महापुराण प्रवचन-१
(पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा)
प्रस्तुति-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामति
श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भर्त्रे, नम: संसारभीमुषे।।
महापुराण ग्रंथ के इस मंगलाचरण में श्री जिनसेनाचार्य ने किसी का नाम लिए बिना गुणों की स्तुति की है। जो अंतरंग – बहिरंग लक्ष्मी से सहित एवं सम्पूर्ण ज्ञान से सहित हैं, धर्मचक्र के धारक हैं, तीन लोक के अधिपति हैं और पंचपरिवर्तनरूप संसार का भय नष्ट करने वाले हैं उनको-अर्हन्तदेव को हमारा नमस्कार है।
इस श्लोक के कई अर्थ हैं। सर्वप्रथम ‘‘श्रीमते’’ शब्द से प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की स्तुति है। श्री-लक्ष्मी अर्थात् जो सर्वश्रेष्ठ श्रीमान् हैं। जिनके अंतरंग-बहिरंग दोनों लक्ष्मी हैं उन भगवान ऋषभदेव एवं चौबीसों भगवान को मेरा नमस्कार है।
‘‘श्री’’ शब्द से पंचपरमेष्ठी को भी लिया है। श्रीमते-अरिहंत, ‘‘सकलज्ञानसाम्राज्यपदमीयुषे’’ पद-सिद्धपद का वाचक है, ‘‘धर्मचक्र भृते’’ अर्थात् दशधर्मरूपी चक्र को धारण करने वाले आचार्य परमेष्ठी, ‘‘भत्र्रे’’ पद से अज्ञान को दूर करने वाले उपाध्याय परमेष्ठी और ‘‘संसारभीमुषे’’ अर्थात् अपनी उत्कृष्ट मुनि चर्या के द्वारा संसार के भय को नष्ट करने वाले साधु परमेष्ठी को नमस्कार किया है।
आगे इसमें गौतम गणधर को नमन करके कहा है कि गणधर कैसे होते हैं-
सकलज्ञानसाम्राज्य-यौवराज्यपदे स्थितान्।
तोष्टवीमि गणाधीशानाप्त संज्ञानकण्ठिकान्।।१७।। (पर्व १)
अर्थात् जिसमें ६३ शलाका महापुरुषों का कथन है उसे महापुराण कहा है। पूर्व में हुए महापुरुषों का वर्णन करने से यह पुराण है तथा महापुरुषों के द्वारा उपदिष्ट होने से यह महापुराण है। द्वादशांग में जो १२वें अंग में प्रथमानुयोग है, उसी में यह महापुराण ग्रंथ आता है।
पुरातनं पुराणं स्यात् तन्महन्महदाश्रयात्।
महद्भिरूपदिष्टत्वात् महाश्रेयोऽनुशासनात्।।
ऋषिप्रणीतमार्षं स्यात् सूत्तं सूनृतशासनात्।
धर्मानुशासनाच्छेदं धर्मशास्त्रमिति स्मृतम्।।
इतिहास इतीष्टं तद् इति हासीदिति श्रुते:।
इतिवृत्तमथैतिह्र्यंमान्नार्थ चामनन्ति तत्।।
यह ग्रंथ अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित है, इसलिए पुराण कहलाता है। इसमें महापुरुषों का वर्णन किया गया है अथवा तीर्थंकर आदि महापुरुषों ने इसका उपदेश दिया है अथवा इसके पढ़ने से महान् कल्याणकारी पद की प्राप्ति होती है इसलिए इसे महापुराण कहते हैं।
यह ग्रंथ ऋषिप्रणीत होने के कारण आर्ष, सत्यार्थ का निरूपक होने से सूक्त तथा धर्म का प्ररूपक होने के कारण धर्मशास्त्र माना जाता है। ‘इति इह आसीत्’ यहाँ ऐसा हुआ-ऐसी अनेक कथाओं का इसमें निरूपण होने से ऋषिगण इसे ‘इतिहास’, ‘इतिवृत्त’ और ‘ऐतिह्य’ भी मानते हैं।
इसे आर्षग्रंथ कहते हैं, यह सूक्त है, धर्मशासन है, इसे इतिहास भी कहते हैं, आम्नाय भी कहते हैं। श्री जिनसेन स्वामी ने इसमें कहा है कि जैसे-छोटा बछड़ा बड़े भार को उठाने में असमर्थ होता है उसी प्रकार मैं भी तीर्थंकर भगवन्तों का चरित कहने में यद्यपि असमर्थ हूँ, फिर भी महापुराण नाम से इस ग्रंथ को कहने का साहस कर रहा हूँ।
धवला टीकाकार वीरसेनस्वामी एवं श्री जयसेनाचार्य को अपना गुरु मानकर इसमें श्री जिनसेनाचार्य ने उन्हें नमस्कार किया है। इसमें श्रोता और वक्ता का सुंदर लक्षण है तथा धर्मकथा के ७ अंग माने हैं-द्रव्य, क्षेत्र, तीर्थ, काल, भाव, महाफल और प्रकृत ये सात अंग कहलाते हैं। प्रत्येक ग्रंथ के आदि में इनका निरूपण अवश्य होना चाहिए। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह छह द्रव्य हैं, ऊध्र्व, मध्य और पाताल (अधोलोक) ये तीन लोक क्षेत्र हैं, जिनेन्द्रदेव का चरित्र ही तीर्थ है, भूत, भविष्यत् और वर्तमान यह तीन प्रकार का काल है, क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक ये दो भाव हैं, तत्त्वज्ञान का होना फल कहलाता है और वर्णनीय कथावस्तु को प्रकृत कहते हैं। इस प्रकार ऊपर कहे हुए सात अंग जिस कथा में पाये जायें, उसे सत्कथा कहते हैं। उस समीचीन कथा के नायक स्वरूप भगवान ऋषभदेव एवं चौबीसों तीर्थंकर भगवान विश्वशांति के लिए होवें, यही मंगलकामना है।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।
महापुराण प्रवचन-२
श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
जिनसेन स्वामी ने कहा है-यह युग का आद्य कथानक बताने वाला इतिहास है।
सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेव ने जहाँ जन्म लेकर दीक्षा ली वह प्रयाग तीर्थ सर्वभाषामय तीर्थ का उद्भव स्थल है। भरत के प्रश्न पर वृषभसेन गणधर ने अनेक उत्तर बताये उसी परम्परा में भगवान महावीर के समवसरण में गौतम गणधर ने राजा श्रेणिक के प्रश्नों पर जो पुराण कहा है। उसी पुराण को महापुराण आचार्यदेव ने बताया गया है, उन्होंने कहा है-
श्रुतं मया श्रुतस्कन्धादायुष्मन्तो महाधिय:।
निबोधत पुराणं मे यथावत् कथयामि व:।।
वे कहते हैं-हे श्रेणिक! जैसे भरत के लिए ऋषभदेव ने कहा था, उसी प्रकार मैं आपके लिए कहता हूँ। श्रुतस्कंध के ४ अधिकार हैं-१. प्रथमानुयोग २. करणानुयोग ३. चरणानुयोग ४. द्रव्यानुयोग, जिसमें महापुरुषों का चरित्र हो उसे प्रथमानुयोग कहते हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भी कहा है-
प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं, चरितं पुराणमपि पुण्यम्।
बोधि समाधि निधानं, बोधति बोध: समीचीन:।।
देखो! इन महापुरुषों के चरित्र अपने लिए आदर्श हैं। ऋषभदेव, राम आदि का चरित्र सुनकर कोई रावण नहीं बनना चाहेगा। इसमें चारों अनुयोग भी गर्भित समझना चाहिए, क्योंकि इसमें सभी तरह के प्रकरण शामिल हैं।
आचार्यश्री ने स्वयं एक स्थान पर कहा है-
पुराणस्यास्य वक्तव्यं, कृत्स्नं वाङ्मयमिष्यते।
यतो नास्माद्बहिर्भूतमस्ति, वस्तु वचोऽपि वा।।११५।। (पर्व २)
अर्थात् पुराण से बहिर्भूत कोई भी विषय नहीं है। जैसे समुद्र से सारे रत्न उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार पुराण से सभी कथानक आदि उद्भूत होते हैं। बंध-मोक्ष आदि सबका वर्णन इसमें आ जाता है। इन सबको पढ़-पढ़कर अपनी आत्मा को महान बनाने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
तीर्थंकरों के आश्रित २४ पुराण हैं इन सबका संग्रह महापुराण है। इसे आदिपुराण और उत्तरपुराण दो भागों में विभक्त किया है। आदिपुराण में ऋषभदेव-भरत-बाहुबली आदि का चरित्र है एवं उत्तरपुराण में अजितनाथ से महावीर तक तेईस तीर्थंकरों का चरित्र है।
इसके सुनने से भी महान पुण्य संचित होता है अत: आत्मकल्याणेच्छु को इसका अध्यन, मनन, ध्यान करना चाहिए इसके सुनने से अशुभ स्वप्न नहीं आते हैं, कर्मनिर्जरा होती है। इसलिए सभी भव्यात्माओं को कम से कम एक बार महापुराण का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।
चौबीसों तीर्थंकर भगवान विश्व में शांति की स्थापना करें तथा इनकी भक्ति-पूजा जन-जन के लिए कल्याणकारी होवे, यही मंगलकामना है।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञानभास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शान्तिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।
महापुराण प्रवचन-३
श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
भव्यात्माओं! महापुराण द्वादशांग का ही अंश है, इसका सीधा संबंध भगवान महावीर की वाणी से है। इसमें प्रारंभिक भूमिका के पश्चात् सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेव का दश भवों का वर्णन है, वे ऋषभदेव कैसे बने? इस बात को उनके दश अवतारों से जानना है।
दिव्याष्टगुणमूर्तिस्त्वं, नवकेवललब्धिक:।दशावतारनिर्धार्यो, मां पाहि परमेश्वर।।
अर्थात् ऋषभदेव के दश अवतार माने हैं। जैसा कि कहा भी है-
महाबल नमस्तुभ्यं, ललितांगाय ते नम:। श्रीमते बज्रजंघाय, धर्मतीर्थप्रवर्तिने।।१।।
द्रव्यं क्षेत्रं तथा तीर्थं कालो भाव: फलं महत्। प्रकृतं चेत्यमून्याहु: सप्ताङ्गानि कथामुखे।।१२२।।
द्रव्यं जीवादि षोढा स्यात्क्षेत्रं त्रिभुवनस्थिति:। जिनेन्द्रचरितं तीर्थं कालस्त्रेधा प्रकीर्तित:।।१२३।।
प्रकृतं स्यात् कथावस्तु फलं तत्त्वावबोधनम्। भाव: क्षयोपशमजस्तस्य स्यात्क्षायिकोऽथवा।।१२४।।
अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, तीर्थ, काल, भाव, महाफल और प्रकृत ये सात अंग कहलाते हैं। ग्रंथ के आदि में इनका निरूपण अवश्य होना चाहिए। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह छह द्रव्य हैं, ऊध्र्व, मध्य और पाताल ये तीन लोक क्षेत्र हैं, जिनेन्द्रदेव का चरित्र ही तीर्थ है, भूत, भविष्यत् और वर्तमान यह तीन प्रकार का काल है, क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक ये दो भाव हैं, तत्त्वज्ञान का होना फल कहलाता है और वर्णनीय कथावस्तु को प्रकृत कहते हैं। इस प्रकार ऊपर कहे हुए सात अंग जिस कथा में पाये जायें उसे सत्कथा कहते हैं।
इस प्रकार दश अवतारों के नाम लेकर जिनसेनाचार्य ने भगवान ऋषभदेव को नमस्कार किया है। इन्हीं में से प्रथम महाबल का वर्णन यहाँ किया जा रहा है-मध्यलोक के प्रथम जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में गंधिला देश में विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी में अलकापुरी नामक नगरी है। वहाँ राजा महाबल राज्य करते थे, उनके चार मंत्री थे-महामति, संभिन्नमति, शतमति और स्वयंबुद्ध।
ये सभी विद्याधर थे अत: अपनी विद्या के बल से यत्र-तत्र विचरण करते रहते थे और राजा महाबल को राज्य संचालन में यथायोग्य सलाह आदि देते थे।
एक दिन राजसभा में राजा महाबल का जन्मदिन मनाया जा रहा था , विद्याधरों के राजा महाबल सिंहासन पर बैठे हुए थे। उस समय वे चारों तरफ में बैठे हुए मंत्री, सेनापति, पुरोहित सेठ तथा विद्याधर आदि जनों से घिरे हुए, किसी को स्थान, मान, दान देकर, किसी के साथ हँसकर, किसी से संभाषण आदि कर सभी को संतुष्ट कर रहे थे। उस समय राजा को प्रसन्नचित देखकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने कहा-हे राजन् ! जो आपको यह विद्याधरों की लक्ष्मी प्राप्त हुई है, उसे केवल पुण्य का ही फल समझिये। ऐसा कहते हुए मंत्री ने अहिंसामयी सच्चे धर्म का विस्तृत विवेचन किया।
यह सुनकर महामति नाम के धर्मविद्वेषी मिथ्यादृष्टि मंत्री ने कहा कि हे राजन्! इस जगत् में आत्मा, धर्म और परलोक नाम की कोई चीज नहीं है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतों के मिलने से ही चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है। जन्म लेने से पहले और मरने के पश्चात् आत्मा नाम की कोई चीज नहीं है। इसलिए आत्मा की और परलोक की चिंता करना व्यर्थ है। जो लोग वर्तमान सुख को छोड़कर परलोक संबंधी सुख चाहते हैं, वे दोनों लोकों के सुख से च्युत होकर व्यर्थ ही क्लेश उठाते हैं।
पुन: संभिन्नमति मंत्री बोलने लगा कि, हे राजन! यह सारा जगत् एक विज्ञान मात्र है क्योंकि यह क्षण भंगुर हैं। जो-जो क्षण भंगुर होते हैं वे सब ज्ञान के ही विकार हैं। ज्ञान से पृथक् चेतन-अचेतन आदि कोई भी पदार्थ नहीं है। यदि पदार्थों का अस्तित्व मानो तो वे नित्य होना चाहिए परन्तु संसार में कोई भी पदार्थ नित्य नहीं दिखते हैं, सब एक-एक क्षण में ही नष्ट हो जाते हैंं अतः परलोक में सुख प्राप्ति हेतु धर्मकार्य का अनुष्ठान करना बिल्कुल ही व्यर्थ है।
महानुभाव! आज भी आप लोग अपने बच्चों के जन्मदिन मनाते हैं। किन्तु पहले लोगों को अपना जन्मदिन पता ही नहीं होता था। मुझे ही सन् १९५२ से पूर्व तक अपना जन्मदिन ज्ञात नहीं था, जब मैं ब्रह्मचर्यव्रत ले रही थी तब माँ मोहिनी ने बताया कि आज शरदपूर्णिमा है और तुम्हारा जन्मदिन है। तब मैंने अपने जन्म को सार्थक माना था। मैं सबको कहा करती हूँ कि जन्मदिवस पर केक काटना, मोमबत्ती बुझाना आदि अशुभ है यह भारतीय संस्कृति नहीं है। अत: लड्डू खाएँ, मिष्ठान बांटे, दीपक जलाकर भगवान की आरती करें, भगवान को फल चढ़ाएँ यही अपनी भारतीय संस्कृति है उसका पालन करें, यही प्रेरणा है। अपने जन्म से सृष्टि का कल्याण करने वाले भगवान ऋषभदेव एवं चौबीसों तीर्थंकर भगवान जगत् में शांति करें, यही मंगलकामना है।
प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।
महापुराण प्रवचन-४
श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
भगवान ऋषभदेव के पूर्व भवों में दशावतारों के मध्य राजा महाबल के प्रथम अवतार में राजा के जन्मदिवस अवसर पर चारों मंत्री-अपने-अपने मतों का प्रदर्शन कर रहे थे। उसमें तीसरे मंत्री संभिन्नमति ने कहा कि सारा जगत इन्द्रजाल के सदृश है इसके बाद शतमति मंत्री अपनी प्रशंसा करता हुआ नैरात्म्यवाद को पुष्ट करने लगा।उसने कहा कि यह समस्त जगत् शून्यरूप हैं, इसमें नर, पशु, पक्षी, घट, पट आदि जो भी चेतन-अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं वे सर्व मिथ्या हैं। भ्रांति से ही वैसा प्रतिभास होता है जैसे कि इंद्रजाल और स्वप्न में दिखने वाले पदार्थ मिथ्या ही हैं, भ्रांति रूप ही हैं। आत्मा-परमात्मा तथा परलोक की कल्पना भी मिथ्या ही है। अतः जो पुरुष परलोक के लिए तपश्चरण आदि अनुष्ठान करते हैं, वे यथार्थ ज्ञान से रहित हैं।
इन तीनों मंत्रियों के सिद्धान्तों को सुनकर स्वयंबुद्ध मंत्री को बड़ी चिंता हो गई कि कहीं हमारा राजा जैनशासन से विचलित न हो जावे इसलिए उसने अपने सम्यग्ज्ञान के बल से उनका बलपूर्वक खंडन करके स्याद्वाद सिद्धान्त को सत्य सिद्ध कर दिया तथा राजा महाबल के पूर्वजों का पुण्य चरित्र भी सुनाते हुए धर्म और धर्म के फल का महत्व बतलाया। इस प्रकार स्वयंबुद्ध मंत्री के उदार और गंभीर वचनों से समस्त सभा प्रसन्न हो गई।
पुन: स्वयंबुद्ध ने कहा कि राजन्! संसार में स्याद्वादमयी अनेकांत शासन ही सर्वोत्तम है।
उसने आगे कहा-पूर्व में कभी यहाँ राजा अरविंद हुए हैं, उनके दो पुत्र थे-हरिश्चन्द्र और कुरविन्द।
राजा अरविंद को एकबार दाहज्वर हो गया। अनेक उपचारों के बाद भी शांति नहीं मिली। उस राजा अरविंद को कुअवधि ज्ञान था अत: उसकी बुद्धि उल्टी हो गई। एक दिन राजा के शयनगृह में छिपकली की पूँछ कटने से खून की बूंद उस पर टपकी और उसकी कुछ दाह शांत हुई। पाप के उदय से वह बहुत ही संतुष्ट हुआ और विचारने लगा कि आज मैंने दैवयोग से बड़ी अच्छी औषधि पा ली है। उसने कुरुविन्द नाम के अपने दूसरे पुत्र को बुलाकर कहा कि हे पुत्र, मेरे लिए खून से भरी हुई एक बावड़ी बनवा दो। राजा अरविंद को विभंगावधि ज्ञान था इसलिए विचारकर फिर बोला-इसी समीपवर्ती वन में अनेक प्रकार के मृग रहते हैं उन्हीं से तू अपना काम कर अर्थात् उन्हें मारकर उनके खून से बावड़ी भर दे। वह कुरुविन्द पाप से डरता रहता था इसलिए पिता के ऐसे वचन सुनकर तथा कुछ विचारकर पापमय कार्य करने के लिए असमर्थ होता हुआ क्षण भर चुपचाप खड़ा रहा। तत्पश्चात् वन में गया वहाँ किन्हीं अवधिज्ञानी मुनि से जब उसे मालू हुआ कि हमारे पिता की मृत्यु अत्यन्त निकट है तथा उन्होंने नरकायु का बंध कर लिया है तब वह उस पापकर्म के करने से रुक गया। परंतु पिता के वचन भी उल्लंघन करने योग्य नहीं है, ऐसा मानकर उसने मंत्रियों की सलाह से कृत्रिम रुधिर अर्थात् लाख के रंग से भरी हुई एक बावड़ी बनवाई। पापकार्य करने में अतिशय चतुर राजा अरविंद ने जब बावड़ी तैयार होने का समाचार सुना तब वह बहुत ही हर्षित हुआ। जैसे कोई दरिद्र पुरुष पहले कभी प्राप्त नहीं हुए निधान को देखकर हर्षित होता है। जिस प्रकार पानी-नारकी जीव वैतरणी नदी को बहुत अच्छी मानता है उसी प्रकार वह पापी अरविंद राजा भी लाख के लाल रंग से धोखा खाकर अर्थात् सचमुच का रुधिर समझकर उस बावड़ी को बहुत अच्छी मान रहा था। जब वह उस बावड़ी के पास लाया गया तो आते ही उसके बीच में जाकर इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगा। परन्तु कुल्ला करते ही उसे मालूम हो गया कि यह कृत्रिम रुधिर है। यह जानकर वह बुद्धिरहित राजा अरविंद रुष्ट होकर पुत्र को मारने के लिए दौड़ा परन्तु बीच में इस तरह गिरा कि अपनी ही तलवार से उसका हृदय विदीर्ण हो गया तथा मर गया।
कभी-कभी आयुकर्म का बंध हो जाने पर जीव के परिणाम अच्छे-बुरे हो जाते हैं। भव्यात्माओं! आपकी आयु भी कब बंध जावे, कुछ ज्ञात नहीं है अत: सदैव अपने परिणाम अच्छे रखना चाहिए कि यदि आयु की त्रिभागी पड़े तो अच्छी आयु का बंध होवे।
राजा अरविंद को मरते वक्त हिंसानंदी रौद्रध्यान उत्पन्न हो गया था इसीलिए वे मरकर नरक चले गये।
यहाँ ध्यान रखना है कि रौद्रध्यान के चार भेद हैं-हिंसानंदि, मृषानंदि, चौर्यानंदि और परिग्रहानंदि इनमें से कोई भी रौद्रध्यान किसी के लिए हितकारी नहीं हो सकता है अत: आर्त-रौद्र ध्यानों को छोड़कर धर्मध्यान का ही आश्रय लेना चाहिए। धर्मध्यान के साथ शुक्ल ध्यान में स्थित होकर जिन भगवन्तों ने आत्मकल्याण के साथ-साथ जगत के कल्याण का भी उपदेश दिया है ऐसे वे चौबीसों भगवान विश्वशांति की स्थापना में निमित्त बने, यही मंगलकामना है।
प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।
महापुराण प्रवचन-५
श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह की अलका नगरी में राजा महाबल के जन्मदिवस की राजसभा में स्वयंबुद्ध मंत्री आगे कहते हैं कि राजन्! आप के इसी राजवंश में कभी एक राजा दण्ड रहते थे वे अपने पुत्र मणिमाली को राज्य देकर अंत:पुर में रहने लगे। अंत:पुर में रहते हुए उनका धन-सम्पत्ति-स्त्री आदि में राग अत्यधिक बढ़ गया और वे उसी आर्तध्यान से मरकर अपने ही भण्डार में अजगर सर्प हो गये। कुछ दिनों में उस अजगर को जातिस्मरण हो गया कि मैं तो इस भण्डार का स्वामी था। अपनी कुबुद्धि से वहाँ भी वह अपने पुत्र मणिमाली के अतिरिक्त किसी को भण्डार के पास आने नहीं देता था।
किसी समय राजा मणिमाली ने एक निमित्तज्ञानीमुनि से अजगर के बारे में प्रश्न किया कि मेरे भगवन्! मेरे भण्डार में एक अजगर है वह अतिरिक्त किसी को भण्डार में जाने नहीं देता है। मुनि ने कहा-वत्स वह और कोई नहीं, तुम्हारे पिता का जीव है, जो कि आर्तध्यान से मरकर अजगर हुआ है। मणिमाली वापस आकर अजगर को सम्बोधित करते हैं-हे भव्यात्मन्! तुम विषय भोगों में लिप्त होकर आर्तध्यान के कारण इस योनि को प्राप्त हुए हो, अब इस धन का मोह छोड़कर धर्म का उपदेश ग्रहण करो। पुत्र की बात और धर्मोपदेश सुनकर अजगर ने सारा मोह त्याग दिया और महामंत्र का स्मरण करते-करते अपनी आयु पूर्ण कर धर्मध्यान के प्रभाव से स्वर्ग में देव हो गया।
देखो! आर्तध्यान से राजा भी मरकर तिर्यंचगति में चला गया और धर्मध्यान से अजगर जैसा हिंसक प्राणी भी देवता बन गया। यह ध्यान की महिमा है अत: धर्मध्यान में सदैव अपना उपयोग रखना चाहिए।
देवयोनि में अवधिज्ञान से पूर्व भव की बात जानकर देव अपने पुत्र के पास आया और उसके उपकार का स्मरण करते हुए उसने उसे एक दिव्यहार प्रदान किया।
स्वयंबुद्ध मंत्री राजा महाबल से कहते हैं कि राजन्! यह वही दिव्य हार आपके वंâठ में आज सुशोभित हो रहा है। राजा यह सुनकर अत्यंत गौरवान्वित हुआ। पुनश्च मंत्री ने एक कथा और सुनाई-राजन्! आपके बाबा शतबल सदैव धर्मध्यान में तत्पर रहते थे। एक बार उन्होंने अपने पुत्र अर्थात् आपके पिता अतिबल को राज्य सौंपकर धर्मध्यानपूर्वक शरीर छोड़ा और स्वर्ग में देव हो गये। देखो राजन्! आपको स्मरण होगा कि एक बार जब आप मेरे साथ नन्दनवन में क्रीड़ा करने गये थे तब आपके बाबा का जीव वह देव हम लोगों को मिला था और बताया था कि मैं आपका पितामह मरकर देव हुआ हूँ तथा उन्होंने अनेक प्रकार से धर्म का उपदेश भी सुनाया था।
राजन्! इन उदाहरणों से समझना है कि आर्तध्यान रौद्रध्यान से मरकर प्राणी नरक-तिर्यंचयोनि को प्राप्त कराता है और धर्मध्यान स्वर्ग सुख के साथ परम्परा से मोक्ष प्राप्त करता है अत: आपको भी धर्मध्यान का ही आश्रय लेकर अपने मनुष्य जन्म को सार्थक करना है। भव्यात्माओं! मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करने वाले चौबीसों तीर्थंकर भगवान विश्व में शांति की स्थापना करें, यही मंगलकामना है-
प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।
महापुराण प्रवचन-६
श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
महानुभावों! महापुराण ग्रंथ में सम्पूर्ण द्वादशांग का अंश समाविष्ट है। एक बार आप सभी इसका स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।
विदेहक्षेत्र की अलका नगरी में राजा महाबल के राजदरबार में जन्मदिवस की संगोष्ठी चल रही है। स्वयंबुद्ध मंत्री द्वारा राजा को अनेक धर्मोपदेश के माध्यम से सम्बोधन प्रदान किया जा रहा है। मैं समझती हूँ कि यदि इसी प्रकार की संगोष्ठियाँ सबके जन्मदिनों पर आयोजित की जावें तो उनके जन्मदिन तो सार्थक हो ही सकते हैं, साथ ही जन्मदिन की बधाई देने वालों को भी धर्म शिक्षा प्राप्त होगी।
मंत्री स्वयंबुद्ध राजा महाबल को एक कथा और सुनाते हैं-राजन्! आपकी वंश परम्परा में राजा सहस्रबल (आपके बाबा के पिता) ने अपने पुत्र शतबल को राज्य देकर मुनि दीक्षा ले ली और वन-वन में विचरण करने लगे थे। कहा भी है-‘‘विचित्रं जैनीदीक्षा हि स्वैराचार विरोधिनी।’’ इस युग में भी आचार्य शांतिसागर जैसे मुनिराज ने वैसी ही दीक्षा लेकर मुनि परम्परा को जीवंत किया है। उनके प्रथम शिष्य आचार्य वीरसागर जी से मैंने दीक्षा ली, यह मेरा महान पुण्य है। तो उस कथानक में आया है कि वे महामुनि सहस्रबल दीक्षित अवस्था में ध्यानमुद्रा में लीन थे, क्रम-क्रम से शुक्लध्यान में पहुँचकर वे केवली भगवान बन गये पुन: गंधकुटी में विराजमान होकर असंख्य भव्यों को दिव्य उपदेश दिया और आगे मोक्ष प्राप्त कर लिया। ऐसे सिद्ध भगवान सहस्रबल को मेरा नमस्कार हो। राजा महाबल यह सब सुनकर प्रसन्न हुए और धर्म में अपनी श्रद्धा को अत्यधिक दृढ़ किया। एक दिन स्वयंबुद्ध मंत्री सुमेरुपर्वत की वंदना करने गये। वहाँ उसने दो मुनियों से अपने राजा महाबल के बारे में पूछा और आकर राजा को सम्बोधित किया।
देखो! संस्कार की बात कि मंत्री अपने बारे में न पूछकर राजा के बारे में पूछता है। यह उनका राजा के प्रति प्रगाढ़ धर्मस्नेह का ही परिचायक था। मुझे भी इस प्रसंग में एक बात याद आती है कि सन् १९६८ में प्रतापगढ़ में हमारा चातुर्मास था वहाँ हमारे गृहस्थावस्था के माता-पिता दर्शन के लिए आये थे। वे कभी मेरे पास आकर घर की कोई बात करते तो मैं कुछ भी बात नहीं करती तो उन्हें बुरा लगता। पुन: एक दिन मैंने उनसे कहा कि तुम रवीन्द्र को मुझे दे दो मैं इसे पढ़ाकर योग्य बनाऊँगी। पुत्री कामनी भी वहाँ आई थी उसके लिए भी मैंने कहा तो उन्होंने घर जाकर कहा कि देखो! अपने स्वार्थवश तो माताजी मुझसे बात करने लगीं अन्यथा मेरी कोई बात सुनती भी नहीं थीं तो माँ ने उन्हें कहा कि वे घर छोड़ चुकी हैं इसलिए आपकी बात से उन्हें कोई सरोकार नहीं रहता है और मोक्षमार्ग में भव्यों को लगाना उनका कर्तव्य है। इसीलिए उन्होंने अपनी बात कही है। आज वे रवीन्द्र कुमार खूब धर्मप्रचार आदि में लगे हैं। मैं चिंतन करती हूँ कि धर्ममार्ग में लगने की प्रेरणा देना तो वास्तव में हितकर है यही हमारे तीर्थंकर आदि पूर्वजों ने किया है। वे चौबीसों तीर्थंकर भगवान जगत को शांति प्रदान करें, यही भावना है।
प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।
महापुराण प्रवचन-७
श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
महानुभावों! भगवान ऋषभदेव के दशवें भव पूर्व का प्रकरण चल रहा है कि राजा महाबल के मंत्री स्वयंबुद्ध एक बार सुमेरुपर्वत की वंदना करने गये। वहां वंदना करते हुए सौमनसवन के पूर्व दिशा के चैत्यालय में बैठ गये। अकस्मात् ही पूर्व विदेह से युगमंधर भगवान् के समवसरण रूपी सरोवर के मुख्य हंस स्वरूप आकाश में चलने वाले आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो मुनिराज वहां आ गये। बुद्धिमान् मंत्री ने उनकी पूजा-स्तुति आदि करके उपदेश श्रवण किया। अनंतर प्रश्न किया कि हे भगवन् ! हमारा महाबल स्वामी भव्य है या अभव्य?
आदित्यगति मुनिराज ने कहा-हे मंत्रिन् ! तुम्हारा स्वामी भव्य ही है। वह इससे दशवें भव में भरत क्षेत्र का प्रथम ‘तीर्थंकर’ होगा। पश्चिम विदेह के गंधिला देश में सिंहपुर नगर है। वहां के राजा श्रीषेण के जयवर्मा और श्रीवर्मा नाम के दो पुत्र थे। उनमें से छोटा श्रीवर्मा माता-पिता और सभी को अतिशय प्रिय था, अतः राजा ने उसे ही राज्य भार सौंप दिया और बड़े पुत्र की उपेक्षा कर दी। इस घटना से जयवर्मा ने पूर्वकृत पापों की निंदा करते हुए विरक्त होकर स्वयंप्रभ गुरु से जिन-दीक्षा ले ली। और तपस्या करते-करते एक दिन उन्होंने आकाश मार्ग से जाते हुए महीधर विद्याधर का वैभव देखकर विद्याधर के भोगों का निदान कर लिया अर्थात् ‘ये विद्याधर के भोग मुझे अगले भव में प्राप्त हो’ ऐसा भाव कर लिया। उसी समय बामी से निकलकर एक भयंकर सर्प ने उसे डस लिया। वही मुनिराज मरकर के आपके राजा महाबल हुए हैं। पूर्व में भोगों की इच्छा से आज भी उसे भोगों में आसक्ति अधिक है किन्तु अभी आपके वचनों से वह शीघ्र ही विरक्त होगा। आज रात को उसने स्वप्न देखा है कि तीन मंत्रियों ने उसे जबरदस्ती कीचड़ में गिरा दिया और तुमने मंत्रियों की भत्र्सना करके राजा को सिंहासन पर बिठा कर अभिषेक किया है। अनंतर दूसरे स्वप्न में अग्नि की एक ज्वाला को क्षीण होते हुए देखा है। अभी वह तुम्हारी ही प्रतीक्षा में बैठा है, अतः तुम शीघ्र ही जाकर उसके पूछने के पहले ही स्वप्नों को फल सहित बतलाओ।
मंत्री स्वयंबुद्ध ने तत्क्षण ही जाकर राजा से कुशल क्षेम पूछी और राजा द्वारा अपने स्वप्न बताते ही उसने राजा को बताया कि प्रथम स्वप्न का फल भविष्य में विभूतिसूचक है एवं द्वितीय स्वप्न का फल यह है कि आपकी आयु एक माह की शेष रह गई है। अत: हे राजन्! अब शीघ्र ही धर्म को धारण करो और बहुत कुछ विस्तृतरूप में धर्म का उपदेश दिया। राजा महाबल ने विरक्त चित्त होकर अपने पुत्र अतिबल को राज्य देकर घर के उद्यान के जिन मंदिर में आठ दिन तक आष्टाह्निक महायज्ञ पूजन किया। अनन्तर सिद्धवूâट चैत्यालय में जाकर गुरु की साक्षीपूर्वक जीवन-पर्यन्त के लिए चतुराहार का त्याग करके विधिवत् सल्लेखना ग्रहण कर ली। उन्होंने उसी स्वयंबुद्ध मंत्री को सल्लेखना कराने में निर्यापकाचार्य बनाकर सन्मान किया। शरीर से निर्मम हो बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर वह मुनि के सदृश प्रायोपगमन संन्यास में स्थिर हो गया। इस सन्यास में स्वकृत-परकृत उपकार की अपेक्षा नहीं रहती है।
जिस विदेह क्षेत्र की नगरी का मैंने यहाँ उल्लेख किया है वह तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथों में तो है ही, साथ ही हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप और तेरहद्वीप की रचना में भी उनका स्वरूप दर्शाया गया है। देखो! राजा महाबल जैसे भव्य प्राणी ने सल्लेखना लेने में अपने निर्यापकाचार्य के रूप में अपने मंत्री स्वयंबुद्ध को नियुक्त किया, क्योंकि वे जानते थे कि यही मंत्री मेरा हितैषी है।
आज भी साधु और श्रावक दोनों ही सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण करते देखे जाते हैं। मैंने क्षुल्लिका अवस्था में साक्षात् आचार्य शांतिसागर महाराज की सल्लेखना सन् १९५५ में वुंâथलगिरी जाकर देखी है। आचार्यश्री ने मुझे स्वयं कहा था कि मैंने अपने जीवन में ३६ बार भगवती आराधना का स्वाध्याय किया है। उन्होंने मुझे भी प्रेरणा दी थी कि गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, परमात्मप्रकाश, मूलाचार, भगवती आराधना जरूर पढ़ना इसलिए मैंने अनेकानेक बार इन ग्रंथों को पढ़ा है। यहाँ ध्यान रखना है कि सल्लेखना करना आत्मघात नहीं है, क्योंकि इसमें काय और कषाय दोनों को क्षीण किया जाता है, जबकि आत्मघात-आत्महत्या में कषाय और पापरूप परिणामों की विशेषता देखी जाती है, जो कि भव-भव में दु:खकारी है।
अत: अपने आत्महित की दृष्टि से जिनेन्द्र भगवान के द्वारा उपदिष्ट मार्ग को ही ग्रहण करना चाहिए। चौबीसों तीर्थंकर भगवान हम सभी के लिए तथा विश्व की शांति के लिए निमित्त होवें, यही मंगलकामना है।
प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।
महापुराण प्रवचन-८
श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
महानुभावों! भगवान ऋषभदेव के दशवें भवपूर्व राजा महाबल ने स्वयंबुद्ध मंत्री के सम्बोधन से जिनमंदिर में जाकर सल्लेखना ग्रहण कर ली थी और धर्मध्यानपूर्वक उन्होंने घोर तपश्चरण करना प्रारंभ कर दिया था।
कुछ लोग सल्लेखना को आत्मघात कहते हैं। सल्लेखना का लक्षण रत्नकरण्ड श्रावकाचार में श्री समन्तभद्राचार्य ने कहा है-
उपसर्गे दुर्भिक्षे, जरसि रुजायां च नि:प्रतीकारे।
धर्माय तनुविमोचनमाहु:सल्लेखनामार्या:।।
अर्थात् उपसर्ग-संकट आ जावे, ऐसा बुढ़ापा आ जावे कि अब शरीर पूर्ण जर्जर हो गया है, कोई असाध्य रोग हो जावे, जिसका कोई इलाज नहीं है तो धर्मभावना से सल्लेखना ग्रहण करके शरीर छोड़ना चाहिए।
सन् १९८० में बाराबंकी की एक महिला को जलोदर रोग हो गया, दिल्ली में भी डॉक्टर ने जवाब दे दिया तब उसके पति-पुत्र आदि मेरे पास ले आये। मैं उस समय ग्रीनपार्वâ-दिल्ली के मंदिर में धर्मप्रवचन कर रही थी। अकस्मात् उनके आने पर उनकी समाधि की भावना देखकर मैंने विधिवत् उनकी सल्लेखना कराई। ऐसे उदाहरण सभी गृहस्थियों के लिए ग्रहण करने योग्य है क्योंकि जीवन के अंत समय में रो-धोकर प्राण छोड़ने से दुर्गति प्राप्त होती है और मन शांत करके आत्मा-शरीर की भेदभिन्नता का चिंतन करके गुरुओं के निकट अथवा घर में परिग्रह आदि का त्याग करके मरण करने से स्वर्ग सुख एवं परम्परा से मोक्ष सुख मिलता है।
शास्त्रीय भाषा में सल्लेखना के तीन भेद कहे हैं-भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनीमरण और प्रायोपगमन। वर्तमान में भक्त प्रत्याख्यान नामक सल्लेखना का नियम ग्रहण किया जा सकता है। मुख्यरूप से कषाय और काय को कृश करते हुए महामंत्र आदि श्रवण करते हुए शरीर छोड़ना सल्लेखना है। जबकि आत्मघात कषाय एवं व्रूâर परिणामों से होता है जो आज लोग विष आदि अनेक प्रकार से करके इस लोक और परलोक दोनों को बिगाड़ लेते हैं। कई लोग कर्ज आदि से दु:खी होकर आत्महत्या का भाव बना लेते हैं, किन्तु भैय्या! ऐसा कभी मत सोचना, आत्मघात करने से भव-भव में नरक आदि गतियों के दु:ख भोगना पड़ता है। ऐसी स्थितियों में आप धर्म का, धर्मगुरु का एवं धर्मग्रंथों के स्वाध्याय का, पूजा-पाठ का, मंत्र जाप्य का सहारा लें, उसी से संकट कटेंगे।
सल्लेखनापूर्वक मरण करने वाले अधिक से अधिक ७-८ भव में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। इसीलिए सिद्धभक्ति आदि प्रत्येक भक्तियों की अंचलिका में कहा है-दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिनगुणसम्पत्ति होउ मज्झं। अर्थात् मुझे क्रम-क्रम से जिनेन्द्रगुणों की सम्पत्ति प्राप्त हो जावे, यही भावना भाई जाती है।
दिल्ली के एक श्रावक हर्रोमल (हरिश्चंद्र जैन-कम्मो जी के पिता जी) मुझे कई बार कहते थे कि माताजी! मेरे अंतिम समय में आप मुझे संबोधन अवश्य देना, सो जब प्रसंग आया तो मैंने सन् १९८१ में रात्रि में भी समाचार मिलने पर ब्रह्मचारिणी माधुरी को (मुझे-आर्यिका चंदनामती को) भेजा। इसी प्रकार सन् १९६९ में मेरे गृहस्थावस्था के पिता ने अपने अंतिम समय में पूर्ण धर्मध्यानपूर्वक मुझ आर्यिका का स्मरण किया, तो वहाँ एक श्वेत वस्त्र वाली महिला को उपस्थित किया गया, मेरी पुरानी पिच्छिका उन्हें स्पर्श कराई गई………..आदि।
देखो! ऐसी सुन्दर सल्लेखना करके राजा महाबल ने प्राण छोड़े। कठिन तपश्चर्या करते हुए महाबल विद्याधर शरीर को अतिशय क्षीण करके पंच परमेष्ठियों का स्मरण करते हुए अत्यन्त निर्मल परिणामों को प्राप्त हो गया। मांस, रक्त के सूख जाने पर महाबल शरीर को छोड़ कर ऐशान स्वर्ग में श्रीप्रभ विमान में ‘ललितांग’ नामक उत्तम देव हो गया। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से धर्म की शिक्षा देने वाले मंत्री ने अन्त तक अपने मंत्रीपने का कार्य किया।
वास्तव में हितैषी बन्धु, मंत्री, पत्नी, पुत्र, मित्र वे ही हैं जो अपने आत्मीयजनों को मोक्षमार्ग में लगाते हैं किन्तु आजकल तो परिकर के लोग धर्म से हटाकर विषयों में पँâसाने में ही सच्ची हितैषिता समझते हैं।
पूर्वकाल में भी ऐसे लोग थे जो कि धर्म से छुटाकर पाप मार्ग में या विषयों में लगाकर अपना प्रेम व्यक्त करते थे किन्तु ऐसे लोग कम थे, धर्म में लगने की प्रेरणा देते हों और आज भी ऐसे लोग हैं जो अपने कुटुम्बियों को हितकर धर्म मार्ग में-त्याग मार्ग में लगाकर प्रसन्न होते हैं परन्तु ऐसे लोग विरले ही होते हैं।
अन्त में भगवान ऋषभदेव एवं चौबीसों तीर्थंकर हम सभी को शांति प्रदान करें, यही मंगलकामना है।
प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।
महापुराण प्रवचन-९
श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्सारभीमुषे।।
महापुराण ग्रंथ दो भागों में विभक्त है-आदिपुराण और उत्तरपुराण। आचार्यों ने भगवान को भी पुराण शब्द से सम्बोधित किया है-पायादपायात्पुरुष: पुराण: (विषापहारस्तोत्र)
महापुराण के प्रथम भाग आदि पुराण में भगवान ऋषभदेव अपने दशवें भवपूर्व के प्रकरण में राजा महाबल की पर्याय में धर्मध्यानपूर्वक मरण करके स्वर्ग में देव हुए। वहाँ पहुँचते ही उपपादशय्या पर जन्म लेते ही अन्य देवतागण उनके पास आकर कहते हैं-
प्रतीच्छ प्रथमं नाथ सज्जं मज्जनमङ्गलम्।
तत: पूजां जिनेन्द्राणां कुरु पुण्यानुबंधिनीम्।।२७३।।
ततो बलमिदं दैवं भवद्दैवबलार्जितम्।
समालोकय संघट्टै: समापतदितस्तत:।।२७४।।
इत: प्रेक्षस्व संपे्रक्ष्या: प्रेक्षागृहमुपागत:।
सलीलभ्रूलतोत्क्षेपं नटन्ती: सुरनत्र्तकी:।।२७५।।
मनोज्ञवेषभूषाश्च देवीर्देवाद्य मानय।
देवभूयत्वसंप्राप्तौ फलमेतावदेव हि।।२७६।।
अर्थात् हे नाथ, स्नान की सामग्री तैयार है इसलिए सबसे पहले मङ्गलमय स्नान कीजिए फिर पुण्य को बढ़ाने वाली जिनेन्द्रदेव की पूजा कीजिए। तदनन्तर आपके भाग्य से प्राप्त हुई तथा अपनी-अपनी टुकड़ियों के साथ जहाँ-तहाँ सब ओर से आने वाली देवों की सब सेना का अवलोकन कीजिए। इधर नाट्यशाला में आकर, लीलासहित भौंह नचाकर नृत्य करती हुई, दर्शनीय सुन्दर देव नर्तकियों को देखिए। हे देव, आज मनोहर वेष-भूषा से युक्त देवियों का सम्मान कीजिए क्योंकि निश्चय से देवपर्याय की प्राप्ति का यही तो फल है।
वहाँ ललितांगदेव ने जन्म लेकर स्नानादि करके पुन: अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करते हुए असीम प्रसन्नता का अनुभव किया।
यहाँ ज्ञातव्य है कि स्वर्ग में देवों की आयु सागर से बताई है तथा देवियों की आयु पल्य से कही है। एक देव के जीवन में अनेक देवियाँ उसके साथ रहती हैं। शास्त्रों मेें कहा है कि एक सौधर्मइन्द्र के जीवन में ४० नील प्रमाण शचि इन्द्राणियाँ मनुष्यभव धारण करके मोक्षप्राप्त कर लेती हैं, इतनी बड़ी आयु सौधर्म इन्द्र की होती है।
उस ललितांग देव के चार हजार देवियाँ थीं तथा चार महादेवियाँ थीं, जिसमें प्रधान स्वयंप्रभा नामकी देवी में ललितांग देव अतिशय अनुरक्त रहता था। जब ललितांग देव की आयु पृथक्त्वपल्य (३ पल्य से अधिक ९ पल्य से कम) शेष रही थी, तब उसे स्वयंप्रभा नाम की प्रियपत्नी प्राप्त हुई थी। भव्यात्माओं! इस स्वयंप्रभा देवी की कथानक भी बड़ा रोमांचक है-
इसी मध्यलोक में एक धातकीखण्ड नाम का महाद्वीप है जो अपनी शोभा से स्वर्गभूमि को तिरस्कृत करता है। इस द्वीप के पूर्व मेरु से पश्चिम दिशा की ओर स्थित विदेह क्षेत्र में एक गंधिला नाम का देश है जो कि अपनी शोभा से देवकुरु और उत्तरकुरु को भी जीत सकता है। उस देश में एक पाटली नाम का ग्राम है उसमें नागदत्त नाम का एक वैश्य रहता था। उसकी स्त्री का नाम सुमति था और उन दोनों के क्रम से नन्दन, नन्दिमित्र, नन्दिषेण, वरसेन और जयसेन ये पाँच पुत्र तथा मदनकान्ता और श्रीकान्ता नाम की दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुर्इं। पूर्व भव में इन्हीं के घर निर्नामा नाम की सबसे छोटी पुत्री हुई थी। किसी दिन उसने चारणचरित नामक मनोहर वन में अम्बरतिलक पर्वत पर विराजमान अवधिज्ञान से सहित तथा अनेक ऋद्धियों से भूषित पिहितास्रव नामक मुनिराज के दर्शन किये। दर्शन और नमस्कार कर उसने उनसे पूछा कि हे भगवन! मैं किस कर्म से इस दरिद्रकुल में उत्पन्न हुई हूँ। हे प्रभो, कृपा कर इसका कारण कहिए और मुझ दीन तथा अतिशय उद्विग्न नारी पर अनुग्रह कीजिए। इस प्रकार पूछे जाने पर वे मुनिराज मधुर वाणी से कहने लगे कि हे पुत्री, पूर्वभव में तू अपने कर्मोदय से इसी देश के पलालपर्वत नामक ग्राम में देविलग्राम नामक पटेल की सुमति स्त्री के उदर से धनश्री नाम से प्रसिद्ध पुत्री हुई थी। किसी दिन तूने पाठ करते हुए समाधिगुप्त मुनिराज के समीप मरे हुए कुत्ते का दुर्गन्धित कलेवर डाला था और अपने इस अज्ञानपूर्ण कार्य से खुश भी हुई थी। यह देखकर मुनिराज ने उस समय तुझे उपदेश दिया कि बालिके! तूने यह बहुत ही निंद्य कार्य किया है, भविष्य में उदय के मय यह तुझे दु:खदायी और कटुक फल देगा क्योंकि पूज्य पुरुषों का किया हुआ अपमान अन्य पर्याय में अधिक सन्ताप देता है। मुनिराज के ऐसा कहने पर धनश्री ने उसी समय उनके सामने जाकर अपना अपराध क्षमा कराया और कहा कि हे भगवन्! मैंने यह कार्य अज्ञानवश ही किया है इसलिए क्षमा कर दीजिए। उस उपशम भाव से क्षमा माँग लेने से तुझे कुछ थोड़ा सा पुण्य प्राप्त हुआ था। उसी से तू इस समय मनुष्ययोनि में इस अतिशय दरिद्र कुल में उत्पन्न हुई है। इसलिए हे कल्याणि! कल्याण करने वाले जिनेन्द्रगुणसम्पत्ति और श्रुतज्ञान इन दो व्रतों को क्रम से ग्रहण करो। विधिपूर्वक किया गया यह अनशन तप किये हुए कर्मों को बहुत शीघ्र नष्ट करने वाला माना गया है। तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृति के कारणभूत सोलह भावनाएँ, पाँच कल्याणक, आठ प्रातिहार्य तथा चौंतीस अतिशय इन तिरेसठ गुणों की प्राप्ति हेतु जो उपवास व्रत किया जाता है उसे जिनेन्द्रगुण-सम्पत्ति कहते हैं। इस व्रत में जिनेन्द्र भगवान के तिरसठ गुणों को लक्ष्य कर तिरसठ उपवास किये जाते हैं, जिनकी व्यवस्था इस प्रकार है-सोलहकारण भावनाओं की सोलह प्रतिपदा (एकम्), पाँच कल्याणकों की पाँच पंचमी, आठ प्रातिहार्यों की आठ अष्टमी और चौंतीस अतिशयों की बीस दशमी तथा चौदह चतुर्दशी इस प्रकार तिरेसठ उपवास होते हैं। पूर्वोक्त प्रकार से जिनेन्द्रगुणसम्पत्ति नामक व्रत में तिरेसठ उपवास करना चाहिए ऐसा गणधरादि मुनियों ने कहा है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान नामक व्रत भी विधिपूर्वक करो। अट्ठाईस, ग्यारह, दो, अठासी, एक, चौदह, पाँच, छह, दो और एक इस प्रकार मतिज्ञान आदि भेदों की एक सौ अठावन संख्या होती है। हे पुत्रि! तू भी विधिपूर्वक दोनों अनशन व्रतों को आचरण कर।
पुन: मुनिराज उस कन्या को समझाने लगे-
जो पुरुष वचन द्वारा मुनियों का अनादार करते हैं वे दूसरे भव में गूँगे होते हैं। जो मन से निरादर करते हैं उनकी मन से सम्बन्ध रखने वाली स्मरणशक्ति नष्ट हो जाती है और जो शरीर से तिरस्कार करते हैं उन्हें ऐसे कौन से दु:ख हैं जो प्राप्त नहीं होते हैं? इसलिए बुद्धिमान पुरुषों को तपस्वी मुनियों का कभी अनादर नहीं करना चाहिए। हे पुत्री! जो मनुष्य, क्षमारूपी धन को धारण करने वाले मुनियों की, मोहरूपी काष्ठ से उत्पन्न हुई, विरोधरूपी वायु से प्रेरित हुई, दुर्ववचनरूपी तिलगों से भरी हुई और क्षमारूपी भस्म से ढकी हुई क्रोधरूपी अग्नि को प्रज्वलित करते हैं उनके द्वारा दोनों लोकों में होने वाला अपना कौन सा हित नष्ट नहीं किया जाता? अर्थात् उसका बहुत बड़ा अहित होता है।
इस प्रकार वह मुनिराज के हितकारी वचन मानकर और जिनेन्द्रगुण सम्पत्ति तथा श्रुतज्ञान नामक दोनों व्रतों के विधिपूर्वक उपवास कर आयु के अंत में स्वर्ग गयी। वहाँ ललितांगदेव की स्वयंप्रभा नाम की मनोहर महादेवी हुई।
महानुभावों! सच्चे सन्तों की निंदा, उनके प्रति दुर्भाव आदि करने से सदैव दुर्गति ही प्राप्त होती है अत: उनके प्रति सदैव विनय भाव रखना चाहिए, क्योंकि वे तीर्थंकर की जिनमुद्रा का पालन करने वाले महापुरुष सबके अकारण बंधु होते हैं। वे चौबीसों तीर्थंकर भगवान हम सबके लिए मंगलकारी होवें। यही मंगलकामना है।
प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।
महापुराण प्रवचन-१०
श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
महानुभावों! आदिपुराण में आपने जाना है कि राजा महाबल स्वर्ग में ललितांग देव हुए और निर्नामा नाम की कन्या स्वयंप्रभा देवी हुई। दोनों वहाँ खूब सुखपूर्वक रह रहे थे। तभी ललितांगदेव की आयु के छह माह शेष रहने पर ललितांगदेव के वंâठ की माला मुरझाने लगी तो वह बहुत दु:खी रहने लगा। स्वर्ग में यद्यपि देवों की आँखों में आँसू नहीं आते, फिर भी विलापकर करके वह स्वयंप्रभा देवी के छूट जाने की बात सोचकर बड़ा कष्ट अनुभव कर रहा था। आदिपुराण में कहा है-
आजन्मनो यदेतेन निर्विष्टं सुखमामरम्।
तत्तदा पिण्डितं सर्वं दु:खभूयमिवागमत्।।७।।
तत्कण्ठमालिकाम्लानिवच: कल्पान्तामनशे।
शीघ्ररूपस्य लोकान्तमणेरिव विचेष्टितम्।।८।। (पर्व ६)
अर्थात् उस समय ऐसा मालूम होता था कि इस देव ने जन्म से लेकर आज तक जो देवों संबंधी सुख भोगे हैं वे सबके सब दु:ख बनकर ही आ गये हैं। जिस प्रकार शीघ्र गति वाला परमाणु एक ही समय में लोक के अन्त तक पहुँच जाता है उसी प्रकार ललिताङ्गदेव की कण्ठमाला की म्लानता का समाचार भी उस स्वर्ग के अन्त तक व्याप्त हो गया था।
तब वहाँ के मित्रदेवों ने उसे संसार की स्थिति समझाकर सम्बोधन प्रदान किया।
यथोदितस्य सूर्यस्य निश्चितोऽस्तमय: पुरा।
तथा पातोन्मुख: स्वर्गे जन्तोरभ्युदयोऽप्ययम्।।१९।।
तस्मात् मा स्म गम: शोवंâ कुयोन्यावत्र्तपातिनम्।
धर्मे मतिं निधत्स्वार्य धर्मो हि शरणं परम्।।२०।।
कारणान्न बिना कार्यमार्य जातुचिदीक्ष्यते।
पुण्यं च कारणं प्राहु: बुधा: स्वर्गापबर्गयो:।।२१।
तत्पुण्यसाधने जैन शासने मतिमादधत्।
विषादमुत्सृजानूनं येनानेना भविष्यसि।।२२।।
इति तद्वचनाद् धैर्यमवलम्ब्य स धर्मधी:।
मासाद्र्धं भुवने कृत्स्ने जिनवेश्मान्यपूजयत्।।२३।। (पर्व ६)
अर्थात् जिस प्रकार उदित हुए सूर्य का अस्त होना निश्चित है उसी प्रकार स्वर्ग में प्राप्त हुए जीवों के अभ्युदयों का पतन होना भी निश्चित है। इसलिए हे आर्य, कुयोनिरूपी आवर्त में गिराने वाले शोक को प्राप्त न होइए तथा धर्म में मन लगाइए, क्योंकि धर्म ही परम शरण है। हे आर्य, कारण के बिना कभी भी कोई कार्य नहीं होता है और चूॅूंकि पण्डितजन पुण्य को ही स्वर्ग तथा मोक्ष का कारण कहते हैं। इसलिए पुण्य के साधनभूत जैनधर्म में ही अपनी बुद्धि लगाकर खेद को छोड़िए, ऐसा करने से तुम निश्चय ही पापरहित हो जाओगे। इस प्रकार सामानिक देवों के कहने से ललिताङ्गदेव ने धैर्य का अवलम्बन किया, धर्म में बुद्धि लगाई और पन्द्रह दिन तक समस्त लोक के जिन-चैत्यालयों की पूजा की।
पुन: अच्युत स्वर्ग में भगवान की पूजा करके चैत्यवृक्ष के नीचे सल्लेखना ग्रहणकर महामंत्र का उच्चारण करते हुए बैठ गया। देखो! देवता भी सल्लेखना वैâसे धारण करते हैं? अर्थात् धर्मध्यानपूर्वक महामंत्रपूर्वक शरीर छोड़कर ललितांग देव जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र की पुष्कलावती देश में उत्पलखेटक नगर के राजा वङ्काबाहू की रानी वसुन्धरा के गर्भ से जन्म धारण कर लिया।
उधर स्वयंप्रभा देवी भी पतिवियोग से दु:खी होकर उसने ६ माह तक लगातार भगवान की पूजा की और वहाँ की आयु भोगकर वह भी मध्यलोक में पुष्कलावती विदेह क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वङ्कादन्त की रानी लक्ष्मीमती के गर्भ में आ गई।
महानुभावों! मेरे गुरु आचार्य वीरसागर जी कहा करते थे कि इस मनुष्य पर्याय में ऐसी धर्म की दृढ़ भावना बनाओ कि आगे देवपर्याय में भी वहाँ के दिव्य वैभव में लिप्तता न आने पावे और वहाँ भी धर्म की दृढ़ता बनी रहे, सल्लेखना का भाव उत्पन्न हो और आगे पुन: मनुष्यजीवन मिल सके।
यह जिनेन्द्र भक्ति हम सबको शांति प्रदान करे और चौबीसों तीर्थंकर भगवान जगत में शांति की स्थापना करें यही मंगलभावना है।
प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।