टणादी, लोहियसत्थो य लोयववहारो।
धम्मो विदयामूलो, विणिम्मियो आदिबंभेण।।
भगवान की आज्ञा से चूँकि इन्द्र ने देश, नगर, ग्राम आदि की व्यवस्था बनाई थी । पुर, ग्राम, नगर आदि रचना, लौकिक शास्त्र-व्याकरण आदि ग्रन्थ, लोक व्यवहार एवं दयामूल धर्म का आदिब्रह्मा- भगवान् ऋषभदेव ने निर्माण किया ।
एक समय इन्द्रों ने आकर महाराजा नाभिराज से आज्ञा लेकर प्रभु का राज्याभिषेक कर दिया । अनंतर भगवान ने अनेक राजा, महाराजा आदि बनाकर उन्हें सुन्दर राजनीति का उपदेश दिया ।
दीक्षा कल्याणक—
पुनः एक दिन भगवान नीलांजना के नृत्य के समय उसकी आयु समाप्त हुई देखकर विरक्त हो गये । इन्द्रों द्वारा लाई गई पालकी में बैठकर सिद्धार्थ वन में पहुँचे और जहाँ केशलोंच करके दिगम्बरी दीक्षा ली उस स्थल का नाम ‘प्रयाग’ यह प्रसिद्ध हो गया। एक वर्ष ३९ दिन बाद हस्तिनापुर में राजकुमार श्रेयांस ने प्रभु को वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन इक्षुरस का आहार देकर ‘दानतीर्थ प्रवर्तक’ पद को प्राप्त किया ।
केवलज्ञान कल्याणक—
एक हजार वर्ष तपश्चरण के बाद प्रभु को केवलज्ञान प्रगट हो गया । उसी क्षण भगवान् पृथ्वी से ५००० धनुष (२०००० हाथ) ऊपर आकाश में अधर में पहुँच गये और अर्धनिमिष मात्र में ही कुबेर ने आकाश में भगवान का समवसरण बना दिया । यह १२ योजन अर्थात् ९६ मील का गोलाकार था । इसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—
समवसरण में आठ भूमियाँ और तीन कटनी होती हैं तथा चारों ओर चार वीथी – सड़वेंâ होती हैं । इन सड़कों के मध्य प्रारंभ में ही चारों दिशाओं में एक-एक ऐसे चार मानस्तंभ होते हैं । ये भगवान् के शरीर की ऊँचाई से बाहर गुने ऊँचे होते हैं । यथा-भगवान् ऋषभदेव के शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष अर्थात् २००० हाथ थी फलतः मानस्तम्भ २०००× १२ = २४००० हाथ ऊँचे थे इनके दर्शन से मानी का मान गलित हो जाता है, वह भव्यात्मा सम्यग्दृष्टि बनकर अनंत संसार को सीमित कर लेता हैं ।
इस समवसरण में पृथ्वी से एक हाथ ऊपर से १-१ हाथ ऊँची ऐसी २० हजार सीढ़ियाँ रहती हैं । इनसे चढ़कर मनुष्य, तिर्यंच आदि सभी भव्य जीव-बाल, वृद्ध, रोगी, अंधे, लंगड़े, लूले आदि ४८ मिनट मात्र में ऊपर पहुँच जाते हैं । यह अतिशय भगवान का ही होता हैं ।
इसमें चार परकोटे और पाँच वेदियों के अन्तराल में आठ भूमियाँ हैं । जिनमें क्रम से धूलिसाल परकोटा, चैत्यप्रसाद भूमि, वेदी, खातिका भूमि, वेदी, लताभूमि, परकोटा, उपवनभूमि, परकोटा, श्रीमण्डप भूमि और वेदी ऐसी व्यवस्था रहती है । आगे १६ सीढ़ी चढ़कर प्रथम कटनी, ८ सीढ़ी चढ़कर द्वितीय कटनी एवं ८ सीढ़ी के बाद तीसरी कटनी पर गंधकुटी में भगवान विराजमान रहते हैं । प्रत्येक परकोटे में एवं वेदियों में चारों दिशाओं में एक-एक गोपुर द्वार बने हुये हैं । उनके दोनों तरफ नाट्यशालायें हैं, मंगलघट, धूपघट ओर नवनिधि भण्डार रखे रहते हैं । इन चारों द्वारों के रक्षक देवगण हैं ।
समवसरण में आठ भूमि और तीन कटनी—
१. पहली ‘चैत्यप्रासाद भूमि’ हैं, इसमें एक-एक जिनमंदिर के अन्तराल में पाँच-पाँच प्रासाद हैं ।
२. दूसरी ‘खातिका भूमि’ है, इसके स्वच्छ जल में हंस आदि कलरव कर रहे हैं । कमल आदि पुष्प खिले हुए हैं ।
३. तीसरी ‘लताभूमि’ है, इसमें छहों ऋतुओं के पुष्प खिले हुए हैं ।
४. चौथी ‘उपवनभूमि’ है, इससे पूर्व आदि दिशा में क्रम से अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्र के वन हैं । प्रत्येक वन में एक-एक चैत्यवृक्ष हैं जिनमें ४-४ जिनप्रतिमायें विराजमान हैं ।
५. पाँचवी ‘ध्वजाभूमि’ है, इसमें सिंह, गज, वृषभ, गरुड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, पद्य और चक्र इन दशचिन्हों से सहित महाध्वजायें और उनके आश्रित लघु ध्वजायें सब मिलाकर ४,७०,८८० ध्वजाये हैं ।
६. छठी ‘कल्पभूमि’ है, इसमें भूषणांग आदि दश प्रकार के कल्पवृक्ष हैं । चारों दिशा में क्रम से नमेरू, मंदार, संतानक, पारिजात ऐसे एक-एक सिद्धार्थवृक्ष हैं । इनमें चार-चार सिद्धप्रतिमायें विराजमान हैं ।
७. सातवीं ‘भवनभूमि’ में भवन बने हुए हैं । इस भूमि के पाश्र्व भागों में अर्हंन्त और सिद्ध प्रतिमाओं से सहित नौ-नौ स्तूप हैं ।
८. आठवीं ‘श्रीमण्डपभूमि’ है, इसमें १६ दीवालों के बीच में १२ कोठे हैं जिनमें (१) गणधरादि मुनि, (२) कल्पवासिनी देवी, (३) आर्यिका और श्राविका, (४) ज्योतिषी देवी, (५) व्यंतर देवी, (६) भवनवासिनी देवी, (७) भवनवासी देव, (८) व्यंतर देव, (९) ज्योतिष देव, (१०) कल्पवासी देव, (११) चक्रवर्ती आदि मनुष्य और (१२) सिंहादि तिर्यंच ऐसे बारह गण के असंख्यातों भव्य जीव बैठकर धर्मोपदेश सुनते हैं । वहाँ पर रोग-शोक, जन्म-मरण, उपद्रव आदि बाधायें नहीं हैं ।
पुन: प्रथम कटनी पर आठ मंगल द्रव्य, द्वितीय कटनी पर आठ महाध्वजायें हैं । तृतीय कटनी पर गंधकुटी में सिंहासन पर लाल कमल की कर्णिका पर भगवान ऋषभदेव चार अंगुल अधर विराजमान हैं । इनका मुख एक तरफ होते हुए भी चारों तरफ दिखने से ये चतुर्मुर्ख ब्रह्मा कहलाते हैं । भगवान के पास अशोक वृक्ष, तीन छत्र, सिंहासन, भामंडल, चौंसठ चंवर, सुरपुष्पवृष्टि दुंदुभि बाजे और हाथ जोड़े सभासद ये आठ महाप्रातिहार्य होते हैं । वहीं पर गोमुख यक्ष और चक्रेश्वरी यक्षी विद्यमान हैं ।
समवसरण का ऐसा प्रभाव रहता हैं कि जात विरोधी सिंह, हिरण, गाय, व्याघ्र, सर्प, नेवला, मोर आदि सभी पशु-पक्षी परस्पर के बैर को छोड़कर मैत्रीभाव धारण कर भगवान का उपदेश सुनते हैं ।
संसार में एक तीर्थंकर भगवान् का समवसरण ही ऐसा है कि जहाँ देवों और मनुष्यों के समान तिर्यंचों के लिए भी एक कोठा निश्चित है उस कोठे में बैठकर संख्यातों पशु-पक्षी भगवान् का उपदेश सुनकर अपना कल्याण कर लेते हैं । इनमें लाखों पशु तो अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाणाणुव्रत धारण करके स्वर्ग को प्राप्त कर लेते हैं ।
भगवान् की दिव्यध्वनि ७१८ भाषाओं में खिरती हैं अथवा सर्वभाषाययी वाणी को सभी प्राणी अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं । श्री यतिवृषभाचार्य कहते हैं—
अट्ठरस महाभासा, खुल्लयभासा सयाइं सत्त सहा ।
अक्खर अणक्खरप्पय- सण्णीजीवाण सयलभासाओ ।।९०१।।
एदासुं भासासुं, तालुवदंतोट्ठकंठवावारे ।
परिहरिय एक्ककालं, भव्वजणे दिव्वभासित्तं ।।९०२।।
पगदीए अक्खलिओ, संझत्तिदयम्मिणवमुंत्ताणि ।
णिस्सरदिणि रूवमाणे, दिव्वझुणीजाव जोयणयं ।।९०३।।
सेसेसु य समएसुं, गणहरदेविंदचक्कवट्टीणं ।
पण्हाणु रूवमत्थं, दिव्वझुणी सत्तभंगीहिं ।।९०४।।
छट्दव्व-णवपयत्थे, पंचट्ठीकायसत्ततच्चाणि ।
णाणाविहहेदूहिं दिव्वझुणी भणइ भव्वाण ।।९०५।।
अठारह महाभाषा, सात सौ क्षुद्रभाषा तथा और भी जो संज्ञा जीवों की समस्त अक्षर-अनक्षरात्मक भाषायें हैं उनमें तालु, दाँत, ओष्ठ और वंâठ के व्यापार से रहित होकर एक ही समय में भगवान् भव्यजनों को दिव्य उपदेश देते हैं । भगवान् जिनेन्द्र की स्वभावतः अस्खलित और अनुपम दिव्य ध्वनि तीनों संध्या कालों में नव मुहूर्तों तक खिरती है और एक योजन (४ कोश) पर्यंत जाती हैं । इसके अतिरिक्त गणधरदेव, इन्द्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ वह दिव्यध्वनि शेष समयों में भी सप्तभंगरूप से निकलती है । यह दिव्यध्वनि भव्यजीवों को छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्वों को नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरूपण करती है।
भगवान् का श्रीविहार—
जब भगवान् श्रीविहार करते हैं – चलते हैं तब देवगण आकाश में भगवान के चरणों के नीचे स्वर्णमय सुगन्धित कमलों की रचना करते जाते हैं । भगवान के श्रीविहार के समय कुबेर रत्नों की वर्षा करता हैं । आगे-आगे धर्मचक्र चलता है और सरस्वती एवं लक्ष्मी भी भगवान के श्रीविहार में कमल आदि लेकर चलती हैं । तथा दिक्कुमारियाँ हाथ में मंगल द्रव्य धारण करती हैं ।
भगवान के श्रीविहार से सर्वत्र ८००-८०० मीलों तक मंगल, क्षेम और सुभिक्ष हो जाता हैं । सभी आपस में मैत्री भाव धारण कर लेते हैं। रोग, शोक, आधि, व्याधि आदि उपद्रव नहीं होते हैं । भूकंप, नदी बाढ़, अग्निप्रकोप, अकालमृत्यु आदि दुर्घटनायें भी टल जाती हैं ।
वास्तव में जो महापुरुष स्वयं प्राणीमात्र पर दया करते हुए पूर्ण अहिंसा धर्म का पालन करते हैं उन्हीं में ऐसी विशेषता आ जाती है कि क्रूर प्राणी भी उनके सान्निध्य को प्राप्त कर क्रूरता छोड़ देते हैं । बैर-विरोध छोड़ देते हैं ।
भगवान, समवसरण में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का उपदेश देकर असंख्य, प्राणियों, को धर्मामृत का पान कराते हैं । जब भगवान् केवलज्ञानी हो जाते हैं तब मोह, राग, द्वेष, इच्छा आदि का अभाव हो जाने से उनका उपदेश भी बिना इच्छा के मात्र भव्यों के पुण्योदय से ही होता है जैसे कि मेघ बिना इच्छा के ही बरसते हैं ।
मोक्षकल्याणक—
लाखों वर्षों तक भगवान ऋषभदेव ने श्रीविहार करके भव्यों को तृप्त किया । अनंतर कैलाशपर्वत पर योग निरोध करके आयु कर्म के अंत में निर्वाण धाम प्राप्त कर लिया । जब तृतीयकाल में तीन वर्ष साढ़े आठ माह शेष थे तब भगवान मोक्ष गये हैं । हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से प्रथम तीर्थंकर तृतीयकाल के अन्त में ही जन्म लेकर तृतीयकाल में ही मोक्ष चले गये हैं । वहां वे भगवान अनन्तानन्त काल तक अतीन्द्रिय सुख में निमग्न रहेंगे, पुनः कभी भी इस पृथ्वी पर अवतार नहीं लेंगे । कहा भी है—
काले कल्पशतेऽपि च, गते शिवानां न विक्रिया लाक्षाः ।
उत्पातोऽपि यदि स्यात्, त्रिलोकसंभ्रातिकरणपटुः ।।
सैकड़ों कल्पकाल के व्यतीत हो जाने पर भी मोक्ष को प्राप्त हुए जीवों में विकार-आवागमन संभव नहीं हैं । भले ही तीनों लोकों में क्षोभ करने वाला ऐसा उत्पात ही क्यों न हो जावे ?
अनन्त ईश्वरों का अस्तित्व—
तीनलोक के अग्रभाग पर ऐसे अन्तानन्त सिद्ध परमात्मा विराजमान हैं और ये सभी संसार के चतुर्गति के भ्रमण से छूटकर ही मुक्त हुए हैं इसीलिए जैनधर्म में अनन्त ईश्वरों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। हम और आप में से कोई भी महापुरुष दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता आदि सोलहकारण भावनाओं को भाकर तीर्थंकर बन सकते हैं अथवा कोई भी रत्नत्रय के बल से कर्मों को नाशकर सामान्य केवली होकर सिद्ध परमात्मा बन जाते हैं जैसे भरत–बाहुबली आदि ।
क्या जैन धर्म नास्तिक हैं ?
भारतीय दर्शन में लिखा है- ‘वेदों के प्रामाण्य को स्वीकार न करने तथा ईश्वर में आस्था न रखने वाले भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन का स्थान चार्वाक दर्शन के बाद आता है।’
किन्तु यह बात उचित नहीं हैं । जैनधर्म में ईश्वर को सृष्टि का कत्र्ता नहीं माना है क्योंकि ईश्वर को सृष्टि का कर्त्ता मानने में अनेक दोष आते हैं। जैसे कि ईश्वर विश्व के प्राणियों के प्रति दयालु है परम पिता है । पुनः वह किसी को पाप का फल नरक, तिर्यंच योनियों में भ्रमण अथवा दुःखी दरिद्री क्यों बनाता हैं ? यदि कहीं पाप का फल कटु ही है तो फिर परमात्मा परमेश्वर ने हिंसा, झूठ, व्यभिचार आदि पापों की सृष्टि ही क्यों की ?
इसीलिए जैन सिद्धान्त के अनुसार तो प्रत्येक प्राणी ही अपनी-अपनी सृष्टि का कर्त्ता है और जब उसे समाप्त कर देता है तब स्वयं ही सिद्ध भगवान बन जाता है । जैसा कि कहा भी है-
शरीरी प्रत्येकं भवति भुविवेधाः स्वकृतितः ।
विधत्ते नानाभू-पवन-जलवन्हि द्रुमतनुम् ।।
त्रसो भूत्वा-भूत्वा कथमपि विधायात्र कुशलम् ।
स्वयं स्वस्मिन्नास्ते भवति कृतकृत्यः शिवमयः ।।१८।।
प्रत्येक प्राणी अपने द्वारा किये गये पुण्य-पाप के अनुसार अनेक प्रकार के पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति-वृक्षादिक में जन्म लेता रहता है। यही प्राणी त्रस-दो इन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्री होकर कदाचित् पुण्य कार्य को करके जब स्वयं अपने आत्मा में स्थित हो जाता है तब कृतकृत्य हुआ भगवान बन जाता है।
इन सभी उद्धरणों से यह बात सिद्ध है कि जैन अर्हंत-केवली की वाणी को ही ‘वेद’ मानते हैं उसे ‘अपौरुषेय’ नहीं मानते हैं । आत्मा के अस्तित्व को, परलोक को और पुण्य-पाप तथा उसके फल को भी स्वीकार करते है । इसीलिए ‘जैनधर्म’ चार्वाक के समान नास्तिक धर्म नहीं हैं ।
जैन धर्म शाश्वत है—
‘कर्मारातीन् जयतीति जिन:’ व्याख्या के अनुसार कर्म शत्रुओं को जीतने वाले जिन हैं और ‘जिन देवता अस्येति जैन:’ जिन भगवान जिनके देवता हैं- उपास्य हैं वे जैन हैं ।
अतः यह जैन धर्म शाश्वत है, प्राणीमात्र का हित करने वाला है, सभी को भगवान बनने के लिए अधिकार देने वाला सार्वभौम है और सर्व हितंकर है । जैन धर्म में वर्तमान में भगवान ऋषभदेव से महावीर तक चौबीस तीर्थंकर माने हैं ।
वेदों में भी श्री ऋषभदेव आदि—
ऋग्वेद, अथर्ववेद आदि में भी ऋषभदेव के नाम आये हैं ।
ॐ त्रैलोक्यप्रतिष्ठितान् चतुर्विंशतितीर्थकरान् ।
ऋषभाद्यान् वर्द्धमानान्तान् सिद्धान् शरणं प्रपद्ये ।।
ॐ नमो अर्हतो ऋषभाय ।
मनुस्मृति में भी कहा है—
दर्शयन् वर्त्मवीराणां, सुरासुरन स्कृतः ।
नीतित्रितय कर्ता यो, युगादौ प्रथमो जिनः ।।
भागवत में भी कहा है—
भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नामेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यां धर्मानदायितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमंथिनां शुक्लया तनुवावतार ।।
यज्ञ में महर्षियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर श्री भगवान् महाराज नाभिराज को प्रिय करने के लिए उनके रनिवास में मरुदेवी के गर्भ से दिगंबर सन्यासी और उर्ध्वरिता मुनियों का धर्म प्रकट करने के लिए शुद्ध सत्वमय विग्रह से प्रगट हुए ।
नित्यानुभूतिनिजलाभनिवृत्ततृष्ण,
श्रेयस्य तन् रचन या चिरसुप्तबुद्धेः ।
लोकस्य यः करुणयाभयमात्मलोक-
माख्यान् नमो भगवते ऋषभाय तस्मै ।।
जैन ग्रंथों के अनुसार ये भगवान ऋषभदेव इस अवसर्पिणी में युग के आदि में प्रथम तीर्थंकर हुए हैं और वैदिक ग्रंथों के अनुसार ये अष्टम अवतार माने गये हैं । यथा—
कुलादिबीजं सर्वेषां, प्रथमो विमलवाहनः ।
चक्षुष्मान् यशस्वीव- भिचन्द्रोऽथप्रसेनजित् ।।
मरुदेवी च नाभिश्च, भरते कुलसत्तमाः ।
अष्टमो मरुदेव्यां तु, नाभेर्जातः उरक्रमः ।।
भरत के नाम से भारतवर्ष—
इन्हीं ऋषभदेव के प्रथम पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम से हमारे देश का नाम ‘भारतवर्ष पड़ा है ऐसा ‘आदिपुराण’ में कहा ही हैं । वैदिक ग्रंथों में भी कहा है । जैसा कि—
‘येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठ गुण ।
आसीद् येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति ।।
ऋषभाद् भरतो जज्ञे, वीरः पुत्रताग्रजः ।
सोभिषिच्याय भरतं, पुत्रं प्राब्राज्यमास्थितः ।।
हिमाह्वं दक्षिणं वर्ष, भरताय न्यवेदयत् ।
तस्माद् भारतं वर्ष, तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः ।।
भगवान ऋषभदेव से भरत हुए जो कि सौ पुत्रों में अग्रणी वीर थे । ऋषभदेव ने भरत पुत्र का राज्यभिषेक करके दीक्षा ले ली । भरत ने हिमवान् से लेकर दक्षिण क्षेत्र पर्यंत जो राज्य प्राप्त किया था विद्वानों ने उस समस्त क्षेत्र को ‘भारतवर्ष’ इस नाम से जाना है।
यह भरत क्षेत्र कहाँ है जहाँ षट्काल परिवर्तन होते रहते हैं ?
इसको समझने के लिए लोक की रचना एवं जम्बूद्वीप का किंचित् दिशा मात्र वर्णन यहाँ किया जाता हैं ।
जहाँ यह जीव संचरण करता है, चतुर्गति में परिभ्रमण करता है उसका नाम ‘संसार’ है यह संसार ‘लोक’ नाम से भी कहा जाता है।
‘लोक्यन्ते’ अवलोक्यन्ते जीवादिषड्द्रव्याणि अस्मिन्निति लोकः’
जहाँ पर जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छहों द्रव्य देखे जाते हैं वह लोक है । वह लोक अकृत्रिम, अनादिनिधन है एवं स्वभाव से बना हुआ है । अर्थात् इसे किसी ने बनाया नहीं है।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कहते हैं ।—
‘लोगा अकिट्टिमो खलु, अणाइणिहणो सहावणिव्वत्तो ।
जीवाजीवेहिं फुडो, सव्वागासवयवो णिच्चो ।।४।।
यह लोक तीन भागों में विभक्त हैं- अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक । मध्यलोक में असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं।
इसमें सर्वप्रथम द्वीप का नाम जम्बूद्वीप है । यह थाली के समान गोल है, एक लाख योजन अर्थात् (४०,००,००,०००) चालीस करोड़ मील व्यास वाला है। उसको घेरकर २ लाख योजन व्यास वाला लवण समुद्र है। इसको घेरकर चार लाख योजन व्यास का धातकीखण्ड है । इसे घेरकर कालोदधि समुद्र है । इसे घेरकर पुष्पकर द्वीप है इसी के ठीक बीच में मानुषोत्तर पर्वत है जो कि चूड़ी के समान आकार वाला है। यहीं एक जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड द्वीप और आधा पुष्कर द्वीप ये ढाई द्वीप माने जाते हैं । ऐसे ही एक-एक द्वीप को घेरकर एक-एक समुद्र होने से जितने द्वीप हैं उतने ही समुद्र है । जो कि पूर्व-पूर्व के द्वीप समुद्र से दूने-दूने विस्तार वाले हैं ।
जम्बूद्वीप के ठीक बीच में सुमेरु पर्वत है यह एक लाख योजन ऊँचा है । इसकी नींव चित्रा पृथ्वी के नीचे एक हजार योजन है और भूमि से ऊपर ९९ हजार योजन है इसकी चूलिका ४० योजन ऊँची है ।
इस गोलाकार द्वीप में दक्षिण से लेकर उत्तर तक पूर्व-पश्चिम लम्बे ऐसे छह कुल पवर्त हैं- जिनके नाम हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रूक्मी और शिखरी हैं । इन पर्वतों से विभाजित सात क्षेत्र हैं – भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत । एक-एक क्षेत्र में २-२ नदियाँ, ऐसे गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या आदि १४ महानदियाँ हैं ।
विदेह के बीच में सुमेरु पर्वत होने से उसके दक्षिण और उत्तर में देवकुरु उत्तरकुरु भोगभूमि हैं । तथा पूर्व और पश्चिम में पूर्व-विदेह और पश्चिम – विदेह हैं । पूर्व विदेह के मध्य में सीता नदी से दक्षिण और उत्तर में ऐसे दो भाग हो गये पुनः दक्षिण में चार वक्षार और तीन विभंगा नदी से आठ देश हो गये । ऐसे ही उत्तर में आठ क्षेत्र हुए एवं पश्चिम विदेह में भी चार-चार वक्षार तथा तीन-तीन विभंगा नदियों से ८-८ क्षेत्र होने से कुल ३२ विदेह क्षेत्र हो जाते हैं ।
१७० कर्मभूमियाँ—
जम्बूद्वीप में एक भरत, एक ऐरावत एवं बत्तीस विदेह क्षेत्र हैं । तथा धातकीखण्डद्वीप में पूर्वधातकी खण्ड और पश्चिम धातकीखण्ड एवं पुष्करार्ध द्वीप में पूर्व पुष्करार्ध द्वीप और पश्चिम पुष्करार्ध द्वीप ऐसे दो-दो भाग हो गये हैं । इनमें विजय, अचल, मंदर और विद्युन्माली ऐसे चार मेरू हैं तथा एक-एक भरत, एक-एक ऐरावत और ३२-३२ विदेह होने से ५ भरत, ५ ऐरावत और ३२×५=१६० विदेह हो जाते हैं । प्रत्येक में छह-छह खण्ड हैं । अधिकतर तीर्थंकर १७० एवं कम से कम २० होते हैं ।
इन्हीं १७० कर्मभूमियों के आर्यखण्डों में यदि एक साथ अधिकतम तीर्थंकर या चक्रवर्ती या नारायण, प्रतिनारायण और बलभद्र, होवें तो अधिकतम १७० हो सकते हैं और कम से कम एक-एक मेरू एक-एक मेरू सम्बन्धी विदेहों में ४-४ ऐसे (४×५= २०) बीस तीर्थंकर तो रहते ही हैं। कहा भी है—
तित्थद्धसयलचक्की, सट्ठिसयं पहुवरेण अवरेण ।
वीसं वीसं सयले, खेत्ते सत्तरिसयं वरदो ।।६८९।।
तीर्थंकर, अर्धचक्री और सकलचक्री ये विदेह क्षेत्र की अपेक्षा अधिकतम १६० एवं कम से कम २० होते हैं । इन्हीं में भरत-ऐरावत के भी मिला देने से अधिकतम १७० हो जाते हैं ।
इस गाथा से स्पष्ट है कि ऋषभदेव और महावीर स्वामी जैसे तीर्थंकर महापुरूष इन कर्मभूमियों में अनन्तों हो चुके हैं और आगे भी होते रहेगे। ‘चतुर्थकालो विदेहे चावस्थित एव ।’ इस नियम के अनुसार विदेह क्षेत्रों में हमेशा चतुर्थकाल ही रहता है, षट्काल परिवर्तन नहीं होता है।
षट्कालपरिवर्तन कहाँ-कहाँ है ?
भरतैरावतयोर्वृद्धिह्रासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ।।२७।।
ताम्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ।।२८।।
भरत और ऐरावत क्षेत्र में छह कालों से युक्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के द्वारा जीवों की आयु, ऊँचाई सुख आदि में वृद्धि और ह्रास होता रहता है। यहाँ भरत से पाँचों भरत और ऐरावत से पाँचों ऐरावत क्षेत्र लेना है।
पुनः इनसे अतिरिक्त क्षेत्रों में, विदेह क्षेत्रों में तथा हैमवत, हरि, रम्यक और हैरण्यवत क्षेत्रों में जैसी की तैसी व्यवस्था बनी रहती है । विदेहों में १६० विदेह क्षेत्र गिनाये हैं । हैमवत तथा हैरण्यवत में जघन्य भोगभूमि, हरि ओर रम्यक में मध्यम भोगभूमि तथा देवकुरु-उत्तरकुरू मे जो कि सुमेरू के दक्षिण-उत्तर में हैं उनमें उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था स्थायी है।
प्रथम कर्मभूमि—
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में मध्य में पूर्व-पश्चिम लम्बा विजयार्ध पर्वत एवं हिमवान् पर्वत से निकली हुई गंगा-सिन्धु नदियों के निमित्त से छह खण्ड हो जाते हैं । इनमें मध्य के आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। अवसर्पिणी में सुषमा, दुःषमा और अतिदुःषमा ये छह काल होते हैं और उत्सर्पिणी में अतिदुःषमा से लेकर सुषमा-सुषमा पर्यन्त छह काल होते हैं । इनमें से सुषमा-सुषमा आदि तीन कालों मे भोगभूमि एवं दुःषमासुषमा आदि तीन में कर्मभूमि की व्यवस्था होती है।
इस व्यवस्था के अनुसार प्रथम जम्बूद्वीप के प्रथम भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में जो कर्मभूमि आती है वह प्रथम कहलाती है।
भोगभूमि—
भोगभूमि में मद्यांग, वादित्रांग, भूषणांग, मालांग, दीपांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भोजनांग, भाजनांग, वस्त्रांग ये दश प्रकार के कल्पवृक्ष मनवांछित फल देते रहते हैं ।
कर्मभूमि—
जहाँ मनुष्य असि, मषि, कृषि, आदि क्रियाओं द्वारा जीवनयापन करते हैं । जहाँ मुनियों की षट्क्रियाओं को करते हुए मुनि एवं श्रावकों की क्रियाओं को करते हुए श्रावक मोक्षमार्ग को प्रशस्त करके कर्मों को नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं उसे कर्मभूमि कहते हैं ।
चौबीसों तीर्थंकरों के शासन की महिमा—
इस भारत देश में भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक यह जैन शासन अहिंसा धर्म से प्राणिमात्र में शांति की स्थापना करता रहा है। आज भी इन तीर्थंकर भगवंतों के अहिंसामयी धर्म की आवश्यकता है। क्योंकि इस पावन शासन में ‘तीन’ वस्तु आपस में पूर्णरूपेण अविरोधी-विरोध रहित होकर रहते हैं ।
इसी बात को श्रीसमन्तभद्र स्वामी ने कहा है—
‘नयसत्त्वर्तवः सर्वे गव्यन्ये चाप्ससंगता: ।’
नय, सत्व-प्राणी और ऋतुयें ये तीनों जैन शासन में परस्पर विरोधी होते हुए विरोध को छोड़कर मैत्रीभाव को प्राप्त कर लेते हैं । जैनधर्म के अनुसार द्रव्यार्थिक नय कहता है आत्मा नित्य है जन्ममरण से रहित है, पर्यायार्थिक नय कहता है कि आत्मा अनित्य है, जन्म-मरण के निमित्त से देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी आदि पर्यायों को धारण करता है। कथंचित् अपेक्षा से ये दोनों सही हैं । आत्मा नित्य भी है ‘क्योंकि अनादिकाल से अनन्तकाल तक विद्यमान है। पर्यायों की अपेक्षा अनित्य भी है क्योंकि मनुष्य को छोड़कर देव में जन्म लेता है इत्यादि । ऐसे ही परस्पर विरोधी प्राणी भी महामुनियों का और तीर्थंकर भगवन्तों का आश्रय-लेकर परस्पर के वैर को छोड़कर प्रीति को प्राप्त हो जाते हैं—
सारंगीसिंहशावं स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतम् ।
मार्जारी हंसवालं प्रणयपरवशा केकिकांता भुजंगीम् ।।
वैराण्यजन्मजाता-न्यपि गलितमदा जन्तवोऽन्ये त्यजन्ति ।
श्रित्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम् ।।
हरिणी सिंह के बच्चे को पुत्र की बुद्धि से स्पर्श करती है, गाय व्याघ्र के बालक को, बिल्ली हंस के बच्चे को एवं मयूरनी प्रेम के वश में सर्प के बच्चे को प्यार करने लगती है । जन्म से ही वैर को धारण करने वाले ऐसे क्रूर पशु भी वैर, अभिमान आदि को छोड़ देते हैं । कब ? जबकि ये परमसाम्य को प्राप्त क्रोध, मान, माया, लोभ आदि दोषों से रहित ऐसे महायोगियों का आश्रय ले लेते हैं ।
इसी प्रकार इन महापुरुषों की छत्रछाया में कितने ही कोसों तक छहों ऋतुओं के फल-फूल एक साथ आ जाते हैं ।
इस प्रकार यहाँ हमने संक्षेप में भगवान ऋषभदेव का परिचय दिया है । अहिंसा की प्रतिमूर्ति १०८ फीट विशालकाय भगवान ऋषभदेव की मूर्ति की प्रतिष्ठापना के पावन अवसर पर यह संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया है । इस विशाल मूर्ति के दर्शन कर सभी प्राणी जीवन में अहिंसा को उतारे यही मंगल भावना है ।