-स्थापना-अडिल्ल छंद-
चार घातिया कर्म जिन्हों के नश गये।
समवसरण के स्वामी अर्हत बन गये।।
उन अरिहंत प्रभू की भक्ती भावना।
पूजन हेतु उनकी कर लूँ थापना।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हद्भक्तिभावना! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हद्भक्तिभावना! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हद्भक्तिभावना! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-चौपाई छंद-
पद्म सरोवर को जल लाय, जिनवर के पद पद्म चढ़ाय।
अर्हद्भक्ति भावना भाय, पूजन करूँ परम पद ध्याय।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हद्भक्तिभावनायै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरी केशर घिस लाय, चर्चूं श्री जिनवर पद आय।
अर्हद्भक्ति भावना भाय, पूजन करूँ परम पद ध्याय।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हद्भक्तिभावनायै संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
धवलाक्षत मुट्ठी में लाय, पुंज धरूँ जिन सन्मुख आय।
अर्हद्भक्ति भावना भाय, पूजन करूँ परम पद ध्याय।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हद्भक्तिभावनायै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
हरसिंगार प्रसून मंगाय, जिन पद अर्पूं माल बनाय।
अर्हद्भक्ति भावना भाय, पूजन करूँ परम पद ध्याय।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हद्भक्तिभावनायै कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
बरफी पेड़ा आदि बनाय, पूजूँ प्रभु नैवेद्य चढ़ाय।
अर्हद्भक्ति भावना भाय, पूजन करूँ परम पद ध्याय।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हद्भक्तिभावनायै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक का थाल सजाय, करूँ आरती जिनपद आय।
अर्हद्भक्ति भावना भाय, पूजन करूँ परम पद ध्याय।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हद्भक्तिभावनायै मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि की धूप बनाय, प्रभु सन्मुख अग्नी में जलाय।
अर्हद्भक्ति भावना भाय, पूजन करूँ परम पद ध्याय।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हद्भक्तिभावनायै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
केला आम अनार मंगाय, फल से पूजूं जिनपद आय।
अर्हद्भक्ति भावना भाय, पूजन करूँ परम पद ध्याय।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हद्भक्तिभावनायै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ्य ‘चन्दनामती’ बनाय, पद अनर्घ्य हित देउं चढ़ाय।
अर्हद्भक्ति भावना भाय, पूजन करूँ परम पद ध्याय।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हद्भक्तिभावनायै अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णभृंग में जल भर लाय, शांतीधार करूँ सुखदाय।
अर्हद्भक्ति भावना भाय, पूजन करूँ परम पद ध्याय।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
उपवन से बहु पुष्प मंगाय, पुष्पांजलि कर लूँ सुखदाय।
अर्हद्भक्ति भावना भाय, पूजन करूँ परम पद ध्याय।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(दशवें वलय में १२ अर्घ्य, १ पूर्णार्घ्य)
-दोहा-
अर्हद्भक्ति सुभावना, को निज मन में ध्याय।
रत्नत्रय आराधना, हेतू पुष्प चढ़ाय।।१।।
इति मण्डलस्योपरि दशमदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-चौबोल छंद-
चार घातिया कर्म नाश कर, जो अरिहंत बना करते।
वे अठ प्रातिहार्य एवं, आनन्त्य चतुष्टय को वरते।।
उनमें प्रथम अशोक वृक्ष, भव्यों का शोक हरा करता।
ऐसे अरिहंतों की भक्ति, से संसार भ्रमण टरता।।१।।
ॐ ह्रीं अशोकवृक्षप्रातिहार्यसहित अर्हद्भक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चार घातिया कर्म नाश कर, जो अरिहंत बना करते।
वे अठ प्रातिहार्य एवं, आनन्त्य चतुष्टय को वरते।।
उनमें दुतिय पुष्पवृष्टी का, प्रातिहार्य सुरभी करता।
ऐसे अरिहंतों की भक्ति, से संसार भ्रमण टरता।।२।।
ॐ ह्रीं पुष्पवृष्टिप्रातिहार्यसहित अर्हद्भक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चार घातिया कर्म नाश कर, जो अरिहंत बना करते।
वे अठ प्रातिहार्य एवं, आनन्त्य चतुष्टय को वरते।।
उनमें तृतिय दिव्यध्वनि द्वारा, भव्यों का अघमल हरता।
ऐसे अरिहंतों की भक्ति, से संसार भ्रमण टरता।।३।।
ॐ ह्रीं दिव्यध्वनिप्रातिहार्यसहित अर्हद्भक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चार घातिया कर्म नाश कर, जो अरिहंत बना करते।
वे अठ प्रातिहार्य एवं, आनन्त्य चतुष्टय को वरते।।
उनमें चौथा प्रातिहार्य, चामर ढुरना शोभन लगता।
ऐसे अरिहंतों की भक्ती, से संसार भ्रमण टरता।।४।।
ॐ ह्रीं चामरप्रतिहार्यसहित अर्हद्भक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चार घातिया कर्म नाश कर, जो अरिहंत बना करते।
वे अठ प्रातिहार्य एवं, आनन्त्य चतुष्टय को वरते।।
उनमें पंचम प्रातिहार्य, सिंहासन शोभे जिनवर का।
ऐसे अरिहंतों की भक्ती, से संसार भ्रमण टरता।।५।।
ॐ ह्रीं सिंहासनप्रातिहार्यसहित अर्हद्भक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चार घातिया कर्म नाश कर, जो अरिहंत बना करते।
वे अठ प्रातिहार्य एवं, आनन्त्य चतुष्टय को वरते।।
उनमें प्रातिहार्य छट्ठा, भामण्डल शोभे जिनवर का।
ऐसे अरिहंतों की भक्ती, से संसार भ्रमण टरता।।६।।
ॐ ह्रीं भामण्डलप्रातिहार्यसहित अर्हद्भक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चार घातिया कर्म नाश कर, जो अरिहंत बना करते।
वे अठ प्रातिहार्य एवं, आनन्त्य चतुष्टय को वरते।।
उनमें सप्तम प्रातिहार्य, दुन्दुभि बाजा मधुरिम स्वर का।
ऐसे अरिहंतों की भक्ती, से संसार भ्रमण टरता।।७।।
ॐ ह्रीं दुन्दुभिप्रातिहार्यसहित अर्हद्भक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चार घातिया कर्म नाश कर, जो अरिहंत बना करते।
वे अठ प्रातिहार्य एवं, आनन्त्य चतुष्टय को वरते।।
उनमें अष्टम प्रातिहार्य, प्रभु पर शोभे छत्रत्रय का।
ऐसे अरिहंतों की भक्ती, से संसार भ्रमण टरता।।८।।
ॐ ह्रीं छत्रत्रयप्रातिहार्य अर्हद्भक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शेर छंद-
चउ कर्म नाशने से, चार गुण प्रगट हुए।
उनमें प्रथम अनन्तज्ञान, युक्त प्रभु हुए।।
ऐसे प्रभू अरिहंत का, गुणगान मैं करूँ।
चरणों में अर्घ्य को चढ़ा, निजज्ञान को लहूँ।।९।।
ॐ ह्रीं अनन्तज्ञानसहित अर्हद्भक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जब कर्म दर्शनावरण, विनाश कर दिया।
तब गुण अनन्तदर्शन, को प्राप्त कर लिया।।
ऐसे प्रभू अरिहंत का, गुणगान मैं करूँ।
चरणों में अर्घ्य को समर्प्य, दर्श गुण वरूँ।।१०।।
ॐ ह्रीं अनन्तदर्शनसहित अर्हद्भक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जब कर्म मोहनीय का, विनाश कर दिया।
अविनाशी अरु अनन्तसुख को, प्राप्त कर लिया।।
ऐसे प्रभू अरिहंत का, गुणगान मैं करूँ।
चरणों में अर्घ्य को चढ़ा, निजात्म सुख वरूँ।।११।।
ॐ ह्रीं अनन्तसुखसहित अर्हद्भक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जब कर्म अन्तराय का, विनाश कर दिया।
तब गुण अनन्तवीर्य बल को, प्राप्त कर लिया।।
ऐसे प्रभू अरिहंत का, गुणगान मैं करूँ।
चरणों में अर्घ्य को चढ़ा, निजात्म बल वरूँ।।१२।।
ॐ ह्रीं अनन्तबलसहितअर्हद्भक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (चौबोल छंद)-
अरिहंत प्रभू के चार घातिया, कर्मों का नाशन होता।
उनके कारण चार गुणों का, उनमें प्रतिभासन होता।।
इसीलिए अरिहंत प्रभू की, भक्ती भविजन करते हैं।
हम पूर्णार्घ्य समर्पित कर, मनवाञ्छित फल वरते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टप्रातिहार्यानन्तचतुष्टयसहित अर्हद्भक्तिभावनायै पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं अर्हद्भक्तिभावनायै नम:।
तर्ज-कभी कुण्डलपुर जाना है……….
प्रभू की पूजन करना है, प्रभू की भक्ति करना है, निजातम शक्ति भरना है,
मुझे मुक्तिश्री वरना है।।
प्रभु भक्ति गंगा में, अवगाहन करना है।
अरिहंत प्रभू की पूजन में, जयमाला पढ़ना है।।प्रभू की पूजा…..।।टेक.।।
जनम जनम के पुण्य कर्म का, फल अरिहंत अवस्था।
समवसरण लक्ष्मी को पाते, यही अनादि व्यवस्था….. यही अनादि।
उस समवसरण श्री का, शत वन्दन करना है।
जिनवर के दर्शन करके, भवसागर तरना है।। प्रभू की पूजा करना है…..।।१।।
कितनी सतियों ने प्रभु के, दर्शन से पाप नशाए।
जिनके अतिशय से जलती, अग्नि भी जल बन जाए। अग्नि भी….
सीता चन्दनबाला का, इतिहास बताता है।
भक्तिरस तो माँ ज्ञानमती की, जीवन गाथा है।।प्रभू की पूजा करना है…..।।२।।
जिसने भी अरिहंत प्रभू को, हृदयकमल में ध्याया।
वीतराग परमातम पद में, लीन परमसुख पाया।। लीन परमपद….
निज ध्यान की धारा में, अवगाहन करना है।
‘‘चन्दनामती’’ उसके पहले, जिनभक्ती करना है।।प्रभू की पूजा करना है…।।३।।
सोलहकारण में अरिहंत की, भक्ति भावना आई।
उसकी पूजन करके मैंने, यह जयमाला गाई।।….यह जयमाला गाई।
जयमाल के माध्यम से, गुणगान उचरना है।
पूर्णार्घ्य समर्पित करके, प्रभु पद वंदन करना है।।प्रभू की पूजा करना है…।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हद्भक्तिभावनायै जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो रुचिपूर्वक सोलहकारण, भावना की पूजा करते हैं।
मन-वच-तन से इनको ध्याकर, निज आतम सुख में रमते हैं।।
तीर्थंकर के पद कमलों में जो, मानव इनको भाते हैं।
वे ही इक दिन ‘चन्दनामती’, तीर्थंकर पदवी पाते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।