जिन सिद्धप्रभू जी की पूजन से, मिटता भव भव का फेरा।
है वंदन उनको मेरा……२।।
जहाँ काल अनंतानंतों तक, रहता निज में हि बसेरा।
है वंदन उनको मेरा……२।।
जिनके गुणमणियोें की माला, गूंथ गूंथ कर लाते।
सुरपति चक्रवर्ति हर्षित हो, प्रभु चरणों में चढ़ाते।।
उनके चरण कमल अर्चन से, होता ज्ञान सबेरा।
है वंदन उनको मेरा……२।।जिन.।।
ऐसे सिद्धों को आह्वानन, कर हम धन्य बनेंगे।
हृदय कमल में प्रभो! विराजो, पूजन नमन करेंगे।।
नाथ! आपका सन्निध पाकर, जन्म सफल है मेरा।
है वंदन उनको मेरा……२।।जिन.।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपते! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टकं-भुजंगप्रयात छंद
तृषा चाह की है बुझी ना कभी भी।
इसी हेतु से नीर लाया प्रभू जी।।
जजूँ सिद्ध भगवंत के पदकमल को।
मिटाऊँ स्वयं के जनम और मरण को।।१।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
महाताप संसार में मोह का है।
इसी हेतु से पीत चंदन घिसा है।।
जजूँ सिद्ध भगवंत के पदकमल को।
मिटाऊँ स्वयं के जनम और मरण को।।२।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
हुआ सौख्य मेरा क्षणिक नाशवंता।
इसी हेतु से शालि को धोय संता।।जजूँ.।।३।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मनोभू जगत में सभी को भ्रमावे।
इसी हेतु से पुष्प चरणों चढ़ावें।।जजूँ.।।४।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षुधारोग सबसे बड़ा है जगत में।
इसी हेतु नैवेद्य लाया सरस मैं।।जजूँ.।।५।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महाघोर अंधेर अज्ञान का है।
इसी हेतु से दीप लौ जगमगा है।।जजूँ.।।६।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
महादुष्ट आठों करम संग लागे।
इसी हेतु से धूप खेऊँ यहाँ पे।।जजूँ.।।७।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अष्टकर्मदहनाय धूपंं निर्वपामीति स्वाहा।
स्ववाञ्छीत फल हेतु घूमा अभी तक।
फलों को इसी हेतु अर्पूं प्रभू अब।।
जजूँ सिद्ध भगवंत के पदकमल को।
मिटाऊँ स्वयं के जनम और मरण को।।८।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
महा अर्घ्य ले आपको पूजता हूँ।
महामोह के फंद से छूटता हूँ।।जजूॅँ.।।९।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(तर्ज—धन्य हस्तिनापुर की नगरी…….)
धन्य आज का दिवस धन्य ये, सिद्ध अर्चना बेला है।
धन्य जन्म है सभी जनों का, लगा भक्त का मेला है।।
कंचन झारी में गंगा जल, प्रासुक शीतल मीठा है।
प्रभु चरणों में धारा देते, मिलता सौख्य अनूठा है।।
इसी शांतिधारा करने से, तीनों जग में शांती हो।
मुझको ऐसी शांति मिले प्रभु, फिर ना कभी अशांती हो।।
प्रभो! आपकी दयादृष्टि से, मिटे जगत का मेला है।
धन्य आज का दिवस धन्य ये, सिद्ध अर्चना बेला है।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
धन्य आज का दिवस धन्य ये, सिद्ध अर्चना बेला है।
धन्य जनम है सभी जनों का, लगा भक्त का मेला है।।
कमल केतकी जुही चमेली, सुरभित पुष्प चुनाये हैं।
जिनवर चरण कमल में, पुष्पांजली चढ़ाने आये हैंं।।
पुष्पांजलि से धन सुख संपति, संतति वृद्धि समृद्धी हो।
जनम जनम के क्लेश दूर हों, नवनिधि रिद्धी सिद्धी हो।।
नाथ! आपकी दयादृष्टि बिन, बहुत दुखों को झेला है।
धन्य आज का दिवस धन्य ये, सिद्ध अर्चना बेला है।।१२।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
सिद्ध समूह अनंत के, गुणमणि नंतानंत।
नाम मंत्र उनके जजूँ, पुष्पांजलि विकिरंत।।१।।
अथ मंडलस्योपरि अष्टमवलये (अष्टमदले) पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
सिद्धिरमा के पति प्रभो! आप नाम ‘श्रीमान्’।
केवलज्ञान विभूतियुत, जजूँ सिद्ध भगवान।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुवच बिन प्रतिबुद्ध होें, अत:‘स्वयंभू’ सिद्ध।
परमानन्दामृत निमित, पूजँ बनूँ समृद्ध।।२।।
ॐ ह्रीं स्वयंभुवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम क्षमादि धर्म से, शोभित होकर सिद्ध।
‘वृषभ’ नाम युत आपको, जजत मिले सब सिद्धि।।३।।
ॐ ह्रीं वृषभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शंभव’ सुखदाता तुम्हीं, श्रेष्ठ जन्म ले नाथ।
जजूँ सिद्ध परमातमा, नमूँ नमाकर माथ।।४।।
ॐ ह्रीं शंभवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शंभव परमानंद सुख, अनुभव करो हमेश।
स्वात्मसुखामृत हेतु मैं, जजूँ सिद्ध परमेश।।५।।
ॐ ह्रीं शंभवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा चिन्मय शुद्ध बुध, उससे प्रगटे आप।
अत: ‘आत्मभू’ सिद्ध को, जजत बनूँ निष्पाप।।६।।
ॐ ह्रीं आत्मभुवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वयं शोभते गुण सहित, आप ‘स्वयंप्रभ’ सिद्ध।
निजगुण प्रगटन हेतु मैं, जजूँ करूँ भव बिद्ध।।७।।
ॐ ह्रीं स्वयंप्रभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सबके स्वामी आप ‘प्रभु’, मम दुख हरण समर्थ।
जजूँ सर्वसुख हेतु मैं आप नाम अन्वर्थ।।८।।
ॐ ह्रीं प्रभवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भोगें परमानंदसुख, ‘भोक्ता’ सिद्ध महंत।
भव में दुख भोगे बहुत, जजत मिले भव अन्त।।९।।
ॐ ह्रीं भोक्त्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवल ज्ञान सुचक्षु से, त्रिभुवन में हो व्याप्त।
अत: ‘विश्वभू’ आप हैं, नमूँ सिद्ध दिन रात।।१०।।
ॐ ह्रीं विश्वभुवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुन: न भव को धारते, हे ‘अपुनर्भव’ सिद्ध।
पुनर्जन्म के नाशने, जजूूँ आपको नित्त।।११।।
ॐ ह्रीं अपुनर्भवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व आत्मा निज सदृश, लख ‘विश्वात्मा’ आप।
पूर्ण ज्ञानमय आपको, जजत मिटे संताप।।१२।।
ॐ ह्रीं विश्वात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन लोक के जीव के, स्वामी आप जिनेश।
मेरी भी रक्षा करो, जजूँ ‘विश्व लोकेश’।।१३।।
ॐ ह्रीं विश्वलोकेशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी तरफ में चक्षु हैं, केवल दर्शन रूप।
नमूँ ‘विश्वतश्चक्षु’ को, पाऊँ स्वात्मस्वरूप।।१४।।
ॐ ह्रीं विश्वतश्चक्षुषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कभी क्षरण या क्षय नहीं, जग में आप प्रधान।
‘अक्षर’ सिद्ध प्रभो तुम्हें, जजत मिले निजथान।।१५।।
ॐ ह्रीं अक्षराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल जगत को जानते, अत: ‘विश्ववित्’ नाथ।
सकल ज्ञान मेरा करो, सदा नमाऊँ माथ।।१६।।
ॐ ह्रीं विश्वविदे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल विमल वैâवल्य के, स्वामी नमूँ हमेश।
सब विद्यापति के पती, आप ‘विश्वविद्येश’।।१७।।
ॐ ह्रीं विश्वविद्येशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब पदार्थ को जानकर सबको दें उपदेश।
‘विश्वयोनि’ को नित जजूँ, मिटे सकल भव क्लेश।।१८।।
ॐ ह्रीं विश्वयोनये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज स्वरूप का नाश नहिं, अविनाशी प्रभु नित्य।
अत: ‘अनश्वर’ सिद्ध हो, जजत लहूँ सुख नित्य।।१९।।
ॐ ह्रीं अनश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जग को देखा अत:, सकलदर्शि हो आप।
नाम ‘विश्वदृश्वा’ प्रभो, जजत मिटे भव ताप।।२०।।
ॐ ह्रीं विश्वदृश्वने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान प्रकाश से, व्याप्त किया सब विश्व।
नाम मंत्र ‘विभु’ आपका, जजत दिखे सब विश्व।।२१।।
ॐ ह्रीं विभवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चहुँगति भ्रमते जीव को, पहुँचाते शिवमाहिं।
‘धाता’ परम दयालु हो, पूजत दु:ख नशाहिं।।२२।।
ॐ ह्रीं धात्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन लोक के ईश तुम, कर्मदूर ‘विश्वेश’।
रत्नत्रय निधि हेतु मैं, वंदूँ भक्ति हमेश।।२३।।
ॐ ह्रीं विश्वेशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हित उपदेशक जीव के, नेत्र समान महान्।
अत: ‘विश्वलोचन’ प्रभो, सिद्ध नमूँ सुखखान।।२४।।
ॐ ह्रीं विश्वलोचनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोक अलोक समस्त को, ज्ञान ज्योति से व्याप।
अत: ‘विश्वव्यापी’ प्रभो, जजत मिटे भव ताप।।२५।।
ॐ ह्रीं विश्वव्यापिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मविधी कहते ‘विधू’ कर्ममर्महर सिद्ध।
ज्ञानकिरण से मोहतम, हरो जजूँ मैं नित्त।।२६।।
ॐ ह्रीं विधवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज सृष्टी को निर्मिता, ‘वेधा’ जग विख्यात।
धर्मसृष्टि सर्जन किया, नमत मिटे भव आर्त।।२७।
ॐ ह्रीं वेधसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शाश्वत’ कभी न नष्ट हों, सिद्ध प्रभो, अमलान।
निज पद शाश्वत दीजिये, जजूँ सदा धर ध्यान।।२८।।
ॐ ह्रीं शाश्वताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में चहुँदिशी, मुख दीखे प्रभु आप।
अत: ‘विश्वतोमुख’ तुम्हीं, नमत हरूँ संताप।।२९।।
ॐ ह्रीं विश्वतोमुखाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मभूमि की आदि में, उपदेशा षट्कर्म।
अत: ‘विश्वकर्मा’ तुम्हीं, जजत मिले निजशर्म१।।३०।।
ॐ ह्रीं विश्वकर्मणे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जग में सब में ज्येष्ठ तुम, ‘जगज्ज्येष्ठ’ भगवान।
जजूँ भक्ति से नित्य मैं, करो मुझे अमलान।।३१।
ॐ ह्रीं जगज्ज्येष्ठाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आपके ज्ञान में, सब पदार्थ झलकंत।
‘विश्वमूर्ति’ तुमको जजत, निज गुणमणि विलसंत।।३२।।
ॐ ह्रीं विश्वमूर्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मशत्रु को जीतते, सद्दृष्टी मुनि आदि।
उनके ईश्वर को नमूँ, प्रभो! ‘जिनेश्वर’ नादि।।३३।।
ॐ ह्रीं जिनेश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व जगत इक समय में अवलोकें प्रभु आप।
नमूँ ‘विश्वदृक्’ को सतत, समकित हो निष्पाप।।३४।।
ॐ ह्रीं विश्वदृशे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब प्राणी के ईश तुम, अत: ‘विश्वभूतेश’।
नमत ज्ञान कलिका खिले, मिलता सौख्य अशेष।।३५।।
ॐ ह्रीं विश्वभूतेशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल विश्व को तेज से, व्याप्त किया भगवान।
‘विश्वज्योति’ को नित नमूँ, नशें कर्म बलवान।।३६।।
ॐ ह्रीं विश्वज्योतिषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम से बढ़कर नहिं कोई, जग में ईश्वर होय।
नमूँ ‘अनीश्वर’ को सतत, कर्मकालिमा धोय।।३७।।
ॐ ह्रीं अनीश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोधादिक अरि जीत के, हुये आप ‘जिन’ सिद्ध।
ज्ञानादिक आनन्त्य गुण, जजत लहॅूं नव निद्ध।।३८।।
ॐ ह्रीं जिनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अति उत्कृष्ट स्वभाव से, जो नित ही जयशील।
‘जिष्णु’ सिद्ध परमात्मा, नमत बनूँ जयशील।।३९।।
ॐ ह्रीं जिष्णवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु अनंत गुण आपके, माप सके ना कोय।
नाथ अमेयात्मा अत:, नमत सिद्धपद होय।।४०।।
ॐ ह्रीं अमेयात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामाrति स्वाहा।
पृथ्वी के ईश्वर तुम्हीं, ‘विश्वरीश’ शुभ नाम।
निजगुण संपद हेतु मैं, पूजूँ करूँ प्रणाम।।४१।।
ॐ ह्रीं विश्वरीशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व जगत के जीव के, रक्षक हो भगवंत।
नमूँ ‘जगत्पति’ आपको, जजत करूँ भव अंत।।४२।।
ॐ ह्रीं जगत्पतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस अनंत संसार को, जीता धर ध्यानास्त्र।
प्रभु ‘अनंतजित्’ हो गये, जजत मिले धर्मास्त्र।।४३।।
ॐ ह्रीं अनंतजिते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मन वच के गोचर नहीं, आत्मस्वरूप अचिन्त्य।
प्रभो ‘अचिन्त्यात्मा’ तुम्हीं, पूजत सौख्य अनिंद्य।।४४।।
ॐ ह्रीं अचिन्त्यात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव्यों का उपकार कर, ‘भव्यबंधु’ हो आप।
रत्नत्रय संपत् भरो, जजूँ करो निष्पाप।।४५।।
ॐ ह्रीं भव्यबन्धवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोह आवरण द्वय तथा, अन्तराय को घात।
नाथ ‘अबन्धन’ हो गये, नमत मिले सुख सात।।४६।।
ॐ ह्रीं अबन्धनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कृतयुग के आरंभ में, हुये तीर्थकर देव।
जजत ‘युगादीपुरुष’ को, मिले स्वपद स्वयमेव।।४७।।
ॐ ह्रीं युगादिपुरुषाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञानादिक अतुल, गुणगण वृद्धि करंत।
‘ब्रह्मा’ हो प्रभु आप ही, जजत बने गुणवंत।।४८।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मणे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच ज्ञानमय आप हैं, पंच परमगुरु आप।
‘पंचब्रह्ममय’ आपको, नमत मिटे भवताप।।४९।।
ॐ ह्रीं पंचब्रह्ममयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोक्षरूप आनंदमय, ‘शिव’ कहलाये सिद्ध।
ज्ञानानंद मिले मुझे, जजत करूँ भव बिद्ध।।५०।।
ॐ ह्रीं शिवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भविजन का पालन करते, सब गुण को पूरण करते।
‘पर’ नाम मंत्र पूजूँ मैं, पर पुद्गल से छूटूँ मैं।।५१।।
ॐ ह्रीं पराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परतर’ हो सिद्ध तुम्हीं हो, जग में उत्कृष्ट तुम्हीं हो।
तुम नाम मंत्र पूजन से, जिन में समरस सुख प्रगटे।।५२।।
ॐ ह्रीं परतराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रिय से गम्य न तुम हो, प्रभु ‘सूक्ष्म’ नामधर तुम हो।
तुम नाम मंत्र मैं पूजूँ, सब जन्म मरण से छूटूँ।।५३।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्माय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुस्थित हो परमसुपद में, ‘परमेष्ठी’ नाम जगत में।
तुम नाम मंत्र की अर्चा, जिनगुण की संपति भर्ता।।५४।।
ॐ ह्रीं परमेष्ठिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु सदा एक से रहते, इसलिये ‘सनातन’ कहते।
मन वच तन से मैं वंदूँ, यमराज दु:ख को खंडूँं।५५।।
ॐ ह्रीं सनातनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘स्वयंज्योति’ हो जग में, आत्मा रवि सम चमके है।
एकाग्रमना पूजूँ मैं, सब दु:खों से छूटूं मैं।।५६।।
ॐ ह्रीं स्वयंज्योतिषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अज’ हो उत्पन्न कभी ना, प्रभु तुम मृत्यू से हीना।
मैं पूजूँ श्रद्धा धरके, मुझ में रत्नत्रय प्रगटे।।५७।।
ॐ ह्रीं अजाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं गर्भवास है प्रभु को, अतएव ‘अजन्मा’ तुम हो।
मैं पूजूूँ भक्ति सहित हो, परमानंदामृत भर दो।।५८।।
ॐ ह्रीं अजन्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादश अंगों की रचना, तुम से ही है उत्पन्ना।
हो ‘ब्रह्मयोनि’ भगवंता, पूजत होऊँ सुखवंता।।५९।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मयोनये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
योनी हैं लाख चुरासी, उनमें उत्पत्ति न होती।
इसलिये ‘अयोनिज’ भगवन्! पूजूँ नहिं घूमूँ भववन।।६०।।
ॐ ह्रीं अयोनिजाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु मोह अरी को जीते, ‘मोहारि विजयी’१ हो नीके।
मैें अशुभ कर्म को नाशूं, निज में सज्ज्ञान प्रकाशूँ।।६१।।
ॐ ह्रीं मोहारिविजयिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वोत्कर्ष से जयते, ‘जेता’ इससे मुनि कहते।
मैं पूजूँ तुम्हें रुची से, आत्मा में जयश्री प्रगटे।।६२।।
ॐ ह्रीं जेत्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जब श्रीविहार प्रभु का हो, वृषचक्र अग्र चलता हो।
अतएव ‘धर्मचक्री’ हो, जजते निज वृषचक्री हो।।६३।।
ॐ ह्रीं धर्मचक्रिणे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु दया ध्वजा अतिशायी, तुम नाम मंत्र सुखदायी।
अतएव ‘दयाध्वज’ पूजूँ, हो दया तभी मैं छूटूँ।।६४।।
ॐ ह्रीं दयाध्वजाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब शांत हुये कर्मारी, पूजत हो सुख अविकारी।
अतएव ‘प्रशांतारी’ को, मैं नमूँ दु:खहारी को।।६५।।
ॐ ह्रीं प्रशांतारये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु हो अनंत ज्ञानात्मा, नहिं अंत कभी हो आत्मा।
अतएव ‘अनन्तात्मा’ हो, पूजत मम शुद्धात्मा हो।।६६।।
ॐ ह्रीं अनन्तात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु शुक्ल ध्यान को धरके, ‘योगी’ हो जग में चमके।
मुझमें समतारस छलके, मैं पूजूँ बहुरुचि धरके।।६७।।
ॐ ह्रीं योगिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणधर देवादि मुनीशा, उनसे अर्चित जगदीशा।
हे ‘योगिश्वरार्चित’ नाथा, मैं नमूँ नमाऊँ माथा।।६८।।
ॐ ह्रीं योगीश्वरार्चिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्मा-आत्मा को जाने, अतएव ‘ब्रह्मविद्’ मानें।
निज आत्मज्ञान के हेतू, तुम भक्ती भवदधि सेतू।।६९।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मविदे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो ब्रह्म मर्म को जाने, करूणा का मर्म पिछाने।
‘ब्रह्मातत्त्वज्ञ’ बखाने, मैं नमूँ मोहतम हानें।।७०।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मतत्त्वज्ञाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो केवलज्ञान स्वविद्या, जाने अनंतगुणविद्या।
‘ब्रह्मोद्यावित्’ वे स्वामी, मैं नमूँ बनूँ शिवगामी।।७१।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मोद्याविदे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिवहेतू यत्न करें जो, यतिवर उनके ईश्वर जो।
मैं नमूँ ‘यतीश्वर’ आत्मा, पूजत प्रगटे अंतरात्मा।।७२।।
ॐ ह्रीं यतीश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कर्म कलंक विदूरा, अतएव ‘शुद्ध’ गुणपूरा।
मैं पूजूँ भक्ति बढ़ाके, हर्षूं निज के गुण पाके।।७३।।
ॐ ह्रीं शुद्धाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो केवलज्ञान स्वरूपी, बुद्धी से ‘बुद्ध’ बने जी।
मुझमें ज्ञानामृत भरिये, मैं पूजूँ भव दु:ख हरिये।।७४।।
ॐ ह्रीं बुद्धाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो शुद्ध ज्ञान से चमके, अतएव ‘प्रबुद्धात्मा’ हैं।
निज पर का ज्ञान प्रगट हो, अतएव नमूँ प्रमुदित हो।।७५।।
ॐ ह्रीं प्रबुद्धात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कारज सिद्ध तुम्हारे, पूर्ती कर मुक्ति पधारे।
‘सिद्धार्थ’ ख्यात हैं जग में, पूजत ही सुख हो निज में।।७६।।
ॐ ह्रीं सिद्धार्थाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु शासन सिद्ध कहा है, वह दया धर्म की जड़ है।
मैं नमूँ ‘सिद्धशासन’ को, करूँ आत्मा पर शासन जो।।७७।।
ॐ ह्रीं सिद्धशासनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कृतकृत्य हुये जो ‘सिद्धा’ लोकाग्र विराजें जो जा।
उन ‘सिद्ध’१ प्रभू को पूजूँ, संपूर्ण कर्म से छूटूँ।।७८।।
ॐ ह्रीं सिद्धाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो द्वादशांग सिद्धांता, वह कहा अनादि अनन्ता।
‘सिद्धांतसुवित्’२ कहलाये, हम भक्ती से गुण गायें।।७९।।
ॐ ह्रीं सिद्धान्तविदे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनियों ने नित आराध्या, अगणित गुणमणि को साध्या।
तुम ‘ध्येय’ ध्यान के योग्या, पूजत होते आरोग्या।।८०।।
ॐ ह्रीं ध्येयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सिद्ध देवगण माने, उनके आराध्य बखाने।
हो ‘सिद्धसाध्य’ परमात्मा, पूजत प्रगटे परमात्मा।।८१।।
ॐ ह्रीं सिद्धसाध्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो सब जग के हितकारी, सुखकारी सब अघहारी।
अत: ‘जगद्धित’ स्वामी, पूजत होऊँ शिवगामी।।८२।।
ॐ ह्रीं जगद्धिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण क्षमा आप में शोभे, शिवतिय का भी मन लोभे।
अतएव ‘सहिष्णु’ तुम्हीं हो, मेरे में यह गुण भर दो।।८३।।
ॐ ह्रीं सहिष्णवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं निज स्वरूप से च्युत हो, अतएव आप अच्युत हो।
परमात्मनिष्ठ पद पाऊँ, इसलिये आपको ध्याऊँ।।८४।।
ॐ ह्रीं अच्युताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं होता अन्त कभी भी, अतएव ‘अनंत’ तुम्हीं ही।
मेरे अनंतगुण चमकें, दर्पणवत् सब जग झलके।।८५।।
ॐ ह्रीं अनन्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रभविष्णु’ समर्थ तुम्हीं हो, शक्ती अनंतयुत ही हो।
मैं भी समर्थ हो जाऊँ, निज गुण पंकज विकसाऊँ।।८६।।
ॐ ह्रीं प्रभविष्णवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्कृष्ट जन्मधर स्वामी, भवपंच विनाशी नामी।
इसलिये ‘भवोद्भव’ ध्याऊँ, नहिं अन्य शरण अब जाऊँ।।८७।।
ॐ ह्रीं भवोद्भवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘प्रभूष्णु’ कहाये, गणधर मुनिगण गुण गायें।
शक्तीशाली तुम पूजा, इस सम नहिं सुकृत दूजा।।८८।।
ॐ ह्रीं प्रभूष्णवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो गई जरा भी जीर्णा, अतएव ‘अजर’ गुणपूर्णा।
है अजर अमर निज आत्मा, पूजत पाऊँ शुद्धात्मा।।८९।।
ॐ ह्रीं अजराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं पूजा शक्य तुम्हारी, इससे ‘अयज्य’१ गुणधारी।
मैं ग्रहण करूँ निज आत्मा, ध्याऊँ वंदूूँ शुद्धात्मा।।९०।।
ॐ ह्रीं अयज्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रवि शशि करोड़ की आभा, उनसे भी अधिक गुणाभा।
‘भ्राजिष्णु’ सिद्ध भगवंता, पूजत हो सौख्य अनंता।।९१।।
ॐ ह्रीं भ्राजिष्णवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवल बुद्धी के स्वामी, ‘धीश्वर’ हो अंतर्यामी।
मैं केवलज्ञान उपाऊँ, अतएव प्रभो! गुणगाऊँ।।९२।।
ॐ ह्रीं धीश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं नाश कभी भी होता, ‘अव्यय’ गुण भव दुख धोता।
व्ययरहित हमारी आत्मा, चिंतामणि शुद्ध चिदात्मा।।९३।।
ॐ ह्रीं अव्ययाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मेंधन दहन किया है, स्व ‘विभावसु’ नाम लिया है।
या शशि अमृत बर्षाते, पूजत ही कर्म जलाते।।९४।।
ॐ ह्रीं विभावसवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जग में नहिं जन्म धरें जो, श्री ‘असंभूष्णु’ प्रभु हैं वो।
पूजत ही साम्य बसेरा, नहिं पुनर्जन्म हो मेरा ।।९५।।
ॐ ह्रीं असंभूष्णवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वयमेव सिद्ध बन प्रगटे, मुनि ‘स्वयंभूष्णु’ हैं कहते।
मैं स्वयं स्वयंपद पाऊँ, भव भव के दु:ख नशाऊँ।।९६।।
ॐ ह्रीं स्वयंभूष्णवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
युग की आदी में जन्मे, अतएव ‘पुरातन’ सच में।
मैं वंदूूं निजसुख हेतू, पाऊँ भवदधि का सेतू।।९७।।
ॐ ह्रीं पुरातनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्कृष्ट केवली ज्ञानी, परमात्मा अंतर्यामी।
वंदूूं धर मन अभिलाषा, पूरी हो शिवपद आशा।।९८।।
ॐ ह्रीं परमात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्कृष्ट नेत्र त्रिभुवन में, हो ‘परंज्योति’ मुनिगण में।
मैं आत्मज्योति के हेतू, पूजूँ तुम हो भवसेतूू।।९९।।
ॐ ह्रीं परंज्योतिषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमेश्वर तीनों जग के, ‘त्रिजगत्परमेश्वर’ कहते।
मैं नमूँ नमूँ तुम पद में, रत्नत्रय प्रगटे निज में।।१००।।
ॐ ह्रीं त्रिजगत्परमेश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दिव्यध्वनी के नाथ, अठरह महभाषा कहीं।
लघू सात सौ भाष, मैं पूूजूँ वसु अर्घ्य ले।।१०१।।
ॐ ह्रीं दिव्यभाषापतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय सुंदर आप, अत: ‘दिव्य’ गणधर कहें।
नशें कर्म अभिशाप, पूजत हो निजसंपदा।।१०२।।
ॐ ह्रीं दिव्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय पावन वाच, ‘पूतवाक्’ प्रभु आप हैं।
नमत मिले गुण सांच, स्वात्म सुधारस की नदी।।१०३।।
ॐ ह्रीं पूतवाचे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शासन परम पवित्र, प्रभो! आपका लोक में।
कर्माराति लवित्र, पूजत आत्म पवित्र हो।।१०४।।
ॐ ह्रीं पूतशासनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पावन आत्मा नाथ, मुझको भी पावन करो।
नमूँ नमूँ नत माथ, अर्घ चढ़ाकर पूजहूँ।।१०५।।
ॐ ह्रीं पूतात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परमज्योति’ भगवान, केवलज्ञान प्रकाशमय।
नमूँ नमूूँ गुणखान, लहूँ ज्ञानज्योती परम।।१०६।।
ॐ ह्रीं परमज्योतिषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चारित में अध्यक्ष, ‘धर्माध्यक्ष’ प्रसिद्ध हो।
धर्म न हो विध्वस्त, पूजूँ नित्य परोक्ष ही।।१०७।।
ॐ ह्रीं धर्माध्यक्षाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रिय दमन करंत, प्रभो! ‘दमीश्वर’ आप हैं।
शम दम धर्म दिशंत, नमूँ जितेन्द्रिय हेतु हैं।।१०८।।
ॐ ह्रीं दमीश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीपति’ शिवश्री नाथ, स्वर्गमोक्षश्री देत हो।
मिले सभी गुण साथ, पूजूँ मन वच काय से।।१०९।।
ॐ ह्रीं श्रीपतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रातिहार्य ऐश्वर्य, धरें आप ‘भगवान’ हैं।
पुन: मोक्ष स्थैर्य, लिया जजूँ सब सिद्ध को।।११०।।
ॐ ह्रीं भगवते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शत इन्द्रों से पूज्य, ‘अर्हन्’ सिद्ध स्वरूप हो।
पाऊँ निजपद पूज्य, पूजूँ तुम पदपद्म को।।१११।।
ॐ ह्रीं अर्हते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानदर्शनावर्ण, रज हैं धूली के सदृश।
इनका कीना नाश, ‘अरज’ आपको नित जजूँ।।११२।।
ॐ ह्रीं अरजसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब आवरण विनाश, सिद्ध लोक में जा बसे।
पूर्ण करो मम आश, जजूँ ‘विरज’ पद हेतु मैं।।११३।।
ॐ ह्रीं विरजसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पावन तीर्थ विशुद्ध, ‘शुचि’ ब्रह्मा में लीन हो।
मेरा मन हो शुद्ध, पूजूँ त्रिकरण शुद्धि से।।११४।।
ॐ ह्रीं शुचये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भवदधि तिरते भव्य, जिससे तीर्थ प्रसिद्ध है।
प्रभो ‘तीर्थकृत’ नव्य, जजूँ तिरूँ भवसिंधु से।।११५।।
ॐ ह्रीं तीर्थकृते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान अनंत, गुण अनंत के तुम धनी।
नमूँ नमूँ भगवंत, अविकल गुणनिधि हेतु मैं।।११६।।
ॐ ह्रीं केवलिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रों के पति आप, मुनि ‘ईशान’ तुम्हें कहें।
भक्त बने निष्पाप, पूजूँ समरस हेतु मैं।।११७।।
ॐ ह्रीं ईशानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट विधार्चन योग्य, मुनि ‘पूजार्ह’ तुम्हें कहें।
पाऊँ निजपद योग्य, इसी हेतु पूजा करूँ।।११८।।
ॐ ह्रीं पूजार्हाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घात घातिया कर्म, आप ‘स्नातक’ मान्य हैं।
मिले मोक्ष का मर्म, तुम पद पूजूँ भक्ति से।।११९।।
ॐ ह्रीं स्नातकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्रव्य भाव नोकर्म, त्रिविध मलों विरहित प्रभो!।
नमूँ ‘अमल’ दें शर्म, मेरा मन पावन करें।।१२०।।
ॐ ह्रीं अमलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अमित दीप्ति से कांत, हे ‘अनंतदीप्ती’ प्रभो!।
हो गुणदीप्ति अनंत, नमूँ तुम्हें बहु प्रीति से।।१२१।।
ॐ ह्रीं अनंतदीप्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्ण सुज्ञान स्वरूप, ‘ज्ञानात्मा’ लोकाग्र में।
नमूँ नमॅूँ चिद्रूप, ज्ञानज्योति प्रगटित करूँ।।१२२।।
ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वयंबुद्ध’ भगवान्, गुरु बिन ज्ञान अपूर्व था।
रत्नत्रय निधिमान, बनूँ आपकी भक्ति से।।१२३।।
ॐ ह्रीं स्वयंबुद्धाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन जन के नाथ, आप ‘प्रजापति’ मान्य हो।
मुझको करो सनाथ, चिन्मय गुण विकसित करो।।१२४।।
ॐ ह्रीं प्रजापतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भवबंधन से ‘मुक्त’, पूर्ण स्वतंत्र तुम्हीं प्रभो।
मुझको करिये मुक्त, चरणों में आश्रय चहूँ।।१२५।।
ॐ ह्रीं मुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बाइस परिषह कष्ट, सहने में सक्षम हुये।
अत: कहाए ‘शक्त’, सहनशक्ति हित मैं जजूँ।।१२६।।
ॐ ह्रीं शक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब बाधा उपसर्ग, रहित आप परमातमा।
‘निराबाध’ संसर्ग, मेरी सब बाधा हरें।।१२७।।
ॐ ह्रीं निराबाधाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
काल कला से शून्य, रत्नवृष्टि माँ के महल।
कवलाहार विशून्य, ‘निष्कल’ की पूजा करूँ।।१२८।।
ॐ ह्रीं निष्कलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भुवेनश्वर’ त्रैलोक्य, ईश्वर पूज्य त्रिलोक में।
हो जाऊँ अक्षोभ्य, भेदविज्ञान प्रकाश से।।१२९।।
ॐ ह्रीं भुवनेश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्माञ्जन से शून्य, अठरह दोष विमुक्त हो।
हो जाऊँ भव शून्य, जजूँ ‘निरञ्जन’ देव को।।१३०।।
ॐ ह्रीं निरञ्जनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगज्ज्योति’ चिद्रूप, लोक अलोक विलोकते।
चिन्मय ज्योतिस्वरूप, पाऊँ आतम ज्योति मैं।।१३१।।
ॐ ह्रीं जगज्योतिषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्वापर अविरोध, स्याद्वादमय हैं वचन।
‘निरुक्तोक्ति’ गत शोच, नमॅूँ स्वात्मसंपति मिले।।१३२।।
ॐ ह्रीं निरुक्तोक्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘निरामय’ आप, सभी रोग से दूर हो।
नमत नशें सब पाप, पूर्ण स्वस्थता प्राप्त हो।।१३३।।
ॐ ह्रीं निरामयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अचलस्थिति’ भगवान, लोकशिखर पर तिष्ठते।
मिले भेद विज्ञान, नमते मन एकाग्र हो।।१३४।।
ॐ ह्रीं अचलस्थितये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कभी चरित से नाथ! नहीं चलित हों स्वप्न में।
ज्ञानपूर्णता साथ, प्रभु ‘अक्षोभ्य’ जजूँ सदा।।१३५।।
ॐ ह्रीं अक्षोभ्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकशिखर के अग्र, तिष्ठ रहे ‘कूटस्थ’ हो।
मोह शैल को वङ्का, स्थिर रूप तुम्हें जजूँ।।१३६।।
ॐ ह्रीं कूटस्थाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गमनागमन विहीन, ‘स्थाणु’ जन्म मृत्यू रहित।
रोग शोक हो क्षीण, पूजत सुस्थिर पद मिले।।१३७।।
ॐ ह्रीं स्थाणवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अक्षय’ नाश विहीन, इन्द्रिय विरहित आप हो।
अक्षय पद सुख लीन, नमूँ पूर्ण सुख हेतु मैं।।१३८।।
ॐ ह्रीं अक्षयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन ऊपर आप, ले जाते हैं ‘अग्रणी’।
मुझको भी हे नाथ! चरणों में स्थान दो।।१३९।।
ॐ ह्रीं अग्रण्ये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव्यों को प्रभु मोक्ष, पहुँचाते हो ‘ग्रामणी’।
नमत मिले सब सौख्य, शिवपुर मार्ग प्रशस्त हो।।१४०।।
ॐ ह्रीं ग्रामण्ये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नेता’ आप महान, शिवपथ दिखलाते सदा।
हमें करो धनवान, रत्नत्रय निधि देय के।।१४१।।
ॐ ह्रीं नेत्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादशांगमय शास्त्र, रचा ‘प्रणेता’ हो प्रभो!।
मिले ध्यानमय शस्त्र, मोहमल्ल नाशूँ त्वरित।।१४२।।
ॐ ह्रीं प्रणेत्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
न्याय-नीति के शास्त्र, उपदेशा है विश्व को।
‘न्यायशास्त्रकृत’ नाथ! जजत न्याय मुझको मिले।।१४३।।
ॐ ह्रीं न्यायशास्त्रकृते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हित उपदेशी देव, ‘शास्ता’ गुरु जग मान्य हो।
मेटो अहित कुटेव, नमूँ स्वात्महित मैं तुम्हें।।१४४।।
ॐ ह्रीं शास्त्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वस्तुस्वभावी धर्म, क्षमादि रत्नत्रय दया।
‘धर्मपती’ दो शर्म, चउविध धर्म प्रचार हो।।१४५।।
ॐ ह्रीं धर्मपतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मसहित हो ‘धर्म्य’, धर्मरूप परिणत हुये।
मिले मोक्ष का मर्म, नमूँ प्रभो! सुख शांति दो।।१४६।।
ॐ ह्रीं धर्म्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मस्वरूप जिनेश, ‘धर्मात्मा’ त्रिभुवन गुरू।
पूजन करूँ हमेश, धर्मरूप मैं भी बनूँ।।१४७।।
ॐ ह्रीं धर्मात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चारित तीर्थ महान, उसके कर्ता नाथ हैं।
‘धर्मतीर्थकृत्’ नाम, स्वात्म शुद्धि हेतू नमूँ।।१४८।।
ॐ ह्रीं धर्मतीर्थकृते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मध्वजा है नित्य, ‘वृषध्वज’ माने लोक में।
आत्मधर्म हो नित्य, मैं पूजूँ गुणहेतु नित।।१४९।।
ॐ ह्रीं वृषध्वजाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म अहिंसा रूप, उसके स्वामी आप ही।
मिले स्वात्म चिद्रूप, ‘वृषाधीश’ तुमको नमूँ।।१५०।।
ॐ ह्रीं वृषाधीशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महापुण्य का चिन्ह है आपका ही।
नमॅूँ नित्य ‘वृषकेतु’ रोगादि नाशो।।१५१।।
ॐ ह्रीं वृषकेतवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वृषायुध’ महामृत्यु मारा धरम से।
जरा मृत्यु नाशो, हमारे जजूँ मैं।।१५२।।
ॐ ह्रीं वृषायुधाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
किया धर्म वर्षा, अत: ‘वृष’ तुम्हीं हो।
हमें बोधि देवो, नमॅूँ भक्ति से मैं।।१५३।।
ॐ ह्रीं वृषाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं ‘वृषपती’ हो, अहिंसा के स्वामी।
नमूँ मैं मुझे, पूर्ण आरोग्य देवो।।१५४।।
ॐ ह्रीं वृषपतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा भव्य को, पोषते आप भर्ता।
नमूँ सद्गुणों को, भरो नाथ मुझमें।।१५५।।
ॐ ह्रीं भर्त्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप वृषभांक सद्धर्म चिन्हित।
नमूँ धर्म मेरे, अनंते मिलेंगे।।१५६।।
ॐ ह्रीं वृषभांकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वृषोद्भव’ धरा धर्म पूरब भवों में।
जजूँ मैं मुझे, आत्मसंपत्ति देवो।।१५७।।
ॐ ह्रीं वृषोद्भवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘हीरण्यनाभी’ नमूँ मैं।
सुनाभी सभी से अधिक श्रेष्ठ सुंदर।।१५८।।
ॐ ह्रीं हिरण्यनाभये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ज्ञान से व्याप्त आत्मा जगत में।
नमूँ ‘भूतआत्मा’ सभी शोक नाशो।। १५९।।
ॐ ह्रीं भूतात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी जीव रक्षो, प्रभो! ‘भूतभृद्’ हो।
दयादृष्टि कीजे, पुनर्जन्म ना हो।।१६०।।
ॐ ह्रीं भूतभृते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमूँ ‘भूतभावन’, दरश शुद्धि आदी।
धरीं सोलहों भावना, श्रेष्ठ स्वामी।।१६१।।
ॐ ह्रीं भूतभावनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रभव’ आपका जन्म, उत्कृष्ट माना।
नमूँ मैं बनूँ श्लाघ्य, शिवमार्ग पाके।।१६२।।
ॐ ह्रीं प्रभवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विभव’ दूर संसार, से आप हैं ही।
सफल जन्म मेरा, करो शीश नाऊँ।।१६३।।
ॐ ह्रीं विभवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विभा ज्ञानदीप्ती, अत: आप ‘भास्वान्’।
मुझे पूर्ण विज्ञान, दो याचना ये।।१६४।।
ॐ ह्रीं भास्वते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हृदय में हुये भव्य, के ‘भव’ कहाये।
सदा चित्त में आप, तिष्ठो नमूँ मैं।।१६५।।
ॐ ह्रीं भवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनी के हृदय में, रहो ‘भाव’ तुम हो।
हमारे हृदय के, तिमिर को विनाशो।।१६६।।
ॐ ह्रीं भावाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भवांतक’ हो स्वामी, किया अंत भव का।
भवांभोधि से भक्ति ही तारती है।।१६७।।
ॐ ह्रीं भवान्तकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रसू सौध में मास नौ रत्न वर्षे।
प्रभू नाम ‘हीरण्यगर्भा’ नमूँ मैं।।१६८।।
ॐ ह्रीं हिरण्यगर्भाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
करें सेव माँ की, सुरी श्री ह्रि आदी।
नमूँ नाथ ‘श्रीगर्भ’, श्री प्राप्त होवे।।१६९।।
ॐ ह्रीं श्रीगर्भाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोवैâक साम्राज्य, पाया तुम्हीं ने।
नमूँ मैं ‘प्रभूताविभव’, सौख्य देवो।।१७०।।
ॐ ह्रीं प्रभूतविभवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अभव’ आप संसार, से हीन सिद्धा।
नमूँ पंच संसार, का नाश कीजे।।१७१।
ॐ ह्रीं अभवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वयंप्रभु’ चिदात्मा, स्वयं नाथ सबके।
स्वयं सिद्ध कीजे, नमूँ भक्ति से मैं।।१७२।।
ॐ ह्रीं स्वयंप्रभवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रभूतातमा’ आप, अस्ती स्वभावी।
मुझे सिद्धि दीजे, नमूँ शीश नाके।।१७३।।
ॐ ह्रीं प्रभूतात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं ‘भूतनाथा’, सभी पे दयालू।
दया दान दीजे, सुचारित्र पूरो।।१७४।।
ॐ ह्रीं भूतनाथाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगत्प्रभु’ त्रिलोकेश, सुख शांति दीजे।
नमॅूँ मैं सभी रोग, शोकादि नाशो।।१७५।।
ॐ ह्रीं जगत्प्रभवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं नाथ ‘सर्वादि’, हो श्रेष्ठ सबमें।
नमूँ मैं सुसम्यक्त्व, निधि दान दीजे।।१७६।।
ॐ ह्रीं सर्वादये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुवैवल्यदृक् से, सभी विश्व देखा।
नमूँ ‘सर्वदृक्’ शुद्ध, सम्यक्त्व कीजे।।१७७।।
ॐ ह्रीं सर्वदृशे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी जीव हितकारि, हो ‘सार्व’ जग में।
नमूँ चार आराधना, पूर्ण कीजे।।१७८।।
ॐ ह्रीं सार्वाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोकं त्रिकालं, सभी वस्तु ज्ञाता।
जजूँ आप ‘सर्वज्ञ’, मेटो असाता।।१७९।।
ॐ ह्रीं सर्वज्ञाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं ‘सर्वदर्शन’ सुसम्यक्त्व क्षायिक।
मेरे ज्ञानचारित्र, सत्यार्थ कर दो।।१८०।।
ॐ ह्रीं सर्वदर्शनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी वस्तु प्रतिबिंबती आप में ही।
मेरा ज्ञान वैâवल्य, कीजे जजूँ मैं।।१८१।।
ॐ ह्रीं सर्वात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी प्राणि के ईश, वंदूं सदा मैं।
प्रभो ‘सर्वलोकेश’, भवदु:ख मेटो।।१८२।।
ॐ ह्रीं सर्वलोकेशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी लोक को, जानते ‘सर्ववित्’ हो।
प्रभो ज्ञानज्योति, मुझे दो जजूूँ मैं।।१८३।।
ॐ ह्रीं सर्वविदे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयी पंच संसार, के जो जजूँ मैं।
प्रभो ‘सर्वलोवैâकजित्’ शोक नाशो।।१८४।।
ॐ ह्रीं सर्वलोकजिते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुगति’ मुक्ति पंचम गती प्राप्त की है।
सुगति में गमन हो इसी हेतु पूजूँ।।१८५।।
ॐ ह्रीं सुगतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुश्रुत’ शास्त्र सम्यक् प्रगट आपसे है।
तथा आप विख्यात जग में जजूँ मैंं।।१८६।।
ॐ ह्रीं सुश्रुताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी की सुनी, प्रार्थना आप ‘सुश्रुत’।
मुझे स्वात्म संपत्ति, दीजे नमूँ मैं।।१८७।।
ॐ ह्रीं सुश्रुते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुवाक्’ सप्तभंगी, युता दिव्य वाणी।
उसी में रमूं मैं, इसी हेतु वंदूँ।।१८८।।
ॐ ह्रीं सुवाचे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! पंच आचार, से ‘सूरि’ माने।
नमॅूूँ आपको बुद्धि, सम्यक् करीजे।।१८९।।
ॐ ह्रीं सूरये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘बहुश्रुत’ सभी, शास्त्र के मर्मज्ञाता।
तुम्हीं से हुआ श्रुत, नमूँ ज्ञान हेतू।।१९०।।
ॐ ह्रीं बहुश्रुताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमूँ आप ‘विश्रुत’, जगत् में प्रसिद्धा।
सभी इन्द्र धरणेन्द्र, से वंद्य वंदूँ।।१९१।।
ॐ ह्रीं विश्रुताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अधो मध्य ऊरध, त्रिजग व्याप्त कीना।।
नमूँ ‘विश्वत:पाद’, ज्ञानी किरण से।।१९२।।
ॐ ह्रीं विश्वत:पादाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिजग में हि मस्तक, त्रिलोकाग्र राजें।
नमूँ ‘विश्वशीर्षा’, करो मेरी रक्षा।।१९३।।
ॐ ह्रीं विश्वशीर्षाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी प्राणियों की, सुनी आप अर्जी।
नमूँ मैं ‘शुचिश्रव’, हमें बोधि देवो।।१९४।।
ॐ ह्रीं शुचिश्रवसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सहसशीर्ष’ भगवन्! अनंते सुखी हो।
मुझे स्वात्म सुख, दीजिये मैं जजूँ अब।।१९५।।
ॐ ह्रीं सहस्रशीर्षाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निजात्मा को जाना, चराचर सभी भी।
प्रभो! ‘क्षेत्रज्ञा’ मैं, नमूँ स्वस्थ हेतु ।।१९६।।
ॐ ह्रीं क्षेत्रज्ञाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंते पदारथ, तुम्हीं जानते हो।
‘सहस्राक्ष’ स्वामिन्! नमूँ प्रीति से मैं।।१९७।।
ॐ ह्रीं सहस्राक्षाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंते बली नंत किरणों सुव्यापी।
‘सहसपात्’ वंदूं मुझे शक्ति दीजे।।१९८।।
ॐ ह्रीं सहस्रपदे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं भूतभावी, व संप्रति के स्वामी।
नमूँ ‘भूतभव्यभवद्भर्त’ तुमको।।१९९।।
ॐ ह्रीं भूतभव्यभवद्भर्त्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुविद्या अखिल के, तुम्हीं नाथ माने।
अत: ‘विश्वविद्यामहेश्वर’ नमूँ मैं।।२००।।
ॐ ह्रीं विश्वविद्यामहेश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समीचीन गुण के निमित, अतिशय स्थूल महान।
‘स्थविष्ठ’ प्रभु को नमूँ, बनूँ शीघ्र गुणवान।।२०१।।
ॐ ह्रीं स्थविष्ठाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानादिकगुण वृद्ध प्रभु, इससे ‘स्थविर’ आप।
दर्शन ज्ञान चरित्र हित, नमूँ जोड़ युग हाथ।।२०२।।
ॐ ह्रीं स्थविराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में सुप्रशस्त हो, ‘ज्येष्ठ’ सिद्ध भगवान।
आत्म सुधारस प्राप्त हो, नमते निज पर ज्ञान।।२०३।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सबमें अग्रेसर तुम्हीं, ‘प्रष्ठ’ नाम से ख्यात।
आत्म सुरभि पैले जगत, नमत आत्मसुख सात।।२०४।।
ॐ ह्रीं प्रष्ठाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब भव्योें को प्रिय अधिक, ‘प्रेष्ठ’ आप जगमीत।
गुण अनन्तयुत आत्मनिधि, मिले नमूँ धर प्रीत।।२०५।।
ॐ ह्रीं प्रेष्ठाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान सुबुद्धि तुम, अति विस्तीर्ण प्रसिद्ध।
प्रभु ‘वरिष्ठधी’ तुम नमूँ, गुणमणि धरूँ समृद्ध।।२०६।।
ॐ ह्रीं वरिष्ठधिये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोक अग्र पर तिष्ठते, अतिशय स्थिर नित्य।
इसीलिये ‘स्थेष्ठ’ हो, नमत लहूँ सुख नित्य।।२०७।।
ॐ ह्रीं स्थेष्ठाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन के गुरु आप हैं, नाथ ‘गरिष्ठ’ प्रधान।
स्वात्मामृत के पान से, बनूँ स्वस्थ अमलान।।२०८।।
ॐ ह्रीं गरिष्ठाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुणपेक्षा बहुरूप को, धारण करते नाथ।
प्रभु ‘बंहिष्ठ’ तुम्हें नमूँ, मिले सौख्य श्रीसाथ।।२०९।।
ॐ ह्रीं बंहिष्ठाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बहु प्रशंसनीया सुगुण, प्रभो ‘श्रेष्ठ’ तुम नाम।
अनुपम गुणनिधि हेतु मैं, नमूँ आप शिवधाम।।२१०।।
ॐ ह्रीं श्रेष्ठाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चर्मचक्षु से आप हैं, अतिशय सूक्ष्म जिनेश।
प्रभु ‘अणिष्ठ’ तुमको नमूँ, मिटे जगत का क्लेश।।२११।।
ॐ ह्रीं अणिष्ठाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जगत्पूज्य वाणी विमल, प्रभु ‘गरिष्ठगी’ नाम।
मम रसना हो रसवती, शत शत करूँ प्रणाम।।२१२।।
ॐ ह्रीं गरिष्ठगिरे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चतुर्गती संसार को, नष्ट किया भगवान।
नमूँ ‘विश्वमुट्’ आपको, पाऊँ सौख्य निधान।।२१३।।
ॐ ह्रीं विश्वमुचे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म सृष्टि रचना किया, आप ‘विश्वसृट्’ मान्य।
धर्म संपदा पूर्ण हो, नमते सुख धन धान्य।।२१४।।
ॐ ह्रीं विश्वसृजे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अखिल लोक के शीश हो, अत: प्रभो! ‘विश्वेट्’।
सप्तपरम स्थान हित, वंदूं मस्तक टेक।।२१५।।
ॐ ह्रीं विश्वेशे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जग की रक्षा करो, अभयदान दे नाथ।
नाम ‘विश्वभुक्’ मैं नमूँ, पूजत बनूँ सनाथ।।२१६।।
ॐ ह्रीं विश्वभुजे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ले जाते शुचिकर्म में, सब जीवों को नाथ।
प्रभो! ‘विश्वनायक’ तुम्हीं, नमूँ नमाऊँ माथ।।२१७।।
ॐ ह्रीं विश्वनायकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान सुरश्मि से, व्यापा लोकालोक।
‘विश्वाशी’ भगवान को, वंदूँ देऊँ धोक।।२१८।।
ॐ ह्रीं विश्वाशिषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्वरूप आत्मा’ तुम्हीं, सकल विश्व में आप।
व्याप्त लोकपूरण प्रथित, समुद्घात से नाथ।।२१९।।
ॐ ह्रीं विश्वरूपात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी विश्व से पार हैं, आप ‘विश्वजित्’ नाम।
सकल गुणों की राशि हित, करूँ अनंत प्रणाम।।२२०।।
ॐ ह्रीं विश्वजिते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विजितान्तक’ मृत्यूजयी, नमूँ नमूँ रुचि धार।
शक्ती दो प्रभु मोह यम, काम मल्ल दूं मार।।२२१।।
ॐ ह्रीं विजितान्तकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नष्ट किया भव भ्रमण तुम, नाथ ‘विभव’ जग मान्य।
जन्म मरण दुख क्षय करो, तुम जग में प्राधान्य।।२२२।।
ॐ ह्रीं विभवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सात भयों से दूर प्रभु, ‘विभय’ करो भय दूर।
सर्वकांति जीता तुम्हें, नमत मिले सुखपूर।।२२३।
ॐ ह्रीं विभयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु अनंत बलशालि तुम, ‘वीर’ नाम से ख्यात।
मेरी नंतचतुष्टयी, दीजे श्रुत विख्यात।।२२४।।
ॐ ह्रीं वीराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘विशोक’ त्रिलोक में, किया शोक को दूर।
मेरे शोक हरो सभी, नमूँ अमित गुणपूर।।२२५।।
ॐ ह्रीं विशोकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वृद्धावस्था से रहित, ‘विजर’ नाम से ख्यात।
जरा जीर्ण मेरी करो, मेटो भव भव त्रास।।२२६।।
ॐ ह्रीं विजराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहीं जीर्ण होते कभी, ‘अजरन्’१ नाम धरंत।
सभी व्याधि दुख क्षीण हों, नमूँ नाथ शिवकंत।।२२७।।
ॐ ह्रीं अजरते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
राग रहित हो देव तुम, अत: ‘विराग’ प्रसिद्ध।
नमूँ विरागी मैं बनूँ, पाऊँ निजगुण रिद्धि।।२२८।।
ॐ ह्रीं विरागाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्पपाप से ‘विरत’ हो, भवसुख विरत महान।
मेरे महाव्रत पूरिये, नमूँ तपोधनवान।।२२९।।
ॐ ह्रीं विरताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वपरिग्रह शून्य हो, नाथ! ‘असंग’ अनूप।
परिग्रह ग्रंथी से छुटूँ, पाऊँ निज चिद्रूप।।२३०।।
ॐ ह्रीं असंगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब विषयों में भिन्न हो, पूर्ण पवित्र ‘विविक्त’।
मुझको भेदविज्ञान दो, होऊँ पर से रिक्त।।२३१।।
ॐ ह्रीं विविक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मत्सर आदिक दोष से, रहित गुणों की राशि।
नमॅूँ ‘वीतमत्सर’ तुम्हें, पाऊँ निज सुख राशि।।२३२।।
ॐ ह्रीं वीतमत्सराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिष्यों के बांधव सहज, हित उपदेशी सूर्य।
‘विनेयजनताबंधु’ को, नमूँ तमोहर सूर्र्य।।२३३।।
ॐ ह्रीं विनेयजनताबंधवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कल्मष से दूर हो, नमत पाप हो क्षीण।
‘विलीन सर्व कल्मष’ तुरत, करो सौख्य अक्षीण।।२३४।।
ॐ ह्रीं विलीनाशेषकल्मषाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्तिरमा के साथ में, योग ‘वियोग’ महान।
इष्टवियोगादिक सभी, दु:ख हरो भगवान।।२३५।।
ॐ ह्रीं वियोगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आठ अंग लक्षण कहा, योग ‘योगवित्’ नाथ।
ध्यानयोग के हेतु मैं, नमूँ जोड़ द्वय हाथ।।२३६।।
ॐ ह्रीं योगविदे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब पदार्थ को जानते, आप श्रेष्ठ ‘विद्वान्’।
विद्याधन मुझको मिले, नमूँ नंत गुणवान।।२३७।।
ॐ ह्रीं विदुषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म उभय सृष्टी किया, प्रभो ‘विधाता’ सिद्ध।
मुनीधर्म मुझको मिले, नमूँ करूँ यमविद्ध।।२३८।।
ॐ ह्रीं विधात्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निरतिचार चारित्रधर, ‘सुविधि’ कहाए आप।
पंचम चारित हेतु मैं, नमूूँ हरो भव ताप।।२३९।।
ॐ ह्रीं सुविधये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम ध्यानी थे तुम्हीं, ‘सुधी’ जगत में श्रेष्ठ।
धर्म शुक्ल की सिद्धि हो, नमूूूँ नमूूँ प्रभु ज्येष्ठ।।२४०।।
ॐ ह्रीं सुधिये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षमारूप हो क्रोधरिपु, का करके संहार।
‘क्षांतिभाक्’ को नमत ही, बनूँ क्षमा भंंडार।।२४१।।
ॐ ह्रीं क्षांतिभाजे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पृथिवीमूर्ति’ स्वरूप हो, सर्वंसहा महेश।
सहनशीलता गुण मिले, नमूँ हरो भव क्लेश।।२४२।।
ॐ ह्रीं पृथिवीमूर्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्यंतिक शांती सहित, ‘शांतिभाक्’ जिनराज।
परम शांति मुझको मिले, नमत पूर्ण हो काज।।२४३।।
ॐ ह्रीं शांतिभाजे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जल सम शीतल स्वच्छ हो, किया कर्म मल दूर।
‘सलिलात्मक’ मन स्वच्छ कर, भरो ज्ञान सुखपूर।।२४४।।
ॐ ह्रीं सलिलात्मकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जीवों के प्राणसम, ‘वायुमूर्ति’ भगवान।
मैं निसंग बन जाऊँ प्रभु, नमूँ नमूँ सुखदान।।२४५।।
ॐ ह्रीं वायुमूर्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंतर बहिर उपाधि से, रहित अमूर्त असंग।
नमूँ ‘असंगात्मा’ तुम्हें, रहूँ मुक्ति के संग।।२४६।।
ॐ ह्रीं असंगात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मकाष्ठ को भस्म कर, ‘वन्हिमूर्ति’ श्रुतमान्य।
ध्यान अग्नि मुझको मिले, नमॅूँ आप गुरु मान्य।।२४७।।
ॐ ह्रीं वन्हिमूर्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हिंसा आदिक पाप सब, जला दिये प्रभु शीघ्र।
प्रभु ‘अधर्मधक्’ सिद्ध हो, नमूँ भक्ति है तीव्र।।२४८।।
ॐ ह्रीं अधर्मदहे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मरूप सामग्रि को, होमा सम्यक् आप।
प्रभो! ‘सुयज्वा’ मैं नमूँ, मैं होमूं सब पाप।।२४९।।
ॐ ह्रीं सुयज्वने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज स्वभाव आराधते, ‘यजमानात्मा’ सिद्ध।
आराधूं निज तत्त्व मैं, पाऊँ नवनिधि रिद्धि।।२५०।।
ॐ ह्रीं यजमानात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! स्वात्मासुखाम्बुधि में, किया अभिषेक नित उसमें।
अत: ‘सुत्वा’ कहाते हो, जजत ही सौख्य भरते हो।।२५१।।
ॐ ह्रीं सुत्वने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! इन्द्रादि पूजित हो, अत: ‘सूत्रामपूजित’ हो।
जजत ही दृग्विशुद्धी हो, मुझे बोधी समाधी हो।।२५२।।
ॐ ह्रीं सूत्रामपूजिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुशल ‘ऋत्विक्’ तुम्हीं सच में, यज्ञ ज्ञानैक करने में।
स्व कर्मेंधन दहन कर दूं, प्रभो यह शक्ति दो वंदूँ।।२५३।।
ॐ ह्रीं ऋत्विजे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं हो ‘यज्ञपति’ जग में, प्रमुख हो यज्ञ की विधि में।
जलाकर ध्यान अग्नी को, हवन कर लूँ नमन तुमको।।२५४।।
ॐ ह्रीं यज्ञपतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शतेन्द्रों ने किया पूजा, न तुम सम अन्य है दूजा।
इसी से ‘याज्य’ हो स्वामी, नमूँ मैं आप अभिरामी।।२५५।।
ॐ ह्रीं याज्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हवन के अंग परधाना, अत: ‘यज्ञांग’ शिवधामा।
नमूँ मैं नित्य श्रद्धा से, तपोग्नी प्राप्त हो तुम से।।२५६।।
ॐ ह्रीं यज्ञांगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
न मरते आप ‘अमृत’ हैं, परम अमृत रसायन हैं।
प्रभो! तुमको नमन करके, विषय तृष्णा व दु:ख भगते।।२५७।।
ॐ ह्रीं अमृताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निजात्मानंद में रत हो, अशुद्धी हवन करते हो।
नमूँ ‘हवि’ आपको रुचि से, सुखामृत प्राप्त हो तुम से।।२५८।।
ॐ ह्रीं हविषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गगनवत् व्याप्त हो जग में, केवलज्ञान किरणों से।
इसी से ‘व्योममूर्ती’ हो, नमत सुज्ञान मुझमें हो।।२५९।।
ॐ ह्रीं व्योममूर्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वर्ण रस गंध से रहिता, ‘अमूर्तात्मा’ ज्ञानसहिता।
अमूर्तिक मैं बनूँ स्वामी, तुम्हें पूजूँ जगन्नामी।।२६०।।
ॐ ह्रीं अमूर्तात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म मल लेप से हीना, प्रभो! ‘निर्लेप’ गुणलीना।
बनूं निर्लेप मैं पर से, करूँ पूजा अत: रुचि से।।२६१।।
ॐ ह्रीं निर्लेपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी रागादि मल शून्या, तुम्हीं ‘निर्मल’ बने पूर्णा।
आधि व्याधी सभी विनशे, नमत ही पूर्ण सुख विलसे।।२६२।।
ॐ ह्रीं निर्मलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अचल’ हो सिद्ध सुस्थिर हो, लोक के अग्र अविचल हो।
अचल हो जाऊँ मैं निज में, यही फल प्राप्त कर लूँ मैं।।२६३।।
ॐ ह्रीं अचलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्र सम शांति देते हो, परम आल्हाद भरते हो।
‘सोममूर्ती’ नमूँ तुमको, स्वात्म आल्हाद दो मुझको।।२६४।।
ॐ ह्रीं सोममूर्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सौम्यरूपी ‘सुसौम्यात्मा’, सिद्धपद प्राप्त परमात्मा।
नमूँ मैं आत्म शुचि हेतू, साम्यगुण पूर्ण कर दीजे।।२६५।।
ॐ ह्रीं सुसौम्यात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूर्यसम पूर्ण तेजस्वी, ज्ञान किरणों से ओजस्वी।
‘सूर्यमूर्ती’ नमूँ तुमको, स्वात्म का तेज दो मुझको।।२६६।।
ॐ ह्रीं सूर्यमूर्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाप्रभ’ केवली प्रभु हो, धर्म किरणोें सहित तुम हो।
नमूँ मैैं आपको शुचि हो, प्रगट कर लूं स्वात्म रवि को।।२६७।।
ॐ ह्रीं महाप्रभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महामंत्रों के ज्ञाता हो, ‘मंत्रवित्’ नाम पाते हो।
नमूॅँ मैं मुक्ति के हेतू, मंत्र मिल जाय भवसेतू।।२६८।।
ॐ ह्रीं मंत्रविदे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंत्र चारों हि अनुयोगा, उन्हीं के आप उपदेष्टा।
‘मंत्रकृत्’ आप को प्रणमूँ, ज्ञान वाराशि को पालूँ।।२६९।।
ॐ ह्रीं मंत्रकृते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंत्रमय मंत्ररूपी हो, प्रभो! मंत्री मंत्रतनु हो।
हमें भी मंत्र दे दीजे, नमूँ मैं मुक्तिश्री दीजे।।२७०।।
ॐ ह्रीं मंत्रिणे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मंत्रमूर्ती’ तुम्हीं भगवन्, मंत्र अक्षरमयी तुम तन।
नमूँ तुम नाम मंत्रों को, प्राप्त कर लूं स्वात्म पद को।।२७१।।
ॐ ह्रीं मंत्रमूर्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनंतग’ मोक्ष में राजें, ज्ञान से विश्व में व्यापें।
नमूँ मैं मोक्ष प्राप्ती हित, यही भक्ती फलेगी नित।।२७२।।
ॐ ह्रीं अनंतगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्ण स्वातन्त्र्य् हो करके, ‘स्वतंत्रात्मा’ तुम्हीं चमके।
नमूँ मैं स्वात्म संपति दो, सभी विपदा दूर कर दो।।२७३।।
ॐ ह्रीं स्वतंत्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तंत्रकृत्’ शास्त्र के कर्ता, तुम्हीं प्रभु भावश्रुत कर्ता।
दिव्यध्वनि द्वादशांगी है, नमत ही स्वात्म निधिकर है।।२७४।।
ॐ ह्रीं तंत्रकृते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुशोभन है निकट प्रभु का, अत: तुम ‘स्वन्त’ हो शिवदा।
नमूँ मैं दुख दरिद नाशूं, तुम्हें पा निज को परकाशूं।।२७५।।
ॐ ह्रीं स्वन्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मृत्यु का अंत कर दीना, ‘कृतान्तान्त’ नाम लीना।
नमूँ मैं सर्व दुख भागें, मृत्यु भयभीत हो भागे।।२७६।।
ॐ ह्रीं कृतान्तान्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जैन सिद्धांत के कर्ता, सभी के क्षेम सुख भर्ता।
नमत ‘कृतान्तकृत्’ प्रभु को, जगत में सौख्य शांती हो।।२७७।।
ॐ ह्रीं कृतान्तकृते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कृती’ हो पुण्य फल पायो, पुण्यराशी मुनी गायो।
नमूँ मैं पाप को नाशूं, पुण्य से स्वात्म को भासूं।।२७८।।
ॐ ह्रीं कृतिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चार पुरुषार्थ को कह के, ‘कृतार्था’ नाम पा करके।
आप ने मोक्ष पद पाया, नमूँ मैं स्वस्थ हो काया।।२७९।।
ॐ ह्रीं कृतार्थाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘सत्कृत्य’ हो जग में, सत्य कर्तव्यप्रद सच में।
प्रजा पोषण किया तुमने, नमॅूँ मैं स्वात्म रुचि मन में।।२८०।।
ॐ ह्रीं सत्कृत्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
किया सब आत्म कार्यों को, प्रभो! ‘कृतकृत्य’ तुम ही हो।
बनूं कृतकृत्य प्रभु मैं भी, इसी से पूजहॅूँ नित ही।।२८१।।
ॐ ह्रीं कृतकृत्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तपस्या यज्ञ कर करके, प्रभो! ‘कृतक्रतू’ ज्ञान धरके।
तपस्या पूर्ण कर पाऊँ, इसी से आपको ध्याऊँ।।२८२।।
ॐ ह्रीं कृतक्रतवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा अस्तित्व से स्थित, ‘नित्य’ प्रभु तीन जग में हो।
नमूँ निज आत्म गुण पाऊँ, स्वस्थ हो नित्य बन जाऊँ।।२८३।।
ॐ ह्रीं नित्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम मृत्यु को जीता, सु ‘मृत्युंजय’ कर्म जीता।
नमूँ मैं भक्ति धर नित ही, बनूं मृत्युंजयी झट ही।।२८४।।
ॐ ह्रीं मृत्युंजयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहीं है अन्त इस जग में, ‘अमृत्यू’ नाम श्रुत वर्णें।
मोक्ष पद प्राप्त है तुमको , नमूँ मैं कालजयि प्रभुु को।।२८५।।
ॐ ह्रीं अमृत्यवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अमृतसम शांति पुष्टी कर, प्रभो! ‘अमृतात्मा’ जिनवर।
ज्ञान अमृत पिऊँ निश दिन, तुम्हें पूजूँ नमूँ प्रतिदिन।।२८६।।
ॐ ह्रीं अमृतात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोक्ष में आप जन्में हो, प्रभो! ‘अमृतोद्भव’ तुम हो।
धर्म अमृत झराते हो, जजत समरस पिलाते हो।।२८७।।
ॐ ह्रीं अमृतोद्भवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा शुद्धात्म में तन्मय, प्रभो! तुम ‘ब्रह्मनिष्ठा’ मय।
मुझे भी स्वात्म तन्मयता, मिले इस हेतु मैं जजता।।२८८।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मनिष्ठाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परंब्रह्मा’ जगत्पति हो, निजात्मा रूप परिणत हो।
नमूूँ निज ब्रह्मपद पाऊँ, जगत के दु:ख विनशाऊँ।।२८९।।
ॐ ह्रीं परंब्रह्मणे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! वैâवल्य ज्ञानादी, गुणों से पूर्ण वृद्धी की।
नमूँ ‘ब्रह्मात्मा’ नित ही, प्राप्त कर लूं स्वगुण नित ही।।२९०।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं तो ‘ब्रह्मसंभव’ हो, स्वात्म से आप उत्पन्न हो।
आत्म के ज्ञानचारित को, प्राप्त कर लूं नमन तुम को।।२९१।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मसंभवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाब्रह्मापती’ तुम ही, सिद्ध परमेष्ठी नित ही।
नम: सिद्धेभ्य: कह करके, धरी दीक्षा नमूँ रूचि से।।२९२।।
ॐ ह्रीं महाब्रह्मपतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं तो मोक्ष के स्वामी, अत: ‘ब्रह्मेट्’ जगनामी।
स्वात्म सुख ज्ञान मुझ को दो, नमूँ मैं ब्रह्मपद दे दो।।२९३।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मेजे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाब्रह्मापदेश्वर’ हो, गणाधिप साधु वंदित हो।
समवसृति में विराजे हो, नमूँ प्रमुदितमना तुमको।।२९४।।
ॐ ह्रीं महाब्रह्मपदेश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हास्यमुख ‘सुप्रसन्ना’ हो, स्वर्गमुक्ती प्रदाता हो।
दु:खशोकादि हरने को, नमूूूँ प्रमुदितमना तुमको।।२९५।।
ॐ ह्रीं सुप्रसन्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुप्रसन्नात्मा’ स्वामी, स्वच्छ निर्मल गुण अभिरामी।
स्वच्छ शीतल मेरा मन हो, नमत ही स्वात्मसमरस हो।।२९६।।
ॐ ह्रीं सुप्रसन्नात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ज्ञान अरु धर्म दम प्रभु’ हो, दयालू इन्द्रियविजयी हो।
केवली धर्मदम स्वामी, नमूँ मैं धर्म पथगामी।।२९७।।
ॐ ह्रीं ज्ञानधर्मदमप्रभवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रशमात्मा’ तुम्हीं भगवन्, क्रोध रिपु का किया मर्दन।
शांति से कर्म को जीता, नमूँ मैं जगत से भीता।।२९८।।
ॐ ह्रीं प्रशमात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रशान्तात्मा’ तुम्हीं तो हो, घाति कर्मारि विजयी हो।
नमॅूँ मैं शांति सुख पाऊँ, निजात्मा में ही रम जाऊँ।।२९९।।
ॐ ह्रीं प्रशान्तात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘पुराणपुरुषोत्तम’, पुराने सब में हो उत्तम।
मुक्तिलक्ष्मीपती विष्णू, नमूँ मैं होऊँ भविजिष्णू।।३००।।
ॐ ह्रीं पुराणपुरूषोत्तमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाशोकध्वज’ नाम, महाशोकतरु चिन्ह है।
करूँ अनंत प्रणाम, शोक हरूँ निज सुख भरूँ।।३०१।।
ॐ ह्रीं महाशोकध्वजाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुत्र स्त्री मित्रादि, रहित शोक अणुमात्र ना।
नाथ! ‘अशोक’ सुपाद, नमत शोक दुख नाश हो।।३०२।।
ॐ ह्रीं अशोकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्हत् ब्रह्मा आप, ‘क’ प्रसिद्ध परमात्मा।
जजत हरें जन पाप, सर्वसौख्य पावें सदा।।३०३।।
ॐ ह्रीं काय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सृष्टा’ नमूँ त्रिकाल, निंदित दुर्गति दुख लहें।
वीतराग जगपाल, पूजत जन दिव मोक्ष लें।।३०४।।
ॐ ह्रीं स्रष्ट्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कमलासन पर नाथ, तिष्ठ ‘पद्मविष्टर’ बने।
नमूँ जोड़ जुग हाथ, यश सौरभ जग में भ्रमें।।३०५।।
ॐ ह्रीं पद्मविष्टराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लक्ष्मी के पति देव, कहलाये ‘पद्मेश’ तुम।
नमते हो दुख छेव, मिले नवों निधि संपदा।।३०६।।
ॐ ह्रीं पद्मेशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीविहार में देव, स्वर्णकमल सुरभित रचें।
चरण तले जिनदेव, पूजत यश सुरभी उड़े।।३०७।।
ॐ ह्रीं पद्मसंभूतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाभी कमल समान, ‘पद्मनाभि’ कहते मुनी।
धरूँ आपका ध्यान, कमल बनाकर नाभि में।।३०८।।
ॐ ह्रीं पद्मनाभये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु सम कोई न अन्य, नाम ‘अनुत्तर’ ऋषि कहें।
जजत बने जन धन्य, सम्यग्दर्शन शुद्धि से।।३०९।।
ॐ ह्रीं अनुत्तराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लक्ष्मी हो उत्पन्न, प्रभो! आपकी भक्ति से।
‘पद्मयोनि’ अन्वर्थ, नमत मिले गुण संपदा।।३१०।।
ॐ ह्रीं पद्मयोनये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म जगत का जन्म, हुआ आप से हे प्रभो!।
‘जगत्योनि’ शुभनाम, जजत जगत से पार हों।।३११।।
ॐ ह्रीं जगद्योनये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप से भविजन आप, प्राप्त करें रुचि मन धरें।
‘इत्य’ नाम निष्पाप, शरणागत मैं आपकी।।३१२।
ॐ ह्रीं इत्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रादिक से नित्य, स्तुति योग्य तुम्हीं प्रभो!।
त्रिभुवन में ‘स्तुत्य’ मैं स्तवन करूँ सदा।।३१३।।
ॐ ह्रीं स्तुत्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संस्तुति के तुम ईश, साधु ‘स्तुतीश्वर’ कहें।
नमूँ नमाकर शीश, गुण गाऊँ हर्षितमना।।३१४।।
ॐ ह्रीं स्तुतीश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिगण स्तुति योग्य, ‘स्तवनार्ह’ प्रसिद्ध हो।
मिले मुक्ति संयोग, जजते भेदविज्ञान हो।।३१५।।
ॐ ह्रीं स्तवनार्हाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
किया पंचेन्द्रिय वश्य, ‘हृषीकेश’ श्रुतमान्य हो।
जो जन जजें अवश्य, सौख्य अतीन्द्रिय लें भले।।३१६।।
ॐ ह्रीं हृषीकेशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहादिक अरि जीत, कहलाये ‘जितजेय’ तुम।
जो पूजें धर प्रीत, मोह हरें निर्मम बनें।।३१७।।
ॐ ह्रीं जितजेयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
करने योग्य समस्त, क्रिया पूर्ण कर शिव गये।
वंदत चित्त प्रशस्त, ‘कृतक्रिया’ भज सिद्धि हो।।३१८।।
ॐ ह्रीं कृतक्रियाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादशगण के नाथ, समवसरण में आप ही।
मुझ को करो सनाथ, जजूँ ‘गणाधिप’ आपको।।३१९।।
ॐ ह्रीं गणाधिपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी गणों में श्रेष्ठ, श्रेष्ठ गुणाकर आप हैं।
नमूँ तुम्हें ‘गणज्येष्ठ’, गुणमणि को पाऊँ अबे।।३२०।।
ॐ ह्रीं गणज्येष्ठाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में प्रभु आप, गणना करने योग्य हैं।
वंदत नशते पाप, ‘गण्य’ तुम्हें मैं भी जजूूँ।।३२१।।
ॐ ह्रीं गण्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सबको किया पवित्र, ‘पुण्य’ तुम्हें मुनिगण कहें।
मुझको करो पवित्र, पुन: पुन: याञ्चा करूँ।।३२२।।
ॐ ह्रीं पुण्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिवपथ में ले जाय, सभी भक्त को आप ही।
‘गणाग्रणी’ तुम पाय, वंदूं निज नेता बनूँ।।३२३।।
ॐ ह्रीं गणाग्रण्ये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु अनंत गुणखान, साधु ‘गुणाकर’ कह रहे।
वंदत हों गुणवान, जो तुम गुण वर्णन करें।।३२४।।
ॐ ह्रीं गुणाकराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण में आप समुद्र, ‘गुणाम्भोधि’ हो विश्व में।
नमत बने उन्निद्र, पावें निज के गुण सभी।।३२५।।
ॐ ह्रीं गुणाम्भोधये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण के ज्ञाता सिद्ध, तुम ‘गुणज्ञ’ जग ख्यात हो।
मुझ गुण सर्वप्रसिद्ध, होवेंगे तुम भक्ति से।।३२६।।
ॐ ह्रीं गुणज्ञाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गुणनायक’ भगवान, तुमको जो वंदे सदा।
निजगुण से धनवान, हो जाते वे शीघ्र ही।।३२७।।
ॐ ह्रीं गुणनायकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गुणादरी’ प्रभु सिद्ध, मैं भी गुण आदर करूँ।
पूजत हो नव निद्ध, क्रम से जिनगुुण संपदा।।३२८।।
ॐ ह्रीं गुणादरिणे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोधादिक बहुभाव, वैभाविक गुण जगत में।
नाश धरा निजभाव, नमूँ ‘गुणोच्छेदी’ तुम्हें।।३२९।।
ॐ ह्रीं गुणोच्छेदिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब विभावगुण शून्य, ‘निर्गुण’ कहलाये प्रभो!।
नमत मिले गुण पूर्ण, पूजूँ मन वच काय से।।३३०।।
ॐ ह्रीं निर्गुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘पुण्यगी’ सिद्ध, दिव्यध्वनी के तुम धनी।
तुम वचसुधा समृद्ध, भविजन स्वस्थ पवित्र हों।।३३१।।
ॐ ह्रीं पुण्यगिरे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण से सहित प्रधान, ‘गुण’ कहलाये शास्त्र में।
स्वात्म सुधारस पान, हेतु नमूूँ प्रभु सिद्ध को।।३३२।।
ॐ ह्रीं गुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनसे भय हो दूर, शरणागत के नाथ हों।
मिले ज्ञान भरपूर, नमूँ ‘शरण्य’ जिनेश को।।३३३।।
ॐ ह्रीं शरण्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुण्यवाक्’१ जिन सिद्ध, पूर्वापर अविरुध वचन।
होवे चारित रिद्ध, इसी हेतु वंदन करूँं।।३३४।।
ॐ ह्रीं पुण्यवाचे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भावकर्ममल शून्य, पूर्ण पवित्र तुम्हीं प्रभो!।
रत्नत्रय निधि पूर्ण, हेतु ‘पूत’ भगवन नमूँ।।३३५।।
ॐ ह्रीं पूताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्तिरमा को आप, वरण किया भव नाशके।
प्रभु ‘वरेण्य’ गुरु आप, जजूँ आप सम निधि मिले।।३३६।।
ॐ ह्रीं वरेण्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
करता आत्म पवित्र, पुण्य वही है लोक में।
मुझ मन करो पवित्र, जजूँ ‘पुण्यनायक’ तुम्हें।।३३७।।
ॐ ह्रीं पुण्यनायकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण गणना ना शक्य, कभी नहीं गणधर कहें।
इससे तुम्हीं ‘अगण्य’, जजते अगणित सौख्य हो।।३३८।।
ॐ ह्रीं अगण्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘पुण्यधी’ नाथ, शुद्ध बुद्ध ज्ञानी तुम्हीं।
नमूँ नमूँ नत माथ, शुद्ध निरंजन पद मिले।।३३९।।
ॐ ह्रीं पुण्यधिये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बारह गण के नाथ, सबके हितकारी तुम्हीं।
मिले महाव्रत सार्थ, ‘गण्य’१ तुम्हें वंदन करूँ।।३४०।।
ॐ ह्रीं गण्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुण्यतीर्थ करतार, आप ‘पुण्यकृत्’ सिद्ध हैं।
नमूँ अनंतों बार, एक मुक्ति के हेतु मैं।।३४१।।
ॐ ह्रीं पुण्यकृते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ग मोक्षदातार, आप ‘पुण्यशासन’ कहे।
मिले ज्ञान भंडार, प्रभु तुम मत की शरण है।।३४२।।
ॐ ह्रीं पुण्यशासनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘धर्माराम’, नंदनवन सम धर्म है।
मिले स्वात्म सुखधाम, वंदन करते भव नशे।।३४३।।
ॐ ह्रीं धर्मारामाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कहे अनंतानंत, गुण समूह भगवान तुम।
‘गुणग्राम’ भगवंत, पूजत ही गुणमणि मिले।।३४४।।
ॐ ह्रीं गुणग्रामाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुण्य पाप के द्वार, संवर से रोका प्रभो!।
वंदूूं मैं शत बार, ‘पुण्यपापरोधक’ तुम्हीं।।३४५।।
ॐ ह्रीं पुण्यापुण्यनिरोधकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पापापेत’ महान, हिंसादिक से शून्य हो।
नमत बनूं धनवान, संयमनिधि को पूर्ण कर।।३४६।।
ॐ ह्रीं पापापेताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वात्मजन्य सुख प्राप्त, प्रभो ‘विपापात्मा’ नमूँ।
समकित निधि हो प्राप्त, मिले शुद्ध उपयोग झट।।३४७।।
ॐ ह्रीं विपापात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मशत्रु को नाश, सिद्ध ‘विपात्मा’ हो गये।
शिवलक्ष्मी की आश, धर मन में वंदन करूँ।।३४८।।
ॐ ह्रीं विपात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कलिमल किया विनाश, नाथ ‘वीतकल्मष’ तुम्हीं।
नहिं भवसुख की आश, नमत अतीन्द्रिय सुख मिले।।३४९।।
ॐ ह्रीं वीतकल्मषाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जगद्वंद विभाव, परिग्रह विरहित सिद्ध हो।
प्रभु ‘निर्द्वंद’ स्वभाव, जजत कलह दुख दूर हो।।३५०।।
ॐ ह्रीं निर्द्वंदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘निर्मद’ सिद्ध तुम्हीं हो , मान कषायजयी हो।
वंदत हो निज संपत्, नाथ! जजूँ धर प्रीती।।३५१।।
ॐ ह्रीं निर्मदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शांत’ स्वभाव जिनेशा, पूर्ण शांति तुममें ही।
पूजत विपद नशेगी, शांति अपूर्व मिलेगी।।३५२।।
ॐ ह्रीं शांताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप प्रभो ‘निरमोही’, मोह ध्वांत मुझ नाशो।
मोक्षपुरी मिल जावे, नाथ! तुम्हें मैं पूजूँ।।३५३।।
ॐ ह्रीं निर्मोहाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व उपद्रव नाशा, ‘निरुपद्रव’ कहलाये।
शोक वियोग नशेंगे, जो जजते धर भक्ती।।३५४।।
ॐ ह्रीं निरुपद्रवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेत्र पलक ना झपकें, ‘निर्निमेष’ भगवंता।
दर्शन करूँ तुम्हारा, नेत्र सफल हों मेरे।।३५५।।
ॐ ह्रीं निर्निमेषाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कवलाहार तुम्हें ना, नाथ ‘निराहारी’ हो।
क्षुधा तृषा की व्याधी, पूजन से नशती है।।३५६।।
ॐ ह्रीं निराहाराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘निष्क्रिय’ सिद्ध महंता, नंत गुणों के कंता।
पूजत हो सुख साता, स्वात्म सुधारस पाके।।३५७।।
ॐ ह्रीं निष्क्रियाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘निरूपप्लव’ हो, बाध विकार नहीं है।
कर्म नशें सब मेरे, वंदन से सुख संपत्।।३५८।।
ॐ ह्रीं निरुपप्लवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘निष्कलंक’ अभिरामा, शीघ्र वरी शिवरामा।
दु:ख दरिद्र विनाशो, वंदत ज्ञान प्रकाशो।।३५९।।
ॐ ह्रीं निष्कलंकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! निरस्तैना हो, सर्व कर्म हीना हो।
मैं प्रभु अपराधी हूँ, दृष्टि कृपा की कीजे।।३६०।।
ॐ ह्रीं निरस्तैनसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप नहीं अपराधी, ‘निर्धूतागस’ मानें।
मुझ अपराध क्षमा हो, जन्म मरण से छूटूंं।।३६१।।
ॐ ह्रीं निर्धूतागसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व कर्म आस्रव से, शून्य ‘निरास्रव’ ही हो।
आस्रव का रोधन हो, पूजत संवर प्रगटे।।३६२।।
ॐ ह्रीं निरास्रवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘विशाल’ तुम्हीं हो, श्रेष्ठ महान जगत में।
पूजत सौख्य विशाला, ज्ञान विशाल बनेगा।।३६३।।
ॐ ह्रीं विशालाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान सुज्योती, नाथ! ‘विपुलज्योती’ हो।
भेदविज्ञान मिलेगा, वंदन से पूजन से।।३६४।।
ॐ ह्रीं विपुलज्योतिषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘अतुल’ नहिं तुलना, नंत गुणों की गणना।
ज्ञान सुखामृत पाऊँ, वंदत पाप नशाऊँ।।३६५।।
ॐ ह्रीं अतुलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘अचिन्त्यवैभव’ युत, चिंतन करते योगी।
भक्ति करें जो जन भी, बोधि समाधि लहें वो।।३६६।।
ॐ ह्रीं अचिन्त्यवैभवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आस्रव कर्म रुके हैं, नाथ! ‘सुसंवृत’ माने।
संवर मुझे मिलेगा, भक्ति सहाय बनेगी।।३६७।।
ॐ ह्रीं सुसंवृताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘सुगुप्तात्मा’ हो, तीन गुप्तिसंयुत हो।
काय वचन मनगुप्ती, देकर देवो तृप्ती।।३६८।।
ॐ ह्रीं सुगुप्तात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व पदार्थ सुज्ञाता, ‘सुभुत’१ सिद्ध भगवंता।
ज्ञान हमारा पूरो, सब अज्ञान निवारो।।३६९।।
ॐ ह्रीं सुभुजे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान नयों को सम्यक्, ‘सुनयतत्त्ववित्’ स्वामी।
सत्य सुनय को जानूँ, स्यात्पद जजते मुक्ती।।३७०।।
ॐ ह्रीं सुनयतत्त्वविदे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘एकविद्य’ भगवंता, केवल ज्ञान धरंता।
एक ज्ञान मुझ दीजे, कर्म कलंक हरीजे।।३७१।।
ॐ ह्रीं एकविद्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाविद्य’ जिनदेवा, विद्या बहुत तुम्हीं में।
वंदत पाप नशेंगे, केवलबोध खिलेगा।।३७२।।
ॐ ह्रीं महाविद्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जगत चराचर जानो, आप मुनी परधाना।
उत्तम ‘मुनी’ बनूं मैं, पूजत आश फलेगी।।३७३।।
ॐ ह्रीं मुनये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ईश्वर आप सभी के, शास्त्र ‘परिवृढ’ कहते।
वंदन पादकमल का, नाश करे सब विपदा।।३७४।।
ॐ ह्रीं परिवृढाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संसृति दुख से रक्षो, प्राणिमात्र पे करुणा।
आप ‘पती’ कहलाये, जग के नाथ तुम्हीं हो।।३७५।।
ॐ ह्रीं पतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धीश’ बुद्धि के पति हो, शुद्ध करो मुझ बुद्धी।
मैं तुम पादकमल की, पूजन करूँ रुची से।।३७६।।
ॐ ह्रीं धीशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विद्यानिधि’ श्रुतनिधि हो, शास्त्र स्वपर के वेत्ता।
ज्ञानगुणाम्बुधि माने, मैं रुचि से नित पूजूँ।।३७७।।
ॐ ह्रीं विद्यानिधये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘साक्षी’ तीन भुवन के, देख लिया प्रभु साक्षात्।
वंदत केवललक्ष्मी, भव्य करें निज कर में।।३७८।।
ॐ ह्रीं साक्षिणे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नम्र किया शिवपथ में, नाथ! ‘विनेता’ जग में।
वंदन शत शत मेरा, दूर करो भव फेरा।।३७९।।
ॐ ह्रीं विनेत्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साधु कहे ‘विहतान्तक’, मृत्यु विनाश किया है।
नाश करूँ यम का मैं, स्वात्म निधी मिल जावे।।३८०।।
ॐ ह्रीं विहतान्तकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दुर्गति से रक्षक हो, आप ‘पिता’ त्रिभुवन के।
पूजन से निज लब्धी, सर्व दु:खों से मुक्ती।।३८१।।
ॐ ह्रीं पित्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप जगत् के गुरु हैं, नाम ‘पितामह’ ख्याता।
मैं गुरु तुम्हें बनाऊँ, फेर न भव में आऊँ।।३८२।।
ॐ ह्रीं पितामहाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शोक रोग आदिक से , ‘पाता’ करते रक्षा।
हे प्रभु! जिन को पाके, स्वस्थ बनूं गुण गाके।।३८३।।
ॐ ह्रीं पात्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘पवित्र’ तुम्हीं हो, पावन करते प्राणी।
पावन हो मुझ आत्मा, पूजन से फल प्राप्ती।।३८४।।
ॐ ह्रीं पवित्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पावन’ सिद्ध कहाये, वंदत सौख्य बढ़ाये।
हो मन पावन मेरा, काय वचन भी शुचि हों।।३८५।।
ॐ ह्रीं पावनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘गती’ हैं जग में, आर्त दूर कर देते।
ज्ञानमात्र हो स्वामी, पूजत पंचमगति हो।।३८६।।
ॐ ह्रीं गतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव्य जनों के ‘त्राता’, भक्त इसी से जजते।
काय वचन मन से मैं, ध्यान धरूँ प्रभु तेरा।।३८७।।
ॐ ह्रीं त्रात्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीाfत स्वाहा।
नाथ! ‘भिषग्वर’ तुम ही, पूर्ण स्वस्थ कर देते।
जन्म मरण रोगों से, भक्त छुटें निश्चित ही।।३८८।।
ॐ ह्रीं भिषग्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्ति रमा को वरके, ‘वर्य’ कहाए जग में।
इंद्रगणों से वेष्टित, मैं नत हूँ श्रीपद में।।३८९।।
ॐ ह्रीं वर्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इच्छित फल देते हो, नाथ ‘वरद’ कहलाए।
बोधि समाधि मुझे दो, एक यही वर मांगूँ।।३९०।।
ॐ ह्रीं वरदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पालन पोषण कर्ता, आप ‘परम’ भव्यों के।
इष्ट फलों को देकर, पूजन का फल मिलता।।३९१।।
ॐ ह्रीं परमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आत्मा पावन कर, आप ‘पुमान’ कहाये।
भाक्तिक जन मन शुद्धी, वंदन से झट होती ।।३९२।।
ॐ ह्रीं पुंसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म अधर्म निरूपा, नाथ ‘कवी’ मुनि गायें।
मैं तुम गुण गा गाके, सफल करूँ निज रसना।।३९३।।
ॐ ह्रीं कवये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्ध ‘पुराणपुरूष’ हो, आदि अंत नहिं होता।
प्रभु पुरुषार्थ करूँ मैं, मोक्ष मिले अर्चन से।।३९४।।
ॐ ह्रीं पुराणपुरुषाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वर्षीयान्’ गुणों से, अतिशय वृद्ध कहाए।
स्वात्मगुणों की वृद्धी, हो मुझ में यह मांगूँ।।३९५।।
ॐ ह्रीं वर्षीयसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘ऋषभ’ माने हो, पूर्ण जगत् को जानो।
श्रेष्ठ ज्ञान गुण दीजे, मोह अंधेर हरीजे।।३९६।।
ॐ ह्रीं ऋषभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुरु’ महान भगवंता, वंदन करूँ तुम्हारा।
दान अभय का दीजे, दूर करो भव फेरा।।३९७।।
ॐ ह्रीं पुरवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रतिष्ठाप्रभवा’, उत्पत्ती तुम से ही।
सुस्थिरता प्रगटेगी, वंदन करूँ सदा मैं।।३९८।।
ॐ ह्रीं प्रतिष्ठाप्रसवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘हेतु’ तुम्हीं हो जग में, भुक्ति मुुक्तिप्रद माने।
रत्नत्रय निधि दीजे, वंदत सुख संपत् हो।।३९९।।
ॐ ह्रीं हेतवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप एक त्रिभुवन के, कहे पितामह स्वामी।
एकमात्र गुरु माने, पूजत ही भव हानें।।४००।।
ॐ ह्रीं भुवनैकपितामहाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीवृक्षलक्षण’ प्रभो! तरु अशोक से सिद्ध।
शोक दु:ख दारिद नशे, नमत मिले नव निद्धि।।४०१।।
ॐ ह्रीं श्रीवृक्षलक्षणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंत लक्ष्मी से तुम्हीं, आलिंगित हो ‘श्लक्ष्ण’।
गुण अनंत मेरे सभी, मिलते नाथ! प्रसन्न।।४०२।।
ॐ ह्रीं श्लक्षणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आठ महा व्याकरण में, साधु कुशल लक्षण्य।
वाङ्मय विद्या प्राप्त हो, नमत जन्म हो धन्य।।४०३।।
ॐ ह्रीं लक्षण्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एक हजार सुआठ हैं, लक्षण श्रुत में मान्य।
‘शुभलक्षण’ इनसे सहित, नमत मिले गुण साम्य।।४०४।।
ॐ ह्रीं शुभलक्षणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रिय सुख अरु ज्ञान से, रहित ‘निरक्ष’ जिनेश।
सौख्य अतीन्द्रिय हेतु मैं, नमत हरूँ भव क्लेश।।४०५।।
ॐ ह्रीं निरक्षाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कमल सदृश वर नेत्र हैं, अत: ‘पुण्डरीकाक्ष’।
पूजत मन पंकज खिले, आप भक्ति है साक्षि।।४०६।।
ॐ ह्रीं पुण्डरीकाक्षाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वात्म गुणों की पुष्टि से, ‘पुष्कल’ पूर्ण महान।
नमत मिले धन धान्य सुख, भक्त बनें भगवान।।४०७।।
ॐ ह्रीं पुष्कलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
खिले सरोरुह नेत्र हैं, करिये दृष्टि प्रसन्न।
नमूँ ‘पुष्करेक्षण’ तुम्हें, मुझ मन होय प्रसन्न।।४०८।।
ॐ ह्रीं पुष्करेक्षणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वात्मा की उपलब्धि हो, तुम भक्ती से नाथ!।
वंदूूं ‘सिद्धिद’ आपको, भव भव में हो नाथ।।४०९।।
ॐ ह्रीं सिद्धिदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धोऽहं संकल्प से, तुम्हीं ‘सिद्धसंकल्प’।
तुम अर्चा से दूर हों, सब संकल्प विकल्प।।४१०।।
ॐ ह्रीं सिद्धसंकल्पाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सिद्धात्मा’ भगवान को, नमते जो त्रयकाल।
स्वयं सिद्ध बन वे पुरुष, बनते जग प्रतिपाल।।४११।।
ॐ ह्रीं सिद्धात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘सिद्धसाधन’ प्रभो! भव्य मुक्ति के हेतु।
निश्चय रत्नत्रय निमित, मिलें आप भवसेतु।।४१२।।
ॐ ह्रीं सिद्धसाधनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘बुद्धबोध्य’ भगवंत तुम, नमूँ नमूँ धर प्रीति।
ज्ञान जानने योग्य ही, प्राप्त किया जग मीत।।४१३।।
ॐ ह्रीं बुद्धबोध्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाबोधि’ वैराग्य है, अरु रत्नत्रय प्राप्ति।
अति दुर्लभ इस विश्व में, नमत मुझे हो प्राप्ति।।४१४।।
ॐ ह्रीं महाबोधये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वर्द्धमान’ विज्ञान से, वृद्धिंगत भगवंत।
ज्ञानपूर्ण मेरा करो, नमॅूँ तुम्हें शिवकांत।।४१५।।
ॐ ह्रीं वर्द्धमानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय ऋद्धि समेत प्रभु, नाम ‘महर्द्धिक’ सिद्ध।
सर्व ऋद्धि सिद्धी मिले, यश भी जगत प्रसिद्ध।।४१६।।
ॐ ह्रीं महर्द्धिकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिक्षा कल्प व व्याकरण, निरुक्त ज्योतिष छन्द।
वेद अंगमय को नमूँ, शिव उपाय ‘वेदांग’।।४१७।।
ॐ ह्रीं वेदांगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा पृथक शरीर से, यही भेद विज्ञान।
नमूँ ‘वेदवित्’ आप से, मिले मुझे सज्ज्ञान।।४१८।।
ॐ ह्रीं वेदविदे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘वेद्य’ मुनिगम्य तुम, केवलज्ञान धरंत।
स्वसंवेद्य अनुभव मिले, नमूँ नमूँ भगवंत।।४१९।।
ॐ ह्रीं वेद्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जातरूप’ जिनदेव तुम, निर्विकार निर्ग्रंथ।
नग्न दिगम्बर वेष युत, नमत मिले शिवपंथ।।४२०।।
ॐ ह्रीं जातरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चउज्ञानी विद्वन् मुनी, उनमें श्रेष्ठ जिनेंद्र।
नाम ‘विदांवर’ मैं नमँ मिले ध्यान का केन्द्र।।४२१।
ॐ ह्रीं विदांवराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वेदवेद्य’ प्रभु आप ही, द्वादशांग के ईश।
पूर्ण ज्ञान दीजे मुझे, नमूँ नमाकर शीश।।४२२।।
ॐ ह्रीं वेदवेद्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आत्मा से ज्ञेय तुम, ‘स्वसंवेद्य’ भगवान।
निज समरस सुख हेतु मैं, नमूँ नमूँ गुणखान।।४२३।।
ॐ ह्रीं स्वसंवेद्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वेद चार तुमसे हुए, अरु विशिष्ट ज्ञानैक।
नमूँ ‘विवेद’ जिनेन्द्र को, पाऊँ निज सुख एक।।४२४।।
ॐ ह्रीं विवेदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तार्किकजन में श्रेष्ठ तुम, ‘वदताम्बर’ जिनराज।
न्याय तर्क विद्या निपुण, बनूँ सरें सब काज।।४२५।।
ॐ ह्रीं वदताम्बराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘अनादी निधन’ हो, जन्म मरण से शून्य।
श्री अनंत शाश्वत धरो, नमत बनूँ दुख शून्य।।४२६।।
ॐ ह्रीं अनादिनिधनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्थ प्रगट करते प्रभो! केवलज्ञान से आप।
‘व्यक्त’ नाम तुमको नमूँ, दूर करूँ यम ताप।।४२७।।
ॐ ह्रीं व्यक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अठरह महभाषा लघू, सात शतक सुस्पष्ट।
दिव्यध्वनी खिरती नमूँ, ‘व्यक्तवाक्’ तुम इष्ट।।४२८।।
ॐ ह्रीं व्यक्तवाचे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमूँ ‘व्यक्तशासन’ विमल, मत विरोध से हीन।
सब प्रमाण से प्रगट है, इससे हो दुख क्षीण।।४२९।।
ॐ ह्रीं व्यक्तशासनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘युगादिकृत’ आपने, धर्मसृष्टि उपदेश।
जग को संरक्षण दिया, नमत न हो दुख लेश।।४३०।।
ॐ ह्रीं युगादिकृते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मभूमि की आदि में, भक्तों के आधार।
‘युगाधार’ तुमको नमूँ, धर्म तीर्थ अवतार।।४३१।।
ॐ ह्रीं युगाधाराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘युगादि’ कृतयुग में प्रथम, छहों क्रिया उपदेश।
शिवपथ दिखलाया हुये, सिद्ध नमूँ सुख हेतु।।४३२।।
ॐ ह्रीं युगादये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगदादिज’ जग में प्रथम, लिया आप अवतार।
मोक्षमार्ग के हेतु मैं, नमॅूँ अनंतों बार।।४३३।।
ॐ ह्रीं जगदादिजाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय स्वामी इन्द्र से, बढ़कर आप ‘अतीन्द्र’।
शत इन्द्रों से वंद्य प्रभु, नमत बनूँ ज्ञानीन्द्र।।४३४।।
ॐ ह्रीं अतीन्द्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रिय ज्ञान व सुख रहित, आप ‘अतीन्द्रिय’ नाम।
स्वात्म अतीन्द्रिय सौख्य हित, कोटि कोटि प्रणाम।।४३५।
ॐ ह्रीं अतीन्द्रियाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धीन्द्र’ सुकेवल ज्ञान से, परमात्मा अभिराम।
नमूँ भक्ति से शीघ्र मुझ, मिले स्वात्म विश्राम।।४३६।।
ॐ ह्रीं धीन्द्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमैश्वर्य समेत प्रभु, नाम ‘महेन्द्र’ धरंत।
पूजूँ श्रद्धा से तुम्हें, अनुपम सुख विलसंत।।४३७।।
ॐ ह्रीं महेन्द्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूक्ष्म अंतरित दूर की, वस्तु अतीन्द्रिय सर्व।
‘अतीन्द्रियार्थद्क्’ देखते, नमत मिले गुण सर्व।।४३८।।
ॐ ह्रीं अतीन्द्रियार्थदृशे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पांचों इन्द्रिय से रहित, आप ‘अनिन्द्रिय’ मान।
अशरीरी श्री सिद्ध को, नमत मिले सुख साम्य।।४३९।।
ॐ ह्रीं अनिन्द्रियाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अहमिंद्रों से पूज्य हो, ‘अहमिन्द्रार्च्य’ जिनेश।
स्वात्म सौख्य संपति मिले, शीघ्र मिटे भव क्लेश।।४४०।।
ॐ ह्रीं अहमिन्द्रार्च्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बत्तिस इन्द्रों से महित, नाम ‘महेन्द्रमहीत’।
मैं भी पूजूँ प्रीतिधर, मिले स्वात्म नवनीत।।४४१।।
ॐ ह्रीं महेन्द्रमहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु पूजा के योग्य तुम, जग में श्रेष्ठ ‘महान्’।
महाव्रतों की प्राप्ति हो, अत: नमूूँ भगवान।।४४२।।
ॐ ह्रीं महते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘उद्भव’ भव उत्कृष्ट तुम, या जग में उत्कृष्ट।
पूजन से सब भक्त के, मिट जाते सब कष्ट।।४४३।।
ॐ ह्रीं उद्भवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मसृष्टि के बीज हो, ‘कारण’ नाम धरंत।
धर्मनिधी मुझको मिले, आतम सुख विलसंत।।४४४।।
ॐ ह्रीं कारणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भोगभूमि के अंत में, उपदेशा षट्कर्म।
‘कर्ता’ कहलाये प्रभो! नमत मिटे भव भर्म।।४४५।।
ॐ ह्रीं कर्त्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचमहा संसार से, पार हुये भगवंत।
‘पारग’ तुमको मुनि कहें, तारो मुझे तुरंत।।४४६।।
ॐ ह्रीं पारगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चतुर्गती भव दु:ख से, तारक नाव समान।
‘भवतारक’ की शरण ले, तिरते भव्य प्रधान।।४४७।।
ॐ ह्रीं भवतारकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण अनंत का पार नहिं, पा सकते गणईश।
नमूँ ‘अगाह्य’ प्रभो तुम्हें, नित्य नमाकर शीश।।४४८।।
ॐ ह्रीं अगाह्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
योगी जन से भी ‘गहन’ आप अलक्ष्यस्वरूप।
स्वात्म गुणों के हित नमूँ, प्राप्त करुँ निज रूप।।४४९।।
ॐ ह्रीं गहनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
योगगम्य योगीश के, ‘गुह्य’ आप का नाम।
मुक्ति रहस्य मिले मुझे, नमूँ नमूँ शिवधाम।।४५०।।
ॐ ह्रीं गुह्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! ‘परार्घ्य’ सुख ऋद्धि धरा।
मुझको सुख दो, कर जोड़ नमूँ।।४५१।।
ॐ ह्रीं परार्घ्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परमेश्वर’ हो, शिव श्रीपति हो।
नमते मुझको, परमामृत दो।।४५२।।
ॐ ह्रीं परमेश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘अनंतर्द्धी’ जग में।
मुझ में अनंत गुण ऋद्धि भरो।।४५३।।
ॐ ह्रीं अनंतर्द्धये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं माप ‘अमेयर्द्धी’ गुण तुम।
सुख ज्ञान भरो, मुझमें जजहूँ।।४५४।।
ॐ ह्रीं अमेयर्द्धये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘अचिन्त्यर्द्धी’ नत मैं।
नहिं चिंतन कर सकते मुनि भी।।४५५।।
ॐ ह्रीं अचिन्त्यर्द्धये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रणमूं ‘समग्रधी’ केवल धी।
जजते मिलती, निज सौख्य निधी।।४५६।।
ॐ ह्रीं समग्रधिये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘प्राग्र्य’ नमूूँ, जग मुख्य तुम्हीं।
मुझ जन्म जरा, मरणादि हरो।।४५७।।
ॐ ह्रीं प्राग्र्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘प्राग्रहरा’, सब मंगल कृत।
नमते मुझको, निज संपति दो।।४५८।।
ॐ ह्रीं प्राग्रहराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अभ्यग्र’ तुम्हीं, शिव सन्मुख हो।
त्रयलोक उपरि, निवसो प्रणमूँ।।४५९।।
ॐ ह्रीं अभ्यग्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रत्यग्र’ विलक्षण हो जग में।
नत हूँ नित मैं, चरणांबुज में।।४६०।।
ॐ ह्रीं प्रत्यग्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब में प्रमुखा, प्रभु ‘अग्र्य’ तुम्हीं।
तुमको जजते, शत इन्द्र सदा।।४६१।।
ॐ ह्रीं अग्र्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब में अग्रेसर ‘अग्रिम’ हो।
प्रभु अंत समाधी, दो मुझको।।४६२।।
ॐ ह्रीं अग्रिमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ज्येष्ठ सबमें, ‘अग्रज’ कहाते।
त्रैलोक्य में नाथ तुम्हीं बड़े हो।।
पूजूँ तुम्हें नाम सुमंत्र गाऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।४६३।।
ॐ ह्रीं अग्रजाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महातपा’ घोर सुतप किया है।
बारह तपों को मुझको भि देवो।।पूजूँ.।।४६४।।
ॐ ह्रीं महातपसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तेजोमयी पुण्य प्रभो! धरे हो।
‘महासुतेजा’ तुम तेज पैâला।।पूजूँ.।।४६५।।
ॐ ह्रीं महातेजसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महोदर्क’ तुम्हें कहे हैं।
महान तप का फल श्रेष्ठ पाया।।पूजूँ.।।४६६।।
ॐ ह्रीं महोदर्काय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऐश्वर्य भारी प्रभु आपका है।
अत: ‘महोदय’ जग में तुम्हीं हो।।पूजूँ.।।४६७।।
ॐ ह्रीं महोदयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कीर्ती चहुँदिश प्रभु की सुपैली।
‘महायशा’ नाम कहा इसी से।।पूजूँ.।।४६८।।
ॐ ह्रीं महायशसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महाधाम’ तुम्हीं कहाते।
विशाल ज्ञानी सुप्रताप धारीे।।पूजूँ.।।४६९।।
ॐ ह्रीं महाधाम्ने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महासत्त्व’ अपार शक्ती।
हे नाथ! मुझको निज शक्ति देवो।।पूजूँ.।।४७०।।
ॐ ह्रीं महासत्त्वाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाधृती’ धैर्य असीम धारी।
आपत्ति में धैर्य रहे मुझे भी।।
पूजूँ तुम्हें नाम सुमंत्र गाऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।४७१।।
ॐ ह्रीं महाधृतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महाधैर्य’ त्रिलोक में भी।
महान तेजोबल वीर्यशाली।।पूजूँ.।।४७२।।
ॐ ह्रीं महाधैर्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महावीर्य’ अनंतशक्ती।
महान तेजोबल वीर्यशाली।।पूजूँ.।।४७३।।
ॐ ह्रीं महावीर्याय सिद्धपरमेष्ठिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महासंपत्’ सर्वसंपत्।
समोसरण में तुम पास शोभे।।पूजूँ.।।४७४।।
ॐ ह्रीं महासंपदे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो!‘महाबल’ तनु शक्ति भारी।
ऐसी जगत् में नहिं अन्य के हो।।पूजूँ.।।४७५।।
ॐ ह्रीं महाबलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महानशक्ति’ धारते, त्रिलोक के गुरू तुम्हीं।
नमूँ अनंत शक्ति हेतु, आपको सदा यहीं।।४७६।।
ॐ ह्रीं महाशक्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महान ज्योति’ नाथ हो, अनंत ज्ञान रूप हो।
सुज्ञान ज्योति दीजिये, जजूँ तुम्हें सुप्रीति से।।४७७।।
ॐ ह्रीं महाज्योतिषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महाविभूति तीन लोक, की अनंत संपदा।
तथापि हो अधर तुम्हीं, नमूँ निजात्म सौख्य दो।।४७८।।
ॐ ह्रीं महाविभूतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाद्युती’ असंख्य रत्नकांति से भि कांत हो।
जजूँ तुम्हें स्वकांति से मुझे प्रकाश दीजिये।।४७९।।
ॐ ह्रीं महाद्युतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महामती’ महान पूर्ण बुद्धि से त्रिलोक को।
जिनेन्द्र! एक साथ आप जानते नमॅूँ तुम्हें।।४८०।।
ॐ ह्रीं महामतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महान नीति’ न्याय आप सर्व भव्य का करें।
समस्त दुष्ट कर्म से छुड़ाइये जजूँ तुम्हें।।४८१।।
ॐ ह्रीं महानीतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महान क्षांति’ शत्रु पे क्षमा किया क्षमामयी।
मुझे भि शक्ति दीजिये क्षमास्वरूप मैं बनूँ।।४८२।।
ॐ ह्रीं महाक्षांतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महादयो’ समस्त जीव पे दया किया तुम्हीं।
दया करूँ निजात्म पे यही कृपा करो नमूँ।।४८३।।
ॐ ह्रीं महादयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महानप्राज्ञ’ नाथ केवली अनंतज्ञान से।
सुभेद ज्ञान दीजिये तिरूँ भवोदधी अबे।।४८४।।
ॐ ह्रीं महाप्राज्ञाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महान भाग’ सर्व सौख्य पूर्ण हो त्रिलोक में।
सुरेन्द्र पूजते तुम्हें नमंत श्रेष्ठ भाग्य हो।।४८५।।
ॐ ह्रीं महाभागाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाअनंद’ स्वात्मजन्य सौख्य में निमग्न हो।
मुझे निजात्म सौख्य, दीजिये नमूँ नमूँ तुम्हें।।४८६।।
ॐ ह्रीं महानन्दाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकवी’ समस्त सौख्यदायि आपके वचन।
नमॅूँ कृपा करो सुवाक्य सिद्धि प्राप्त हो मुझे।।४८७।।
ॐ ह्रीं महाकवये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महामहान्’ देव इंद्र आप अर्चना करेंं।
महान तेज धारते नमूँ सुज्ञान तेज दो।।४८८।।
ॐ ह्रीं महामहते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महानकीर्ति’ से समस्त लोक में सुव्याप्त हो।
पदाब्ज को जजूँ निजात्म कीर्ति व्याप्त हो यहाँ।।४८९।।
ॐ ह्रीं महाकीर्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महान कांति’ से अपूर्व कांतिमान हो तुम्हीं।
समस्त आधि व्याधि नाश स्वस्थ कीजिये जजूूँ।।४९०।।
ॐ ह्रीं महाकान्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महावपू’ असंख्य भी प्रदेश व्याप्त लोक में।
सुकेवली समुद्सुघात से तुम्हें नमूँ यहीं।।४९१।।
ॐ ह्रीं महावपुषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महान दान’ अभय दान सर्वप्राणि को दिया।
प्रभो हमें उबारिये कृपालु रक्षिये जजूँ।।४९२।।
ॐ ह्रीं महादानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महान ज्ञान’ से अलोक लोक जानते सदा।
सुज्ञान की कली खिले जजूँ इसीलिये तुम्हें।।४९३।।
ॐ ह्रीं महाज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महान योग’ नाम है स्वशुद्ध आत्म ध्यान से।
अनंत धाम पा लिया नमूँ निजात्म ध्यान दो।।४९४।।
ॐ ह्रीं महायोगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महागुणी’ अनंत गुण समेत इन्द्रवंद्य हो।
गुणों की राशि दीजिये समस्त दोष दूर हों।।४९५।।
ॐ ह्रीं महागुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुमेरु पे न्हवन करें सुरेंद्र वंद्य भक्ति से।
‘महान महपती’ नमूँ दरिद्र दुख दूर हो।।४९६।।
ॐ ह्रीं महामहपतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुप्राप्त महा पंचकल्याणक’ सुरेन्द्र वृंद से।
जिनेन्द्र एक ही कल्याण दीजिये नमूँ तुम्हें।।४९७।।
ॐ ह्रीं प्राप्तमहाकल्याणकपंचकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाप्रभू’ समस्त जीव के अपूर्व नाथ हो।
निवारिये समस्त मोह दु:खदायि मैं जजूँ।।४९८।।
ॐ ह्रीं महाप्रभवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महान प्रातिहार्य के अधीश’ छत्र आदि से।
शतेन्द्र वंद्य आपको नमूँ अपूर्व सौख्य दो।।४९९।।
ॐ ह्रीं महाप्रातिहार्याधीशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महेश्वरा’ त्रिलोक के अधीश्वरा जिनेश्वरा।
सुभक्ति से नमूँ तुम्हें महान संपदा मिले।।५००।।
ॐ ह्रीं महेश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महामुनि’ प्रभु आप, मुनियों में उत्तम कहे।
नाममंत्र तुम नाथ! पूजत ही सुख संपदा।।५०१।।
ॐ ह्रीं महामुनये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि हो मौन धरंत, प्रभू ‘महामौनी’ तुम्हीं।
नाम मंत्र पूजंत, रोग शोक संकट टले।।५०२।।
ॐ ह्रीं महामौनिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म शुक्लद्वय ध्यान, धार ‘महाध्यानी’१ हुये।
नाममंत्र का ध्यान, करते ही सब सुख मिले।।५०३।।
ॐ ह्रीं महाध्यानिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्ण जितेन्द्रिय आप, नाम ‘महादम’ धारते।
नाममंत्र तुम नाथ! पूजत आतम निधि मिले।।५०४।।
ॐ ह्रीं महादमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेष्ठ क्षमा के ईश, नाम ‘महाक्षम’ सुर कहें।
नाममंत्र नत शीश, पूजूं मैं अतिभाव से।।५०५।।
ॐ ह्रीं महाक्षमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अठरह सहस सुशील, ‘महाशील’ तुम नाम है।
पूरण हो गुण शील, नाममंत्र मैं पूजहूँं।।५०६।।
ॐ ह्रीं महाशीलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप अग्नी में आप, कर्मेंधन को होमिया१।
‘महायज्ञ’ तुम नाथ, पूजूँ भक्ति बढ़ाय के।।५०७।।
ॐ ह्रीं महायज्ञाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय पूज्य जिनेश! नाम ‘महामख’ धारते।
पूजूँ भक्ति समेत, नाममंत्र प्रभु सुख मिले।।५०८।।
ॐ ह्रीं महामखाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच महाव्रत ईश, नाम ‘महाव्रतपति’ धरा।
जजूँ नमाकर शीश, नाममंत्र प्रभु आपके।।५०९।।
ॐ ह्रीं महाव्रतपतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मह्य’ आप जगपूज्य, गणधर साधूगण नमें।
मिलें स्वात्मपद पूज्य, नाममंत्र को पूजते।।५१०।।
ॐ ह्रीं मह्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकान्तिधर’ आप, अतिशय कांतिनिधान हो।
नाममंत्र तुम जाप, करे अतुल सुखसंपदा।।५११।।
ॐ ह्रीं महाकांतिधराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सबके स्वामी इष्ट, अत: ‘अधिप’ सुरगण कहें।
नाशो सर्व अनिष्ट, नाममंत्र तुम पूजहूूँ।।५१२।।
ॐ ह्रीं अधिपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महामैत्रिमय’ नाथ! सबसे मैत्रीभाव है।
नाममंत्र तुम जाप, त्रिभुवन को वश में करे।।५१३।।
ॐ ह्रीं महामैत्रीमयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनवधि गुण के नाथ, तुम्हें ‘अमेय’ मुनी कहें।
पूजत बनूूँ सनाथ, नाममंत्र प्रभु आपके।।५१४।।
ॐ ह्रीं अमेयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महोपाय’ तुम नाथ! शिव के श्रेष्ठ उपाययुत।
जजत सर्व सुख साथ, नाममंत्र को नित जपूँ।।५१५।।
ॐ ह्रीं महोपायाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ!‘महोमय’ आप, अति उत्सव अरु ज्ञानयुत।
नाममंत्र तुम जाप, सर्व उपद्रव नाशता।।५१६।।
ॐ ह्रीं महोमयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकारुणिक’ आप, दया धर्म उपदेशिया।
नाममंत्र का जाप, करत जन्म मृत्यू टले।।५१७।।
ॐ ह्रीं महाकारुणिकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मंता’ आप महान, सब पदार्थ को जानते।
जजूँ नाम गुणखान, पूर्ण ज्ञान संपित मिले।।५१८।।
ॐ ह्रीं मंत्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व मंत्र के ईश, ‘महामंत्र’ तुम नाम है।
तुम्हें नमें गणधीश, नाममंत्र मैं भी जजूँ।।५१९।।
ॐ ह्रीं महामंत्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यतिगण में अतिश्रेष्ठ, नाम ‘महायति’ आपका।
पूजत ही पद श्रेष्ठ, नाममंत्र को पूजहूँ।।५२०।।
ॐ ह्रीं महायतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महानाद’ प्रभु आप, दिव्यध्वनी गंभीर धर।
नमत बनूँ निष्पाप, नाममंत्र भी मैं जजूँ।।५२१।।
ॐ ह्रीं महानादाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दिव्यध्वनी गंभीर, योजन तक सुनते सभी।
जजत मिले भवतीर, ‘महाघोष’ तुम नाम को।।५२२।।
ॐ ह्रीं महाघोषाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘महेज्य’ सुनाम, महती पूजा पावते।
सौ इन्द्रों से मान्य, नाममंत्र मैं पूजहूूँ।।५२३।।
ॐ ह्रीं महेज्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महसांपति’ प्रभु आप, सर्व तेज के ईश हो।
तुम प्रताप भवताप, हरण करे मैं पूजहूँ।।५२४।।
ॐ ह्रीं महसांपतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान यज्ञ को धार, नाम ‘महाध्वरधर’ प्रभू।
मिले सर्व सुखसार, नाममंत्र मैं पूजहूूँ।।५२५।।
ॐ ह्रीं महाध्वरधराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धुर्य’ हो मुक्ति के मार्ग में श्रेष्ठ हो।
कर्म भू आदि में सर्व में ज्येष्ठ हो।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।५२६।।
ॐ ह्रीं धुर्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महौदार्य’ अतिशायि ऊदार हो।
आप निर्ग्रन्थ भी इष्ट दातार हो।।आप.।।५२७।।
ॐ ह्रीं महौदार्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूज्य वाक्याधिपति सु ‘महिष्ठवाक्’ हो।
दिव्यवाणी सुधावृष्टि कर्ता सु हो।।आप.।।५२८।।
ॐ ह्रीं महिष्ठवाचे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोक आलोक व्यापी ‘महात्मा’ तुम्हीं।
अंतरात्मा पुन: सिद्ध आत्मा तुम्हीं।।आप.।।५२९।।
ॐ ह्रीं महात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व तेजोमयी ‘महसांधाम’ हो।
आत्म के तेज से सर्व जग मान्य हो।।आप.।।५३०।।
ॐ ह्रीं महसांधाम्ने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व ऋषि में प्रमुख हो ‘महर्षि’ तुम्हीं।
ऋद्धि सिद्धी धरो आप सुख ही मही।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।५३१।।
ॐ ह्रीं महर्षये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेष्ठ भव धार के आप ‘महितोदया’।
तीर्थकर नाम से पूज्य धर्मोदया।।आप.।।५३२।।
ॐ ह्रीं महितोदयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो ‘महाक्लेशअंकुश’ परीषहजयी।
क्लेश के नाश हेतू सुअंकुश सही।।आप.।।५३३।।
ॐ ह्रीं महाक्लेशांकुशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शूर’ हो कर्मक्षय दक्ष हो लोक में।
नाथ! मेरे हरो कर्म, आनंद दो।।आप.।।५३४।।
ॐ ह्रीं शूराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महाभूतपति’ गणधराधीश हो।
नाथ! रक्षा करो आप जगदीश हो।।आप.।।५३५।।
ॐ ह्रीं महाभूतपतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आपही हो ‘गुरू’ धर्म उपदेश दो।
तीन जग में तुम्हीं श्रेष्ठ हो सौख्य दो।।आप.।।५३६।।
ॐ ह्रीं गुरवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही हो ‘महापराक्रम’ के धनी।
केवलज्ञान से सर्ववस्तू भणी।।आप.।।५३७।।
ॐ ह्रीं महापराक्रमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘अनंत’ आपका, अंत ना हो कभी।
नाथ! दीजे अनंतों, गुणों को अभी।।आप.।।५३८।।
ॐ ह्रीं अनन्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महाक्रोधरिपु’ क्रोध शत्रू हना।
सर्व दोषारि नाशा सुमृत्यू हना।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।।।५३९।।
ॐ ह्रीं महाक्रोधरिपवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप इंद्रिय ‘वशी’ लोक तुम वश्य में।
आत्मवश मैं बनूँ चित्त को रोक के।।आप.।।५४०।।
ॐ ह्रीं वशिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! हो ‘महाभवाब्धिसंतारि’ भी।
आप संसार सागर तरा तारते।।आप.।।५४१।।
ॐ ह्रीं महाभवाब्धिसंतारिणे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही ‘महामोहाद्रिसूदन’ कहे।
मोह पर्वत सुभेदा सुज्ञाता बने।।आप.।।५४२।
ॐ ह्रीं महामोहाद्रिसूदनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही हो ‘महागुणाकर’ लोक में।
रत्नत्रय की खनी भव्य पूजें तुम्हें।।आप.।।५४३।।
ॐ ह्रीं महागुणाकराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘क्षान्त’ हो सर्व परिषह उपद्रव सहा।
आपकी भक्ति से हो क्षमा गुण महा।।आप.।।५४४।।
ॐ ह्रीं क्षान्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो ‘महायोगिश्वर’ गणधरादीपती।
योगियों से धुरंधर जगत के पती।।आप.।।५४५।।
ॐ ह्रीं महायोगीश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘शमी’ शांत परिणाम से विश्व में।
पूर्ण शांती मिले पूजहूँ नाथ! मैं।।आप.।।५४६।।
ॐ ह्रीं शमिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘महाध्यानपति’ शुक्लध्यानीश हो।
शुक्ल परिणाम हो नाथ! वरदान दो।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।५४७।।
ॐ ह्रीं महाध्यानपतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ध्यातमहाधर्म’ सब जीव रक्षा करी।
शुभ अहिंसामयी धर्म के हो धुरी।।आप.।।५४८।।
ॐ ह्रीं ध्यातमहाधर्माय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘महाव्रत’ प्रभो! पाँच व्रत श्रेष्ठ धर।
पूर्ण होवें महाव्रत बनूूँ मुक्तिवर।।आप.।।५४९।।
ॐ ह्रीं महाव्रताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘महाकर्म अरिहा’ महावीर हो।
कर्म अरि को हना आप अरिहंत हो।।आप.।।५५०।।
ॐ ह्रीं महाकर्मारिघ्ने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज स्वरूप विदित ‘आत्मज्ञ’ हो।
सब चराचर लोक सुविज्ञ हो।।
जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।
सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।५५१।।
ॐ ह्रीं आत्मज्ञाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व देवन मधि ‘महादेव’ हो।
सुर असुर पूजित महादेव हो।।जजतहूँ.।।५५२।।
ॐ ह्रीं महादेवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महत समरथवान ‘महेशिता’।
सकल ऐश्वर धारि जिनेशिता।।जजतहूँ.।।५५३।।
ॐ ह्रीं महेशित्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सरवक्लेशापह’ दुख नाशिये।
सकल ज्ञान सुधामय साजिये।।
जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।
सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।५५४।।
ॐ ह्रीं सर्वक्लेशापहाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज हितंकर ‘साधु’ कहावते।
स्वपर हित साधन बतलावते।।जजतहूँ.।।५५५।।
ॐ ह्रीं साधवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सरवदोषहरा’ जिन आप हो।
सकल गुणरत्नाकर नाथ हो।।जजतहूँ.।।५५६।।
ॐ ह्रीं सर्वदोषहराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘हर’ तुम्हीं सब पाप विनाशते।
प्रभु अनंतसुखाकर आप हीे।।जजतहूँ.।।५५७।।
ॐ ह्रीं हराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन ‘असंख्येय’ प्रभु आप ही।
गिन नहीं सकते गुण साधु भीे।।जजतहूँ.।।५५८।।
ॐ ह्रीं असंख्येयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अप्रमेयात्मा’ जिन आप हो।
अनवधी शक्तीधर नाथ हो।।जजतहूँ.।।५५९।।
ॐ ह्रीं अप्रमेयात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन ‘शमात्मा’ शांतस्वरूप हो।
सकल कर्मक्षयी शिवभूप हो।।जजतहूँ.।।५६०।।
ॐ ह्रीं शमात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रगट ‘प्रशमाकर’ शमखानि हो।
जगत शांतिसुधा बरसावते।।जजतहूँ.।।५६१।।
ॐ ह्रीं प्रशमाकराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सरवयोगीश्वर’ मुनि ईश हो।
गणधरादि नमावत शीश को।।
जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।
सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।५६२।।
ॐ ह्रीं सर्वयोगीश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भुवन में तुम ईश! ‘अचिन्त्य’ हो।
नहिं किसी जन के मन चिन्त्य हो।।जजतहूँ.।।५६३।।
ॐ ह्रीं अचिन्त्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘श्रुतात्मा’ सब श्रुतरूप हो।
सकल भाव श्रुतांबुधि चन्द्र हो।।जजतहूँ.।।५६४।।
ॐ ह्रीं श्रुतात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल जानत ‘विष्टरश्रव’ कहे।
धरम अमृतवृष्टि करो सदा।।जजतहूँ.।।५६५।।
ॐ ह्रीं विष्टरश्रवसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वश किया मन ‘दान्तात्मा’ प्रभो।
सुतप क्लेश सहा जिन आपने।।जजतहूँ.।।५६६।।
ॐ ह्रीं दान्तात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम्हीं ‘दमतीरथईश’ हो।
सकल इन्द्रियनिग्रह तीर्थ हो।।जजतहूँ.।।५६७।।
ॐ ह्रीं दमतीर्थेशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल ध्यावत ‘योगात्मा’ तुम्हीं।
शुकल योगधरा जिन आपने।।जजतहूँ.।।५६८।।
ॐ ह्रीं योगात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु सदा तुम ‘ज्ञानसुसर्वगा’।
जगत व्याप्त किया निज ज्ञान से।।जजतहूँ.।।५६९।।
ॐ ह्रीं ज्ञानसर्वगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘प्रधान’ तुम्हीं त्रय लोक में।
प्रमुख हो निज आतम ध्यान से।।
जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।
सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।५७०।।
ॐ ह्रीं प्रधानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुमहि ‘आत्मा’ ज्ञान स्वरूप हो।
सकल लोक अलोक सुजानते।।जजतहूँ.।।५७१।।
ॐ ह्रीं आत्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रकृति’ हो तिहुँलोक हितैषि हो।
प्रकृतिरूप धरम उपदेशि हो।।जजतहूँ.।।५७२।।
ॐ ह्रीं प्रकृतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परम’ हो सबमें उत्कृष्ट हो।
परम लक्ष्मीयुत जिनश्रेष्ठ हो।।जजतहूँ.।।५७३।।
ॐ ह्रीं परमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जगत ‘परमोदय’ जिननाथ हो।
परम वैभव से तुम ख्यात हो।।जजतहूँ.।।५७४।।
ॐ ह्रीं परमोदयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘प्रक्षीणबंध’ जिनेश हो।
सकल कर्म विहीन तुम्हीं कहे।।जजतहूँ.।।५७५।।
ॐ ह्रीं प्रक्षीणबंधाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘कामारी’ जग सिद्ध।
किया तुम काम महाअरि विद्ध।।
जजूँ तुम नाम महा गुणखान।
भजूँ निज धाम अनन्त महान।।५७६।।
ॐ ह्रीं कामारये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘क्षेमकृता’ अभिराम।
जगत कल्याण किया सुखधाम।।
जजूँ तुम नाम महा गुणखान।
भजूँ निज धाम अनन्त महान।।५७७।।
ॐ ह्रीं क्षेमकृते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘क्षेमसुशासन’ सिद्ध।
किया मंगल उपदेश समृद्ध।।जजूँ.।।५७८।।
ॐ ह्रीं क्षेमशासनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रणव’ तुमही ओंकार स्वरूप।
सभी मंत्रों मधि शक्तिस्वरूप।।जजूँ.।।५७९।।
ॐ ह्रीं प्रणवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रणय’ सबका तुम ही में प्रेम।
नहीं तुम बिन होता सुख क्षेम।।जजूँ.।।५८०।।
ॐ ह्रीं प्रणयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं प्रभु ‘प्राण’ जगत् के त्राण।
दिया सब ही को जीवनदान।।जजूँ.।।५८१।।
ॐ ह्रीं प्राणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘प्राणद’ सुखदातार।
सभी जन रक्षक नाथ उदार।।जजूँ.।।५८२।।
ॐ ह्रीं प्राणदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘प्रणतेश्वर’ भव्यन ईश।
नमें तुमको उनके प्रभु ईश।।जजूँ.।।५८३।।
ॐ ह्रीं प्रणतेश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रमाण’ तुम्हीं जग ज्ञान धरंत।
तुम्हें भवि पा होते भगवंत।।जजूँ.।।५८४।।
ॐ ह्रीं प्रमाणया सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘प्रणिधी’ निधियों के स्वामि।
अनंत गुणाकर अंतर्यामि।।
जजूँ तुम नाम महा गुणखान।
भजूँ निज धाम अनन्त महान।।५८५।।
ॐ ह्रीं प्रणिधये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं प्रभु ‘दक्ष’ समर्थ सदैव।
करो मुझ कर्म अरी का छेव।।जजूँ.।।५८६।।
ॐ ह्रीं दक्षाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘दक्षिण’ हो सर्व प्रवीण।
सरल अतिशायि महा गुणलीन।।जजूँ.।।५८७।।
ॐ ह्रीं दक्षिणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं ‘अध्वर्यु’ सुयज्ञ करंत।
महा शिवमार्ग दिया भगवंत।।जजूँ.।।५८८।।
ॐ ह्रीं अध्वर्यवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अध्वर’ शिवपथ दर्शंत।
सदा ऋजु ही परिणाम धरंत।।जजूँ.।।५८९।।
ॐ ह्रीं अध्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ही ‘आनंद’ अनूप।
मुझे सुख देव सदा सुखरूप।।जजूँ.।।५९०।।
ॐ ह्रीं आनन्दाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा सबको आनंद करंत।
तुम्हीं प्रभु ‘नंदन’ नाम धरंत।।जजूँ.।।५९१।।
ॐ ह्रीं नंदनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभू तुम ‘नन्द’ समृद्धि निधान।
सदा करते तुम ज्ञान सुदान।।जजूँ.।।५९२।।
ॐ ह्रीं नन्दाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘वंद्य’ सुरासुर पूज्य।
सभी वंदन करते अनुकूल्य ।।
जजूँ तुम नाम महा गुणखान।
भजूँ निज धाम अनन्त महान।।५९३।।
ॐ ह्रीं वंद्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनिंद्य’ तुम्हीं सब दोष विहीन।
अनंत गुणों के पुंज प्रवीण।।जजूँ.।।५९४।।
ॐ ह्रीं अनिंद्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अभिनंदन’ जग आनंद।
प्रशंसित हो त्रिभुवन में वंद्य।।जजूँ.।।५९५।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘कामह’ काम हनंत।
विषय विष मूर्च्छित को सुखकंद।।जजूँ.।।५९६।।
ॐ ह्रीं कामघ्ने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो तुम ‘कामद’ हो जग इष्ट।
सभी अभिलाष करो तुम सिद्ध।।जजूँ.।।५९७।।
ॐ ह्रीं कामदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनोहर ‘काम्य’ सभी जन इष्ट।
तुम्हें नित चाहत साधु गणीश।।जजूँ.।।५९८।।
ॐ ह्रीं काम्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनोरथ पूरण ‘कामसुधेनु’।
करो मुझ वांछित पूर्ण जिनेन्द्र।।जजूँ.।।५९९।।
ॐ ह्रीं कामधेनवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अिंरजय’ आप करम अरि जीत।
हरो मुझ कर्म तुम्हीं जगमीत।।जजूँ.।।६००।।
ॐ ह्रीं अिंरजयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘असंस्कृतसुसंस्कार’ नामा तुम्हीं।
बिना संस्कारे सुसंस्कृत तुम्हीं।।
जजूँ नाम मंत्रावली भक्ति से।
पिऊँ आत्म पीयूष भी युक्ति से।।६०१।।
ॐ ह्रीं असंस्कृतसुसंस्काराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अप्राकृत’१ तुम्हीं तो स्वभावीक हो।
धरा अष्टमें वर्ष व्रत देश को।।जजूँ.।।६०२।।
ॐ ह्रीं अप्राकृताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘वैकृतांतकृत’ आप ही।
विकारादि दोष विनाशा तुम्हीं।।जजूँ.।।६०३।।
ॐ ह्रीं वैकृतांतकृते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अंतकृत’ दु:ख को नाशिया।
जनम मृत्यु का भी समापन किया।।जजूँ.।।६०४।।
ॐ ह्रीं अंतकृते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘कांतगू’ श्रेष्ठ वाणी धरो।
मुझे हो वचोसिद्धि ऐसा करो।।जजूँ.।।६०५।।
ॐ ह्रीं कांतगवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महारम्य सुंदर प्रभो! ‘कांत’ हो।
त्रिलोकीपती साधु में मान्य हो।।जजूँ.।।६०६।।
ॐ ह्रीं कांताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘चिंतामणी’ रत्न हो।
सभी इच्छती वस्तु देते सदा।।जजूँ.।।६०७।।
ॐ ह्रीं चिंतामणये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अभीष्टद’ अभीप्सित लहें भक्त ही।
मुझे दीजिये नाथ! मुक्ती मही।।जजूँ.।।६०८।।
ॐ ह्रीं अभीष्टदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
न जीते गये हो ‘अजित’ आप हो।
प्रभो! मोह जीतूँ यही शक्ति दो ।।
जजूँ नाम मंत्रावली भक्ति से।
पिऊँ आत्म पीयूष भी युक्ति से।।६०९।।
ॐ ह्रीं अजिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘जितकामअरि’ लोक मेंं।
विषय काम क्रोधादि जीता तुम्हीं।।जजूँ.।।६१०।।
ॐ ह्रीं जितकामारये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अमित’ माप होता नहीं आपका।
अनंते गुणों की खनी आप हो।।जजूँ.।।६११।।
ॐ ह्रीं अमिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अमितशासना’ धर्म अनुपम कहा।
मुझे आप सम नाथ कीजे अबे।।जजूँ.।।६१२।।
ॐ ह्रीं अमितशासनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जितक्रोध’ हो आप शांती सुधा।
महा शांति से क्रोध जीता सभी।।जजूँ.।।६१३।।
ॐ ह्रीं जितक्रोधाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जितामित्र’ कोई न शत्रु रहा।
प्रभो! आप ही सर्वप्रिय लोक में।।जजूँ.।।६१४।।
ॐ ह्रीं जितामित्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जितक्लेश’ सब क्लेश जीता तुम्हीं।
सभी क्लेश मेरे निवारो अबे।।जजूँ.।।६१५।।
ॐ ह्रीं जितक्लेशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जितांतक’ प्रभो! मृत्यु को नाशिया।
समाधी मिले अंत में भी मुझे।।जजूँ.।।६१६।।
ॐ ह्रीं जितांतकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘जिनेन्द्र’ हो विश्व में।
तुम्हीं श्रेष्ठ हो कर्मजयि साधु में।।
जजूँ नाम मंत्रावली भक्ति से।
पिऊँ आत्म पीयूष भी युक्ति से।।६१७।।
ॐ ह्रीं जिनेंद्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो आप ही ‘परमआनंद’ हो।
मुझे आत्म आनंद दीजे अबे।।जजूँ.।।६१८।।
ॐ ह्रीं परमानंदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘मुनींद्र’ हो लोक में।
मुनीनाथ मानें नमें साधु भी ।।जजूँ.।।६१९।।
ॐ ह्रीं मुनींद्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘दुंदुभीस्वन’ ध्वनी आपकी।
सुगंभीर दुंदुभि सदृश ही खिरे।।जजूँ.।।६२०।।
ॐ ह्रीं दुंदुभिस्वनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महेन्द्रासुवंद्या’ प्रभो आप ही।
सभी इंद्र से वंद्य हो पूज्य हो।।जजूँ.।।६२१।।
ॐ ह्रीं महेन्द्रवंद्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘योगीन्द्र’ हो विश्व में।
सभी ध्यानियों में तुम्हीं श्रेष्ठ हो।।जजूँ.।।६२२।।
ॐ ह्रीं योगीन्द्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘यतीन्द्रा’ मुनी साधु में।
सदा श्रेष्ठ मानें गणाधीश में।।जजूँ.।।६२३।।
ॐ ह्रीं यतीन्द्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘नाभिनन्दन’ तुम्हीं मान्य हो।
नृपति नाभि के पुत्र विख्यात हो।।जजूँ.।।६२४।।
ॐ ह्रीं नाभिनंदनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘नाभेय’ हो पूज्य हो।
महानाभिराजा से उत्पन्न हो।।
जजूँ नाम मंत्रावली भक्ति से।
पिऊँ आत्म पीयूष भी युक्ति से।।६२५।।
ॐ ह्रीं नाभेयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(नाराच छंद—इसे दो ही लाइन रखने से प्रमाणिक छंद हो जाता है।)
जिनेन्द्र! आप ‘नाभिजा’ शतेंद्रवृन्द पूज्य हो।
त्रिलोक में महान हो सभासरोज सूर्य हो।।
मुनीन्द्र आप नाममंत्र ध्यावते सुध्यान में।
जजूँ सदैव मैं यहाँ लहूँ निजात्म धाम मैं।।६२६।।
ॐ ह्रीं नाभिजाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अजात’ हो जिनेश! जन्मशून्य आप सिद्ध हो।
मुझे प्रभो! भवाब्धि से निकालिये समर्थ हो।।मुनीन्द्र.।।६२७।।
ॐ ह्रीं अजाताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! ‘सुव्रत’ आप श्रेष्ठ संयमादि धारियो।
महाव्रतादि पूर्ण कीजिये मुझे सुतारियो।।मुनीन्द्र.।।६२८।।
ॐ ह्रीं सुव्रताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं ‘मनू’ समस्त कर्मभूमि को सुथापिया।
कुलंकरों से जन्म लेय तीर्थ चक्र धारिया।।मुनीन्द्र.।।६२९।।
ॐ ह्रीं मनवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! ‘उत्तमा’ त्रिलोक में महान श्रेष्ठ हो।
मुनीशवृन्द पूज्य हो असंख्य जीव ज्येष्ठ हो।।मुनीन्द्र.।।६३०।।
ॐ ह्रीं उत्तमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अभेद्य’ हो किन्हीं जनों से छेद भेद योग्य ना।
समस्त जन्म मृत्यु रोग नाश के सुखी घना।।मुनीन्द्र.।।६३१।।
ॐ ह्रीं अभेद्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनत्ययो’ न नाश हो अनंत काल आपका।
मुझे सुखी सदा करो न अंत हो सुज्ञान का।।
मुनीन्द्र आप नाममंत्र ध्यावते सुध्यान में।
जजूँ सदैव मैं यहाँ लहूँ निजात्म धाम मैं।।६३२।।
ॐ ह्रीं अनत्ययाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनाशवान्’ भोजनादि से विहीन आप हैं।
महान तप किया प्रभो समस्त विश्वास्य हैं।।मुनीन्द्र.।।६३३।।
ॐ ह्रीं अनाश्वते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अधीक’ उत्कृष्ट आत्मा तुम्हीं कहे।
सुपाय वास्तवीक सौख्य का अधिक तुम्हीं रहें।।मुनीन्द्र.।।६३४।।
ॐ ह्रीं अधिकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोक के गुरू ‘अधीगुरू’ तुम्हीं महान हो।
नमाय माथ को सदा सुआप को प्रणाम हो।।मुनीन्द्र.।।६३५।।
ॐ ह्रीं अधिगुरुवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुगी’ सुवाणि आपकी अतीव शोभना कही।
अनंत दुख से निकाल मोक्ष में धरे वही।।मुनीन्द्र.।।६३६।।
ॐ ह्रीं सुगिरे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुमेधसा’ महान् बुद्धि से सुकेवली भये।
प्रभो! अपूर्व ज्ञान दो अनंत गुण मिले भये।।मुनीन्द्र.।।६३७।।
ॐ ह्रीं सुमेधसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पराक्रमी समस्त कर्म नाश हेतु शूर हो।
अतेव ‘विक्रमी’ कहावते अपूर्व सूर्य हो।।मुनीन्द्र.।।६३८।।
ॐ ह्रीं विक्रमिणे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोक ‘स्वामि’ हो समस्त भव्य जीव पालते।
अनंत धाम में धरो भवाब्धि से निकालते।।मुनीन्द्र.।।६३९।।
ॐ ह्रीं स्वामिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘दुरादिधर्ष’ कोई ना अनादरादि कर सके।
प्रभो! तुम्हीं समस्त भव्य बन्धु हो जगत विषे।।
मुनीन्द्र आप नाममंत्र ध्यावते सुध्यान में।
जजूँ सदैव मैं यहाँ लहूँ निजात्म धाम मैं।।६४०।।
ॐ ह्रीं दुराधर्षाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘निरुत्सुको’ तुम्हीं समस्त आश शून्य हो।
सुमुक्तिवल्लभा विषे हि औत्सुक्य पूर्ण हो।।मुनीन्द्र.।।६४१।।
ॐ ह्रीं निरुत्सुकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विशिष्ट’ आप ही विशेष रूप श्रेष्ठ विश्व में।
गणीन्द्र शीश नावते न फेर विश्व में भ्रमें।।मुनीन्द्र.।।६४२।।
ॐ ह्रीं विशिष्टाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! ‘शिष्टभुक्’ तुम्हीं सुसाधुलोक पालते।
अनिष्ट को निकाल सत्य ज्ञान आप धारते।।मुनीन्द्र.।।६४३।।
ॐ ह्रीं शिष्टभुजे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! ‘शिष्ट’ श्रेष्ठ आचरण तुम्हीं धरा यहाँ।
अशेष मोहशत्रु नाश के अनिष्ट को दहा।।मुनीन्द्र.।।६४४।।
ॐ ह्रीं शिष्टाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! ‘प्रत्ययो’ प्रतीति योग्य आप एक ही।
समस्त ज्ञानरूप हो पुनीत पुण्य रुप ही।।मुनीन्द्र.।।६४५।।
ॐ ह्रीं प्रत्ययाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरम्य ‘कामनो’ प्रभो! त्रिलोक चित्तहारि हो।
न आपके समान रूप इंद्र नेत्रहारि हो।।मुनीन्द्र.।।६४६।।
ॐ ह्रीं कामनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनघ’ जिनेश! पापहीन पुण्य के निधान हो।
अनंत जीवराशि आपको नमें प्रमाण हो।।मुनीन्द्र.।।६४७।।
ॐ ह्रीं अनघाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! ‘क्षेमि’ सर्वक्षेम युक्त आप विश्व में।
समस्त रोग शोक दु:ख मेट दो तुम्हें नमें।।
मुनीन्द्र आप नाममंत्र ध्यावते सुध्यान में।
जजूँ सदैव मैं यहाँ लहूँ निजात्म धाम मैं।।६४८।।
ॐ ह्रीं क्षेमिणे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! ‘क्षेमंकरो’ त्रिलोक क्षेमकारि हो।
दरिद्र दु:ख मेट सौख्य दो सदैव भारि हो।।मुनीन्द्र.।।६४९।।
ॐ ह्रीं क्षेमंकराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! ‘अक्षयो’ तुम्हीं सदैव क्षय विहीन हो।
मुझे अखंडधाम दो सदा स्वयं अधीन जो।।मुनीन्द्र.।।६५०।।
ॐ ह्रीं अक्षयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘क्षेमधरमपति’ क्षेम करो हो, सर्व अमंगल दोष हरो हो।
आप सुनाम जजूँ मन लाके, सर्व अमंगल दूर भगा के।।६५१।।
ॐ ह्रीं क्षेमधर्मपतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘क्षमी’ सुसहिष्णु कहे हो।
श्रेष्ठ क्षमा उपदेश रहे हो।।आप.।।६५२।।
ॐ ह्रीं क्षमिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप जिनेश! ‘अग्राह्य’ कहाते।
अल्प सुज्ञानी जान न पाते।।आप.।।६५३।।
ॐ ह्रीं अग्राह्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ज्ञान निग्राह्य’ प्रभो! जग में हो।
ज्ञान स्वसंविद से ग्रह ही हो।।आप.।।६५४।।
ॐ ह्रीं ज्ञाननिग्राह्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ज्ञानसुगम्य’ सुध्यान करें जो।
नाथ तभी तुम जान सके वो।।आप.।।६५५।।
ॐ ह्रीं ज्ञानगम्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘निरुत्तर’ आप कहे हो, सर्व जगत उत्कृष्ट भये हो।
आप सुनाम जजूँ मन लाके, सर्व अमंगल दूर भगाके।।६५६।।
ॐ ह्रीं निरुत्तराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘सुकृती’ तुम पुण्य धरन्ता।
पुण्य करें जन भक्ति करन्ता।।आप.।।६५७।।
ॐ ह्रीं सुकृतिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धातु’ तुम्हीं सब शब्द जनंता।
चिन्मय धातु तनू भगवंता।।आप.।।६५८।।
ॐ ह्रीं धातवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! तुम्हीं ‘इज्यार्ह’ कहाये।
इन्द्र मुनीगण पूज्य सु गायें।।आप.।।६५९।।
ॐ ह्रीं इज्यार्हाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘सुनय’ सहपेक्ष नयों से।
सत्य सुधर्म कहा अति नीके।।आप.।।६६०।।
ॐ ह्रीं सुनयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीसुनिवास’ तुम्हीं प्रभु माने।
सम्पति धाम तुम्हें मुनि जाने।।आप.।।६६१।।
ॐ ह्रीं श्रीनिवासाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! तुम्हीं ‘चतुरानन’ ब्रह्मा।
दीख रहे मुख चार सभा मा।।आप.।।६६२।।
ॐ ह्रीं चतुराननाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘चतुर्वक्त्र’ तुमको सुर पेखें।
नाथ! समोसृति में तुम देखें।।आप.।।६६३।।
ॐ ह्रीं चतुर्वक्त्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘चतुरास्य’ तुम्हें भवि वंदें।
जन्म जरा मृति तीनहिं खंडें।।आप.।।६६४।।
ॐ ह्रीं चतुरास्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘चतुर्मुख’ चौमुख धर्ता, द्वादशगण जनता मनहर्ता।
आप सुनाम जजूँ मन लाके, सर्व अमंगल दूर भगाके।।६६५।।
ॐ ह्रीं चतुर्मुखाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यात्मा’ प्रभु सत्य स्वरूपी।
दिव्यध्वनी मय वाक्य निरूपी।।आप.।।६६६।।
ॐ ह्रीं सत्यात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यविज्ञान’ प्रभो! तुम ही हो।
केवलज्ञान लिये चिन्मय हो।।आप.।।६६७।।
ॐ ह्रीं सत्यविज्ञानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यसुवाक्’ प्रभो सत भंगी।
वाक्यसुधा तुम गंगतरंगी।।आप.।।६६८।।
ॐ ह्रीं सत्यवाचे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यसुशासन’ नाथ तुम्हारा।
भव्य जनों हित एक सहारा।।आप.।।६६९।।
ॐ ह्रीं सत्यशासनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्याशिष्’ शुभ आशिस देते।
सर्व अमंगल भी हर लेते।।आप.।।६७०।।
ॐ ह्रीं सत्याशिषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यसुसन्धान’ विभु नामा।
सत्य प्रतिज्ञ तुम्हें सुर माना।।आप.।।६७१।।
ॐ ह्रीं सत्यसंधानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्य’ प्रभो! तुम सत्पथदर्शी।
भव्य जनों हित वाक्य प्रदर्शी।।आप.।।६७२।।
ॐ ह्रीं सत्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यपरायण’ नाथ! हितैषी।
तीन जगत के हित उपदेशी।।आप.।।६७३।।
ॐ ह्रीं सत्यपरायणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्थेयान्’ प्रभु नित स्थिर हो, नाथ! मुझे स्थिर धाम दिला दो।
आप सुनाम जजूँ मन लाके, सर्व अमंगल दूर भगाके।।६७४।।
ॐ ह्रीं स्थेयसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्थवीयान्’ प्रभु आप बड़े हो।
सर्व गणी गण में भि बड़े हो।।आप.।।६७५।।
ॐ ह्रीं स्थवीयसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘नेदिययान’ निज भक्तन के।
अति सन्निधि हो मन में बसते।।
तुम नाम सुमंत्र जपूँ नित ही।
भव वारिध पार करो अब ही।।६७६।।
ॐ ह्रीं नेदीयसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘दवीयान्’ पाप हना।
निज आत्म सुधारस पीय घना।।तुम.।।६७७।।
ॐ ह्रीं दवीयसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘दूरसुदर्शन’ हो तुम ही।
अणुरूप नहीं मुनि के मन ही।।तुम.।।६७८।।
ॐ ह्रीं दूरदर्शनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम नाथ! ‘अणोरणियान्’ कह्यो।
अति सूक्षम योगि सुगोचर हो।।तुम.।।६७९।।
ॐ ह्रीं अणोरणीयसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनणू’ तुम ज्ञान शरीर कहे।
अणु-पुद्गल नाहिं महान कहे।।तुम.।।६८०।।
ॐ ह्रीं अनणवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गुरुराद्यगरीयसा’ के जग में।
गुरुओं मधि श्रेष्ठ गुरू प्रभु हैं।।तुम.।।६८१।।
ॐ ह्रीं गरीयसामाद्यगुरवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्ादयोग’ सदा तुम योग धरा।
सब योगि सदा तुम ध्यान धरा।।
तुम नाम सुमंत्र जपूँ नित ही।
भव वारिध पार करो अब ही।।६८२।।
ॐ ह्रीं सदायोगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सदभोग’ सुपुष्प सदा बरसें।
सुर दुंदुभि आदि करें हरसें।।तुम.।।६८३।।
ॐ ह्रीं सदाभोगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सद्तृप्त’ सदा प्रभु तृप्त रहो।
क्षुध प्यास नहीं प्रभु तुष्ट रहो।।तुम.।।६८४।।
ॐ ह्रीं सदातृप्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सदाशिव’ हो जग में।
नहिं कर्म कलंक छुआ तुमने।।तुम.।।६८५।।
ॐ ह्रीं सदाशिवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सदागति’ ज्ञानमयी।
गति पंचम मोक्ष लिया तुमही।।तुम.।।६८६।।
ॐ ह्रीं सदागतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सदसौख्य’ सदा प्रभु सौख्य लह्यो।
सब सात असात सुखादि हर्यो।।तुम.।।६८७।।
ॐ ह्रीं सदासौख्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सदाविद्य’ हो जग में।
शुचि केवलज्ञान धरो निज में।।तुम.।।६८८।।
ॐ ह्रीं सदाविद्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिननाथ! ‘सदोदय’ आप रहें।
नित उदितरूप रवि आप कहें।।तुम.।।६८९।।
ॐ ह्रीं सदोदयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ध्वनि उत्तमनाथ! ‘सुघोष’ तुम्हीं।
इक योजन जीव सुनें सब ही।।
तुम नाम सुमंत्र जपूँ नित ही।
भव वारिध पार करो अब ही।।६९।।
ॐ ह्रीं सुघोषाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सुमुख’ सुंदर मुख हो।
विकसंत कमल मंदस्मित हो।।तुम.।।६९१।।
ॐ ह्रीं सुमुखाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सौम्य’ तुम्हीं शशि सुंदर हो।
तुम गावत गीत पुरंदर हो।।तुम.।।६९२।।
ॐ ह्रीं सौम्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुखदं’ सब जीव शुभंकर हो।
सुखदायि जिनेश्वर आपहि हो।।तुम.।।६९३।।
ॐ ह्रीं सुखदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुहितं’ प्रभु सर्वहितंकर हो।
मुझको निज दास करो शिव हो।।तुम.।।६९४।।
ॐ ह्रीं सुहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सुहृत्’ सबके मितु हो।
मुझ चित्त बसो सब ही वश हों।।तुम.।।६९५।।
ॐ ह्रीं सुहृदे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सुगुप्त’ सुरक्षित हो।
तुम भक्त सभी अरि रक्षित हों।।तुम.।।६९६।।
ॐ ह्रीं सुगुप्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘गुप्तिभृता’ त्रयगुप्ति धरी।
तुम भक्ति किया मुझ धन्य घरी।।तुम.।।६९७।।
ॐ ह्रीं गुप्तिभृते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘गोप्ता’ रक्षक हो जग के।
मुझ पे अब नाथ कृपा कर दो।।
तुम नाम सुमंत्र जपूँ नित ही।
भव वारिध पार करो अब ही।।६९८।।
ॐ ह्रीं गोप्त्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘लोकअध्यक्ष’ त्रिलोकपती।
मुझ व्याधि उपाधि हरो जल्दी।।तुम.।।६९९।।
ॐ ह्रीं लोकाध्यक्षाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘दमेश्वर’ हो नित ही।
सब इंद्रिय जीत अतीन्द्रिय ही।।तुम.।।७००।।
ॐ ह्रीं दमेश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘बृहद्वृहस्पति’ नाम तुम, सुरगुरु के गुरु आप।
काव्य कला प्रतिभा मिले, नमॅूँ नमूँ दिन रात।।७०१।।
ॐ ह्रीं बृहद्वृहस्पतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वाग्मी’ द्वादश गण सुनें, तुम प्रशस्त वच नित्य।
पूजत वच सिद्धी मिले, ध्याते हो सुख नित्य।।७०२।।
ॐ ह्रीं वाग्मिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वाचस्पति’ भाषा सभी, धरें आप भगवान।
त्रिभुवन गुरुओें के गुरू, नमॅूँ नमूँ धर ध्यान।।७०३।।
ॐ ह्रीं वाचस्पतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘उदारधी’ जगत में, तुम सम नहिं दातार।
ज्ञान दान देकर मुझे, करो जगत से पार।।७०४।।
ॐ ह्रीं उदारधिये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘मनीषी’ बुद्धि में, सर्वोत्तम अभिनंद्य।
सद्बुद्धी शिवहेतु ही, दे दीजे जगवंद्य।।७०५।।
ॐ ह्रीं मनीषिणे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धिषण’ आप ही जगत् में, केवलज्ञानी सिद्ध।
स्वपर भेद विज्ञान दो, ध्याकर बनूँ समृद्ध।।७०६।।
ॐ ह्रीं धिषणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘धीमान’ त्रिलोक में, पंचम ज्ञान समेत।
स्वात्मज्ञान संपत्ति दो, नमूँ आप भव सेतु।।७०७।।
ॐ ह्रीं धीमते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शेमुषीश’ त्रिभुवनपती, ज्ञान अनंत अपार।
ज्ञानज्योति देकर प्रभो! करिये मुझ उद्धार।।७०८।।
ॐ ह्रीं शेमुषीशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘गिरांपति’ मान्य हो, दिव्यध्वनी के ईश।
सत्य महाव्रत पूरिये, नमूँ नमूँ नत शीश।।७०९।।
ॐ ह्रीं गिरांपतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नैकरूप’ शिव बुद्ध तुम, ब्रह्मा विष्णु जिनेश।
नमत मिले समरस सुधा, परमानंद हमेश।।७१०।।
ॐ ह्रीं नैकरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नयोत्तुंग’ नय सप्तविध, नानाविध स्याद्वाद।
अनेकांत मत को कहा, नमत साम्यरस स्वाद।।७११।।
ॐ ह्रीं नयोत्तुंगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नैकात्मा’ आनन्त्य गुण, धरें आप अविरुद्ध।
नमत मिले गुण संपदा, कर्मास्रव हों रुद्ध।।७१२।।
ॐ ह्रीं नैकात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नैकधर्मकृत’ मुनि धरम, श्रावक धर्म प्रकाश।
भव समुद्र से तारते, भविजन कमल विकास।।७१३।।
ॐ ह्रीं नैकधर्मकृते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अविज्ञेय’ सामान्य जन, तुमको जानें नाहिं।
साधु ध्यान से जानते, बसो मेरे मन माहिं।।७१४।।
ॐ ह्रीं अविज्ञेयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अप्रतर्क्यात्मा’ तुम्हीं, नहिं तर्कादिक गम्य।
मुझे अंत्ारात्मा करो, दोष करो सब क्षम्य।।७१५।।
ॐ ह्रीं अप्रतर्क्यात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘कृतज्ञ’ गुरुभक्त बन, सोलहकारण भाय।
स्वयं बुद्ध तीर्थेश हुये, नमूँ आपके पांय।।७१६।।
ॐ ह्रीं कृतज्ञाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कृतलक्षण’ त्रैलोक्य में, वस्तु स्वरूप उचार।
शुभ लक्षण देवो मुझे, नमूँ अनंतों बार।।७१७।।
ॐ ह्रीं शुभलक्षणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ज्ञानगर्भ’ वैâवल्य के, बीज आप भगवान।
रोग शोक दुख नाश के, पाऊँ भेद विज्ञान।।७१८।।
ॐ ह्रीं ज्ञानगर्भाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘दयागर्भ’ त्रैलोक्य को, दिया अभय का दान।
दयादृष्टि मुझ पर करो, करो अहिंसावान।।७१९।।
ॐ ह्रीं दयागर्भाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘रत्नगर्भ’ प्रभु गर्भ से, छह महिने ही पूर्व।
रत्नवृष्टि धनपति किया, जजते सौख्य अपूर्व।।७२०।।
ॐ ह्रीं रत्नगर्भाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘प्रभास्वर’ ज्ञानरवि, किया मोहतम नाश।
ज्ञानप्रभा मुझमें भरो, तुम्हीं त्रिलोक प्रकाश।।७२१।।
ॐ ह्रीं प्रभास्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पद्मगर्भ’ तुमको नमूँ, ज्ञानकली विकसाय।
कमलाकृति माँ गर्भ में, तुम तिष्ठे थे आय।।७२२।।
ॐ ह्रीं पद्मगर्भाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगद्गर्भ’ तुम ज्ञान में, त्रिभुवन सब झलकंत।
मोहतिमिर मेरा नशे, नमत मिले भव अंत।।७२३।।
ॐ ह्रीं जगद्गर्भाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘हेमगर्भ’ तुम गर्भ में, पृथ्वी स्वर्ण समान।
पूजत दारिद दुख नशे, मिले नवों निधि आन।।७२४।।
ॐ ह्रीं हेमगर्भाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘सुदर्शन’ आपका, धर्मचक्र अभिराम।
क्षायिक समकित हेतु मैं, शत शत करूँ प्रणाम।।७२५।।
ॐ ह्रीं सुदर्शनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंतर लक्ष्मी सुगुण धन, बाह्य समवसरणादि।
इनसे ‘लक्ष्मीवान्’ प्रभु, नमत मिले ज्ञानादि।।७२६।।
ॐ ह्रीं लक्ष्मीवते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रिदशाध्यक्ष’ जिनेंद्र हो, इंद्रगणों के ईश।
सिद्धिरमापति आपको, नमूँ नमाकर शीश।।७२७।।
ॐ ह्रीं त्रिदशाध्यक्षाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘दृढीयान्’ प्रभु सिद्ध हो, पाया स्वात्म निकेत।
तुम सम व्रत में दृढ़ नहीं, नमूँ नमॅूँ शिव हेतु।।७२८।।
ॐ ह्रीं दृढीयसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन भुवन के ईश हो, ‘इन’ कहलाये आप।
मेरे सब अघ नाशिये, नमूँ नमूँ निष्पाप।।७२९।।
ॐ ह्रीं इनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिवपद देने में प्रभू, ‘ईशित’ जग में ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ, बनूं आत्मसुख सात।।७३०।।
ॐ ह्रीं ईशित्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रों का भी मन हरा, अत: ‘मनोहर’ सिद्ध।
हरिहर ब्रह्मा भी नमें, जजत करूँ अघविद्ध।।७३१।।
ॐ ह्रीं मनोहराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मनोज्ञांग’ प्रभु रूप को, देखत इन्द्र अतृप्त।
नेत्र हजारों भी करे, जजत आत्मसुख तृप्त।।७३२।।
ॐ ह्रीं मनोज्ञांगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन लोक में आप सम, धीर नहीं है अन्य।
‘धीर’ सिद्ध तुमको नमूँ, हो नर जीवन धन्य।।७३३।।
ॐ ह्रीं धीराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘गंभीरशासन’ कहे, शरणागत प्रतिपाल।
जब तक निजपद ना मिले, नमूँ नमूँ नत भाल।।७३४।।
ॐ ह्रीं गंभीरशासनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धर्मयूप’ वर धर्मप्रद, निर्भय पद दातार।
अभयदान दीजे मुझे, नमूँ नमूँ शत बार।।७३५।।
ॐ ह्रीं धर्मयूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘दयायाग’ कीजे दया, भवसागर से तार।
नमूँ नमूँ नित भक्ति से, शिवलक्ष्मी भरतार।।७३६।।
ॐ ह्रीं दयायागाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धर्मनेमि’ प्रभु आप ही, धर्मधुरा धारंत।
नमॅूँ कोटि श्रद्धा लिये, करो भवोदधि अंत।।७३७।।
ॐ ह्रीं धर्मनेमये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनियों के पति आप ही, कहें ‘मुनीश्वर’ सिद्ध।
नमूँ भक्ति से नित्य ही, पाऊँ सौख्य समृद्धि।।७३८।।
ॐ ह्रीं मुनीश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धर्मचक्र आयुध’ तुम्हीं, किया मृत्यु अरि नाश।
नमूँ भक्ति से हे प्रभो! दीजे ज्ञान प्रकाश।।७३९।।
ॐ ह्रीं धर्मचक्रायुधाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘देव’ स्वर्ग अपवर्ग को, देने में प्रभु आप।
निजपद मुझको दीजिये, मिटे जगत संताप।।७४०।।
ॐ ह्रीं देवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धिरमा पति ‘कर्महा’, किया कर्मरिपु नष्ट।
दुष्ट कर्म मेरे हरो, जजत मिले सब इष्ट।।७४१।।
ॐ ह्रीं कर्मघ्ने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘धर्मघोषण’ तुम्हीं, अतिशय सुख दातार।
धर्मामृत दीजे मुझे, नमूँ अनंतों बार।।७४२।।
ॐ ह्रीं धर्मघोषणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अमोघवाक्’ मुनि कहें, वचनसिद्धि भगवंत।
दिव्यध्वनी के नाथ हो, नमत करूँ दुख अंत।।७४३।।
ॐ ह्रीं अमोघवाचे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अमोघाज्ञ’ प्रभु आपकी, आज्ञा पालें इन्द्र।
जो तुम आज्ञा पालते, बने जगत के इंद्र।।७४४।।
ॐ ह्रीं अमोघाज्ञाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्रव्य भाव मल धोय के, ‘निर्मल’ शिवपद प्राप्त।
मेरे अघमल दूर हों, नमत हरुँ भवताप।।७४५।।
ॐ ह्रीं निर्मलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘अमोघशासन’ प्रभो, पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय।
शासन नादि अनंत तुुम, सब जन को सुखदाय।।७४६।।
ॐ ह्रीं अमोघशासनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुरूप’ तुम रूप है, अनुपम त्रिभुवन मध्य।
अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ, पाऊँ निजसुख नव्य।।७४७।।
ॐ ह्रीं सुरूपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जन को प्रिय हे प्रभो! ‘सुभग’ गणाधिप मान्य।
मैं पूजूूँ रुचि धार के, मिले स्वात्म सुख साम्य।।७४८।।
ॐ ह्रीं सुभगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्याग सर्व साम्राज्य को, किया विजन में ध्यान।
‘त्यागी’ पाया सिद्ध पद, नमूँ चित्त धर ध्यान।।७४९।।
ॐ ह्रीं त्यागिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्व पर ज्ञान से शिव भये, ‘ज्ञाता’ जगत प्रसिद्ध।
भेदज्ञान के हेतु मैं, नमूँ मिले सुख सिद्ध।।७५०।।
ॐ ह्रीं ज्ञात्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘समाहित’ सुसमाधि ध्यानी, प्राणी समाधान लहें तुम्हीं से।
पूजूँ सदा नाम सुमंत्र वंदूूँ, मोहारि शत्रू क्षण में नशेगा।।७५१।।
ॐ ह्रीं समाहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘सुस्थित’ सुख से निवासा।
मुक्तीरमा आप स्वयं वरे हैं।।पूजूँ.।।७५२।।
ॐ ह्रीं सुस्थिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आरोग्य आत्मा प्रभु ‘ स्वास्थ्यभाक्’ हो।
संसार व्याधी नहिं पूर्ण स्वस्था।।पूजूँ.।।७५३।।
ॐ ह्रीं स्वास्थ्यभाजे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘स्वस्थ’ स्वामी भवरोग नाहीं।
आत्मस्थ हो सर्वविकार शून्या।।पूजूँ.।।७५४।।
ॐ ह्रीं स्वस्थाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘नीरजस्को’ नहिं कर्मधूली।
मेरे प्रभो! कर्म समूल नाशो।।पूजूँ.।।७५५।।
ॐ ह्रीं नीरजस्काय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘निरुद्धव’ जग में कहाते।
संपूर्ण ही उत्सव इंद्र कीने।।पूजूँ.।।७५६।।
ॐ ह्रीं निरुद्धवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी तुम्हीं कर्म ‘अलेप’ माने।
मेरे सभी लेप हटाय दीजे।।पूजूँ.।।७५७।।
ॐ ह्रीं अलेपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘निष्कलंकात्मन्’ इन्द्र पूजें, मैं भी सदा शीश नमाय वंदूूँ।
पूजूँ सदा नाम सुमंत्र वंदूूँ, मोहारि शत्रू क्षण में नशेगा।।७५८।।
ॐ ह्रीं निष्कलंकात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘वीतरागी’ गतराग द्वेषा।
रागादि मेरे मन से हटा दो।।पूजूँ.।।७५९।।
ॐ ह्रीं वीतरागाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘गतस्पृह’ तुम ही यहाँ पे।
इच्छा निवारी जग के गुरू हो।।पूजूँ.।।७६०।।
ॐ ह्रीं गतस्पृहाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी सु ‘वश्येन्द्रिय’ आप ही हो।
पाँचों हि इन्द्री वश में किया था।।पूजूँ.।।७६१।।
ॐ ह्रीं वश्येन्द्रियाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माने ‘विमुक्तात्मन्’ आप ही हैं।
कर्मारि बन्धन तुम काट डाले।।पूजूँ.।।७६२।।
ॐ ह्रीं विमुक्तात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘नि:सपत्ना’ नहिं शत्रु कोई।
संपूर्ण प्राणी तुम मित्र मानें।।पूजूँ.।।७६३।।
ॐ ह्रीं नि:सपत्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जीता स्व इन्द्रीय ‘जितेन्द्रियो’ हो।
जीतूं स्व इन्द्री प्रभु शक्ति देवो।।पूजूँ.।।७६४।।
ॐ ह्रीं जितेंद्रियाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्पूर्ण शांतीश ‘प्रशांत’ माने।
वंदूँ तुम्हें शांति मिले मुझे भी।।पूजूँ।।७६५।।
ॐ ह्रीं प्रशांताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘आनन्तधामर्षि’ ऋषी गणों में।
तेजस्विता आप अनंत धारो।।पूजूँ.।।७६६।।
ॐ ह्रीं अनंतधामर्षये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी यहाँ ‘मंगल’ आप ही हैं, नाशो अमंगल भवि प्राणियों के।
पूजूँ सदा नाम सुमंत्र वंदूूँ, मोहारि शत्रू क्षण में नशेगा।।७६७।।
ॐ ह्रीं मंगलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पापारि नाशा ‘मलहा’ कहाये।
सम्पूर्ण धोये मल कर्म जैसे।।पूजूँ.।।७६८।।
ॐ ह्रीं मलघ्ने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘अनघ’ पाप निमूल नाशा।
कीजे सभी पाप विनाश मेरा।।पूजूँ.।।७६९।।
ॐ ह्रीं अनघाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हूये ‘अनीदृक्’ नहिं आप जैसा।
इन्द्रादि वन्दें रुचि से तुम्हें ही।।पूजूँ.।।७७०।।
ॐ ह्रीं अनीदृशे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘उपमाभुत’ इन्द्र भी तो।
दें आप की तो उपमा तुम्हीं से।।पूजूँ.।।७७१।।
ॐ ह्रीं उपमाभूताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो भव्य भाग्योदय हेतु स्वामी।
‘दिष्टी’ कहाते जग में इसी से ।।पूजूँ.।।७७२।।
ॐ ह्रीं दिष्टये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘देव’ प्राणी शुभ भाग्य होते।
वंदूँ तुम्हें दैव समस्त नाशूँ।।पूजूँ.।।७७३।।
ॐ ह्रीं दैवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैâवल्यज्ञानी नभ में विहारी।
होते ‘अगोचर’ नहिं सर्व जानें।।पूजूँ.।।७७४।।
ॐ ह्रीं अगोचराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रूपादि से शून्य ‘अमूर्त’ स्वामी।
आत्मा अमूर्तीक मिले मुझे भी।।पूजूँ.।।७७५।।
ॐ ह्रीं अमूर्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मूर्तीमन्’ की पूजा करिये, नाहीं मन में शंका धरिये।
नामावलि को पूजूँ नित ही, व्याधी तन से भागे झट ही।।७७६।।
ॐ ह्रीं मूर्तिमते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘एक’ तुम्हें ही साधू कहते।
दूजा नहिं कोई भी तुमसे।।नामा.।।७७७।।
ॐ ह्रीं एकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नानागुण की पूर्ती तुम में।
स्वामी तुम ही ‘नैक’ जगत में।।नामा.।।७७८।।
ॐ ह्रीं नैकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘नानैकतत्त्वदृक्’ तुम ही।
आत्मा तज ना देखें कुछ ही।।नामा.।।७७९।।
ॐ ह्रीं नानैकतत्त्वदृशे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अध्यातमगम्या’ हो प्रभु जी।
आत्म ग्रंथ से जाने मुनि जी।।नामा.।।७८०।।
ॐ ह्रीं अध्यात्मगम्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान्ो ‘अगम्यात्मा’ तुम हो।
मिथ्यादृश ना जाने तुम को।।नामा.।।७८१।।
ॐ ह्रीं अगम्यात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘योगविद्’ की जो शरणे।
मुक्ती तिय को निश्चित परणे।।नामा.।।७८२।।
ॐ ह्रीं योगविदे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘योगिवंदित’ हो जग में।
योगी जन ध्याते भी मन में।।नामा.।।७८३।।
ॐ ह्रीं योगिवंदिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वत्रग’ व्यापा त्रै जग को, सो ही ज्ञान अपेक्षा समझो।
नामावलि को पूजूँ निज ही, व्याधी तन से भागे झट ही।।७८४।।
ॐ ह्रीं सर्वत्रगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘सदाभावी’ हो जग में।
तिष्ठो नित ना नाश स्वपन में।।नामा.।।७८५।।
ॐ ह्रीं सदाभाविने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘त्रिकालविषयार्थ’ सुदृक् ही।
त्रैकालिक जाना सब कुछ ही ।।नामा.।।७८६।।
ॐ ह्रीं त्रिकालविषयार्थदृशे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘शंकर’ भी भव्यन सुख दो।
नाशो मुझ दोषादी दुख को।।नामा.।।७८७।।
ॐ ह्रीं शंकराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘शंवद’ शं सौख्यंकर ही।
तीनों जग में वंदे मुनि भी।।नामा.।।७८८।।
ॐ ह्रीं शंवदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामिन्! चित्त अश्व का जीता।
‘दांत’ कहाये धर्म समेता।।नामा.।।७८९।।
ॐ ह्रीं दांताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामिन्! दमी इंद्रियाँ दमते।
पूरी मन की इच्छा करते।।नामा.।।७९०।।
ॐ ह्रीं दमिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘क्षान्तिपरायण’ मानें तुम ही।
ध्याते तुम को मृत्यू नश ही।।नामा.।।७९१।।
ॐ ह्रीं क्षान्तिपरायणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘अधिप’ बखाने जग में।
इंद्रादिक पूजें आनंद में।।नामा.।।७९२।।
ॐ ह्रीं अधिपाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘परमानंद’ तृप्त हो, आत्मा मुझ आनंद मगन हो।
नामावलि को पूजूँ निज ही, व्याधी तन से भागे झट ही।।७९३।।
ॐ ह्रीं परमानंदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो नाथ! ‘परात्मज्ञ’ अतुल ही।
जाना पर को आत्मा निज भी।।नामा.।।७९४।।
ॐ ह्रीं परात्मज्ञाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो आप ‘परात्पर’ भी जग में।
श्रेष्ठों मधि श्रेष्ठाधिप सब में।।नामा.।।७९५।।
ॐ ह्रीं परात्पराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘त्रिजगद्वल्लभ’ तुम हो।
तीनों जग में मनभावन हो।।नामा.।।७९६।।
ॐ ह्रीं त्रिजगद्वल्लभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी तुम ‘अभ्यर्च्य’ सुरन से।
सौ इंद्रन से साधू गण से।।नामा.।।७९७।।
ॐ ह्रीं अभ्यर्च्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘त्रिजगन्मंगलोदय’ हो।
तीनों जग में मंगल कर हो।।नामा.।।७९८।।
ॐ ह्रीं त्रिजगन्मंगलोदयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रिजगत्पतिपूज्यांघ्री’ तुम हो।
सौ इंद्रन से पूज्य चरण हो।।नामा.।।७९९।।
ॐ ह्रीं त्रिजगत्पतिपूज्यांघ्रये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रीलोकाग्रशिखामणि’ जिन हो।
लोक शिखर के चूड़ामणि हो।।नामा.।।८००।।
ॐ ह्रीं त्रिलोकाग्रशिखामणये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘त्रिकालदर्शी’ हो, सभी पदार्थ देखते।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०१।।
ॐ ह्रीं त्रिकालदर्शिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘लोकेश’ माने हो, तीन लोक प्रभू कहे।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०२।।
ॐ ह्रीं लोकेशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘लोकधाता’ तुम्हीं माने, तीनों जगत पोषते।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०३।।
ॐ ह्रीं लोकधात्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘दृढव्रत’ व्रतों में, पूर्ण स्थैर्य धारते।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०४।।
ॐ ह्रीं दृढव्रताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वलोकातिग’ स्वामिन्! सभी जग में श्रेष्ठ हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०५।।
ॐ ह्रीं सर्वलोकातिगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजा के योग्य हो स्वामिन्! ‘पूज्य’ माने सभी सदा।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०६।।
ॐ ह्रीं पूज्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभीष्ट में पहुँचाते, ‘सर्वलोवैâकसारथी’।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०७।।
ॐ ह्रीं सर्वलोवैकसारथये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्राचीन सबमें ही हो, माने ‘पुराण’ आपको।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०८।।
ॐ ह्रीं पुराणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुणों को श्रेष्ठ आत्मा के, पाया ‘पुरूष’ आप हैं।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०९।।
ॐ ह्रीं पुरुषाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वप्रथम होने से ‘पूर्व’ माने तुम्हीं प्रभो!।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१०।।
ॐ ह्रीं पूर्वाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंग पूर्वादि विस्तारे, ‘कृतपूर्वांग-विस्तर:’।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८११।।
ॐ ह्रीं कृतपूर्वांगविस्तराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देवों में मुख्य होने से, ‘आदिदेव’ तुम्हीं कहे।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१२।।
ॐ ह्रीं आदिदेवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुराणाद्य’ प्रभो! माने, प्राचीनों में सुआदि हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१३।।
ॐ ह्रीं पुराणाद्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुरुदेव’ तुम्हीं म्ााने, श्रेष्ठ देव महान हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१४।।
ॐ ह्रीं पुरुदेवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देवों के देव होने से, तुम्हीं हो ‘अधिदेवता’।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१५।।
ॐ ह्रीं अधिदेवतायै सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘युगमुख्य’ युगादी के, माने प्रधान आप हैं।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१६।।
ॐ ह्रीं युगमुख्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘युगज्येष्ठ’ कहे स्वामी, युग में सर्व श्रेष्ठ हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१७।।
ॐ ह्रीं युगज्येष्ठाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
युगादी में उपदेशा, ‘युगादिस्थितिदेशक:’।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१८।।
ॐ ह्रीं युगादिस्थितिदेशकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कल्याणवर्ण’ कांती से, सुवर्ण सम हो तुम्हीं।।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१९।।
ॐ ह्रीं कल्याणवर्णाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘कल्याण’ भव्यों के, हितकर्ता प्रसिद्ध हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२०।।
ॐ ह्रीं कल्याणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कल्य’ नीरोग होने से, तत्पर मुक्ति हेतु हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२१।।
ॐ ह्रीं कल्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लक्षण हितकारी हैं, अत: ‘कल्याणलक्षण:’।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२२।।
ॐ ह्रीं कल्याणलक्षणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कल्याणप्रकृती’ स्वामी, हो कल्याण स्वभाव ही।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२३।।
ॐ ह्रीं कल्याणप्रकृतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णवत् प्रभु दीप्तात्मा, ‘दीप्रकल्याणआतमा’ ।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२४।।
ॐ ह्रीं दीप्रकल्याणात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विकल्मष’ तुम्हीं स्वामी, कालिमाकर्म शून्य हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२५।।
ॐ ह्रीं विकल्मषाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म कलंकादी निरमुक्ता, हो ‘विकलंका’ कर्म हरो मे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८२६।।
ॐ ह्रीं विकलंकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देह कला से हीन रहे हो ,नाथ! ‘कलातीते’ जग में हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८२७।।
ॐ ह्रीं कलातीताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘कलिलघ्न’ तुम्हीं अघ हीना, पाप हमारे क्षालन कीजे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८२८।।
ॐ ह्रीं कलिलघ्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘कलाधर’ सर्व कला से, पूर्ण तुम्हीं हो सर्व गुणों से।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८२९।।
ॐ ह्रीं कलाधराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘देवदेव’ हो तीन जगत् में, नाथ! सुदेवों के अधिदेवा।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३०।।
ॐ ह्रीं देवदेवाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘जगन्नाथा’ जगस्वामी, जन्म मरण के दु:ख हरोगे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३१।।
ॐ ह्रीं जगन्नाथाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘जगद्बंधू’ भवि बंधू, भव्यजनों के पूर्ण हितैषी।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३२।।
ॐ ह्रीं जगद्बंधवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘जगद्विभु’ तीन भुवन में, पालक हो सामर्थ्य समेता।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३३।।
ॐ ह्रीं जगद्विभवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगत्’ हितैषी तीन जगत में, सर्वजनों को सौख्य दिया है।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३४।।
ॐ ह्रीं जगद्धितैषिणे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप कहे ‘लोकज्ञ’ जगत को, जान लिया है पूर्ण तरह से।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३५।।
ॐ ह्रीं लोकज्ञाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वग’ तीनों लोक सभी में, व्याप्त हुये ये ज्ञान किरण से।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३६।।
ॐ ह्रीं सर्वगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘जगदग्रज’ ज्येष्ठ जगत में, सर्व दुखों को दूर करोगे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३७।।
ॐ ह्रीं जगदग्रजाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘चराचरगुरू’ कहे हो, स्थावर त्रस के पालक भी हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३८।।
ॐ ह्रीं चराचरगुरुवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गोप्य’ मुनी रक्खें मन में ही, नाथ! करो रक्षा अब मेरी।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३९।।
ॐ ह्रीं गोप्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभु ‘गूढ़ात्मा’ तुम आत्मा, गोचर इन्द्री के नहिं होती।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४०।।
ॐ ह्रीं गूढ़ात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गूढ़ सुगोचर’ गूढ़ तुम्हीं हो, योगिजनों के गम्य तुम्हीं हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४१।।
ॐ ह्रीं गूढ़गोचराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभु ‘सद्योजात’ कहे हो, तत्क्षण जन्में रूप रहे हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४२।।
ॐ ह्रीं सद्योजाताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘प्रकाशात्मा’ मुनि मानें, ज्ञान सुज्योती रूप बखानें।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४३।।
ॐ ह्रीं प्रकाशात्मने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘ज्वलज्वलनसप्रभ’ हो, अग्निप्रभा सी कांति धरे हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४४।।
ॐ ह्रीं ज्वलज्ज्वलनसप्रभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रविवत् ‘आदित्यवरण’ स्वामी, हो प्रभु तेजस्वी जग नामी।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४५।।
ॐ ह्रीं आदित्यवर्णाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण छवी ‘भर्माभ’ कहाये, देह दिपे भास्वत शरमाये।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४६।।
ॐ ह्रीं भर्माभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुप्रभ’ शोभे कांति तुम्हारी, सूर्य शशी क्रोड़ों लजते हैं।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४७।।
ॐ ह्रीं सुप्रभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘कनकप्रभ’ स्वर्ण प्रभा सी, कांति दिखे उत्तुंग तनू हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४८।।
ॐ ह्रीं कनकप्रभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘सुवर्णवर्ण’ सुर गायें, देव सुवर्णी दीप्ति धरायें।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४९।।
ॐ ह्रीं सुवर्णवर्णाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप प्रभो! ‘रुक्माभ’ कहाये, स्वर्ण छवी सी दीप्ति करो मे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८५०।।
ॐ ह्रीं रुक्माभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सूर्यकोटिसमप्रभ’ प्रभो, सूर्य करोड़ लजंत।
दीप्ति देह ही धारते, नमते स्वात्म दिपंत।।८५१।।
ॐ ह्रीं सूर्यकोटिसमप्रभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धप्रभो ‘तपनीयनिभ’ तपे कनक सम देह।
कर्ममैल मेरा हरो, नमूँ तुम्हें धर नेह।।८५२।।
ॐ ह्रीं तपनीयनिभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तुंग’ पाँच सौ धनुष का, उच्च शरीर धरंत।
कम में साढ़े तीन कर, नमूँ सिद्ध भगवंत।।८५३।।
ॐ ह्रीं तुंगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उगते रवि सम कांति तुम, भगवन्! ‘बालार्काभ’।
मुझ आत्मा कंचन करो, होवे शिवपद लाभ।।८५४।।
ॐ ह्रीं बालार्काभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘अनलप्रभ’ अग्नि सम, कर्म किया तुम भस्म।
मेरी आत्मा शुद्ध हो, करूँ कर्म मैं भस्म।।८५५।।
ॐ ह्रीं अनलप्रभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘संध्याभ्रबभ्रू’ जजूँ, भक्ति राग से नित्य।
संध्या लाली सम छवी, जजत मिलें गुण नित्य।८५६।।।
ॐ ह्रीं संध्याभ्रबभ्रवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा निर्मल स्वर्णसम, देह आप ‘हेमाभ’।
रागादिक मल दूर हो, मिले निजातम लाभ।।८५७।।
ॐ ह्रीं हेमाभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तप्तसुचामीकर प्रभा’, सुवरण कांति लसंत।
मुझ आत्मा पावन करो, जजूँ पुष्प विकिरंत।।८५८।।
ॐ ह्रीं तप्तचामीकरप्रभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘निष्टप्त कनकच्छवी’ महादीप्ति दीपंत।
मेरी शुद्धात्मा करो, नमूँ भक्ति विलसंत।।८५९।।
ॐ ह्रीं निष्टप्तकनकच्छायाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कनत्कांचनसन्निभा’, दैदीप्यात्मा सिद्ध।
कैवल्यात्मा को नमूँ, मिले निजात्म प्रसिद्ध।।८६०।।
ॐ ह्रीं कनत्कांचनसन्निभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर ‘हिरण्यवर्ण’ तुम, खिला ज्ञान का सूर्य।
मुनि मनकमल खिलाइये, नमूँ तुम्हें जगसूर्य।।८६१।।
ॐ ह्रीं हिरण्यवर्णाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बारह तप से आत्म को, शुद्ध किया ‘स्वर्णाभ’।
मैं भी तप को प्राप्त कर, करूँ मोक्ष का लाभ।।८६२।।
ॐ ह्रीं स्वर्णाभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शातकुंभनिभप्रभ’ प्रभो! शुद्ध निरंजन सिद्ध।
भव्यों को पावन किया, नमूँ लहूँ सब सिद्ध।।८६३।।
ॐ ह्रीं शातकुंभनिभप्रभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुंदर सोने सम तनू, स्वामी तुम ‘द्युम्नाभ’।
पुनर्जन्म से छूटहूँ, यही याचना नाथ।।८६४।।
ॐ ह्रीं द्युम्नाभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमूँ ‘जातरूपाभ’ को, नग्न दिगम्बर रूप।
जिनकल्पी मुनि कब बनूँ, मिले स्वात्म चिद्रूप ।।८६५।।
ॐ ह्रीं जातरूपाभाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तप्तजाम्बूनदद्युति’ प्रभो! किया निजातम शुद्ध।
श्रेष्ठ स्वर्ण सम आतमा, जजते बने विशुद्ध।।८६६।।
ॐ ह्रीं तप्तजाम्बूनदद्युतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुधौतकलधौतश्री’ नमूूूँ नमूँ नत भाल।
धोय कर्म मल आप ही, बने सिद्ध जगपाल।।८६७।।
ॐ ह्रीं सुधौतकलधौतश्रिये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीप्त शरीर ‘प्रदीप्त’ हो, लोकशिखर राजंत।
ज्ञान ज्योति प्रगटित करो, यही चाह भगवंत।।८६८।।
ॐ ह्रीं प्रदीप्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘हाटकद्युति’ निज कांति से, भामंडल चमकंत।
भव्य वहाँ देखें सतत, सात स्व भव विलसंत।।८६९।।
ॐ ह्रीं हाटकद्युतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! आप ‘शिष्टेष्ट’ हो, जगत इष्ट आराध्य।
इष्ट वियोग अनिष्ट का, योग नष्ट हो अद्य।।८७०।।
ॐ ह्रीं शिष्टेष्टाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन के सब भव्य को, पोषें ‘पुष्टिद’ नाथ।
रत्नत्रय की पुष्टि कर कीजे मुझे सनाथ।।८७१।।
ॐ ह्रीं पुष्टिदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमौदारिक तनु प्रभो!, ‘पुष्ट’ सौख्यभृत देव।
मुझ को पुष्टी तुष्टि दो, करूँ आपकी सेव।।८७२।।
ॐ ह्रीं पुष्टाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
युग्पते लोक अलोक को, जान लिया ‘स्पष्ट’।
ज्ञान विमल मेरा करो, हरो व्याधि का कष्ट।।८७३।।
ॐ ह्रीं स्पष्टाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘स्पष्टाक्षर’ तुम्हीं, सब भाषा के ईश।
मेरे वच हितकर बनें, नमूँ तुम्हें जगदीश।।८७४।।
ॐ ह्रीं स्पष्टाक्षराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘क्षम’ आप समर्थ हैं, किया मृत्यु का नाश।
शक्ति मुझे भी दीजिये, करूँ मोह का नाश।।८७५।।
ॐ ह्रीं क्षमाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म शत्रु को मारा, इसीलिये ‘शत्रुघ्न’ सुरेंद्र कहें।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८७६।।
ॐ ह्रीं शत्रुघ्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अप्रतिघ’ तुम्हीं हो, शत्रु न कोई रहा यहाँ जग में।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८७७।।
ॐ ह्रीं अप्रतिघाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अमोघ’ हो नित ही, स्वयं सफल हो किया सफल सबको।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८७८।।
ॐ ह्रीं अमोघाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रशास्ता’ तुम हो, सर्वोत्तम उपदेश दिया तुमने।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८७९।।
ॐ ह्रीं प्रशास्त्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो ‘शासिता’ तुम ही, रक्षा करते सदैव भक्तों की।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८०।।
ॐ ह्रीं शासित्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वभू’ स्वयं जन्मे हो, मात पिता बस निमित बने सच में।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८१।।
ॐ ह्रीं स्वभवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शांतिनिष्ठ’ प्रभु तुम हो, पूर्ण शांति को पाया पाप हना।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८२।।
ॐ ह्रीं शांतिनिष्ठाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘मुनिज्येष्ठ’ कहाते, गणधर मुनि में बड़े तुम्हीं माने।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८३।।
ॐ ह्रीं मुनिज्येष्ठाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शिवताति’ जगत में, सब कल्याण परंपरा को देते।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८४।।
ॐ ह्रीं शिवतातये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शिवप्रद’ नाथ तुम्हीं हो, भविजन को सब सुख शिवसुख देते।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८५।।
ॐ ह्रीं शिवप्रदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शांतिद’ नाथ सभी को, शांति दिया है सुख भरपूर दिया।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८६।।
ॐ ह्रीं शांतिदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘शांतिकृत्’ जग में, शांति करो मुझमें भी शांति करो।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८७।।
ॐ ह्रीं शांतिकृते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘शांति’ हो जगमें, त्रिभुवन में भी शांति करो भगवन् ।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८८।।
ॐ ह्रीं शांतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कांतिमान्’ प्रभु मानें, सर्व कांतियुत सभा मध्य तेजस्वी।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८९।।
ॐ ह्रीं कांतिमते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कामितप्रद’ भगवंता, भक्तों के मनरथ पूर्ण किया है।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९०।।
ॐ ह्रीं कामितप्रदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रेयोनिधि’ जिनराजा, भविजन के हित तुम सब सुख के दाता।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९१।।
ॐ ह्रीं श्रेयोनिधये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अधिष्ठान’ तुम ही हो, त्रिभुवन में दयाधर्म आधारा।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९२।।
ॐ ह्रीं अधिष्ठानाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अप्रतिष्ठ’ हो भगवन्! परकृत बिना प्रतिष्ठा के पूजित हो।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९३।।
ॐ ह्रीं अप्रतिष्ठाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रतिष्ठित’ जग में, नर सुरगण में महा यशस्वी हो।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९४।।
ॐ ह्रीं प्रतिष्ठिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुस्थिर’ त्रिभुवन में, अतिशय थिरता मिली तुम्हें निज में।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९५।।
ॐ ह्रीं सुस्थिराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ! तुम्हीं ‘स्थावर’ हो, समवसरण में गमन रहित राजें।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९६।।
ॐ ह्रीं स्थावराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘स्थाणु’ कहाये, अचल विस्तृत कहें सुरासुर भी।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९७।।
ॐ ह्रीं स्थाणवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रथीयान्’ प्रभु मानें, अतिशय विस्तृत कहें सुरासुर भी।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९८।।
ॐ ह्रीं प्रथीयसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! ‘प्रथित’ तुम्हीं हो, त्रिभुवन में भी प्रसिद्ध अतिशायी।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९९।।
ॐ ह्रीं प्रथिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पृथु’ ज्ञानादि गुणों से, गणि मुनिगण में महान हो प्रभुजी।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।९००।।
ॐ ह्रीं पृथवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘दिग्वासा’ हो वस्त्र दिश् ही तुम्हारे।
एसी मुद्रा हो कभी नाथ मेरी।।
श्रद्धा से मैं पूजहूँ नाम मंत्रं।
दीजे शक्ती आत्म संपत्ति पाऊँ।।९०१।।
ॐ ह्रीं दिग्वाससे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी सुन्दर ‘वातरशना’ तुम्हीं हो।
धारी वायू करधनी है कटी में।।श्रद्धा.।।९०२।।
ॐ ह्रीं वातरशनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘निर्ग्रंथेश’ हो बाह्य अंत:।
चौबीसों ही ग्रन्थ से मुक्त मानें।।श्रद्धा.।।९०३।।
ॐ ह्रीं निर्ग्रंथाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी भूमी पे ‘दिगम्बर’ तुम्हीं हो।
धारा अम्बर दिक्मयी शील पूरे।।श्रद्धा.।।९०४।।
ॐ ह्रीं दिगम्बराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नििंष्कचन’ हो नाथ सर्वस्व त्यागी।
आत्मानंते सद्गुणों से भरी है।।श्रद्धा.।।९०५।।
ॐ ह्रीं निष्किंचनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इच्छा त्यागी हो ‘निराशंस’ स्वामी।
आशा मेरी पूरिये सिद्धि पाऊँ।।श्रद्धा.।।९०६।।
ॐ ह्रीं निराशंसाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञानी ज्ञान ही नेत्र पाया।
स्वामी मेरे ‘ज्ञानचक्षू’ तुम्हीं हो।।श्रद्धा.।।९०७।।
ॐ ह्रीं ज्ञानचक्षुषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाशा मोहारी ’अमोमुह’ कहाये।
स्वामी मेरे मोह रागादि नाशो।।श्रद्धा.।।९०८।।
ॐ ह्रीं अमोमुहाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तेजोराशी’ तेज के पुंज स्वामी।
चंदा से भी सौम्य शीतल भये हो।।
श्रद्धा से मैं पूजहूँ नाम मंत्रं।
दीजे शक्ती आत्म संपत्ति पाऊँ।।९०९।।
ॐ ह्रीं तेजोराशये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंते ओजस्वी ‘अनंतौज’ स्वामी।
मेरी शक्ति को बढ़ा दो सभी ही।।श्रद्धा.।।९१०।।
ॐ ह्रीं अनंतौजसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘ज्ञानाब्धी’ ज्ञान के सिंधु स्वामी।
स्वामी मेरे ज्ञान को पूर्ण कीजे।।श्रद्धा.।।९११।।
ॐ ह्रीं ज्ञानाब्धये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शीलों से भृत ‘शीलसागर’ तुम्हीं हो।
अठरा सहस्र शील को पूरिये भी।।श्रद्धा.।।९१२।।
ॐ ह्रीं शीलसागराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तेजोमय’ हो नाथ! तेज: स्वरूपी।
आत्मा तेजोरूप मेरी करो भी।।श्रद्धा.।।९१३।।
ॐ ह्रीं तेजोमयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अमितज्योती’ आप ज्योति अनंती।
मेरी आत्मा ज्योति से पूर दीजे।।श्रद्धा.।।९१४।।
ॐ ह्रीं अमितज्योतिषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ज्योतिर्मूर्ती’ ज्योतिमय देह धारा।
मेरे घट में ज्ञान ज्योती भरीजे।।श्रद्धा.।।९१५।।
ॐ ह्रीं ज्योतिर्मूर्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहारी हन के ‘तपोपह’ तुम्हीं हो।
मेरे चित्त का सर्व अज्ञान नाशो।।श्रद्धा.।।९१६।।
ॐ ह्रीं तमोपहाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल ‘जगच्चूड़ामणी’ आप ही हो।
तीनोें लोकों के शिखारत्न स्वामी।।
श्रद्धा से मैं पूजहूँ नाम मंत्रं।
दीजे शक्ती आत्म संपत्ति पाऊँ।।९१७।।
ॐ ह्रीं जगच्चूड़ामणये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देदीप्यात्मा ‘दीप्त’ स्वामी तुम्हीं हो।
मेरी आत्मा दीप्त कीजे गुणों से।।श्रद्धा.।।९१८।।
ॐ ह्रीं दीप्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शंवान्’ स्वामी सौख्य शांती तुम्हीं में।
मेरी आत्मा सौख्य से पूर्ण कीजे।।श्रद्धा.।।९१९।।
ॐ ह्रीं शंवते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी मेरे ‘विघ्नवीनायका’ हो।
मेरे विघ्नों को हरो नाथ! जल्दी।।श्रद्धा.।।९२०।।
ॐ ह्रीं विघ्नविनायकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीनों लोकों में ‘कलिघ्ना’ तुम्हीं हो।
मेरे कलिमल नाश के सौख्य दीजे।।श्रद्धा.।।९२१।।
ॐ ह्रीं कलिघ्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरे स्वामी ‘कर्मशत्रुघ्न’ ही हो।
दुष्कर्मों को नष्ट कीजे प्रभू जी।।श्रद्धा.।।९२२।।
ॐ ह्रीं कर्मशत्रुघ्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘लोकालोक प्रकाशक’ जिनेशा।
देखा तीनों लोक अलोक भी तो।।श्रद्धा.।।९२३।।
ॐ ह्रीं लोकालोकप्रकाशकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जागे आत्मा में ‘अनिद्रालु’ स्वामी।
मेरी आत्मा मोह निद्रा तजे भी।।श्रद्धा.।।९२४।।
ॐ ह्रीं अनिद्रालवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आलस नाशा हो ‘अतन्द्रालु’ स्वामी।
मेरी आत्मा ज्ञान से स्वस्थ होवे।
श्रद्धा से मैं पूजहूँ नाम मंत्रं।
दीजे शक्ती आत्म संपत्ति पाऊँ।।९२५।।
ॐ ह्रीं अतन्द्रालवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जाग्रत संतत ‘जागरूक’ हो।
मोह कि नींद हरो तुम ध्याऊँ।।
नाम सुमंत्र जपूँ मन लाके।
आत्म सुधारस पान करूँ मैं।।९२६।।
ॐ ह्रीं जागरूकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रमामय’ ज्ञानमयी हो।
ज्ञान गुणाधिक हो मुझ आत्मा।।नाम.।।९२७।।
ॐ ह्रीं प्रमामयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामिन्! ‘लक्ष्मीपति’ जग में हो।
नंत चतुष्टय श्रीपति जिन हो।।नाम.।।९२८।।
ॐ ह्रीं लक्ष्मीपतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘जगज्ज्योती’ कहलाये।
ज्योति भरो तम को हर लीजे।।नाम.।।९२९।।
ॐ ह्रीं जगज्ज्योतिषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म दयापति ‘धर्मराज’ हो।
नाथ हृदे मुझ धर्म विराजो।।नाम.।।९३०।।
ॐ ह्रीं धर्मराजाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रजाहित’ सर्व प्रजा की।
पालन रीति नृपाल सिखायी।।नाम.।।९३१।।
ॐ ह्रीं प्रजाहिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘मुमुक्षु’ कहें मुनि ज्ञानी।
इच्छुक कर्म अरी सब छूटें।।
नाम सुमंत्र जपूँ मन लाके।
आत्म सुधारस पान करूँ मैं।।९३२।।
ॐ ह्रीं मुमुक्षवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘बंधमोक्षज्ञा’ हो तुम स्वामी।
जानत बंध रु मोक्ष विधी को।।नाम.।।९३३।।
ॐ ह्रीं बंधमोक्षज्ञाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘िजताक्ष’ जिता पण इंद्री।
जीत सकें विषयों को हम भी।।नाम.।।९३४।।
ॐ ह्रीं जिताक्षाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘जितमन्मथ’ काम विजेता।
काम अरी मुझ मार भगावो।।नाम.।।९३५।।
ॐ ह्रीं जितमन्मथाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रशांतरसशैलूष’ हो।
किया प्रदर्शन शांति रसों का।।नाम.।।९३६।।
ॐ ह्रीं प्रशांतरसशैलूषाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भव्यनपेटकनायक’ मानें।
भव्य समूह कहें तुम स्वामी।।नाम.।।९३७।।
ॐ ह्रीं भव्यपेटकनायकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म प्रधान कहा युग आदी।
‘मूलसुकर्ता’ आप बखाने।।नाम.।।९३८।।
ॐ ह्रीं मूलकर्त्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व पदारथ पूर्ण प्रकाशा।
नाथ! ‘अखिलज्योती’ सुर गाते।।नाम.।।९३९।।
ॐ ह्रीं अखिलज्योतिषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘मलघ्न’ सभी मल हाने।
सर्व अघों को नाश करो मे।।
नाम सुमंत्र जपूँ मन लाके।
आत्म सुधारस पान करूँ मैं।।९४०।।
ॐ ह्रीं मलघ्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मूूलसुकारण’ मुक्ति सुपथ के।
नाथ! मुझे शिवमार्ग दिखा दो।।नाम.।।९४१।।
ॐ ह्रीं मूलकारणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘आप्त’ यथारथ देव तुम्हीं हो।
नाथ! तपोनिधि दो सुखदाता।।नाम.।।९४२।।
ॐ ह्रीं आप्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘वागीश्वर’ दिव्यधुनी के।
लोल तरंग वचोऽमृत गंगा।।नाम.।।९४३।।
ॐ ह्रीं वागीश्वराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘श्रेयान्’ प्रभो! श्रिय दाता।
अंतर बाहिर श्री मुझको दो।।नाम.।।९४४।।
ॐ ह्रीं श्रेयसे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रायसउक्ति’ हितंकर वाणी।
नाथ! मुझे निज रत्नत्रयी दो।।नाम.।।९४५।।
ॐ ह्रीं श्रायसोक्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सार्थकवाच ‘निरुक्तवाक्’ हो।
आप धुनी मन शांति करेगी।।नाम.।।९४६।।
ॐ ह्रीं निरुक्तवाचे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रवक्ता’ श्रेष्ठ वचों से।
धर्मसुधा बरसा जन तोषा।।नाम.।।९४७।।
ॐ ह्रीं प्रवक्त्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! तुम्हीं ‘वचसामीश’ मानें।
धर्म वचन के ईश्वर ही हो।।
नाम सुमंत्र जपूँ मन लाके।
आत्म सुधारस पान करूँ मैं।।९४८।।
ॐ ह्रीं वचसामीशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मारजिते’ प्रभु कामजयी हो।
सर्व मनोरथ पूर्ण करो जी।।नाम.।।९४९।।
ॐ ह्रीं मारजिते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्वभाववित्’ तीन जगत् को।
जान लिया मुझ ज्ञान सुधा दो।।नाम.।।९५०।।
ॐ ह्रीं विश्वभावविदे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘सुतनु’ उत्तम तनू, अतिशय दीप्ति धरंत।
पूर्ण निरामय हेतु मैं, नमूं नमूं भगवंत।।९५१।।
ॐ ह्रीं सुतनवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तनुनिर्मुक्त’ सुज्ञान तनु, मुक्तिपती अशरीर।
स्वात्म सुधारस प्राप्त हो, नमत मिले भवतीर।।९५२।।
ॐ ह्रीं तनुनिर्मुक्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञानी ‘सुगत’ हो, आत्मरूप में लीन।
सुगतिगमन के हेतु मैं, नमूँ करो दुखहीन।।९५३।।
ॐ ह्रीं सुगताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘हतदुर्नय’ सम्यक् सुनय, सापेक्षिक उपदिष्ट।
अनेकांत को प्राप्त कर, जजते हरूँ अनिष्ट।।९५४।।
ॐ ह्रीं हतदुर्नयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीश’ मुक्तिलक्ष्मीपती, कीजे मुझे निहाल।
तपलक्ष्मी को दीजिये, नमूँ नमॅूँ नत भाल।।९५५।।
ॐ ह्रीं श्रीशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लक्ष्मीसेवित पद कमल, प्रभु ‘श्रीश्रितपादाब्ज’।
लक्ष्मी इच्छुक भव्यजन, पूजें तुम पादाब्ज।।९५६।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रितपादाब्जाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘वीतभी’ भव्य को, दिया अभय का दान।
जन्म मरण भय नाशिये, नमूँ नमूँ धर ध्यान।।९५७।।
ॐ ह्रीं वीतभिये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! ‘अभयंकर’ जगत्, क्षेमंकर हितकार।
निर्भय पद दीजे मुझे, जजूँ मोक्ष दातार।।९५८।।
ॐ ह्रीं अभयंकराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्सन्नदोष हो प्रभू, अठरह दोष विमुक्त।
जजूँ जजूँ नित भक्ति से, होऊँ दोष विमुक्त।।९५९।।
ॐ ह्रीं उत्सन्नदोषाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निर्विघ्न’ तुम्हीं कहे, अंतराय से हीन।
शिवपथ विघ्न निवारिये, नमूँ आप गुणलीन।।९६०।।
ॐ ह्रीं निर्विघ्नाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धशिला पर राजते, ‘निश्चल’ मुनिगण वंद्य।
मेरा मन सुस्थिर करो, नमूँ नमूँ सुख कंद।।९६१।।
ॐ ह्रीं निश्चलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘लोकवत्सल’ तुम्हीं, भक्तों के आधार।
तुम पद प्रीती सौख्यप्रद, भरे सुगुण भंडार।।९६२।।
ॐ ह्रीं लोकवत्सलाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘लोकोत्तर’ विश्व में, सर्वश्रेष्ठ जग वंद्य।
नमत अनुत्तर पद मिले, जहाँ सौख्य अभिनंद्य।।९६३।।
ॐ ह्रीं लोकोत्तराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘लोकपति’ त्रिजगपति, भविरक्षक भगवान्।
रत्नत्रय निधि दीजिये, जजत बनूं धनवान्।।९६४।।
ॐ ह्रीं लोकपतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘लोकचक्षु’ त्रैलोक्य को, ज्ञानचक्षु से देख।
लोक शिखर पर राजते, नमत हरूँ विधि लेख।।९६५।।
ॐ ह्रीं लोकचक्षुषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान अनंत ‘अपारधी’, हरो मोह अज्ञान।
ज्ञान ज्योति देकर मुझे, करिये त्रिजग महान्।।९६६।।
ॐ ह्रीं अपारधिये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुस्थिर तिष्ठे ‘धीरधी’, गमनागमन विहीन।
मैं उपसर्ग विजयि बनूं, जजूँ आप गुण लीन।।९६७।।
ॐ ह्रीं धीरधिये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘बुद्धसन्मार्ग’ हो, दिखलाते शिव मार्ग।
नमूँ आपको भक्ति से, पाऊँ निज सन्मार्ग।।९६८।।
ॐ ह्रीं बुद्धसन्मार्गाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्रव्यभाव नोकर्म से, रहित ‘शुद्ध’ परमात्म।
मेरा कलिमल दूर हो, नमत मिले शुद्धात्म।।९६९।।
ॐ ह्रीं शुद्धाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘सत्यसूनृतवचन’, तुम ध्वनि परम पवित्र।
परमौषधि अमृत सदृश, जजते स्वात्म पवित्र।।९७०।।
ॐ ह्रीं सत्यसूनृतवाचे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘प्रज्ञापारमित’, ज्ञान अनंत धरंत।
द्वादशांग श्रुत हेतु मैं, नमूँ नमॅूँ भगवंत।।९७१।।
ॐ ह्रीं प्रज्ञापारमिताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्राज्ञ’ सर्वविद्या सहित, त्रिभुवन वंद्य महान।
सब विद्यादाता तुम्हीं, नमूँ बनूँ श्रुतवान।।९७२।।
ॐ ह्रीं प्राज्ञाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोक्ष हेतु चारित्र में, किया प्रयत्न जिनेश।
‘यति’ तुमको नित प्रति नमूँ, मिलें आप गुण लेश।।९७३।।
ॐ ह्रीं यतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नियमितेन्द्रिय’ आप ही, इन्द्रिय विजयी देव।
पंचेन्द्रिय मन जीत लूूं, इसी हेतु तुम सेव।।९७४।।
ॐ ह्रीं नियमितेन्द्रियाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन जग में वंद्य हो, प्रभु ‘भदंत’ भगवान।
नमत अंतरात्मा बनूं, पुन: बनूं भगवान।।९७५।।
ॐ ह्रीं भदंताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल विश्व कल्याणकृत, आप ‘भद्रकृत्’ नाम।
मेरा हित कीजे प्रभो!, करूँ अनंत प्रणाम।।९७६।।
ॐ ह्रीं भद्रकृते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व लोक मंगल करण, ‘भद्र’ तुम्हीं मुनिवंद्य।
हरो अमंगल भक्त के, नमन हरूँ भवफंद।।९७७।।
ॐ ह्रीं भद्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुंहमांगा फल देत हो, ‘कल्पवृक्ष’ जग सिद्ध।
एकहि फल अब दीजिये, मुझ आत्मा हो सिद्ध।।९७८।।
ॐ ह्रीं कल्पवृक्षाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वरप्रद’ मुझ भक्त को, दे दीजे वरदान।
निश्चय रत्नत्रय अमल, जो है स्वात्म निधान।।९७९।।
ॐ ह्रीं वरप्रदाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘समुन्मूलित कर्म अरि’, किये कर्म निर्मूल।
जड़ से मोह विनाश कर, करूँ स्वात्म अनुकूल।।९८०।।
ॐ ह्रीं समुन्मूलितकर्मारये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कर्मकाष्ठाशुशुक्षणी’ ध्यान अग्नि से आप।
कर्म भस्म कर शिव गये, जजत बनूूं निष्पाप।।९८१।।
ॐ ह्रीं कर्मकाष्ठाशुशुक्षणये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोक्ष सिद्धि में आप ही, निपुण अत: ‘कर्मण्य’।
कार्य सिद्धि कर भव्यजन, हो जाते हैं धन्य।।९८२।।
ॐ ह्रीं कर्मण्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘कर्मठ’ कर्मारि के, नाशन हेतु समर्थ।
विषय कषायों को तजूँ, मैं पूजूँ इस अर्थ।।९८३।।
ॐ ह्रीं कर्मठाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रांशु’ आप सर्वोच्च हैं, त्रिभुवन के गुरु मान्य।
पूजत ही सुख संपदा, मिले सर्व धन धान्य।।९८४।।
ॐ ह्रीं प्रांशवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘हेयादेयविचक्षणा’ हित उपदेशी नाथ।
अहित मार्ग से दूर कर, हित कीजे मुझ नाथ।।९८५।।
ॐ ह्रीं हेयादेयविचक्षणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अनंतशक्ती’ तुम्हीं, गुण अनंत के सिंधु।
मुझको भी कुछ शक्ति दो, तिर जाऊँ भव सिंधु।।९८६।।
ॐ ह्रीं अनंतशक्तये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अच्छेद्य’ त्रिलोक में, ज्ञान अखंड धरंत।
मेरा ज्ञान अखंड हो, नमूूँ नमूँ भगवंत।।९८७।।
ॐ ह्रीं अच्छेद्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जन्म जरा मृति तीन पुर, नाश हुये ‘त्रिपुरारि’।
तीन शत्रु के नाशने, नमूँ नमूूँ त्रय बारि।।९८८।।
ॐ ह्रीं त्रिपुरारये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘त्रिलोचन’ देखते, तीन लोक त्रय काल।
एक ज्ञान के हेतु मैं, नमूूूँ नमाकर भाल।।९८९।।
ॐ ह्रीं त्रिलोचनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘त्रिनेत्र’ तुम जन्म से, मति श्रुत अवधि त्रिज्ञानि।
युगपत् त्रिभुवन देखते, नमत बनूूँ निज ज्ञानि।।९९०।।
ॐ ह्रीं त्रिनेत्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन लोक पितु आप ही, ‘त्र्यंबक’ कहते साधु।
मेरी भी रक्षा करो, जजत स्वात्मरस स्वादु।।९९१।।
ॐ ह्रीं त्र्यंबकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन रत्न के हो धनी, कहें ‘त्र्यक्ष’ मुनिराज।
त्रिकरण शुद्धी से नमूँ, तीन रत्न के काज।।९९२।।
ॐ ह्रीं त्र्यक्षाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘केवलज्ञानवीक्षण’ तुम्हीं, घाति चतुष्टय नाश।
प्राप्त अनंत चतुष्टयी, जजत हरूँ यमपाश।।९९३।।
ॐ ह्रीं केवलज्ञानवीक्षणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जग को मंगल करण, नाम ‘समंतसुभद्र’।
मेरा भी मंगल करो, हरो उपद्रव सर्व।।९९४।।
ॐ ह्रीं समंतभद्राय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! आप ‘शांतारि’ हो, किया मोह अरि शांत।
मोह शत्रु के नाशने, शक्ती दो शिवकांत।।९९५।।
ॐ ह्रीं शांतारये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धर्माचार्य’ प्रसिद्ध हो, शिवपथ नेता नाथ।
मुझे धर्मनिधि दीजिये, नमूँ नमाऊँ माथ।।९९६।।
ॐ ह्रीं धर्माचार्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देव ‘दयानिधि’ मान्य हो, करुणा के भंडार।
दयादृष्टि मुझ पर करो, भरो सौख्य भंडार।।९९७।।
ॐ ह्रीं दयानिधये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूक्ष्म अंतरित वस्तु सब, देख लिया इक साथ।
नाथ ‘सूक्ष्मदर्शी’ तुम्हीं, नमत सर्व सुख हाथ।।९९८।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्मदर्शिने सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जितानंग’ भगवान ने, किया कामरिपु नाश।
मेरी वांछा पूरिये, करिये भव का नाश।।९९९।।
ॐ ह्रीं जितानंगाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘कृपालु’ करके कृपा, करिये भव से पार।
एक मोक्ष के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।१०००।।
ॐ ह्रीं कृपालवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत धर्म निरूप्य, नाथ! ‘धर्मदेशक’ कहे।
नमत मिले निजरूप, जजत सर्वसुख संपदा।।१००१।।
ॐ ह्रीं धर्मदेशकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘शुभंयु’ आप, त्रिभुवन में मंगल करो।
हरो मोह संताप, जजूँ नित्य गुण गायके।।१००२।।
ॐ ह्रीं शुभंयवे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनवधि सुख विलसंत, ‘सुखसाद्भूत’ प्रसिद्ध हो।
निजसुख मिले अनंत, पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय के।।१००३।।
ॐ ह्रीं सुखसाद्भूताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुण्यराशि’ भगवंत, श्रेष्ठ पुण्य फल रूप हो।
जजत मिले भव अंत, शिरोरोग सब दूर हों।।१००४।।
ॐ ह्रीं पुण्यराशये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जन्म जरा मृति रोग, शून्य ‘अनामय’ आप हो।
मिटें हृदय के रोग, पूर्ण स्वास्थ्य हो पूजते।।१००५।।
ॐ ह्रीं अनामयाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धर्मपाल’ भगवान्, धर्मतीर्थकर्ता तुम्हीं।
जजूँ सिद्ध गुणखान, रक्तचाप व्याधी नशे।।१००६।।
ॐ ह्रीं धर्मपालाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगत्पाल’ जिनदेव, त्रिभुवन गुरु जगपूज्य हो।
नमत करूँ भव छेव, शिवलक्ष्मी पाऊँ तुरत।।१००७।।
ॐ ह्रीं जगत्पालाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धर्मपरमसाम्राज्य’, उसके स्वामी आप ही।
मिले स्वात्म साम्राज्य, जजूँ अर्घ्य ले भक्ति से।।१००८।।
ॐ ह्रीं धर्मसाम्राज्यनायकाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम प्रगट प्रगट अतिशय महात्म्य।
हरि हर ब्रह्मा नहिं करें साम्य।।
तुम सिद्ध निरंजन निर्विकार।
मैं नमूँ सौख्य पाऊँ अपार।।१००९।।
ॐ ह्रीं उदितोदितमाहात्म्याय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सो रहे जगत् व्यवहार हीन, जगते निज में प्रभु स्वात्म लीन।
तुम इष्ट अनिष्ट विभाव दूर, पूजत ही पाऊँ स्वात्म पूर।।१०१०।।
ॐ ह्रीं व्यवहारसुषुप्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तरगुण हैं चौरासि लाख, इनसे पाया निज पूर्ण राज्य।
मिटते अनिष्ट संयोग शोक, पूजन करते जन मन अशोक।।१०११।।
ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षगुणाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु सिद्धिपुरी के पथिक आप, फिर सिद्ध बने पाया स्वराज्य।
दुख इष्ट वियोगादिक न होंय, पूजत ही निज पद प्राप्त होय।।१०१२।।
ॐ ह्रीं सिद्धिपुरीपान्थाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्हत्प्रभु योग निरोध किया, तब समवसरण भी विघट गया।
दिव्यध्वनि खिरनी बंद हुई, वच काय योग संकोच लिया।।
कर्मारि अघाती नष्ट हुये , शिवधाम मिला प्रभु सिद्ध बने।
पूजत ही वचन सिद्धि होती, प्रभु ध्याते आत्मा शुद्ध बने।।१०१३।।
ॐ ह्रीं संहृतध्वनये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
योगों से ईर्यापथ आस्रव, वह किट्टि लेप है अर्हत् को।
व्युपरत क्रियनिवृती शुक्लध्यान, ध्याया तब हना अघाती को।।
प्रभु योग किट्टि निर्लेपन में, उद्यत हो शिवपद प्राप्त किया।
मैं अर्घ्य चढ़ाकर पूजत ही, शुद्धात्म ज्ञान को प्राप्त किया।।१०१४।।
ॐ ह्रीं योगकिट्टिनिर्लेपनउद्यताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
टूट रहे कर्मो के फंद, हुये अयोगी जिन निर्द्वंद।
सिद्धधाम में काल अनंत, निवसें जजूँ सिद्ध भगवंत।।१०१५।।
ॐ ह्रीं त्रुटत्कर्मपाशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परम निर्जरा तत्त्व धरंत, जिन अयोगि हों सिद्ध तुरंत।
अशुभ कर्म निर्जीरण हेतु, नमूँ सिद्धप्रभु भवदधि सेतु।।१०१६।।
ॐ ह्रीं परमनिर्जराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब पर्याय अनंतानंत, प्रभु में अंतर्लीन बसंत।
पिया नंतपर्याय जिनंद, जजूँ सिद्ध हो परमानंद।।१०१७।।
ॐ ह्रीं निष्पीतानंतपर्यायाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अठरह सहस शील के ईश, ब्रह्मचर्य से त्रिभुवन शीश।
ब्रह्मा स्वात्मतत्त्व में लीन, बने सिद्ध पूजत भव क्षीण।।१०१८।।
ॐ ह्रीं अष्टादशसहस्रशीलेशाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुणस्थान चौदहवें काल, ‘अइउऋऌ’ उच्चारण काल।
जिन अयोगि तत्क्षण लोकाग्र, नमूँ सिद्ध हो मन एकाग्र।।१०१९।।
ॐ ह्रीं पंचलघुअक्षरस्थितये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध द्रव्य से सिद्ध महान, नमूँ नमूँ परमात्म प्रधान।
पाऊँ स्वात्म तत्त्व का ध्यान, बने अंतरात्मा भगवान।।१०२०।।
ॐ ह्रीं द्रव्यसिद्धाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन अयोगि द्विचरम समय में, प्रकृति बहत्तर पृथक् किया।
उनको आशिष देकर छोड़ा, परमानंद पियूष पिया।।
उनको पूजत मुझको भी तो, ऐसा द्विचरम समय मिले।
कर्मनाश कर निज सुख पाऊँ, केवलज्ञान प्रसून खिले।।१०२१।।
ॐ ह्रीं द्वासप्ततिप्रकृत्याशिषे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
एक वेदनी मनुषगती अनुपूर्वि आयु पंचेन्द्रि सुभग।
त्रस बादर पर्याप्त यशस्कीर्ती आदेय गोत्र भी उच्च।।
तीर्थंकर मिल तेरह प्रकृती, अंत समय में नष्ट हुईं।
मानों नमन किया सिद्धों को, उन पूजत निज तृप्ति हुई।।१०२२।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशप्रकृति प्रणुते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
लोक अलोक प्रकाशी, केवलज्ञान लबालब पूर्ण भरा।
गुण अनंत बतलाने वाला, यही एक गुण श्रेष्ठ खरा।।
इससे काल अनंतानंते, सिद्ध मोक्ष में सौख्य भरें।
केवलज्ञानज्योति हेतू हम, नमन अनंतों बार करें।।१०२३।।
ॐ ह्रीं ज्ञानाfनर्भराय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण अनंत में एक ज्ञान ही, चिन्मय जीव स्वरूप धरे।
ज्ञान बिना गुण भले अनंते, उनकी कीमत कौन करे।।
ज्ञानमात्र से ध्यानमग्न हो, केवलज्ञान सूर्य चमके।
ऐसे सिद्धों को नित पूजत, मेरी आत्मज्योति चमके।।१०२४।।
ॐ ह्रीं ज्ञानैकचिज्जीवघनाय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
एक हजार सु चौबिस गुणमय, नामधार जिन सिद्ध हुये।
गुण अनंत रत्नाकर भगवन, नाममात्र गुणनिद्धि हुये।।
इन गुणयुत सिद्धों का वंदन, यम का खंडन करता है।
नमूँ अनंतों बार नमूँ मैं, पूजत शिवसुख भरता है।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतिअधिकएकसहस्रगुणधारकसिद्धपरमेष्ठिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं अर्हं असिआउसा नम:। (१०८ बार)
हे प्रभो! आप सौ इन्द्र से वंद्य हैं।
तीन ही लोक के ईश अभिनंद्य हैं।।
पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।
फेर होवे न संसार में आवना।।१।।
चार गति में भ्रमा सौख्य का लेश ना।
जन्म औ मृत्यु ये दु:ख देवें घना।।पूरिये.।।२।।
नाथ! नीगोद में एक ही श्वांस में।
आठ दश बार जन्मा मरा नाथ! मैं।।पूरिये.।।३।।
भू पवन अग्नि जल औ वनस्पति हुआ।
एक इन्द्रीय तनु धार बहु दुख सहा।।पूरिये.।।४।।
केंचुआ शंख चींटी ततैया हुआ।
जन्म धर धर मुआ जन्म धर धर मुआ।।पूरिये.।।५।।
पंच इंद्री पशू योनि धर दुख सहा।
क्रूर सिंहादि हो पाप करता रहा।।पूरिये.।।६।।
पाप से नर्क में नारकी हो गया।
सागरों वर्ष की आयु धर दुख सहा।।पूरिये.।।७।।
नर्क की वेदना जो सही नाथ! मैं।
भारती भी न कहने में सक्षम उन्हें।।पूरिये.।।८।।
आप हो केवली सर्व कुछ जानते।
शीघ्र रक्षा करो भक्त मुझ मानके।।पूरिये.।।९।।
मैं मनुज योनि में भी दुखी ही दुखी।
इष्ट वीयोग आनिष्ट संयोग भी।।पूरिये.।।१०।।
रोग शोकादि दारिद्र संकट घने।
नाथ! सम्यक्त्व बिन दु:ख ही दुख घने।।पूरिये.।।११।।
देव की योनि में मानसिक ताप से।
दु:ख पाया विभो! अब कहूँ आपसे।।पूरिये.।।१२।।
मैं सुना शास्त्र में आप ही हो सुखी।
सिद्धसुख की नहीं कोइ उपमा कभी।।पूरिये.।।१३।।
एक ही शास्त्र को जान आनंद हो।
आप त्रैलोक्य जाना महानंद हो।।पूरिये.।।१४।।
चक्रि के भोगभूमिज व धरणेन्द्र के।
इन्द्र अहमिंद्र के सुख अनंते गुणें।।पूरिये.।।१५।।
इन सभी के त्रिकालीक सुख लीजिये।
इन सुखों को अनंते गुणा कीजिये।।पूरिये.।।१६।।
सिद्ध सुख एक क्षण का भि उत्कृष्ट है।
तोल सकते न इसको परम श्रेष्ठ है।।पूरिये.।।१७।।
सिद्ध सुख की नहीं कल्पना हो सके।
जीव छद्मस्थ इस स्वाद ना ले सकें।।पूरिये.।।१८।।
आज मैं आपकी अर्चना कर रहा।
सिद्धसुख चाह से वंदना कर रहा।।पूरिये.।।१९।।
धन्य मेरा जनम धन्य है ये घड़ी।
धन्य अवसर मिला ज्ञान बल्ली बढ़ी।।पूरिये.।।२०।।
पूर्ण शशि रश्मि से जैसे सागर बढ़े।
वैसे प्रभु सामने ज्ञानसिंधू बढ़े।।पूरिये.।।२१।।
मैं नमूँ मैं नमूँ कोटि कोटी नमूँ।
सर्व मिथ्यात्व क्रोधादिविष को वमूँ।।पूरिये.।।२२।।
तीन ही रत्न के हेतु फिर फिर नमूँ।
‘‘ज्ञानमती’’ पूर्ण हो नाथ! ये ही चहूँ।।पूरिये.।।२३।।
आपकी भक्ति ही सर्व वरदायिनी।
आप गुण कीर्ति गुण संपदादायिनी।।पूरिये.।।२४।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं चतुर्विंशतिअधिकसहस्रगुणसमन्वित-सिद्धपरमेष्ठिभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य सिद्धचक्र का विधान यह करें।
वे चित्स्वरूप गुण अनंतानंत को भरें।।
त्रयरत्न से ही उनको सिद्धिवल्लभा मिले।
रवि ‘‘ज्ञानमती’’ रश्मि से जन मन कमल खिलेंं।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।