भगवान पार्श्वनाथ तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव की घोषणा
(ज्ञानमती_माताजी_की_आत्मकथा)
जैन शब्दकोश एक विशेष उपहार–भगवान महावीर २६००वाँ जन्मोत्सव वर्ष के अंतर्गत वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकता को देखते हुए आर्यिका चंदनामती मुझसे एक जैनधर्म के हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश के बारे में कहने लगीं तो मैंने भगवान महावीर के नाम पर उस शब्दकोश को बनाने की प्रेरणा दी।
उसी के फलस्वरूप चन्दनामती के साथ डा. अनुपम जैन (महामंत्री विद्वत् महासंघ), जीवन प्रकाश जैन-इंदौर एवं संघस्थ ब्र. स्वाति जैन आदि ने परिश्रम करके तीन वर्षों में लगभग १५ हजार शब्दों का शब्दकोश तैयार किया है। जिसमें मुझसे पूछ-पूछकर शास्त्रीय विवेचन पूर्ण प्रामाणिक रूप में प्रस्तुत किया है।
यह शब्दकोश वर्तमान एवं भावीपीढ़ी के लिए जैनधर्म के ज्ञान हेतु अत्यंत उपयोगी है। ये सभी मेरे शिष्यगण इसी प्रकार सरस्वती की उपासना करते हुए युग की आवश्यकताओें की पूर्ति करते रहें, यही मैंने सदैव इन लोगों को आशीर्वाद प्रदान किया है।
भगवान पार्श्वनाथ तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव की घोषणा
उत्सव और महोत्सवों को मनाने की भारत देश की प्राचीन परम्परा रही है, उसी परम्परानुसार सन् १९७४ में भगवान महावीर का २५००वाँ निर्वाण महोत्सव, सन् २००० में भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाणमहोत्सव एवं सन् २००१ में भगवान महावीर का २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव सरकार और समाज ने मिलकर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया है।
इसी प्रकार अब तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के माध्यम से जैनधर्म का प्राचीन इतिहास दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचाने हेतु मैंने ५ दिसम्बर २००३ को राजगृही में भगवान मुनिसुव्रत जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के मध्य ‘‘भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव’’ मनाने की घोषणा की है।
उसके बाद १९ दिसम्बर २००३ पौष कृष्णा एकादशी को पार्श्वनाथ जन्मजयंती के दिन मेरी प्रेरणा से पार्श्वनाथ जन्मभूमि वाराणसी में उस महोत्सव को मनाने हेतु संकल्पदीप प्रज्वलित किया गया।
जन्मभूमि में द्वितीय जन्मजयंती महोत्सव
कुण्डलपुर में मेरे संघ सानिध्य में समिति द्वारा ३ अप्रैल २००४ को भगवान महावीर का जन्मजयंती महोत्सव विशेष प्रभावना के साथ मनाया गया। गया (बिहार) की दिगम्बर जैन समाज के विशेष सहयोग (प्रीतिभोज एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम की जिम्मेदारी ली) एवं इंदौर (म.प्र.) से श्री माणिकचंद जैन पाटनी के संयोजन में कुण्डलपुर पधारे १५० प्रतिनिधियों ने इस द्वितीय जन्मोत्सव को अद्वितीय बना दिया। मेरी भावना एवं प्रेरणा है कि प्रतिवर्ष इसी प्रकार महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर में महावीर जयंती व्यापक स्तर पर मनाई जाती रहे।
कुण्डलपुर में संघ का द्वितीय वर्षायोग
भगवान महावीर जन्मभूमि के विकास एवं वहाँ के नवनिर्माण का कार्य यद्यपि अत्यन्त तेजगति से पूरे वर्ष चला किन्तु निर्माण की अधिकता तो अपने समय के अनुसार ही साकाररूप ले पाएगी।
यहाँ के नंद्यावर्त परिसर में तीन मंदिरों का निर्माण तो प्रायः पूर्ण हो चुका है किन्तु त्रिकाल चौबीसी का तीन मंजिल वाला मंदिर एवं यहाँ का प्रमुख आकर्षण केन्द्र ‘‘नंद्यावर्त महल’’ जिसको एक विशिष्ट शैली में प्रस्तुत करने की योजना बनाई गई है, इन सभी को देखने की मनोभावना रही तथा बिहार के भक्तों एवं कुण्डलपुर समिति का विशेष आग्रह रहा अतः मैंने अपना दूसरा चातुर्मास भी कुण्डलपुर में १ जुलाई २००४ आषाढ़ शु. चतुर्दशी को स्थापित किया है।
पिछले वर्ष की तरह ही इस चातुर्मास के मध्य डा. पन्नालाल जैन पापड़ीवाल परिवार द्वारा अगस्त में इन्द्रध्वज विधान, दशलक्षण पर्व (सितबंर माह) में गणिनी ज्ञानमती भक्तमण्डल महाराष्ट्र के द्वारा विश्वशांति महावीर विधान, अक्टूबर में श्रीभागमल गुणसागर जैन-चित्तौड़गढ़ (राज.) द्वारा सर्वतोभद्र विधान एवं कुण्डलपुर समिति द्वारा ‘‘कुण्डलपुर महोत्सव’’ आदि प्रमुख आयोजनों के साथ अनेक कार्यक्रम अपनी क्रम शृँखला के साथ सम्पन्न हो रहे हैं।
इन सबके साथ-साथ मेरा षट्खण्डागम टीका का लेखन कार्य, चंदनामती का अध्ययन, लेखन एवं संघस्थ शिष्याओं का अध्ययन-पठन आदि सब कुछ अपनी गति से सुचारू चल रहा है। १२ नवंबर २००४ कार्तिक कृ. अमावस को मेरा यह चातुर्मास समापन होगा पुनः १४ नवंबर को कुण्डलपुर से मेरा ससंघ बनारस, अयोध्या, अहिच्छत्र आदि तीर्थों की यात्रा करते हुए दिल्ली-हस्तिनापुर की ओर मंगल विहार करने का विचार है।
मेरी यह सम्पूर्ण कुण्डलपुर यात्रा मेरे संघ के लिए तथा समस्त देशवासियों के लिए क्षेम और सुभिक्षकारी हो, यही वीरप्रभु से प्रार्थना है।
तीर्थ त्रिवेणी का अपूर्व संगम
मुझे जीवन में पहली बार एक साथ तीन-तीन तीर्थों के दर्शन का सुयोग प्राप्त हुआ है अतः हृदय में बड़ा आल्हाद रहता है। कुण्डलपुर प्रवास करते हुए प्रतिमाह १ बार राजगृही और १ बार पावापुरी जाकर पर्वतवंदना, जलमंदिर में ध्यान आदि करना मुझे जन्म-जन्म में संचित पुण्य का फल प्रतीत होता है।
कुण्डलपुर अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन
भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर का एवं वहाँ की प्राचीन संस्कृति, नगरी की ऐतिहासिकता, भगवान के राजवंश की महत्ता, तीर्थंकर पद की सार्थकता आदि से जन-जन को परिचित कराने हेतु कुण्डलपुर समिति ने एक अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशन की योजना बनाई है।
उसके प्रधान सम्पादक प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन-फिरोजाबाद हैं उनके तथा सम्पादक मण्डल के सभी सम्पादकों के कुशल सम्पादन में भगवान महावीर की गरिमा के अनुरूप गंथ का प्रकाशन होवे, यही मंगल कामना है। दानवीर समाजरत्न श्री कमलचंद जैन-खारीबावली दिल्ली परिवार के अर्थ सौजन्य से प्रकाशित हो रहे ‘‘कुण्डलपुर अभिनंदन ग्रंथ’’ का विमोचन ‘‘जन्मभूमि कुण्डलपुर’’ की पावन धरा पर ‘‘कुण्डलपुर महोत्सव’’ २००४ के मध्य होने वाला है ।
यह सुनकर मुझे प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि मेरे संघस्थ शिष्यों के दिन रात परिश्रम के फलस्वरूप विद्वानों की जुड़ी तीर्थ भक्ति भावना के प्रतिफल में, मेरे निकटवर्ती श्रावक भक्तों एवं देशभर के दिगम्बर जैन श्रद्धालुओं की अर्थांजलि की त्रिवेणी ने तीर्थ निर्माण के साथ-साथ कई वृहत्काय ग्रंथ और अनेक लघु पुस्तकों के प्रकाशन के कार्यों को भी सम्पन्न किया गया है। यह देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति सबके जीवन को यथायोग्य रत्नत्रय से विभूषित करे, यही मेरा मंगल आशीर्वाद है।
कुण्डलपुर पुरस्कार का प्रारंभीकरण
मेरी प्रेरणा एवं चंदनामती के निर्देशानुसार कुण्डलपुर भगवान महावीर की स्मृति को चिरस्थाई बनाने हेतु १ जुलाई सन् २००४ को कमलचंद जैन-दिल्ली की ओर से ‘‘कुण्डलपुर पुरस्कार’’ की घोषणा हुई है।
जो इस वर्ष कुण्डलपुर महोत्सव-अक्टूबर में किसी योग्य सक्रिय व्यक्तित्व को प्रदान किया जायेगा तथा आगे प्रतिवर्ष देने की तारीख हस्तिनापुर जम्बूद्वीप संस्थान द्वारा प्रचारित की जायेगी। कुण्डलपुर की पवित्र धरती पर बैठकर मैंने ‘‘मेरी स्मृतियाँ’’ ग्रंथ के द्वितीय संस्करण हेतु थोेड़े से अनुभव प्रस्तुत किये हैं।
भगवान महावीर की कृपा प्रसाद से मेरा उपयोग सदैव इसी प्रकार धर्मध्यान और तीर्थभक्ति में लगा रहे, भगवान पार्श्वनाथ के जिस तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव को मनाने की मैंने सम्पूर्ण जैन समाज को प्रेरणा प्रदान की है, वह सभी जगह निर्मत्सर भाव से प्रभावनापूर्वक मनाया जावे तथा समस्त २४ तीर्थंकरों के जन्मभूमि तीर्थों का शीघ्रातिशीघ्र जीर्णोद्धार, विकास होवे।
यूँ तो मुझे प्रसन्नता है कि १ जुलाई २००४ को कुण्डलपुर में मेरे सानिध्य में ‘‘भगवान पार्श्वनाथ तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव’’ की बड़ी मीटिंग हुई तो उसमें पूरे देश से पधारे एवं बनारस से पधारे विशिष्ट श्रावक-श्राविकाओं ने अति उत्साहपूर्वक उसे सफल करने की भावनाएं व्यक्त कर पुण्य संचय किया पुनः ४ जुलाई २००४ को वाराणसी में महोत्सव उद्घाटन से संबंधित स्थानीय जैन समाज की मीटिंग भी अच्छी शानदार सम्पन्न हुई, उसमें केन्द्रीय समिति के अध्यक्ष ब्र. रवीन्द्र कुमार के साथ संघपति, महावीर प्रसाद जी, कमलचंद जी, कैलाशचंद जी, अनिल जी (सभी दिल्ली), सरोज कुमार जी (फतेहपुर), डा. पन्नालाल पापड़ीवाल-महाराष्ट्र, सिद्धार्थ जैन-लखनऊ आदि अनेक लोगों ने भी भाग लेकर महोत्सव की गरिमा से बनारसवासियों को परिचित कराया कि अब भगवान पार्श्वनाथ महोत्सव के निमित्त से वाराणसी की ख्याति जैन तीर्थंकर की जन्मभूमि के रूप में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैलने वाली है इत्यादि।
वहाँ की मीटिंग में ६ जनवरी २००५ को महोत्सव का उद्घाटन वाराणसी से करने हेतु सर्व सम्मतिपूर्वक प्रस्ताव पारित किया गया। मीटिंग की पूरी रिपोर्ट सुनकर मुझे प्रसन्नता हुई, अब रवीन्द्र कुमार पूरे देश के कार्यकर्ताओं के १००८ नामों की महोत्सव समिति का गठन कर रहे हैं। ये सभी मिलकर भगवान पार्श्वनाथ एवं जैनधर्म की विश्वव्यापी प्रभावना करें, यही मेरी अंतरंग भावना है।
चौंसठ ऋद्धि विधान
इस मेरी स्मृतियाँ ग्रंथ लेखन की अरुचि के कारण मैं चंदनामती से कह रही थी कि कभी-कभी मेरे अनुभव टेप में मुझसे भरवा लिया करो और उसके आधार से तुम लोग लिख दिया करो। उसी दिन १८ जुलाई रविवार को अशोकविहार-दिल्ली से श्री सुशील कुमार जैन अपने साथ १८ लोगों को लेकर कुण्डलपुर आ गये पुनः पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार चौंसठ ऋद्धि विधान का आयोजन शुरू हुआ।
११ पूजाओं में निबद्ध इस विधान की रचना मैंने ईसवी सन् १९९३ में की थी। इसमें एक-एक ऋद्धियों की शक्ति एवं उनके धारक गणधर आदि महामुनियों को अर्घ्य चढ़ाते हुए यही भावना भाई गई है कि मुझे लौकिक-आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उपलब्धियाँ प्राप्त हों। इस पंचमकाल में यद्यपि संतों को भी ऋद्धियों की प्राप्ति नहीं होती है तथापि विशेष तपस्या करने वाले एवं निर्दोष अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले साधुओं की महिमा ऋद्धियों के समान ही फलदायी होती है।
जैसे-बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज के चरणों का गंधोदक लगाने से एक ब्रह्मचारी का कुष्ट रोग दूर हो गया था, इसी प्रकार अनेकों लोगों ने उनके दर्शन-वंदन से अपने शारीरिक रोग दूरकर मानसिक शांति प्राप्त की है। मैंने स्वयं अनुभव किया है कि मेरे दीक्षा गुरु पूज्य आचार्यश्री वीरसागर महाराज (आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के प्रथम शिष्य एवं प्रथम पट्टाचार्य) समाधिमरण से एक-दो दिन पूर्व भी घंटों तक स्थिरतापूर्वक बैठकर धवला गंथ का स्वाध्याय किया करते थे, यह उनके मनोबल एवं कायबल का प्रभाव ही मानना चाहिए।
चौंसठ ऋद्धि विधान में वर्णित ऋद्धियों का वर्णन पढ़ते-पढ़ते वास्तव में ऋद्धिधारी मुनियों के प्रति अगाढ़ श्रद्धा उत्पन्न होती है। मैं श्रावकों को इसीलिए यह विधान करने की प्रेरणा देती रहती हूँ कि ऋद्धियों की अर्चना से उनके घर में धन-धान्य की वृद्धि हो, रोगों की शांति हो तथा परिवार में सुख, शांति, समृद्धि का वास हो, जिससे कि संसारी प्राणी जैनधर्म जैसे सच्चे धर्म को छोड़कर इधर-उधर मिथ्या देवी-देवताओं के पास जाकर अपनी श्रद्धा को तिलांजलि न देने पावें।
इस प्रकार आप सभी लोग जिनेन्द्र भगवान पर दृढ़ श्रद्धान रखते हुए भक्ति के द्वारा अपने कर्मों की निर्जरा करने के पुरुषार्थ में सफल हों, यही मंगलकामना है। इस ‘मेरी स्मृतियाँ’ को भी मैंने शिष्यों के हठाग्रह, विद्वानों के विशेष आग्रह से-एक अरुचिपूर्ण भाव से ही लिखा है, स्वप्रशंसा के भाव से नहीं।
इसका अनुभव मुझे ही है। इससे अतिरिक्त मैंने जो भी ग्रंथ व पुस्तके लिखी हैं, उनमें से किसी के लिए भले ही किसी की प्रेरणा रही हो, फिर भी मैंने अतीवरुचि से आत्मा की शुद्धि व परोपकार की भावना से ही लिखे हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। इस ‘मेरी स्मृतियाँ’ से यदि कोई भी कुछ प्रेरणा ग्रहण करेंगे, तो मैं अपना प्रयास सफल समझूँगी।