(हिन्दी पद्यानुवाद)
परमात्मा को वृद्धिंगत ज्ञान-सहित परमेष्ठी को प्रणमूं।
निजपर की सिद्धी हेतू मैं यह कल्याणालोचना भणूं।।१।।
रे जीव! अनंतभवों में तू भव भव में बहु संसरण किया।
मिथ्यात्व प्रकृति के उदयनिमित नहिं बोधि लाभ को प्राप्त किया।।२।।
संसार भ्रमण करते करते, नहिं आराधा जिनधर्म कभी।
जिन धर्म बिना बहु दुःख अनंतों बार प्राप्त कर रहा दुखी।।३।।
संसार में रहते मरण अनंतानंत बार कीया तूने।
केवलि प्रभु बिन उन मरणों की संख्या नहिं कह सकता जग में।।४।।
छ्यासठ हजार अरु तीन शतक छत्तीस क्षुद्रभव माने हैं।
तूने अंतर्मुहूर्त में ही ये सब भव धरे निगोदों में।।५।।
दो त्रय चउ इंद्रिय के क्रम से अस्सी व साठ चालिस भव हैं।
पंचेन्द्रिय के चौबीस कुभव, अन्तर्मुहूर्त में होते हैं।।६।।
बहु जीव परस्पर में क्रोधित होकर दारुण दुख पाते हैं।
जिनधर्मबुद्धि से रहित जीव कैसे उनसे छुट सकते हैं।।७।।
मां पिता कुटुम्बी स्वजन आदि कोई भी साथ न आते हैं।
तू सदा अकेला भ्रमें न कोई दूजा तेरा इस जग में।।८।।
आयू क्षय होने में समर्थ नहिं कोई आयू देने में।
देवेंद्र नरेंद्र मंत्र मणि औषध नहीं बचा सकते जग में।।९।।
अब जिनवर धर्म मिला तुमको, मन वच तन को तुम शुद्ध करो।
प्रतिसमय सावधानीपूर्वक सब जीवों पर तुम क्षमा करो।।१०।।
सम्यग्दर्शन के शत्रू त्रय सौ-त्रेसठ मिथ्यादर्शन जो।
अज्ञान से इन पर श्रद्धा की वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।११।।
मधु मांस मद्य अरु जुआ आदि सातों व्यसनों का सेवन जो।
नहिं इनका त्याग किया मैंने वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१२।।
अणुव्रत महाव्रत यम नियम शील मुनिवर गुरुवर ने दीये जो।
उन-उनमें विराधना की जो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१३।।
नित्य अनित्य चउ धातू भी सात-सात लक्ष तरु दश लक्षा।
विकलेंद्रिय छह लख सुर नारक तिर्यक् चउ चउ नर चौदह लक्षा।।१४।।
इन सब चौरासी लाख योनियों-में सब जीव भ्रमें दुख सों।
उन-उन की विराधना की जो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१५।।
पृथ्वी जल अग्नी वायु वनस्पति, अरु विकलत्रय प्राणी जो।
उन-उनकी विराधना की जो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१६।।
सम्यक्त्व व्रतों में जिनवर ने सत्तर अतिचार बताये जो।
सामायिक क्षमादि में हानी की सब दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१७।।
फल फूल छाल अरु लता अनछने जल से स्नान आदि भी जो।
उन-उनकी विराधना की जो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१८।।
नहिं शील क्षमा नहिं विनय व तप, संयम उपवास न कीये हों।
नहिं किया भावना भी इनकी, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१९।।
फल मूल बीज अरु कंद सचित, अज्ञान से इनको खाया हो।
रात्री भोजन भी किया कराया, दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२०।।
जिनचरणों की पूजा नहिं पात्रदान नहिं ईर्या शुद्धि जो।
नहिं किया भावना नहिं भायी, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२१।।
आरंभ परिग्रह बहुत प्रमाद दोष से पाप उपार्जे जो।
जीवों की विराधना करके वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२२।।
इक सौ सत्तर क्षेत्रों के भूत भविष्यत वर्तमान जिन जो।
उन-उनकी विराधना की हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२३।।
अर्हंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय-साधु पंचपरमेष्ठी जो।
उन-उनकी विराधना की जो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२४।।
जिन-वचन धर्म जिनगृह जिनवर प्रतिमा कृत्रिम-अकृत्रिम जो।
उन-उनकी विरधना की हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२५।।
दर्शन सुज्ञान चारित में क्रम से, आठ-आठ पण दोष भी जो।
उन-उनसे विराधना की जो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।२६।।
मति श्रुत अवधी मनपर्यय, केवलज्ञान पांच माने हैं जो।
उन-उनकी विराधना की जो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२७।।
आचारादी अंगों पूर्वों व प्रकीर्णक में जिन वर्णित जो।
उन-उनकी विराधना की जो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२८।।
मुनि पांच महाव्रत सहित अठारह सहस शील से शोभित जो।
उन-उनकी विराधना की जो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२९।।
इस जग में पिता सदृश ऋद्धी-से सहित महागणधर गुरु जो।
उन-उनकी विराधना की हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।३०।।
मुनिराज-आर्यिका, श्रावक और श्राविका संघ चतुर्विध जो।
उन-उनकी विराधना की हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।३१।।
सुर असुर मनुज नारक तिर्यक् योनी में रहते प्राणी जो।
उन-उनकी विराधना की जो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।३२।।
जो क्रोध मान माया व लोभ अरु राग द्वेष दोषादिक हों।
अज्ञान से मैंने किया इन्हें वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।३३।।
परवस्त्र ग्रहण, परमहिला राग से पाप प्रमादयोग से जो।
जो अन्य अकार्य किये मैंने वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।३४।।
जो एक स्वभावसिद्ध आत्मा संपूर्ण विकल्प विवर्जित है।
नहिं अन्य शरण मेरा कोई वह एक शरण परमात्मा है।।३५।।
जो अरस अरूप अगंध व अव्याबाध अनंत ज्ञानमय है।
नहिं अन्य शरण कोई मेरा वह एक शरण परमात्मा है।।३६।।
सब ज्ञेयप्रमाण ज्ञान एक समय से स्वस्वभाव में है।
नहिं अन्य शरण-मेरा कोई, वह एक शरण परमात्मा है।।३७।।
जो एक-अनेक विकल्प प्रसाधन निजस्वभाव में विशुद्ध है।
नहिं अन्य शरण कोई मेरा वह एक शरण परमात्मा है।।३८।।
ज्ञान अपेक्षा लोकमात्र भी नित्य व स्वतनुमात्र जो है।
नहिं अन्य शरण कोई मेरा वह एक शरण परमात्मा है।।३९।।
इक समय में केवलदर्शन केवलज्ञान द्वि उपयोगमय है।
नहिं अन्य शरण कोई मेरा, वह एक शरण परमात्मा है।।४०।।
निजरूप सहजसिद्ध है विभावगुण कर्म रहित शुद्धात्मा हैं।
नहिं अन्य शरण कोई मेरा वह एक शरण परमात्मा है।।४१।।
नो कर्म कर्म से रहित शून्य है ज्ञानपूर्ण से अशून्य है।
नहिं अन्य शरण कोई मेरा वह एक शरण परमात्मा है।।४२।।
ज्ञान से नहिं भिन्न विकल्प से भिन्न स्वभाव से सुखमय है।
निंह अन्य शरण कोई मेरा वह एक शरण परमात्मा है।।४३।।
अच्छिन्न व अवच्छिन्न है प्रमेयरूप अगुरूलघुमय है।
नहिं अन्य शरण कोई मेरा वह एक शरण परमात्मा है।।४४।।
शुभ-अशुभ भाव से रहित शुद्ध निज भावों से ही तन्मय है।
नहिं अन्य शरण कोई मेरा वह एक शरण परमात्मा है।।४५।।
नहिं स्त्री नहीं नपुंसक नहिं ये, पुरुष न पुण्य-पापमय है।
नहिं अन्य शरण कोई मेरा वह एक शरण परमात्मा है।।४६।।
नहिं कोई तेरा स्वजन न तू भी बंधु व स्वजन किसी का है।
यह आत्मा एकाकी ज्ञायक है शुद्ध आत्मा चिन्मय है।।४७।।
जिनदेव सदा हों देव मेरे, जिनशासन में मति रहे सदा।
भव-भव में हो सन्यास मरण, निजसंपति मुझको मिले सदा।।४८।।
जिन एव देव जिन एव देव जिन एव देव जिन हैं जिन नित।
है दयाधर्म है दयाधर्म है दयाधर्म है दया सतत।।४९।।
हैं महासाधु हैं महासाधु हैं महासाधु हैं दिगम्बर जो।
ये सभी तत्त्व नित मिले मुझे, जब तक नहिं मुक्ति मिले मुझको।।५०।।
इस विध दुःख के संग में मेरा यह काल अनंत व्यतीत हुआ।
जिनवर भाषित सन्यास में मैंने यत्न से आरोहण न किया।।५१।।
जिनभाषित आराधना मुझे अब प्राप्त हुई पुण्योदय से।
अब क्या-क्या मुझे मिलेगी नहिं सिद्धी समूह संपति इससे।।५२।।
हे धर्म अहो हे धर्म अहो मुझको निर्मल उपलब्धि मिली।
अब इससे मुझे सर्वस्व मिला, अनुपम सुख कलियां आज खिलीं।।५३।।
इस विध आलोचन वंदन प्रतिक्रमण को आराधन करते।
उनको फल मिलता मोक्ष सौख्य श्री ‘अजित ब्रह्म’ ऐसा कहते ।।५४।।
दोहा
गणिनी आर्या ज्ञानमती, किया पद्य अनुवाद।
यह कल्याणालोचना, पढ़ो मिले निजस्वाद।।५५।।