Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

महापुराण प्रवचन

March 3, 2023स्वाध्याय करेंIndu Jain
  • 1
  • 2
  • 3
  • 4
  • 5
  • 6
  • 7
  • 8
  • 9
  • 10
  • 11

महापुराण प्रवचन-१

(पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा)
प्रस्तुति-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामति 

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भर्त्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महापुराण ग्रंथ के इस मंगलाचरण में श्री जिनसेनाचार्य ने किसी का नाम लिए बिना गुणों की स्तुति की है। जो अंतरंग – बहिरंग लक्ष्मी से सहित एवं सम्पूर्ण ज्ञान से सहित हैं, धर्मचक्र के धारक हैं, तीन लोक के अधिपति हैं और पंचपरिवर्तनरूप संसार का भय नष्ट करने वाले हैं उनको-अर्हन्तदेव को हमारा नमस्कार है।
इस श्लोक के कई अर्थ हैं। सर्वप्रथम ‘‘श्रीमते’’ शब्द से प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की स्तुति है। श्री-लक्ष्मी अर्थात् जो सर्वश्रेष्ठ श्रीमान् हैं। जिनके अंतरंग-बहिरंग दोनों लक्ष्मी हैं उन भगवान ऋषभदेव एवं चौबीसों भगवान को मेरा नमस्कार है।
‘‘श्री’’ शब्द से पंचपरमेष्ठी को भी लिया है। श्रीमते-अरिहंत, ‘‘सकलज्ञानसाम्राज्यपदमीयुषे’’ पद-सिद्धपद का वाचक है, ‘‘धर्मचक्र भृते’’ अर्थात् दशधर्मरूपी चक्र को धारण करने वाले आचार्य परमेष्ठी, ‘‘भत्र्रे’’ पद से अज्ञान को दूर करने वाले उपाध्याय परमेष्ठी और ‘‘संसारभीमुषे’’ अर्थात् अपनी उत्कृष्ट मुनि चर्या के द्वारा संसार के भय को नष्ट करने वाले साधु परमेष्ठी को नमस्कार किया है।
आगे इसमें गौतम गणधर को नमन करके कहा है कि गणधर कैसे होते हैं-

सकलज्ञानसाम्राज्य-यौवराज्यपदे स्थितान्।
तोष्टवीमि गणाधीशानाप्त संज्ञानकण्ठिकान्।।१७।। (पर्व १)

अर्थात् जिसमें ६३ शलाका महापुरुषों का कथन है उसे महापुराण कहा है। पूर्व में हुए महापुरुषों का वर्णन करने से यह पुराण है तथा महापुरुषों के द्वारा उपदिष्ट होने से यह महापुराण है। द्वादशांग में जो १२वें अंग में प्रथमानुयोग है, उसी में यह महापुराण ग्रंथ आता है।

पुरातनं पुराणं स्यात् तन्महन्महदाश्रयात्।
महद्भिरूपदिष्टत्वात् महाश्रेयोऽनुशासनात्।।
ऋषिप्रणीतमार्षं स्यात् सूत्तं सूनृतशासनात्।
धर्मानुशासनाच्छेदं धर्मशास्त्रमिति स्मृतम्।।
इतिहास इतीष्टं तद् इति हासीदिति श्रुते:।
इतिवृत्तमथैतिह्र्यंमान्नार्थ चामनन्ति तत्।।

यह ग्रंथ अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित है, इसलिए पुराण कहलाता है। इसमें महापुरुषों का वर्णन किया गया है अथवा तीर्थंकर आदि महापुरुषों ने इसका उपदेश दिया है अथवा इसके पढ़ने से महान् कल्याणकारी पद की प्राप्ति होती है इसलिए इसे महापुराण कहते हैं।
यह ग्रंथ ऋषिप्रणीत होने के कारण आर्ष, सत्यार्थ का निरूपक होने से सूक्त तथा धर्म का प्ररूपक होने के कारण धर्मशास्त्र माना जाता है। ‘इति इह आसीत्’ यहाँ ऐसा हुआ-ऐसी अनेक कथाओं का इसमें निरूपण होने से ऋषिगण इसे ‘इतिहास’, ‘इतिवृत्त’ और ‘ऐतिह्य’ भी मानते हैं।
इसे आर्षग्रंथ कहते हैं, यह सूक्त है, धर्मशासन है, इसे इतिहास भी कहते हैं, आम्नाय भी कहते हैं। श्री जिनसेन स्वामी ने इसमें कहा है कि जैसे-छोटा बछड़ा बड़े भार को उठाने में असमर्थ होता है उसी प्रकार मैं भी तीर्थंकर भगवन्तों का चरित कहने में यद्यपि असमर्थ हूँ, फिर भी महापुराण नाम से इस ग्रंथ को कहने का साहस कर रहा हूँ।
धवला टीकाकार वीरसेनस्वामी एवं श्री जयसेनाचार्य को अपना गुरु मानकर इसमें श्री जिनसेनाचार्य ने उन्हें नमस्कार किया है। इसमें श्रोता और वक्ता का सुंदर लक्षण है तथा धर्मकथा के ७ अंग माने हैं-द्रव्य, क्षेत्र, तीर्थ, काल, भाव, महाफल और प्रकृत ये सात अंग कहलाते हैं। प्रत्येक ग्रंथ के आदि में इनका निरूपण अवश्य होना चाहिए। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह छह द्रव्य हैं, ऊध्र्व, मध्य और पाताल (अधोलोक) ये तीन लोक क्षेत्र हैं, जिनेन्द्रदेव का चरित्र ही तीर्थ है, भूत, भविष्यत् और वर्तमान यह तीन प्रकार का काल है, क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक ये दो भाव हैं, तत्त्वज्ञान का होना फल कहलाता है और वर्णनीय कथावस्तु को प्रकृत कहते हैं। इस प्रकार ऊपर कहे हुए सात अंग जिस कथा में पाये जायें, उसे सत्कथा कहते हैं। उस समीचीन कथा के नायक स्वरूप भगवान ऋषभदेव एवं चौबीसों तीर्थंकर भगवान विश्वशांति के लिए होवें, यही मंगलकामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-२

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

जिनसेन स्वामी ने कहा है-यह युग का आद्य कथानक बताने वाला इतिहास है।
सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेव ने जहाँ जन्म लेकर दीक्षा ली वह प्रयाग तीर्थ सर्वभाषामय तीर्थ का उद्भव स्थल है। भरत के प्रश्न पर वृषभसेन गणधर ने अनेक उत्तर बताये उसी परम्परा में भगवान महावीर के समवसरण में गौतम गणधर ने राजा श्रेणिक के प्रश्नों पर जो पुराण कहा है। उसी पुराण को महापुराण आचार्यदेव ने बताया गया है, उन्होंने कहा है-

श्रुतं मया श्रुतस्कन्धादायुष्मन्तो महाधिय:।
निबोधत पुराणं मे यथावत् कथयामि व:।।

वे कहते हैं-हे श्रेणिक! जैसे भरत के लिए ऋषभदेव ने कहा था, उसी प्रकार मैं आपके लिए कहता हूँ। श्रुतस्कंध के ४ अधिकार हैं-१. प्रथमानुयोग २. करणानुयोग ३. चरणानुयोग ४. द्रव्यानुयोग, जिसमें महापुरुषों का चरित्र हो उसे प्रथमानुयोग कहते हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भी कहा है-

प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं, चरितं पुराणमपि पुण्यम्।
बोधि समाधि निधानं, बोधति बोध: समीचीन:।।

देखो! इन महापुरुषों के चरित्र अपने लिए आदर्श हैं। ऋषभदेव, राम आदि का चरित्र सुनकर कोई रावण नहीं बनना चाहेगा। इसमें चारों अनुयोग भी गर्भित समझना चाहिए, क्योंकि इसमें सभी तरह के प्रकरण शामिल हैं।
आचार्यश्री ने स्वयं एक स्थान पर कहा है-

पुराणस्यास्य वक्तव्यं, कृत्स्नं वाङ्मयमिष्यते।
यतो नास्माद्बहिर्भूतमस्ति, वस्तु वचोऽपि वा।।११५।। (पर्व २)

अर्थात् पुराण से बहिर्भूत कोई भी विषय नहीं है। जैसे समुद्र से सारे रत्न उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार पुराण से सभी कथानक आदि उद्भूत होते हैं। बंध-मोक्ष आदि सबका वर्णन इसमें आ जाता है। इन सबको पढ़-पढ़कर अपनी आत्मा को महान बनाने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
तीर्थंकरों के आश्रित २४ पुराण हैं इन सबका संग्रह महापुराण है। इसे आदिपुराण और उत्तरपुराण दो भागों में विभक्त किया है। आदिपुराण में ऋषभदेव-भरत-बाहुबली आदि का चरित्र है एवं उत्तरपुराण में अजितनाथ से महावीर तक तेईस तीर्थंकरों का चरित्र है।
इसके सुनने से भी महान पुण्य संचित होता है अत: आत्मकल्याणेच्छु को इसका अध्यन, मनन, ध्यान करना चाहिए इसके सुनने से अशुभ स्वप्न नहीं आते हैं, कर्मनिर्जरा होती है। इसलिए सभी भव्यात्माओं को कम से कम एक बार महापुराण का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।
चौबीसों तीर्थंकर भगवान विश्व में शांति की स्थापना करें तथा इनकी भक्ति-पूजा जन-जन के लिए कल्याणकारी होवे, यही मंगलकामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञानभास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शान्तिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-३

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

भव्यात्माओं! महापुराण द्वादशांग का ही अंश है, इसका सीधा संबंध भगवान महावीर की वाणी से है। इसमें प्रारंभिक भूमिका के पश्चात् सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेव का दश भवों का वर्णन है, वे ऋषभदेव कैसे बने? इस बात को उनके दश अवतारों से जानना है।
दिव्याष्टगुणमूर्तिस्त्वं, नवकेवललब्धिक:।दशावतारनिर्धार्यो, मां पाहि परमेश्वर।।

अर्थात् ऋषभदेव के दश अवतार माने हैं। जैसा कि कहा भी है-
महाबल नमस्तुभ्यं, ललितांगाय ते नम:। श्रीमते बज्रजंघाय, धर्मतीर्थप्रवर्तिने।।१।।
द्रव्यं क्षेत्रं तथा तीर्थं कालो भाव: फलं महत्। प्रकृतं चेत्यमून्याहु: सप्ताङ्गानि कथामुखे।।१२२।।
द्रव्यं जीवादि षोढा स्यात्क्षेत्रं त्रिभुवनस्थिति:। जिनेन्द्रचरितं तीर्थं कालस्त्रेधा प्रकीर्तित:।।१२३।।
प्रकृतं स्यात् कथावस्तु फलं तत्त्वावबोधनम्। भाव: क्षयोपशमजस्तस्य स्यात्क्षायिकोऽथवा।।१२४।।
अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, तीर्थ, काल, भाव, महाफल और प्रकृत ये सात अंग कहलाते हैं। ग्रंथ के आदि में इनका निरूपण अवश्य होना चाहिए। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह छह द्रव्य हैं, ऊध्र्व, मध्य और पाताल ये तीन लोक क्षेत्र हैं, जिनेन्द्रदेव का चरित्र ही तीर्थ है, भूत, भविष्यत् और वर्तमान यह तीन प्रकार का काल है, क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक ये दो भाव हैं, तत्त्वज्ञान का होना फल कहलाता है और वर्णनीय कथावस्तु को प्रकृत कहते हैं। इस प्रकार ऊपर कहे हुए सात अंग जिस कथा में पाये जायें उसे सत्कथा कहते हैं।
इस प्रकार दश अवतारों के नाम लेकर जिनसेनाचार्य ने भगवान ऋषभदेव को नमस्कार किया है। इन्हीं में से प्रथम महाबल का वर्णन यहाँ किया जा रहा है-मध्यलोक के प्रथम जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में गंधिला देश में विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी में अलकापुरी नामक नगरी है। वहाँ राजा महाबल राज्य करते थे, उनके चार मंत्री थे-महामति, संभिन्नमति, शतमति और स्वयंबुद्ध।
ये सभी विद्याधर थे अत: अपनी विद्या के बल से यत्र-तत्र विचरण करते रहते थे और राजा महाबल को राज्य संचालन में यथायोग्य सलाह आदि देते थे।
एक दिन राजसभा में राजा महाबल का जन्मदिन मनाया जा रहा था , विद्याधरों के राजा महाबल सिंहासन पर बैठे हुए थे। उस समय वे चारों तरफ में बैठे हुए मंत्री, सेनापति, पुरोहित सेठ तथा विद्याधर आदि जनों से घिरे हुए, किसी को स्थान, मान, दान देकर, किसी के साथ हँसकर, किसी से संभाषण आदि कर सभी को संतुष्ट कर रहे थे। उस समय राजा को प्रसन्नचित देखकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने कहा-हे राजन् ! जो आपको यह विद्याधरों की लक्ष्मी प्राप्त हुई है, उसे केवल पुण्य का ही फल समझिये। ऐसा कहते हुए मंत्री ने अहिंसामयी सच्चे धर्म का विस्तृत विवेचन किया।
यह सुनकर महामति नाम के धर्मविद्वेषी मिथ्यादृष्टि मंत्री ने कहा कि हे राजन्! इस जगत् में आत्मा, धर्म और परलोक नाम की कोई चीज नहीं है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतों के मिलने से ही चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है। जन्म लेने से पहले और मरने के पश्चात् आत्मा नाम की कोई चीज नहीं है। इसलिए आत्मा की और परलोक की चिंता करना व्यर्थ है। जो लोग वर्तमान सुख को छोड़कर परलोक संबंधी सुख चाहते हैं, वे दोनों लोकों के सुख से च्युत होकर व्यर्थ ही क्लेश उठाते हैं।
पुन: संभिन्नमति मंत्री बोलने लगा कि, हे राजन! यह सारा जगत् एक विज्ञान मात्र है क्योंकि यह क्षण भंगुर हैं। जो-जो क्षण भंगुर होते हैं वे सब ज्ञान के ही विकार हैं। ज्ञान से पृथक् चेतन-अचेतन आदि कोई भी पदार्थ नहीं है। यदि पदार्थों का अस्तित्व मानो तो वे नित्य होना चाहिए परन्तु संसार में कोई भी पदार्थ नित्य नहीं दिखते हैं, सब एक-एक क्षण में ही नष्ट हो जाते हैंं अतः परलोक में सुख प्राप्ति हेतु धर्मकार्य का अनुष्ठान करना बिल्कुल ही व्यर्थ है।
महानुभाव! आज भी आप लोग अपने बच्चों के जन्मदिन मनाते हैं। किन्तु पहले लोगों को अपना जन्मदिन पता ही नहीं होता था। मुझे ही सन् १९५२ से पूर्व तक अपना जन्मदिन ज्ञात नहीं था, जब मैं ब्रह्मचर्यव्रत ले रही थी तब माँ मोहिनी ने बताया कि आज शरदपूर्णिमा है और तुम्हारा जन्मदिन है। तब मैंने अपने जन्म को सार्थक माना था। मैं सबको कहा करती हूँ कि जन्मदिवस पर केक काटना, मोमबत्ती बुझाना आदि अशुभ है यह भारतीय संस्कृति नहीं है। अत: लड्डू खाएँ, मिष्ठान बांटे, दीपक जलाकर भगवान की आरती करें, भगवान को फल चढ़ाएँ यही अपनी भारतीय संस्कृति है उसका पालन करें, यही प्रेरणा है। अपने जन्म से सृष्टि का कल्याण करने वाले भगवान ऋषभदेव एवं चौबीसों तीर्थंकर भगवान जगत् में शांति करें, यही मंगलकामना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-४

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

भगवान ऋषभदेव के पूर्व भवों में दशावतारों के मध्य राजा महाबल के प्रथम अवतार में राजा के जन्मदिवस अवसर पर चारों मंत्री-अपने-अपने मतों का प्रदर्शन कर रहे थे। उसमें तीसरे मंत्री संभिन्नमति ने कहा कि सारा जगत इन्द्रजाल के सदृश है इसके बाद शतमति मंत्री अपनी प्रशंसा करता हुआ नैरात्म्यवाद को पुष्ट करने लगा।उसने कहा कि यह समस्त जगत् शून्यरूप हैं, इसमें नर, पशु, पक्षी, घट, पट आदि जो भी चेतन-अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं वे सर्व मिथ्या हैं। भ्रांति से ही वैसा प्रतिभास होता है जैसे कि इंद्रजाल और स्वप्न में दिखने वाले पदार्थ मिथ्या ही हैं, भ्रांति रूप ही हैं। आत्मा-परमात्मा तथा परलोक की कल्पना भी मिथ्या ही है। अतः जो पुरुष परलोक के लिए तपश्चरण आदि अनुष्ठान करते हैं, वे यथार्थ ज्ञान से रहित हैं।
इन तीनों मंत्रियों के सिद्धान्तों को सुनकर स्वयंबुद्ध मंत्री को बड़ी चिंता हो गई कि कहीं हमारा राजा जैनशासन से विचलित न हो जावे इसलिए उसने अपने सम्यग्ज्ञान के बल से उनका बलपूर्वक खंडन करके स्याद्वाद सिद्धान्त को सत्य सिद्ध कर दिया तथा राजा महाबल के पूर्वजों का पुण्य चरित्र भी सुनाते हुए धर्म और धर्म के फल का महत्व बतलाया। इस प्रकार स्वयंबुद्ध मंत्री के उदार और गंभीर वचनों से समस्त सभा प्रसन्न हो गई।
पुन: स्वयंबुद्ध ने कहा कि राजन्! संसार में स्याद्वादमयी अनेकांत शासन ही सर्वोत्तम है।
उसने आगे कहा-पूर्व में कभी यहाँ राजा अरविंद हुए हैं, उनके दो पुत्र थे-हरिश्चन्द्र और कुरविन्द।
राजा अरविंद को एकबार दाहज्वर हो गया। अनेक उपचारों के बाद भी शांति नहीं मिली। उस राजा अरविंद को कुअवधि ज्ञान था अत: उसकी बुद्धि उल्टी हो गई। एक दिन राजा के शयनगृह में छिपकली की पूँछ कटने से खून की बूंद उस पर टपकी और उसकी कुछ दाह शांत हुई। पाप के उदय से वह बहुत ही संतुष्ट हुआ और विचारने लगा कि आज मैंने दैवयोग से बड़ी अच्छी औषधि पा ली है। उसने कुरुविन्द नाम के अपने दूसरे पुत्र को बुलाकर कहा कि हे पुत्र, मेरे लिए खून से भरी हुई एक बावड़ी बनवा दो। राजा अरविंद को विभंगावधि ज्ञान था इसलिए विचारकर फिर बोला-इसी समीपवर्ती वन में अनेक प्रकार के मृग रहते हैं उन्हीं से तू अपना काम कर अर्थात् उन्हें मारकर उनके खून से बावड़ी भर दे। वह कुरुविन्द पाप से डरता रहता था इसलिए पिता के ऐसे वचन सुनकर तथा कुछ विचारकर पापमय कार्य करने के लिए असमर्थ होता हुआ क्षण भर चुपचाप खड़ा रहा। तत्पश्चात् वन में गया वहाँ किन्हीं अवधिज्ञानी मुनि से जब उसे मालू हुआ कि हमारे पिता की मृत्यु अत्यन्त निकट है तथा उन्होंने नरकायु का बंध कर लिया है तब वह उस पापकर्म के करने से रुक गया। परंतु पिता के वचन भी उल्लंघन करने योग्य नहीं है, ऐसा मानकर उसने मंत्रियों की सलाह से कृत्रिम रुधिर अर्थात् लाख के रंग से भरी हुई एक बावड़ी बनवाई। पापकार्य करने में अतिशय चतुर राजा अरविंद ने जब बावड़ी तैयार होने का समाचार सुना तब वह बहुत ही हर्षित हुआ। जैसे कोई दरिद्र पुरुष पहले कभी प्राप्त नहीं हुए निधान को देखकर हर्षित होता है। जिस प्रकार पानी-नारकी जीव वैतरणी नदी को बहुत अच्छी मानता है उसी प्रकार वह पापी अरविंद राजा भी लाख के लाल रंग से धोखा खाकर अर्थात् सचमुच का रुधिर समझकर उस बावड़ी को बहुत अच्छी मान रहा था। जब वह उस बावड़ी के पास लाया गया तो आते ही उसके बीच में जाकर इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगा। परन्तु कुल्ला करते ही उसे मालूम हो गया कि यह कृत्रिम रुधिर है। यह जानकर वह बुद्धिरहित राजा अरविंद रुष्ट होकर पुत्र को मारने के लिए दौड़ा परन्तु बीच में इस तरह गिरा कि अपनी ही तलवार से उसका हृदय विदीर्ण हो गया तथा मर गया।
कभी-कभी आयुकर्म का बंध हो जाने पर जीव के परिणाम अच्छे-बुरे हो जाते हैं। भव्यात्माओं! आपकी आयु भी कब बंध जावे, कुछ ज्ञात नहीं है अत: सदैव अपने परिणाम अच्छे रखना चाहिए कि यदि आयु की त्रिभागी पड़े तो अच्छी आयु का बंध होवे।
राजा अरविंद को मरते वक्त हिंसानंदी रौद्रध्यान उत्पन्न हो गया था इसीलिए वे मरकर नरक चले गये।
यहाँ ध्यान रखना है कि रौद्रध्यान के चार भेद हैं-हिंसानंदि, मृषानंदि, चौर्यानंदि और परिग्रहानंदि इनमें से कोई भी रौद्रध्यान किसी के लिए हितकारी नहीं हो सकता है अत: आर्त-रौद्र ध्यानों को छोड़कर धर्मध्यान का ही आश्रय लेना चाहिए। धर्मध्यान के साथ शुक्ल ध्यान में स्थित होकर जिन भगवन्तों ने आत्मकल्याण के साथ-साथ जगत के कल्याण का भी उपदेश दिया है ऐसे वे चौबीसों भगवान विश्वशांति की स्थापना में निमित्त बने, यही मंगलकामना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-५

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह की अलका नगरी में राजा महाबल के जन्मदिवस की राजसभा में स्वयंबुद्ध मंत्री आगे कहते हैं कि राजन्! आप के इसी राजवंश में कभी एक राजा दण्ड रहते थे वे अपने पुत्र मणिमाली को राज्य देकर अंत:पुर में रहने लगे। अंत:पुर में रहते हुए उनका धन-सम्पत्ति-स्त्री आदि में राग अत्यधिक बढ़ गया और वे उसी आर्तध्यान से मरकर अपने ही भण्डार में अजगर सर्प हो गये। कुछ दिनों में उस अजगर को जातिस्मरण हो गया कि मैं तो इस भण्डार का स्वामी था। अपनी कुबुद्धि से वहाँ भी वह अपने पुत्र मणिमाली के अतिरिक्त किसी को भण्डार के पास आने नहीं देता था।
किसी समय राजा मणिमाली ने एक निमित्तज्ञानीमुनि से अजगर के बारे में प्रश्न किया कि मेरे भगवन्! मेरे भण्डार में एक अजगर है वह अतिरिक्त किसी को भण्डार में जाने नहीं देता है। मुनि ने कहा-वत्स वह और कोई नहीं, तुम्हारे पिता का जीव है, जो कि आर्तध्यान से मरकर अजगर हुआ है। मणिमाली वापस आकर अजगर को सम्बोधित करते हैं-हे भव्यात्मन्! तुम विषय भोगों में लिप्त होकर आर्तध्यान के कारण इस योनि को प्राप्त हुए हो, अब इस धन का मोह छोड़कर धर्म का उपदेश ग्रहण करो। पुत्र की बात और धर्मोपदेश सुनकर अजगर ने सारा मोह त्याग दिया और महामंत्र का स्मरण करते-करते अपनी आयु पूर्ण कर धर्मध्यान के प्रभाव से स्वर्ग में देव हो गया।
देखो! आर्तध्यान से राजा भी मरकर तिर्यंचगति में चला गया और धर्मध्यान से अजगर जैसा हिंसक प्राणी भी देवता बन गया। यह ध्यान की महिमा है अत: धर्मध्यान में सदैव अपना उपयोग रखना चाहिए।
देवयोनि में अवधिज्ञान से पूर्व भव की बात जानकर देव अपने पुत्र के पास आया और उसके उपकार का स्मरण करते हुए उसने उसे एक दिव्यहार प्रदान किया।
स्वयंबुद्ध मंत्री राजा महाबल से कहते हैं कि राजन्! यह वही दिव्य हार आपके वंâठ में आज सुशोभित हो रहा है। राजा यह सुनकर अत्यंत गौरवान्वित हुआ। पुनश्च मंत्री ने एक कथा और सुनाई-राजन्! आपके बाबा शतबल सदैव धर्मध्यान में तत्पर रहते थे। एक बार उन्होंने अपने पुत्र अर्थात् आपके पिता अतिबल को राज्य सौंपकर धर्मध्यानपूर्वक शरीर छोड़ा और स्वर्ग में देव हो गये। देखो राजन्! आपको स्मरण होगा कि एक बार जब आप मेरे साथ नन्दनवन में क्रीड़ा करने गये थे तब आपके बाबा का जीव वह देव हम लोगों को मिला था और बताया था कि मैं आपका पितामह मरकर देव हुआ हूँ तथा उन्होंने अनेक प्रकार से धर्म का उपदेश भी सुनाया था।
राजन्! इन उदाहरणों से समझना है कि आर्तध्यान रौद्रध्यान से मरकर प्राणी नरक-तिर्यंचयोनि को प्राप्त कराता है और धर्मध्यान स्वर्ग सुख के साथ परम्परा से मोक्ष प्राप्त करता है अत: आपको भी धर्मध्यान का ही आश्रय लेकर अपने मनुष्य जन्म को सार्थक करना है। भव्यात्माओं! मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करने वाले चौबीसों तीर्थंकर भगवान विश्व में शांति की स्थापना करें, यही मंगलकामना है-

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-६

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! महापुराण ग्रंथ में सम्पूर्ण द्वादशांग का अंश समाविष्ट है। एक बार आप सभी इसका स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।
विदेहक्षेत्र की अलका नगरी में राजा महाबल के राजदरबार में जन्मदिवस की संगोष्ठी चल रही है। स्वयंबुद्ध मंत्री द्वारा राजा को अनेक धर्मोपदेश के माध्यम से सम्बोधन प्रदान किया जा रहा है। मैं समझती हूँ कि यदि इसी प्रकार की संगोष्ठियाँ सबके जन्मदिनों पर आयोजित की जावें तो उनके जन्मदिन तो सार्थक हो ही सकते हैं, साथ ही जन्मदिन की बधाई देने वालों को भी धर्म शिक्षा प्राप्त होगी।
मंत्री स्वयंबुद्ध राजा महाबल को एक कथा और सुनाते हैं-राजन्! आपकी वंश परम्परा में राजा सहस्रबल (आपके बाबा के पिता) ने अपने पुत्र शतबल को राज्य देकर मुनि दीक्षा ले ली और वन-वन में विचरण करने लगे थे। कहा भी है-‘‘विचित्रं जैनीदीक्षा हि स्वैराचार विरोधिनी।’’ इस युग में भी आचार्य शांतिसागर जैसे मुनिराज ने वैसी ही दीक्षा लेकर मुनि परम्परा को जीवंत किया है। उनके प्रथम शिष्य आचार्य वीरसागर जी से मैंने दीक्षा ली, यह मेरा महान पुण्य है। तो उस कथानक में आया है कि वे महामुनि सहस्रबल दीक्षित अवस्था में ध्यानमुद्रा में लीन थे, क्रम-क्रम से शुक्लध्यान में पहुँचकर वे केवली भगवान बन गये पुन: गंधकुटी में विराजमान होकर असंख्य भव्यों को दिव्य उपदेश दिया और आगे मोक्ष प्राप्त कर लिया। ऐसे सिद्ध भगवान सहस्रबल को मेरा नमस्कार हो। राजा महाबल यह सब सुनकर प्रसन्न हुए और धर्म में अपनी श्रद्धा को अत्यधिक दृढ़ किया। एक दिन स्वयंबुद्ध मंत्री सुमेरुपर्वत की वंदना करने गये। वहाँ उसने दो मुनियों से अपने राजा महाबल के बारे में पूछा और आकर राजा को सम्बोधित किया।
देखो! संस्कार की बात कि मंत्री अपने बारे में न पूछकर राजा के बारे में पूछता है। यह उनका राजा के प्रति प्रगाढ़ धर्मस्नेह का ही परिचायक था। मुझे भी इस प्रसंग में एक बात याद आती है कि सन् १९६८ में प्रतापगढ़ में हमारा चातुर्मास था वहाँ हमारे गृहस्थावस्था के माता-पिता दर्शन के लिए आये थे। वे कभी मेरे पास आकर घर की कोई बात करते तो मैं कुछ भी बात नहीं करती तो उन्हें बुरा लगता। पुन: एक दिन मैंने उनसे कहा कि तुम रवीन्द्र को मुझे दे दो मैं इसे पढ़ाकर योग्य बनाऊँगी। पुत्री कामनी भी वहाँ आई थी उसके लिए भी मैंने कहा तो उन्होंने घर जाकर कहा कि देखो! अपने स्वार्थवश तो माताजी मुझसे बात करने लगीं अन्यथा मेरी कोई बात सुनती भी नहीं थीं तो माँ ने उन्हें कहा कि वे घर छोड़ चुकी हैं इसलिए आपकी बात से उन्हें कोई सरोकार नहीं रहता है और मोक्षमार्ग में भव्यों को लगाना उनका कर्तव्य है। इसीलिए उन्होंने अपनी बात कही है। आज वे रवीन्द्र कुमार खूब धर्मप्रचार आदि में लगे हैं। मैं चिंतन करती हूँ कि धर्ममार्ग में लगने की प्रेरणा देना तो वास्तव में हितकर है यही हमारे तीर्थंकर आदि पूर्वजों ने किया है। वे चौबीसों तीर्थंकर भगवान जगत को शांति प्रदान करें, यही भावना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-७

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भगवान ऋषभदेव के दशवें भव पूर्व का प्रकरण चल रहा है कि राजा महाबल के मंत्री स्वयंबुद्ध एक बार सुमेरुपर्वत की वंदना करने गये। वहां वंदना करते हुए सौमनसवन के पूर्व दिशा के चैत्यालय में बैठ गये। अकस्मात् ही पूर्व विदेह से युगमंधर भगवान् के समवसरण रूपी सरोवर के मुख्य हंस स्वरूप आकाश में चलने वाले आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो मुनिराज वहां आ गये। बुद्धिमान् मंत्री ने उनकी पूजा-स्तुति आदि करके उपदेश श्रवण किया। अनंतर प्रश्न किया कि हे भगवन् ! हमारा महाबल स्वामी भव्य है या अभव्य?
आदित्यगति मुनिराज ने कहा-हे मंत्रिन् ! तुम्हारा स्वामी भव्य ही है। वह इससे दशवें भव में भरत क्षेत्र का प्रथम ‘तीर्थंकर’ होगा। पश्चिम विदेह के गंधिला देश में सिंहपुर नगर है। वहां के राजा श्रीषेण के जयवर्मा और श्रीवर्मा नाम के दो पुत्र थे। उनमें से छोटा श्रीवर्मा माता-पिता और सभी को अतिशय प्रिय था, अतः राजा ने उसे ही राज्य भार सौंप दिया और बड़े पुत्र की उपेक्षा कर दी। इस घटना से जयवर्मा ने पूर्वकृत पापों की निंदा करते हुए विरक्त होकर स्वयंप्रभ गुरु से जिन-दीक्षा ले ली। और तपस्या करते-करते एक दिन उन्होंने आकाश मार्ग से जाते हुए महीधर विद्याधर का वैभव देखकर विद्याधर के भोगों का निदान कर लिया अर्थात् ‘ये विद्याधर के भोग मुझे अगले भव में प्राप्त हो’ ऐसा भाव कर लिया। उसी समय बामी से निकलकर एक भयंकर सर्प ने उसे डस लिया। वही मुनिराज मरकर के आपके राजा महाबल हुए हैं। पूर्व में भोगों की इच्छा से आज भी उसे भोगों में आसक्ति अधिक है किन्तु अभी आपके वचनों से वह शीघ्र ही विरक्त होगा। आज रात को उसने स्वप्न देखा है कि तीन मंत्रियों ने उसे जबरदस्ती कीचड़ में गिरा दिया और तुमने मंत्रियों की भत्र्सना करके राजा को सिंहासन पर बिठा कर अभिषेक किया है। अनंतर दूसरे स्वप्न में अग्नि की एक ज्वाला को क्षीण होते हुए देखा है। अभी वह तुम्हारी ही प्रतीक्षा में बैठा है, अतः तुम शीघ्र ही जाकर उसके पूछने के पहले ही स्वप्नों को फल सहित बतलाओ।
मंत्री स्वयंबुद्ध ने तत्क्षण ही जाकर राजा से कुशल क्षेम पूछी और राजा द्वारा अपने स्वप्न बताते ही उसने राजा को बताया कि प्रथम स्वप्न का फल भविष्य में विभूतिसूचक है एवं द्वितीय स्वप्न का फल यह है कि आपकी आयु एक माह की शेष रह गई है। अत: हे राजन्! अब शीघ्र ही धर्म को धारण करो और बहुत कुछ विस्तृतरूप में धर्म का उपदेश दिया। राजा महाबल ने विरक्त चित्त होकर अपने पुत्र अतिबल को राज्य देकर घर के उद्यान के जिन मंदिर में आठ दिन तक आष्टाह्निक महायज्ञ पूजन किया। अनन्तर सिद्धवूâट चैत्यालय में जाकर गुरु की साक्षीपूर्वक जीवन-पर्यन्त के लिए चतुराहार का त्याग करके विधिवत् सल्लेखना ग्रहण कर ली। उन्होंने उसी स्वयंबुद्ध मंत्री को सल्लेखना कराने में निर्यापकाचार्य बनाकर सन्मान किया। शरीर से निर्मम हो बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर वह मुनि के सदृश प्रायोपगमन संन्यास में स्थिर हो गया। इस सन्यास में स्वकृत-परकृत उपकार की अपेक्षा नहीं रहती है।
जिस विदेह क्षेत्र की नगरी का मैंने यहाँ उल्लेख किया है वह तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथों में तो है ही, साथ ही हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप और तेरहद्वीप की रचना में भी उनका स्वरूप दर्शाया गया है। देखो! राजा महाबल जैसे भव्य प्राणी ने सल्लेखना लेने में अपने निर्यापकाचार्य के रूप में अपने मंत्री स्वयंबुद्ध को नियुक्त किया, क्योंकि वे जानते थे कि यही मंत्री मेरा हितैषी है।
आज भी साधु और श्रावक दोनों ही सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण करते देखे जाते हैं। मैंने क्षुल्लिका अवस्था में साक्षात् आचार्य शांतिसागर महाराज की सल्लेखना सन् १९५५ में वुंâथलगिरी जाकर देखी है। आचार्यश्री ने मुझे स्वयं कहा था कि मैंने अपने जीवन में ३६ बार भगवती आराधना का स्वाध्याय किया है। उन्होंने मुझे भी प्रेरणा दी थी कि गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, परमात्मप्रकाश, मूलाचार, भगवती आराधना जरूर पढ़ना इसलिए मैंने अनेकानेक बार इन ग्रंथों को पढ़ा है। यहाँ ध्यान रखना है कि सल्लेखना करना आत्मघात नहीं है, क्योंकि इसमें काय और कषाय दोनों को क्षीण किया जाता है, जबकि आत्मघात-आत्महत्या में कषाय और पापरूप परिणामों की विशेषता देखी जाती है, जो कि भव-भव में दु:खकारी है।
अत: अपने आत्महित की दृष्टि से जिनेन्द्र भगवान के द्वारा उपदिष्ट मार्ग को ही ग्रहण करना चाहिए। चौबीसों तीर्थंकर भगवान हम सभी के लिए तथा विश्व की शांति के लिए निमित्त होवें, यही मंगलकामना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-८

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भगवान ऋषभदेव के दशवें भवपूर्व राजा महाबल ने स्वयंबुद्ध मंत्री के सम्बोधन से जिनमंदिर में जाकर सल्लेखना ग्रहण कर ली थी और धर्मध्यानपूर्वक उन्होंने घोर तपश्चरण करना प्रारंभ कर दिया था।
कुछ लोग सल्लेखना को आत्मघात कहते हैं। सल्लेखना का लक्षण रत्नकरण्ड श्रावकाचार में श्री समन्तभद्राचार्य ने कहा है-
उपसर्गे दुर्भिक्षे, जरसि रुजायां च नि:प्रतीकारे।
धर्माय तनुविमोचनमाहु:सल्लेखनामार्या:।।
अर्थात् उपसर्ग-संकट आ जावे, ऐसा बुढ़ापा आ जावे कि अब शरीर पूर्ण जर्जर हो गया है, कोई असाध्य रोग हो जावे, जिसका कोई इलाज नहीं है तो धर्मभावना से सल्लेखना ग्रहण करके शरीर छोड़ना चाहिए।
सन् १९८० में बाराबंकी की एक महिला को जलोदर रोग हो गया, दिल्ली में भी डॉक्टर ने जवाब दे दिया तब उसके पति-पुत्र आदि मेरे पास ले आये। मैं उस समय ग्रीनपार्वâ-दिल्ली के मंदिर में धर्मप्रवचन कर रही थी। अकस्मात् उनके आने पर उनकी समाधि की भावना देखकर मैंने विधिवत् उनकी सल्लेखना कराई। ऐसे उदाहरण सभी गृहस्थियों के लिए ग्रहण करने योग्य है क्योंकि जीवन के अंत समय में रो-धोकर प्राण छोड़ने से दुर्गति प्राप्त होती है और मन शांत करके आत्मा-शरीर की भेदभिन्नता का चिंतन करके गुरुओं के निकट अथवा घर में परिग्रह आदि का त्याग करके मरण करने से स्वर्ग सुख एवं परम्परा से मोक्ष सुख मिलता है।
शास्त्रीय भाषा में सल्लेखना के तीन भेद कहे हैं-भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनीमरण और प्रायोपगमन। वर्तमान में भक्त प्रत्याख्यान नामक सल्लेखना का नियम ग्रहण किया जा सकता है। मुख्यरूप से कषाय और काय को कृश करते हुए महामंत्र आदि श्रवण करते हुए शरीर छोड़ना सल्लेखना है। जबकि आत्मघात कषाय एवं व्रूâर परिणामों से होता है जो आज लोग विष आदि अनेक प्रकार से करके इस लोक और परलोक दोनों को बिगाड़ लेते हैं। कई लोग कर्ज आदि से दु:खी होकर आत्महत्या का भाव बना लेते हैं, किन्तु भैय्या! ऐसा कभी मत सोचना, आत्मघात करने से भव-भव में नरक आदि गतियों के दु:ख भोगना पड़ता है। ऐसी स्थितियों में आप धर्म का, धर्मगुरु का एवं धर्मग्रंथों के स्वाध्याय का, पूजा-पाठ का, मंत्र जाप्य का सहारा लें, उसी से संकट कटेंगे।
सल्लेखनापूर्वक मरण करने वाले अधिक से अधिक ७-८ भव में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। इसीलिए सिद्धभक्ति आदि प्रत्येक भक्तियों की अंचलिका में कहा है-दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिनगुणसम्पत्ति होउ मज्झं। अर्थात् मुझे क्रम-क्रम से जिनेन्द्रगुणों की सम्पत्ति प्राप्त हो जावे, यही भावना भाई जाती है।
दिल्ली के एक श्रावक हर्रोमल (हरिश्चंद्र जैन-कम्मो जी के पिता जी) मुझे कई बार कहते थे कि माताजी! मेरे अंतिम समय में आप मुझे संबोधन अवश्य देना, सो जब प्रसंग आया तो मैंने सन् १९८१ में रात्रि में भी समाचार मिलने पर ब्रह्मचारिणी माधुरी को (मुझे-आर्यिका चंदनामती को) भेजा। इसी प्रकार सन् १९६९ में मेरे गृहस्थावस्था के पिता ने अपने अंतिम समय में पूर्ण धर्मध्यानपूर्वक मुझ आर्यिका का स्मरण किया, तो वहाँ एक श्वेत वस्त्र वाली महिला को उपस्थित किया गया, मेरी पुरानी पिच्छिका उन्हें स्पर्श कराई गई………..आदि।
देखो! ऐसी सुन्दर सल्लेखना करके राजा महाबल ने प्राण छोड़े। कठिन तपश्चर्या करते हुए महाबल विद्याधर शरीर को अतिशय क्षीण करके पंच परमेष्ठियों का स्मरण करते हुए अत्यन्त निर्मल परिणामों को प्राप्त हो गया। मांस, रक्त के सूख जाने पर महाबल शरीर को छोड़ कर ऐशान स्वर्ग में श्रीप्रभ विमान में ‘ललितांग’ नामक उत्तम देव हो गया। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से धर्म की शिक्षा देने वाले मंत्री ने अन्त तक अपने मंत्रीपने का कार्य किया।
वास्तव में हितैषी बन्धु, मंत्री, पत्नी, पुत्र, मित्र वे ही हैं जो अपने आत्मीयजनों को मोक्षमार्ग में लगाते हैं किन्तु आजकल तो परिकर के लोग धर्म से हटाकर विषयों में पँâसाने में ही सच्ची हितैषिता समझते हैं।
पूर्वकाल में भी ऐसे लोग थे जो कि धर्म से छुटाकर पाप मार्ग में या विषयों में लगाकर अपना प्रेम व्यक्त करते थे किन्तु ऐसे लोग कम थे, धर्म में लगने की प्रेरणा देते हों और आज भी ऐसे लोग हैं जो अपने कुटुम्बियों को हितकर धर्म मार्ग में-त्याग मार्ग में लगाकर प्रसन्न होते हैं परन्तु ऐसे लोग विरले ही होते हैं।
अन्त में भगवान ऋषभदेव एवं चौबीसों तीर्थंकर हम सभी को शांति प्रदान करें, यही मंगलकामना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-९

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्सारभीमुषे।।

महापुराण ग्रंथ दो भागों में विभक्त है-आदिपुराण और उत्तरपुराण। आचार्यों ने भगवान को भी पुराण शब्द से सम्बोधित किया है-पायादपायात्पुरुष: पुराण: (विषापहारस्तोत्र)
महापुराण के प्रथम भाग आदि पुराण में भगवान ऋषभदेव अपने दशवें भवपूर्व के प्रकरण में राजा महाबल की पर्याय में धर्मध्यानपूर्वक मरण करके स्वर्ग में देव हुए। वहाँ पहुँचते ही उपपादशय्या पर जन्म लेते ही अन्य देवतागण उनके पास आकर कहते हैं-

प्रतीच्छ प्रथमं नाथ सज्जं मज्जनमङ्गलम्।
तत: पूजां जिनेन्द्राणां कुरु पुण्यानुबंधिनीम्।।२७३।।
ततो बलमिदं दैवं भवद्दैवबलार्जितम्।
समालोकय संघट्टै: समापतदितस्तत:।।२७४।।
इत: प्रेक्षस्व संपे्रक्ष्या: प्रेक्षागृहमुपागत:।
सलीलभ्रूलतोत्क्षेपं नटन्ती: सुरनत्र्तकी:।।२७५।।
मनोज्ञवेषभूषाश्च देवीर्देवाद्य मानय।
देवभूयत्वसंप्राप्तौ फलमेतावदेव हि।।२७६।।

अर्थात् हे नाथ, स्नान की सामग्री तैयार है इसलिए सबसे पहले मङ्गलमय स्नान कीजिए फिर पुण्य को बढ़ाने वाली जिनेन्द्रदेव की पूजा कीजिए। तदनन्तर आपके भाग्य से प्राप्त हुई तथा अपनी-अपनी टुकड़ियों के साथ जहाँ-तहाँ सब ओर से आने वाली देवों की सब सेना का अवलोकन कीजिए। इधर नाट्यशाला में आकर, लीलासहित भौंह नचाकर नृत्य करती हुई, दर्शनीय सुन्दर देव नर्तकियों को देखिए। हे देव, आज मनोहर वेष-भूषा से युक्त देवियों का सम्मान कीजिए क्योंकि निश्चय से देवपर्याय की प्राप्ति का यही तो फल है।
वहाँ ललितांगदेव ने जन्म लेकर स्नानादि करके पुन: अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करते हुए असीम प्रसन्नता का अनुभव किया।
यहाँ ज्ञातव्य है कि स्वर्ग में देवों की आयु सागर से बताई है तथा देवियों की आयु पल्य से कही है। एक देव के जीवन में अनेक देवियाँ उसके साथ रहती हैं। शास्त्रों मेें कहा है कि एक सौधर्मइन्द्र के जीवन में ४० नील प्रमाण शचि इन्द्राणियाँ मनुष्यभव धारण करके मोक्षप्राप्त कर लेती हैं, इतनी बड़ी आयु सौधर्म इन्द्र की होती है।
उस ललितांग देव के चार हजार देवियाँ थीं तथा चार महादेवियाँ थीं, जिसमें प्रधान स्वयंप्रभा नामकी देवी में ललितांग देव अतिशय अनुरक्त रहता था। जब ललितांग देव की आयु पृथक्त्वपल्य (३ पल्य से अधिक ९ पल्य से कम) शेष रही थी, तब उसे स्वयंप्रभा नाम की प्रियपत्नी प्राप्त हुई थी। भव्यात्माओं! इस स्वयंप्रभा देवी की कथानक भी बड़ा रोमांचक है-
इसी मध्यलोक में एक धातकीखण्ड नाम का महाद्वीप है जो अपनी शोभा से स्वर्गभूमि को तिरस्कृत करता है। इस द्वीप के पूर्व मेरु से पश्चिम दिशा की ओर स्थित विदेह क्षेत्र में एक गंधिला नाम का देश है जो कि अपनी शोभा से देवकुरु और उत्तरकुरु को भी जीत सकता है। उस देश में एक पाटली नाम का ग्राम है उसमें नागदत्त नाम का एक वैश्य रहता था। उसकी स्त्री का नाम सुमति था और उन दोनों के क्रम से नन्दन, नन्दिमित्र, नन्दिषेण, वरसेन और जयसेन ये पाँच पुत्र तथा मदनकान्ता और श्रीकान्ता नाम की दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुर्इं। पूर्व भव में इन्हीं के घर निर्नामा नाम की सबसे छोटी पुत्री हुई थी। किसी दिन उसने चारणचरित नामक मनोहर वन में अम्बरतिलक पर्वत पर विराजमान अवधिज्ञान से सहित तथा अनेक ऋद्धियों से भूषित पिहितास्रव नामक मुनिराज के दर्शन किये। दर्शन और नमस्कार कर उसने उनसे पूछा कि हे भगवन! मैं किस कर्म से इस दरिद्रकुल में उत्पन्न हुई हूँ। हे प्रभो, कृपा कर इसका कारण कहिए और मुझ दीन तथा अतिशय उद्विग्न नारी पर अनुग्रह कीजिए। इस प्रकार पूछे जाने पर वे मुनिराज मधुर वाणी से कहने लगे कि हे पुत्री, पूर्वभव में तू अपने कर्मोदय से इसी देश के पलालपर्वत नामक ग्राम में देविलग्राम नामक पटेल की सुमति स्त्री के उदर से धनश्री नाम से प्रसिद्ध पुत्री हुई थी। किसी दिन तूने पाठ करते हुए समाधिगुप्त मुनिराज के समीप मरे हुए कुत्ते का दुर्गन्धित कलेवर डाला था और अपने इस अज्ञानपूर्ण कार्य से खुश भी हुई थी। यह देखकर मुनिराज ने उस समय तुझे उपदेश दिया कि बालिके! तूने यह बहुत ही निंद्य कार्य किया है, भविष्य में उदय के मय यह तुझे दु:खदायी और कटुक फल देगा क्योंकि पूज्य पुरुषों का किया हुआ अपमान अन्य पर्याय में अधिक सन्ताप देता है। मुनिराज के ऐसा कहने पर धनश्री ने उसी समय उनके सामने जाकर अपना अपराध क्षमा कराया और कहा कि हे भगवन्! मैंने यह कार्य अज्ञानवश ही किया है इसलिए क्षमा कर दीजिए। उस उपशम भाव से क्षमा माँग लेने से तुझे कुछ थोड़ा सा पुण्य प्राप्त हुआ था। उसी से तू इस समय मनुष्ययोनि में इस अतिशय दरिद्र कुल में उत्पन्न हुई है। इसलिए हे कल्याणि! कल्याण करने वाले जिनेन्द्रगुणसम्पत्ति और श्रुतज्ञान इन दो व्रतों को क्रम से ग्रहण करो। विधिपूर्वक किया गया यह अनशन तप किये हुए कर्मों को बहुत शीघ्र नष्ट करने वाला माना गया है। तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृति के कारणभूत सोलह भावनाएँ, पाँच कल्याणक, आठ प्रातिहार्य तथा चौंतीस अतिशय इन तिरेसठ गुणों की प्राप्ति हेतु जो उपवास व्रत किया जाता है उसे जिनेन्द्रगुण-सम्पत्ति कहते हैं। इस व्रत में जिनेन्द्र भगवान के तिरसठ गुणों को लक्ष्य कर तिरसठ उपवास किये जाते हैं, जिनकी व्यवस्था इस प्रकार है-सोलहकारण भावनाओं की सोलह प्रतिपदा (एकम्), पाँच कल्याणकों की पाँच पंचमी, आठ प्रातिहार्यों की आठ अष्टमी और चौंतीस अतिशयों की बीस दशमी तथा चौदह चतुर्दशी इस प्रकार तिरेसठ उपवास होते हैं। पूर्वोक्त प्रकार से जिनेन्द्रगुणसम्पत्ति नामक व्रत में तिरेसठ उपवास करना चाहिए ऐसा गणधरादि मुनियों ने कहा है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान नामक व्रत भी विधिपूर्वक करो। अट्ठाईस, ग्यारह, दो, अठासी, एक, चौदह, पाँच, छह, दो और एक इस प्रकार मतिज्ञान आदि भेदों की एक सौ अठावन संख्या होती है। हे पुत्रि! तू भी विधिपूर्वक दोनों अनशन व्रतों को आचरण कर।
पुन: मुनिराज उस कन्या को समझाने लगे-
जो पुरुष वचन द्वारा मुनियों का अनादार करते हैं वे दूसरे भव में गूँगे होते हैं। जो मन से निरादर करते हैं उनकी मन से सम्बन्ध रखने वाली स्मरणशक्ति नष्ट हो जाती है और जो शरीर से तिरस्कार करते हैं उन्हें ऐसे कौन से दु:ख हैं जो प्राप्त नहीं होते हैं? इसलिए बुद्धिमान पुरुषों को तपस्वी मुनियों का कभी अनादर नहीं करना चाहिए। हे पुत्री! जो मनुष्य, क्षमारूपी धन को धारण करने वाले मुनियों की, मोहरूपी काष्ठ से उत्पन्न हुई, विरोधरूपी वायु से प्रेरित हुई, दुर्ववचनरूपी तिलगों से भरी हुई और क्षमारूपी भस्म से ढकी हुई क्रोधरूपी अग्नि को प्रज्वलित करते हैं उनके द्वारा दोनों लोकों में होने वाला अपना कौन सा हित नष्ट नहीं किया जाता? अर्थात् उसका बहुत बड़ा अहित होता है।
इस प्रकार वह मुनिराज के हितकारी वचन मानकर और जिनेन्द्रगुण सम्पत्ति तथा श्रुतज्ञान नामक दोनों व्रतों के विधिपूर्वक उपवास कर आयु के अंत में स्वर्ग गयी। वहाँ ललितांगदेव की स्वयंप्रभा नाम की मनोहर महादेवी हुई।
महानुभावों! सच्चे सन्तों की निंदा, उनके प्रति दुर्भाव आदि करने से सदैव दुर्गति ही प्राप्त होती है अत: उनके प्रति सदैव विनय भाव रखना चाहिए, क्योंकि वे तीर्थंकर की जिनमुद्रा का पालन करने वाले महापुरुष सबके अकारण बंधु होते हैं। वे चौबीसों तीर्थंकर भगवान हम सबके लिए मंगलकारी होवें। यही मंगलकामना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-१०

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! आदिपुराण में आपने जाना है कि राजा महाबल स्वर्ग में ललितांग देव हुए और निर्नामा नाम की कन्या स्वयंप्रभा देवी हुई। दोनों वहाँ खूब सुखपूर्वक रह रहे थे। तभी ललितांगदेव की आयु के छह माह शेष रहने पर ललितांगदेव के वंâठ की माला मुरझाने लगी तो वह बहुत दु:खी रहने लगा। स्वर्ग में यद्यपि देवों की आँखों में आँसू नहीं आते, फिर भी विलापकर करके वह स्वयंप्रभा देवी के छूट जाने की बात सोचकर बड़ा कष्ट अनुभव कर रहा था। आदिपुराण में कहा है-

आजन्मनो यदेतेन निर्विष्टं सुखमामरम्।
तत्तदा पिण्डितं सर्वं दु:खभूयमिवागमत्।।७।।
तत्कण्ठमालिकाम्लानिवच: कल्पान्तामनशे।
शीघ्ररूपस्य लोकान्तमणेरिव विचेष्टितम्।।८।। (पर्व ६)

अर्थात् उस समय ऐसा मालूम होता था कि इस देव ने जन्म से लेकर आज तक जो देवों संबंधी सुख भोगे हैं वे सबके सब दु:ख बनकर ही आ गये हैं। जिस प्रकार शीघ्र गति वाला परमाणु एक ही समय में लोक के अन्त तक पहुँच जाता है उसी प्रकार ललिताङ्गदेव की कण्ठमाला की म्लानता का समाचार भी उस स्वर्ग के अन्त तक व्याप्त हो गया था।
तब वहाँ के मित्रदेवों ने उसे संसार की स्थिति समझाकर सम्बोधन प्रदान किया।

यथोदितस्य सूर्यस्य निश्चितोऽस्तमय: पुरा।
तथा पातोन्मुख: स्वर्गे जन्तोरभ्युदयोऽप्ययम्।।१९।।
तस्मात् मा स्म गम: शोवंâ कुयोन्यावत्र्तपातिनम्।
धर्मे मतिं निधत्स्वार्य धर्मो हि शरणं परम्।।२०।।
कारणान्न बिना कार्यमार्य जातुचिदीक्ष्यते।
पुण्यं च कारणं प्राहु: बुधा: स्वर्गापबर्गयो:।।२१।
तत्पुण्यसाधने जैन शासने मतिमादधत्।
विषादमुत्सृजानूनं येनानेना भविष्यसि।।२२।।
इति तद्वचनाद् धैर्यमवलम्ब्य स धर्मधी:।
मासाद्र्धं भुवने कृत्स्ने जिनवेश्मान्यपूजयत्।।२३।। (पर्व ६)

अर्थात् जिस प्रकार उदित हुए सूर्य का अस्त होना निश्चित है उसी प्रकार स्वर्ग में प्राप्त हुए जीवों के अभ्युदयों का पतन होना भी निश्चित है। इसलिए हे आर्य, कुयोनिरूपी आवर्त में गिराने वाले शोक को प्राप्त न होइए तथा धर्म में मन लगाइए, क्योंकि धर्म ही परम शरण है। हे आर्य, कारण के बिना कभी भी कोई कार्य नहीं होता है और चूॅूंकि पण्डितजन पुण्य को ही स्वर्ग तथा मोक्ष का कारण कहते हैं। इसलिए पुण्य के साधनभूत जैनधर्म में ही अपनी बुद्धि लगाकर खेद को छोड़िए, ऐसा करने से तुम निश्चय ही पापरहित हो जाओगे। इस प्रकार सामानिक देवों के कहने से ललिताङ्गदेव ने धैर्य का अवलम्बन किया, धर्म में बुद्धि लगाई और पन्द्रह दिन तक समस्त लोक के जिन-चैत्यालयों की पूजा की।
पुन: अच्युत स्वर्ग में भगवान की पूजा करके चैत्यवृक्ष के नीचे सल्लेखना ग्रहणकर महामंत्र का उच्चारण करते हुए बैठ गया। देखो! देवता भी सल्लेखना वैâसे धारण करते हैं? अर्थात् धर्मध्यानपूर्वक महामंत्रपूर्वक शरीर छोड़कर ललितांग देव जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र की पुष्कलावती देश में उत्पलखेटक नगर के राजा वङ्काबाहू की रानी वसुन्धरा के गर्भ से जन्म धारण कर लिया।
उधर स्वयंप्रभा देवी भी पतिवियोग से दु:खी होकर उसने ६ माह तक लगातार भगवान की पूजा की और वहाँ की आयु भोगकर वह भी मध्यलोक में पुष्कलावती विदेह क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वङ्कादन्त की रानी लक्ष्मीमती के गर्भ में आ गई।
महानुभावों! मेरे गुरु आचार्य वीरसागर जी कहा करते थे कि इस मनुष्य पर्याय में ऐसी धर्म की दृढ़ भावना बनाओ कि आगे देवपर्याय में भी वहाँ के दिव्य वैभव में लिप्तता न आने पावे और वहाँ भी धर्म की दृढ़ता बनी रहे, सल्लेखना का भाव उत्पन्न हो और आगे पुन: मनुष्यजीवन मिल सके।
यह जिनेन्द्र भक्ति हम सबको शांति प्रदान करे और चौबीसों तीर्थंकर भगवान जगत में शांति की स्थापना करें यही मंगलभावना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-११

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।। 

भव्यात्माओं! महापुराण में भगवान ऋषभदेव के दश भवों में दो भवों का वर्णन हो चुका है अब तीसरा भव प्रारंभ होता है।
एक दिन वह श्रीमती कन्या सूर्य की किरणों के समान निर्मल, महामूल्य रत्नों से शोभायमान और स्वर्गविमान को भी लज्जित करने वाले राजभवन में सो रही थी। उसी दिन एक विचित्र घटना घटी कि उसी नगर के मनोहर नामक उद्यान में श्री यशोधर गुरु विराजमान थे उन्हें उसी दिन केवलज्ञान प्राप्त हुआ इसलिए स्वर्ग के देव अपनी विभूति के साथ विमानों पर आरूढ़ होकर उनकी पूजा करने के लिए आये थे। उस समय भ्रमरों के साथ-साथ दिशाओं को व्याप्त करने वाली जो पुष्पवर्षा हो रही थी वह ऐसी सुशोभित होती थी मानो यशोधर महाराज के दर्शन करने के लिए स्वर्गलक्ष्मी द्वारा भेजी हुई नेत्रों की परम्परा ही हो। उस समय मन्द-मन्द हिलते हुए मन्दारवृक्षों की सघन केशर से कुछ पीला हुआ तथा इकट्ठे हुए भ्रमरों की गुंजार से मनोहर वायु शब्द करता हुआ बह रहा था और बजते हुए दुन्दुभि बाजों के शब्दों से दशों दिशाओं को व्याप्त करता हुआ देवों के हर्ष से उत्पन्न होने वाला बड़ा भारी कोलाहल हो रहा था।
वह श्रीमती प्रात:काल के समय अकस्मात् उस कोलाहल को सुनकर उठी और मेघों की गर्जना सुनकर डरी हुई हंसिनी के समान भयभीत हो गई। उस समय देवों का आगमन देखकर उसे पूर्वजन्म का स्मरण हो गया, जिससे वह ललिताङ्गदेव का स्मरण कर मोह से मूच्र्छित हो गर्इं तत्पश्चात् सखियों ने अनेक शीतलोपचार और पंखा की वायु से आश्वासन देकर उसे सचेत किया परन्तु फिर भी उसने अपना मुँह ऊपर नहीं उठाया। उस समय मनोहर प्रभा से देदीप्यमान, सुन्दर और अनेक उत्तम-उत्तम लक्षणों से सहित उस ललिताङ्ग का शरीर श्रीमती के हृदय में लिखे हुए के समान प्रतीत हो रहा था। अनेक आशंकाएँ करती हुई सखियों ने उससे कारण भी पूछा परन्तु वह चुपचाप बैठी रही। ललिताङ्ग की प्राप्ति पर्यन्त मुझे मौन रखना ही श्रेयस्कर है ऐसा सोचकर वह मौन रह गई। तदनन्तर घबड़ाई हुई सखियों ने पहरेदारों के साथ जाकर उसके माता-पिता से सब वृत्तान्त कह सुनाया। सखियों की बात सुनकर उसके माता-पिता शीघ्र ही उसके पास गये और उसकी वह अवस्था देखकर शोक को प्राप्त हुए। हे पुत्री! मेरी गोद में आ। पुन: जब वह मूच्र्छित हो चुपचाप बैठी रही तब समस्त चेष्टाओं और मन के विकारों को जानने वाले वङ्कादन्त महाराज रानी लक्ष्मीमती से बोले-हे तन्वि! अब यह तुम्हारी पुत्री पूर्ण यौवन अवस्था को प्राप्त हो गई हे। देखो! इसका शरीर वैâसा अनुपम और कान्तियुक्त हो गया है। ऐसा शरीर स्वर्ग की दिव्यांगनाओं को भी दुर्लभ है। इसलिए हे सुन्दरी! इस समय इसका यह विकार कुछ भी दोष उत्पन्न नहीं कर सकता। अतएव हे देवि! तू अन्य रोग आदि की शंका करती हुई भय को प्राप्त न हो। निश्चय ही आज इसके हृदय में कोई पूर्वभव का स्मरण हो आया है क्योंकि संसारी जीव प्राय: पुरातन संस्कारों का स्मरण कर मूच्र्छित हो ही जाते हैं। यह कहते-कहते वङ्कादन्त महाराज कन्या को आश्वासन देने के लिए पण्डिता नामक धाय को नियुक्त कर लक्ष्मीमती के साथ उठ खड़े हुए।
कन्या के पास से वापस आने पर महाराज वङ्कादन्त के सामने एक साथ दो कार्य आ उपस्थित हुए। एक तो अपने गुरु यशोधर महाराज को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी अतएव उनकी पूजा के लिए जाना और दूसरा आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ था अतएव दिग्विजय के लिए जाना। महाराज वङ्कादन्त एक साथ इन दोनों कार्यों का प्रसंग आने पर निश्चय नहीं कर सके कि इनमें पहले किसे करना चाहिए और इसीलिए वे क्षण-भर के लिए बुद्धिमान वङ्कादन्त ने निश्चय किया कि सबसे पहले गुरुदेव-यशोधर महाराज के केवलज्ञान की पूजा करनी चाहिए। क्योंकि बुद्धिमान पुरुषों को दूरवर्ती कार्य की अपेक्षा निकटवर्ती कार्य ही पहले करना चाहिए। उसके बाद दूरवर्ती मुख्यकार्य करना चाहिए। इसलिए जिस अर्हन्त पूजा से पुण्य होता है, जिससे बड़े-बड़े अभ्युदय प्राप्त होते हैं तथा जो धर्ममय आवश्यक कार्य हैं ऐसे अर्हन्तपूजा आदि प्रधान कार्य को ही पहले करने का विचारकर वह राजा वङ्कादन्त पुण्य बढ़ाने वाली यशोधर महाराज की उत्कृष्ट पूजा करने के लिए उठ खड़ज्ञ हुआ। तदनन्तर सेना के साथ जाकर उसने जगद्गुरु यशोधर महाराज की पूजा की। पूजा करते समय उसका मुख्यकमल अत्यन्त प्रपुâल्लित हो रहा था। प्रकाशमान बुद्धि के धारक वङ्कादन्त ने ज्यों ही यशोधर गुरु के चरणों में प्रणाम किया त्यों ही उसे अवधिज्ञान प्राप्त हो गया। सो ठीक ही है, विशुद्ध परिणाम से की गई भक्ति क्या फलीभूत नहीं होगी? अथवा क्या-क्या फल नहीं देगी? उस अवधिज्ञान से राजा ने जान लिया कि पूर्वभव में मैं अच्युत स्वर्ग का इन्द्र था और यह मेरी पुत्री श्रीमती ललितांग देव की स्वयंप्रभा नामक प्रिया थी।
तत्पादौ प्रणमन्नेव सोऽलब्धावधिमिद्धधी:।
विशुद्धपरिणामेन भक्ति: किं न फलिष्यति।।
वह बुद्धिमान वज्रदन्त वंदना आदि करके वहाँ से लौटा और पुत्री श्रीमती को पण्डिता धाय के लिए सौंपकर शीघ्र ही दिग्विजय के लिए चल पड़ा। इन्द्र के समान कान्तिका धारक वह चक्रवर्ती चक्ररत्न की पूजा करके हाथी, घोड़ा, रथ, पियादे, देव और विद्याधर इस प्रकार षडंग सेना के साथ दिशाओं को जीतने के लिए गया।
इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में पुष्कलावती देश है, उसमें उत्पल खेटक नाम का नगर है। वहां के राजा वङ्काबाहु की रानी वसुंधरा ने शुभ दिन पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिसका नाम ‘वङ्काजंघ’ रखा गया। वह वङ्काजंघ अपनी रूप संपत्ति से मानो ललितांग देव के रूप को भी हँस रहा था।
एक दिन यशोधर केवली भगवान् के पूजार्थ देवों के आगमन को देखकर दुुंदुभि बाजों को सुनकर श्रीमती को ललितांग देव का स्मरण हो गया। अनन्तर श्रीमती एक चित्रपट पर ललितांग देव संबंधी घटनाएं बनाकर अपनी धाय को दे दिया और वह पंडिता धाय महापूत जिनालय में जाकर वह चित्रपट लेकर बैठ गई। अनेकों राजकुमारों के अनंतर एक दिन वह वङ्काजंघ राजकुमार वहाँ दर्शनार्थ आये और चित्रपट को देखते ही उन्हें जातिस्मरण हो गया। कुमार वङ्काजंघ ने भी अपना परिचय देकर और अपना चित्रपट देकर उस पंडिता को विदा कर दिया।
आगे जाकर दोनों का विवाह संबंध होना निश्चित हो गया। महानुभावों! यह बहुत ही गौरवपूर्ण विषय है कि राजा तक ने भी अपने पुत्र के लिए वङ्काबाहु राजा से उनकी कन्या को मांगा था। वास्तव में प्राचीन काल से धरती पर कन्या को रत्न माना गया है। वर्तमान में कन्या की भू्रण हत्या जैसा घृणित कार्य बहुत ही चिंतनीय है। इसीलिए सरकार को भी उसकी रोकथाम के लिए अनेक प्रयत्न करने पड़ रहे हैं। भव्यात्माओं! अपने परिवार में आप सभी ऐसे ऐतिहासिक सत्य कथानक बच्चों को पढ़ने-सुनने की प्रेरणा देवें। आजकल विवाह होते ही बच्चे पति-पत्नी बनकर भौतिक सुख के लिए घूमने जाते हैं। उन्हें धर्मतीर्थों के दर्शन की भी प्रेरणा दें। देखो! वज्रजंघ और श्रीमती के विषय में बताया है कि-
चक्रवर्ती की कन्या को ब्याह कर राजकुमार वङ्काजंघ दूसरे दिन सायंकाल में अनेक दीपकों का प्रकाश कर रानी श्रीमती के साथ महापूत जिनालय में दर्शनार्थ आये और स्वर्णमयी जिनप्रतिमा का अभिषेक करके अष्ट द्रव्यों से पूजा की, अनेकों स्तुतियों से जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति करके राजमहल में आ गये।
ऐसे तीर्थंकर भगवान के पूर्व भवों का पुण्य कथानक जगत् में शांति की स्थापना करें यही मंगलकामना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-१२

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।

महानुभावों! युवराज वङ्काजंघ और श्रीमती सुखपूर्वक महल में निवास कर रहे थे। वङ्काजंघ के पिता वज्रबाहु अपने पुत्र के कार्यकलापों से सदैव प्रसन्न रहते थे। एक दिन महाकान्तिमान् महाराज वङ्काबाहु महल की छत पर बैठे हुए शरद ऋतु के बादलों का उठाव देख रहे थे। उन्होंने पहले जिस बादल को उठता हुआ देखा था उसे तत्काल में विलीन हुआ देखकर उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया। वे उसी समय संसार के सब भोगों से विरक्त हो गये और मन में इस प्रकार गंभीर विचार करने लगे। देखो, यह शरदऋतु का बादल हमारे देखते-देखते राजमहल की आकृति को धारण किये हुए था और देखते-देखते ही क्षण भर में विलीन हो गया। ठीक, इसी प्रकार हमारी यह सम्पदा भी मेघ के समान क्षण-भर में विलीन हो जायेगी। वास्तव में यह लक्ष्मी बिजली के समान चंचल है और यौवन की शोभा भी शीघ्र चली जाने वाली है। ये भोग प्रारंभ काल में ही मनोहर लगते हैं किन्तु अन्तकाल में (फल देने के समय) बड़े कष्ट देते हैं। यह आयु भी पूâटी हुई नाली के जल के समान प्रत्येक क्षण नष्ट होती जाती है। रूप, आरोग्य, ऐश्वर्य, इष्ट-बंधुओं का समागम और प्रिय स्त्री का प्रेम आदि सभी कुछ क्षणिक है। इस प्रकार विचारकर चंचल लक्ष्मी को छोड़ने के अभिलाषी राजा वङ्काबाहु ने अपने पुत्र वङ्काजंघ का राज्य अभिषेक कर उसे राज्यकार्य में नियुक्त किया और स्वयं राज्य तथा भोगों से विरक्त हो शीघ्र ही श्री यमधरमुनि के समीप जाकर पाँच सौ राजाओं के साथ जिनदीक्षा ले ली। उसी समय वीरबाहु आदि श्रीमती के अट्ठानवे पुत्र भी इन्हीं राजऋषि वङ्काबाहु के साथ दीक्षा लेकर संयमी हो गये। वङ्काबाहु मुनिराज विशुद्ध परिणामों के धारक वीरबाहु आदि मुनियों के साथ जगह-जगह विहार करने लगे फिर क्रम-क्रम से केवलज्ञान प्राप्तकर मोक्षरूपी परमधाम को प्राप्त किया।
इधर चक्रवर्ती राजा वङ्कादन्त (श्रीमती के पिता) अपने सिंहासन पर बैठे थे, वनपाल ने एक दिन सुंदर कमल का पूâल राजा को भेंट किया। उस कमल में मरे भौंरे को देखकर राजा को वैराग्य हो गया। उन्होंने वन में जाकर दीक्षा लेने का विचार किया और अपने पुत्रों को राज्य देने लगे तो उन लोगों ने राज्य को स्वीकार न कर दीक्षा का भाव प्रदर्शित किया अत: चक्रवर्ती ने अपने पौत्र पुण्डरीक को बालक अवस्था में ही राजतिलक करके दीक्षा ले ली। उस समय उनके साथ २० हजार राजाओं ने, ६० हजार रानियों ने और एक हजार पुत्रों ने भी दीक्षा धारण कर ली थी।
महानुभावों! आज के समान यदि उस समय टी.वी. के सीधे प्रसारण का जमाना होता तो उस समय भी करोड़ों लोग ऐसी महान वैराग्यमयी दीक्षाओं को देखते। अभी आप लोगों ने २० जनवरी २००९ को अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा के शपथ ग्रहण का सीधा प्रसारण देखा और वहाँ भी २० लाख लोगों ने एक साथ उपस्थित होकर कार्यक्रम में भाग लिया।
किन्तु यह करोड़ों वर्ष पूर्व की घटना है, तब विज्ञान ने इतनी उन्नति नहीं की थी। मैंने भी सन् १९५२ में घर छोड़ा और १९५३ में जब क्षुल्लिका दीक्षा ले ली तब घर में किसी को पता नहीं चला, पुन: महावीर जी में मेरी माँ जब किसी के साथ आर्इं तब मुझे दीक्षित अवस्था में देखकर बहुत रोर्इं, वे बोलीं कि मैंने पूर्वजन्म में कौन सा पाप किया था कि अपनी बेटी की दीक्षा भी नहीं देख सकी। पुन: सन् १९५६ में भी मैंने जब आर्यिका दीक्षा ली तो भी घर में कुछ सूचना नहीं दी। मेरे वैराग्य की उत्कृटता के कारण मैं कभी घर में कोई सूचना नहीं देती थी और अखबारी प्रचार का युग नहीं था कि उसमें पढ़कर कोई आ जाते सन् १९५८ में जब संघ की एक साध्वी ने मेरे घर में पत्र लिखा तब वैâलाशचंद्र ब्यावर में प्रथम बार दर्शन करने आये और मुझे देखकर बड़े दु:खी हुए।
देखो! उस काल में एक-दूसरे तक समाचार पहुँचने में बहुत समय लगता था। समाचार पाकर राजा वङ्काजंघ सोचने लगे कि मैं अपनी रानी श्रीमती को वैâसे बताऊँ कि तुम्हारे पिता और भाइयोें ने दीक्षा ले ली है। पति की दीक्षा से माता लक्ष्मीमती (श्रीमती की माँ) की सूचना आई कि पुत्र वङ्काजंघ! तुम आकर राज्य की व्यवस्था को सुचारू बनाओ। उस समय का वर्णन आदिपुराण में आया है कि-
‘‘जिस प्रकार सूर्य के वियोग से कमलिनी शोक को प्राप्त होती है उसी प्रकार चक्रवर्ती वङ्कादन्त और अमिततेज के वियोग से लक्ष्मीमती और अनुन्धरी शोक को प्राप्त हुई थी। पश्चात् जिन्होंने दीक्षा नहीं ली थी मात्र दीक्षा का उत्सव देखने के लिए उनके साथ-साथ गये थे ऐसे प्रजा के लोग, मंत्रियों द्वारा अपने आगे किये गये पुण्डरीक बालक को साथ लेकर नगर में प्रविष्ट हुए। उस समय वे सब शोक से कान्तिशून्य हो रहे थे। तदनन्तर लक्ष्मीमती को इस बात की भारी चिंता हुई कि इतने बड़े राज्यभार एक छोटा सा अप्रसिद्ध बालक स्थापित किया गया है। यह हमारा पौत्र है। बिना किसी पक्ष की सहायता के मैं इसकी रक्षा किस प्रकार कर सवूँâगी। मैं यह सब समाचार आज ही बुद्धिमान वङ्काजंघ के पास भेजती हूँ। उनके द्वारा अधिष्ठित (व्यवस्थित) हुआ इस बालक का यह राज्य अवश्य ही निष्कटंक हो जायेगा अन्यथा इस पर आक्रमण कर बलवान राजा इसे अवश्य ही नष्ट कर देंगे। ऐसा निश्चय कर लक्ष्मीमती ने गंधर्वपुर के राजा मन्दरमाली और रानी सुन्दरी के चिन्तागति और मनोगति नामक दो विद्याधर पुत्र बुलाये। वे दोनों ही पुत्र चक्रवर्ती से भारी स्नेह रखते थे, पवित्र हृदय वाले, चतुर, उच्चकुल में उत्पन्न, परस्पर में अनुरक्त, समस्त शास्त्रों के जानकार ऐसे विद्याधरों को अपने दामाद और पुत्री को देने के लिए अनेक प्रकार की भेंट दी। अपना संदेश कहकर दोनों को वङ्काजंघ के पास भेज दिया।
‘‘वङ्कादंत चक्रवर्ती अपने पुत्र और परिवार के साथ वन को चले गये हैं। उनके राज्यपर कमल के समान मुखवाला पुण्डरीक बालक है और हम दोनों सास बहू हैं इसलिए यह बिना स्वामी का राज्य प्राय: नष्ट हो रहा है। अब इसकी रक्षा आप पर ही अवलम्बित है। अतएव अविलम्ब आइए। आप अत्यन्त बुद्धिमान हैं। इसलिए आपके आने से यह राज्य निष्कण्टक हो जायेगा। ऐसा संदेश लेकर वे दोनों उसी समय आकाशमार्ग से चले गये। मार्ग की शोभा देखते हुए वे दोनों उत्पलखेटक नगर जा पहुँचे। जब वे दोनों भाई राजमंदिर के समीप पहुँचे तब द्वारपाल उन्हें भीतर ले गये। उन्होंने राज मंदिर में प्रवेश कर राजसभा में बैठे हुए वङ्काजंघ के दर्शन किये। उन दोनों विद्याधरों ने उन्हें प्रणाम किया और फिर उनके सामने, लायी हुई भेंट तथा जिसके भीतर पत्र रखा हुआ है, ऐसा रत्नमय पिटारा रख दिया। महाराज वङ्काजंघ ने पिटारा खोलकर उसके भीतर रखा हुआ आवश्यकपत्र ले लिया। उसे देखकर उन्हें चक्रवर्ती के दीक्षा लेने का निर्णय हो गया और इस बात से वे बहुत ही विस्मित हुए। वे विचारने लगे कि अहो, चक्रवर्ती बड़ा ही पुण्यात्मा है जिसने इतने बड़े साम्राज्य के वैभव को छोड़कर पवित्र अंगवाली स्त्री के समान दीक्षा धारण की है। अहो! चक्रवर्ती के पुत्र भी बड़े पुण्यशाली और अचिन्त्य साहस के धारक हैं जिन्होंने इतने बड़े राज्य को ठुकराकर पिता के साथ ही दीक्षा धारण की है। पूâले हुए कमल के समान मुख की कान्ति का धारक बालक पुण्डरीक राज्य के इन महान् भार को वहन करने के लिए नियुक्त किया गया है और माता लक्ष्मीमती द्वारा कार्य चलाना कठिन है। यह समझकर राज्य में शांति रखने के लिए शीघ्र ही मेरा आगमन चाहती हैं अर्थात् मुझे बुला रही हैं। इस प्रकार वङ्काजंघ ने पत्र के अर्थ का निश्चयकर स्वयं निर्णय कर लिया और अपना निर्णय श्रीमती को भी समझा दिया। पत्र के सिवाय उन विद्याधरों ने लक्ष्मीमती का कहा हुआ मौखिक संदेश भी सुनाया, जिससे वङ्काजंघ को पत्र के अर्थ का ठीक-ठीक निर्णय हो गया था।
तदनन्तर बुद्धिमान वङ्काजंघ ने पुण्डरीकिणी पुरी जाने का विचार किया। पिता और भाई के दीक्षा लेने आदि के समाचार सुनकर श्रीमती को बहुत दु:ख हुआ परन्तु वङ्काजंघ ने उसे समझा दिया और उसके साथ भी गुण-दोष का विचारकर साथ-साथ वहाँ जाने का निश्चय किया। पुन: खूब आदर-सत्कार के साथ उन दोनों विद्याधर दूतों को उन्होंने आगे भेज दिया और स्वयं उनके पीछे प्रस्थान कर गये।
भव्यात्माओं! हमेशा आप सभी तीर्थंकरों के पुण्य चरित्र को पढ़ें और खूब पुण्य का वर्धन करें। भगवन्तों का यह चरित्र आप सबके एवं जगत के लिए मंगलकारी होवे, यही मंगलभावना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-१३

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

भव्यात्माओं! महापुराण ग्रंथ को यदि रत्नाकर भी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें भगवान ऋषभदेव के पूर्व भवों की बात चल रही हे।
राजा वज्रजंघ अपनी रानी के साथ ससुराल जा रहे थे रास्ते में एक नदी के किनारे पड़ाव डाला। अगले दिन प्रात:काल जब समस्त सेना अपने-अपने स्थान पर ठहर गई तब राजा वज्रजंघ मार्ग तय करने में चतुर-शीघ्रगामी घोड़े पर बैठकर शीघ्र ही अपने डेरे में जा पहुँचे। घोड़ों के खुुरों से उठी हुई धूलि से जिसके शरीर रुक्ष हो रहे हैं ऐसे घुड़सवार लोग पसीने से युक्त होकर उस समय डेरा में पहुँचे थे जिस समय कि सूर्य उनके ललाट को तपा रहा था। जहाँ सरोवर के जल की तरंगों से उठती हुई मंद वायु के द्वारा भारी शीतलता विद्यमान थी ऐसे तालाब के किनारे पर बहुत ऊँचे तम्बू में राजा वङ्काजंघ ने सुखपूर्वक निवास किया।
तदनन्तर आकाश में गमन करने वाले श्रीमान् दमधर नामक मुनिराज, सागरसेन नामक मुनिराज के साथ-साथ वज्रजंघ के पड़ाव में पधारे। उन दोनों मुनियों ने वन में ही आहार लेने की प्रतिज्ञा की थी। इसलिए इच्छानुसार विहार करते हुए वङ्काजंघ के डेरे के समीप आये। वे मुनिराज अतिशय कान्ति के साक्षात् मार्ग ही हों ऐसे दोनों मुनियों को राजा वङ्काजंघ ने दूर से ही देखा। जिन्होंने अपने शरीर की दीप्ति से वन का अंधकार नष्ट कर दिया है ऐसे दोनों मुनियों को राजा वङ्काजंघ ने बड़ी भक्ति के साथ उठकर पड़गाहन किया। पुण्यात्मा वङ्काजंघ ने रानी श्रीमती के साथ बड़ी भक्ति से उन दोनों मुनियों को हाथ जोड़कर अर्घ चढ़ाया और फिर नमस्कार कर भोजनशाला में प्रवेश कराया। वहाँ वज्रजंघ ने उन्हें ऊँचे स्थान पर बैठाया, उनके चरण कमलों का प्रक्षालन किया, पूजा की, नमस्कार किया, अपने मन, वचन, काय को शुद्ध किया और फिर श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति, अलोभ, क्षमा, ज्ञान और शक्ति इन सात गुणों से विभूषित होकर विशुद्ध परिणाम से उन गुणवान् दोनों मुनियों को विधिपूर्वक आहार दिया। उसके फलस्वरूप पंचाश्चर्य हुए। देव लोग आकाश से रत्नवर्षा कर रहे थे, पुण्य वर्षा कर रहे थे, आकाशगंगा के जल के छींटों को बरसाती हुई मंद-मंद वायु चल रही थी, दुंदुभि बाजों की गंभीर गर्जना हो रही थी और दिशाओं को व्याप्त करने वाले ‘अहो दानम् अहो दानम्’ इस प्रकार के शब्द कहे जा रहे थे। पुन: वङ्काजंघ जब दोनों मुनिराजों की वंदना और पूजा कर उन्हें वापस भेज चुके तब उन्हें अपने कंचुकी के कहने से मालूम हुआ कि उक्त दोनों मुनि हमारे ही अंतिम पुत्र हैं। राजा वङ्काजंघ श्रीमती के साथ-साथ बड़े प्रेम से उनके निकट गये और पुण्यप्राप्ति की इच्छा से सद्गृहस्थों का धर्म सुनने लगे।
महानुभावों! मैंने पहले भी आपको बताया है कि आहारदान के अलावा किसी दान में पंचाश्चर्य की वृष्टि नहीं होती है। चारों दानों में आहारदान सबसे अधिक श्रेष्ठ माना गया है। इसी आहारदान का स्मरण हस्तिनापुर में उत्पन्न हुए राजा श्रेयांस को महामुनि ऋषभदेव के आगमन पर हुआ था तब उन्होंने नवधाभक्ति से आहार देकर दानतीर्थ प्रवर्तक की उपाधि प्राप्त की थी। आज भी वही मुनिचर्या का पालन मुनिगण करते हैं और श्रावकजन उन्हें आहार देकर अपना जीवन धन्य कर लेते हैं। देखो! राजा वङ्काजंघ के पिता वज्रबाहु राजा जब दीक्षित हो रहे थे तब इन दोनों पौत्रों ने भी दीक्षा लेकर घोरातिघोर तपश्चरण किया और आकाशगामी ऋद्धि प्राप्त कर ली।
दान, पूजा, शील और प्रोषध आदि धर्मों का विस्तृत स्वरूप सुन चुकने के बाद वङ्काजंघ ने उनसे अपने तथा श्रीमती के पूर्वभव पूछे।
अपने सभी लोगों के पूर्व भव सुनकर राजा-रानी बड़े प्रसन्न हुए। आज भी लोग साधुओं के मुख से अपने हित-अहित की बात जानने के लिए लालायित रहते हैं। वर्तमान के अर्थात् २०वीं सदी के प्रथमाचार्य शांतिसागर महाराज कितनी कठोर तपस्या करते थे। मैंने अपनी आँखों से आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज की तपस्या देखी है कि वे भीषण गर्मी में भी खुले मैदान में ध्यान किया करते थे।
कहा भी है-

भरहे दुस्समकाले, धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स।
तंं अप्पसहावठिदे, ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी।।

अर्थात् तीर्थंकर की चर्या को वर्तमान में प्रदर्शित करने वाले मुनिगण पंचमकाल के अंत तक रहेंगे।
वे सभी तीर्थंकर भगवान जगत् में शांति प्रदान करें, यही मंगलकामना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-१४

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

भव्यात्माओं! महापुराण ग्रंथ के अनुसार राजा वज्रजंघ ने जंगल में मुनियों से अपने और रानी श्रीमती के पूर्वभव पूछने के बाद अपने साथ के मंत्रियों और वहाँ खड़े चारों पशुओं के भी पूर्वभव पूछे तो वे सर्वप्रथम मतिवर के पूर्वभव बताने लगे-
हे राजन्! इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में एक वत्सकावती नाम का देश है जो कि स्वर्ग के समान सुन्दर है, उसमें एक प्रभाकरी नाम की नगरी है। यह मतिवर पूर्वभव में इसी नगरी में अतिगृद्ध नाम का राजा था। वह विषयों में अत्यन्त आसक्त रहता था। उसने बहुत आरंभ और परिग्रह के कारण नरक आयु का बंध कर लिया था जिससे वह मरकर पज्र्प्रभा नाम के चौथे नरक में उत्पन्न हुआ। वहाँ दशसागर तक नरकों के दु:ख भोगता रहा। उसने पूर्वभव में इसी प्रभाकरी नगरी के समीप एक पर्वत पर अपना बहुत सा धन गाड़ रखा था। वह नरक से निकलकर इसी पर्वत पर व्याघ्र हो गया। तत्पश्चात् किसी एक दिन प्रभाकरी नगरी का राजा प्रीतिवर्धन अपने प्रतिकूल खड़े हुए छोटे भाई को जीतकर लौटा और उसी पर्वत पर ठहर गया। वह वहाँ अपने छोटे भाई के साथ बैठा हुआ था कि इतने में पुरोहित ने आकर उससे कहा कि आज यहाँ आपको मुनिदान के प्रभाव से बड़ा भारी लाभ होने वाला है। वे मुनिराज वहाँ किस प्रकार प्राप्त हुए। इसका उपाय मुनि ने अपने दिव्यज्ञान से जानकर बताया।
हम लोग नगर में यह घोषणा कर देते हैं कि आज राजा के बड़े भारी हर्ष का समय है इसलिए समस्त नगरवासी लोग अपने-अपने घरा पर पताकाएँ फहराओ, तोरण बांधो और घर के आंगन तथा नगरी की गलियों में सुगंधित जल सींचकर इस प्रकार पूâल बिखरे दो कि बीच में कहीं कोई स्थान खाली न रहे। ऐसा करने से नगर में जाने वाले मुनि अप्रासुक होने के कारण नगर को अपने विहार के अयोग्य समझकर लौटकर यहाँ पर अवश्य ही आयेंगे। पुरोहित के वचनों से संतुष्ट होकर राजा प्रीतिवर्धन ने वैसा ही किया जिससे मुनिराज लौटकर उन्हीं के यहाँ आ गये। पिहितास्रव नाम के मुनिराज एक महीने के उपवास समाप्त कर आहार के लिए भ्रमण करते हुए क्रम-क्रम से राजा प्रीतिवर्धन के घर में प्रविष्ट हुए। राजा ने उन्हें विधिपूर्वक आहारदान दिया जिससे देवों ने आकाश से रत्नों की वर्षा की और वे रत्न मनोहर शब्द करते हुए भूमि पर पड़े। राजा अतिेगृद्ध के जीव सिहं ने भी वहाँ यह सब देखा जिससे उसे जातिस्मरण हो गया। वह अतिशय शान्त हो गया, उसकी मूच्र्छा जाती रही और यहाँ तक कि उसने शरीर और आहार से भी ममत्व छोड़ दिया। वह सब परिग्रह अथवा कषायों का त्याग कर शिलातल पर बैठ गया। मुनिराज पिहितास्रव ने भी अपने अवधिज्ञानरूपी नेत्र से अकस्मात् सिंह का सब वृत्तान्त जान लिया और जानकर उन्होंने राजा प्रीतिवर्धन से कहा कि हे राजन्! इस पर्वत पर कोई पशु श्रावक होकर (स्रावक के व्रत धारणकर) संन्यास कर रहा है। तुम्हें उसकी सेवा करनी चाहिए। वह आगामी काल में भरत क्षेत्र के प्रथम तीर्थंकर श्री वृषभदेव के चक्रवर्ती पद का धारक पुत्र होगा और उसी भव से मोक्ष प्राप्त करेगा। मुनिराज के इन वचनों से राजा प्रीतिवर्धन को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने मुनिराज के साथ वहाँ जाकर अतिशय साहस करने वाले सिंह को देखा। तत्पश्चात् राजा ने उसकी सेवा अथवा समाधि में योग्य सहायता की और यह देव होने वाला है यह समझकर मुनिराज ने भी उसके कान में नमस्कार मंत्र सुनाया। वह सिंह अठारह दिन तक आहार का त्यागकर समाधि से शरीर छोड़ दूसरे स्वर्ग के दिवाकरप्रभ नामक विमान में दिवाकर प्रभ नामक देव हुआ। इस आश्चर्य को देखकर राजा प्रीतिवर्धन के सेनापति, मंत्री और पुरोहित भी शीघ्र ही अतिशय शान्त हो गये। इन सभी ने राजा के द्वारा दिये हुए पात्रदान की अनुमोदना की थी इसलिए आयु समाप्त होने पर वे उत्तरकुरु भोगभूमि में आर्य हुए। और आयु के अंत में ऐशान स्वर्ग में लक्ष्मीमान देव हुए। उनमें से मंत्री, कांचन नामक विमान में कनकाभ नाम का देव हुआ, पुरोहित रुषित नाम के विमान में प्रभंजन नाम का देव हुआ और सेनापति प्रभानामक विमान में प्रभाकर नाम का देव हुआ। आपकी ललितांगदेव की पर्याय में ये सब आपके ही परिवार के देव थे। सिंह का जीव वहाँ से च्युत हो मतिसागर और श्रीमती का पुत्र होकर आपका मतिवर नाम का मंत्री हुआ है। प्रभाकर का जीव स्वर्ग से च्युत होकर अपराजित सेनानी और आर्जवा का पुत्र होकर आपका अकम्पन नाम का सेनापति हुआ है। कनकप्रभ का जीव श्रुतकीर्ति और अनन्तमती का पुत्र होकर आपका आनंद नाम का प्रिय पुरोहित हुआ है तथा प्रभंजन देव वहाँ से च्युत होकर धनदत्त और धनदत्ता का पुत्र होकर आपका धनमित्र नाम का सम्पत्तिशाली सेठ हुआ है। इस प्रकार मुनिराज के वचन सुनकर राजा वङ्काजंघ और श्रीमती-दोनों ही धर्म के विषय में अतिशय प्रीति को प्राप्त हुए।
देखो! कहाँ तो परिग्रह में अति आसक्त होने से राजा भी मरकर तिर्यंचगति में व्याघ्र हुआ और कहाँ भरतचक्रवर्ती बनकर अथाह सम्पत्ति से भी विरक्त होकर क्षणमात्र में केवली बन गये थे। यह है भावों की महिमा और गुरुओं के संबोधन से वैâसे पामर जीव भी उत्कृष्ट पद को प्राप्त कर लेते हैं।
राजा वज्रजंघ के साथ वाले चारों मंत्री और चारों पशुओं का संबंध आगे मोक्ष जाने तक इनके साथ जुड़ा रहा है। अर्थात् ये सभी आगे तीर्थंकर पुत्र बनकर मोक्ष गये हैं। देखो! आहारदान के देखने मात्र से इन सभी का कल्याण हो गया।
इसी संदर्भ में मुनिराज द्वारा बताये गये नकुल (नेवला) का पूर्वभव भी बड़ा रोमांचक है, मुनि श्री वहाँ कहते हैं-
हे राजन्! यह नकुल (नेवला) भी पूर्वभव में इसी सुप्रतिष्ठित नगर में लोलुप नाम का हलवाई था। वह धन का बड़ा लोभी था। किसी समय वहाँ का राजा जिनमंदिर बनवा रहा था और उसके लिए वह मजदूरों से ई मंगाता था। वह लोभी मूर्ख हलवाई उन मजदूरों को कुछ पुआ वगैरह देकर उनसे छिपकर कुछ  ईटें अपने घर में डलवा लेता था। उन  ईटों के फोड़ने पर उनमें से कुछ में सुवर्ण निकला। यह देखकर इसका लोभ और भी बढ़ गया। उस सुवर्ण के लोभ से उसने बार-बार मजदूरों को पुआ आदि देकर उनसे बहुत सी  ईटें अपने घर डलवाना प्रारंभ किया। एक दिन उसे अपनी पुत्र के गाँव जाना पड़ा। जाते समय वह पुत्र से कहा गया कि हे पुत्र तुम भी मजदूरों को कुछ भोजन देकर उनसे अपने घर  ईटे डलवा लेना। यह कहकर वह तो चला गया परन्तु पुत्र ने उसके कहे अनुसार घर पर ईटें नहीं डलवाई। जब वह दुष्ट लौटकर घर आया और पुत्र से पूछने पर जब उसे सब हाल मालूम हुआ तब वह पुत्र पर बड़ा क्रोधित हुआ। उस मूर्ख ने लकड़ी तथा पत्थरों की मार से पुत्र का शिरफोड़ डाला और उस दु:ख से दु:खी होकर अपने पैर भी काट डाले। अन्त में वह राजा के द्वारा मारा गया और मरकर इस नकुल पर्याय को प्राप्त हुआ है। वह हलवाई लोभ के उदय से ही इस दशा तक पहुँचा है।
हे राजन! आपके दान को देखकर ये चारों ही परम हर्ष को प्राप्त हो रहे हैं और इन चारों को ही जाति-स्मरण हो गया है जिससे ये संसार से बहुत ही विरक्त हो गये हैं। आपके दिए हुए दान की अनुमोदना करने से इन सभी ने उत्तम भोगभूमि की आयु का बंध किया है। इसलिए ये भय छोड़कर धर्मश्रवण करने की इच्छा से यहाँ बैठे हुए हैं। हे राजन्! इस भव से आठवें आगामी भव में तुम वृषभनाथ तीर्थंकर होकर मोक्ष प्राप्त करोगे और उसी भव में ये सब भी सिद्ध होंगे और तब तक ये पुण्यशील जीव आपके साथ-साथ ही देव और मनुष्यों के उत्तम-उत्तम सुख तथा विभूतियों का उपभोग करते रहेंगे।
इन तीर्थंकर महापुरुष का चरित्र जगत में शांति करे यही मंगलकामना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-१५

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे

धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावोें! महापुराण ग्रंथ में भगवान ऋषभदेव के पूर्व भवों में राजा वङ्काजंघ की पर्याय का प्रकरण चल रहा है। यूँ तो प्राणी अनादिकाल से असंख्य भवों को धारण कर चौरासीलाख योनियों में भ्रमण कर रहा है फिर भी जहाँ से प्राणी का उत्थान प्रारंभ होता है वहीं से जन्म को सार्थक माना जाता है।
वङ्काजंघ ने ससुराल जाते हुए रास्ते में दो मुनियों को आहार देकर उनसे अपने सभी लोगों के पूर्वभव पूछे थे। वे मुनि तो आकाशमार्ग से वापस चले गये। पुन: प्रसन्नमना राजा वङ्काजंघ और श्रीमती दिन भर उन्हीं मुनियों की चर्चा करते रहे और आगे चलते-चलते वे कुछ दिन में पुण्डरीकिणी नगरी पहुँचकर माता लक्ष्मीमती से मिलते हैं। माता को रोती देखकर जैसे-तैसे उन्हें समझाते हैं पुन: राज्य की व्यवस्था देखते हुए सबको संभाला और साम, दाम, दण्ड, भेद आदि उपायों से समस्त प्रजा को अनुरक्त किया। राजदरबार के मुख्य अमात्य तथा आश्रित राजाओं का भी सम्मान कर उन्हें पहले की भांति चक्रवर्ती के समय के समान अपने-अपने कार्यों में नियुक्त कर दिया। तत्पश्चात् प्रात:कालीन सूर्य के समान देदीप्यमान पुुण्डरीक बालक को राज्य-सिंहासन पर बैठाकर और राज्य की सब व्यवस्था सुयोग्य मंत्रियों के हाथ सौंपकर राजा वङ्काजंघ लौटकर अपने उत्पलखेटक नगर में आ पहुँचे। उत्कृष्ट शोभा से सुशोभित महाराज वङ्काजंघ ने प्रिया श्रीमती के साथ बड़े ठाट-बाट से स्वर्गपुरी के समान सुन्दर अपने उत्पलखेटक नगर में प्रवेश किया। छहों ऋतुओं में हर्ष उत्पन्न करने वाले उस मनोहर राजमहल में कामदेव के समान सुन्दर वङ्काजंघ अपने पुण्य के उदय से प्राप्त हुए मनवांछित भोगों को भोगते हुए सुख से निवास करने लगे।
पुन: राजा वङ्काजंघ और श्रीमती एक बार अपने महल में सुखपूर्वक सो रहे थे। शयनागार को सुगंधित बनाने और केशों के लिए उस भवन में अनेक प्रकार का सुगंधित धूप जल रहा था। भाग्यवश उस दिन सेवक लोग झरोखे के द्वार खोलना भूल गये थे इसलिए वह धूम उसी शयनागार में रुकता रहा। निदान, सुगंधि के लिए जो धूप जल रहा था, उस के उठते हुए धूम से वे दोनों पति-पत्नी क्षण-भर में मूच्र्छित हो गये। उस धूम से उन दोनों के श्वास रुक गये जिससे अन्त:करण में उन दोनों को कुछ व्याकुलता हुई। अन्त में मध्य रात्रि के समय वे दोनों ही दम्पत्ति सदा के लिए सो गये-मर गये। उन दोनों ने पात्रदान से प्राप्त हुए पुण्य के कारण उत्तरकुरु भोगभूमि की आयु का बंध किया था। इसलिए क्षणभर में वहीं जाकर जन्म धारण कर लिया।
भव्यात्माओं! देखो, जीवन में समाधिपूर्वक मरण करना अत्यंत दुर्लभ है। इस युग में आचार्य शांतिसागर महाराज ने इंगिनीमरण किया था। यद्यपि वङ्काजंघ और श्रीमती का मरण बालमरण सदृश था, किन्तु आहारदान के प्रभाव से ही उन्होंने भोगभूमि में मनुष्य बनकर वहाँ के सुखों को प्राप्त कर लिया। वहाँ दश प्रकार के कल्पवृक्ष रहते हैं जिनसे मनुष्य लोग सब तरह की भोगोपभोग सामग्री प्राप्त करते हैं।
ये कल्पवृक्ष अनेक रत्नों के बने हुए होते हैं और अपनी विस्तृत प्रभा से दशों दिशाओं को प्रकाशित करते रहते हैं। इनमें मद्यांगजाति के वृक्ष पैâलती हुई सुगंधि से युक्त तथा अमृत के समान मीठे मधु, सीधु, अरिष्ट और आसव आदि अनेक प्रकार के रस देते हैं। वहाँ के इन मधु आदि को उपचार से मद्य कहते हैं। वास्तव में ये वृक्षों के एक प्रकार के रस हैं जिन्हें भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले आर्य पुरुष सेवन करते हैं। वर्तमान में मद्य पायी लोग जिस मद्य का पान करते हैं वह नशा करने वाला है और अन्त:करण को मोहित करने वाला है इसलिए सज्जनपुरुषों के लिए सर्वथा त्याज्य है। वादित्रांग जाति के वृक्ष में दुन्दुभि, मृदंग, झल्लरी, शंख, भेरी आदि अनेक प्रकार के बाजे फलते है। भूषणांग जाति के वृक्ष नूपुर, बाजूबंद, रुचिक, करधनी, हार और मुकुट आदि अनेक प्रकार के आभूषण उत्पन्न करते हैं। मालांग जाति के वृक्षसब ऋतुओं के पूâलों से व्याप्त अनेक प्रकार की मालाएँ और कर्णपूâल आदि अनेक प्रकार के कर्णाभरण अधिक रूप से धारण करते हैं। दीपांग नाम के कल्पवृक्ष मणिमय दीपकों से शोभायमान रहते हैं और प्रकाशमान कान्ति के धारक ज्योतिरंग जाति के वृक्ष सदा प्रकाश पैâलाते रहते हैं। गृहांग जाति के कल्पवृक्ष, ऊँचे-ऊँचे राजभवन, मण्डप, सभागृह, चित्रशाला और नृत्यशाला आदि अनेक प्रकार के भवन तैयार करने के लिए समर्थ रहते हैं। भोजनांग जाति के वृक्ष, अमृत के समान स्वाद देने वाले, शरीर को पुष्ट करने वाले और छहों रससहित अशन-पान आदि उत्तम-उत्तम आहार उत्पन्न करते हैं। अशन (रोटी, दाल, भात आदि खाने के पदार्थ), पानक (दूध, पानी आदि पीने के पदार्थ), खाद्य (लड्डू आदि खाने योग्य पदार्थ) और स्वाद्य (पान, सुपारी, जावित्री आदि स्वाद लेने योग्य पदार्थ) ये चार प्रकार के आहार और कड़वा, खट्टा, चरपरा, मीठा, कसैला और खारा ये छह प्रकार के रस हैं। भाजनांग जाति के वृक्ष, थाली कटोरा, भृंगार और करक (करवा) आदि अनेक प्रकार के बरतन देते हैं। ये बरतन इन वृक्षों की शाखाओं में लटकते रहते हैं और वस्त्रांग जाति के वृक्ष रेशमी वस्त्र, दुपट्टे और धोती आदि अनेक प्रकार के कोमल चिकने और महामूल्य वस्त्र धारण करते हैं। ये कल्पवृक्ष न तो वनस्पतिकायिक हैं और न देवों के द्वारा अधिष्ठित ही हैं। केवल वृक्ष के आकार परिणत हुआ पृथ्वी का सार ही है।
ये दोनों पति-पत्नी तो भोगभूूमियों में गये ही, साथ में नकुल, सिंह, वानर और शूकर भी पात्रदान की अनुमोदना के प्रभाव से वहीं पर दिव्य मनुष्य शरीर को पाकर भद्रपरिणामी आर्य हुए।
देखो! इस प्रकार दान एवं उसकी अनुमोदना मात्र से ही भोगभूमि के सुख प्राप्त करने वाले वे सभी जीव एक दिन मोक्ष प्राप्त करेंगे। ऐसे तीर्थंकर पद को प्राप्त चौबीसों भगवान जगत् में शांति प्रदान करें, यही मंगलकामना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।

कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-१६

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! महापुराण ग्रंथ के प्रथम भाग में मुख्यरूप से भगवान ऋषभदेव का जीवन चरित्र वर्णित है। उसी के अन्तर्गत उनके उत्थान को बतलाने वाले पूर्व भवों में राजा वङ्काजंघ और रानी श्रीमती ने भोगभूमि में आर्य-आर्या का चतुर्थ भव चल रहा है।
उत्तरकुरु क्षेत्र की उत्तम भोगभूमि में ये आर्य-आर्या प्राकृतिक सुषमा को निहारते हुए भ्रमण कर रहे थे कि इतने में आकाश में जाते हुए सूर्यप्रभ देव के विमान को देखकर उसे अपनी स्त्री के साथ-साथ ही जातिस्मरण हो गया और उसी क्षण दोनों को संसार के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो गया। उसी समय वङ्काजंघ के जीव ने दूर से आते हुए दो चारण मुनि देखे। वे मुनि भी उन पर अनुग्रह करते हुए आकाशमार्ग से उतर पड़े। वज्रजंघ का जीव उन्हें आता हुआ देखकर शीघ्र ही खड़ा हो गया। सच है, पूर्व जन्म के संस्कार ही जीवों को हित-कार्य में प्रेरित करते रहते हैं। वङ्काजंघ के जीव ने दोनों मुनियों के चरणयुगल में अघ्र्य चढ़ाया और नमस्कार किया। उस समय उसके नेत्रों से हर्ष के आँसू निकल-निकलकर मुनिराज के चरणों पर पड़ रहे थे जिससे वह ऐसा जान पड़ता था मानो अश्रुजल से उनके चरणों का प्रक्षालन ही कर रहा हो। वे दोनों मुनिराज स्त्री के साथ प्रणाम करते हुए आर्य वङ्काजंघ को आशीर्वाद द्वारा आश्वासन देकर मुनियों के योग्य स्थान पर यथाक्रम बैठ गये। तदनन्तर सुखपूर्वक बैठे हुए दोनों चारण मुनियों से वज्रजंघ का जीव आर्य पूछने लगा-
हे भगवन् आप कहाँ के रहने वाले हैं? आप कहाँ से आये हैं और आपके आने का क्या कारण है? हे प्रभो, आपके दर्शन से मेरे हृदय में मित्रता का भाव उमड़ रहा है, चित्त बहुत ही प्रसन्न हो रहा है और मुझे ऐसा मालूम होता है कि मानो आप मेरे परिचित बंधु हैं। इस प्रकार वङ्काजंघ का प्रश्न समाप्त होते ही ज्येष्ठमुनि उत्तर देने लगे-हे आर्य! तू मुझे स्वयंबुद्ध मंत्री का जीव जान, जिससे कि तूने महाबल के भव में सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर कर्मों का क्षय करने वाले जैनधर्म का ज्ञान प्राप्त किया था। उस भव में तेरे वियोग से सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर मैंने दीक्षा धारण की थी और आयु के अंत में संन्यासपूर्वक शरीर छोड़कर सौधर्म स्वर्ग के स्वयंप्रभ विमान में मणिचूल नाम का देव हुआ था। वहाँ मेरी आयु एक सागर से कुछ अधिक थी। तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर भूलोक में उत्पन्न हुआ हूँ। जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित पुष्कलावती देशसंबंधी पुण्डरीकिणी नगरी में प्रियसेन राजा और उनकी महारानी सुन्दरी देवी के प्रीतिंकर नाम का बड़ा पुत्र हुआ हूँ और यह महातपस्वी प्रीतिदेव मेरा छोटा भाई है। हम दोनों भाइयों ने भी स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के समीप दीक्षा लेकर तपोबल से अवधिज्ञान तथा आकाशगामिनी चारण ऋद्धि प्राप्त की है। हे आर्य! हम दोनों ने अपने अवधिज्ञानरूपी नेत्र से जाना है कि आप यहाँ उत्पन्न हुए हैं। चूँकि आप हमारे परम मित्र थे इसलिए आपको समझाने के लिए हम लोग यहाँ आये हैं। हे आर्य! तूने निर्मल सम्यग्दर्शन के बिना केवल पात्रदान की विशेषता से ही यहाँ शरीर छोड़ा था परन्तु उस समय भोगों की आकांक्षा के वश से तू सम्यग्दर्शन की विशुद्धता को प्राप्त नहीं कर सका था। अब हम दोनों, सर्वश्रेष्ठ तथा स्वर्ग और मोक्षसंबंधी सुख के प्रधान कारणरूप सम्यग्दर्शन को देने की इच्छा से यहाँ आये हैं। इसलिए हे आर्य, आज तू सम्यग्दर्शन ग्रहण कर ले। उसके ग्रहण करने का यह समय है क्योंकि काललब्धि के बिना इस संसार में जीवों को सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं होती है। जब देशनालब्धि और काललब्धि आदि बहिरङ्गकारण तथा करणलब्धिरूप अन्तरङ्ग कारण सामग्री की प्राप्ति होती है तभी यह भव्यप्राणी विशुद्ध सम्यग्दर्शन का धारक हो सकता है। जिस जीव का आत्मा अनादिकाल से लगे हुए मिथ्यात्वरूपी कलंक से दूषित होरहा है, उस जीव को सबसे पहले दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम होने से औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। जिस प्रकार सूर्य रात्रि संबधी अंधकार को दूर किये बिना उदित नहीं होता उसी प्रकार सम्यग्दर्शन मिथ्यात्वरूपी अंधकार को दूर किये बिना उदित नहीं होता अर्थात् प्राप्त नहीं होता। यह भव्य जीव, अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणों द्वारा मिथ्यात्वप्रकृति के मिथ्यात्व, सम्यङ्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप तीन खण्ड करके कर्मों की स्थिति कम करता हुआ सम्यग्दृष्टि होता है। वीतराग सर्वज्ञ देव, आगम और जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना गया है। यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का मूल कारण है। इसके बिना वे दोनों नहीं हो सकते हैं। जीवादि सात तत्त्वों का तीन मूढ़तारहित और आठ अंगसहित यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। प्रशम, संवेग, आस्तिक्य और अनुकम्पा ये चार सम्यग्दर्शन के गुण हैं और श्रद्धा, रुचि, स्पर्श और प्रत्यय ये उसके पर्याय हैं। नि:शंक्ति, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं। इन आठ अंगरूपी किरणों से सम्यग्दर्शनरूपी रत्न बहुत ही शोभायमान होता है। हे आर्य, तू इस श्रेष्ठ जैनमार्ग में शंका को छोड़ किसी प्रकार का संदेह मत कर, भोगों की इच्छा दूर कर, ग्लानि को छोड़कर अमूढ़दृष्टि (विवेकपूर्ण दृष्टि) को प्राप्त कर दोष के स्थानों को छिपाकर समीचीन धर्म की वृद्धि कर, मार्ग से विचलित होते हुए धर्मात्मा का स्थितीकरण कर, रत्नत्रय के धारक आर्य पुरुषों के संघ में प्रेमभाव का विस्तार कर और जैन-शासन की शक्ति के अनुसार प्रभावना कर। हे आर्य, तू यह निश्चित जान कि यह सम्यग्दर्शन मोक्षरूपी महल की पहली सीढ़ी है। नरकादि दुर्गतियों के द्वार को रोकने वाला मजबूत किवाड़ है, धर्मरूपी वृक्ष की स्थिर जड़ है, स्वर्ग और मोक्षरूपी घर का द्वार है और शीलरूपी रत्नहार के मध्य में लगा हुआ श्रेष्ठ रत्न है। देखो, जो पुरुष एक मुहूर्त के लिए भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है वह इस संसाररूपी बेल को काटकर बहुत ही छोटी कर देता है अर्थात् वह अद्र्धपुद्गल परावर्तन से अधिक समय तक संसार में नहीं रहता। इस प्रकार वे मुनिराज आर्य वङ्काजंघ को समझाकर आर्या श्रीमती से कहने लगे कि माता, तू भी बहुत शीघ्र ही संसाररूपी समुद्र से पार करने के लिए नौका के समान इस सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर। वृथा ही स्त्रीपर्याय में क्यों खेद-खिन्न हो रही है? हे माता, सब स्त्रियों में, रत्नप्रभा को छोड़कर नीचे की छह पृथिवियों में भवनवासी व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में तथा अन्य नीच पर्यार्यों में सम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति नहीं होती। हे माता, अब तू निर्दोष सम्यग्दर्शन की आराधना कर और इस स्त्रीपर्याय को छोड़कर क्रम से सप्त परम स्थानोें को प्राप्त कर। १. सज्जाति, २. सद्गृहस्थता (श्रावक के व्रत), ३. पारिव्रज्य (मुनियों के व्रत), ४. सुरेन्द्र पद, ५. राज्यपद, ६. अरहंतपद, ७. सिद्धपद, ये सात परम स्थान (उत्कृष्टपद) कहलाते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव क्रम-क्रम से इन परम स्थानों को प्राप्त होता है। आप लोग कुछ पुण्य भवों को धारण कर ध्यानरूपी अग्नि से समस्त कर्मों को भस्म कर परम पद को प्राप्त करोगे।
इस प्रकार प्रीतिंकर आचार्य के वचनों को प्रमाण मानते हुए आर्य वङ्काजंघ ने अपनी स्त्री के साथ-साथ प्रसन्नचित्त होकर सम्यग्दर्शन धारण किया। वह वङ्काजंघ का जीव अपनी प्रिया के साथ-साथ सम्यग्दर्शन पाकर बहुत ही संतुष्ट हुआ। सम्यग्दर्शनरूपी रसायन का आस्वाद कर वे दोनों ही दम्पत्ती कर्म नष्ट करने वाले जैनधर्म में बड़ी दृढ़ता को प्राप्त हुए। पहले कहे हुए सिंह, वानर, नकुल और सूकर के जीव भी गुरुदेव-प्रीतिंकर मुनि के चरण-मूल का आश्रय लेकर आर्य वङ्काजंघ और आर्या श्रीमती के साथ-साथ ही सम्यग्दर्शनरूपी अमृत को प्राप्त हुए थे।
आदिपुराण में वर्णन आया है-जिन्होंने हर्षसूचक चिन्हों से अपने मनोरथ की सिद्धि को प्रकट किया है ऐसे दोनों दम्पत्तियों को दोनों ही मुनिराज धर्मप्रेम से बार-बार स्पर्श कर रहे थे। वह वङ्काजंघ का जीव जन्मान्तरसंबंधी प्रेम से आँखें फाड़-फाड़कर श्री प्रीतिंकर मुनि के चरण-कमलों की ओर देख रहा था और उनके क्षण-भर के स्पर्श से बहुत ही संतुष्ट हो रहा था। तत्पश्चात् वे दोनों चारण मुनि अपने योग्य देश में जाने के लिए तैयार हुए। उस समय वङ्काजंघ के जीव ने उन्हें प्रणाम किया और कुछ दूर तक भेजने के लिए वह उनके पीछे चलने लगा। चलते समय दोनों मुनियों ने उसे आशीर्वाद देकर हित का उपेदश दिया और कहा कि हे आर्य, फिर दुबारा तेरा दर्शन हो, तुम लोग इस सम्यग्दर्शनरूपी समीचीन धर्म को नहीं भूलना। यह कहकर वे दोनों गगनगामी मुनि शीघ्र ही आकाशमार्ग से प्रस्थान कर हो गये। जब दोनों चारण मुनिराज चले गये तब वह वङ्काजंघ का जीव कुछ क्षण तक बहुत ही दुखी होता रहा। सो ठीक ही है, प्रिय मनुष्यों का विरह मन के सन्ताप के लिए ही होता है। वह सोचने लगा कि देखो! महाबल भव में भी वे मेरे स्वयंबुद्ध नामक गुरु हुए थे और आज इस भव में भी सम्यग्दर्शन देकर विशेष गुरु हुए हैं। यदि संसार में गुरुओं की संगति न हो तो गुणों की प्राप्ति नहीं हो सकती और गुणों की प्राप्ति के बिना इस जीव के जन्म की सफलता कहाँ हो सकती है? इस प्रकारचिन्तवन करते हुए वज्रजंघ की सम्यक्त्व भावना अत्यन्त दृढ़ हो गयी। यही भावना आगे चलकर इस वङ्काजंघ के लिए कल्पलता के समान समस्त इष्ट फल देने वाली होगी। श्रीमती के जीव ने भी वज्रजंघ के जीव के समान चिन्तन किया था इसलिए इसकी सम्यक्त्व भावना भी सुदृढ़ हो गई थी। इन दोनों पति-पत्नियों का स्वभाव एक-सा था इसलिए दोनों में एक सी अखण्ड प्रीति रहती थी। इस प्रकार प्रीतिपूर्वक भोग भोगते हुए उन दोनों दम्पत्तियों का तीन पल्य प्रमाण काल व्यतीत हो गया और दोनों जीवन के अन्त में सुखपूर्वक प्राण छोड़कर बाकी बचे हुए पुण्य से एक घर से दूसरे घर के समान ऐशान स्वर्ग में जा पहुँचे। जिस प्रकार वर्षाकाल में मेघ अपने आप ही उत्पन्न हो जाते हैं और समय पाकर अपने आप ही विलीन हो जाते हैं उसी प्रकार भोगभूमिज जीवों के शरीर अपने आप ही उत्पन्न होते हैं और जीवन के अन्त में अपने आप ही विलीन हो जाते हैं।
महानुभावों! आप भी सदैव जिनधर्म पर दृढ़ श्रद्धा रखते हुए अपने सम्यग्दर्शन को दृढ़ बनाएँ। जब तक भी आतंक, संकट आदि के क्षण आ जावें तो महामंत्र णमोकार को कभी मत छोड़ना, भगवान की भक्ति मत छोड़ना तो संकट भी दूर होगा और यदि मरण हुआ तो सुगति में जाकर वहाँ सुख प्राप्त होगा।
इस प्रकार भगवन्तों की भक्ति, धार्मिक अनुष्ठान आदि आप सबके लिए मंगलमय होवे, यही मंगलभावना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।

महापुराण प्रवचन-१७

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।

धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भोगभूमि के वे आर्य-आर्या मरण करके आर्य तो ऐशान स्वर्ग में श्रीधर नामक देव हो गया और श्रीमती के जीव ने भी स्वयंप्रभ नामक विमान में स्वयंप्रभ देव का जन्म धारण कर लिया। सिंह-नकुल आदि पशु भी देव बन गये। वहाँ पहुँचकर श्रीधर और स्वयंप्रभ देव को अवधिज्ञान से ज्ञात हो गया कि हम लोग गुरु के संबोधन से सम्यग्दर्शन ग्रहण कर स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं।
एक दिन श्रीधरदेव को अवधिज्ञान का प्रयोग करने पर यथार्थरूप से मालूम हुआ कि हमारे गुरु श्रीप्रभ पर्वत पर विराजमान हैं और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ है। संसार के समस्त प्राणियों के साथ प्रीति करने वाले जो प्रीतिंकर मुनिराज थे वे ही इनके गुरु थे। इन्हीं की पूजा करने के लिए अच्छी-अच्छी सामग्री लेकर श्रीधरदेव उनके सम्मुख पहुँच गये। जाते ही उन्होंने श्रीप्रभ पर्वत पर विद्यमान सर्वज्ञ प्रीतिंकर महाराज की पूजा की, उन्हें नमस्कार किया, धर्म का स्वरूप सुना और फिर अपने मन की बात पूछी। हे प्रभो, मेरे महाबल के भव में जो मेरे तीन मिथ्यादृष्टि मंत्री थे वे इस समय कहाँ उत्पन्न हुए हैं, वे कौन सी गति को प्राप्त हुए हैं? इस प्रकार पूछने वाले श्रीधरदेव से सर्वज्ञदेव कहने लगे। कि हे भव्य! जब तू महाबल का शरीर छोड़कर स्वर्ग चला गया और मैंने रत्नत्रय को प्राप्त कर दीक्षा धारण कर ली तब वे तीनों मंत्री कुमरण से मरकर दुर्गति को प्राप्त हुए थे। इन तीनों में से महामति और संभिन्नमति ये दो तो उस निगोद स्थान को प्राप्त हुए हैं जहाँ मात्र सघन अज्ञानान्धकार का ही अधिकार है और जहाँ अत्यन्त तप्त खौलते हुए जल में उठने वाली खलबलाहट के समान अनेक बार जन्म-मरण होते रहते हैं तथा शतमति मंत्री अपने मिथ्यात्व के कारण नरक गति में गया है। यथार्थ में खोटे कर्मों का फल भोगने के लिए नरक ही मुख्य क्षेत्र है। वह तुम्हारा शतबुद्धि मंत्री मिथ्याज्ञान की दृढ़ता से दूसरे नरक में अत्यन्त भयंकर दु:ख भोग रहा है।
महानुभावों! सातों नरक के नीचे अधोलोक में निगोदस्थान हैं जहाँ एक श्वांस में १८ बार जन्म-मरण करना पड़ता है।
मुनिराज ने आगे बताया-हे देव, वह शतबुद्धि मंत्री का जीव अपने पापकर्म के उदय से द्वितीय नरकसंबंधी बड़े-बड़े दु:खों को प्राप्त हुआ है। उस समय प्रीतिंकर जिनेन्द्र के वचन सुनकर पवित्र बुद्धि का धारक श्रीधरदेव अतिशय धर्मप्रेम को प्राप्त हुआ और गुरु के आज्ञानुसार दूसरे नरक में जाकर शतबुद्धि को समझाने लगा कि हे शतबुद्धि! क्या तू मुझ महाबल को जानता है? उस भव में तेरा मिथ्यात्व बहुत ही प्रबल हो रहा था। देख, उसी मिथ्यात्व का यह दु:ख देने वाला फल तेरे सामने है। इस प्रकार श्रीधरदेव के द्वारा समझाये हुए शतबुद्धि के जीव ने शुद्ध सम्यग्दर्शन धारण किया और उत्कृष्ट विशुद्धि प्राप्त की। तत्पश्चात् वह शतबुद्धि का जीव आयु के अंत में भयंकर नरक से निकलकर पूर्व पुष्करद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में मंगलावती देश के रत्नसंचयनगर में महीधर चक्रवर्ती के सुन्दरी नामक रानी से जयसेन नाम का पुत्र हुआ। जिस समय उसका विाह हो रहा था उसी समय श्रीधरदेव ने आकर उसे समझाया जिससे विरक्त होकर उसने यमधर मुनिराज के समीप दीक्षा धारण कर ली। श्रीधरदेव ने उसे नरकों के भयंकर दु:ख की याद दिलायी जिससे वह विषयों से विरक्त होकर कठिन तपश्चरण करने लगा। तदनन्तर आयु के अंत समय में समाधिपूर्वक प्राण छोड़कर ब्रह्मस्वर्ग में इन्द्र पद को प्राप्त हुआ। देखो, कहाँ तो नारकी होना और कहाँ इन्द्र पद प्राप्त होना। वास्तव में कर्मों की गति बड़ी ही विचित्र है। यह जीव, हिंसा आदि अधर्मकार्यों से नरकादि नीच गतियों में उत्पन्न हो जाता है और अहिंसा आदि धर्मकार्यों से स्वर्ग आदि उच्च गतियों को प्राप्त कर लेता है इसलिए उच्च पद की इच्छा करने वालों को सदा धर्म में तत्पर रहना चाहिए। अनन्तर अवधिज्ञानरूपी नेत्र से युक्त उस ब्रह्मेन्द्र ने ब्रह्म स्वर्ग से आकर अपने कल्याणकारी मित्र श्रीधरदेव की खूब प्रशंसा की।
देखो! सज्जन लोग कभी भी उपकारी के उपकार को नहीं भूलते हैं। इन पुराणों को पढ़कर सभी को सम्यक्त्व और मिथ्यात्व की महिमा अवश्य जानना चाहिए। मैं कई बार चिंतन करती हूँ कि निगोद को प्राप्त हुए मंत्री अभी तक निगोद से निकले हैं या नहीं? क्योंकि वहाँ कोई उन्हें संबोधन नहीं दे सकता है। जैन ग्रंथों में मिथ्यात्व को सर्वाधिक संसार भ्रमण का कारण माना है। अत: सदैव मिथ्यात्व से दूर रहकर सम्यक्त्व का आचरण करना चाहिए।
वह श्रीधरदेव भी स्वर्ग से च्युत होकर जम्बूद्वीपसंबंधी पूर्व विदेह क्षेत्र में स्वर्ग के समान शोभायमान होने वाले महावत्स देश के सुसीमानगर में सुदृष्टि राजा की सुन्दरनन्दा नाम की रानी से पवित्र बुद्धि का धारक सुविधि नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। वह सुविधि बाल्यावस्था से ही चन्द्रमा के समान समस्त कलाओं का भण्डार था और प्रतिदिन लोगों के नेत्रों का आनंद बढ़ाता रहता था। वह बाल्य अवस्था में ही लोगों को आनंद देने वाली रूप सम्पदा को प्राप्त था और पूर्ण युवा होने पर विशेष रूप से मनोहर सम्पदा को प्राप्त हो गया था।
राजपुत्र के रूप में सुविधि को खूब सुख-साम्राज्य प्राप्त हुआ और वह दूज के चन्द्रमा के समान अपनी वृद्धिंगत कलाओं से सबका मन मोहित करने लगा।
भगवन्तों के पुण्य चरित को बतलाने वाले इन पुराण ग्रंथों का स्वाध्याय करके आप सभी को अपने जीवन में सदैव पुण्य कार्य करके सम्यग्दर्शन को दृढ़ करना चाहिए। वे तीर्थंकर भगवान संसार में शांति की स्थापना करें, यही मंगलकामना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।

कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-१८

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।

धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! महापुराण के अनुसार आप अब भगवान ऋषभदेव के पूर्वभवों में राजा सुविधि के भव को जान रहे हैं।
वह सुविधि बालक होने पर भी अनेक सामुद्रिक चिन्हों से युक्त प्रकट हुए अपने मनोहर रूप के द्वारा संसार के समस्त जीवों के मन को जबरदस्ती हरण करता था। उस जितेन्द्रिय राजकुमार ने काम का उद्र्रेक करने वाले यौवन के प्रारंभ समय में ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य इन छह अन्तरङ्ग शत्रुओं का निग्रह कर दिया था इसलिए वह तरुण होकर भी वृद्धों के समान जान पड़ता था। उसने यथायोग्य समय पर गुरुजनों के आग्रह से उत्तम स्त्री के साथ पाणिग्रहण कराने की अनुमति दी थी और छत्र, चमर आदि राज्य लक्ष्मी के चिन्ह भी धारण किये थे, राज्य पद स्वीकृत किया था। तरुण अवस्था को धारण करने वाला वह सुविधि अभयघोष चक्रवती्र का भानजा था इसलिए उसने उन्हीं चक्रवर्ती की पुत्री मनोरमा के साथ विवाह किया था। सदा अनुवूâल सती मनोरमा के साथ वह राजा चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा। सुशील और अनुवूâल स्त्री ही पति को प्रसन्न कर सकती है। इस प्रकार प्रीतिपूर्वक क्रीड़ा करते हुए उन दोनों का समय बीत रहा था कि स्वयंप्रभ नाम का देव (श्रीमती का जीव) स्वर्ग से च्युत होकर उन दोनों के केशव नाम का पुत्र हुआ। वङ्काजंघ पर्याय में जो इसकी श्रीमती नाम की प्यारी स्त्री थी वही इस भव में इसका पुत्र हुई है। क्या कहा जाये? संसार की स्थिति ही ऐसी है। उस पुत्र पर सुविधि राजा का भारी प्रेम था। वैसे तो पुत्र प्रीति के लिए ही होता है पुन: यदि पूर्वभव का प्रेमपात्र स्त्री का जीव ही आकर पुत्र उत्पन्न हुआ हो तो फिर कहनाही क्या है? उस पर तो सबसे अधिक प्रेम होता ही है। सिंह, नकुल, वानर और शूकर के जीव जो कि भोगभूमि के बाद द्वितीय स्वर्ग में देव हुए थे वे भी वहाँ से चय कर इसी महावत्स देश में सुविधि के समान पुण्याधिकारी होने से उसी के समान विभूति के धारक राजपुत्र हुए। सिंह का जीव चित्रांगद देव स्वर्ग से च्युत होकर विभीषण राजा से उसकी प्रियदत्ता नाम की पत्नी के उदर में वरदत्त नाम का पुत्र हुआ। शूकर का जीव-मणिकुण्डल नाम का देव नन्दिषेण राजा और अनन्तमती रानी के वरसेन नाम का पुत्र हुआ। वानर का जीव-मनोहर नामक देव स्वर्ग से च्युत होकर रतिषेण राजा की चन्द्रमती रानी के चित्रांगद नाम का पुत्र हुआ और नकुल का जीव-मनोरथ नाम कादेव स्वर्ग से च्युत होकर प्रभंजन राजा की चित्रमालिनी रानी के प्रशान्तमदन नाम का पुत्र हुआ। समान आकार, समान रूप, समान सौन्दर्य और समान सम्पत्ति के धारण करने वाले वे सभी राजपुत्र अपने-अपने योग्य राज्यलक्ष्मी पाकर चिरकाल तक भोगों का अनुभव करते रहे।
पुन: किसी दिन वे चारों ही राजा, चक्रवर्ती अभयघोष के साथ विमलवाहन जिनेन्द्र देव की वंदना करने के लिए गये। वहाँ सबने भक्तिपूर्वक वंदना की और फिर सभी ने विरक्त होकर दीक्षा धारण कर ली। वह चक्रवर्ती अठारह हजार राजाओं और पाँच हजार पुत्रों के साथ दीक्षित हुआ था। वे सब मुनीश्वर उत्कृष्ट संवेग और निर्वेदरूप परिणामों को प्राप्त होकर स्वर्ग और मोक्ष के मार्गभूत कठिन तप तपने लगे।
महानुभावों! धर्म तो संसार में सदा श्रेष्ठ ही माना गया है। धर्म से कोई वस्तु दुर्लभ नहीं है और पाप से कोई कुयोनि दुर्लभ नहीं है। आचार्य शांतिसागर महाराज कहा करते थे कि भैय्या! कोई किसी को हाथ पकड़कर धर्म में नहीं लगा सकता है, धर्म में बुद्धि लगाने हेतु पुण्य अवश्य चाहिए।
राजा सुविधि अपने केशव पुत्र के स्नेह से गृहस्थ अवस्था का परित्याग नहीं कर सका था इसलिए श्रावक के उत्कृष्ट पद में स्थित रहकर कठिन तप करने लगा। जिनेनद्रदेव ने गृहस्थों के ग्यारह स्थान या प्रतिमाएँ कहीं हैं-(१) दर्शन प्रतिमा (२) व्रतप्रतिमा (३) सामायिकप्रतिमा (४) प्रोषधप्रतिमा (५) सचित्तत्यागप्रतिमा (६) दिवामैथुनत्यागप्रतिमा (७) ब्रह्मचर्यप्रतिमा (८) आरंभत्यागप्रतिमा (९) परिग्रहत्यागप्रतिमा (१०) अनुमतित्यागप्रतिमा और (११) उद्दिष्टत्यागप्रतिमा। इनमें से सुविधि राजा ने क्रम-क्रम से ग्यारहवाँ स्थान-उद्दिष्टत्यागप्रतिमा धारण की थी। जिनेन्द्र देव ने गृहस्थाश्रम के उक्त ग्यारह स्थानों में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इन बारह व्रतों का निरूपण किया है। स्थूल हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से निवृत्त होने को क्रम से अिंहसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह परिमाणाणुव्रत कहते हैं। यदि इन पाँच अणुव्रतों को हर एक व्रत की पाँच-पाँच भावनाओं से सुसंस्कृत और सम्यग्दर्शन की विशुद्धि से युक्त कर धारण किया जाये तो उनसे गृहस्थों को बड़े-बड़े फलों की प्राप्ति हो सकती है। दिग्विरति, देशविरत और अनर्थदण्डविरति ये तीन गुणव्रत हैं। कोई-कोई आचार्य भोगोपभोग के परिमाणव्रत को भी गुणव्रत कहते हैं (और देशव्रत को शिक्षाव्रतों में शामिल करते हैं)। सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिसंविभाग और मरण समय में संन्यास धारण करना ये चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं (अनेक आचार्यों ने देशव्रतों को शिक्षाव्रत में शामिल किया है और संन्यास का बारह व्रतों से भिन्न वर्णन किया है)। इस प्रकार सम्यग्दर्शन से पवित्र व्रतों की शुद्धता को प्राप्त हुए राजर्षि सुविधि चिरकाल तक श्रेष्ठ मोक्षमार्ग का उपासना करते रहे। अनन्तर जीवन के अन्त समय में परिग्रहरहित दिगम्बर दीक्षा को प्राप्त हुए सुविधि महाराज ने विधिपूर्वक उत्कृष्ट मोक्षमार्ग की आराधना कर समाधिमरणपूर्वक शरीर छोड़ा जिससे अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुए। वहाँ उनकी आयु बीस सागर प्रमाण थी और उन्हें अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त थीं। श्रीमती के जीव केशव ने भी समस्त बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर निग्र्रंथ दीक्षा धारण की और आयु के अंत में अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद प्राप्त किया। वरदत्त आदि राजपुत्र भी अपने-अपने पुण्य के उदय से उसी अच्युत स्वर्ग में सामानिक जाति के देव हुए। पूर्ण आयु को धारण करने वाला वह अच्युत स्वर्ग का इन्द्र अणिमा, महिमा आदि आठ गुण, ऐश्वर्य और दिव्य भोगों का अनुभव करता हुआ चिरकाल तक क्रीड़ा करता था। उस अच्युतेन्द्र की आठ महादेवियाँ थीं। तिरेसठ वल्लभिका देवियाँ सब मिलाकर उसकी दो हजार इकहत्तर देवियाँ थीं। उस अच्युतेन्द्र का मैथुन मानसिक था और आहार भी मानसिक था तथा वह बाईस हजार वर्षों में एक बार आहार करता था।
स्वर्ग के सुखों का यहाँ इसलिए वर्णन किया है कि सम्यग्दर्शन सहित पुण्य करके मानव स्वर्ग के उत्तम-उत्तम सुख सहज प्राप्त कर लेता है।
देखो! एक जीव के जीवन का उत्थान किस प्रकार हो रहा है। यह कथानक पढ़कर-सुनकर प्रत्येक भव्यप्राणी को सम्यग्दर्शन प्राप्त करके यथायोग्य रत्नत्रय धारण करना चाहिए। सम्यग्दृष्टि देवता भी मात्र स्वर्ग के भोगों में ही न रमकर अकृत्रिम चैत्यालयों में जाकर भगवान की पूजा-वंदना करके आगे के लिए भी पुण्य संचित करते रहते हैं। ऐसे सन्मार्ग को दर्शाने वाले भगवान ऋषभदेव एवं चौबीसों तीर्थंकर जगत् में शांति करें, यही मंगलकामना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-१९

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! महापुराण नामक आर्ष ग्रंथ में आदिपुराण के अन्तर्गत कृतयुग के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के दशावतारों में अच्युत स्वर्ग के इंद्र पद का कथानक चल रहा है। श्रीमती का जीव जो राजा सुविधि का पुत्र केशव था, वह भी मरकर अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुआ था।
यह तो आप जान चुके हैं कि स्वर्ग से आयु पूर्ण करते समय ६ माह पूर्व ही देवों के गले में पड़ी मंदारमाला मुरझाने लगती है तो वे वहाँ का सुख छोड़ते हुए बहुत दु:ख होता है किन्तु उस अच्युतेन्द्र को कोई दु:ख नहीं हुआ, प्रत्युत् वह खूब जिनेन्द्र भक्ति में तत्पर रहा और अंत में वहाँ से च्युत होकर मध्यलोक में विदेह क्षेत्र में महान पुण्यशाली राजपुत्र का जन्म धारणकर लिया।
आदिपुराण में वर्णन आया है कि जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में पुष्कलावती देश है। उसकी पुण्डरीकिणी नगरी में राजा वङ्कासेन राज्य करते थे जो कि तीर्थंकर थे। उनकी रानी का नाम श्रीकांता था।
सुविधि राजर्षि जो कि अच्युतेन्द्र हुए थे, उनका जीव स्वर्ग से चलकर श्रीकांता रानी के ‘वङ्कानाभि’ नाम का पुत्र हुआ। पहले बताए हुए सिंह, सूकर, वानर और नकुल के जीव भी जो कि अच्युत स्वर्ग में सामानिक देव हुए थे, वे उन्हीं रानी से क्रमशः विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के पुत्र हो गये। वङ्काजंघ की पर्याय में जो मतिवर आदि मंत्री के जीव थे, वे राजा वङ्काजंघ के मरने के बाद दीक्षा लेकर अंत में मरकर ग्रैवेयक विमान में अहमिंद्र हुए थे। वे भी उन्हीं श्रीकांता रानी के क्रमशः सुबाहु, महाबाहु, पीठ और महापीठ नाम के पुत्र हो गये।
किसी समय तीर्थंकर वङ्कासेन को वैराग्य होते ही लौकांतिक देवों ने आकर प्रभु की पूजा-स्तुति करके दीक्षा की अनुमोदना की। राजा वङ्कासेन ने भी युवा पुत्र वज्रनाभि को समस्त पृथ्वी का राज्यभार सौंपकर राजपट्ट बाँध करके मुकुटबद्ध राजाओं से नमस्कार कराते हुए ऐसा आशीर्वाद दिया ‘तू बड़ा भारी चक्रवर्ती हो’ और वे स्वयं देवों द्वारा लाई गई पालकी में बैठकर आम्रवन में पहुंचे जहाँ एक हजार राजाओं के साथ स्वयं दीक्षा ग्रहण कर ली।
यह ध्यान रखना है कि तीर्थंकर किसी को अपना गुरु नहीं बनाते हैं, वे स्वयं सिद्धों का स्मरण कर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करते हैं।
महानुभावों! इधर राजा वज्रनाभि की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ और उधर पिता वङ्कासेन को केवलज्ञान प्रगट हो गया। राजा वङ्कानाभि चक्ररत्न से छह खंड वसुधा को जीतकर छियानवे हजार रानियों से युक्त एकछत्र साम्राज्य का उपभोग किया। श्रीमती का जीव केशव जो कि अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुआ था, वह भी वहाँ से चयकर उसी नगरी में कुबेरदत्त वणिक् की अनंतमती भार्या से ‘धनदेव’ नाम का पुत्र हो गया जो कि चक्रवर्ती वङ्कानाभि का गृहपति रत्न हुआ। किसी समय पिता वज्रसेन तीर्थंकर से धर्मोपदेश सुनकर वङ्कानाभि ने सम्पूूर्ण साम्राज्य को जीर्ण-तृण के समान मानकर एक क्षण में त्याग कर दिया और सोलह हजार मुकुटबद्ध राजाओं, एक हजार पुत्रों, आठ भाइयों और धनदेव के साथ-साथ मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से वङ्कादन्त पुत्र को राज्य सौंपकर पिता वज्रसेन तीर्थंकर के समवसरण में ही जैनेश्वरी दीक्षा ले ली।
भव्यात्माओं! आपने जान लिया है कि आत्मिक आनंद तो त्याग में ही प्राप्त होता है। उस त्याग को स्वीकार करके मोक्षमार्ग का दिग्दर्शन कराने वाले तीर्थंकर भगवान जगत में शांति करें, यही मंगलकामना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-२०

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

भव्यात्माओं! भगवान ऋषभदेव ने अपने पूर्ववर्ती आठवें भव में चक्रवर्ती की विभूति छोड़कर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली थी। वह दीक्षा कैसी होती है उन्होंने कैसे उसे ग्रहण किया था।
वर्तमान में कुछ लोग अज्ञानतावश नग्न दिगम्बर मुनियों से घृणा करते हैं किन्तु आपको जानना है कि ये मुनिगण नग्न नहीं यथाजात मुद्रा के धारी होते हैं। वैदिक परम्परा में शुकदेव को नग्न साधु माना है। प्रयाग के महावुंâभ में भी अनेक नागा साधु देखे जाते हैं।
उन वज्रनाभि महामुनि ने तेरह प्रकार का चारित्र, बारह प्रकार का तप, बाईस परिषह आदि उत्तर गुणों का पालन करते हुए तीर्थंकर के पादमूल में सोलहकारण भावनाओं का चिंतवन किया था।
उन सोलहकारण भावनाओं के नाम हैं-
१. दर्शनविशुद्धि २. विनयसंपन्नता ३. शीलव्रतेष्वनतीचार ४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग ५. संवेग ६. शक्तिस्त्याग ७. शक्तितस्तप ८. साधु समाधि ९. वैयावृत्यकरण १०. अर्हद्भक्ति ११. आचार्यभक्ति १२. बहुश्रुतभक्ति १३. प्रवचनभक्ति १४. आवश्यक अपरिहाणि १५. मार्गप्रभावना और १६. प्रवचनवत्सलता।
सम्यग्दर्शन को विशुद्धि रखना, विनय से सम्पन्न होना, शीलव्रतों में अतिचार न लगाना, नित्य ही ज्ञानोपयोग में लीन रहना, संसार से भीरुता, शक्ति के अनुसार तप करना, ज्ञान और संयम के साधनभूत पदार्थों का त्याग (दान) करना, साधुओं के व्रतादि में विघ्न आने पर उन्हें दूर करना, साधुओं की वैयावृत्ति करना, अरहंत भगवान् की भक्ति, आचार्य की भक्ति, बहुश्रुत मुनियों की भक्ति और प्रवचन की भक्ति करना, आवश्यक क्रियाओं का पूर्णरूप से पालन करना, जैन धर्म की प्रभावना करना तथा धर्मात्माओं में अखंड प्रेम रखना। इस प्रकार की सोलह भावनाओं का उत्कृष्ट रीति से चिंतन करते हुए उन धीर-वीर वङ्कानाभि मुनिराज ने तीन लोक में क्षोभ उत्पन्न करने वाली तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया।
महानुभावों! सोलह कारण भावनाएँ भाकर मनुष्य तीर्थंकर प्रकृति का बंध इसलिए करते हैं कि क्योंकि इनका पालन करने से परिणाम अत्यन्त शुद्ध, कोमल और विनम्र हो जाते हैं तथा बाह्य किसी वैभव की उन्हें अपेक्षा नहीं रह जाती है। आप सबको भी इन भावनाओं का चिंतन अवश्य करना चाहिए।
उन वज्रनाभि मुनिराज को ऋद्धियों की बिल्कुल भी इच्छा नहीं थी फिर भी अणिमा, महिमा आदि गुणों सहित विक्रिया ऋद्धि प्रगट हो गई। कोष्ठ बुद्धि, बीज बुद्धि आदि बुद्धि ऋद्धियाँ भी उत्पन्न हो गई। जगत् का हित करने वाली जल्लौषधि, सर्वौषधि आदि ऋद्धियों ने भी उनका वरण किया, यद्यपि मुनिराज ने घी, दूध आदि रस का त्याग कर दिया था तो भी घी, दूध आदि को झराने वाली अनेकों रस ऋद्धियाँ भी प्रगट हुई थीं। वे बल ऋद्धि के प्रभाव से कठिन से कठिन परिषह भी सह लेते थे।
अक्षीण ऋद्धि के बल से वे जिस दिन जिस घर में आहार लेते थे, उस दिन उस घर में अन्न अक्षय हो जाता था-चक्रवर्ती के कटक को भोजन कराने पर भी वह भोजन क्षीण नहीं होता था। इस प्रकार वे मुनिराज सदैव छठे-सातवें गुणस्थान में चढ़ते-उतरते रहते थे।
कहा भी है कि-

पद्मिन्यो राजहंसाश्च, निर्ग्रन्थाश्च तपोधना:।
यत्र देशे प्रसर्पन्ति, सुभिक्षं तत्र जायते।।

अर्थात् जहाँ-जहाँ ये महामुनि विचरण करते हैं, वहाँ-वहाँ शांति-सुभिक्षता का वातावरण बनता है। भारत की धरती पर सदा-सदा से यथाजात मुद्राधारी सन्तों का विचरण होता रहा है। इसीलिए जैन रामायण पद्मपुराण में कहा है-

यस्य देशं समाश्रित्य, साधवो कुर्वते तप:।
षष्ठमंशं नृपस्तस्य, लभते परिपालनात्।।

अर्थात् जिस देश में साधुजन तपस्या करते हैं उस देश के राजा को साधु की तपस्या का छठा भाग पुण्य स्वयं प्राप्त हो जाता है। हमारे देश के राजा को भी हम सब सन्तों की तपस्या का पुण्य प्राप्त हो रहा है। मैंने यह बात २१ दिसम्बर २००८ को मेरे पास पधारीं राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील से कही तो उन्हें भी बड़ी प्रसन्नता हुई। वे कहने लगीं कि माताजी! हम लोगों को देश की व्यवस्था संचालन में आप जैसे गुरुओं की तपस्या, प्रेम और सुझावों की बहुत बड़ी आवश्यकता है।
महानुभावों! इस भारत की धरती पर ही सर्वोदय सिद्धान्तों को बताने वाले महापुरुष जन्मे हैं इसलिए भारत की धरती परम पवित्र भूमि है। यहाँ से विश्वशांति का उद्घोष करके जन-जन में अहिंसा और शांति की भावनाएँ पैदा करना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-२१

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! वज्रनाभि चक्रवर्ती की महामुनि अवस्था में सोलहकारण भावनाओं के भाने का प्रकरण आपने जाना है। वे अपने पिता तीर्थंकर वज्रसेन के समवसरण में इन भावनाओं का चिंतवन कर रहे हैं। महान उग्रोग्र तपस्या करते हुए वे आत्मतत्त्व की प्राप्ति में संलग्न हैं।
आदिपुराण में वर्णन आया है-
विशुद्ध भावनाओं को धारण करने वाले वङ्कानाभि मुनिराज जब अपने विशुद्ध परिणामों से उत्तरोत्तर विशुद्ध हो रहे थे तब वे उपशम श्रेणी पर आरूढ़ हुए। वे अध:करण के बाद आठवें अपूर्वकरण का आश्रय कर नौंवे अनिवृत्तिकरण गुणस्थान को प्राप्त हुए और उसके बाद जहाँ राग अत्यन्त सूक्ष्म रह जाता है ऐसे सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थान को प्राप्त कर उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त हुए। वहाँ उनका मोहनीय कर्म बिल्कुल ही उपशान्त हो गया। सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का उपशम हो जाने से वहाँ उन्हें अतिशय विशुद्ध औपशमिक चारित्र प्राप्त हुआ। अन्तर्मुहूर्त के बाद वे मुनि फिर स्वस्थान अप्रमत्त नामक सातवें गुणस्थान में स्थित हो गये अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त ठहरकर वहाँ से च्युत हो उसी गुणस्थान में आ पहुँचे जहाँ से कि आगे बढ़ना शुरू किया था। उसका खास कारण यह है कि ग्यारहवें गुणस्थान में आत्मा की स्वाभाविक स्थिति अन्तर्मुहूर्त से आगे है ही नहीं। मुनिराज वज्रनाभि उत्कृष्ट रूप से आत्मतत्त्व को जानते थे, उत्कृष्ट तप को जानते थे, उत्कृष्ट पूजा को जानते थे और उत्कृष्ट पद (सिद्धपद) को जानते थे। तत्पश्चात् आयु के अंत समय में उन बुद्धिमान वज्रनाभि मुनिराज ने श्रीप्रभ नामक ऊँचे पर्वत पर प्रायोपवेशन (प्रायोपगमन नामक संयास) धारण कर शरीर और आहार से ममत्व छोड़ दिया। चूँकि इस संन्यास में तपस्वी साधु रत्नत्रयरूपी शय्या पर उपविष्ट होता है-बैठता है, इसलिए इसका प्रायोेपवेशन नाम सार्थक है। इस संन्यास में अधिकतर रत्नत्रय की प्राप्ति होती है। इसलिए इसे प्रायोपगम भी कहते हैं। अथवा इस संन्यास के धारण करने पर अधिकतर कर्मरूपी शत्रुओं का अपगम-नाश हो जाता है। इसलिए इसे प्रायेणापगम भी कहते हैं। उस विषय के जानकार उत्तम मुनियों ने इस संन्यास का एक नाम प्रायोपगमन भी बतलाया है और उसका अर्थ कहा है कि जिसमें प्राय: करके संसारी जीवों के रहने योग्य नगर, ग्राम आदि से हटकर किसी वन में जाना पड़े उसे प्रायोपगमन कहते हैं। इस प्रकार प्रायोपगमन संन्यास धारणकर वज्रनाभि मुनिराज अपने शरीर का तो स्वयं ही कुछ उपचार करते थे और न किसी दूसरे से ही उपचार कराने की चाह रखते थे। वे तो शरीर से ममत्व छोड़कर उस प्रकार निराकुल हो गये थे जिस प्रकार कि कोई शत्रु के मृतक शरीर को छोड़कर निराकुल हो जाता है।
महानुभावों! जैनधर्म में कही गई सोलह भावनाओं में वैयावृत्ति नाम की जो भावना है उसमें विशेषरूप से दूसरों की सेवा को प्रमुखता दी गई है। आज भी लोग दूसरोें की सेवा करके लोग हार्दिक सुख का अनुभव करते हैं। सेवा से किसी के भी मन को जीता जा सकता है। देखो! ईसाई धर्म दुनिया में सेवा के कारण ही छाया हुआ है। नारायण सेवा संस्थान-उदयपुर की संस्था भी परोपकार सेवा आदि करके हजारों लोगों को जीवनदान दे रही है।
इसी प्रकार विनय आदि गुणों से मानव संसार भर को वश में कर सकता है, जबकि अहंकार से लोग नष्ट हो जाते हैं। रावण जैसे अहंकारी ने नरक को प्राप्त कर लिया किन्तु अपना मान नहीं छोड़ा। देखो! राजा सुभौम ने अहं में आकर रसोइये के ऊपर खीर का बर्तन पटक दिया था, वह मरकर व्यंतर देव हुआ तो उसने छल से राजा को समुद्र में डुबोकर मार डाला। णमोकार मंत्र के अपमान से चक्रवर्ति राजा भी मरकर नरक चला गया। मंत्रों के उच्चारण से विश्व में शांति होती है इसीलिए मैंने विश्वशांति मंत्र जपने की प्रेरणा दी है। आप इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि जब तक राजा के हृदय में मंत्र शक्ति रही तब तक देव उसे मार नहीं पाया, मंत्र छोड़ते ही वह देव द्वारा मार दिया गया। इसलिए आप सभी विश्वशांति और आत्मशांति के लिए णमोकार मंत्र और विश्वशांति मंत्र का जाप्य करें, यही मंगल प्रेरणा है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-२२

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! महापुराण ग्रंथ के अन्तर्गत आदिपुराण पर भगवान ऋषभदेव का चारित्र चल रहा है। उसमें वज्रनाभि चक्रवर्ती ने छह खण्ड वसुधा को त्याग करके जब जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली और उग्रोग्र तपश्चरण करने लगे तब उन्हें अनेक ऋद्धियाँ प्रगट हो गई। देखो! वज्रनाभि चक्रवर्ती की वैराग्यभावना में कहा है-

सुख होता संसारविषैं तो, तीर्थंकर क्यों त्यागे।
काहे को शिवसाधन करते, संयम सों अनुरागे।।

मैं इस बारह भावना को बचपन में भी पढ़ा करती थीं। तपस्या करने वाले उन मुनिराज को अनेकानेक ऋद्धियाँ प्रगट हो गई थीं। आदिपुराण में वर्णन आया है-

रसत्यागप्रतिज्ञस्य, रससिद्धिरभून्मुने:।
सूते निवृत्तिरिष्टार्था-दधिवंâ हि महत् फलम्।।

यद्यपि उन मुनिराज के घी, दूध आदि रसों के त्याग करने की प्रतिज्ञा थी तथापि घी, दूध आदि को झराने वाली अनेक रस ऋद्धियाँ प्रकट हुई थीं। सो ठीक ही है, इष्ट पदार्थों के त्याग करने से उनसे भी अधिक महाफलों की प्राप्ति होती है।
किन्तु उन मुनिराज को उन ऋद्धियों से कोई प्रयोजन नहीं था। यहाँ ध्यान देना है कि दिगम्बर जैन सन्त अपनी ऋद्धियों का उपयोग अपने लाभ के लिए कभी नहीं करते हैं उनकी ऋद्धियों से अन्य लोग लाभ प्राप्त करते हैं।
परिणामों की विशुद्धि से वे सातिशय अप्रमत्त नाम के सातवें गुणस्थान से आगे बढ़कर उपशम श्रेणी में चढ़ गये अर्थात् आठवें, नवमें, दशवें और ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँच गये। अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर वे मुनि नीचे उतर कर पुनः स्वस्थान अप्रमत्त नामक सातवें गुणस्थान में स्थित हो गये। उसका खास कारण यह है कि ग्यारहवें गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त ही है। तत्पश्चात् आयु के अंत में श्रीप्रभ पर्वत पर पहुंचकर वज्रनाभि महामुनि ने प्रायोपगमन संन्यास ग्रहण कर लिया। वे उस समय स्वयं तथा पर से किन्चित् भी शरीर का उपचार नहीं करते थे, न कराते ही थे। उस समय उनके शरीर में चर्म और हड्डी मात्र ही शेष रह गई थी, तो भी वे निश्चल चित्त निराकुलता से ध्यानस्थ थे।
आदिपुराण में पुन: वर्णन आया है कि वे द्वितीय बार उपशम श्रेणी पर आरूढ़ हुए और पृथक्त्ववितर्क नामक शुक्लध्यान को पूर्ण कर उत्कृष्ट समाधि को प्राप्त हुए। अंत में उपशांतमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में प्राण छोड़कर सर्वार्थसिद्धि पहुँचे और वहाँ अहमिंद्र पद को प्राप्त हो गये।
भव्यात्माओं! जैसा इस स्वर्ग का नाम है सर्वार्थसिद्धि, तो वह वास्तव में समस्त मनोरथों की सिद्धि कराने वाला है अर्थात् वहाँ जाकर पुन: मनुष्य का एक भव लेकर निश्चित मोक्ष जाते हैं। पाँच पांडवों में महामुनि नकुल-सहदेव ने उपशमश्रेणी से इसी सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र पद प्राप्त किया था, वे आज भी वहाँ के सुख भोग रहे है।
इस विमान से सिद्ध शिला मात्र १२ योजन है किन्तु चूँकि देवता अपनी देवपर्याय से सिद्धशिला पर जा नहीं सकते, इसलिए उन्हें मनुष्य भव लेकर तपस्या करके ही वहाँ जाना होता है और वहाँ जाने के बाद वे पुन: कभी संसार में नहीं आते हैं।
मैं कई बार आप लोगों को तीन लोक का ध्यान कराती हूँ कि खड़े होकर अपने कमर पर हाथ रखकर स्वयं तीन लोक बन जाएँ और उसका ध्यान करते हुए सिद्धलोक की यात्रा कर सकते हैं। आज भी उस ध्यान को बताती हूँ-
तीन लोक का ध्यान
१. तीन लोक रचना बनाकर अर्थात् दोनों पैरों को पैâलाकर दोनों हाथों को कमर पर रखकर खड़े होने से तीन लोक का आकार बन जाता है।
ऐसा आकार बनाकर खड़े होकर कम से कम पाँच मिनट तक तीन लोक के जिनमंदिरों की वंदना करना चाहिए।
२. इसमें नाभि के नीचे अधोलोक के जिनमंदिरों की वंदना करें।
३. नाभि के पास मध्यलोक के जिनमंदिरों की वंदना करें।
४. नाभि के ऊपर से लेकर मस्तक तक ऊध्र्वलोक के जिनमंदिरों की वंदना करें।
५. पुन: तीनलोक के सामूहिक जिनमंदिरों एवं जिनप्रतिमाओं को नमस्कार करके वन्दना करें।
६. अनन्तर सिद्धशिला के अनन्त सिद्धों को नमस्कार करें।
इस तीन लोक के ध्यान की विधि संक्षेप में बताई जा रही है-
तीन लोक के अकृत्रिम-शाश्वत जिनमंदिरों की वंदना
१. अधोलोक में भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख जिनमंदिर हैं।
२. मध्यलोक में चार सौ अट्ठावन शाश्वत जिनमंदिर हैं।
३. ऊध्र्वलोक में वैमानिक देवों के चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस जिनमंदिर हैं।
४. तीनों लोक में आठ करोड़, छप्पन लाख, सत्तानवे हजार, चार सौ इक्यासी, ऐसे शाश्वत जिनमंदिर हैं।
५. इन तीनों लोकों के जिनमंदिर में प्रत्येक में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएँ हैं, जिनकी संख्या-९२५ करोड़, ५३ लाख, २७ हजार, ९ सौ ४८ है।
इन सब जिनमंदिर, जिनप्रतिमाओं को मेरा नमस्कार होवे।
६. व्यन्तर देवों के एवं ज्योतिषी देवों के असंख्यात जिनमंदिर हैं, उन सबमें १०८-१०८ ऐसी असंख्यात जिनप्रतिमाएँ हैं उन सबको मेरा नमस्कार होवे।
७. मध्यलोक में, ढाई द्वीप में १७० कर्मभूमियाँ हैं। इनमें जितने भी अर्हंत सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य एवं चैत्यालय हैं, जितने भी कृत्रिम जिनमंदिर हैं, जितनी भी पंचकल्याणक भूमि, निर्वाणभूमि एवं अतिशय क्षेत्र हैं उन सबको मेरा नमस्कार होवे।
८. पुन: मस्तक के अग्रभाग पर अद्र्धचन्द्राकार सिद्धशिला बनाकर-बुद्धि से चिन्तन करते हुए सिद्धशिला पर विराजमान अनन्तानन्त सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार करते हुए पढ़ें-

पद्य- त्रिभुवन के मस्तक पर, सिद्धशिला पर सिद्ध अनन्तानन्त।
नमो नमो त्रिभुवन के सभी, तीर्थ को जिससे हो भव अन्त।।१।।

इस प्रकार तीन लोक के ध्यान से अनन्त पुण्य का बंध होता है। असंख्य पापों का नाश एवं भूत-व्यन्तरों के प्रकोप का अभाव तथा रोगोें का नाश होता है एवं संसार भ्रमण समाप्त करने की शक्ति प्रगट होती है।
महानुभावों! यहाँ प्रसंगोपात्त मैंने ध्यान की प्रक्रिया बताई है। आप हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप और तेरहद्वीप की रचना को सूक्ष्मता से देखकर जान सकते हैं कि भगवान ऋषभदेव पूर्वभवों में किस-किस विदेह क्षेत्र में कहाँ-कहाँ जन्मे थे।
तीर्थंकर भगवान के ये भव-भवांतर सुनकर आपको अवश्य आत्मशांति प्राप्त होगी, क्योंकि ये भगवान जगत की शांति करने वाले हैं-

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-२३

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! आर्षग्रंथ महापुराण में आप जान चुके हैं कि किस प्रकार से एक मोक्षगामी जीव अपने जीवन का उत्थान करते हुए संसाररूपी वैतरणी नदी को पार कर रहा है। भगवान ऋषभदेव के दश अवतारों में से वे नवमें भव में सर्वार्थसिद्धि विमान में उपपाद शय्या पर अहमिन्द्र का जन्म धारण कर लेते हैं। आदिपुराण में वर्णन आया है कि-
चूँकि उस विमान में उत्पन्न होने वाले जीवों के सम्पूर्ण मनोरथ अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं इसलिए उसका सर्वार्थसिद्धि यह सार्थक नाम है। निग्र्रन्थ दिगम्बर महामुनि ही मरण करके उस विमान में जन्म लेते हैं।
इस प्रकार अकृत्रिम और श्रेष्ठ रचना से शोभायमान उस विमान में उपपाद शय्या पर वह देव क्षण भर में पूर्ण शरीर को प्राप्त हो गया। दोष, धातु, मल और पसीना आदि से रहित, सुन्दर लक्षणों से युक्त तथा पूर्ण यौवन अवस्था को प्राप्त उसका शरीर क्षण भर में ही प्रगट हो गया। उसके जन्म लेते ही वहाँ उत्तम-उत्तम बाजे बजने लगे और सर्वत्र हर्ष की लहर दौड़ गई। वह अहमिंद्र साथ-साथ उत्पन्न हुए वस्त्र, अलंकार, दिव्य माला आदि से अतिशय सुन्दर था। एक हाथ का उसका दिव्य वैक्रियक शरीर था, तेंतीस सागर की उत्कृष्ट आयु थी। ‘मैं इंद्र हूँ, मैं इंद्र हूँ’ इस प्रकार वहाँ के सभी उत्तम देव ‘अहमिंद्र’ इस अन्वर्थ नाम को धारण करते थे। वहाँ उन अहमिंद्रों में न तो परस्पर में असूया है, न परनिन्दा है, न आत्म प्रशंसा है और न ईष्र्या ही है। वे सभी पूर्णतया सुखी हुए हर्षयुक्त निरन्तर क्रीड़ा करते रहते हैं। इन सबका शरीर श्वेतवर्ण का रहता है। इन सबकी लेश्यायें, वस्त्राभरण आदि श्वेत-शुक्ल रहते हैं।
वहाँ जन्म लेने के बाद उन अहमिंद्र ने अपने विमान में स्थित अतिशायी जिनमंदिर में जाकर भगवान् की प्रतिमाओं का अभिषेक किया। दिव्य अष्ट द्रव्य की सामग्री और दिव्य रत्नों के थाल भरकर भगवान् का पूजन किया।
चक्रवर्ती वज्रनाभि की पर्याय में जो विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित, बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ नाम के भाई थे तथा रानी श्रीमती का जीव जो कि ‘धनदेव’ नाम से चक्रवर्ती का गृहपति रत्न हुआ था। इन नौ महामुनियों ने भी तपश्चर्या के प्रभाव से वहीं सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र पद को प्राप्त हुए थे। ये सब अपने-अपने अवधिज्ञान से अपने स्वामी ‘वङ्कानाभि’ चक्रवर्ती के जीव ऐसे अहमिंद्र के पास आये और पूर्वभवों की चर्चा तथा धर्म के माहात्म्य की प्रशंसा करते हुए मनोविनोद करने लगे।
ये सर्वार्थसिद्धि के अहमिंद्र अपने अवधिज्ञान से सम्पूर्ण लोक के मूर्तिक पदार्थों को देखते रहते थे लेकिन कहीं भी इनका गमनागमन नहीं था। अतः एक दिन इन सभी ने निर्णय किया कि-
आज हम सभी यहीं से परोक्ष में सुदर्शनमेरु पर्वत के सोलह जिन मंदिरों की पूजा करेंगे। वे सब वहीं से सुमेरु पर्वत को मानो साक्षात् देखते हुए के समान ही उसकी पूजा कर रहे थे। ऐसे ही कभी नन्दीश्वर द्वीप के जिनालयों की, कभी मध्यलोक के ४५८ जिनमंदिरोें की, कभी तीन लोक के सम्पूर्ण ८ करोड़ ५६ लाख ९७ हजार ४८१ जिनमंदिरों में विराजमान सम्पूर्ण जिनप्रतिमाओं की पूजा, भक्ति, स्तुति किया करते थे।
कभी-कभी तीर्थंकर के जन्मकल्याणक के निमित्त से वहाँ पर बाजों के बजने से ‘भगवान् का जन्म हुआ है’ ऐसा जानकर परोक्ष में ही सात पैंड आगे जाकर नमस्कार करते थे।
कभी-कभी ये अहमिंद्र वहाँ पर तत्त्वचर्चा किया करते थे-जैसे कि-‘जो संसार के दुःखों से प्राणियों को निकाल कर उत्तम सुख में पहुँचावे वही धर्म है’।
अहो! हम सभी ने कई जन्मों में महान पुण्य संचित किया है, सच्ची निर्दोष तपस्या की है, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष और मत्सर आदि अंतरंग शत्रुओं को वश में किया है। तभी ये उत्तम अहमिंद्र पद प्राप्त हुआ है।
अब हमें यहाँ के सुखों को भोगकर मनुष्य पर्याय प्राप्त करना है। हम सभी नियम से उस मनुष्य भव में मुनि बनेंगे और मोक्ष को प्राप्त करेंगे। हम सभी एक भवावतारी हैं, हमारे संसार का अब अन्त आ चुका है।
वङ्कानाभि के जीव अहमिंद्र जो कि आगे तीर्थंकर होने वाले थे, उनके वहीं से निकलने के छह महीने पूर्व से ही इस मध्यलोक के जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में अयोध्या नगरी की रचना की गयी। सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता मरुदेवी के आँगन में रत्न बरसाना शुरू किया। तभी वहाँ के अहमिंद्रों ने आकर उन भावी तीर्थंकर के गुणों की स्तुति करना प्रारंभ कर दिया।
‘हे स्वामिन् ! आप धन्य हैं, आपके प्रसाद से ही हम सभी ने धर्म को पाया है और आगे भी आपके तीर्थ में ही हम सभी मोक्ष को प्राप्त करेंगे।’
इत्यादि प्रकार से धर्मचर्चा करते हुए वज्रनाभि के जीव अहमिंद्र ने अपनी तेंतीस सागर की आयु पूर्ण कर ली और मध्यलोक में आने के सन्मुख हो गये।
महानुभावों! आप भी इससे शिक्षा ग्रहण करें कि कितने भी उच्च पद पर क्यों न पहुँच जावें किन्तु धर्म और कर्तव्य को कभी भूलना नहीं चाहिए क्योंकि पूर्व जन्म में संचित किये गये पुण्य प्रभाव से ही इस जन्म में उच्च पद प्राप्त होता है। आदिपुराण में सर्वार्थसिद्धि के सुख का वर्णन करते हुए जिनसेनाचार्य ने कहा है-

सुकृतफलमुदारं विद्धि सर्वार्थसिद्धौ, दुरितफलमुदग्रं सप्तमीनारकाणाम्।
शमदमयमयोगैरग्रिमं पुण्यभाजा-मशमदमयमानां कर्मणा दुष्कृतेन।।

अर्थात् पुण्यकर्मों का उत्कृष्ट फल सर्वार्थसिद्धि में और पापकर्मों का उत्कृष्ट फल सप्तम पृथिवी के नारकियों के जानना चाहिए। पुण्य का उत्कृष्ट फल परिणामों को शान्त रखने, इन्द्रियों का दमन करने और निर्दोष चारित्र पालन करने से पुण्यात्मा जीवों को प्राप्त होता है और पाप का उत्कृष्ट फल परिणामों को शान्त नहीं रखने, इन्द्रियों का दमन नहीं करने तथा निर्दोष चारित्र पालन नहीं करने से पापी जीवों को प्राप्त होता है।
भव्यात्माओं! नरक में सबसे अधिक पाप का फल भोगना पड़ता है क्योंकि वहाँ नारकियों के ५ करोड़ ६८ लाख ९९ हजार पाँच सौ चौरासी रोग एक साथ प्रगट हो जाते हैं तो उनके दु:खों को जिव्हा से कहा भी नहीं जा सकता। पं. दौलतराम जी ने छहढाला में कहा भी है-

तहां भूमि परसत दुख इसो, बिच्छू सहस डसें नहिं तिसो।
तहां राध शोणित वाहिनी, कृमि कुल कलित देह दाहिनी।।

अर्थात् वहाँ के असंख्य दु:खों का वर्णन कौन कर सकता है? कोई भी नहीं कर सकता है।
मैं आपको तीर्थंकर ऋषभदेव के पूर्व भव इसीलिए सुना रही हूँ कि न जाने कब किसके मन में अपने जन्म को सार्थक करने का पुरुषार्थ जागृत हो जावे। राजा महाबल की पर्याय से पुरुषार्थ करते-करते जो जीव अब भगवान बनने के सम्मुख है उनका पुण्यचरित्र आपको अवश्य प्रेरणा प्रदान करेगा। संसार के विषय भोगों में  फसा प्राणी ही जब उनसे कुछ विमुख होकर आत्मसुख पाने का इच्छुक होता है तो इसी प्रकार उसके उत्थान का क्रम भी प्रारंभ हो जाता है।
२१ दिसम्बर २००८ को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने मेरे पास आकर अपने वक्तव्य में भ्रूण हत्या पर जो चिंताजनक वक्तव्य प्रस्तुत किया वह उनकी सर्वोच्च वैचारिक शक्ति का प्रमाण था। केवल नारी होने के नाते उन्होंने यह चिंता व्यक्त नहीं की थी प्रत्युत् यह उनकी राष्ट्रचिंता थी। आप लोग ऐसे घृणित विचारों से बचें यही मेरी प्रेरणा है। भगवन्तों की पुण्य कथा जगत को शांति प्रदान करें, यही मंगलभावना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-२४

श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! आदिपुराण के अनुसार ऋषभदेव के नौ भवों का प्रकरण बताया जा चुका है। अब आप उस भूमि का वर्णन जानें जिस पर आपने जन्म लिया है अर्थात् भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की भूमि। यह रचना करणानुयोग के ग्रंथों में तो विस्तार से कही ही है, आदिपुराण में भी इसका वर्णन है-
व्यवहारकाल के दो भेद माने हैं-१. उत्सर्पिणी और २. अवसर्पिणी। जिसमें मनुष्यों के बल, आयु और शरीर का प्रमाण क्रम-क्रम से बढ़ता जाये उसे उत्सर्पिणी कहते हैं और जिसमें वे क्रम-क्रम से घटते जायें उसे अवसर्पिणी कहते हैं। इन उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के प्रत्येक के छह-छह भेद होते हैं। उनमें से अवसर्पिणी काल के छह भेद ये हैं-पहला सुषमासुषमा, दूसरा सुषमा, तीसरा सुषमादु:षमा, चौथा दु:षज्ञमासुषमा, पाँचवाँ दु:षमा और छठा अतिदु:षमा अथवा दु:षमादु:षमा। उत्सर्पिणी काल के भी छह भेद होते हैं। १ दु:षमादु:षमा, २. दु:षमा, ३. दु:षमासुषमा, ४. सुषमादु:षमा, ५. सुषमा और ६. सुषमासुषमा। पहले इस भरतक्षेत्र के मध्यवर्ती आर्यखण्ड में अवसर्पिणी का पहला भेद सुषमा-सुषमा नाम का काल बीत रहा था। देवकुरु और उत्तरकुरु नामक उत्तरभोगभूमियों में जैसी स्थिति रहती है ठीक वैसी ही स्थिति इस भरतक्षेत्र में युग के प्रारंभ अर्थात् अवसर्पिणी के पहले काल में थी। सुषमासुषमा नामक काल के प्रभाव से उत्पन्न हुई क्षेत्र की सामथ्र्य से वृद्धि को प्राप्त हुए वे कल्पवृक्ष वहाँ के जीवों को मनोवांछित पदार्थ देने के लिए सदा समर्थ रहते हैं। वे कल्पवृक्ष पुण्यात्मा पुरुषों को मनचाहे भोग देते रहते हैं इसलिए जानकार पुरुषों ने उनका ‘कल्पवृक्ष’ यह नाम सार्थक ही कहा है। वे कल्पवृक्ष दस प्रकार के हैं-१. मद्याङ्ग २. तूर्याङ्ग ३. विभूषाङ्ग ४. स्रगङ्ग (माल्याङ्ग) ५. ज्योतिरङ्ग ६. दीपाङ्ग ७. गृहाङ्ग ८. भोजनाङ्ग ९. पात्राङ्ग और वस्त्राङ्ग। वे सब अपने-अपने नाम के अनुसार ही कार्य करते हैं। इसके अनन्तर जब क्रम-क्रम से प्रथम काल पूर्ण हुआ और कल्पवृक्ष, मनुष्यों का बल, आयु तथा शरीर की ऊँचाई आदि सब घटती को प्राप्त हो चले तब सुषमा नामक दूसरा काल प्रवृत्त हुआ। उस समय इस भारतवर्ष में मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था प्रचलित हुई। फिर क्रम से जब द्वितीयकाल पूर्ण हो गया और तीसरा सुषमादु:षमा नाम का काल यथाक्रम से प्रवृत्त हुआ। इस प्रकार क्रम-क्रम से तीसरा काल व्यतीत होने पर जब इसमें पल्य का आठवाँ भाग शेष रह गया तब कल्पवृक्षों की सामथ्र्य घट गई और ज्योतिरङ्ग जाति के कल्पवृक्षों का प्रकाश अत्यन्त मंद हो गया। तब किसी समय आषाढ़ सुदी पूर्णिमा के दिन सायंकाल के समय आकाश के दोनों भागों में अर्थात् पूर्व दिशा में उदित होता हुआ चमकीला चन्द्रमा और पश्चिम में अंत होता हुआ सूर्य दिखलाई पड़ा। उस समय वहाँ प्रतिश्रुति नाम से प्रसिद्ध पहले कुलकर विद्यमान थे जो कि सबसे अधिक तेजस्वी थे पहले कभी नहीं दिखने वाले सूर्य और चन्द्रमा को देखकर भयभीत हुए भोगभूमिज मनुष्यों को उन्होंने उनका स्वरूप बतलाकर भयरहित किया था। उन्होंने कहा-हे भद्र पुरुषों, तुम्हें जो ये दिख रहे हैं वे सूर्य, चन्द्रमा नाम के ग्रह हैं, ये महाकान्ति के धारक हैं तथा आकाश में सर्वदा घूमते रहते हैं। अभी तक इनका प्रकाश ज्योतिङ्ग जाति के कल्पवृक्षों के प्रकाश से तिरोहित रहता था इसलिए नहीं दिखते थे परन्तु अब चूँकि कालदोष के वश से ज्योतिरङ्ग वृक्षों का प्रभाव कम हो गया है अत: दिखने लगे हैं। इनसे तुम लोगों को कोई भय नहीं है अत: भयभीत नहीं होओ। प्रतिश्रुति कुलकर के स्वर्गवास हो जाने पर समीचीन बुद्धि के धारक सन्मति नाम के द्वितीय कुलकर का जन्म हुआ। एक दिन रात्रि के प्रारंभ में जब थोड़ा-थोड़ा अंधकार था तब तारागण आकाशरूपी अङ्गण को व्याप्त कर सब ओर प्रकाशमान होने लगे। उस समय अकस्मात् तारों को देखकर भोगभूमिज मनुष्य अत्यन्त भ्रम मेें पड़ गये अथवा अत्यन्त व्याकुल हो गये। सन्मति कुलकर ने क्षण भर विचार कर उन आर्य पुरुषों से कहा कि हे भद्र पुरुषों, यह कोई उत्पात नहीं है इसलिए आप व्यर्थ ही भयभीत न हों। ये तारे हैं, यह नक्षत्रों का समूह है, ये सदा प्रकाशमान रहने वाले सूर्य, चन्द्र आदि ग्रह हैं और यह तारों से भरा हुआ आकाश है। यह ज्योतिश्चक्र सर्वदा आकाश में विद्यमान रहता है, अब से पहले भी विद्यमान था, परन्तु ज्योतिरङ्ग जाति के वृक्षों के प्रकाश से तिरोभूत था। अब उन वृक्षों की प्रभा क्षीण हो गयी है इसलिए स्पष्ट दिखाई देने लगा है। आज से लेकर सूर्य, चन्द्रमा, तारे आदि का उदय और अस्त होता रहेगा और उससे रात-दिन का विभाग होता रहेगा। वे आर्य लोग भी उनके वचन सुनकर शीघ्र ही भयरहित हो गये। इनके बाद इस भरतक्षेत्र में क्षेमंकर नाम के तीसरे मनु हुए। पहले जो पशु, सिंह, व्याघ्र आदि अत्यन्त भद्रपरिणामी थे जिनका लालन-पालन प्रजा अपने हाथ से ही किया करती थे वे अब मुँह फाड़ने लगे और भयंकर शब्द करने लगे। उनकी इस भयंकर गर्जना से प्रजाजन डरने लगे तथा क्षेमंकर मनु के पास जाकर उनसे पूछने लगे। उन आर्यों के वचन सुनकर क्षेमंकर मनु कहने लगे कि आपका कहना ठीक है। ये पशु पहले वास्तव में शान्त थे परन्तु अब भयंकर हो गये हैं इसलिए इन्हें छोड़ देना चाहिए। ये काल के दोष से विकार को प्राप्त हुए हैं। अब इनका विश्वास नहीं करना चाहिए। क्षेमंकर के उक्त वचन सुनकर उन लोगों ने सींग वाले और दाढ़ वाले दुष्ट पशुओं का साथ छोड़ दिया, केवल निरुपद्रवी गाय-भैंस आदि पशुओं के साथ रहने लगे। उसके बाद क्षेमंकर नामक चौथे मनु हुए। इनके समय में जब सिंह, व्याघ्र आदि दुष्ट पशु अतिशय प्रबला और क्रोधी हो गये तब इन्होंने लकड़ी लाठी आदि उपायों से इनसे बचने का उपदेश दिया। फिर क्रम से प्रजा के पुण्योदय से सीमंकर नाम के कुलकर उत्पन्न हुए। इनके समय में जब कल्पवृक्ष अल्प रह गये और फल भी अल्प देने लगे तथा इसी कारण से जब लोगों में विवाद होने लगा तब सीमंकर मनु ने सोच-विचारकर वचनों द्वारा कल्पवृक्षों की सीमा नियत कर दी अर्थात् इस प्रकार की व्यवस्था कर दी कि इस जगह के कल्पवृक्ष से इतने लोग काम लें और उस जग के कल्पवृक्ष से उतने लोग काम लें। प्रजा ने उक्त व्यवस्था से ही उन मनु का सीमंकर यह सार्थक नाम रख लिया था। इनके बाद सीमंधर नाम के छठे मनु उत्पन्न हुए। इनके समय में जब कल्पवृक्ष अत्यन्त थोड़े रह गये तथा फल भी बहुत थोड़े देने लगे और उस कारण से जब लोगों में भारी कलह होने लगा, कलह ही नहीं, एक-दूसरे को बाल पकड़-पकड़कर मारने लगे तब उन सीमंधर मनु ने कल्याण स्थापना की भावना से कल्पवृक्षों की सीमाओं को अन्य अनेक वृक्ष तथा छोटी-छोटी झाड़ियों से चिन्हित कर दिया था। इनके बाद विमलवाहन नाम के सातवें मनु हुए। इन्होंने हाथी, घोड़ा आदि सवारी के योग्य पशुओं पर, अंकुश आदि लगाकर सवारी करने का उपदेश दिया था। फिर चक्षुष्मान नाम के आठवें मनु उत्पन्न हुए। इनके समय से पहले के लोग अपनी सन्तान का मुख नहीं देख पाते थे, उत्पन्न होते ही माता-पिता की मृत्यु हो जाती थी परन्तु अब वे क्षणभर पुत्र का मुख देखकर मरने लगे। उनके लिए यह नई बात थी इसलिए भय का कारण हुर्इं उस समय भयभीत हुए आर्य पुरुषों को चक्षुष्मान् मनु ने यथार्थ उपदेश देकर उनका भय छुड़ाया था। यशस्वान् नाम के नौवें मनु हुए। उनके समय में प्रजा अपनी संतानों का मुख देखने के साथ-साथ उन्हें आशीर्वाद देकर तथा क्षण-भर ठहर कर परलोक गमन करती थी-मृत्यु को प्राप्त होती थी। इनके बाद अभिचन्द्र नाम के दसवें मनु उत्पन्न हुए। उनका मुख चन्द्रमा के समान सौम्य था। उनके समय प्रजा अपनी-अपनी सन्तानों का मुख देखने लगी, उन्हें आशीर्वाद देने लगी तथा रात के समय कौतुकके साथ चन्द्रमा दिखला-दिखलाकर उनके साथ कुछ क्रीड़ा भी करने लगी। चन्द्रभ नाम के ग्यारहवें मनु हुए। उनका मुख चन्द्रमा के समान था, ये समय की गतिविधि के जानने वाले थे। इनके समय में प्रजाजन अपनी संतानों को आशीर्वाद देकर अत्यन्त प्रसन्न तो होते ही थे, परन्तु कुछ दिनों तक उनके साथ जीवित भी रहने लगे थे, तदनन्तर सुखपूर्वक परलोक को प्राप्त होते थे। तदनन्तर मरुदेव नाम के बारहवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनके समय में प्रजा अपनी-अपनी संतानों के साथ बहुत दिनों तक जीवित रहने लगी थी तथा उनके मुख देखकर और शरीर को स्पर्श कर सुखी होती थी। वे मरुदेव ही वहाँ के लोगों के प्राण थे क्योंकि उनका जीवन मरुदेव के ही आधीन था। इनके बाद समय व्यतीत होने पर जब कर्मभूमि की स्थिति धीरे-धीरे समीप आ रही थी अर्थात् कर्मभूमि की रचना होने के लिए जब थोड़ा ही समय बाकी रह गया तब बड़े प्रभावशाली प्रसेनजित् नाम के तेरहवें कुलकर उत्पन्न हुए। इन्होंने अपनी प्रजा को उस जरायु के खींचने आदि का उपदेश दिया था। मनुष्यों के शरीर पर जो आवरण होता है उसे जरायुपटल कहते हैं। इनके बाद ही नाभिराज नाम के कुलकर हुए थे, ये महाबुद्धिमान थे। इनसे पूर्ववर्ती युग-श्रेष्ठ कुलकरों ने जिस लोक व्यवस्था के भार को धारण किया था यह भी उसे अच्छी तरह धारण किये हुए थे। इनके समय में उत्पन्न होते वक्त बालक की नाभि में नाल दिखाई देने लगा था और नाभिराज ने उसके काटने की आज्ञा दी थी इसलिए उनका ‘नाभि’ यह सार्थक नाम पड़ गया था।
महानुभावों! भोगभूमि एवं कर्मभूमि की यह व्यवस्था जानकर आप अपने पुण्य की सराहना करें कि हम लोग उसी कर्मभूमि में उत्पन्न हुए हैं, जहाँ से मानव मोक्ष प्राप्त करता है। किन्तु अभी पंचमकाल होने से मोक्ष तो मुनि लोग भी नहीं जा सकते हैं अत: हम सभी को अपनी धर्म क्रियाओं से ही अपने कर्मबंधन कमजोर करके क्रम से अगले भवों में मोक्ष प्राप्ति की योग्यता प्राप्त करना है।
तीर्थंकर भगवान का पुण्य चरित्र जगत में शांति प्रदान करें, यही मंगलकामना है।

प्रध्वस्त घाति कर्माण: केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-२५

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

भव्यात्माओं! महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण ग्रंथ में आप भगवान ऋषभदेव का चरित्र आप जान रहे हैं। उसके १२वें पर्व में भगवान ऋषभदेव के जन्म का रोमांचक वर्णन है। अर्थात् भगवान महावीर के समवसरण में राजा श्रेणिक ने गौतम गणधर से प्रश्न किया कि इस धरती पर अंतिम कुल कर नाभिराज हुए हैं पुन: आगे की व्यवस्था बताकर मुझे तीर्थंकर आदि महापुरुषों का चरित्र विस्तार से बतलाइये-

भगवन् भारते वर्षे, भोगभूमिस्थितिच्युतौ।
कर्मभूमिव्यवस्थायां प्रसृतायां यथायथम्।।३।।

कि हे भगवन्! जब इस भारतवर्ष में भोगभूमि की स्थिति नष्ट हो गयी थी और क्रम-क्रम से कर्म भूमि की व्यवस्था पैâल चुकी थी उस समय जो कुलकरो की उत्पत्ति हुई थी उसका वर्णन आप पहले ही कर चुके हैं। उन कुलकरों में अन्तिम कुलकर नाभिराज हुए थे जो कि समस्त क्षत्रिय-समूह के अगुआ (प्रधान) थे। उन नाभिराज ने धर्मरूपी सृष्टि के सूत्रधार, महाबुद्धिमान् और इक्ष्वाकु कुल के सर्वश्रेष्ठ भगवान् ऋषभदेव को किस आश्रम में उत्पन्न किया था? उनके स्वर्गावतार आदि कल्याणकों का ऐश्वर्य वैâसा था? आपके अनुग्रह से हम लोग यह सब जानना चाहते हैं।
पुन: गौतम स्वामी उत्तर देते हैं-

इह जम्बूमति द्वीपे भरते खचराचलात्।
दक्षिणे मध्यमे खण्डे कालसन्धौ पुरोदिते।।८।।
पूर्वोक्तकुलकृत्स्वन्त्यो, नाभिराजोऽग्रिमोऽप्यभूत्।
व्यावर्णितायुरुत्सेधरूपसौन्दर्यविभ्रम:।।९।।

राजन! हम पहले जिस कालसन्धिका वर्णन कर चुके हैं उस कालसन्धि (भोगभूमि का अन्त और कर्मभूमिका प्रारम्भ होने) के समय इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में विजयार्ध पर्वत से दक्षिण की ओर मध्यम-आर्यखण्ड में नाभिराज हुए थे। वे नाभिराज चौदह कुलकरों में अन्तिम कुलकर होने पर भी सबसे प्रथम और श्रेष्ठ थे।
महाराजा नाभिराज की धर्मपत्नी मरुदेवी गुणों की खान थी। आदिपुराण में वर्णन आया है कि-

सा खनिर्गुणरत्नानां, साऽवनि: पुण्यसंपदाम्।
पावनी श्रुतदेवीव, साऽनधीत्यैव पण्डिता।।५६।।

अर्थात् वह रानी मरुदेवी गुणरूपी रत्नों की खान थी, पुण्यरूपी सम्पत्तियों की पृथिवी थी, पवित्र सरस्वती देवी थी और बिना पढ़े ही पण्डिता थी।

सौभाग्यस्य पराकोटि: सौरूप्यस्य पराधृति:।
सौहार्दस्य पराप्रीति: सौजन्यस्य परा गति।।५७।।

वह सौभाग्य की परम सीमा थी, सुन्दरता की उत्कृष्ट कृति थी, मित्रता की परम प्रीति थी और सज्जनता की उत्कृष्ट गति थी।
महानुभावों! इस धरती पर कल्पवृक्ष समाप्त हो रहे थे तब मकान देने वाला एक कल्पवृक्ष ८१ मंजिले सर्वतोभद्र महल के रूप में परिणत हो गया। तब इन्द्र ने वहाँ आकर नगरी की रचना कर दी और उसका नाम रखा-अयोध्या। इसके सुकोशल, साकेल, विनीता आदि नाम भी हैं। शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में इन्द्र ने आकर उस नगरी और महल की पुण्याहवाचन मंत्रों से शुद्धि की थी।
इन्द्र ने अवधिज्ञान से जानकर कि ये नाभिराज और मरूदेवी तीर्थंकर पुत्र को जन्म देंगे उनका खूब गुणगान किया। आदिपुराण में कहा है-

पुण्येऽहनि मुहूर्ते च, शुभयोगे शुभोदये।
पुण्याहघोषणां तत्र, सुराश्चक्रु: प्रमोदिन:।।८१।।

अनन्तर उस अयोध्या नगरी में सब देवों ने मिलकर किसी शुभ दिन, शुभ मुहूर्त, शुभ योग और शुभ लग्न में हर्षित होकर पुण्याहवाचन किया।
महाराज नाभिराज और मरुदेवी ने अत्यन्त आनन्दित होकर पुण्याहवाचन के समय ही उस अतिशय ऋद्धियुक्त अयोध्या नगरी में निवास करना प्रारम्भ किया था। उस समय इन्द्र के द्वारा की गई पूजा का वर्णन आया है कि-

विश्वदृश्वैतयो: पुत्रो, जनितेति शतक्रतु:।
तयौ: पूजां व्यधत्तोच्चैरभिषेकपुरस्सरम्।।८३।।

अर्थात् ‘‘इन दोनों के सर्वज्ञ ऋषभदेव पुत्र जन्म लेंगे’’ यह समझकर इन्द्र ने अभिषेकपूर्वक उन दोनों की बड़ी पूजा की थी।
देखो! जिन तीर्थंकरो ंके माता-पिता की इन्द्र ने भी पूजा की थी, उनकी खूब स्तुति आदि करके आप सभी को महान् पुण्य का संचय करना चाहिए तथा सौभाग्यवती महिलाओं को अपने सौभाग्य की वृद्धि करके बन्ध्यापने को दूर करना चाहिए।
तीर्थंकर भगवान का पुण्य चरित्र जगत के लिए मंगलकारी हो यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-२६

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भगवान ऋषभदेव की पुण्य कथा जगत् के संताप को दूर करने वाली है, जैसाकि आचार्य मानतुंग स्वामी ने भी भक्तामर में कहा है-

आस्तां तव स्तवन-मस्त-समस्त-दोषम्,
त्वत्-सज्र्थापि जगतां दुरितानि हन्ति।
दूरे सहस्र-किरण: कुरूते प्रभैव,
पद्माकरेषु जलजानि विकास-भाञ्जि।।९।।

अर्थात् हे भगवन! आपका स्तवन तो दूर, आपके नाम की पुण्यकथा भी संसारी प्राणियों के पाप नष्ट कर देती है। जैसे सूर्य की मात्र किरणों से ही सरोवर में कमल खिल जाते हैं, उसी प्रकार आपके नाम का प्रभाव देखा जाता है।
अर्थात् ऐसे महापुरुषों की पुण्यकथा कहने वाले, सुनने वाले और लिखने वाले सभी पुण्यशाली होते हैं। अत: आप भी महान पुण्यवान हैं। आदिपुराण में कहा है कि-

षड्भिर्मासैरथैतस्मिन्, स्वर्गादवतरिष्यति।
रत्नवृष्टिं दिवो देवा:, पातयामासुरादरात्।।८४।।

तदनन्तर छह महीने बाद ही भगवान ऋषभदेव यहाँ स्वर्ग से अवतार लेंगे ऐसा जानकर देवों ने बड़े आदर के साथ आकाश से रत्नों की वर्षा की।
ऐसी रत्नवृष्टि अयोध्या में अनेकों बार हुई है इसलिए वह धरती भी परम पूज्य और वसुमती नाम से सार्थक हुई है। आज कुछ लोग कहते हैं कि भगवान भी हमारे जैसे साधारण मनुष्य थे किन्तु ध्यान रखना है कि भगवान और हम लोगों जैसे साधारण मानव के जन्म में बहुत बड़ा अन्तर होता है-
रानी मरुदेवी ने एक बार रात्रि में सोते हुए सुन्दर-सुन्दर १६ स्वप्न देखे-१. ऐरावत हाथी, २. बैल, ३. सिंह, ४. लक्ष्मी देवी, ५. दो पुष्पमालाएँ, ६. पूर्ण चन्द्रमण्डल, ७. सूर्य, ८. सुवर्ण के दो कलश, ९. दो मछलियाँ, १०. सुन्दर तालाब, ११. समुद्र, १२. सिंहासन, १३. स्वर्ग का विमान, १४. नागेन्द्र भवन, १५. रत्नों की राशि, १६. निर्धूम अग्नि।
इन १६ स्वप्नों के बाद मरुदेवी ने देखा कि स्वर्ण के समान पीली कांति वाला सुन्दर बैल मेरे मुख में प्रवेश कर रहा है। पुन: सुप्रभात का मंगल गान सुनकर मरुदेवी की निद्रा भंग हुई और वे उठकर सर्वप्रथम सिद्धों को नमन करके दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर सखियों के साथ राजदरबार में पहँुचती हैं। राजा नाभिराज ने उन्हें अपने बगल के सिंहासन पर बैठाया और उनके आने का कारण पूछा। तब मरुदेवी अपने स्वप्नों के फल जानने हेतु पतिदेव से निवेदन करती हैं कि स्वामिन! आज रात्रि में मैने १६ स्वप्न देखे हैं, उनके फल पूछने हेतु मैं आपके पास आई हूँ।
महानुभावों! आज भी लोग स्वप्न देखते हैं किन्तु सभी लोगों के स्वप्नों के फल विशेष नहीं होते हैं। कुछ स्वप्न तो दिनभर के संस्कारवश रात में आते हैं, कुछ स्वास्थ्य आदि के निमित्त से होते हैं। आपको भी यदि अच्छे-अच्छे फलदायक स्वप्न देखना है तो तीर्थंकर माता के स्वप्न सदैव पढ़ना चाहिए।
तीर्थंकर भगवान की पुण्य चरित्र जगत के लिए मंगलकारी हो यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-२७

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! आदिपुराण ग्रंथ के प्रवचनों के अन्तर्गत आपको इस प्रवचन में महारानी मरुदेवी के द्वारा महाराजा नाभिराय से पूछे गये स्वप्नों का फल बताया जा रहा है। उनके एक-एक स्वप्न को सुनकर नाभिराय ने अपने अवधि ज्ञान से उनका फल बताना प्रारम्भ किया। आदिपुराण में वर्णन आया है-

शृणु देवि महान् पुत्रो भविता ते गजेक्षणात्।
समस्तभुवनज्येष्ठो महावृषभदर्शनात्।।१५५।।

हे देवी, सुनो! हाथी के देखने से तुम्हारे उत्तम पुत्र होगा, उत्तम बैल देखने से वह समस्त लोक में ज्येष्ठ होगा।

सिंहेनानन्तवीर्योऽसौ दाम्ना सद्धर्मतीर्थकृत्।
लक्ष्म्याभिषेकमासासौ मेरोर्मूधर्नि सुरोत्तमै:।।१५६।।

सिंह के देखने से वह अनन्त बल से युक्त होगा, मालाओं के देखने से वह समीचीन धर्म के तीर्थ का चलाने वाला होगा, लक्ष्मी के देखने से वह सुमेरु पर्वत के मस्तक पर धर्म के द्वारा अभिषेकों को प्राप्त होगा।

पूर्णेन्दुना जनाह्लादी भास्वता भास्वरद्युति:।
कुम्भाभ्यां निधिभागी स्यात् सुखी मत्स्ययुगेक्षणात्।।१५७।

पूर्ण चन्द्रमा के देखने से समस्त लोगों को आनन्द देने वाला होगा, सूर्य के देखने से देदीप्यमान प्रभा का धारक होगा, दो कलश देखने से अनेक निधियों को प्राप्त होगा, मछलियों का युगल देखने से सुखी होगा।

सरसा लक्षणोद्भासी सोऽब्धिना केवली भवेत्।
सिंहासनेन साम्राज्यमवाप्स्यति जगद्गुरू:।।१५८।।

सरोवर के देखने से अनेक लक्षणों से शोभित होगा, समुद्र के देखने से केवली होगा, सिंहासन के देखने से जगत् का गुरू होकर साम्राज्य को प्राप्त करेगा।

स्वर्विमानावलोकेन स्वर्गादवतरिष्यति।
फणीन्द्रभवनालोकात् सोऽवधिज्ञानलोचन:।।१५९।।

देवों का विमान देखने से वह स्वर्ग से अवतीर्ण होगा, नागेन्द्र का भवन देखने से अवधिज्ञान रूपी लोचनों से सहित होगा।

गुणानामाकर: प्रोद्यद्रत्नराशिनिशामनात्।
कर्मेन्धन धगप्येष निर्धूमज्वलनेक्षणात्।।१६०।।

चमकते हुए रत्नों की राशि देखने से गुणों की खान होगा, और निर्धूम अग्नि के देखने से कर्मरूपी ईन्धन को जलाने वाला होगा।

वृषभाकारमादाय भवत्यास्यप्रवेशनात्।
त्वद्गर्भे वृषभो देव: स्वमाधास्यति निर्मले।।१६१।।

तथा हे देवि! तुम्हारे मुख में जो वृषभ ने प्रवेश किया है उसका फल यह है कि तुम्हारे निर्मल गर्भ में भगवान् ऋषभदेव अपना शरीर धारण करेंगे।

इति तद्वचनाद् देवी दधे रोमाञ्चितं वपु:।
हर्षाज्र्ुरैरिवाकीर्णं परमानन्दनिर्भरम्।।१६२।।

इस प्रकार नाभिराज के वचन सुनकर रानी मरुदेवी का सारा शरीर हर्ष से रोमांचित हो गया जिससे ऐसा जान पड़ता था कि मानो परम आनन्द से निर्भर होकर हर्ष के अंकुरों से ही व्याप्त हो गया हो।
महानुभावों! मैं कई बार गर्भवती महिलाओं को पढ़ने के लिए एक स्तुति बताती हूँ कि आप रात्रि में इसे पढ़कर सोयें तो आपको अच्छे स्वप्न आयेंगे और गर्भस्थ शिशु पर भी बहुत अच्छे संस्कार पड़ेंगे। प्रसंगोपात्त यहाँ भी वह स्तुति दी जा रही है-
शंभु छन्द

प्रभु तुम जब गर्भ बसे आके, उसके छह महिने पहले ही।
सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से, बहु रतनवृष्टि धनपति ने की।।
मरकतमणि इन्द्र नीलमणि औ, वरपद्मरागमणियां सोहें।
माता के आंगन में बरसे, मोटी धारा जनमन मोहें।।१।।
प्रतिदिन साढ़े बारह करोड़, रत्नों की वर्षा होती है।
पन्द्रह महीने तक यह वर्षा, सब जन का दारिद्र खोती है।।
जिनमाता पिछली रात्री में, सोलह स्वप्नों को देखे हैं।
प्रात: पतिदेव निकट जाकर, उन सबका शुभ फल पूछे हैं।।२।।
पतिदेव कहें हे देवि! सुनो, तुम तीर्थंकर जननी होंगी।
त्रिभुवनपति शतइंद्रों वंदित, सुत को जनि भव हरणी होंगी।।
ऐरावत हाथी दिखने से, तुमको उत्तम सुत होवेगा।
उत्तुंग बैल के दिखने से त्रिभुवन में ज्येष्ठ सु होवेगा।।३।।
औ सिंह देखने से अनन्त बल युक्त मान्य कहलायेगा।
मालाद्वय दिखने से सुधर्ममय उत्तम तीर्थ चलायेगा।।
लक्ष्मी के दिखने से सुमेरू गिरि पर उसका अभिषव होगा।
पूरण शशि से जन आनन्दे, भास्कर से प्रभामयी होगा।।४।।
द्वयकलशों से निधि का स्वामी, मछली युग दिखीं सुखी होगा।
सरवर से नाना लक्षण युत, सागर से वह केवलि होगा।।
सिंहासन को देखा तुमने, उससे वह जगद्गुरू होगा।
सुर के विमान के दिखने से, अवतीर्ण स्वर्ग से वह होगा।।५।।
नागेन्द्र भवन से अवधिज्ञान, रत्नों से गुण आकर होगा।
निर्धूम अग्नि से कर्मेन्धन, को भस्म करे ऐसा होगा।।
फल सुन रोमांच हुई माता, हर्षित मन निज घर आती है।
श्री हृी धृति आदिक देवी मिल, सेवा करके सुख पाती हैं।।६।।
पति की आज्ञा से शची स्वयं, निज गुप्त वेश में आती है।
माता की अनुपम सेवा कर, बहु अतिशय पुण्य कमाती है।।
जब गूढ़ प्रश्न करती देवी, माता प्रत्युत्तर देती हैं।
त्रयज्ञानी सुत का ही प्रभाव, जो अनुपम उत्तर देती है।।७।।
इसविध से माता का माहात्म्य, प्रभु तुम प्रसाद से होता है।
तुम नाम मंत्र भी अद्भुत है, भविजन का अघ मल धोता है।।
मैं इसीलिये तुम शरण लिया, भगवन! अब मेरी आश भरो।
निज ‘ज्ञानमती’ संपति देकर, स्वामिन् अब मुझे कृतार्थ करो।।८।।

बन्धुओं! यह ध्यान रखना है कि तीर्थंकर बालक शिशु अवस्था में भी कभी अशुभ चेष्टा नहीं करते हैं। अशुभ शब्द अपने मुख से नहीं बोलते हैं क्योंकि वे तो गर्भ से ही तीन ज्ञान के धारक होते हैं उन्हीं के ज्ञान के अतिशय से ही उनकी माता स्वर्ग की देवियों द्वारा पूछे गये जटिल से जटिल प्रश्नों का उत्तर देती हैं। देखो! भगवान महावीर के शिशु अवस्था में ही दर्शन करके संजय-विजय मुनिराज के मन की शंका दूर हो गई थी। इसीलिए उन्होंने उनका नाम ‘सन्मति’ रखा था।
कहते हैं कि शचि इन्द्राणी भी गुप्तवेश में आकर तीर्थंकर बालक के साथ बालक्रीड़ा करके अपने जन्म को सार्थक करती थी। यह तो तीर्थंकर और उनकी माता की विशेषता मैंने बताई है किन्तु वर्तमान में भी शांतिसागर महाराज की माँ जैसी महान माताओं में भी कितनी विशेषता देखी गई हैं जो साधारण महिलाओं से बिल्कुल विलक्षण रहती हैं। इसलिए आप सभी भगवान ऋषभदेव के इस प्रकरण को पढ़कर अपने उपयोग को पवित्र करें यही आशीर्वाद और प्रेरणा है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-२८

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! महापुराण के अन्तर्गत प्रथम भाग आदिपुराण में भगवान ऋषभदेव, भरत बाहुबली का वर्णन है। ऋषभदेव भूमण्डल पर कब जन्मे थे, उसमें यह बताया है—

तृतीयकालशेषेऽसवशीतिश्चतुरुत्तरा।
पूर्वलक्षास्तिवर्गाष्टमासपक्षयुतास्तदा।।१।।
अवतीर्य युगाद्यन्ते ह्यखिलार्थविमानत:।
आषाढासितपक्षस्य द्वितीयायां सुरोत्तम:।।२।।
उत्तराषाढ़नक्षत्रे देव्या गर्भसमाश्रित:।
स्थितो यथा विबाधोऽसौ मौक्तिवंâ शुक्तिसम्पुटे।।३।।

जब अवसर्पिणी काल के तीसरे सुषमदु:षमा नामक काल में चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष आठ माह और एक पक्ष बाकी रह गया था तब आषाढ़ कृष्ण द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में वङ्कानाभि अहमिन्द्र, देवायु का अन्त होने पर सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हुआ और वहाँ सीप के सम्पुट में मोती की तरह सब बाधाओं से निर्मुक्त होकर स्थित हो गया।
अर्थात् ३३ सागर तक उन्होंने पहले अहमिन्द्र सुखों का अनुभव किया। पुन: मध्यलोक में तीर्थंकर रूप में जन्म धारण किया। उस समय इन्द्रगण अपने-अपने अवधिज्ञान से तीर्थंकर का गर्भ कल्याणक जानकर अयोध्या में आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाते हैं। उस समय सर्वप्रथम वे नगरी की तीन प्रदक्षिणा लगाते हैं। पुन: महाराज नाभिराय के यहाँ पहँुचकर संगीत-गीत के साथ उत्सव करते हैं।
छह दिक्कुमारी देवियां मरुदेवी की सेवा में लग गई थीं। जम्बूद्वीप के छह कुलाचलों पर रहने वाली श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये छह कुमारी देवियां तीर्थंकर माता की सेवा करके असीम पुण्य का संचय करती हैं। आदिपुराण में कहा है—
श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी इन षट्कुमारी देवियों ने मरुदेवी के समीप रहकर उनमें क्रम से अपने-अपने शोभा, लज्जा, धैर्य, स्तुति, बोध और विभूति नामक गुणों का संचार किया था। अर्थात् श्री देवी ने मरुदेवी की शोभा बढ़ा दी, ह्री देवी ने लज्जा बढ़ा दी, धृति देवी ने धैर्य बढ़ाया, कीर्ति देवी ने स्तुति की, बुद्धि देवी ने बोध (ज्ञान) को निर्मल कर दिया और लक्ष्मी देवी ने विभूति बढ़ा दी। इस प्रकार उन देवियों के सेवा-संस्कार से वह मरुदेवी ऐसी सुशोभित होने लगी थी जैसे कि अग्नि के संस्कार से मणि सुशोभित होने लगता है। परिचर्या करते समय देवियों ने सबसे पहले स्वर्ग से लाये हुए पवित्र पदार्थों द्वारा माता का गर्भ शोधन किया था।
प्रसन्नमना मरुदेवी माता के गर्भावस्था के जब ८ माह बीत गये तो नवमे माह में देवियां उनसे प्रश्न करने लगीं। उनमें से एक प्रश्न मैं आपको बताती हूँ, जिसका उत्तर भी बड़ा सुन्दर है।
देवी ने पूछा कि हे माता, तुम्हारे गर्भ में कौन निवास करता है? हे सौभाग्यवती, ऐसी कौन-सी वस्तु है जो तुम्हारे पास नहीं है? और बहुत खाने वाले मनुष्य को कौन-सी वस्तु मारती है? इन प्रश्नों का उत्तर ऐसा दीजिए कि जिसमें अन्त का व्यंजन एक-सा हो और आदि का व्यंजन भिन्न-भिन्न प्रकार का हो। तब माता ने उत्तर दिया—‘तुक्’ ‘शुक्’ ‘रुक्’ अर्थात् हमारे गर्भ में तुक्-पुत्र निवास करता है, हमारे समीप शुुक्-शोक नहीं है और अधिक खाने वाले को रुक्-रोग मार डालता है (इन तीनों उत्तरों का प्रथम व्यंजन अक्षर जुदा-जुदा है और अन्तिम व्यंजन सबका एक-सा है)।
ऐसे तीर्थंकर सुत को गर्भ में धारण करने वाली माता मरुदेवी एवं उनके पुत्र भगवान तीर्थंकर जगत का मंगल करें, यही कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-२९

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भगवान ऋषभदेव के जन्म का उत्सव कब और कैसे हुआ इसका रोचक वर्णन आदिपुराण में आया है—

प्राचीव बन्धुमब्जानां सा लेभे भास्वरं सुतम्।
चैत्रे मास्यसिते पक्षे नवम्यामुदये रवे:।।२।।
विश्वे४ ब्रह्ममहायोगे जगतामेकवल्लभम्।
भासमानं५ त्रिभिर्बोधै: शिशुमप्यशिशुं गुणै:।।३।।
त्रिबोधकिरणोद्भासिबालार्कोऽसौ स्पुâरद्द्युति:।
नाभिराजोदयादिन्द्रादुदितो विबभौ विभु:।।४।।

जिस प्रकार प्रात:काल के समय पूर्व दिशा कमलों को विकसित करने वाले प्रकाशमान सूर्य को प्राप्त करती है, उसी प्रकार मरुदेवी ने भी चैत्र कृष्ण नवमी के दिन सूर्योदय के समय उत्तराषाढ़ नक्षत्र और ब्रह्म नामक महायोग में मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों से शोभायमान, बालक होने पर भी गुणों से वृद्ध तथा तीनों लोकों के एकमात्र स्वामी दैदीप्यमान तीर्थंकर पुत्र को प्राप्त किया। उस समय समस्त दिशाएँ स्वच्छता को प्राप्त हो रही थीं और आकाश निर्मल हो गया था। ऐसा मालूम होता था मानो भगवान के गुणों की निर्मलता का अनुकरण करने के लिए ही दिशाएँ और आकाश स्वच्छता को प्राप्त हुए हों। उस समय प्रजा का हर्ष बढ़ रहा था, देव आश्चर्य को प्राप्त हो रहे थे और कल्पवृक्ष बहुत उँâचाई से प्रपुâल्लित पूâल बरसा रहे थे। देवों के दुन्दुभि बाजे बिना बजाये ही उच्च शब्द करते हुए बज रहे थे और कोमल, शीतल एवं सुगन्धित वायु धीरे-धीरे बह रही थी। उस समय पहाड़ों को हिलाती हुई पृथिवी भी हिलने लगी थी मानो सन्तोष से नृत्य कर रही हो और समुद्र भी लहरा रहा था मानो परम आनन्द को प्राप्त हुआ हो।
यहाँ ध्यान रखना है कि तीर्थंकर प्रभु जन्म लेते ही भगवान संज्ञा से समन्वित होते हैं। उस समय स्वर्ग में देवों के यहाँ बिना बजाये बाजे बजने लगते हैं। उस समय कल्पवासी, ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासी देवों के घरों में क्रम से अपने-आप ही घण्टा, सिंहनाद, भेरी और शंखों के शब्द होने लगे थे। उठी हुई लहरों से शोभायमान समुद्र के समान उन बाजों का गम्भीर शब्द सुनकर देवों ने जान लिया कि तीन लोक के स्वामी तीर्थंकर भगवान का जन्म हुआ है।
पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में भी जन्मकल्याण के जो संस्कार किये जाते हैं उनमें भी श्लोक पढ़कर पुष्पांजलि की जाती है कि ये वही भगवान हैं जिनके जन्म पर स्वर्गों में घंटे आदि स्वयमेव बज गये थे। सौधर्म इन्द्र को जब इन अनेक चिन्हों से ज्ञात हो जाता है कि अयोध्या नगरी में राजा नाभिराम के महल में तीर्थंकर बालक का जन्म हुआ है तब वे तत्क्षण सिंहासन से उतरकर पहले तो वहीं से उन्हें नमस्कार करते हैं पुन: अपने बहुत बड़े परिकर के साथ अयोध्या आते हैं। इन इन्द्रों का वैभव आदि तिलोयपण्णत्ति में बताया है कि वे देव अपने-अपने वाहनों पर बैठकर बड़े कोलाहल के साथ जन्मकल्याणक उत्सव मनाने आते हैं। वहाँ वाहन के लिए कोई पशु नहीं रहते हैं बल्कि देवता ही अपनी विक्रिया से पशु का रूप धारण करते हैं।
देखो! मनुष्य भव में जो लोग पुण्य कार्य करते हुए भी बड़े लोगों का अनादर करते हैं, व्रतों में दोष लगाते हैं, दूसरों से ईष्र्या करते हैं … आदि, वे मरकर आभियोग्य देव बनते हैं। उन्हें इन्द्र की आज्ञा से पशु का रूप धारण करना पड़ता है।
आकाश मार्ग से इन्द्र की सेना जन्मकल्याणक उत्सव मनाने अयोध्या नगरी में प्रविष्ट हो गई। वे देवेन्द्रों से पूज्य तीर्थंकर भगवान जगत् का कल्याण करें यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-३०

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर भगवान का कथानक चल रहा है। भगवान का जन्मकल्याणक चैत्र कृष्णा नवमी को होते ही स्वर्ग में देवों के मुकुट स्वयं झुक गये। उस समय इंद्र ने अवधिज्ञान से जान लिया कि मध्यलोक में तीर्थंकर जन्मे हैं। उसके बाद इन्द्र ने इन्द्राणी को एवं सभी देवी-देवताओं को बताया कि मध्यलोक में अयोध्या नगरी चलना है। ऐरावत हाथी पर इंद्र-इंद्राणी बैठकर सात प्रकार की सेना के साथ अयोध्या में जाते हैं। जम्बूद्वीप पण्णत्ति में वर्णन आया है कि-
सौधर्म इंद्र भी तीन परिषद् और सात अनीकों के वैभव से युक्त हो उत्तम ऐरावत हाथी के वंâधे पर चढ़कर महा ऋद्धि के साथ आता है। सौधर्म इन्द्र के अनीक-सेना के वैभव को कहते हैं-
अनीक-सेना सात प्रकार की होती है। वृषभ-बैल, रथ, घोड़े, हाथी, नर्तक, गंधर्व और पदाति। इन प्रत्येक में भी सात-सात कक्षायें होती हैं।
प्रथम सेना बैलों की है-
१. प्रथम बैल की कक्षा में कुंदपुष्प के समान सफेद बैल चौरासी लाख (८४०००००) माने हैं।,
२. द्वितीय कक्षा में ये ही बैल एक करोड़ अड़सठ लाख हैं। ये जपापुष्प के समान अर्थात् लाल वर्ण वाले हैं।
३. तृतीय कक्षा में ये ही बैल तीन करोड़ छत्तीस लाख हैं। ये नील कमल के समान वर्ण वाले हैं।
४. चतुर्थ कक्षा में छह करोड़ बहत्तर लाख बैल मरकतमणि के समान हरे वर्ण वाले हैं।
५. पंचम कक्षा में ये उत्तम बैल तेरह करोड़ चवालीस लाख कहे गये हैं। ये सुवर्ण के समान पीले वर्ण के हैं।
६. छठी कक्षा में छब्बीस करोड़ अठासी लाख बैल हैं। इनकी कांति अंजन के समान काली है।
७. सातवीं कक्षा में तिरेपन करोड़ छियत्तर लाख बैल हैं। ये सब विंâशुकपुष्प के समान वर्ण वाले हैं।
ये सब सातों कक्षा के बैल मणि एवं रत्नों की पुष्पमालाओं से, उत्तम वस्त्रालंकारों से तथा रुनझुन करती हुई गले की घंटियों से विभूषित हैं। इन पर देवगण भी समान वेशभूषा में सुसज्जित होकर बैठकर इन्हें लीलापूर्वक एक चाल से चलाते हैं। इनके मध्य में सुंदर-सुंदर बाजे बजते रहते हैं।
इन सात विभागों के वृषभ अनीकों की संख्या एक सौ छह करोड़ अड़सठ लाख है।
द्वितीय सेना रथों की है-
१. रथ की प्रथम कक्षा में ८४००००० रथ होते हैं। ये सब श्वेत वर्ण के होने से कुंदपुष्प के समान सुंदर दिखते हैं।
२. द्वितीय कक्षा में एक करोड़ अड़सठ लाख रथ मणियों से बने चार चाकों से सहित मंदारपुष्प के समान कांतिवाले हैं।
३. तृतीय कक्षा में ये महारथ सुवर्ण वर्ण वाले हैं तथा तीन करोड़ छत्तीस लाख हैं।
४. चतुर्थ कक्षा में ये सुन्दर रथ छह करोड़ बहत्तर लाख हैं। ये मरकत मणि के समान हरे वर्ण वाले हैं।
५. पंचम कक्षा में रथ तेरह करोड़ चवालीस लाख हैं, ये नीलकमल के सामन वर्ण वाले हैं।
६. छठी कक्षा के महारथ खिले हुए कमल के समान वर्ण वाले हैं एवं छब्बीस करोड़ अठासी लाख हैं।
७. सातवीं कक्षा में कहे गये रथ तिरेपन करोड़ छियत्तर लाख हैं। ये सब इन्द्रनील मणि के समान कांति वाले हैं।
इन सभी रथों में सुन्दर छत्र लटक रहे हैं, ध्वजायें फहरा रही हैं। बहुत-से चाकों के साथ एक-साथ घूमते रहते हैं एवं गंभीर शब्द करते रहते हैं। मणिमय उत्तम धुरायें हैं, दृढ़ अक्ष हैं। सब रथ कक्षाओं में वादित्रों के बजते रहने से मधुर गंभीर ध्वनि होती रहती है।
बहुत से देव-देवियाँ इन रथों पर बैठे रहते हैं, उत्तम छत्र-चंवर और ध्वजा-पताकाओं से शोभित, लटकती हुई पुष्प मालाओं से दिशाओं को सुगंधित करते हुये तथा आश्चर्यजनक सुन्दर-आकृतियों से सहित ये रथरूप महाविभूतियां भगवान के जन्माभिषेक महोत्सव में आकाश को आच्छादित करते हुये यहां मध्यलोक में आती हैं।
तृतीय सेना घोड़ों की है-
१. इसकी प्रथम कक्षा में ८४ लाख उत्तम जाति के घोड़े सपेâद वर्ण के होते हैं।
२. द्वितीय कक्षा में एक करोड़ अड़सठ लाख घोड़े उगते हुये सूर्य के समान लाल वर्ण के होते हैं।
३. तृतीय कक्षा में ये घोड़े तीन करोड़ छत्तीस लाख रहते हैं। ये सुवर्ण के समान पीले वर्ण वाले होते हैं।
४. चतुर्थ कक्षा में ये घोड़े छह करोड़ बहत्तर लाख होते हैं, ये तमालवृक्ष के समान काले वर्ण वाले होते हैं।
५. पांचवीं कक्षा में ये घोड़े तेरह करोड़ चवालीस लाख हैं, ये नीलकमल के समान नीले वर्ण वाले हैं।
६. छठी कक्षा में जो घोड़े हैं वे छब्बीस करोड़ अठासी लाख हैं। इनका रंग जपाकुसुम के समान लाल है।
७. सातवीं कक्षा के घोड़े तिरेपन करोड़ छियत्तर लाख हैं, ये इन्द्रनील मणि के समान वर्ण वाले हैं।
चौथी सेना हाथियों की है-
१. उसकी प्रथम कक्षा में गोक्षीर के समान सपेâद हाथी, चौरासी लाख होते हैं।
२. द्वितीय कक्षा में ये हाथी एक करोड़ अड़सठ लाख हैं, और उगते हुए सूर्य के समान कांतिवाले हैं।
३. तृतीय कक्षा में तीन करोड़ छत्तीस लाख हाथी हैं, ये सब शुद्ध किये गये सुवर्ण वर्ण वाले हैं।
४. चतुर्थ कक्षा में रहने वाले हाथियों की संख्या छह करोड़ बहत्तर लाख है, ये शिरीष पुष्प के समान हैं।
५. पंचम कक्षा में तेरह करोड़ चवालीस लाख हाथी नीलकमल के समान सुन्दर हैं।
६. छठी कक्षा में छब्बीस करोड़ अठासी लाख हाथी जपाकुसुम जैसे वर्ण वाले हैं।
७. सातवीं कक्षा में रहने वाले हाथी तिरेपन करोड़ छियत्तर लाख हैं। ये अंजनगिरि के समान श्याम वर्ण वाले हैं।
ये सब हाथी हर्ष से गुल-गुल शब्द करते हुये गरजते रहते हैं, अपने गंडस्थल से मद को झराते हुये, दांतों से सुंदर दिखते हैं। इनकी प्रत्येक कक्षा के आगे पटुपटह, शंख, मर्दल और काहल के कोलाहल के साथ रमणीय बाजे बजते रहते हैं।
प्रत्येक हाथी के गले में घंटा लटकता रहता है। उसके गले में व चारों तरफ पुष्पों की सुगंधित मालायें लटकती रहती हैं, नाना पताकायें फहराती रहती हैं, धवल छत्र-चामर लटकते रहते हैं। मणिमय क्षुद्र घंटिकाओं की रुनझुन ध्वनि से सुन्दर दिखते हैं। इनके ऊपर भी देव-देवियों का समूह बैठकर इन्हें चलाता है। इस प्रकार यह हाथियों की सेना आकाश में व्याप्त होकर इस मनुष्यलोक के जीवों को प्रत्यक्ष में पुण्य का फल दिखलाती रहती है।
ये बैल, रथ, घोड़ा और हाथी का शरीर धारण करने वाले सभी देव अनीक जाति के देव ही हैं। ये जिनेंद्रभक्ति से तथा इंद्र की आज्ञा से ऐसे-ऐसे शरीर को बनाकर यहां आते हैं। स्वर्गों में पशु-पक्षी आदि नहीं होते हैं।
पाँचवीं सेना नर्तकों की है-
नर्तक जाति के सेना के देव बहुत प्रकार के वेषों से नाचते हुये जिन जन्ममहिमा के अनुराग से यहाँ पर जिनेंद्रदेव की जन्मभूमि में आते हैं।
१. प्रथम कक्षा में ८४ लाख नर्तक देव, विद्याधरों के, कामदेव के, राजा और राजाधिपों के चारित्र का अभिनय करते हैं।
२. द्वितीय कक्षा में एक करोड़ अड़सठ लाख नर्तक देव अर्धमंडलीक और महामण्डलीक राजाओं के चरित्र का अभिनय करते हैं।
३. तृतीय कक्षा के तीन करोड़ छत्तीस लाख नर्तक देवगण बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव के उत्तम चरित्र का नाटक करते हैं।
४. चतुर्थ कक्षा के छह करोड़ बहत्तर लाख नर्तक देवगण चौदह रत्नों के अधिपति, नव निधियों के स्वामी तथा अक्षीण कोष के धारी चक्रवर्तियों के चरित्र का अभिनय करते हुये नृत्य करते हैं।
५. पंचम कक्षा के तेरह करोड़ चवालीस लाख नर्तक देव चरमशीरी पुरुषों, लोकपालों व सर्व इंद्रों के चरित्र का अभिनय करते हैं।
६. छठी कक्षा के छब्बीस करोड़ अठासी लाख नर्तक देव अणिमादि विशुद्ध सर्वऋद्धियों को प्राप्त हुये गणधर देवों के चरित्र का अभिनय करते हैं।
७. सातवीं कक्षा के तिरेपन करोड़ छियत्तर लाख नर्तक देव उत्तम आठ प्रातिहार्य, चौंतीस अतिशय, पंचकल्याणक एवं अनंत सुख से संयुक्त तीर्थंकरों के चरित्र का अभिनय करते हैं।
ये सब नर्तक देवगण अपनी-अपनी देवांगनाओं के साथ दिव्य अलंकारों से विभूषित होकर उपर्युक्त प्रकार से अपने-अपने निर्धारित पुरुषों के चरित्र का अभिनय करते हुये व नाचते-गाते हुये वहां से मेरू के ऊपर जाते हैं।
भव्यात्माओं! यह सारा वर्णन मैंने करणानुयोग में तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथों के आधार से बताया है। यह कोई काल्पनिक कथा नहीं है। इस वर्तमान धरती पर भी २६०० वर्ष पहले भगवान महावीर का जन्मोत्सव मनाने इंद्र कुण्डलपुरी नगरी में आया था। उसके बाद चूँकि कोई तीर्थंकर भगवान का जन्म यहां नहीं हुआ, इसलिये ये देवों की सेनाएं भी आना बंद हो गई। इन भगवन्तों का पुण्य चरित्र सुनकर जहां हृदय आल्हादित होता है वहीं संसार के लिये इनके सिद्धान्त भी कल्याणकारी होते हैं।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-३१

(पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा)
प्रस्तुति-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भगवान ऋषभदेव के जन्मोत्सव में सौधर्म इन्द्र ने जिन सात सेनाओं के साथ अयोध्या के लिये प्रस्थान किया था उसमें से ५ सेनाओं की विशेषता आपने जानी है-
छठी सेना गंधर्वों की है-
गंधर्व सेना के देवगण जिन भगवान के जन्म में हर्ष से विभोर हो सात स्वर से युक्त गान करते हुये आते हैं।
१. प्रथम कक्षा के ८४ लाख गंधर्व देव षड्ज स्वरों से युक्त गाते हुये आते हैं।
२. द्वितीय कक्षा के एक करोड़ अड़सठ लाख गंधर्व देव ऋषभस्वरों से युक्त मधुर गान करते व नाचते हुये आते हैं।
३. तृतीय कक्षा के ये तीन करोड़ छत्तीस लाख गंधर्व देव गांधार स्वर युक्त गाते-बजाते आते हैं।
४. चतुर्थ कक्षा के छह करोड़ बहत्तर लाख ये गंधर्व देव मध्यम स्वर से युक्त होकर गाते हैं।
५. पंचम कक्षा के तेरह करोड़ चवालीस लाख गंधर्व देव पंचम स्वर से गाते हैं।
६. छठी कक्षा के छब्बीस करोड़ अठासी लाख गंधर्व देव धैवत स्वर से गाते-बजाते आते हैं।
७. सातवीं कक्षा के तिरेपन करोड़ छियत्तर लाख गंधर्व देव निषाद स्वर से गाते-नाचते हैं।
ये सब देवगण उत्तम-उत्तम वस्त्राभूषण, मुकुट, वुंâडल, हार आदि से सुसज्जित हुये बहुत ही मनोहर दिखते हैं। वंशी, वीणा, मधुकरी, कांस्यताल, ताल आदि वाद्यविशेषों से संयुक्त इन गंधर्व देवों की देवियां जिन भगवान का भक्ति से गान करती हुई आती हैं। ढक्का, मृदंग, झालर, महासार, मुवुंâद और किन्नर आदि वादित्रों को बजाते हुये मधुर एवं मनोहर गंधर्व देव-देवियां अपने संगीत-नृत्य से सारे वातावरण को मुखरित कर देते हैं।
सातवीं सेना पदातियों की है-
इस सेना के सातवें भेद में पदाति-पैदल चलने वाले भृत्यवर्ग सात कक्षाओं में आते हैं।
१. प्रथम कक्षा के ये पदातिदेव चौरासी लाख हैं। ये स्वयं श्यामवर्ण से सुन्दर जगमगाते हुये कृष्ण ध्वजाओं को लेकर चलते हैं।
२. द्वितीय कक्षा के एक करोड़ अड़सठ लाख पदातिदेव सुवर्णदण्ड से सहित नीली ध्वजाओं को लेकर आते हैं।
३. तृतीय कक्षा के तीन करोड़ छत्तीस लाख पदातिदेव मणिमय दण्ड से युक्त कापोत वर्ण की ध्वजा समूह से सहित होकर आते हैं।
४. चतुर्थ कक्षा के छह करोड़ बहत्तर लाख पदातिदेव मरकतमय दण्डों से युक्त सुवर्ण वर्ण की ध्वजायें लेकर आते हैं।
५. पांचवीं कक्षा के तेरह करोड़ चवालीस लाख पदातिदेव मूँगे के दण्ड से युक्त लाल वर्ण की पदम ध्वजायें लेकर आते हैं।
६. छठी कक्षा के छब्बीस करोड़ अठासी लाख पदातिदेव वुंâदपुष्प के समान शुक्ल वर्ण की ध्वजाओं को धारण कर चलते हैं।
छहों कक्षा की ये ध्वजायें हाथी, सिंह, बैल, दर्पण, मयूर, सारस, गरुड़, चक्र, सूर्य और चन्द्र इन दस प्रकार के चिन्हों से अलंकृत रत्नों से निर्मित फिर भी वस्त्रों के समान लटकती रहती हैं।
७. सातवीं कक्षा के तिरेपन करोड़ छियत्तर लाख पदाति देव दण्डों से युक्त मुक्ता मालाओं से मण्डित दिव्य धवल आतपत्रों-छत्रों को लेकर चलते हैं।
इन देवों के छह कक्षाओं की ध्वजायें बावन करोड़ बानवे लाख होती हैं। ये ध्वजायें पवन से प्रेरित होकर नाचती रहती हैं। सातवीं कक्षा के देवों के हाथ में जो छत्र रहते हैं उनकी संख्या तिरेपन करोड़ छियत्तर लाख है।
ये सब पैदल चलने वाले देवगण जिनभक्ति के अनुराग से अनुरक्त होकर महाप्रभाव से आते हैं।
ये सब सात प्रकार के सेना के देव सात-सात कक्षाओं में विभक्त होकर उनंचास कक्षाओं में चलते हैं। इन सब उनंचास कक्षाओं की संख्या सात सौ छयालीस करोड़ छियत्तर लाख है। इस संख्या को समझने के लिये (८४००००० ² १२७ ² ७) · ७४६७६००००० यह गुणनक्रम है।
यहाँ संक्षेप में सौधर्म इंद्र के अनीक जाति के सात भेदों का कथन किया है। शेष इंद्रों की सात अनीकों का भी यही क्रम है।
सौधर्म इंद्र के परिषद् देवों में अभ्यंतर, मध्यम और बाह्य परिषद् के भेद से तीन भेद हो जाते हैं। इनमें से अभ्यंतर परिषद् के देव बारह लाख हैं। इनका मुख्य-महत्तर देव ‘रवि’ नाम का है। मध्यम परिषद् के देव चौदह लाख हैं इनका महत्तर देव ‘चंद्र’ नाम से प्रसिद्ध है। बाह्य परिषद् देव सोलह लाख प्रमाण हैं इनका महत्तर देव ‘जतु’ नाम से प्रसिद्ध है।
सौधर्म इद्र के लोकपाल भी अपने-अपने उपर्युक्त परिवार देवों के साथ आते हैं। अंतर केवल इतना ही है कि उनके परिवार आधे-आधे होते हैं।
सौधर्म इन्द्र के आत्म रक्षक देव असंख्यात होते हैं। ये धनुषफलक, शक्ति और तोमर इत्यादि नाना प्रकार के बहुत से शस्त्रों से सुसज्जित रहते हैं। यद्यपि स्वर्ग में या वहाँ ये यहाँ आने में इंद्रों का न कोई शत्रु है और न ही उन्हें किसी से खतरा है फिर भी ये आत्मरक्षक अंगरक्षक देव केवल इन्द्र के वैभव और व्यवस्था का सूचित करते हुये ही उनके निकट रहते हैं।
सौधर्म इन्द्र के प्रकीर्णक और आभियोग्य और किल्विषक जाति के परिवार देव-देवियों की संख्या भी असंख्यात कही गई है।
सौधर्म इन्द्र के सत्ताईस करोड़ अप्सरायें, आठ महादेवियाँ और एक लाख वल्लभायें होती हैं। ये देवियाँ गजराज की पीठ पर आरूढ़ होकर अतीव आदर से जिन जन्ममहोत्सव में आती हैं।
जिस प्रकार दक्षिण इंद्रों की सात अनीक आदि की संख्या है उसी प्रकार उत्तर इंद्रों की भी सात अनीक आदि की संख्या होती है। अर्थात् उत्तर का ईशान इन्द्र भी अपने बैल वाहन पर आरूढ़ हो अपनी सेना आदि वैभव से युक्त वहाँ भक्ति से आता है। इन सभी इन्द्रों के सात अनीक, तीन प्रकार के परिषद् और असंख्यात आत्मरक्षक देव तथा असंख्यात ही अभियोग्य एवं किल्विषक जाति के देव-देवियाँ होते हैं। सभी इन्द्र जिन जन्ममहिमा से प्रेरित होकर अपनी-अपनी विभूति के साथ आकाश तल को व्याप्त करते हुये आते हैं। सौधर्म स्वर्ग से लेकर अच्युतकाल तक के शेष देव भी नाना प्रकार के अपने-अपने वाहनों पर चढ़कर वहाँ से यहाँ मनुष्यलोक में आ जाते हैं। भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देव भी विविध वाहनों पर चढ़कर जिनशासन की भक्ति में रत होते हुये अपने महान् वैभव को दिखलाते हुये यहां आते हैं। सोलह स्वर्गों से ऊपर ग्रैवेयक आदि में रहने वाले सभी अहमिंद्र देव भी अपने-अपने आसनों के वंâपित होने से जिनराज के जन्म को जानकर उस दिशा में सात पैर चलकर वहीं से नमस्कार करते हैं।
ऐरावत हाथी और कमल आदि रूपों को इन्द्र की आज्ञा से देवगण अपनी विक्रिया से ही बना लेते हैं१। यह बात ज्ञातव्य है।
इन सभी इन्द्रों के वैभव में उनके परिकर देव चंवर ढोरते रहते हैं, प्रत्येक इंद्रों के मस्तक पर धवल छत्र लगे रहते हैं, ये सब उत्तम-उत्तम वाहनों पर आरूढ़ रहते हैं, हाथ में वंâकण, गले में वंâठा, हार, पुष्पमाला, कमर में कटिसूत्र, देदीप्यमान मुकुट, मणिमयवुंâडल, केयूर, भुजाबंद, त्रुटित आदि आभूषणों से विभूषित, उत्तम वस्त्रों से सुशोभित रहते हैं, प्रत्येक इंद्रों की ध्वजायें नाना प्रकार के चिन्हों से सहित रहती हैं। इस प्रकार ये देवगण महाविभूति के साथ यहाँ जिन जन्ममहोत्सव में आते हैं पुन: सब साथ-ही-साथ सुमेरू पर्वत के शिखर पर जाते हैं और वहाँ खूब भक्तिभाव से भगवान का जन्माभिषेक सम्पन्न करते हैं।
भव्यात्माओं! भगवान की भक्ति का बड़ा महत्त्व है अर्थात् जो लोग भगवान के समक्ष नृत्य-गीत आदि के द्वारा भक्ति करते हैं उनके समक्ष इंद्र स्वयं नृत्यादि करता है। मैंने इन्द्रध्वज विधान की कई जयमालाओं में ऐसी भक्ति का भाव समाविष्ट किया है ताकि उन्हें पढ़कर भक्तजन भक्ति का उत्कृष्ट फल प्राप्त कर सवेंâ।
वे जीव धन्य हैं जो सद्बुद्धि प्राप्त करके भगवान का गुणानुवाद करते हैं। देवों की यह सेना इन्द्र के वैभव का प्रतीक है।
जिनेन्द्र भगवान की माता का भी विशेष पुण्य होता है कि उनकी सेवा में रूचकवर पर्वत की ४० देवियाँ भी आती हैं। ८ देवियाँ मणियों की झारी लेकर खड़ी रहती हैं। ८ देवियाँ दर्पण लेकर, ८ देवियाँ छत्र लेकर खड़ी रहती हैं। ८ देवियाँ चंवर लेकर माता पर ढुराती हैं, ८ देवियाँ (विद्युतकुमारी) बिजली के समान चमकदार प्रकाश पैâलाती हैं।
अयोध्या के राजमहल में पहँुचकर सौधर्म इन्द्र अपनी शचि इन्द्राणी को प्रसूतिगृह में भेजता है। आदिपुराण में कहा है कि-
इन्द्राणी ने बड़े ही उत्सव से प्रसूतिगृह में प्रवेश किया और वहाँ कुमार के साथ-साथ जिनमाता मरुदेवी के दर्शन किये। जिस प्रकार अनुराग (लाली) सहित संध्या बालसूर्य से युक्त पूर्व दिशा को बड़े ही हर्ष से देखती है उसी प्रकार अनुराग (प्रेम) सहित इन्द्राणी ने जिनबालक से युक्त जिनमाता को बड़े ही प्रेम से देखा। इन्द्राणी ने वहाँ जाकर पहले कई बार प्रदक्षिणा दी फिर जगत् के गुरू जिनेन्द्रदेव को नमस्कार किया और फिर जिनमाता के सामने खड़े होकर इस प्रकार स्तुति की-कि हे माता, तू तीनों लोकों की कल्याणकारिणी माता है, तू ही मंगल करने वाली है। तू ही महादेवी है, तू ही पुण्यवती है और तू ही यशस्विनी है। पुन: जिसने अपने शरीर को गुप्त कर रखा है ऐसी इन्द्राणी ने जिनमाता की स्तुति कर उसे मायामयी नींद से युक्त कर दिया। तदनन्तर उसके आगे मायामयी दूसरा बालक रखकर शरीर से निकलते हुये तेज के द्वारा लोक को व्याप्त करने वाले चूड़ामणि रत्न के समान जगत्गुरू जिनबालक को दोनों हाथों से उठाकर वह परम आनन्द को प्राप्त हुर्इं। उस समय अत्यन्त दुर्लभ भगवान के शरीर का स्पर्श पाकर इन्द्राणी ने ऐसा माना था मानों मैंने तीनों लोकों का समस्त ऐश्वर्य ही अपने अधीन कर लिया हो। वह इन्द्राणी बार-बार उनका मुख देखती थी, बार-बार उनके शरीर का स्पर्श करती थ्ीा और बार-बार उनके शरीर को सूँघती थी जिससे उसके नेत्र हर्ष से प्रपुâल्लित हो गये थे और वह उत्कृष्ट प्रीति को प्राप्त हुई थी। तदनन्तर जिनबालक को लेकर जाती हुई वह इन्द्राणी ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो अपनी देदीप्यमान किरणों से आकाश को व्याप्त करने वाले सूर्य को लेकर जाता हुआ आकाश सुशोभित हो रहा है।
महानुभावों! उस समय इन्द्राणी ने अपनी स्त्रीपर्याय का छेद करके मोक्ष का टिकट ले लिया था। आज भी महिलाओं को आदिपुराण आदि ग्रंथों से यह पुण्य कथानक पढ़कर असीम पुण्य संचित करके अपनी स्त्रीपर्याय को सार्थक करना चाहिये। वे जिनेंद्र प्रभु जगत का कल्याण करें यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-३२

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! आदिपुराण के अनुसार भगवान आदिनाथ के पुण्य कथानक में जन्मकल्याणक का प्रकरण चल रहा है कि भगवान के जन्म लेते ही सौधर्म इन्द्र अपनी विशाल सेना के साथ अयोध्या नगरी में आते हैं। पुराण को पढ़ना-सुनना मंगलस्वरूप होता है। चैत्र कृष्णा नवमी को अयोध्या में सर्वतोभद्र महल में रानी मरुदेवी ने तीर्थंकर बालक को जन्म दिया तब शचि इन्द्राणी उनके प्रसूतिगृह में गई और वहाँ से जब वह भगवान को लेकर बाहर आई तो उस समय का वर्णन श्री जिनसेनाचार्य ने किया है—
छत्र, ध्वजा, कलश, चमर, सुप्रतिष्ठ (ठोना), झारी, दर्पण और ताड़ का पंखा ये आठ मंगलद्रव्य कहलाते हैं। उस समय मंगलों में भी मंगलपने को प्राप्त कराने वाले और तरुण सूर्य के समान शोभायमान भगवान अपनी दीप्ति से दीपकों के प्रकाश को रोक रहे थे अर्थात् भगवान के शरीर की दीप्ति के सामने दीपकों का प्रकाश नहीं पैâल रहा था। आज भी पंचकल्याणकों में इन अष्ट मंगल द्रव्यों को धारण करके देवियाँ प्रस्तुत होती हैं।
सौधर्म इन्द्र जिनबालक को प्राप्त करने के लिये आतुर हैं। तब इन्द्राणी प्रसूतिगृह से भगवान को लेकर इन्द्र को सौंप देती हैं। उस समय इन्द्र भगवान की खूब स्तुति करता है—
हे नाथ, विद्वान् लोग केवलज्ञानरूपी सूर्य का उदय होने के लिये आपको ही बड़े-बड़े मुनियों के द्वारा वन्दनीय और अतिशय उन्नत उदयाचल पर्वत मानते हैं। हे नाथ, आप भव्य जीवरूपी कमलों के समूह को विकसित करने के लिये सूर्य के समान हैं। मिथ्या ज्ञानरूपी गाढ़े अन्धकार से ढका हुआ यह संसार अब आपके द्वारा ही प्रबोध को प्राप्त होगा। हे नाथ, आप गुरुओं के भी गुरु हैं इसलिये आपको नमस्कार हो, आप महाबुद्धिमान् हैं इसलिये आपको नमस्कार हो, आप भव्यजीवरूपी कमलों को विकसित करने के लिये सूर्य के समान हैं और गुणों के समुद्र हैं इसलिये आपको नमस्कार हो। हे भगवन्, आपने तीनों लोकों को जान लिया है इसलिये आपसे ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा करते हुए हम लोग आपके चरण-कमलों को बड़े आदर से अपने मस्तक पर धारण करते हैं।
भव्यात्माओं! आपने सुना और पंचकल्याणक में देखा भी होगा कि सौधर्म इन्द्र दो आँखों से भगवान का रूप देखकर तृप्त नहीं होता है तब एक हजार नेत्र बनाकर उनका रूप निहारता है। मैं कई बार कहती हूँ कि जो भक्तजन भगवान के दर्शन के समय आँख बंद कर लेते हैं उन्हें ध्यान रखना चाहिये कि दर्शन के समय कभी भी आँख बन्द न करें और ठीक से भगवान के रूप को निरखकर उनकी छवि हृदय में अंकित कर लें। ध्यान के समय आँख बंद करके आत्मा के गुणों का अवलोकन और चिन्तन किया जाता है।
भगवान को इन्द्र अपनी गोद में लेकर सुमेरू पर्वत पर ले जाता है और वहाँ पाण्डुकशिला पर उन्हें विराजमान करके अभिषेक करता है। उसकी सेना की बातें सुनकर आप काल्पनिक कथानक मत समझना, ये सब सच्ची बातें हैं और ऐसी सेनाएँ सदैव भगवंतों के जन्मकल्याणक में स्वर्ग से धरती पर आती हैं। आज भी आप अपने देश की जल-थल-नभ इन तीनों सेनाओं का वैभव २६ जनवरी गणतन्त्र दिवस पर देखते हैं। जो देश के राष्ट्रपति को सलामी देते हुए अपनी शक्ति का परिचय देते हैं तो त्रैलोक्यपति को नमन करने यदि देवों की सेना स्वर्ग से आ जावे तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
भगवान ऋषभदेव का जन्मकल्याणक भी जगत को शांति का संदेश देने वाला है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-३३

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भगवान के जन्मकल्याणक का प्रकरण बहुत ही रोमांचक है जिसे मात्र सुनकर भी पुण्यवद्र्धन होता है। इन्द्र ने जिनबालक को आकाशमार्ग से ऐरावत हाथी पर ले जाकर सुमेरु पर्वत की पाण्डुक शिला पर विराजमान कर दिया। वह सुमेरू पर्वत यहाँ-भरतक्षेत्र से २० करोड़ मील दूरी पर है। उस पर्वत की प्रतिकृति हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप के बीच में बनी है। उस पर भी मैं सभी तीर्थंकरों के जन्मकल्याणक के दिन जन्माभिषेक करवाती हूँ।
आप लोगों को यहाँ ध्यान देना है कि जन्मजात जिनेन्द्र बालक सौधर्म इन्द्र के द्वारा किये गये १००८ कलशों के अभिषेक को झेल लेते हैं और रंचमात्र भी विचलित नहीं होते हैं। कुछ लोग कह देते हैं कि भगवान भी हम और आप जैसे ही साधारण मनुष्य थे अत: उन्हें आदिकुमार, वीरकुमार आदि नामों से संबोधन देते हैं किन्तु जिनसेनाचार्य आदि प्राचीन आचार्यों ने जिनेन्द्र भगवान को जन्म से ही भगवान संज्ञा प्रदान की है उन्हें शिशु अवस्था में, युवावस्था में या मुनि अवस्था में भी भगवान ही कहना चाहिये।
सुमेरु पर्वत की पाण्डुक शिला पर ही इन्द्र ने विशाल मण्डप बना दिया ऐसा वर्णन आदिपुराण में आया है—उस मण्डप में कल्पवृक्ष के पूâलों से बनी हुई अनेक मालाएँ लटक रही थीं और उनपर बैठे हुए भ्रमर गा रहे थे। उन भ्रमरों के संगीत से वे मालाएँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो भगवान का यश ही गाना चाहती हों।
तदनन्तर प्रथम स्वर्ग के इन्द्र ने उस अवसर की समस्त विधि करके भगवान का प्रथम अभिषेक करने के लिये प्रथम कलश उठाया और कलश उठाने के मन्त्र को जानने वाले दूसरे ऐशानेन्द्र ने भी चंदन से र्चिचत, भरा हुआ दूसरा कलश उठाया। आनन्द सहित जय-जय शब्द का उच्चाकरण करते हुए शेष इन्द्र उन दोनों इन्द्रों के कहे अनुसार कार्य करने लगे। अपनी-अपनी अप्सराओं तथा परिवार से सहित इन्द्राणी आदि मुख्य-मुख्य देवियाँ भी मंगलद्रव्य धारण कर परिचर्या करने लगीं। तत्पश्चात् बहुत-से देव सुवर्णमय कलशों से क्षीरसागर का परित्र जल लाने के लिये श्रेणीबद्ध होकर निकल पड़े। ‘जो स्वयं पवित्र हैं और जिनका रुधिर भी क्षीर के समान अत्यन्त स्वच्छ है ऐसे भगवान के शरीर का स्पर्श करने के लिये क्षीरसागर के जल के सिवाय अन्य कोई जल योग्य नहीं है ऐसा मानकर ही मानो देवों ने बड़े हर्ष के साथ पाँचवें क्षीरसागर के जल से ही भगवान का अभिषेक करने का निश्चय किया था। आठ योजन गहरे, मुख पर एक योजन चौड़े (और उदर में चार योजन चौड़े) सुवर्णमय कलशों से भगवान के जन्माभिषेक का उत्सव प्रारम्भ किया गया था। जिनके कण्ठभाग अनेक प्रकार के मोतियों से शोभायमान हैं, जो घिसे हुए चन्दन से र्चिचत हो रहे हैं और जो जल से लबालब भेरे हुए हैं ऐसे वे सुवर्ण-कलश अनुक्रम से आकाश में प्रकट होने लगे। उन सब कलशों को हाथ में लेने की इच्छा से इन्द्र ने अपने विक्रिया-बल से अनेक भुजाएँ बना लीं। उस समय आभूषण-सहित उन अनेक भुजाओं से वह इन्द्र ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो भूषणांग जाति का कल्पवृक्ष ही हो। अथवा वह इन्द्र एक साथ हजार भुजाओं-द्वारा उठाये हुए और मोतियों से सुशोभित उन सुवर्णमय कलशों से ऐसा शोभायमान होता था मानो भाजनांग जाति का कल्पवृक्ष ही हो। सौधर्मेन्द्र ने जय-जय शब्द का उच्चारण कर भगवान के मस्तक पर पहली जलधारा छोड़ी उसी समय जय-जय-जय बोलते हुए अन्य करोड़ों देवों ने भी बड़ा भारी कोलाहल किया था। जिनेन्द्र देव के मस्तक पर पड़ती हुई वह जल की धारा ऐसी शोभायमान होती थी मानो हिमवान् पर्वत के शिखर पर उँâचे से पड़ती हुई अखण्ड जल वाली आकाशगंगा ही हो। तदनन्तर अन्य सभी स्वर्गों के इन्द्रों ने सन्ध्या समय के बादलों के समान शोभायमान, जल से भरे हुए सुवर्णमय कलशों से भगवान के मस्तक पर एक साथ जलधारा छोड़ी। यद्यपि वह जलधारा भगवान के मस्तक पर ऐसी पड़ रही थी मानो गंगा सिन्धु आदि महानदियाँ ही मिलकर एक साथ पड़ रही हों तथापि मेरू पर्वत के समान स्थिर रहने वाले जिनेन्द्र देव उसे अपने माहात्म्य से लीलामात्र में ही सहन कर रहे थे। उस समय कितनी ही जल की बूँदें भगवान के शरीर का स्पर्श कर आकाशरूपी आँगन में दूर तक उछल रही थीं और ऐसा मालूम होती थीं मानो उनके शरीर के स्पर्श से पापरहित होकर ऊपर को ही जा रही हों।
उन जिनेन्द्र भगवंतों के जन्माभिषेक का जल इतना पवित्र होता है कि सभी लोग उस जल को गंधोदक कहकर अपने मस्तक, आँख आदि में लगाते हैं तो उनका शरीर भी पवित्र हो जाता है। उस समय का वर्णन करते हुए श्रीजिनसेन स्वामी कहते हैं-

पवित्रो भगवान् पूतैरङ्गैस्तदपुना जलम्।
तत्पुनर्जगदेवेदम पावीद् व्याप्तदिङ्मुखम्।।१३०।।

अर्थात् उस अभिषेक के जल में डूबी हुई देवों की सेना क्षण-भर के लिये ऐसी दिखाई देती थी मानो क्षीरसमुद्र में डूबकर व्याकुल ही हो रही हो।
ऐसे तीर्थंकर भगवान का जन्माभिषेक जगत के लिए कल्याणकारी होवे यही मंगल भावना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-३४

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण में भगवान ऋषभदेव के जन्मकल्याणक का प्रकरण चल रहा है। सुमेरू पर्वत की पाण्डुक शिला पर जन्माभिषेक का वर्णन श्री जिनसेनाचार्य ने करते हुए तीर्थंकर को बालक अवस्था में भी भगवान शब्द से संबोधित किया है। सौधर्म इन्द्र के बाद सभी इन्द्र और इन्द्राणियों ने भगवान का अभिषेक किया था ऐसा हरिवंश पुराण में भी कथन आया है। इन्द्र ने अभिषेक के अनन्तर शांति मंत्र पढ़कर शांतिधारा की थी।

कृत्वा गन्धोदकैरित्थमभिषेकं सुरोत्तमा:।
जगतां शान्तये शान्ति घोषयामासुरुच्चकै:।।

अर्थात् इन्द्र सुगन्धित जल से भगवान का अभिषेक कर जगत की शान्ति के लिये उच्च स्वर से शांति-मंत्र पढ़ने लगे।

प्रचक्रुरुत्तमाङ्गेषु चक्र: सर्वाङ्गसंगतम्।
स्वर्गस्योपायनं चक्रस्तद्गंधाम्बुदिवौकस:।।१९८।।

अर्थात् देवों ने उस गन्धोदक को पहले अपने-अपने मस्तकों पर लगाया फिर सारे शरीर में लगाया और बाकी बचे हुए गंधोदक को स्वर्ग ले जाने के लिये रख लिया।
आज भी भगवन्तों के अभिषेक के बाद भक्तजन शांतिधारा करते हैं और गंधोदक भी मस्तक आदि उत्तमांगों पर लगाते हैं।
सुमेरू पर्वत पर इतने अधिक जल से अभिषेक हुआ था कि ऊपर से बहकर वह जल पूरे जम्बूद्वीप में भर गया था।
उस अभिषेक के जल में डूबी हुई देवों की सेना क्षण-भर के लिए ऐसी दिखाई देती थी मानो क्षीरसमुद्र में डूबकर व्याकुल ही हो रही हो। सब दिशाओं को रोककर सब ओर उछलती हुई कितनी ही जल की बूँदें ऐसी मालूम होती थीं मानो आनन्द से दिशारूपी स्त्रियों के साथ हँसी ही कर रही हों।
उस समय भगवान ऋषभदेव मेरू पर्वत के समान जान पड़ते थे। देवगण कुलाचल पर्वतों के समान मालूम होते थे। कलश दूध के मेघों के समान प्रतिभासित होते थे और देवियाँ जल से भरे हुए सरोवरों के समान आचरण कर रही थीं। जिनका अभिषेक कराने वाला स्वयं इन्द्र था, मेरू पर्वत स्नान करने का सिंहासन था, देवियाँ नृत्य करने वाली थीं, देव िंककर थे और क्षीरसमुद्र स्नान करने का टब था। इस प्रकार अतिशय प्रशंसनीय मेरू पर्वत पर जिनका स्नपन महोत्सव हुआ था वे पवित्र आत्मा वाले भगवान समस्त जगत को पवित्र करें ऐसी मंगल कामना श्रीजिनसेन स्वामी ने की है।

सानन्दं त्रिदशेश्चरै: सचकितं देवीभिरुत्पुष्करै:
सत्रासं सुरवारणै: प्रणिहितैरात्तादरं चारणै:।
साशज्र्ं गगनेचरै: किमिदमित्यालोकितो य: स्फुरन्
मेरोर्मूर्दिध्न स नोऽवताज्जिनविभोर्जन्मोत्सवाम्भ: प्लव:।।

मेरू पर्वत के मस्तक पर स्पुâरायमान होता हुआ, जिनेन्द्र भगवान के जनमाभिषेक का वह जल-प्रवाह हम सबकी रक्षा करे जिसे कि इन्द्रों ने बड़े आनन्द से, देवियों ने आश्चर्य से, देवों के हाथियों ने सूँड उँची उठाकर बड़े भय से, चारण ऋद्धिधारी मुनियों ने एकाग्रचित्त होकर बड़े आदर से और विद्याधरों ने ‘यह क्या है?’ ऐसी शंका करते हुए देखा था।
यहाँ पर आपको जानना है कि तीर्थंकर भगवान का जन्माभिषेक चारण ऋद्धिधारी मुनिराज भी देखने आते थे जबकि आजकल कुछ लोग कह देते हैं कि मुनिजन का जन्माभिषेक से क्या लेना-देना? आदिपुराण के इस प्रमाणानुसार मैंने भी साक्षात् देखा है कि आचार्य श्री शिवसागर महाराज पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं में जन्मकल्याणक के जुलूस में भी जाते थे और जन्माभिषेक भी देखते थे। अत: सभी साधुओं के लिये यह विशेष उदाहरण है कि ऐसे पुण्य क्षणों का सदैव सदुपयोग करना चाहिये।
इन्द्रों द्वारा जन्माभिषेक को प्राप्त भगवान जगत का कल्याण करें, यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-३५

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! आदिपुराण के चौदहवें पर्व में वर्णन आया है कि भगवान के जन्माभिषेक के पश्चात् इन्द्राणी उन्हें बड़ी भक्ति से पोंछती है-
जब अभिषेक की विधि समाप्त हो चुकी तब इन्द्राणी ने हर्ष के साथ जगद्गुरू भगवान ऋषभदेव को अलंकार पहनाने का प्रयत्न किया। जिनका अभिषेक किया जा चुका है ऐसे पवित्र शरीर धारण करने वाले भगवान ऋषभदेव के शरीर में लगे हुए जलकणों को इन्द्राणी ने स्वच्छ एवं निर्मल वस्त्र से पोंछा। भगवान के मुख पर, उनके ऊपर जो सपेâद छाया पड़ रही थी उसे इन्द्राणी जलकण समझती थी। अत: पोंछते हुए मुख को भी वह बार-बार पोंछ रही थी। स्वभाव से सुन्दर तथा संगठित भगवान का शरीर अलंकारों से युक्त होने पर भी ऐसा शोभायमान होने लगा था मानो उपमा, रूपक आदि अलंकारों से युक्त तथा सुन्दर रचना से सहित किसी कवि का काव्य ही हो। इस प्रकार इन्द्राणी के द्वारा प्रत्येक अंग में धारण किये हुये मणिमय आभूषणों से वे भगवान उस कल्पवृक्ष के समान शोभायमान हो रहे थे जिसकी प्रत्येक शाखा पर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं। इस तरह इन्द्राणी ने इन्द्र की गोदी में स्थित भगवान को अनेक वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर जब उनकी रूप-संपदा देखी तब वह स्वयं भारी आश्चर्य करने लगी। इन्द्र ने भी भगवान के उस समय की रूप सम्बन्धी शोभा देखनी चाही, परन्तु दो नेत्रों से देखकर सन्तुष्ट नहीं हुआ इसीलिए मालूम होता है कि वह द्व्यक्ष से सहस्राक्ष (हजारों नेत्रों वाला) हो गया था। उसने विक्रिया शक्ति से हजार नेत्र बनाकर भगवान का रूप देखा था।
आज के लोग सहज कह देते हैं कि भगवान और हम एक समान हैं किन्तु ऐसा कहना भगवान का अवर्णवाद है, क्योंकि भगवान के लिये कहा है-‘‘मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्, देवतास्वपि च देवता यत:’’ अर्थात् वे मनुष्य होकर भी मानुषी प्रकृति से भिन्न देवताओं के भी देवता होते हैं। आज भी भगवान का जो अभिषेक किया जाता है वह उनकी धूल झाड़ने के लिये नहीं, प्रत्युत् अपनी आत्मा को पवित्र करने के लिये ही अभिषेक किया जाता है। आदिपुराण में कहा है-

अस्नातपूतगात्रोऽपि स्नपितोऽस्यद्य मन्दरे।
पवित्रयितुमेवैतज् जगदेनोमलीमसम्।।३२।।

हे देव! यद्यपि आप बिना स्नान किये ही पवित्र हैं तथापि मेरू पर्वत पर जो आपका अभिषेक किया गया है वह पापों से मलिन हुए इस जगत को पवित्र करने के लिये ही किया गया है।

युष्मज्जन्माभिषेकेण वयमेव न केवलम्।
नीता: पवित्रतां मेरु: क्षीराब्धिस्तज्जलान्यपि।।३३।।

अर्थात् हे देव! आपके जन्माभिषेक से केवल हम लोग ही पवित्र नहीं हुए हैं अपितु यह मेरू पर्वत, क्षीरसमुद्र तथा उन दोनों के वन (उपवन और जल) भी पवित्रता को प्राप्त हो गये हैं।
इन्द्र ने भगवान के दस पूर्व भवों का वर्णन करते हुए उनहें दशावतार चरम कहकर स्तुति की। पुन: ऋषभस्वामी, ऋषभदेव और पुरुदेव नाम रखकर इन्द्र उन तीर्थंकर भगवान बालक को ऐरावत हाथी पर विराजमान करके पूरे परिवार के साथ अयोध्या लाए और वहाँ राजा नाभिराय के सर्वतोभद्र महल में उन्हें माता की गोद में सौंप कर पुन: वहाँ सुमेरु पर्वत जैसा ही जन्मोत्सव किया। भगवान के माता-पिता की इन्द्र ने खूब स्तुति की। उसका वर्णन भी आदिपुराण में इस प्रकार है-इस संसार में आप दोनों ही महाभाग्यशाली हैं, आप दोनों ही अनेक कल्याणों को प्राप्त होने वाले हैं और लोक में आप दोनों की बराबरी करने वाला कोई नहीं है, क्योंकि आप जगत के गुरू के भी गुरू अर्थात् माता-पिता हैं। हे नाभिराज! सच है कि आप ऐश्वर्यशाली उदयाचल हैं और रानी मरुदेवी पूर्व दिशा है क्योंकि यह पुत्ररूपी परम ज्योति आपसे ही उत्पन्न हुई है। आज आपका यह घर हम लोगों के लिये जिनालय के समान पूज्य है और आप जगत-पिता के भी माता-पिता हैं इसलिये हम लोगों के लिए सदा पूज्य हैं।
उन महापुरुष, त्रैलाक्यपति तीर्थंकर भगवान को जनम देने वाले पुण्यशाली माता-पिता एवं साक्षात् भगवान जगत का कल्याण करें, यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-३६

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! आदिपुराण ग्रंथ में आचार्य श्री जिनसेन स्वामी ने भगवान ऋषभदेव के जन्मकल्याणक का विस्तार से वर्णन किया है जिसे पढ़कर जन्मकल्याणक की विभूति देखने का मन करने लगता है। किन्तु आज इस पंचमकाल में हम लोगों को साक्षात् तीर्थंकर का जन्म देखने का सौभाग्य नहीं मिल सकता है किन्तु पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं में भी उसी दृश्य को देखकर हृदय रोमांचित हो जाता है।
जहाँ भगवान ऋषभदेव साक्षात् तीर्थंकर बालक थे, नाभिराय राजा जैसे देखने वाले दर्शक थे और सौधर्म इन्द्र नाटक करने वाले स्वयं उपस्थित थे, वहाँ के उत्साह का क्या कहना? अर्थात् जब इन्द्र ने अयोध्या में आकर सर्वतोभद्र महल में भगवान का जन्मोत्सव मनाकर आनन्द नाम का नाटक प्रस्तुत किया था उसमें भगवान के दश पूर्व भवों का चित्रण किया था, उस समय का वर्णन करते हुए आदिपुराण में आचार्यदेव ने लिखा है कि-
जिस समय वह-इन्द्र रंगभूमि में अवतीर्ण हुआ था उस समय वह वैशाख-आसन से खड़ा हुआ था अर्थात् पैर पैâलाकर अपने दोनों हाथ कमर पर रखे हुए था और चारों ओर से मरुत् अर्थात् देवों से घिरा हुआ था। इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो मरुत् अर्थात् वातवलयों से घिरा हुआ लोकस्कन्ध ही हो अर्थात् तीन लोक के समान ही मालूम पड़ता था।
भव्यात्माओं! भगवान का चारित्र पढ़ने-सुनने से माताओं के गर्भ में पलने वाली सन्तानों में भी अच्छे संस्कार प्राप्त होते हैं। पारिवारिक अनुवूâलताएँ और धन-लक्ष्मी की भी प्राप्ति होती है। सांसारिक कार्यों में तो लोग खूब नाच-वूâद करते ही हैं किन्तु जब भगवान की भक्ति में नृत्य किया जाता है तो असीम पुण्य का संचय होता है और शरीर का अंग-प्रत्यंक स्वस्थ हो जाता है। इसीलिए तो इन्द्र भी अपने रोम-रोम को पवित्र करने हेतु बड़ा सुन्दर ताण्डव नृत्य करता है। उस नृत्य को देखकर अयोध्या नगरी के नर-नारी भी भक्ति में डूब गये थे और सभी इन्द्र के साथ संगीत-नृत्य आदि में भाग लेकर अपने प्रभु का जन्मोत्सव मनाया था।
यहाँ आप सभी को ध्यान देना है कि तीर्थंकर बालक अपनी माता का न तो स्तनपान करते हैं और न ही घर का भोजन ग्रहण करते हैं। उनके लिये पहले तो इन्द्र दाहिने हाथ के अँगूठे में अमृत रख जाता है जिसे चूस-चूस कर वे बड़े होते हैं। पुन: स्वर्ग के दिव्य करण्डक पिटारों से इन्द्र देव-देवियों के द्वारा दिव्य भोजन भेजते हैं, भगवान उसे ही ग्रहण करते हैं।
ऐसे दिव्य व्यक्तित्व को धारण करने वाले तीर्थंकर प्रभु जगत का कल्याण करें यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-३७

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भगवान् आदिनाथ की कथा जगत् के संताप को दूर करके सुख को प्रदान करने वाली है। इसीलिए आदिपुराण में श्री जिनसेनाचार्य ने उन बाल भगवान की बाल्यावस्था का बड़ा सुन्दर वर्णन करते हुए लिखा है-
भगवान् की वह बाल्य अवस्था ठीक चन्द्रमा की बाल्य अवस्था के समान थी, क्योंकि जिस प्रकार चन्द्रमा की बाल्य अवस्था जगत् को आनन्द देने वाली होती है उसी प्रकार भगवान् की बाल्य अवस्था भी जगत् को आनन्द देने वाली थी। चन्द्रमा की बाल्य अवस्था जिस प्रकार नेत्रों को उत्कृष्ट आनन्द देने वाली होती है उसी प्रकार उनकी बालवस्था नेत्रों को उत्कृष्ट आनन्द देने वाली थी और चन्द्रमा की बाल्यावस्था जिस प्रकार कला मात्र से उज्ज्वल होती है उसी प्रकार उनकी बाल्यावस्था भी अनेक कलाओं-विद्याओं से उज्ज्वल थी। भगवान् के मुखरूपी चन्द्रमा पर मन्द हास्यरूपी निर्मल चाँदनी प्रकट रहती थी और उससे माता-पिता का सन्तोषरूपी समुद्र अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त होता रहता था। उस समय भगवान् के मुख पर जो मनोहर मन्द हास्य प्रकट हुआ था वह जान पड़ता था मानो सरस्वती का गीतबन्ध अर्थात् संगीत का प्रथम राग ही हो, अथवा लक्ष्मी के हास्य की शोभा ही हो अथवा कीर्तिरूपी लता का विकास ही हो। भगवान् के शोभायमान मुख-कमल में क्रम-क्रम से अस्पष्ट वाणी प्रकट हुई जो कि ऐसी मालूम होती थी मानो भगवान् की बाल्य अवस्था का अनुकरण करने के लिए सरस्वती देवी ही स्वयं आई हों। इन्द्रनील मणियों की भूमि पर धीरे-धीरे गिरते-पड़ते पैरों से चलते हुए बालक भगवान् ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो पृथ्वी को लाल कमलों का उपहार ही दे रहे हों। सुन्दर आकार को धारण करने वाले वे भगवान् माता-पिता के मन में सन्तोष को बढ़ाते हुए देव-बालकों के साथ-साथ रत्नों की धूलि में क्रीड़ा करते थे।
आप सोचें कि जहाँ इन्द्र ने १५ माह तक रत्नों की वर्षा की हो, जहाँ सर्वतोभद्र जैसा अद्वितीय महल हो उसकी महिमा का वर्णन कौन कर सकता है? आचार्य श्रीमानतुंगस्वामी ने भी भक्तामर में कहा है-

ये: शान्तराग रुचि भि: परमाणुभिस्त्वं, निर्मापितस्त्रिभुवनैकललामभूत।
तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां, यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति।।

अर्थात् तीनों लोकों के समस्त सुंदर और आकर्षक परमाणुओं से जिनका शरीर निर्मित हुआ था उनके रूप-सौंदर्य की उपमा तो किसी से भी नहीं की जा सकती है। जन्म से ही उनमें १० अतिशय प्रगट हो गये थे जो किसी साधारण मनुष्य में नहीं पाये जाते हैं। वे गर्भ से मति-श्रुत-अवधिज्ञान के धारी तो थे ही, अत: वे बाल्यावस्था में भी किसी गुरू से शिक्षा नहीं ग्रहण करते थे।
मति, श्रुत और अवधि ये तीनों ही ज्ञान भगवान् के साथ-साथ ही उत्पन्न हुये थे इसलिये उन्होेंने समस्त विद्याओं और लोक की स्थिति को अच्छी तरह जान लिया था। वे भगवान् समस्त विद्याओं के ईश्वर थे इसलिये उन्हें समस्त विद्याएँ अपने आप ही प्राप्त हो गयी थीं सो ठीक ही है क्योंकि जन्म-जन्मान्तर का अभ्यास स्मरण-शक्ति को अत्यन्त पुष्ट रखता है। वे भगवान् शिक्षा के बिना ही समस्त कलाओं में प्रशंसनीय कुशलता को, समस्त विद्याओं में प्रशंसनीय चतुराई को और समस्त क्रियाओं में प्रशंसनीय कर्मठता (कार्य करने की सामथ्र्य) को प्राप्त हो गये थे। वे भगवान् सरस्वती के एकमात्र स्वामी थे इसलिए उन्हें समस्त वाङ्मय (शास्त्र) का ज्ञान प्रत्यक्ष हो गया था और इसलिये वे समस्त लोक के गुरू हो गये थे अर्थात् तीर्थंकर भगवान् की महिमा, उनकी बाल्य अवस्था आदि महान् अिंचत्य है। उसे सुन-पढ़कर आप आनंद की अनुभूति करें और मानसिक शांति की प्राप्ति करें यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-३८

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भगवान ऋषभदेव की बाल चेष्टाओं का वर्णन अपने बच्चों को अवश्य सुनाना चाहिये जिससे वे माता-पिता के प्रति विनम्र, सेवाभावी, गुणी बनेंगे।
वे भगवान् दीर्घदर्शी थे, दीर्घ आयु से समन्वित थे, दीर्घ भुजाओं से युक्त थे, दीर्घ नेत्र धारण करने वाले थे और दीर्घ सूत्र अर्थात् दृढ़ विचार के साथ कार्य करने वाले थे। इसलिए तीनों ही लोकों की सूत्रधारता-गुरुत्व को प्राप्त हुए थे। भगवान् वृषभदेव कभी तो, जिनका पूर्वभव में अच्छी तरह अभ्यास किया है ऐसे लिपि विद्या, गणित विद्या तथा संगीत आदि कला-शास्त्रों का स्वयं अभ्यास करते थे और कभी दूसरों को कराते थे। कभी छंद-शास्त्र, कभी अलंकार शास्त्र, कभी प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट, संख्या आदि का विवेचन और कभी चित्र खींचना आदि कला शास्त्रों का मनन करते थे।
देखो! संसार में साधारण विद्वानों के लिए भी कहा है कि-
‘‘काव्य शास्त्र विनोदेन, कालो गच्छति धीमताम्।’’
अर्थात् बुद्धिमानों का समय काव्य शास्त्रों के विनोद में व्यतीत होता है। वे अपने अमूल्य समय में से एक क्षण भी बेकार नहीं होने देते हैं और अज्ञानी जन अपना समय कलह, संघर्ष आदि में बिताकर व्यर्थ में अशुभ कर्मों का बंध करते हैं।
भगवान् की बालक्रीड़ा और प्रौढ़ता आदि का वर्णन भला कौन कर सकता है? अर्थात् कोई नहीं कर सकता है। आदिपुराण में लिखा है कि-
कभी हंसों के शब्दों से शब्दायमान सरयू नदी का जल प्राप्त कर उसमें पानी के आस्फालन से शब्द करने वाले लकड़ी के बने हुए यन्त्रों से जलक्रीड़ा करते थे। जलक्रीड़ा के समय मेघकुमार जाति के देव भक्ति से धारागृह (फव्वारा) का रूप धारण कर चारों ओर से जल की धारा छोड़ते हुए भगवान् की सेवा करते थे। कभी नन्दन वन के साथ स्पर्धा करने वाले वृक्षों की शोभा से सुशोभित नन्दन वन में मित्ररूप हुए देवों के साथ वनक्रीड़ा करते थे। वनक्रीड़ा के विनोद के समय पवनकुमार जाति के देव पृथ्वी को धूलिरहित करते थे और उद्यान के वृक्षों को धीरे-धीरे हिलाते थे।
यहाँ आपको ध्यान रखना है कि भगवान बालक जहाँ जिस उद्यान में क्रीड़ा भी कर लेते हैं। वहाँ असमय में भी पेड़ों पर सब ऋतुओं के फल-पूâल आ जाया करते हैं। स्वर्ग से इन्द्र द्वारा भेजे गये वस्त्रालंकारों को ही वे भगवान पहनते हैं यह बात भी स्पष्ट रूप से आदिपुराण में बताई है-
वह भगवान् पुण्यकर्म के उदय से प्रतिदिन इन्द्र के द्वारा भेजे हुए सुगन्धित पुष्पों की माला, अनेक प्रकार के वस्त्र तथा आभूषण आदि श्रेष्ठ भोगों का अपना अभिप्राय जानने वाले सुन्दर देवकुमारों के साथ प्रसन्न होकर अनुभव करते थे। जिनके चरण-कमल मनुष्य, सुर और असुरों के द्वारा पूजित हैं, जो बाल्य अवस्था में भी वृद्धों के समान कार्य करने वाले हैं, जो लीला, आहार, विलास और वेष से चतुर, उत्कृष्ट तथा ऊँचा शरीर धारण करते हैं, जो जगत् के जीवों के मन को प्रसन्न करने वाले अपने वचनरूपी किरणों के द्वारा उत्तम आनन्द को विस्तृत करते हैं, निर्मल हैं और कीर्तिरूपी पैâलती हुई चाँदनी से शोभायमान हैं ऐसे भगवान् ऋषभदेव बाल चन्द्रमा के समान धीरे-धीरे वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे।
भव्यात्माओं! तीर्थंकर भगवान् बालक अवस्था में भी अबालक जैसी अर्थात् प्रौढ़ पुरुषों जैसी क्रियाएँ किया करते हैं, यह उनकी विशेषता होती है। तीर्थंकर के गले में इन्द्रच्छद नाम का हार होता है जिसे और कोई नहीं पहन सकता है।
ताराओं की पंक्ति के समान चंचल लक्ष्मी के झूले की लता के समान, समुचित, विस्तृत और वक्ष-स्थल पर पड़े हुए बड़े भारी हार को धारण किये हुए तथा करधनी से सुशोभित चाँदनी तुल्य वस्त्रों को पहने हुए वे जिनेन्द्ररूपी चन्द्रमा नक्षत्रों के समान देवकुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए अतिशय सुशोभित हो रहे थे। श्रीजिनसेन स्वामी कहते हैं-

त्रिदोषजा महातज्र नास्य देहे न्यधु: पदम्।
मरुतां चलितागानां ननु मेरुरगोचर:।।

वात, पित्त और कफ इन तीन दोषों से उत्पन्न हुई व्याधियाँ भगवान् के शरीर में स्थान नहीं कर सकी थीं सो ठीक ही है कि वृक्ष अथवा अन्य पर्वतों को हिलाने वाली वायु मेरु पर्वत पर अपना असर नहीं दिखा सकती।
ऐसे उन तीर्थंकर भगवान का बाल्यावस्था का पुण्य चरित्र भी जगत् के लिए मंगल करने वाला है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

विशेष-भगवान के लिए दशावतार शब्द आया है-आदिपुराण पृ. ३२६, पर्व १५।

महापुराण प्रवचन-३९

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भगवान ऋषभदेव जैसे तीर्थंकर भगवंतों की कथाएँ सुनने से मानव में यह क्षमता आ सकती है कि मैं भी पुरुषार्थ करके एक दिन तीर्थंकर बनूँ। आदिपुराण में वर्णन आया है कि भगवान के शरीर में कोई रोग नहीं होता है, उनके शरीर में न कभी बुढ़ापा आता था, न कभी उन्हें खेद होता था और न कभी उनका अपघात (असमय में मृत्यु) ही हो सकता था। वे केवल सुख के अधीन होकर पृथ्वीरूपी शय्या पर पूजित होते थे। जो महाभ्युदयरूप मोक्ष का मूल कारण था ऐसा भगवान का परमौदारिक शरीर अत्यन्त शोभायमान हो रहा था।
वे अत्यन्त सुंदर शरीर और समचतुरस्र संस्थान से युक्त थे। श्रीवृक्ष, शंख, कमल, स्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चमर, सपेâद छत्र, िंसहासन, पताका, दो मीन, दो कुम्भ, कच्छप, चक्र, समुद्र, सरोवर, विमान, भवन, हाथी, मनुष्य, स्त्रियाँ, िंसह, धनुष, मेरू, इन्द्र, देवगंगा, पुर, गोपुर, चन्द्रमा, सूर्य, उत्तम घोड़ा, तालवृन्त-पंखा, बाँसुरी, वीणा, मृदंग, मालाएँ, रेशमी वस्त्र, दुकान, कुण्डल आदि को लेकर चमकते हुए चित्र-विचित्र आभूषण, फलसहित उपवन, पके हुए कलमों से सुशोभित खेत, रत्नद्वीप, वङ्का, पृथ्वी, लक्ष्मी, सरस्वती, कामधेनु, वृषभ, चूड़ामणि, महानिधियाँ, कल्पलता, सुवर्ण, जम्बूद्वीप, गरुड़, नक्षत्र, तारे, राजमहल, सूर्यादिक ग्रह, सिद्धार्थ वृक्ष, आठ प्रातिहार्य और आठ मंगलद्रव्य, आदि इन्हें लेकर एक सौ आठ लक्षण और मसूरिका आदि नौ सौ व्यंजन भगवान के शरीर में विद्यमान थे। इसी प्रकार आज भी मनुष्यों के हाथ-पैर-अंगुलियों आदि शरीर के अंगों में शंख-चक्र आदि चिन्ह होते हैं जो अपने शुभाशुभ की सूचना देते हैं।
धीरे-धीरे जब भगवान ऋषभदेव युवावस्था को प्राप्त हो गये, तब महाराज नाभिराज को उनके विवाह का विचार आया और वे पुत्र से कहने लगे-हे देव! मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ इसलिये आप सावधान होकर सुनिये। आप जगत के अधिपति हैं इसलिये आपको जगत का उपकार करना चाहिये। आप जगत की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा हैं तथा स्वयंभू हैं अर्थात् अपने-आप ही उत्पन्न हुए हैं। क्योंकि आपकी उत्पत्ति में अपने-आप को पिता मानने वाले हम लोग निमित्त मात्र हैं। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने में उदयाचल निमित्त मात्र है क्योंकि सूर्य स्वयं ही उदित होता है उसी प्रकार आपकी उत्पत्ति होने में हम निमित्त मात्र हैं क्योंकि आप स्वयं ही उत्पन्न हुए हैं। आप माता के पवित्र गर्भगृह में कमलरूपी दिव्य आसन पर अपनी उत्कृष्ट शक्ति स्थापन कर उत्पन्न हुए हैं इसलिये आप वास्तव में शरीर रहित हैं। यद्यपि मैं आपका यथार्थ में पिता नहीं हूँ, निमित्त मात्र से ही पिता कहलाता हूँ तथापि मैं आपसे एक अभ्यर्थना करता हूँ कि आप इस समय संसार की सृष्टि की ओर भी अपनी बुद्धि लगाइये। आप आदिपुरुष हैं इसलिये आपको देखकर अन्य लोग भी ऐसी ही प्रवृत्ति करेंगे क्योंकि जिनके उत्तम सन्तान होने वाली है ऐसी यह प्रजा महापुरुषों के मार्ग का अनुगमन करती है। इसलिये हे ज्ञानियों में श्रेष्ठ! आप इस संसार में किसी इष्ट कन्या के साथ विवाह करने के लिए मन कीजिये क्योंकि ऐसा करने से प्रजा की सन्तति का उच्छेद नहीं होगा। प्रजा की सन्तति का उच्छेद नहीं होने पर धर्म की सन्तति बढ़ती रहेगी इसलिये हे पुत्र! आप इस अविनाशीक विवाहरूपी धर्म को अवश्य ही स्वीकार कीजिये।
हे देव! आप इस विवाह कार्य को गृहस्थों का एक धर्म समझिये क्योंकि गृहस्थों की सन्तान की रक्षा में प्रयत्न अवश्य ही करना चाहिये। यदि आप मुझे किसी भी तरह अपना पिता मानते हैं तो आपको मेरे वचनों का किसी भी कारण से उल्लंघन नहीं करना चाहिये क्योंकि पिता के वचनों का उल्लंघन करना इष्ट नहीं है। इस प्रकार वचन कहकर धीर-वीर महाराज नाभिराज चुप हो गये और भगवान ने हँसते हुए ‘ओम्’ कहकर उनके वचन स्वीकार कर लिये अर्थात् विवाह कराना स्वीकृत कर लिया। प्रजा पर उपकार करने की दृष्टि से ही भगवान ने अपने विवाह की स्वीकृति प्रदान की थी।
तदनन्तर भगवान की अनुमति जानकर नाभिराज ने नि:शंक होकर बड़े हर्ष के साथ विवाह का बड़ा भारी उत्सव किया। महाराज नाभिराज ने इन्द्र की अनुमति से सुशील, सुन्दर लक्षणों वाली, सती और मनोहर आकार वाली दो कन्याओं की याचना की। वे दोनों कन्याएँ कच्छ-महाकच्छ की बहनें थीं। बड़ी ही शान्त और यौवनवती थीं। यशस्वती और सुनन्दा उनका नाम था। उन्हीं दोनों कन्याओं के साथ नाभिराज ने भगवान का विवाह कर दिया। श्रेष्ठ गुणों को धारण करने वाले भगवान ऋषभदेव विवाह कर रहे हैं इस हर्ष से देवों ने प्रसन्न होकर अनेक उत्तम-उत्तम उत्सव किये थे। महाराज नाभिराज अपने परिवार के लोगों के साथ, दोनों पुत्रवधुओं को देखकर भारी सन्तुष्ट हुए सो ठीक ही है क्योंकि संसारी जनों को विवाह आदि लौकिक धर्म ही प्रिय होता है। भगवान ऋषभदेव के विवाहोत्सव से मरुदेवी बहुत ही सन्तुष्ट हुई थीं सो ठीक ही है क्योंकि पुत्र के विवाहोत्सव में स्त्रियों को अधिक प्रेम होता ही है।
यहाँ आपको ध्यान रखना है कि तीर्थंकर महापुरुष राजकुमार का विवाह कोई पण्डित आदि मंत्र पढ़कर सम्पन्न नहीं कराते हैं, किन्तु उनका विवाह तो साक्षात् इन्द्रों ने कराया था। वास्तव में उन कन्याओं का भी कितना सौभाग्य था जिन्हें तीर्थंकर जैसा महान पति प्राप्त हुआ था। उन भगवान तीर्थंकर का पुण्य चरित्र सद्गृहस्थों के लिए अत्यंत आदर्श है उसे पढ़कर अपने गृहस्थ धर्म का सुयोग्य संचालन करना चाहिये।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-४०

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! महाराजा नाभिराज ने अपने पुत्र ऋषभदेव का विवाह करके अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव किया था। वरों में उत्तम भगवान ऋषभदेव उन देवियों से ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानों कीर्ति और लक्ष्मी से ही शोभायमान हो रहे हों और वे दोनों भगवान से इस प्रकार मिली थीं जिस प्रकार से महानदियाँ समुद्र से मिलती हैं।
उन दोनों रानियों के साथ ऋषभदेव सुखपूर्वक अपना समय व्यतीत कर रहे थे। पुन: किसी समय यशस्वती महादेवी राजमहल में सो रही थीं। सोते समय उन्होंने स्वप्न में ग्रसी हुई पृथ्वी, सुमेरू पर्वत, चन्द्रमा सहित सूर्य, हंस सहित सरोवर तथा चंचल लहरों वाला समुद्र देखा। स्वप्न देखने के बाद मंगल पाठ पढ़ते हुए बन्दीजनों के शब्द सुनकर वह जाग पड़ीं। पुन: वे सुखनिद्रा छोड़कर स्नानादि से निवृत्त होकर अपने पति महाराजा ऋषभदेव के पास पहुँचीं।
भगवान के समीप जाकर वह महादेवी अपने योग्य िंसहासन पर सुखपूर्वक बैठ गयीं। उस समय महादेवी साक्षात् लक्ष्मी के समान सुशोभित हो रही थीं। तदनन्तर उन्होंने रात्रि के समय देखे हुए समस्त स्वप्न भगवान से निवेदन किये और अवधिज्ञानरूपी दिव्य नेत्र धारण करने वाले भगवान ने भी नीचे लिखे अनुसार उन स्वप्नों का फल कहा कि-
हे देवी! स्वप्नों में जो आपने सुमेरू पर्वत देखा है उससे मालूम होता है कि आपके चक्रवर्ती पुत्र होगा। सूर्य उसके प्रताप को और चन्द्रमा उसकी कांतिरूपी सम्पदा को सूचित कर रहा है। हे कमलनयने! सरोवर के देखने से आपका पुत्र अनेक पवित्र लक्षणों से चिन्हित शरीर होकर अपने विस्तृत वक्षस्थल पर कमलवासिनी लक्ष्मी को धारण करने वाला होगा। हे देवी! पृथ्वी का ग्रसा जाना देखने से मालूम होता है कि तुम्हारा वह पुत्र चक्रवर्ती होकर समुद्ररूपी वस्त्र को धारण करने वाली समस्त पृथ्वी का पालन करेगा। और समुद्र देखने से प्रकट होता है कि वह चरमशरीरी होकर संसाररूपी समुद्र को पार करने वाला होगा। इसके सिवाय इक्ष्वाकु वंश को आनन्द देने वाला यह पुत्र आपके सौ पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ होगा। इस प्रकार पति के वचन सुनकर उस समय वह देवी हर्ष के उदय से ऐसी वृद्धि को प्राप्त हुई थी जैसी कि चन्द्रमा के उदय होने पर समुद्र की बेला वृद्धि को प्राप्त होती है।
तदनन्तर राजा अतिगृद्ध का जीव जो पहले व्याघ्र था, फिर देव हुआ, फिर सुबाहु हुआ और फिर सर्वार्थसिाqद्ध में अहमिन्द्र हुआ था, वहाँ से च्युत होकर यशस्वती महादेवी के गर्भ में आकर निवास करने लगा।
जिसका मण्डल देदीप्यमान तेज से परिपूर्ण है और जिसका उदय बहुत ही बड़ा है ऐसे सूर्य को जिस प्रकार पूर्व दिशा उत्पन्न करती है उसी प्रकार नौ महीने व्यतीत होने पर उस यशस्वती महादेवी ने देदीप्यमान तेज से परिपूर्ण और महापुण्यशाली पुत्र को उत्पन्न किया। भगवान ऋषभदेव के जन्म समय में जो शुभ दिन, शुभ लग्न, शुभ योग, शुभ चन्द्रमा और शुभ नक्षत्र आदि पड़े थे वे ही शुभ दिन आदि उस समय भी पड़े थे, अर्थात् उस समय चैत्र कृष्ण नवमी का दिन, मीन लग्न, ब्रह्मयोग, धन राशि का चन्द्रमा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र था। उसी दिन यशस्वती महादेवी ने सम्राट के शुभ लक्षणों से शोभायमान ज्येष्ठ पुत्र उत्पन्न किया था।
जिस प्रकार चन्द्रमा का उदय होने पर अपनी बेला सहित समुद्र हर्ष को प्राप्त होता है उसी प्रकार पुत्र का जन्म होने पर उसके दादा और दादी अर्थात् महारानी मरुदेवी और महाराज नाभिराज दोनों ही परम हर्ष को प्राप्त हुये थे। उस समय अधिक हर्षित हुई पति पुत्रवती स्त्रियाँ ‘आप इस प्रकार सैकड़ों पुत्र उत्पन्न करें’ इस प्रकार के पवित्र आशीर्वादों से उस यशस्वती देवी को बढ़ा रही थीं।
उस पुत्र के जन्मोत्सव में अयोध्या नगरी को खूब सजाया गया। प्रजा ने भारी उत्सव मनाया और ऋषभदेव एवं नाभिराज आदि ने बहुत ही रत्न वितरित किये। उस पुत्र को ‘भरत’ नाम प्राप्त हुआ। आदिपुराण में कहा है कि-

प्रमोदभरत: प्रेमनिर्झरा बन्धुता तदा।
तमाह्वद् भरतं भावि समस्तभरताधिपम्।।१५८।।

उस समय प्रेम से भरे हुए बन्धुओं के समूह ने बड़े भारी हर्ष से, समस्त भरतक्षेत्र के अधिपति हाने वाले उस पुत्र को ‘भरत’ इस नाम से पुकारा था।

तन्नाम्ना भारतं वर्षमिति हासीज्जनास्पदम्।
हिमाद्रेरासमुद्राच्च क्षेत्रं चक्रभृतामिदम्।।१५९।।

इतिहास के जानने वालों का कहना है कि जहाँ अनेक आर्य पुरुष रहते हैं ऐसा यह हिमवत् पर्वत से लेकर समुद्र पर्यन्त का चक्रवर्तियों का क्षेत्र उसी ‘भरत’ पुत्र के नाम के कारण ‘भारतवर्ष’ रूप से प्रसिद्ध हुआ है।
अनेक वैदिक ग्रन्थों में भी कहा है कि ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत के नाम से ही हमारे देश का नाम ‘भारत’ प्रसिद्ध हुआ है। तीर्थंकर पुत्र भरत चन्द्रमा की कलाओं के समान वृद्धिंगत होने लगे। यहाँ यह विशेष बात ध्यान देने योग्य है कि भगवान जैसे महापुरुष आठ वर्ष के बाद स्वयंमेव अणुव्रतधारी हो जाते हैं। उन्हें किसी से अणुव्रत आदि ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं होती है। वे संसार में रहकर भी तीव्ररागी नहीं होते हैं और समस्त भोगों को भोगते हुए भी आत्मोन्मुखी रहते हैं।
ऐसे महापुरुषों का जीवन चारित्र हम सभी के लिए मंगलकारी होवे यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-४१

(पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा)
प्रस्तुति-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! आदिपुराण में भगवान ऋषभदेव का जीवन चरित्र विस्तृत रूप में बतलाया गया है। उसमें ऋषभदेव के पुत्र भरत के जन्म का वर्णन चल रहा है कि वह भरत भी अपने पिता ऋषभदेव की जन्मतिथि चैत्र कृष्णा नवमी को ही जन्मे थे। उनकी भी बाल्यावस्था का वर्णन करते हुए श्री जिनसेनाचार्य ने कहा है-
वह बालकरूपी चन्द्रमा भाई-बन्धुरूपी कुमुदों के समूह में आनन्द को बढ़ाता हुआ और शत्रुओं के कुलरूपी अन्धकार को नष्ट करता हुआ बढ़ रहा था। माता यशस्वती के स्तन का पान करता हुआ वह भरत जब कभी दूध का कुल्ला उगलता था तब वह ऐसा देदीप्यमान होता था मानो अपना यश ही दिशाओं में बाँट रहा हो। वह बालक मन्द मुस्कान, मनोहर हास, मणिमयी भूमि पर चलना और अव्यक्त मधुर भाषण आदि लीलाओं से माता-पिता के परम हर्ष को उत्पन्न करता था। जैसे-जैसे वह बालक बढ़ता जाता था वैसे-वैसे ही उसके साथ-साथ उत्पन्न हुए स्वाभाविक गुण भी बढ़ते जाते थे, ऐसा मालूम होता था मानो वे गुण उसकी सुन्दरता पर मोहित होने के कारण ही उसके साथ-साथ बढ़ रहे थे। विधि को जानने वाले भगवान ऋषभदेव ने अनुक्रम से अपने उस पुत्र के अन्नप्राशन (पहली बार अन्न खिलाना), चौल (मुण्डन) और उपनयन (यज्ञोपवीत) आदि संस्कार स्वयं किये थे।
भव्यात्माओं! प्रत्येक प्राणी के जीवन में इन संस्कारों का बड़ा महत्त्व है। जिन बच्चों पर ऐसे संस्कार आरोपित किये जाते हैं वे बहुत ही गुणवान और आदर्श होते हैं। आठ वर्ष में हर बालक का उपनयन संस्कार अवश्य होना चाहिये क्योंकि यह श्रावक का प्रमुख लक्षण होता है। भरत जैसे महान पुत्र के गुणों का क्या कहना? जिनका प्रत्येक संस्कार तीर्थंकर महापुरुष ने स्वयं किया है। इसीलिए आदिपुराणकार कहते हैं-
वंâधे पर लटकते हुए यज्ञोपवीत से वह भरत ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसा कि ऊपर बहती हुई गंगा नदी के प्रवाह से हिमालय सुशोभित रहता है। इस भरत का अपने पिता भगवान ऋषभदेव के समान ही गमन था, उन्हीं के समान तीनों लोकों का उल्लंघन करने वाला देदीप्यमान शरीर था और उन्हीं के समान मन्द हास्य था। इस भरत की वाणी, कला, विद्या, द्युति, शील और विज्ञान आदि सब कुछ वही थे जो कि उसके पिता भगवान ऋषभदेव के थे। इस प्रकार पिता के साथ तन्मयता को प्राप्त हुए भरत-पुत्र को देखकर उस समय प्रजा कहा करती थी कि पिता का आत्मा ही पुत्र नाम से कहा जाता है (आत्मा वै पुत्रानामासीद्) यह बात बिलकुल सच है।
महारानी यशस्वती ने इसीं प्रकार से आगे चलकर और भी ९९ पुत्रों को जन्म दिया और शतपुत्रा कहलार्इं। भगवान ऋषभदेव का वङ्कानाभि पर्याय में जो पीठ नाम का भाई था वह अब ऋषभसेन नाम का भरत का छोटा भाई हुआ। जो राजा श्रेष्ठी का जीव महापीठ था वह अनन्तविजय नाम का ऋषभसेन का छोटा भाई हुआ। जो विजय नाम का व्याघ्र जीव था वह अनन्तविजय से छोटा अनन्तवीर्य नाम का पुत्र हुआ। जो वैजयन्त नाम का शूकर का जीव था वह अनन्तवीर्य का छोटा भाई अच्युत हुआ। जो वानर का जीव जयन्त था वह अच्युत से छोटा वीर नाम का भाई हुआ और जो नेवला का जीव अपराजित था, वह वीर से छोटा बरवीर हुआ। इस प्रकार भगवान ऋषभदेव के यशस्वती महादेवी से भरत के पीछे जन्म लेने वाले निन्यानवे पुत्र हुए। वे सभी पुत्र चरमशरीरी तथा बड़े प्रतापी थे। तदनन्तर जिस प्रकार शुक्लपक्ष पश्चिम दिशा में चन्द्रमा की निर्मल कला को उत्पन्न (प्रकट) करता है उसी प्रकार ब्रह्मा-भगवान आदिनाथ ने यशस्वती नामक महादेवी में ब्राह्मी नाम की पुत्री उत्पन्न की। आनन्द पुरोहित का जीव जो पहले महाबाहु था और फिर स्र्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ था, वह वहाँ से च्युत होकर भगवान ऋषभदेव की द्वितीय पत्नी सुनन्दा के देव के समान बाहुबली नाम का पुत्र हुआ। वङ्काजंघ पर्याय में भगवान ऋषभदेव की जो अनुन्धरी नाम की बहन थी वह अब इन्हीं ऋषभदेव की सुनन्दा नामक देवी से अत्यन्त गुणवती ‘सुन्दरी’ नाम की पुत्री हुई। सुन्दरी पुत्री और बाहुबली पुत्र को पाकर सुनन्दा महारानी ऐसी सुशोभित हुई थीं जिस प्रकार की पूर्व दिशा प्रभा के साथ-साथ सूर्य को पाकर सुशोभित होती है। समस्त जीवों को मान्य तथा सर्वश्रेष्ठ रूप-सम्पदा को धारण करने वाले बलवान युवा बाहुबली उस काल के चौबीस कामदेवों में से पहले कामदेव हुए थे। पुत्र बाहुबली का जैसा रूप था वैसा अन्य कहीं नहीं दिखाई देता था, सो ठीक ही है उत्तम आभूषण कल्पवृक्ष को छोड़कर क्या कहीं अन्यत्र भी पाये जाते हैं?
आदिपुराण में भगवान के पुत्रों के विभिन्न आभूषणों का भी वर्णन है कि यष्टि अर्थात् लड़ियों के समूह को हार कहते हैं। वह हार लड़ियों की संख्या के न्यूनाधिक होने से इन्द्रच्छन्द आदि के भेद से ग्यारह प्रकार का होता है। जिसमें एक हजार आठ लड़ियाँ हों उसे इन्द्रच्छन्द हार कहते हैं। वह हार सबसे उत्कृष्ट होता है और इन्द्र, चक्रवर्ती तथा जिनेन्द्र देव के पहनने के योग्य होता है। जिसमें इन्द्रच्छन्द हार से आधी अर्थात् पाँच सौ चार लड़ियाँ हों उसे विजयच्छन्द हार कहते हैं। यह हार अर्धचक्रवर्ती तथा बलभद्र आदि अन्य पुरुषों के पहनने योग्य कहा गया है। जिसमें एक सौ आठ लड़ियाँ हों उसे हार कहते हैं और जिसमें मोतियों की इक्यासी लड़ियाँ हों उसे देवच्छन्द कहते हैं। जिसमें चौंसठ लड़ियाँ हों उसे अर्धहार, जिसमें चौवन लड़ियाँ हों उसे नक्षत्रमाला कहते हैं। यह हार अपने मोतियों से अश्विनी-भरणी आदि नक्षत्रों की माला की शोभा को तिरस्कृत करता हुआ सा जान पड़ता है। मोतियों की चौबीस लड़ियों के हार को अर्धगुच्छ, बीस लड़ियों के हार को माणव और दश लड़ियों के हार को अर्धमाणव कहते हैं। ऊपर कहे हुए इन्द्रच्छन्द आदि हारों के मध्य में जब माणिक लगाया जाता है तब उन नामों के साथ माणव शब्द और भी सुशोभित होने लगता है अर्थात् इन्द्रच्छन्दमाणव, विजयच्छन्दमाणव आदि कहलाने लगते हैं। जो एक शीर्षक हार है वह श्ुाद्ध हार कहलाता है। यदि शीर्षक के आगे इन्द्रच्छन्द आदि उपपद भी लगा दिये जायें तो वह भी ग्यारह भेदों से युक्त हो जाता है। इसी प्रकार उपशीर्षक आदि शुद्ध हारों के भी ग्यारह-ग्यारह भेद होते हैं। इस प्रकार सब हार पचपन प्रकार के होते हैं। अर्धमाणव हार के बीच में यदि मणि लगाया गया हो तो उसे फलकहार कहते हैं। उसी फलकहार में जब साने के तीन अथवा पाँच फलक लगे हों तो उसके सोपान और मणिसोपान के भेद से दो भेद हो जाते हैं अर्थात् जिसमें सोने के तीन फलक लगे हों उसे सोपान कहते हैं और जिसमें सोने के पाँच फलक लगे हों उसे मणिसोपान कहते हैं। इन दोनों हारों में इतनी विशेषता है कि सोपान नामक हार में सिफ सुवर्ण के ही फलक लगते हैं और मणिसोपान नाम के हार में रत्नों से जड़े हुए सुवर्ण के फलक (सुवर्ण के गोल दाने-गुरिया-को फलक कहते हैं) रहते हैं।
इस प्रकार कर्मयुग के प्रारम्भ में भगवान ऋषभदेव ने अपने पुत्रों के लिए कण्ठ और वक्ष:स्थल के अनेक आभूषण बनाये और उन पुत्रों ने भी यथायोग्य रूप से वे आभूषण धारण किये। इस तरह कण्ठ तथा शरीर के अन्य अवयवों में धारण किये हुए आभूषणों से वे राजकुमार ऐसे सुशोभित होते थे मानो ज्योतिषी देवों का समूह हो। उन सब राजकुमारों में तेजस्वियों में भी तेजस्वी भरत सूर्य के समान सुशोभित होता था और समस्त संसार से अत्यन्त सुन्दर, युवा, बाहुबली चन्द्रमा के समान शोभायमान होता था। शेष राजपुत्र ग्रह, नक्षत्र तथा तारागण के समान शोभायमान होते थे। उन सब राजपुत्रों में ब्राह्मी दीप्ति के समान और सुन्दरी चाँदनी के समान सुशोभित होती थीं। उन सब पुत्र-पुत्रियों से घिरे हुए सौभाग्यशाली भगवान ऋषभदेव ज्योतिषी देवों के समूह से घिरे हुए ऊँचे मेरू पर्वत की तरह सुशोभित होते थे।
अर्थात् यहाँ यह विशेष जानना है कि इस हुण्डावसर्पिणी काल के कर्मयुग में प्रथम तीर्थंकर के रूप में भगवान ऋषभदेव जन्मे, प्रथम चक्रवर्ती उनके पुत्र भरत हुए और प्रथम कामदेव के रूप में भगवान बाहुबली प्रसिद्ध हुए हैं तथा भगवान ऋषभदेव के सभी १०१ पुत्र उसी भव में दीक्षा लेकर मोक्ष गये हैं। ऐसे महापुण्यशाली भगवन्तों का चारित्र हम सबके लिए मंगलकारी है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-४२

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! आदिपुराण ग्रंथ में भगवान ऋषभदेव के साथ-साथ उनके पुत्र-पुत्रियों का चरित्र भी बड़ा सुंदर है। युग की आदि में ऋषभदेव ने अपने पुत्र-पुत्रियों के लिए बहुमूल्य आभूषण बनवाकर उन्हें पहनाये थे और वे पुत्र-पुत्रियाँ अपनी बालचेष्टाओं से माता-पिता और दादा-दादी तथा समस्त अयोध्यावासियों के मन को अत्यंत प्रसन्न रखते थे।
पुन: काल व्यतीत हो रहा था, किसी एक समय भगवान ऋषभदेव सिंहासन पर सुख से बैठे हुए थे कि उन्होंने अपना चित्त कला और विद्याओं के उपदेश देने में लगाया। उसी समय उनकी ब्राह्मी और सुन्दरी नामकी पुत्रियाँ माङ्गलिक वेष-भूषा धारण कर उनके निकट पहुँचीं। उन दोनों कन्याओं के रूप सौन्दर्य का वर्णन करते हुए जिनसेनाचार्य ने लिखा है कि-प्रत्येक अंग में रहने वाली कांति से उन दोनों की आकृति अत्यन्त सुन्दर थी और उससे वह ऐसी मालूम होती थीं मानो सौन्दर्य के समूह को एक जगह इकट्ठा करके ही बनायी गयी हों। क्या ये दोनों दिव्य-कन्याएँ हैं? अथवा नागकन्याएँ हैं? अथवा दिक्कन्याएँ हैं? अथवा सौभाग्य देवियाँ हैं? अथवा लक्ष्मी और सरस्वती देवी हैं अथवा उनकी अधिष्ठात्री देवी हैं? अथवा उनका अवतार हैं? अथवा क्या जगन्नाथ (ऋषभदेव) रूपी महासमुद्र से उत्पन्न हुई लक्ष्मी हैं? क्योंकि इनकी यह आकृति अनेक कल्याणों का अनुभव करने वाली है।
इस प्रकार लोग बड़े आश्चर्य के साथ जिनकी प्रशंसा करते हैं ऐसी उन दोनों कन्याओं ने विनय के साथ भगवान के समीप जाकर उन्हें प्रणाम किया। दूर से ही जिन का मस्तक नम्र हो रहा है ऐसी नमस्कार करती हुई उन दोनों पुत्रियों को उठाकर भगवान ने प्रेम से अपनी गोद में बैठाया, उनपर हाथ पेâरा, उनका मस्तक सूँघा और हँसते हुए उनसे बोले कि-‘‘आओ, तुम समझती होगी कि हम आज देवों के साथ अमर-वन को जायेंगी। परन्तु अब ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि देव लोग पहले ही चले गये हैं।’’ इस प्रकार भगवान ऋषभदेव क्षणभर उन दोनों पुत्रियों के साथ क्रीड़ा कर फिर कहने लगे कि-‘‘तुम अपने शील और विनय गुण के कारण युवावस्था में भी वृद्धा के समान हो। इसलिये हे पुत्रियों, तुम दोनों विद्या ग्रहण करने में प्रयत्न करो क्योंकि तुम दोनों के विद्या ग्रहण करने का यही काल है।’’ भगवान ऋषभेदव ने ऐसा कहकर तथा बार-बार उन्हें आशीर्वाद देकर अपने चित्त में स्थित श्रुत देवता को आदरपूर्वक सुवर्ण के विस्तृत पट्टे पर स्थापित किया, फिर दोनों हाथों से ‘‘अ आ …..’’ आदि वर्णमाला लिखकर उन्हें लिपि विद्या (लिखने) का उपदेश दिया और अनुक्रम से ईकाई दहाई आदि अंकों के द्वारा उन्हें संख्या के ज्ञान का भी उपदेश दिया। संसार में ऐसी प्रसिद्धि है कि भगवान ने दाहिने हाथ से वर्णमाला और बायें हाथ से संख्या लिखी थी।
इस प्रकार भगवान ने युग की आदि में सर्वप्रथम अपनी पुत्रियों को विद्याध्ययन कराया था अत: नारी-शिक्षा के जनक तो वास्तव में ऋषभदेव ही हुए हैं। आज भी नारी-शिक्षा को बड़ा महत्त्व दिया जा रहा है, यह खुशी की बात है किन्तु कन्याओं को भी अपनी शिक्षा आदि का दुरुपयोग नहीं करना चाहिये। लौकिक शिक्षा के साथ-साथ धार्मिक संस्कार, भारतीय संस्कृति के निर्वाह में भी कन्याओं को सदैव अपना योगदान प्रदान करना चाहिये तभी विद्या प्राप्ति की सार्थकता है।
विद्या के समान संसार में कोई हितकारी वस्तु नहीं है। वह सर्वदा साथ में रहने वाला धन है। ब्राह्मी-सुन्दरी को उनके पिता आदिब्रह्मा ने अध्ययन कराया था यह उनका परम सौभाग्य था। महानुभावों! इसी प्रकार आप भी प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन गुरु-मुख से अवश्य करके अपनी बुद्धि का सदुपयोग करें। इस प्रकार नारी-शिक्षा के जनक भगवान ऋषभदेव सम्पूर्ण जगत के लिए ज्ञान प्रदान करें और सबका मंगल करें यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-४३

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! आप आदिपुराण में ब्राह्मी-सुन्दरी के विद्याध्ययन का वर्णन सुन रहे हैं। भगवान के साक्षात् मुख से जिन्हें विद्या प्राप्त करने का सौभाग्य मिला हो उनके ज्ञान का वर्णन भला कौन कर सकता है? श्री जिनसेनाचार्य कहते हैं-जो भगवान के मुख से निकली हुई है, जिसमें ‘सिद्धं नम:’ इस प्रकार का मंगलाचरण अत्यन्त स्पष्ट है, जिसका नाम सिद्धमातृका है, जो स्वर और व्यंजन के भेद से दो भेदों को प्राप्त है, जो समस्त विद्याओं में पायी जाती है, जिसमें अनेक संयुक्त अक्षरों की उत्पत्ति है, जो अनेक बीजाक्षरों से व्याप्त है और जो शुद्ध मोतियों की माला के समान है ऐसी अकार को आदि लेकर हकार पर्यन्त तथा विसर्ग अनुस्वार जिह्वामूलीय और उपध्मानीय इन अयोगवाह पर्यन्त समस्त शुद्ध अक्षरावली को बुद्धिमती ब्राह्मी पुत्री ने धारण किया और अतिशय गुणवती सुन्दरीदेवी ने इकाई दहाई आदि स्थानों के क्रम से गणित शास्त्र को अच्छी तरह धारण किया। वाङ्मय के बिना न तो कोई शास्त्र है और न कोई कला है इसलिये भगवान ऋषभदेव ने सबसे पहले उन पुत्रियों के लिए वाङ्मय का उपदेश दिया था। अत्यन्त बुद्धिमती उन कन्याओं ने सरस्वती देवी के समान अपने पिता के मुख से संशय-विपर्यय आदि दोषों से रहित शब्द तथा अर्थरूप समस्त वाङ्मय का अध्ययन किया था। वाङ्मय के जानने वाले गणधरादि देव ने व्याकरण शास्त्र, छन्दशास्त्र और अलंकार शास्त्र इन तीनों के समूह को वाङ्मय कहा है। उस समय स्वयम्भू अर्थात् भगवान ऋषभदेव का बनाया हुआ एक बड़ा भारी व्याकरण शास्त्र प्रासिद्ध हुआ था। उसमें सौ से भी अधिक अध्याय थे और वह समुद्र के समान अत्यन्त गम्भीर था। इसी प्रकार उन्होंने अनेक अध्यायों में छन्दशास्त्र का भी उपदेश दिया था और उसके उक्ता-अत्युक्ता आदि छब्बीस भेद भी दिखलाये थे। अनेक विद्याओं के अधिपति भगवान ने प्रस्तार, नष्ट, उदिष्ट, एकद्वित्रिलघुक्रिया, संख्या और अध्वयोग छन्दशास्त्र के इन छह प्रत्ययों का भी निरूपण किया था। भगवान ने अलंकारों का संग्रह करते समय अथवा अलंकार संग्रह ग्रन्थों में उपमा, रूपक, यमक आदि अलंकारों का कथन किया था। उनके शब्दालंकार और अर्थालंकाररूप दो मार्गों का विस्तार के साथ वर्णन किया था और माधुर्य, ओज आदि दश गुणों का भी निरूपण किया था।
भव्यात्माओं! सोलह स्वर (अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋृ ऌ ल¸ ए ऐ ओ औ अं अ:) मातृका पद भी कहलाते हैं। इन मातृका पदों को हृदय में बुद्धि के द्वारा लिखकर ध्यान करने से खूब विद्या की प्राप्ति होती है।
मैंने भी अपने ज्ञान की नींव को दृढ़ बनाने के हेतु सर्वप्रथम व्याकरण-छंद-अलंकार शास्त्रों का अध्ययन स्वयं किया और अपने शिष्य-शिष्याओं को ‘‘सिद्धो वर्ण समाम्नाय:’’ सूत्र से प्रारम्भ करके व्याकर-छंद-अलंकार शास्त्र पढ़ाए हैं। इन ग्रंथों के पढ़े बिना समीचीन ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
मुझे आज के विद्वानों से यहाँ एक बात कहना है कि आदिपुराण ग्रंथ के अन्दर राज्यावस्था में भी तीर्थंकरों के लिए भगवान संज्ञा आई है। अत: पंचकल्याणक में उन्हें गर्भावस्था से निर्वाण तक प्रत्येक अवस्था में भगवान कहकर ही उच्चारण करना चाहिये। आप चिन्तन कीजिये कि तीर्थंकर जैसे महापुरुष के गुणों का वर्णन जब बृहस्पति और साक्षात् सरस्वती भी नहीं कर सकती हैं तो हम और आप भला क्या कर सकते हैं? अत: उनके नाम की महिमा को अल्प करके तो कभी भी उच्चारण नहीं करना चाहिये।
ब्राह्मी-सुन्दरी कन्याओं के बारे में आज भी हिन्दी भाषा को ब्राह्मी-लिपि के रूप में और अंकगणित सुन्दरी कन्या की भाषा के रूप में जानी जाती है।
पुन: उन ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों पुत्रियों की पदज्ञान (व्याकरण-ज्ञान) रूपी दीपिका से प्रकाशित हुई समस्त विद्याएँ और कलाएँ अपने आप ही परिपक्व अवस्था को प्राप्त हो गयी थीं। इस प्रकार गुरु अथवा पिता के अनुग्रह से जिनने समस्त विद्याएँ पढ़ ली हैं ऐसी वे दोनों पुत्रियाँ सरस्वती देवी के अवतार लेने के लिए पात्रता को प्राप्त हुई थीं अर्थात् वे इतनी अधिक ज्ञानवती हो गई थीं कि साक्षात् सरस्वती भी उनमें अवतार ले सकती थीं।
उन ब्राह्मी-सुन्दरी की विद्या का अतिशय जानकर आप सभी को स्वयं के ज्ञानार्जन हेतु सदैव धर्म ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिये। इस विद्या को प्रवर्तित करने वाले भगवान ऋषभदेव जगत का कल्याण करें यही भावना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-४४

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! महापुराण ग्रंथ के अन्तर्गत आदिपुराण में भगवान ऋषभदेव के पुत्र-पुत्रियों का प्रकरण चल रहा है। युग की आदि में भगवान ने सर्वप्रथम अपनी ब्राह्मी-सुन्दरी पुत्रियों को विद्या अध्ययन कराया। सम्पूर्ण विद्याओं के जनक ऋषभदेव की जन्मभूमि अयोध्या नगरी विद्या का आद्य केन्द्र बनी, उसकी यात्रा आप सभी को अवश्य करनी चाहिये।
भगवान ने सर्वप्रथम सिद्ध भगवान का स्मरण करके विद्या का प्रारम्भीकरण किया था। इस सिद्ध शब्द में अनंतशक्ति विद्यमान है। मैंने देखा है कि कातंत्रव्याकरण का शुभारम्भ भी ‘‘सिद्धों वर्ण समाम्नाय:’’ सूत्र से हुआ है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने जैनेन्द्र व्याकरण का प्रारम्भ भी ‘‘सिद्धिरनेकान्तात्’’ सूत्र के द्वारा किया है।
मैंने भी प्राय: अपनी समस्त ग्रंथ रचना में सिद्ध या सिद्धि शब्द का प्रयोग करके उनका लेखन प्रारम्भ किया है। उससे मुझे बहुत आत्मशक्ति और ज्ञानशक्ति प्राप्त हुई है। जैनधर्म के अध्ययन और स्वाध्याय में ग्रन्थों के क्रम का ध्यान अवश्य रखना चाहिये। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग ये चार वेद बड़े क्रम से बताये गये हैं। यही क्रम स्वाध्याय में उपयोगी है। आदिपुराण में भी लिखा है कि-

पुत्राणां च यथाम्नायं विनया दानपूर्वकम्।
शास्त्राणि व्याजहारैर्वा नुपूव्र्यां जगद्गुरु:।।

जगद्गुरू भगवान ऋषभदेव ने इसी प्रकार अपने भरत आदि पुत्रों को भी विनयी बनाकर क्रम से आम्नाय के अनुसार अनेक शास्त्र पढ़ाये। भगवान ने भरत पुत्र के लिए अत्यन्त विस्तृत-बड़े-बड़े अध्यायों से स्पष्ट कर अर्थशास्त्र और संग्रह (प्रकरण) सहित नृत्यशास्त्र पढ़ाया था। स्वामी ऋषभदेव ने अपने पुत्र वृषभसेन के लिए जिसमें गाना-बजाना आदि अनेक पदार्थों का संग्रह है और जिसमें सौ से भी अधिक अध्याय हैं ऐसे गन्धर्व शास्त्र का व्याख्यान किया था। अनन्तविजय पुत्र के लिए नाना प्रकार के सैकड़ों अध्यायों से भरी हुई चित्रकला-सम्बन्धी विद्या का उपदेश दिया और लक्ष्या या शोभासहित समस्त कलाओं का निरूपण किया। इसी अनन्तविजय पुत्र के लिए उन्होंने सूत्रधार की विद्या तथा मकान बनाने की विद्या का उपदेश दिया। उस विद्या के प्रतिपादक शास्त्रों में अनेक अध्यायों का विस्तार था तथा उसके अनेक भेद थे। बाहुबली पुत्र के लिए उन्होंने कामनीति, स्त्री-पुरुषों के लक्षण, आयुर्वेद, धनुर्वेद, घोड़ा-हाथी आदि के लक्षण जानने के तन्त्र और रत्न-परीक्षा आदि के शास्त्र अनेक प्रकार के बड़े-बड़े अध्यायों के द्वारा सिखलाये। इस विषय में संक्षेप में इतना ही समझना चाहिये कि लोक का उपकार करने वाले जो-जो शास्त्र थे भगवान आदिनाथ ने वे सब अपने पुत्रों को सिखलाये थे अर्थात् उस समय कोई भी विषय ऐसा शेष नहीं बचा था जो भगवान ने अपने पुत्र-पुत्रियों को न पढ़ाया हो।
भव्यात्माओं! प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का २० लाख पूर्व वर्षों का कुमारकाल व्यतीत हुआ था। भगवान ने अपने पुत्र-पुत्रियों को विद्या अध्ययन कराने के साथ-साथ उन पर सारे संस्कार भी स्वयं आरोपित किये थे। आदिपुराण में उन सोलह संस्कारों का भी वर्णन है जो आज भी मुण्डन, चौल, नामकरण, अन्न-प्राशन्न आदि संस्कार के रूप में बालक-बालिकाओं पर किये जाते हैं। मेरे पास जो भी गृहस्थ दम्पत्ति अपने पुत्र-पुत्रियों को लेकर आते हैं तो मैं उनके मंत्र विधि से पूरे संस्कार कराती हूँ जिससे वे बालक-बालिकायें बहुत ही गुणवान बनते हैं।
वर्तमान में टी.वी. चैनलों पर जो नारियाँ अपने शरीर का अर्धनग्नरूप में प्रदर्शन करती हैं उनके लिए मैं प्रेरणा करती हूँ कि भारतीय संस्कृति को विकृत करने वाली प्रवृत्ति छोड़कर आदर्श प्रस्तुत करना चाहिये।
ऐसे भारतीय संस्कृति के आद्यप्रणेता भगवान ऋषभदेव जगत का कल्याण करें यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-४५

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! आदिपुराण के अनुसार भगवान ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी-सुन्दरी के विद्या ग्रहण की बात मैंने बताई है कि अपने पिता त्रैलोक्यगुरु के अनुग्रह से सरस्वती की साक्षात् प्रतिमा के समान बन गई थी और पुत्रों को भी भगवान ने समस्त विद्याएँ सिखाई थीं।
इसी प्रकरण में आप लोगों को एक विशेष बात जानना है कि ब्राह्मी-सुन्दरी ने ऋषभदेव के समवसरण में आर्यिका दीक्षा धारण की थी। उनके विषय में अनेक विद्वानों की यह धारणा बन गई है कि ब्राह्मी-सुन्दरी ने इसलिये दीक्षा ली कि उनके पिता को उनके पति के लिए नमस्कार करना पड़ता। किन्तु दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थों में कहीं भी ऐसा कथन नहीं मिलता है। इसीलिये लोग कन्याओं के जन्म को अभिशाप मानने लगते हैं तथा यह भी कह देते हैं कि भगवान ऋषभदेव के पुत्री होना भी हुण्डावसर्पिणी काल का दोष है किन्तु यह कथन भी सर्वथा गलत है क्योंकि किसी प्राचीन आचार्य प्रणीत ग्रन्थ में ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता है।
दामाद के पैर छूने या नमस्कार करने की परम्परा आज भी सब जगह देखने में नहीं आती है। मैंने अवधप्रान्त में देखा है कि दामाद स्वयं अपने ससुर को पिता मानकर पैर छूते हैं। भगवान शांतिनाथ की छियानवे हजार रानियों में क्या किसी से पुत्री नहीं जन्मी होगी? अवश्य जन्मी होगी और उनके विवाह आदि भी हुए ही होंगे। तीर्थंकर जैसे महापुरुष के लिए दामाद को नमस्कार करने जैसी बात कहना अत्यन्त असंगत है क्योंकि वे तो जन्म से ही माता-पिता, मुनि आदि को भी नमस्कार नहीं करते हैं, यह उनकी नियति ही मानना चाहिये। इसी प्रकार महान् सती कन्या ब्राह्मी-सुन्दरी के वैराग्य की अवमानना करते हुए उनकी दीक्षा के विषय में भी ऐसी कुशंका उपस्थित नहीं करना चाहिये।
अनेक प्रतिष्ठाचार्य विद्वान् पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं में मंच पर इस दृश्य का मंचन भी कराते हैं कि ‘‘ब्राह्मी और सुन्दरी ने अपने पिता भगवान ऋषभदेव से पूछा कि पिताजी! क्या इस धरती पर आपसे भी बड़ा कोई व्यक्ति है ? तब भगवान ऋषभदेव ने कहा—हाँ पुत्रियों! जिनके साथ हम तुम्हारा विवाह करेंगे, वे मुझसे भी बड़े होंगे, क्योंकि मुझे उन दामादों के पैर छूना पड़ेगा… आदि। इस बात से दु:खी होकर दोनों पुत्रियों ने निर्णय लिया कि हम विवाह नहीं करेंगे, इसीलिये उन दोनों ने आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली थी।’’
किन्तु ऐसा कोई भी वर्णन दिगम्बर जैन शास्त्रों में मेरे देखने में नहीं आया है। मेरा उन विद्वानों से भी कहना है कि यदि कहीं किसी भी आचार्य प्रणीत ग्रन्थ में ऐसा वर्णन आपने पढ़ा हो तो मुझे अवश्य सूचित करें अन्यथा ब्राह्मी-सुन्दरी की यह वार्ता कभी भी मंच पर प्रस्तुत नहीं कराना चाहिये। इससे उन महान आत्माओं के अवर्णवाद का निरर्थक दोष उत्पन्न होता है। देखो, आदिपुराण ग्रन्थ में चौबीसवें पर्व में श्री जिनसेनाचार्य ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में कहा है—

भरतस्यानुजा ब्राह्मी दीक्षित्वा गुर्वनुग्रहात्।
गणिनीपदमार्याणां सा भेजे पूजितामरै:।।

भरत की छोटी बहन ब्राह्मी भी भगवान की कृपा से दीक्षित होकर आर्याओं के बीच में गणिनी के पद को प्राप्त हुई थी। यह ब्राह्मी सब देवों के द्वारा पूजित हुई थी।

रराज राजकन्या सा राजहंसीव सुस्वना।
दीक्षा शरन्नदीशीलपुलिनस्थलशायिनी।।

उस समय वह राजकन्या ब्राह्मी दीक्षारूपी शरद् ऋतु की नदी के शीलरूपी किनारे पर बैठी हुई और मधुर शब्द करती हुई हँसी के समान सुशोभित हो रही थी।

सुन्दरी चात्तनिर्वेदा तां ब्राह्मीमन्वदीक्षत।
अन्ये चान्याश्च संविग्ना गुरो: प्राव्राजिषुस्तदा।।

ऋषभदेव की दूसरी पुत्री सुन्दरी को भी उस समय वैराग्य उत्पन्न हो गया था जिससे उसने भी ब्राह्मी के बाद दीक्षा ग्रहण कर ली थी। इनके सिवाय उस समय और भी अनेक राजाओं तथा राजकन्याओं ने संसार से भयभीत होकर गुरुदेव भगवान के समीप दीक्षा धारण की थी।
स्त्रियों में महान् कन्या अनंगशरा जो चक्रवर्ती की कन्या थी उसके भी तपस्या करने के उदाहरण हैं। सुलोचना कन्या से स्वयंवर प्रथा प्रारम्भ होने का कथानक भी शास्त्रों में मिलता है। अत: स्त्रियों के प्रति सर्वथा घृणा की धारणा न बनाते हुए ब्राह्मी-सुन्दरी के स्वाभाविक वैराग्य की सर्वथा प्रशंसा करना चाहिये। ज्ञानार्णव ग्रन्थ में स्त्रियों की निन्दा करने के पश्चात् शीलवती नारियों एवं ब्रह्मचर्य महाव्रतधारिणी आर्यिकाओं की प्रशंसा करते हुए कहा है-

यमिभिर्जन्मनिर्विण्णैर्दूषिता यद्यपि स्त्रिय:।
तथाप्येकान्ततस्तासां विद्यते नाघसंभव:।।

यद्यपि संसार से विरक्त हुए संयमी मुनियों ने स्त्रियों को दूषित ही कहा है अर्थात् दोषयुक्त ही वर्णन किया है तथापि उनमें एकान्त से पाप ही संभव नहीं हैं किन्तु उनमें से किसी-किसी स्त्री में अनेक गुण भी होते हैं।

ननु सन्ति जीवलोके काश्चिच्छमशीलसंयमोपेता:।
निजवंशतिलकभूता: श्रुतसत्यसमन्विता नार्य:।।

अहो! इस जगत में अनेक स्त्रियाँ ऐसी भी हैं कि-जो शमभाव (मंदकषायरूप परिणाम) और शील, संयम से भूषित हैं तथा अपने वंश में तिलकभूत हैं अर्थात् अपने वंश को शोभायमान करती हैं और शास्त्राध्ययन तथा सत्य वचन से सहित भी हैं।

सतीत्वेन महत्त्वेन वृत्तेन विनयेन च।
विवेकेन स्त्रिय: काश्चिद् भूषयन्ति धरातलम्।।

अनेक स्त्रियाँ ऐसी हैं जो अपने पतिव्रत धर्म से, महत्त्व से, चारित्र से (सदाचरणों से), विनय से और विवेक से इस पृथ्वीतल को भूषित (शोभायुक्त) करती हैं। भगवती आराधना में भी बताया है कि–

जह सीलरक्खयाणं पुरिसाणं णिंदिदाओ महिलाओ।
तह सीलरक्खियाणं महिलाणं णिंदिदा पुरिसा।।

जैसे अपने शील की रक्षा करने वाले पुरुषों के लिए स्त्रियाँ निन्दनीय हैं, वैसे ही अपने शील की रक्षा करने वाली स्त्रियों के लिए पुरुष निन्दनीय हैं।
जो गुणसहित स्त्रियाँ हैं, जिनका यश लोक में पैâला हुआ है तथा जो मनुष्यलोक में देवता समान हैं और देवों से पूजनीय हैं उनकी जितनी प्रशंसा की जाये, कम है। तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव और श्रेष्ठ गणधरों को जन्म देने वाली महिलाएँ श्रेष्ठ देवों और उत्तम पुरुषों के द्वारा पूजनीय होती हैं।
कितनी ही महिलायें एक पतिव्रत और कौमार्य ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करती हैं। कितनी ही जीवनपर्यन्त वैधव्य का तीव्र दु:ख भोगती हैं। ऐसी भी कितनी शीलवती स्त्रियाँ सुनी जाती हैं जिन्हें देवों के द्वारा सम्मान आदि प्राप्त हुआ तथा जो शील के प्रभाव से शाप देने और अनुग्रह करने में समर्थ थीं। कितनी ही शीलवती स्त्रियाँ महानदी के जल प्रवाह में भी नहीं डूब सकीं और प्रज्ज्वलित घोर आग में भी नहीं जल सकीं तथा सर्प, व्याघ्र आदि भी उनका कुछ नहीं कर सके। कितनी ही स्त्रियाँ सर्वगुणों से सम्पन्न साधुओं और पुरुषों में श्रेष्ठ चरमशरीरी पुरुषों को जन्म देने वाली माताएँ हुई हैं। सब जीव मोह के उदय से कुशील से मलिन होते हैं और वह मोह का उदय स्त्री-पुरुषों में समान रूप से होता है।
अत: अनेक स्थानों पर जो स्त्रियों के दोषों का वर्णन किया है वह स्त्री सामान्य की दृष्टि से किया गया है। शीलवती स्त्रियों में वे दोष वैâसे हो सकते हैं?
इस प्रकार शास्त्रीय स्वाध्याय के द्वारा वास्तविकता से परिचित होकर यह जानना चाहिये कि उत्तम, संयमी पुरुष के लिए जैसे स्त्रियाँ त्याज्य होती हैं, वैसे ही सती-साध्वी स्त्रियों के लिए पुरुषों का संसर्ग सर्वथा निंद्य होता है अत: ब्राह्मी-सुन्दरी कन्याओं के उत्कृष्ट वैराग्य के प्रति कभी कुतर्वâ नहीं करना चाहिये। भगवान ऋषभदेव की वे पुत्रियाँ ब्राह्मी-सुन्दरी नाम की महाआर्यिकाएँ भी जगत का मंगल करें यही भावना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-४६

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! महापुराण में भगवान ऋषभदेव के पुत्र-पुत्रियों की विद्या निपुणता का प्रकरण आपने जाना है। पुन: भगवान के उस युग में धरती पर क्या परिवर्तन हुआ उस सम्बन्ध में श्री जिनसेनाचार्य कहते हैं कि-इसी बीच में काल के प्रभाव से महौषधि, दीप्तौषधि, कल्पवृक्ष तथा सब प्रकार की औषधियाँ शक्तिहीन हो गयी थीं। मनुष्यों के निर्वाह के लिए जो बिना बोये हुए उत्पन्न होने वाले धान्य थे वे भी काल के प्रभाव से पृथ्वी में प्राय: करके विरलता को प्राप्त हो गये थे-जहाँ कहीं कुछ-कुछ मात्रा में ही रह गये थे। जब कल्पवृक्ष रस, वीर्य और विपाक आदि से रहित हो गये तब वहाँ की प्रजा रोग आदि अनेक बाधाओं से व्याकुलता को प्राप्त होने लगी।
कल्पवृक्षों के रस, वीर्य आदि के नष्ट होने से व्याकुल मनोवृत्ति को धारण करती हुई प्रजा जीवित रहने की इच्छा से महाराज नाभिराज के समीप गयी। पुन: नाभिराज की आज्ञा से प्रजा भगवान ऋषभनाथ के समीप गयी और अपने जीवित रहने के उपाय प्राप्त करने की इच्छा से उन्हें मस्तक झुकाकर नमस्कार करने लगी।
पुन: अन्नादि के नष्ट होने से जिनके हृदय में अनेक प्रकार के भय उत्पन्न हो रहे हैं और जो सबको शरण देने वाले भगवान की शरण को प्राप्त हुई है ऐसी प्रजा सनातन भगवान के समीप जाकर इस प्रकार निवेदन करने लगी कि-‘‘हे देव! हम लोग जीविका प्राप्त करने की इच्छा से आपकी शरण में आये हुए हैं इसलिये हे तीन लोक के स्वामी, आप उसके उपाय दिखलाकर हम लोगों की रक्षा कीजिये। हे विभो! जो कल्पवृक्ष हमारे पिता के समान थे-पिता के समान ही हम लोगों की रक्षा करते थे, वे सब मूलसहित नष्ट हो गये हैं और जो धान्य बिना बोये ही उत्पन्न होते थे वे भी अब नहीं फलते हैं। हे देव! बढ़ती हुई भूख, प्यास आदि की बाधाएँ हम लोगों को दु:खी कर रही हैं। अन्न-पानी से रहित हुए हम लोग अब एक क्षण भी जीवित रहने के लिए समर्थ नहीं हैं। हे देव! शीत, आतप, महावायु और वर्षा आदि का उपद्रव आश्रयरहित हम लोगों को दुखी कर रहा है। इसलिये आप इन सबको दूर करने के उपाय कहिये। हे विभो! आप इस युग के आदिकर्ता हैं और कल्पवृक्ष के समान महान् हैं। आपके आश्रित हुए हम लोग भय को प्राप्त वैâसे हो सकते हैं? इसलिये हे देव! जिस प्रकार हम लोगों की आजीविका का पालन हो सके, आप उसी प्रकार उपदेश देने का प्रयत्न कीजिये और हम लोगों पर प्रसन्न होइये।
अपनी प्रजा के मुख से इस प्रकार की बातें सुनकर भगवान एकदम करुणा से समन्वित हो गये और उन्होंने प्रजा को सांत्वना देकर बिठाया। पुन: अपने अवधिज्ञान से उन्होंने विदेह क्षेत्र की व्यवस्था जानी और वैसी ही व्यवस्था भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में स्थापित करने हेतु जनता को असि-मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन षट्-क्रियाओं के द्वारा जीवन जीने की कला बताई और कहा कि-‘‘अब इस धरती से भोगभूमि समाप्त हो रही है और कर्मभूमि का प्रवेश हो रहा है अत: तुम लोग भयभीत मत होवो। अब कल्पवृक्षों की जगह वृक्ष तुम्हारी आजीविका का साधन बनेंगे।’’
भगवान ने तुरन्त इन्द्र का स्मरण किया। अत: उस सौधर्म ने प्रगट होकर भगवान की आज्ञा से शुभ दिन, श्ुाभ नक्षत्र में सर्वप्रथम अयोध्या के बीचोंबीच में मन्दिर बनाया और चारों दिशाओं में मन्दिर बनाकर मांगलिक कार्य किया। देखो! आज भी जो बिल्डर्स कहीं कोई कॉलोनी आदि बनाते हैं तो मैं उन्हें भी उस कॉलोनी में सर्वप्रथम मन्दिर या चैत्यालय बनाने की प्रेरणा देती हूँ। इससे उस कॉलोनी में रहने वाले सभी परिवार संस्कारवान, धार्मिक बनेंगे। जिनमन्दिर बनाने की परम्परा अनादि है। दिल्ली आदि महानगरों में प्राय: जितनी कॉलोनी हैं वहाँ सब जगह मन्दिर बन गये हैं इसीलिये वहाँ भी धर्म-परम्परा की अविच्छिन्नता रहती है।
इन्द्र ने अयोध्या में मन्दिर बनाकर पुन: ऋषभदेव की आज्ञा से सम्पूर्ण प्रजा के लिए हितकारी कार्य करके कर्मभूमि के प्रारम्भ में अपना महान योगदान दिया।
ऐसे भगवान ऋषभदेव की प्रत्येक पुण्यकथा जगत् का मंगल करे यही भावना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-४७

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

भव्यात्माओ! महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण ग्रन्थ में भगवान ऋषभदेव द्वारा स्थापित कर्मभूमि का प्रकरण चल रहा है। ऋषभदेव की आज्ञा से इन्द्र ने अयोध्या में आकर सर्वप्रथम जिनमंदिरों की रचना की पुन: उसने कौशल, कुरुजांगल आदि ५२ देशों की रचना करके उनमें नगर आदि की व्यवस्था की थी। श्री जिनसेनाचार्य ने कहा है—
इन्द्रों ने उन देशों में से कितने ही देश यथासम्भव रूप से अदेवमातृक अर्थात् नदी-नहरों आदि से सींचे जाने वाले, कितने ही देश देवमातृक अर्थात् वर्षा के जल से सींचे जाने वाले और कितने ही देश साधारण अर्थात् दोनों से सींचे जाने वाले निर्मित किये थे। जो पहले नहीं थे, न वीर ही प्रकट हुए थे ऐसे देशों से वह पृथ्वीतल ऐसा सुशोभित होता था मानो कौतुकवश स्वर्ग के टुकड़े ही आये हों। विजयार्ध पर्वत के समीप से लेकर समुद्र पर्यन्त कितने ही देश साधारण थे, कितने ही बहुत जल वाले थे और कितने ही जल की दुर्लभता से रहित थे। उन देशों से व्याप्त हुई पृथ्वी बहुत सुन्दर लगती थी।
जिस प्रकार स्वर्ग के धामों—स्थानों की सीमाओं पर लोकपाल देवों के स्थान होते हैं उसी प्रकार उन देशों की अन्त सीमाओं पर भी सब ओर अन्तपाल अर्थात् सीमारक्षक पुरुषों के किले बने हुए थे। उन देशों के मध्य में और भी अनेक देश थे जो लुब्धक, आरण्य, चरट, पुलिन्द तथा शबर आदि म्लेच्छ जाति के लोगों के द्वारा रक्षित रहते थे। उन देशों के मध्य भाग में कोट, प्राकार, परिखा, गोपुर और अटारी आदि से शोभायमान राजधानी सुशोभित हो रही थी। जिनका दूसरा नाम स्थानीय है ऐसे राजधानीरूपी किले को घेरकर सब ओर शास्त्रोक्त लक्षण वाले गाँवों आदि की रचना हुई थी। अब आपको जानना है कि ग्राम आदि के शास्त्रीय लक्षण क्या हैं? जिनमें बाड़ से घिरे हुए घर हों, जिनमें अधिकतर शूद्र और किसान लोग रहते हों तथा जो बगीचा और तालाबों से सहित हों, उन्हें ‘ग्राम’ कहते हैं। जिनमें सौ घर हों उसे ‘निकृष्ट’ अर्थात् ‘छोटा गाँव’ कहते हैं तथा जिसमें पाँच सौ घर हों और जिसके किसान धन-सम्पन्न हों उसे ‘बड़ा गाँव’ कहते हैं। छोटे गाँवों की सीमा एक कोस की और बड़े गाँवों की सीमा दो कोस की होती है। इन गाँवों के धान के खेत सदा सम्पन्न रहते हैं ओर इनमें घास तथा जल भी अधिक रहता है।
इस प्रकार से कर्मभूमि की व्यवस्था बनाकर भगवान ने प्रज्ञा को सन्तुष्ट किया और प्रजा को असि-मषि आदि क्रियाएँ बताकर जीने की कला सिखाई। आदिपुराण में कहा है—

असिर्मषि: कृषिर्विद्यां वाणिज्यं शिल्पमेव च।
कर्माणीमानि षोढा स्यु: प्रजाजीवनहेतव:।।१७९।।
तत्रासिकर्म सेवायां मषिलिपिविधौ स्मृता।
कृषिर्भूकर्षणे प्रोक्ता विद्या शास्त्रोपजीवने।।१८०।।

अर्थात् असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छह कार्य प्रजा की आजीविका के कारण हैं। भगवान ऋषभदेव ने अपनी बुद्धि की कुशलता से प्रजा के लिये इन्हीं छह कर्मों द्वारा वृत्ति (आजीविका) करने का उपदेश दिया था, क्योंकि उस समय जगद्गुरु भगवान सरागी ही थे वीतरागी नहीं थे। सांसारिक कार्यों का उपदेश सराग अवस्था में दिया जा सकता है।
देखो! श्रीजिनसेनाचार्य ने राज्यावस्था में भी तीर्थंकर ऋषभदेव के लिये भगवान शब्द का प्रयोग किया है और यह भी कहा है कि उस समय वे भगवान सरागी थे। उन छह कर्मों से तलवार आदि शस्त्र धारण कर सेवा करना असिकर्म कहलाता है। लिखकर आजीविका करना मषिकर्म कहलाता है। जमीन को जोतना-बोना कृषिकर्म कहलाता है। शास्त्र अर्थात् पढ़ाकर या नृत्य-गायन आदि के द्वारा आजीविका करना विद्याकर्म कहलाता है। व्यापार करना वाणिज्य है और हस्त की कुशलता से जीविका करना शिल्पकर्म है वह शिल्पकर्म चित्र खींचना, पूâल-पत्ते काटना आदि की अपेक्षा अनेक प्रकार का माना गया है। उसी समय आदिब्रह्मा भगवान ऋषभदेव ने तीन वर्णों की स्थापना की थी जो कि क्षतत्राण अर्थात् विपत्ति से रक्षा करना आदि गुणों के द्वारा क्रम से क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र कहलाते थे।
यहाँ यह जानना है कि भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरतजी ने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की थी। उस समय प्रजा अपने-अपने योग्य कर्मों को यथायोग्यरूप से करती थी। अपने वर्ण की निश्चित आजीविका को छोड़कर कोई दूसरी आजीविका नहीं करता था इसलिये उनके कार्यों में कभी शंकर (मिलावट) नहीं होता था। उनके विवाह, जाति-सम्बन्ध तथा व्यवहार आदि सभी कार्य भगवान आदिनाथ की आज्ञानुसार ही होते थे। उस समय संसार में जितने पापरहित आजीविका के उपाय थे वे सब भगवान ऋषभदेव की सम्मति में प्रवृत्त हुए थे क्योंकि सनातन ब्रह्मा भगवान ऋषभेदव ही हैं। चूँकि युग के आदिब्रह्मा भगवान ऋषभदेव ने इस प्रकार कर्मयुग का प्रारम्भ किया था इसलिये पुराण के जानने वाले उन्हें कृतयुग नाम से जानते हैं। कृतकृत्य भगवान ऋषभदेव श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन कृतयुग का प्रारम्भ करके प्राजापत्य (प्रजापतिपने) को प्राप्त हुये थे अर्थात् प्रजापति कहलाने लगे थे।
अर्थात् वास्तविक प्रजापति और ब्रह्मा आदि नाम तो भगवान ऋषभदेव में ही सार्थक होते हैं। जैनधर्म के अनुसार सृष्टि की व्यवस्था अनादि है इसे न तो कोई बनाता है, न नष्ट करता है। भगवान ने भी विदेह क्षेत्र की व्यवस्था जानकर यहाँ भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में व्यवस्था मात्र बताई थी, बनाई नहीं थी।
ऐसे भगवान का पुण्य चरित्र हम सबके लिये मंगलकारी होवे यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-४८

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण ग्रन्थ के अनुसार भगवान ऋषभदेव का पुण्य चरित्र आपको बताया जा रहा है। भगवान ने जब कर्मभूमि की सम्पूर्ण व्यवस्था बनाकर कृतयुग का प्रारम्भीकरण कर दिया। तब प्रजा ने प्रसन्नतापूर्वक जीवनयापन शुरू कर दिया था। पुन: एक दिन इन्द्र ने स्वर्ग से आकर भगवान का सम्राट् पट्ट पर राज्याभिषेक करने का विचार बनाया। श्रीजिनसेनाचार्य ने भगवान के राज्याभिषेक का बड़ा सुन्दर वर्णन करते हुए लिखा है—
राज्याभिषेक के लिए पृथ्वी के मध्य भाग में जहाँ मिट्टी की वेदी बनायी गयी थी और उस वेदी पर जहाँ देव-कारीगरों ने बहुमूल्य-श्रेष्ठ आनन्द मण्डप बनाया था, जो रत्नों के चूर्णसमूह से बनी हुई रंगावली से चित्रित हो रहा था, जो नवीन खिले हुए बिखेरे गये पुष्पों के समूह से सुशोभित हो रहा था, वहाँ मणियों से जड़ी हुई जमीन में ऊपर लटकते हुए मोतियों का प्रतिबिम्ब पड़ रहा था। जहाँ रेशमी वस्त्र के शोभायमान चँदोवा की छाया से रंगभूमि चित्रित हो रही थी, जहाँ मंगल द्रव्यों को धारण करने वाली देवांगनाओं से आने-जाने का मार्ग रुक गया था, जहाँ समीप में बड़े-बड़े मंगलद्रव्य रखे हुए थे, जहाँ देवों की अप्सराएँ अपने हाथों से चमर ढोल रही थीं। जहाँ स्नान की सामग्री को लोग परस्पर एक-दूसरे के हाथों में दे रहे थे, जहाँ लीलापूर्वक पैर रखकर इधर-उधर चलती हुई देवांगनाओं के रुनझुन शब्द करते हुए नुपुरों की झनकार से दशों दिशाएँ शब्दायमान हो रही थी और जहाँ अनेक मंगलद्रव्यों का संग्रह हो रहा था ऐसे राजमहल के आँगनरूपी रंगभूमि में योग्य सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके भगवान ऋषभदेव को बैठाया और जब गन्धर्व देवों के द्वारा प्रारम्भ किए हुए संगीत के समय होने वाला मृदंग का गम्भीर शब्द समस्त दिक्तटों के साथ-साथ तीन लोकरूपी कुटी के मध्य में व्याप्त हो रहा था तथा नृत्य करती हुई देवांगनाओं के पढ़े जाने वाले संगीत के स्वर में स्वर मिलाकर किन्नर जाति की देवियाँ सुन्दर शब्दों द्वारा भगवान का यश गा रही थीं। उस समय देवों ने तीर्थोदक से भरे हुए सुवर्ण के कलशों से भगवान ऋषभदेव का अभिषेक करना प्रारम्भ किया।
भगवान के राज्याभिषेक के लिये गंगा और सिन्धु—इन दोनों महानदियों का वह जल लाया गया था जो हिमवत्पर्वत की शिखर से धारा रूप में नीचे गिर रहा था तथा जिसने पृथ्वीतल को छुआ तक भी नहीं था। अर्थात् ्नाीचे गिरने से पहले जो बर्तनों में भर लिया गया था। इसके सिवाय गंगाकुण्ड से गंगा नदी का स्वच्छ जल लाया गया था और सिन्धुकुण्ड से सिन्धु नदी का निर्मल जल लाया गया था। इसी प्रकार ऊपर से पड़ती हुई अन्य नदियों का स्वच्छ जल भी उनके गिरने के कुण्डों से लाया गया था। श्री ह्री आदि देवियाँ भी पद्म आदि सरोवरों का जल लायी थीं जो कि सुवर्णमय कमलों की केसर के समूह से पीतवर्ण हो रहा था। सायंकाल के समय खिलने वाले सुगन्धित कमलों की सुगन्ध से मधुर, अतिशय मनोहर और नील कमलों सहित सरोवरों का जल लाया गया था। जो बाहर प्रकट हुए मोतियों के समूह से अत्यन्त श्रेष्ठ है ऐसा लवणसमुद्र का जल लाया गया था। नन्दीश्वर द्वीप में जो अत्यन्त स्वच्छ जल से भरी हुई नन्दोत्तरा आदि वापिकाएँ हैं उनका भी स्वच्छ जल लाया गया था। इसके सिवाय क्षीरसमुद्र, नन्दीश्वर समुद्र तथा स्वयम्भूरमण समुद्र का जल सुवर्ण के बने हुए दिव्य कलशों में भरकर लाया गया था।
इस प्रकार ऊपर कहे हुए प्रसिद्ध जल से जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव का अभिषेक किया गया था। चूँकि भगवान का शरीर स्वयं ही पवित्र था अत: अभिषेक से वह क्या पवित्र होता ? केवल भगवान के मस्तक पर देवों के द्वारा छोड़ी हुई जल की धारा ऐसी शोभायमान हो रही थी मानो उस मस्तक को राज्यलक्ष्मी का आश्रय समझकर ही छोड़ी गयी हो। चर और अचर पदार्थों के गुरु भगवान ऋषभदेव के मस्तक पर पड़ती हुई जल की छटाएँ ऐसी शोभायमान होती थीं मानो संसार का संताप नष्ट करने वाली और निर्मल गुणों की सम्पदाएँ ही हों। यद्यपि भगवान का शरीर स्वभाव से ही पवित्र था तथापि इन्द्र ने गंगा नदी के जल से उसका अभिषेक किया था इसलिये उसकी पवित्रता और अधिक हो गयी थी। उस समय इन्द्रों ने केवल भगवान के अंगों का ही प्रक्षालन नहीं किया था, किन्तु देखने वाले पुरुषों की मनोवृत्ति, नेत्र और शरीर का भी प्रक्षालन किया था। अर्थात् भगवान का राज्याभिषेक देखने में मनुष्यों के मन, नेत्र तथा समस्त शरीर पवित्र हो गये थे।
उस समय के आनन्द का वर्णन वास्तव में अत्यन्त महिमापूर्ण था, क्योंकि जहाँ स्वयं जगद्गुरु का राज्याभिषेक इन्द्रों के द्वारा हो रहा हो तो वहाँ के उत्सव को शब्दों में कौन कह सकता है।
भव्यात्माओं! जब आज किसी देश के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री आदि का शपथ समारोह आदि होता है तो ही कितना वैभव प्रदर्शित किया जाता है तो भगवान के राज्याभिषेक के समय का वर्णन तो कोई भी जिव्हा कर ही नहीं सकती है।
्नााभिराज को आदि लेकर जो बड़े-बड़े राजा थे उन सभी ने ‘सब राजाओं में श्रेष्ठ यह ऋषभदेव वास्तव में राजा के योग्य हैं’ ऐसा मानकर उनका एक साथ अभिषेक किया था। अयोध्या नगर के निवासी लोगों ने भी किसी ने कमल पत्र के बने हुए दोने से और किसी ने मिट्टी के घड़े से सरयू नदी का जल लेकर भगवान के चरणों का अभिषेक किया था। मागध आदि व्यन्तर देवों ने इन्द्रों ने भी तीन ज्ञान को धारण करने वाले भगवान ऋषभदेव की ‘यह हमारे देश के स्वामी हैं’ ऐसा मानकर प्रीतिपूर्वक पवित्र अभिषेक के द्वारा पूजा की थी।
देखो! आज करोड़ों-करोड़ों वर्ष बीत जाने के बाद भी अयोध्या नगरी में सरयू नदी बह रही है। मैं जब-जब भी अयोध्या में उस सरयू नदी के तट पर स्थित भगवान अनंतनाथ की टोंक का दर्शन करने गई तब-तब वहाँ बैठकर भगवान ऋषभदेव के युग का स्मरण कर अतीव आल्हाद का अनुभव किया।
आदिपुराण में कहा है कि राज्याभिषेक के बाद भगवान राजा को दिव्य वस्त्रालंकारों से सुसज्जित किया गया। उस समय भगवान मालायें पहने हुए थे। उत्तम वस्त्र धारण किये हुए थे। उनके दोनों कानों में कुण्डल शोभित हो रहे थे। वे मस्तक पर लक्ष्मी के क्रीड़ाचल के समान मुकुट धारण किये हुये थे। कण्ठ में हारलता और कमर में करधनी पहने हुये थे। जिस प्रकार हिमवान पर्वत गंगा का प्रवाह धारण करता है उसी प्रकार वे भी अपने कन्धे पर यज्ञोपवीत धारण किये थे। उनकी दोनों लम्बी भुजाएँ कड़े, बाजूबन्द और अनन्त आदि आभूषणों से विभूषित थीं। उन भुजाओं से भगवान ऐसे मालूम होते थे मानो शोभायमान बड़ी-बड़ी शाखाओं से सहित चलता-फिरता कल्पवृक्ष ही हों। उनके चरण नीलमणि के बने हुए नूपुरों से सहित थे इसलिये ऐसे जान पड़ते थे मानो जिनपर भ्रमर बैठे हुये हैं ऐसे खिले हुये दो लाल कमल ही हों। इस प्रकार प्रत्येक अंग में पहने हुए आभूषणरूपी सम्पदा से आदि ब्रह्मा भगवान ऋषभदेव ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष ही हों। उस समय सौधर्म इन्द्र ने अपने राजा के समक्ष आनन्द नाम का दिव्य नाटक प्रस्तुत कर अत्यन्त सुन्दर ताण्डव नृत्य किया था।
यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि यज्ञोपवीत धारण करना श्रावक का प्रमुख चिन्ह कहलाता है। जो लोग आज इसे नहीं मानते हैं या यज्ञोपवीत को ब्राह्मणों का सूत्र कहकर उसे नहीं पहनते हैं उनके लिये भगवान ऋषभदेव का साक्षात् उदाहरण है। उसे धारण करके आप सभी अपने श्रावक कत्र्तव्यों का पालन करें तथा भगवान का राज्य पुन: इस देश में स्थापित हो, प्रजा में सुख-क्षेम हो यही प्रार्थना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-४९

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भगवान ऋषभदेव के राज्याभिषेक का प्रकरण चल रहा है। आपको ध्यान रखना है कि ऋषभदेव इस कृतयुग के प्रथम राजा और तीर्थंकर भगवान थे। उन्होंने प्रजा को आजीविका की कला सिखाकर सामाजिक वर्ण-व्यवस्था भी बनाई थी। आदिपुराण में वर्णन आया है कि—

स्वामिमां वृत्तिमुत्क्रम्य यस्त्वन्यां वृत्तिमाचरेत्।
स पार्थिवैर्नियन्तव्यो वर्णसंकीर्णिरन्यथा।।
कृष्यादिकर्मषट्वंâ च स्रष्टा प्रागेव सृष्टवान्।
कर्मभूमिरियं तस्मात् तदासीत्तद्व्यवस्थया।।

अर्थात् उस समय भगवान ने यह भी नियम प्रचलित किया था कि जो कोई अपने वर्ण की निश्चित आजीविका को छोड़कर दूसरे वर्ण की आजीविका करेगा वह राजा के द्वारा दण्डित किया जायेगा, क्योंकि ऐसा न करने से वर्ण संकीर्णता हो जायेगी अर्थात् सब वर्ण एक हो जायेंगे—उनका विभाग नहीं हो सकेगा। भगवान आदिनाथ ने विवाह आदि की व्यवस्था करने के पहले ही असि, मषि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य इन छह कर्मों की व्यवस्था कर दी थी। इसलिये उक्त छह कर्मों की व्यवस्था होने से यह कर्मभूमि कहलाने लगी थी।
उन्होंने उस समय सृष्टा बनकर प्रजा के लिये दण्ड-व्यवस्था भी बनाई। इस प्रकार ब्रह्मा-आदिनाथ ने प्रजा का विभाग कर उनके योग्य नवीन वस्तु की प्राप्ति और क्षेम अर्थात् प्राप्त हुई वस्तु की रक्षा की व्यवस्था के लिये युक्तिपूर्वक हा, मा और धिक् इन तीन दण्डों की व्यवस्था की थी। दुष्ट पुरुषों का निग्रह करना अर्थात् उन्हें दण्ड देना और सज्जन पुरुषों का पालन करना यह क्रम कर्मभूमि से पहले अर्थात् भोगभूमि में नहीं था, क्योंकि उस समय पुरुष निरपराध होते थे अर्थात् किसी प्रकार का अपराध नहीं करते थे। कर्मभूमि में दण्ड देने वाले राजा का अभाव होने पर प्रजा मात्स्यन्यायका आश्रय करने लगेगी अर्थात् जिस प्रकार बलवान मच्छ छोटे मच्छों को खा जाते हैं उसी प्रकार दुष्ट बलवान पुरुष, निर्बल पुरुष को निगल जायेगा। भगवान ने राजाओं को प्रजा के साथ उचित न्याय करने हेतु न्यायनीति का उपदेश दिया। उन्होंने कहा—
जिस प्रकार दूध देने वाली गाय से उसे बिना किसी प्रकार की पीड़ा पहुँचाये दूध दुहा जाता है और ऐसा करने से वह गाय भी सुखी रहती है तथा दूध दुहने वाले की आजीविका भी चलती रहती है उसी प्रकार राजा को भी प्रजा से धन वसूल करना चाहिये। वह धन अधिक पीड़ा न देने वाले करों से वसूल किया जा सकता है। ऐसा करने से प्रजा भी दु:खी नहीं होती और राज्य व्यवस्था के लिये योग्य धन भी सरलता से मिल जाता है। इसलिये भगवान ऋषभदेव ने पुरुषों को दण्डधर—प्रजा को दण्ड देने वाला राजा बनाया है क्योंकि प्रजा के योग और क्षेम का विचार करना उन राजाओं के ही अधीन होता है। भगवान ने हरि, अकम्पन, काश्यप और सोमप्रभ इन चार महा भाग्यशाली क्षत्रियों को बुलाकर उनका यथोचित सम्मान और सत्कार किया। तदनन्तर राज्याभिषेक कर उन्हें महामाण्डलिक राजा बनाया। ये राजा चार हजार अन्य छोटे-छोटे राजाओं के अधिपति थे।
सोमप्रभ, भगवान से कुरुराज नाम पाकर कुरुदेश के राजा हुए और कुरुवंश के शिखामणि कहलाये। हरि, भगवान की आज्ञा से हरिकान्त नाम को धारण करते हुए हरिवंश को अलंकृत करने लगे क्योंकि वह श्रीमान् हरिपराक्रम अर्थात् इन्द्र अथवा सिंह के समान पराक्रमी थे। अकम्पन भी भगवान से श्रीधर नाम पाकर उनकी प्रसन्नता से नाथवंश के नायक हुए और काश्यप भी जगद्गुरु भगवान से मघवा नाम प्राप्त कर उग्रवंश के मुख्य राजा हुए। पुन: भगवान आदिनाथ ने कच्छ-महाकच्छ आदि प्रमुख-प्रमुख राजाओं का सत्कार कर उन्हें अधिराज के पद पर स्थापित किया।
भव्यात्माओं! उस समय मुख्यरूप से चार राजा बनाये गये। उनके निमित्त से चार प्रकार के वंश चले थे। राजाओं को प्रजा से आय का छठा भाग ‘कर’ लेना चाहिये यह बात जैन ग्रन्थों में नीतिवाक्यामृत आदि में वर्णित है। भगवान ऋषभदेव ने अपने पुत्रों के लिये भी अपनी सम्पत्ति आदि का विभाजन कर दिया था।
उस समय भगवान ने मनुष्यों को इक्षुका रस संग्रह करने का उपदेश दिया था इसलिये जगत् के लोग उन्हें इक्ष्वाकु कहने लगे। ‘गो’ शब्द का अर्थ स्वर्ग है जो उत्तम स्वर्ग हो उसे सज्जन पुरुष ‘गोतम’ कहते हैं। भगवान ऋषभदेव स्वर्गों में सबसे उत्तम सर्वार्थसिद्धि से आये थे इसलिये वे ‘गौतम’ इस नाम को भी प्राप्त हुए थे। ‘काश्य’ तेज को कहते हैं, भगवान ऋषभदेव उस तेज के रक्षक थे इसलिये ‘काश्यप’ कहलाते थे। उन्होंने प्रजा की आजीविका के उपायों का भी मनन किया था इसलिये वे ‘मनु’ और ‘कुलधर’ भी कहलाते थे। इनके सिवाय तीनों जगत के स्वामी और विनाशरहित भगवान को प्रजा ‘विधाता’ ‘विश्वकर्मा’ और ‘स्रष्टा’ आदि अनेक नामों से पुकारती थी।
इस प्रकार राज्य सुख का उपभोग करते हुए ऋषभदेव का तिरेसठ लाख वर्ष पूर्व का समय व्यतीत हो गया। आदिपुराण में बड़ा सुन्दर वर्णन आया है कि राज्य आदि सम्पदा भी पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त होती है। इस संसार में पुण्य से ही सुख प्राप्त होता है। जिस प्रकार बीज के बिना अंकुर उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार पुण्य के बिना सुख नहीं होता। दान देना, इन्द्रियों को वश में करना, संयम धारण करना, सत्य भाषण करना, लोभ का त्याग करना और क्षमाभाव धारण करना आदि शुभ चेष्टाओं से अभिलषित पुण्य की प्राप्ति होती है। सुर, असुर, मनुष्य और नागेन्द्र आदि के उत्तम-उत्तम भोग, लक्ष्मी, दीर्घ आयु, अनुपम रूप, समृद्धि, उत्तम वाणी, चक्रवर्ती का साम्राज्य, इन्द्रपद, जिसे पाकर फिर संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता ऐसा अरहन्त पद और अन्तरहित समस्त सुख देने वाला श्रेष्ठ निर्वाण पद इन सभी की प्राप्ति एकमात्र पुण्य से ही होती है।
इसलिये यदि स्वर्ग और मोक्ष के अचिन्त्य महिमा वाले श्रेष्ठ सुख प्राप्त करना चाहते हो तो धर्म करो क्योंकि वह धर्म ही स्वर्गों के भोग और मोक्ष के अविनाशी अनन्त सुख की प्राप्ति कराता है। वास्तव में सुख प्राप्ति होना धर्म का ही फल है। यदि तुम सुख प्राप्त करना चाहते हो तो हर्षित होकर श्रेष्ठ मुनियों के लिये दान दो, तीर्थंकरों को नमस्कार कर उनकी पूजा करो, शीलव्रतों का पालन करो और पर्व के दिनों में उपवास करना नहीं भूलो। इस प्रकार जो प्रशस्त लक्ष्मी के स्वामी थे, स्थिर रहने वाले भोगों का अनुभव करते थे, स्नेह रखने वाले अपने पुत्र-पौत्रों के साथ सन्तोष धारण करते थे। इन्द्र, सूर्य और चन्द्रमा आदि उत्तम-उत्तम देव जिनकी आज्ञा धारण करते थे और जिन पर किसी की आज्ञा नहीं चलती थी ऐसे भगवान ऋषभदेव सिंहासन पर आरुढ़ होकर इस पृथ्वी का शासन करते थे।
ऐसे भगवान जगत् का मंगल करें यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-५०

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

भव्यात्माओं! इस धरती पर प्रजापालक भगवान ऋषभदेव का पुण्य कथानक आप सबके पापों का उपशामक है इसलिये अन्तर्हृदय से उसे ग्रहण करना चाहिये। महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण ग्रन्थ में ऋषभदेव के निष्वंâटक राज्य का वर्णन आया है कि वे निर्विघ्न राज्य संचालन करते हुए एक दिन राजसिंहासन पर विराजमान थे कि तभी इन्द्र ने उस सभा में नीलांजना नाम की देवांगना अप्सरा को नृत्य के लिये प्रस्तुत किया।
वह अत्यन्त सुन्दरी नीलांजना नाम की देव-नर्तकी रस, भाव और लय सहित फिरकी लगाती हुई नृत्य कर रही थी कि इतने में ही आयुरूपी दीपक के क्षय होने से वह क्षणभर में अदृश्य हो गयी। जिस प्रकार बिजलीरूपी लता देखते-देखते क्षणभर में नष्ट हो जाती है उसी प्रकार प्रभा से चंचल और बिजली के समान उज्ज्वल मूर्ति को धारण करने वाली वह देवी देखते-देखते ही क्षणभर में नष्ट हो गयी थी। उसके नष्ट होते ही इन्द्र ने रसभंग के भय से उस स्थान पर उसी के समान शरीरवाली दूसरी देवी खड़ी कर दी जिससे नृत्य ज्यों-का-त्यों चलता रहा। यद्यपि दूसरी देवी खड़ी कर देने के बाद भी वही मनोहर स्थान था, वही मनोहर भूमि थी और वही नृत्य का परिक्रम था तथापि भगवान ऋषभदेव ने अवधिज्ञान से उसी समय उसके स्वरूप का अन्तर जान लिया था।
तदनन्तर भोगों से विरक्त और अत्यन्त संवेग तथा वैराग्य भावना को प्राप्त हुये भगवान के चित्त में इस प्रकार चिन्ता उत्पन्न हुई कि यह जगत विनश्वर है, लक्ष्मी बिजलीरूपी लता के समान चंचल है, यौवन, शरीर, आरोग्य और ऐश्वर्य आदि सभी चलाचल हैं। रूप, यौवन और सौभाग्य के मद से उन्मत्त हुआ अज्ञानी पुरुष इन सबमें स्थिर बुद्धि करता है परन्तु उसमें कौन-सी वस्तु विनश्वर नहीं है ? अर्थात् सभी वस्तुएँ विनश्वर हैं। यह रूप की शोभा सन्ध्याकाल की लाली के समान क्षणभर में नष्ट हो जाती है और उज्ज्वल तारुण्य अवस्था पल्लव की कांति के समान शीघ्र ही म्लान हो जाती है। वन में पैदा हुई लताओं के पुष्पों के समान यह यौवन शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाला है, भोग सम्पदाएँ विष-बेल के समान हैं और जीवन विनश्वर है। यह आयु की स्थिति घटीयन्त्र के जल की धारा के समान शीघ्रता के साथ गलती जा रही है अर्थात् कम होती जा रही है और यह शरीर अत्यन्त दुर्गन्धित तथा घृणा उत्पन्न करने वाला है। यह निश्चय है कि इस अपार संसार में सुख का लेशमात्र भी दुर्लभ है और दु:ख बड़ा भारी है फिर भी आश्चर्य है कि मन्दबुद्धि पुरुष उसमें सुख की इच्छा करते हैं।
यहाँ यह भी ध्यान देना है कि भगवान की राजसभा में कभी कोई अश्लील नृत्य-गान नहीं होता था, प्रत्युत् वहाँ तो भगवान की ही भक्ति के नृत्य-गान होते थे। महामना तीर्थंकर जैसे महापुरुष के लिये तो छोटा-सा निमित्त ही पर्याप्त था। वे तो मात्र नियोग के वशीभूत होकर संसार के भोगों को भोग रहे थे। वास्तव में तो उनके जीवन का एक-एक क्षण भी लोकोपकार के लिये ही व्यतीत हो रहा था। उन्होंने उस लघु निमित्त को प्राप्त करके चारों गतियों के दु:खों का व्यापक िंचतवन किया और निर्णय कर लिया कि अब मुझे संसार-शरीर-भोगों का त्याग करके जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करना है।
सौधर्म इन्द्र ने भगवान के सम्पूर्ण िंचतवन को अपने अवधिज्ञान से जान लिया कि भगवान अब सबकुछ छोड़ने वाले हैं। उसी समय भगवान के तपकल्याणक की प्रशंसा करने के लिये लौकान्तिक देव ब्रह्मलोक से उतरे। वे लौकान्तिक देव सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट इस तरह आठ प्रकार के होते हैं। वे सभी देवों में उत्तम होते हैं। वे पूर्वभव में सम्पूर्ण श्रुतज्ञान का अभ्यास करते हैंं। उनकी भावनायें शुद्ध रहती हैं। वे ब्रह्मलोक अर्थात् पाँचवें स्वर्ग में रहते हैं, सदा शान्त रहते हैं, उनकी लेश्याएँ शुभ होती हैं, वे बड़ी-बड़ी ऋद्धियों को धारण करने वाले होते हैं और ब्रह्मलोक के अन्त में निवास करने के कारण लौकान्तिक इस नाम को प्राप्त हुए हैं। वे लौकान्तिक देव स्वर्ग के हंसों के समान जान पड़ते थे, क्योंकि वे मुक्तिरूपी नदी के तट पर निवास करने के लिये उत्कण्ठित हो रहे थे और भगवान के दीक्षा-कल्याणकरूपी शरद् ऋतु के आगमन की सूचना दे रहे थे। उन लौकान्तिक देवों ने आकर जो पुष्पांजलि छोड़ी थी वह ऐसी मालूम होती थी मानोंं उन्होंने भगवान के चरणों की उपासना करने के लिए अपने चित्त के अंश ही समर्पित किये हों। उन देवों ने पहले कल्पवृक्ष के पूâलों से भगवान के चरणों की पूजा की और फिर अर्थ से भरे हुए स्तोत्रों से भगवान की स्तुति करना प्रारम्भ किया। हे भगवन्! इस समय जो आपने मोहरूपी शत्रु को जीतने के उद्योग की इच्छा की है, उससे स्पष्ट सिद्ध है कि आपने भव्यजीवों के साथ भाईपने का कार्य करने का विचार किया है अर्थात् भाई की तरह भव्य जीवों की सहायता करने का विचार किया है। हे देव! आप ही अज्ञानरूपी प्रपात से संसार का उद्धार करेंगे।
महानुभावों! कुछ लोग कहते हैं कि लोकांतिक देव तीर्थंकर भगवान को संबोधित करने आते हैं। किन्तु ऐसा नहीं है, अरे! भगवान तो स्वयंबुद्ध होते हैं उन्हें संबोधन कौन दे सकता है। लोकांतिक देव तो मात्र उनके वैराग्य की अनुशंसा करने आते हैं। आदिपुराण में भी कहा है—

स्वयं प्रबुद्धसन्मार्गस्त्वं न बोध्योऽस्मदादिभि:।
किन्त्वस्माको नियोगोऽयं मुखरीकुरुतेऽद्य न:।।
जगत्प्रबोधनोद्योगे न त्वमन्यैर्नियुज्यसे।
भुवनोद्योतने किन्नु केनाप्युत्थाप्यतेंऽशुमान्।।

हे देव! आपने सन्मार्ग का स्वरूप स्वयं जान लिया है इसलिये हमारे जैसे देवों के द्वारा आप प्रबोध कराने के योग्य नहीं हैं तथापि हम लोगों का यह नियोग ही आज हम लोगों को विचलित कर रहा है। हे नाथ! समस्त जगत को प्रबोध कराने का उद्योग करने के लिये आपको कोई अन्य प्रेरणा नहीं कर सकता क्योंकि समस्त जगत को प्रकाशित करने के लिए क्या सूर्य को कोई अन्य उकसाता है ? अर्थात् नहीं। जिस प्रकार सूर्य समस्त जगत को प्रकाशित करने के लिए स्वयं तत्पर रहता है उसी प्रकार समस्त जगत को प्रबुद्ध करने के लिये आप स्वयं तत्पर रहते हैं।
भगवान ने अभी तक तो गृहस्थावस्था में रहकर प्रजा को कर्मभूमि का जीवन जीने हेतु षट्क्रियाओं का ही उपदेश दिया था, धर्म का उपदेश तो उन्होंने अपनी दीक्षा के समय ही दिया था। इस प्रकार भगवान का वैराग्यपूर्ण चरित्र संसार के लिये मंगलकारी होवे यही मंगल कामना है

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिन्

महापुराण प्रवचन-५१

(पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा)
प्रस्तुति-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण ग्रन्थ का वर्णन चल रहा है। उसमें प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के वैराग्य प्रकरण में आपने जाना है कि उन्हें नृत्य करती नीलांजना अप्सरा की मृत्यु देखकर संसार से वैराग्य हो गया था अत: वे दीक्षा लेने का उपक्रम करने लगे थे। उसी समय पांचवें ब्रह्मलोक स्वर्ग से लोकांतिक देवों ने आकर भगवान के वैराग्य की अनुशंसा की। आदिपुराण में श्रीजिनसेनाचार्य कहते हैं कि—
समस्त इन्द्र अपने वाहनों और अपने-अपने निकाय के देवों के साथ आकाशरूपी आँगन को व्याप्त करते हुए आये और अयोध्यापुरी के चारों ओर आकाश को घेरकर अपने-अपने निकाय के अनुसार ठहर गये। पुन: इन्द्रादिक देवों ने भगवान के निष्क्रमण अर्थात् तप:कल्याणक करने के लिए उनका क्षीरसागर के जल से महाभिषेक किया। अभिषेक कर चुकने के बाद देवों ने बड़े आदर के साथ दिव्य आभूषण, वस्त्र, मालाएँ और मलयागिरि चन्दन से भगवान का अलंकार किया। इसके पश्चात् भगवान ऋषभदेव ने साम्राज्य पद पर अपने बड़े पुत्र भरत का अभिषेक कर इस भारतवर्ष को उनसे सनाथ किया और युवराज पद पर बाहुबली को स्थापित किया। इस प्रकार उस समय यह पृथ्वी उन दोनों भाइयों से अधिष्ठित होने के कारण राजन्वती अर्थात् सुयोग्य राजा से सहित हुई थी।
उस समय मध्यलोक में हर्ष और विषाद दोनों तरह के क्षण उपस्थित हुए थे, क्योंकि भगवान ऋषभदेव अब प्रजा को छोड़कर वन की ओर जा रहे थे अत: सभी लोग दु:खी थे और भरतराज के राज्याभिषेक का उत्सव होने से सब ओर तोरण आदि सजाये जा रहे थे। एक ओर तो दिक्कुमारी देवियाँ मंगल द्रव्य धारण किये हुए थीं और दूसरी ओर वस्त्राभूषण पहने हुई उत्तम वारांगनाएँ मंगल द्रव्य लेकर खड़ीं थीं। एक ओर भगवान ऋषभदेव अत्यन्त सन्तुष्ट हुए श्रेष्ठ देवों से घिरे हुए थे और दूसरी ओर दोनों राजकुमार हजारों क्षत्रिय-राजाओं से घिरे हुए थे। एक ओर स्वामी ऋषभदेव ने सामने स्तुति करते हुए देवलोग पुष्पांजलि छोड़ रहे थे और दूसरी ओर पुरवासीजन दोनों राजकुमारों के सामने आशीर्वाद के शेषाक्षत पेंâक रहे थे।
इस प्रकार दोनों ही बड़े-बड़े उत्सवों में जहाँ देव और मनुष्य लगे हुए हैं ऐसा वह राजमन्दिर परम आनन्द से व्याप्त हो रहा था। उसमें सब ओर हर्ष ही हर्ष दिखाई दे रहा था। भगवान ने अपने राज्य का भार दोनों ही युवराजों को समर्पित कर दिया था इसलिये उस समय उनका दीक्षा लेने का पुरुषार्थ बिल्कुल ही निराकुल हो गया था—उन्हें राज्य सम्बन्धी किसी प्रकार की चिन्ता नहीं रही थी। मोक्ष की इच्छा करने वाले भगवान ने आकुलता से रहित होकर अपने शेष पुत्रों के लिए भी यह पृथ्वी बाँट दी थी। और उसके बाद अक्षर-अविनाशी भगवान, महाराज नाभिराज आदि परिवार के लोगों से पूछकर इन्द्र के द्वारा बनायी हुई सुन्दर सुदर्शन नामकी पालकी पर बैठ गये। बड़े आदर के साथ इन्द्र ने जिन्हें अपने हाथ का सहारा दिया था ऐसे भगवान ऋषभदेव दीक्षा लेने की प्रतिज्ञा के समान पालकी पर आरुढ़ होकर वन की ओर जाने को उद्यत हो गये।
आप जानते हैं कि दीक्षा की पालकी सर्वप्रथम मनुष्यों ने उठाई थी इसीलिये पंचकल्याणकों में आप दीक्षाकल्याणक के समय मनुष्य और देवों का थोड़ा सा संघर्ष भी देखते हैं। श्रीजिनसेन स्वामी ने कहा है—
भगवान की उस पालकी को प्रथम ही राजा लोग सात पैड़ तक ले चले और फिर विद्याधर लोग आकाश में सात पैड़ तक ले चले। तदनन्तर वैमानिक और भवनत्रिक देवों ने अत्यन्त हर्षित होकर वह पालकी अपने कन्धों पर रखी और शीघ्र ही उसे आकाश में ले गये। भगवान ऋषभदेव के माहात्म्य की प्रशंसा करना इतना ही पर्याप्त है कि उस समय देवों के अधिपति इन्द्र भी उनकी पालकी ले जाने वाले हुए थे अर्थात् इन्द्र स्वयं भी उनकी पालकी ढो रहे थे।
भगवान जब अयोध्या नगरी से प्रस्थान कर रहे थे उस समय उनके माता-पिता, पत्नियों, पुत्रों एवं समस्त नगरवासियों में दु:ख की लहर व्याप्त हो गई थी।
भगवान के प्रस्थान करने पर यशस्वती आदि रानियाँ मन्त्रियों सहित भगवान के पीछे-पीछे चलने लगीं, उस समय शोक से उनके नेत्रों में आँसू भर रहे थे। लताओं के समान उनके शरीर की शोभा म्लान हो गयी थी। उन्होंने आभूषण भी उतारकर अलग कर दिये थे और कितनी ही डगमगाते हुए पैर रखती हुई भगवान के पीछे-पीछे जा रही थीं। कितनी ही स्त्रियाँ शोकरूपी अग्नि से जर्जरित हो रही थीं, उनकी काया कम्पित हो रही थी और नेत्र मूच्र्छा से निमीलित हो रहे थे इन सब कारणों से वे जमीन पर गिर पड़ी थीं। कितनी ही देवियाँ बार-बार यह कहती हुई मूर्छित हो रही थीं कि—हे ्नााथ! आप कहाँ जा रहे हैं ? कहाँ जाकर हम लोगों की प्रतीक्षा करेंगे और अब आपको कितनी दूर जाना है ? वे देवियाँ शोक से हृदय में धड़कन को और नेत्रों में आँसुओं को धारण कर रही थीं। कुछ लोग उन लोगों को समझा रहे थे कि—हे बाले, रोकर अमंगल मत करो—इस प्रकार कहे जाने पर किसी स्त्री ने रोना बन्द कर दिया था परन्तु उसके आँसू नेत्रों के भीतर ही रुक गये थे इसलिये वह ऐसी जान पड़ती थी मानो शोक से पूâट रही हो।
भव्यात्माओं! यद्यपि वे सब लोग तत्त्वज्ञानी थे फिर भी भगवान के वियोग से उनका दु:खी होना स्वाभाविक था। किन्तु भगवान ऋषभदेव जैसे उत्कृष्ट वैरागी को भला कौन रोक सकता था? वे तो अपने वैराग्य में मग्न होकर दीक्षा धारण करने चल पड़े थे। ऐसे महापुरुष की तुलना संसार में कोई नहीं कर सकता है। उनका पुण्य चरित्र जगत का कल्याण करें यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-५२

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! संसार में राग-वैराग्य का संघर्ष सदैव से चलता आ रहा है किन्तु उसमें जिसका बल अधिक मजबूत होता है वह दूसरे को पराजित कर देता है। संसारी मोही प्राणियों पर राग ने कब्जा कर रखा है और तीर्थंकर जैसे वैरागी राग को पराजित कर देते हैं। भगवान ऋषभदेव पालकी पर बैठकर सिद्धार्थ वन में पहुँच गये। उन्होंने जहाँ दीक्षा ली थी वह स्थान वर्तमान में प्रयाग नाम से जाना जाता है। पद्मपुराण में वर्णन है—

प्रजाग इति देशोऽसौ प्रजाभ्योऽस्मिन् गतो यत:।
प्रकृष्टो वा कृतस्त्याग: प्रयागस्तेन कीर्तित:।।
आपृच्छनं तत: कृत्वा पित्रोर्बन्धुजनस्य च।
नम: सिद्धेभ्य इत्युक्त्वा श्रामण्यं प्रत्यपद्यत।।

भगवान ऋषभदेव प्रजा अर्थात् जन-समूह से दूर हो उस तिलक नाम उद्यान में पहुँचे थे इसलिये उस स्थान का नाम ‘‘प्रजाग’ प्रसिद्ध हो गया अथवा भगवान ने उस स्थान पर बहुत भारी याग अर्थात् त्याग किया था, इसलिये उसका नाम ‘प्रयाग’ भी प्रसिद्ध हुआ। वहाँ पहुँचकर भगवान ने माता-पिता तथा बन्धुजनों से दीक्षा लेने की आज्ञा ली और फिर ‘नम: सिद्धेभ्य:’ सिद्धों के लिये नमस्कार हो यह कह दीक्षा धारण कर ली।
हरिवंश पुराण में भी कहा है—

एवमुक्त्वा प्रजा यत्र प्रजाप्रतिमपूजयन्।
प्रदेश: स प्रयागाख्यो यत: पूजार्थयोगत:।।

अर्थात् भगवान के ऐसा कहने के बाद प्रजा ने उनकी पूजा की। प्रजा ने जिस स्थान पर भगवान की पूजा की वह स्थान आगे चलकर पूजा के कारण प्रयाग इस नाम को प्राप्त हुआ। इस प्रकार जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव अत्यन्त विस्तृत सिद्धार्थक नाम के वन में जा पहुँचे, वह वन उस अयोध्यापुरी से न तो बहुत दूर था और न बहुत निकट ही था। उस वन में देवों ने एक शिला पहले से ही स्थापित कर रखी थी। वह शिला बहुत ही विस्तृत थी, पवित्र थी और भगवान के परिणामों के समान उन्नत थी। वह शिला घिसे हुये चन्दन द्वारा दिये गये मांगलिक छींटों से युक्त थी तथा उस पर इन्द्राणी ने अपने हाथ से रत्नों के चूर्ण के उपहार खींचे थे—चौक वगैरह बनाये थे। उस शिलापट्ट को देखते ही भगवान को जन्माभिषेक की विभूति धारण करने वाली पाण्डुकशिला का स्मरण हो आया। तदनन्तर भगवान ने क्षणभर उस शिला पर आसीन होकर मनुष्य, देव तथा धरणेन्द्रों से भरी हुई इस सभा को यथायोग्य उपदेशों के द्वारा सम्बोधित किया। वे भगवान जगत के बन्धु थे और स्नेहरूपी बन्धन से रहित थे। यद्यपि वे दीक्षा धारण करने के लिये अपने बन्धु वर्गों से एक बार पूछ चुके थे तथापि उस समय उन्होंने फिर भी अपनी गम्भीर वाणी द्वारा उनसे पूछा—दीक्षा लेने की आज्ञा प्राप्त की।
भव्यात्माओं! भगवान के द्वारा अपने बन्धुवर्गों से ऐसा पूछना मात्र नियोग ही था। जिसमें निष्परिग्रहता की ही मुख्यता है ऐसी व्रतों की भावना धारण कर, भगवान ऋषभदेव ने दासी, दास, गौ, बैल आदि जितना कुछ चेतन परिग्रह था और मणि, मुक्ता, मूँगा आदि जो कुछ अचेतन द्रव्य था उस सबका अपेक्षारहित होकर सिद्धों की साक्षीपूर्वक परित्याग कर दिया था। पुन: भगवान पूर्व दिशा की ओर मुँह कर पद्मासन से विराजमान हुए और सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार कर उन्होंने पंचमुष्टियों से केश लोंच किया। धीर, वीर भगवान ऋषभदेव ने मोहनीय कर्म की मुख्य लताओं के समान बहुत-सी केशरूपी लताओं का लोंच कर दिगम्बर रूप के धारक होते हुए जिनदीक्षा धारण की। भगवान ने समस्त पापारम्भ से विरक्त होकर सामायिक-चारित्र धारण किया तथा व्रत गुप्ति समिति आदि चारित्र के भेद ग्रहण किये।
भगवान ऋषभदेव ने चैत्र मास के कृष्ण पक्ष को नवमी के दिन सायंकाल के समय दीक्षा धारण की थी। उस दिन शुभ मुहूर्त था, शुभ लग्न थी और उत्तराषाढ़ नक्षत्र था। भगवान के मस्तक पर चिरकाल तक निवास करने से पवित्र हुए केशों को इन्द्र ने प्रसन्नचित्त होकर रत्नों के पिटारे में रख लिया था। सपेâद वस्त्र से ढके उस बड़े भारी रत्नों के पिटारे में रखे हुए भगवान के काले केश ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों चन्द्रमा के काले चिन्ह के अंश ही हों। ये केश भगवान के मस्तक के स्पर्श से अत्यन्त श्रेष्ठ अवस्था को प्राप्त हुए हैं इसलिये उन्हें किसी योग्य स्थान में स्थापित करना चाहिये। पांचवाँ क्षीरसमुद्र स्वभाव से ही पवित्र है, इसलिये उसमें भेंट कर उसी के पवित्र जल में इन्हें स्थापित करना चाहिये। ये केश धन्य हैं जो कि जगत के स्वामी भगवान ऋषभदेव के मस्तक पर अधिष्ठित हुये थे तथा यह क्षीरसमुद्र भी धन्य है जो इन केशों को भेंटस्वरूप प्राप्त करेगा। ऐसा विचार कर इन्द्रों ने उन केशों को आदर सहित उठाया और बड़ी विभूति के साथ ले जाकर उन्हें क्षीरसमुद्र में डाल दिया।
देखो! तीर्थंकर भगवान केवल सिद्ध भगवान का स्मरण कर दीक्षा लेते हैं किन्तु अन्य कोई साधारण मनुष्य ऐसी दीक्षा नहीं ग्रहण कर सकते, उन्हें तो गुरु से ही दीक्षा लेने की आगम आज्ञा है। भगवान ने जिस प्रयाग में दीक्षा ली थी आज भी वहाँ महावुंâभ नगरी—इलाहाबाद के नाम से प्रसिद्ध है। मेरी प्रेरणा से वहाँ उस दीक्षातीर्थ का निर्माण दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर के अन्तर्गत हुआ है। उस तीर्थ को भी देखकर प्राचीन इतिहास स्मरण हो आता है।
भगवान ऋषभदेव दीक्षा लेते ही चार ज्ञान के धारी हो गये थे और वे छह माह का योग लेकर ध्यान में लीन खड़े हो गये थे। उसी समय चार हजार अन्य राजाओं ने भी दीक्षा धारण की थी। वे राजा भगवान का अभिप्राय नहीं जानते थे, केवल स्वामी-भक्ति से प्रेरित होकर ही दीक्षित हुए थे। ‘जो हमारे स्वामी के लिये अच्छा लगता है वही हम लोगों को भी विशेष रूप से अच्छा लगना चाहिये’ बस, सही सोचकर वे राजा दीक्षित होकर द्रव्यिंलगी साधु हो गये थे। स्वामी के अभिप्रायानुसार चलना ही सेवकों का काम है यह सोचकर ही वे मूढ़ता के साथ मात्र द्रव्य की अपेक्षा निग्र्रन्थ अवस्था को प्राप्त हुए थे—्नाग्न हुए थे, भावों की अपेक्षा नहीं अर्थात् उन सब लोगों ने अज्ञानतापूर्वक दीक्षा ले ली थी किन्तु वे दीक्षा का रहस्य नहीं जानते थे।
मेरा इस प्रसंग में यह कहना है कि जहाँ भगवान ने दीक्षा ली थी ऐसे पावन तीर्थों पर आप लोग भी अपने बच्चों का मुण्डन-संस्कार करायें ताकि उनके मस्तक पर सुन्दर संस्कार आरोपित हो सवेंâ। ऐसे भगवान ऋषभदेव एवं उनका दीक्षातीर्थ प्रयाग जगत् के लिये कल्याणकारी होवे यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-५३

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

भव्यात्माओं! महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण ग्रन्थ में भगवान ऋषभदेव की दीक्षा का प्रकरण आपने जाना है। भगवान का दीक्षा कल्याणक इन्द्रों ने बड़े महोत्सव के साथ मनाया था। उन्होंने प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे दीक्षा धारण की थी। इन्द्र ने उस समय भगवान की खूब स्तुति की—

विध्यापितजगत्तापा जगतामेकपावनी।
स्वर्धुनीव पुनीयान्नो दीक्षेयं पारमेश्वरी।।

हे भगवन्! आपकी यह परमेश्वरी दीक्षा गंगा नदी के समान जगत्त्रय का सन्ताप दूर करने वाली है और तीनों जगत को मुख्य रूप से पवित्र करने वाली है, ऐसी यह आपकी दीक्षा हम लोगों को सदा पवित्र करे।
भगवान के पुत्र सम्राट भरत के बारे में आदिपुराण में वर्णन आता है कि—लक्ष्मीवान् महाराज भरत ने भी भक्ति के भार से अतिशय नम्र होकर अनेक प्रकार के वचनरूपी मालाओं के द्वारा अपने पिता की पूजा की अर्थात् सुन्दर शब्दों द्वारा उनकी स्तुति की। तत्पश्चात् उन्हीं भरत महाराज ने बड़ी भारी भक्ति से सुगन्धित जल की धारा, गन्ध, पुष्प, अक्षत, दीप, धूप और अघ्र्य से समाधि को प्राप्त हुए आत्मध्यान में लीन और मोक्ष प्राप्तिरूप अपने कार्य में सदा सावधान रहने वाले, मोहनीय कर्म के विजेता मुनिराज भगवान ऋषभदेव की पूजा की तथा जिनकी लक्ष्मी बहुत ही विस्तृत है ऐसे राजा भरत ने पके हुए मनोहर आम, जामुन, वैंâथा, कटहल, बड़हल, केला, अनार, बिजौरा, सुपारियों के सुन्दर गुच्छे और नारियलों से भगवान के चरणों की पूजा की थी। इस प्रकार जो भगवान के चरणों की पूजा कर चुके हें, जिनके दोनों घुटने पृथिवी पर लगे हुए हैं और जिनके नेत्रों से हर्ष के आँसू निकल रहे हैं ऐसे राजा भरत ने अपने उत्कृष्ट मुकुट में लगे हुए मणियों की किरणरूप स्वच्छ जल के समूह से भगवान के चरण कमलों का प्रक्षालन करते हुए भक्ति से नम्र हुए, अपने मस्तक से उन्हीं भगवान के चरणों को नमस्कार किया जिन्होंने उत्तम-उत्तम अर्थ तथा अलंकारों से प्रशंसा करने योग्य और पापों को नष्ट करने वाली अनेक स्तुतियों से गुरुभक्ति प्रकट की है और जो बड़ी भारी विभूति से सहित हैं ऐसे राजा भरत अनेक राजपुत्रों और अपने छोटे भाइयों के साथ-साथ अयोध्या के सम्मुख हुए।
दीक्षा लेकर भगवान छह माह का योग लेकर खड़े हो गये थे। कायोत्सर्ग मुद्रा, नासाग्रदृष्टि से समन्वित भगवान तो वास्तविक मोक्षमार्ग में आरूढ़ थे किन्तु उनके साथ जिन चार हजार राजाओं ने दीक्षा ली थी उन्हें वैराग्य नहीं था, वे तो केवल देखा-देखी मुनि बने थे। अत: अन्तज्र्ञान से रहित उनका मन विचलित होने लगा, उन्हें भूख-प्यास की बाधा सताने लगी।
महानुभावों! जैनेश्वरी दीक्षा उत्कट वैराग्य के बिना कार्यकारी नहीं होती है। संसार के दु:खों का अंत करने की भावना से ली गई दीक्षा ही वास्तविक लक्ष्य की पूर्ति कराती है। श्री जिनसेनाचार्य उस समय का वर्णन करते हैं—
इस प्रकार भगवान ऋषभदेव जब परम नि:स्पृह होकर विराजमान थे तब कच्छ-महाकच्छ आदि राजाओं के धैर्य में बड़ा भारी क्षोभ उत्पन्न होने लगा—उनका धैर्य छूटने लगा। दीक्षा धारण किये हुए दो तीन माह भी नहीं हुए थे कि इतने में ही अपने को मुनि मानने वाले उन राजाओं ने परीषह को सहन न करने के कारण शीघ्र ही धैर्य छोड़ दिया था। वे राजागण कहने लगे—हम समझते थे कि भगवान एक दिन, दो दिन अथवा ज्यादा-से-ज्यादा तीन चार दिन तक खड़े रहेंगे परन्तु यह भगवान तो महीनों पर्यन्त खड़े रहकर हम लोगों को दु:खी कर रहे हैं। यदि स्वयं भोजन-पान कर और हम लोगों को भी भोजन-पान आदि से सन्तुष्ट कर फिर खड़े रहते तो अच्छी तरह खड़े रहते, कोई हानि नहीं थी परन्तु यह तो बिलकुल ही उपवास धारण कर भूख-प्यास आदि का कुछ भी प्रतिकार नहीं करते और इस प्रकार खड़े रहकर हम लोगों को कष्ट दे रहे हैं।
परीषहों से पीड़ित हुए वे लोग फल लाने की इच्छा से वन-खण्डों में पैâलने लगे और प्यास से पीड़ित होकर तालाबों पर जाने लगे। उन लोगों को अपने ही हाथ से फल ग्रहण करते और पानी पीते हुए देखकर वन-देवता ने उन्हें मना किया और कहा कि ऐसा मत करो। हे मूर्खों, यह दिगम्बर रूप सर्वश्रेष्ठ अरहन्त तथा चक्रवर्ती आदि के द्वारा भी धारण करने योग्य है। इसे तुम लोग कातरता का स्थान मत बनाओ अर्थात् इस उत्कृष्ट वेश को धारण कर दीनों की तरह अपने हाथ से फल मत तोड़ो और न तालाब आदि का अप्रासुक पानी पियो। वन-देवताओं के ऐसे वचन सुनकर वे लोग दिगम्बर वेष में वैसा करने से डर गये इसलिये उन दीन चेष्टा वाले भ्रष्ट तपस्वियों ने अनेक प्रकार के वेश धारण कर लिये। उनमें से कितने ही लोग वृक्षों के वल्कल धारण कर फल खाने लगे और पानी पीने लगे और कितने ही लोग जीर्ण-शीर्ण लंगोटी पहनकर अपनी इच्छानुसार कार्य करने लगे। कितने ही लोग शरीर को भस्म से लपेटकर जटाधारी हो गये, कितने ही एकदण्ड को धारण करने वाले और कितने ही तीन दण्ड को धारण करने वाले साधु बन गये थे। इस प्रकार प्राणों से पीड़ित हुए वे लोग उस समय अनेक वेष धारण कर वन में होने वाले वृक्षों की छालरूप वस्त्र, स्वच्छ जल और कन्द-मूल आदि के द्वारा बहुत समय तक अपनी वृत्ति अर्थात् जीवन निर्वाह करते रहे। वे लोग भरत महाराज से डरते थे, इसलिये उनका देशत्याग अपने आप ही हो गया था अर्थात् वे भरत के डर से अपने-अपने नगरों में नहीं गये थे अपितु झोंपड़े बनाकर उसी वन में रहने लगे थे।
बन्धुओं! देखो, यह जैनी दीक्षा संसार में अत्यन्त दुर्लभता से प्राप्त होती है। कहा भी है—
‘‘विचित्रा जैनीदीक्षा हि स्वैराचार विरोधिनी’’
अर्थात् स्वच्छन्द प्रवृत्ति की विरोधी जैन दीक्षा होती है इसलिये उसे धारण करने वाले राजाओं के भी राजा महाराज कहलाते हैं। उन भगवान ऋषभदेव का पुण्यमयी वैरागी चारित्र जगत का कल्याण करे यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-५४

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भगवान ऋषभदेव के साथ दीक्षा लेने वाले चार हजार राजा अपने पद से भ्रष्ट हो गये थे किन्तु भगवान ऋषभदेव बाह्य परिस्थितियों से पूर्ण अनभिज्ञ होकर आत्मध्यान में लीन थे। छह माह का उपवास करने के बाद भी भगवान के शरीर की कांति कम नहीं हुई थी, क्योंकि वे परमशक्तिमान तीर्थंकर महापुरुष थे। उनके तप का वर्णन करते हुए श्री जिनसेनाचार्य ने कहा है कि—उस समय भगवान के केश संस्काररहित होने के कारण जटाओं के समान हो गये थे और वे ऐसे मालूम होते थे मानो तपस्या का क्लेश सहन करने के लिए ही वैसे कठोर हो गये हों।
उनके तप: प्रभाव से उस वन में जन्मजात जीव-जन्तु भी आपस में निर्वैर होकर रहते थे अर्थात् उनमें भी मैत्री हो गयी थी। िंसह हरिण आदि जन्तुओं के साथ वैरभाव छोड़कर हाथियों के झुण्ड के साथ मिलकर रहने लगे थे, यह सब भगवान के ध्यान से उत्पन्न हुई महिमा ही थी। वैâसा आश्चर्य था कि जिनके बालों के अग्रभाग काँटों में उलझ गये थे और जो उन्हें बार-बार सुलझाने का प्रयत्न करती थीं ऐसी चमरी गायों को बाघ बड़ी दया के साथ अपने नखों से छुड़ा रहे थे अर्थात् उनके बाल सुलझा कर उन्हें जहाँ-तहाँ जाने के लिए स्वतन्त्र कर रहे थे। हरिणों के बच्चे दूध देती हुई बाघनियों के पास जाकर और उन्हें अपनी माता समझ इच्छानुसार दूध पीकर खुश होते थे। भगवान के तपश्चरण की शक्ति बड़ी ही आश्चर्यकारक थी कि वन के हाथी भी पूâले हुए कमल लाकर उनके चरणों में चढ़ाते थे।
उस समय की एक घटना बड़ी रोमांचक है कि छह महीने में समाप्त होने वाले प्रतिमा योग को प्राप्त हुए और धैर्य से शोभायमान रहने वाले भगवान का वह लम्बा समय भी क्षणभर के समान व्यतीत हो गया। इसी बीच में महाराज कच्छ, महाकच्छ के लड़के भगवान के समीप आये थे। वे दोनों लड़के बहुत ही सुकुमार थे, दोनों ही तरुण थे, नमि तथा विनमि उनका नाम था और दोनों ही भक्ति से निर्भर होकर भगवान के चरणों की सेवा करना चाहते थे। वे दोनों ही भोगोपभोग विषयक तृष्णा से सहित थे इसलिये हे भगवन्! ‘प्रसन्न होइये’ इस प्रकार कहते हुए वे भगवान को नमस्कार कर उनके चरणों में लिपट गये और उनके ध्यान में विघ्न करने लगे। हे स्वामिन्! आपने अपना यह साम्राज्य पुत्र तथा पौत्रों के लिए बाँट दिया है। बाँटते समय हम दोनों को भुला ही दिया—इसलिये अब हमें भी कुछ भोग सामग्री दीजिये। इस प्रकार वे भगवान से बार-बार आग्रह कर रहे थे, उन्हें उचित-अनुचित का कुछ भी ज्ञान नहीं था और वे दोनों उस समय जल, पुष्प तथा अघ्र्य से भगवान की उपासना कर रहे थे। तब धरणेन्द्र नाम को धारण करने वाले, नागकुमार देवों के इन्द्र ने अपना आसन कम्पायमान होने से नमि, विनमि के इस समस्त वृतान्त को जान लिया। अवधिज्ञान के द्वारा इन समस्त समाचारों को जानकर वह धरणेन्द्र शीघ्र उठा और भगवान के समीप आया।
धरणेन्द्र देव उन दोनों से कहने लगे—हे तरुण पुरुषों, ये हथियार धारण किये हुए तुम दोनों मुझे विकृत आकार वाले दिखलाई दे रहे हो और इस उत्कृष्ट तपोवन को अत्यन्त शान्त देख रहा हूँ। कहाँ तो यह शान्त तपोवन और कहाँ भयंकर आकार वाले तुम दोनों? प्रकाश और अन्धकार के समान तुम्हारा समागम क्या अनुचित नहीं है ? यह भोग बड़े ही निन्दनीय हैं जो कि जहाँ याचना नहीं करनी चाहिये वहाँ भी याचना कराते हैं, क्योंकि याचना करने वालों को योग्य-अयोग्य का विचार ही कहाँ रहता है? यह भगवान तो भोगों से नि:स्पृह हैं और तुम दोनों उनसे भोगों की इच्छा कर रहे हो सो तुम्हारी यह शिलातल से कमल की इच्छा आज हम लोगों को आश्चर्यकारी लग रही है। जिस प्रकार पत्थर की शिला से कमलों की इच्छा करना व्यर्थ है उसी प्रकार भोगों की इच्छा से रहित भगवान से भोगों की इच्छा करना व्यर्थ है।
यदि तुम दोनों भोगों को चाहते हो तो भरत के समीप जाओ क्योंकि इस समय वही साम्राज्य का भार धारण करने वाला है और वही श्रेष्ठ राजा है। भगवान तो राग, द्वेष आदि अन्तरंग परिग्रह का त्याग कर चुके हें और अपने शरीर से भी नि:स्पृह हो रहे हैं। अब यह भोगों की इच्छा करने वाले तुम दोनों को भोग वैâसे दे सकते हैं ? इसलिये, जो केवल मोक्ष जान के लिए तपस्या कर रहे हैं ऐसे इन भगवान के पास धरना देना व्यर्थ है। तुम दोनों धन-वैभव के इच्छुक हो अत: भरत की उपासना करने के लिए उसके पास जाओ। इस प्रकार जब वह धरणेन्द्र कह चुका तब वे दोनों नमि, विनमि कुमार उसे इस प्रकार उत्तर देने लगे कि दूसरे के कार्यों में आपकी यह क्या आस्था है ? आप महा बुद्धिमान हैं, अत: यहाँ से चुपचाप चले जाइये क्योंकि इस विषय में जो योग्य अथवा अयोग्य हैं उन दोनों को हम लोग जानते हैं परन्तु आप इस विषय में अनभिज्ञ हैं इसलिये जहाँ आपको जाना है जाइये।
वे दोनों राजकुमार पुन: धरणेन्द्र से कहने लगे—आप जो हम लोगों को भरत के पास जाने की सलाह दे रहे हैं सो भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो बड़े-बड़े बहुत-से फलों की इच्छा करता हुआ भी कल्पवृक्ष को छोड़कर अन्य सामान्य वृक्ष की सेवा करेगा अथवा रत्नों की चाह करने वाला पुरुष महासमुद्र को छोड़कर, जिसमें शेवाल भी सूख गयी है ऐसे किसी लघु सरोवर तलैया की सेवा करेगा। भरत और भगवान ऋषभदेव में क्या बड़ा भारी अन्तर नहीं है ? क्या गोष्पद की समुद्र के साथ बराबरी हो सकती है ? क्या लोक में स्वच्छ जल से भरे हुए अन्य जलाशय नहीं हैं जो चातक पक्षी हमेशा मेघ से ही जल की याचना करता है ? इसलिये अभिमानी मनुष्य जो अत्यन्त उदार स्थान का आश्रय कर किसी बड़े भारी फल की वांछा करते हैं सो इसे आप उनकी उन्नति का ही आचरण समझें।
इस प्रकार वह धरणेन्द्र नमि, विनमि दोनों कुमारों के अदीनतर अर्थात् अभिमान से भरे हुए वचनों को सुनकर मन में बहुत ही सन्तुष्ट हुआ क्योंकि अभिमानी पुरुषों का धैर्य प्रशंसा करने योग्य होता है। वह धरणेन्द्र मन-ही-मन विचार करने लगा कि अहा! इन दोनों तरुण कुमारों की भक्ति कितनी बड़ी है, इनकी गम्भीरता भी आश्चर्य करने वाली है, भगवान ऋषभदेव में इनकी श्रेष्ठ भक्ति भी आश्चर्यजनक है और इनकी स्पृहा भी प्रशंसा करने योग्य है।
इस प्रकार प्रसन्न हुआ धरणेन्द्र अपना दिव्य रूप प्रकट करता हुआ उनसे कहने लगा—तुम दोनों तरुण होकर भी वृद्ध के समान हो, मैं तुम लोगों की धीर-वीर चेष्टाओं से बहुत ही सन्तुष्ट हुआ हूँ। मेरा नाम धरणेन्द्र है और मैं नागकुमार जाति के देवों का मुख्य इन्द्र हूँ। मुझे आप पाताल स्वर्ग में रहने वाले भगवान का िंककर समझें तथा मैं यहाँ आप दोनों को भोगोपभोग की सामग्री से युक्त करने के लिए ही आया हूँ। भगवान ने मुझे आज्ञा दी है कि ये दोनों कुमार बड़े ही भक्त हैं इसलिये इन्हें इनकी इच्छानुसार भोगों से युक्त करो, इसलिये मैं यहाँ शीघ्र आया हूँ। इसलिये जगत की व्यवस्था करने वाले भगवान से पूछकर उठो। आज मैं तुम दोनों के लिए भगवान के द्वारा बतलायी हुई भोग सामग्री दूँगा। इस प्रकार धरणेन्द्र के वचनों से वे कुमार बहुत ही प्रसन्न हुये और उससे कहने लगे कि क्या सचमुच ही गुरुदेव हम पर प्रसन्न हुए हैं और हम लोगों को मनवांछित भोग देना चाहते हैं ? हे धरणेन्द्र! इस विषय में भगवान का जो सत्य मत हो वह हम लोगों से कहिये क्योंकि भगवान की सम्मति के बिना हमें कोई भोगोपभोग की सामग्री इष्ट नहीं है।
इस प्रकार कहते हुए कुमारों को युक्तिपूर्वक विश्वास दिलाकर धरणेन्द्र भगवान को नमस्कार कर उन्हें शीघ्र ही अपने साथ ले गया। वह दोनों राजकुमारों को विमान में बैठाकर तथा आकाशमार्ग से जाकर शीघ्र ही विजयार्ध पर्वत पर पहुँच गया।
महानुभावों! वह विजयार्ध पर्वत कहाँ है? वैâसा है? इसका विशेष वर्णन तिलोयपण्णत्ति से जानना चाहिये। उसकी प्रतिकृति हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना के अन्दर भी बनी है। आदिपुराण में भी कहा है—
वह विजयार्ध पर्वत अपने पूर्व और पश्चिम की वेदिकाओं से लवण समुद्र में प्रवेश कर रहा था और भरतक्षेत्र के बीच में इस प्रकार स्थित था मानो उसके नापने का एक दण्ड ही हो। वह पर्वत ऊँचे, अनेक प्रकार के रत्नों की किरणों से चित्र-विचित्र और अपनी इच्छानुसार आकाशगंगा को घेरने वाले अपने अनेक शिखरों से ऐसा जान पड़ता था मानो मुकुटों से ही सुशोभित हो रहा हो। पड़ते हुए निर्झरनों के शब्दों से उसकी गुफाओं के मुख आपूरित हो रहे थे और उनमें ऐसा मालूम होता था मानो अतिशय विश्राम करने के लिए देव-देवियों को बुला ही रहा हो। उसकी मेखला अर्थात् बीच का किनारा पर्वत के समान ऊँचे, यहाँ-वहाँ चलते हुए और गम्भीर गर्जना करते हुए बड़े-बड़े मेघों द्वारा चारों ओर से ढका हुआ था। दैदीप्यमान सुवर्ण के बने हुए और सूर्य की किरणों से सुशोभित अपने किनारों के द्वारा वह पर्वत देव ओर विद्याधरों को जलते हुए दावानल के समान लग रहा था। उस पर्वत के शिखरों के समीप भाग से जो लम्बी धार वाले बड़े-बड़े झरने पड़ते थे उनसे मेघ जर्जरित हो जाते थे और उनसे उस पर्वत के समीप ही बहुत-से निर्झरने बनकर निकल रहे थे।
उस पर्वत की उत्तर और दक्षिण ऐसी दो श्रेणियाँ थीं जो कि दो पंखों के समान बहुत ही लम्बी थीं और उन श्रेणियों में विद्याधरों के निवास करने के योग्य अनेक उत्तम-उत्तम नगरियाँ थीं। वह धरणेन्द्र उस विजयार्ध पर्वत की पहली मेखला पर उतरा और वहाँ उसने दोनों राजकुमारों के लिए विद्याधरों का वह लोक दिखलाया कि ऐसा मालूम होता है मानो यह पर्वत बहुत भारी होने के कारण इससे अधिक ऊपर जाने के लिये समर्थ नहीं था इसीलिये इसने अपने-आपको इधर-उधर दोनों ओर पैâलाकर समुद्र में जाकर मिला दिया है।
इस प्रकार युक्तिसहित धरणेन्द्र के वचन कहने पर उन दोनों राजकुमारों ने भी उस गिरिराज की प्रशंसा की और फिर उस धरणेन्द्र के साथ-साथ नीचे उतरकर अतिशय-श्रेष्ठ और ऊँची-ऊँची ध्वजाओं से सुशोभित रथनूपुरचक्रवाल नाम के नगर में प्रवेश किया। धरणेन्द्र ने वहाँ दोनों को िंसहासन पर बैठाकर सब विद्याधरों से कहा कि ये तुम्हारे स्वामी हैं और फिर उस धीर-वीर धरणेन्द्र ने विद्याधारियों के हाथों से उठाये हुये सुवर्ण के बड़े-बड़े कलशों से इन दोनों का राज्याभिषेक किया। राज्याभिषेक के बाद धरणेन्द्र ने विद्याधरों से कहा कि जिस प्रकार इन्द्र स्वर्ग का अधिपति है उसी प्रकार यह नमि अब दक्षिण-श्रेणी का अधिपति रहेगा और विनमि चिरकाल तक उत्तर-श्रेणी का अधिपति रहेगा। कर्मभूमिरूपी जगत को उत्पन्न करने वाले जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव ने अपनी सम्मति से इन दोनों को यहाँ भेजा है इसलिये सब विद्याधर राजा प्रेम से मस्तक झुकाकर इनकी आज्ञा धारण करें। उन दोनों के पुण्य से तथा जगद््गुरु भगवान ऋषभदेव की आज्ञा के निरूपण से और धरणेन्द्र के योग्य उपदेश से उन विद्याधरों ने वह सब कार्य उसके कहे अनुसार ही स्वीकृत कर लिया था क्योंकि महापुरुषों के द्वारा हाथ में लिया हुआ कार्य शीघ्र ही सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार धीर-वीर धरणेन्द्र ने उन दोनों को गान्धारपदा और पन्नगपदा नाम की दो विद्याएँ दीं और फिर अपना कार्य पूरा कर विनय से झुके हुए दोनों राजकुमारों को छोड़कर अपने निवास स्थान पर चला गया। पुन: धरणेन्द्र के चले जाने पर नाना प्रकार के सम्पूर्ण भोगोपभोगों को बार-बार भेंट करते हुए विद्याधर लोग हाथ जोड़कर, मस्तक नवाकर स्पष्टरूप से जिनकी सेवा करते हैं ऐसे वे दोनों कुमार उस पर्वत पर बहुत ही सन्तुष्ट हुये थे।
देखो! इस धरती पर भगवान से मांगने की परम्परा बड़ी प्राचीन रही है तथा अज्ञानता में भी भगवान के प्रति की गई भक्ति और समर्पण से उत्तम फल ही प्राप्त होता है। मैं कई बार कहा करती हूँ कि अपनी माँग की पूरी करने हेतु धरना देने की प्रथा भी पहले से रही है। इस प्रकार नमि-विनमि राजकुमार विजयार्ध पर्वत पर जाकर सुखपूर्वक राज्य करने लगे।
नमि कुमार ने बड़ी-बड़ी भोगोपभोग की सम्पदाओं को प्राप्त करते हुए दक्षिण-श्रेणी पर रहने वाले समस्त विद्याधर नगरियों के राजाओं को वश में किया था और विनमि ने उत्तर-श्रेणी पर रहने वाले समस्त विद्याधर नगरियों के राजाओं को नम्रीभूत किया था। इस प्रकार वे दोनों राजकुमार विद्याधरों की उस लक्ष्मी को विभक्त कर विजयार्ध पर्वत के तट पर निष्वंâटक रूप से रहते थे। हे भव्य जीवों! देखो, भगवान ऋषभदेव के चरणों का आश्रय लेने वाले इन दोनों कुमारों को पुण्य से ही उस प्रकार की विभूति प्राप्त हुई थी इसलिये जो जीव स्वर्ग आदि की लक्ष्मी प्राप्त करना चाहते हैं वे एकमात्र पुण्य का ही संचय करें। उनकी पूजा-भक्ति से जगत में शांति की स्थापना हो यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-५५

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण ग्रन्थ में भगवान ऋषभदेव की दीक्षा के साथ-साथ उनकी भक्ति करने वाले नमि-विनमि राजकुमारों को प्राप्त हुए विजयार्ध पर्वत के राज्य का रोमांचक वर्णन आपने जाना है। भगवान ऋषभदेव महामुनिराज बनकर छह माह के योग में खड़े हैं। श्रीजिनसेनाचार्य ने आदिपुराण में कहा है कि—

नत्वा देवमिमं चराचरगुरुं त्रैलोक्यनाथार्चितं,
भक्तौ तौ सुखमापतु: समुचितं विद्याधराधीश्वरौ।
तस्मादादिगुरुं प्रणम्य शिरसा भक्यार्चयन्त्वङ्गिनो,
वाञ्छन्त: सुखमक्षयं जिनगुणप्राप्तिं च नैश्रेयसीम्।।

चर और अचर जगत के गुरु तथा तीन लोक के अधिपतियों द्वारा पूजित भगवान ऋषभदेव को नमस्कार कर ही दोनों भक्त विद्याधरों के अधीश्वर होकर उचित सुख को प्राप्त हुये थे इसलिये जो भव्य जीव मोक्षरूपी अविनाशी सुख और परम कल्याणरूप जिनेन्द्र भगवान के गुण प्राप्त करना चाहते हैं वे आदिगुरु भगवान ऋषभदेव को मस्तक झुकाकर प्रणाम करें और उन्हीं की भक्तिपूर्वक पूजा करें।
अर्थात् भगवान ऋषभदेव की भक्ति से आप जो माँगोगे वही मिल जायेगा, वे कल्पवृक्ष हैं। भगवान साक्षात् जिन कहलाते हैं उनके ध्यान जैसी स्थिरता किसी में नहीं पाई जाती है। शास्त्रों में मुनियों के दो भेद माने हैं—जिनकल्पी और स्थविरकल्पी। उनमें से जिन के समान चर्या का पालन करने वाले जिनकल्पी कहलाते हैं और जो गुरुआज्ञा का पालन करके संघ में रहते हुए अपने अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हैं वे स्थविरकल्पी होते हैं। पुन: भगवान तो साक्षात् जिनेन्द्र मुद्रा को ही दर्शा रहे थे। वे अपने ध्यान से सभी को परम शांति का सन्देश दे रहे थे।
ध्यान के चार भेद होते हैं—आत्र्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान। इनमें से धर्मध्यान में स्थिर होने के लिये भारी पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है।
ध्यानसिाqद्ध के लिये आठ अंग माने गये हैं—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
जीवन भर के लिये सर्वसावद्य का त्याग करना यम है। छह माह नियम लेकर भगवान खड़े हुए थे, उनका कायोत्सर्ग आसन था, श्वास का भरना और छोड़ना प्राणायाम कहलाता है। भगवान तो निसर्गत: प्राणायाम में पारंगत थे। शुभ-अशुभ विकल्पों को रोककर वे मात्र सिद्धों के ध्यान में मग्न थे। पिण्डस्थ ध्यान की चार धारणाएँ मानी हैं तो भगवान सिद्ध के ध्यान की धारणायुक्त थे। भगवान के भी शुक्लध्यान से पूर्व धर्मध्यान ही माना गया है। शुक्लध्यान में स्थिर होकर जो निर्विकल्प स्थिति होती है, उसे समाधि कहते हैं।
ध्यान के आठ अंगों से ऊपर उठकर भगवान के ध्यान की स्थिति रहती है। जो सिद्ध भगवान शुद्ध, बुद्ध, नित्य, निरंजन आत्मारूप भगवान हैं उनकी अमूर्तिक अवस्था के समान ही अपनी आत्मा को समझकर उसका ध्यान करना चाहिये। नियमसार में श्री कुन्दकुन्द देव ने कहा है—
‘‘जारिसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीव तारिसा होंति’’
अर्थात् जैसी सिद्धों की आत्मा है, संसार में रहने वाले जीवों की आत्मा भी वैसी ही है। भगवान ऋषभदेव ऐसे उत्कृष्ट ध्यान में लीन होकर प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे स्थिर मुद्रा में खड़े थे। उनका ध्यान और योग सभी के लिये कल्याणकारी होवे यही मंगल भावना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-५६

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भगवान ऋषभदेव ने जब छह माह का योग समाप्त किया तब उन्होंने चिन्तन किया कि यतिचर्या को बतलाने के लिये शरीर संरक्षण हेतु निर्दोष आहार लेने की विधि बतलाने के उद्देश्य से विचार करने लगे—
अहो! बड़े दु:ख की बात है कि बड़े-बड़े राजघरानों में उत्पन्न हुये ये नवदीक्षित साधु समीचीन मार्ग का परिज्ञान न होने के कारण इन क्षुधा आदि परीषहों से शीघ्र ही भ्रष्ट हो गये। इसलिये अब मोक्ष का मार्ग बतलाने के लिये और सुखपूर्वक मोक्ष की सिद्धि के लिये शरीर की स्थिति, अर्थ, आहार लेने की विधि दिखलाता हूँ। मोक्षाभिलाषी मुनियों को यह शरीर न तो केवल कृश ही करना चाहिये और न रसीले तथा मधुर मनचाहे भोजनों से इसे पुष्ट ही करना चाहिये। किन्तु जिस प्रकार ये इन्द्रियाँ अपने वश में रहें और कुमार्ग की ओर न दौड़ें उस प्रकार मध्यम वृत्ति का आश्रय लेकर प्रयत्न करना चाहिये। वात, पित्त और कफ आदि दोष दूर करने के लिये उपवास आदि करना चाहिये तथा प्राण धारण करने के लिये आहार ग्रहण करना भी जैन-शास्त्रों में दिखलाया गया है। काय-क्लेश उतना ही करना चाहिये जितने से संक्लेश न हो, क्योंकि संक्लेश हो जाने पर चित्त चंचल हो जाता है और मार्ग से भी च्युत होना पड़ता है। इसलिये संयमरूपी यात्रा की सिद्धि के लिये शरीर की स्थिति चाहने वाले मुनियों को रसों में आसक्त न होकर निर्दोष आहार ग्रहण करना चाहिये। इस प्रकार निश्चय करने वाले धीर-वीर भगवान ऋषभदेव योग समाप्त कर मानो समस्त पृथ्वी को कम्पायमान करते हुये विहार करने लगे।
महामेरु पर्वत के समान महामुनि भगवान ऋषभदेव प्रयाग से विहार करके अनेक स्थानों पर विचरण कर रहे थे किन्तु कोई यह नहीं जान पा रहा था कि ये भगवान किस कारण से भ्रमण कर रहे हैं। देखो! आदिपुराण ग्रन्थ में भगवान ऋषभदेव को प्रत्येक अवस्था में भगवान शब्द से ही संबोधित किया गया है। अत: आज के विद्वानों को भी पंचकल्याणक में दीक्षा कल्याणक और आहार आदि के समय भगवान का आदिसागर, ऋषभसागर आदि नाम नहीं उच्चारण करना चाहिये।
मुनियों की चर्या को धारण करने वाले भगवान जिस-जिस ओर कदम रखते थे अर्थात् जहाँ-जहाँ जाते थे वहीं-वहीं के लोग प्रसन्न होकर और बड़े संभ्रम के साथ आकर उन्हें प्रणाम करते थे। उनमें से कितने ही लोग कहने लगते थे कि हे देव! प्रसन्न होइये और कहिये कि क्या काम है तथा कितने ही लोग चुपचाप जाते हुए भगवान के पीछे-पीछे जाने लगते थे। कितने ही लोग बहुमूल्य रत्न लाकर भगवान के सामने रखते थे और कहते थे कि देव! प्रसन्न होइये और हमारी इस पूजा को स्वीकार कीजिये। कितने ही लोग अनेकों पदार्थ और अनेकों प्रकार की सवारियाँ भगवान के समीप लाते थे किन्तु भगवान को उन सबसे कुछ भी प्रयोजन नहीं था इसलिये वे चुपचाप आगे विहार कर जाते थे।
इस प्रकार जगत को आश्चर्य करने वाली उत्कृष्ट-चर्या को धारण करने वाले भगवान को भ्रमण करते-करते छह महीने और भी व्यतीत हो गये। इस तरह एक वर्ष ३९ दिन पूर्ण होने पर भगवान ऋषभदेव कुरुजांगल देश के आभूषण के समान सुशोभित हस्तिनापुर नगर में पहुँचे। उस समय नगर के राजा सोमप्रभ थे। राजा सोमप्रभ कुरुवंश के शिखामणि के समान थे। उनका एक छोटा भाई था जिसका नाम श्रेयान्स कुमार था। वह श्रेयान्स कुमार गुणों की वृद्धि से श्रेष्ठ था, रूप से कामदेव के समान था, कान्ति से चन्द्रमा के समान था और दीप्ति से सूर्य के समान था। जो पहले धनदेव था और फिर अहमिन्द्र हुआ था वह स्वर्ग से चय कर प्रजा का कल्याण करने वाला और स्वयं कल्याणों का निधिस्वरूप श्रेयान्स कुमार हुआ था। जब भगवान इस हस्तिनापुर नगर के समीप आने को हुए तब श्रेयान्स कुमार ने रात्रि के पिछले पहर में सात स्वप्न देखे। प्रथम स्वप्न में सुवर्णमय महाशरीर को धारण करने वाला और अतिशय ऊँचा सुमेरु पर्वत देखा, दूसरे स्वप्न में शाखाओं के अग्रभाग पर लटकते हुए आभूषणों से सुशोभित कल्पवृक्ष देखा, तीसरे स्वप्न में प्रलयकाल सम्बन्धी सन्ध्याकाल के मेघों के समान पीली-पीली अयाल से जिसकी ग्रीवा ऊँची हो रही है ऐसा सिंह देखा, चौथे स्वप्न में जिसके सींग के अग्र भाग पर मिट्टी लगी हुई है, ऐसा किनारा उखाड़ता हुआ बैल देखा, पाँचवें स्वप्न में जिनकी कान्ति अतिशय दैदीप्यमान हो रही है और जो जगत के नेत्रों के समान हैं ऐसे सूर्य और चन्द्रमा देखे, छठे स्वप्न में जिसका जल बहुत ऊँची उठती हुई लहरों और रत्नों से सुशोभित हो रहा है ऐसा समुद्र देखा तथा सातवें स्वप्न में अष्टमंगल द्रव्य धारण कर सामने खड़ी हुई भूत जाति के व्यन्तर देवों की मूर्तियाँ देखीं। इस प्रकार भगवान के चरणकमलों का दर्शन ही जिसका मुख्य फल है ऐसे सात स्वप्न श्रेयान्स कुमार ने देखे। पुन: जिसका चित्त अतिशय प्रसन्न हो रहा है ऐसे श्रेयान्स कुमार ने प्रात:काल के समय विनयसहित राजा सोमप्रभ के पास जाकर उनसे रात्रि के समय देखे हुये वे सब स्वप्न ज्यों के त्यों बतलाये।
पुन: वहीं पर बैठे राजपुरोहित ने उन स्वप्नों के फल में बताया कि राजन्! मेरुपर्वत पर जिनका अभिषेक हुआ है ऐसा कोई महापुरुष आज आपके महल में आयेगा। स्वप्न-फल सुनकर दोनों भाई बड़े प्रसन्न हुये। वे आपस में वार्ता कर ही रहे थे कि इसी मध्य सिद्धार्थ नामक द्वारपाल ने आकर कहा कि जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव अपने हस्तिनापुर में पधारे हैं और आपके महल की ही ओर आ रहे हैं। इस शुभ समाचार को सुनकर दोनों भ्राता अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक भगवान की अगवानी करने निकल पड़े।
महानुभावों! भगवान ऋषभदेव का हस्तिनापुर में मंगल पदार्पण जगत के लिये बहुत कल्याणकारी हुआ था। उनके चरणों से पावन तीर्थ एवं तीर्थंकर प्रभु का पुण्य चरित्र सभी के लिये मंगलकारी होवे यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-५७

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भगवान ऋषभदेव जब हस्तिनापुर पहुँचे थे तो वहाँ बड़ा भारी कोलाहल मच गया था। सारी जनता अपने को धन्य-धन्य मानने लगी और हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ एवं युवराज श्रेयांस कुमार ने महल से बाहर निकल कर भगवान के चरणों में नमस्कार किया और भगवान को देखते ही श्रेयांस कुमार को आठ भव पूर्व का जातिस्मरण हो गया।
भगवान का रूप देखकर श्रेयांस कुमार को जातिस्मरण हो गया जिससे उन्होंने अपने पूर्व पर्याय सम्बन्धी संस्कारों से भगवान के लिये आहार देने की बुद्धि लगायी। उन्हें श्रीमती और वङ्का संघ आदि का वह समस्त वृत्तान्त याद हो गया तथा उसी भव में उन्होंने जो चारण ऋद्धिधारी दो मनियों के लिये आहार दिया था उसका भी उन्हें स्मरण हो गया था। यह मुनियों के लिये दान देने योग्य प्रात:काल का उत्तम समय है ऐसा निश्चय कर पवित्र बुद्धि वाले श्रेयांस कुमार ने भगवान के लिये इक्षुरस का आहार दिया।
दान के आदि तीर्थ की प्रवृत्ति करने वाले श्रेयांस कुमार ने श्रद्धा आदि सातों गुण सहित और पुण्यवर्धक नवधा भक्तियों से सहित होकर भगवान के लिये दान दिया था। श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और त्याग ये दानपति अर्थात् दान देने वाले के सात गुण कहलाते हैं। इनके संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार हैं—श्रद्धा आस्तिक्य बुद्धि को कहते हैं, आस्तिक्य बुद्धि अर्थात् श्रद्धा के न होने पर दान देने में अनादर हो सकता है। दान देने में आलस्य नहीं करना सो शक्ति नाम का गुण है, पात्र के गुणों में आदर करना सो भक्ति नाम का गुण है। दान देने आदि के क्रम का ज्ञान होना सो विज्ञान नाम का गुण है, दान देने की शक्ति को अलुब्धता कहते हैं, सहनशीलता होना क्षमा गुण है और उत्तम द्रव्य दान में देना सो त्याग है। इस प्रकार जो दाता सात गुणों से सहित और निदान आदि दोषों से रहित होकर पात्र रूपी सम्पदा में दान देता है वह मोक्ष प्राप्त करने के लिये तत्पर होता है। मुनिराज का पड़गाहन करना, उन्हें ऊँचे स्थान पर विराजमान करना, उनके चरण धोना, उनकी पूजा करना, उन्हें नमस्कार करना, अपने मन, वचन, काम की शुद्धि और आहार की शुद्धि बोलना, इस प्रकार दान देने वाले के यह नौ प्रकार का पुण्य अथवा नवधा भक्ति कहलाती हैं। अतिशय चतुर श्रेयांस कुमार ने पूर्व पर्याय के संस्कारों से प्रेरित होकर वे सभी भक्तियाँ की थीं। ये भगवान अतिशय इष्ट तथा विशिष्ट पात्र हैं ऐसा विचार कर परम सन्तोष को प्राप्त हुये श्रेयांस कुमार ने भगवान के लिये प्रासुक आहार का दान दिया था।
आदिपुराण में वर्णन आया है कि उन दोनों श्रावक शिरोमणि भक्तों के द्वारा नवधा भक्ति करने पर भगवान ने खड़े होकर हाथ की अंगुली बनाई और श्रेयांस कुमार ने अपने भाई सोमप्रभ और भाभी लक्ष्मीमती के साथ भगवान को इक्षुरस का आहार दिया। उस समय का वर्णन करते हुए श्रीजिनसेनाचार्य कहते हैं—

पुण्ड्रेक्षुरसधारान्तां भगवत्पाणिपात्रके।
स समावर्जयन् रेजे पुण्यधारामिवामलाम्।।

वह राजकुमार श्रेयांस भगवान के पाणिपात्र में पुण्यधारा के समान उज्ज्वल पौंड़े और ईख के रस की धारा छोड़ता हुआ बहुत अच्छा सुशोभित हो रहा था।

रत्नवृष्टिरथापप्तदम्बरादमरेशिनाम्।
करैर्मुक्तामहादानफलस्येव परम्परा।।

पुन: आकाश से महादान के फल की परम्परा के समान देवों के हाथ से छोड़ी हुई रत्नों की वर्षा होने लगी।
श्री पुष्पदंत कवि द्वारा रचित अपभ्रंश के आदिपुराण में भगवान के उस आहार की तिथि का नाम वैशाख शुक्ला तीज आया है जो अक्षय तृतीया के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। आज भी हस्तिनापुर में उस तिथि में बहुत बड़ा उत्सव मनाया जाता है।
उस समय उन दोनों भाइयों ने अपने-आपको बहुत ही कृतकृत्य माना था क्योंकि कृतकृत्य हुए भगवान ऋषभदेव ने स्वयं उनके घर के आँगन को पवित्र किया था। उस दान की अनुमोदना करने से और भी बहुत-से लोग परम पुण्य को प्राप्त हुये थे। यदि यहाँ कोई आशंका करे कि अनुमोदना करने से पुण्य की प्राप्ति किस प्रकार होती है तो उसका समाधान यह है कि पुण्य और पाप के बन्ध होने में केवल जीव के परिणाम ही कारण हैं बाह्य कारणों को तो जिनेन्द्र देव ने केवल कारण का कारण अर्थात् शुभ-अशुभ परिणामों का कारण कहा है। पुण्य के साधन करने में जीवों के शुभ परिणाम ही प्रधान कारण माने जाते हैं अत: शुभ कार्य की अनुमोदना करने वाले जीवों को भी उस शुभ फल की प्राप्ति अवश्य होती है।
वर्तमान में कुछ लोग कह देते हैं कि हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ भगवान बाहुबली के पुत्र थे, किन्तु दिगम्बर जैन ग्रन्थों के अनुसार सोमप्रभ का बाहुबली से कोई भी सम्बन्ध नहीं माना गया है। वे तो भगवान के द्वारा बनाये गये एक स्वतन्त्र महामण्डलीक राजा थे अर्थात् भगवान ऋषभदेव ने जब अनेक देश बसाकर वहाँ के राजा बनाये थे तो उस समय सोमप्रभ को कुरुजांगल देश का राजा नियुक्त किया था। वहीं पर एक वर्ष ३९ दिन के उपवास के बाद भगवान को आहार लेने का संयोग प्राप्त हुआ था। इस प्रकार भगवान ऋषभदेव का पुण्य चारित्र सभी के लिये कल्याणकारी होवे यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-५८

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भगवान ऋषभदेव के कथानक के अन्तर्गत उनके प्रथम आहार का वर्णन चल रहा है कि हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ और श्रेयांस ने उन्हें नवधा भक्तिपूर्वक इक्षुरस का आहार देकर अपने जीवन को धन्य किया था। उस समय भगवान तो आहार लेकर पुन: वन को चले गये और दोनों भाई अपने पुण्य की सराहना कर रहे थे। भरत राजा ने अयोध्या में जब यह समाचार सुना तो वे भी बड़े आश्चर्यचकित हुये। आदिपुराण में कहा है—

अदृष्टपूर्व लोकेऽस्मिन् दानं कोऽर्हति वेदितुम्।
भगवानिव पूज्योऽसि कुरुराज त्वमद्य न:।।

इस संसार में पहले कभी नहीं देखी हुई इस दान की विधि को कौन जान सकता है? हे कुरुराज! आज तुम हमारे लिये भगवान के समान ही पूज्य हुये हो।

त्वं दानतीर्थकृच्छ्रेयान् त्वं महापुण्यभागसि।
ततस्त्वामिति पृच्छामि यत्सत्यं कथयाद्य मे।।

हे राजकुमार श्रेयांस! तुम दान-तीर्थ की प्रावृत्ति करने वाले हो और महापुण्यवान हो इसलिये मैं तुमसे यह सब पूछ रहा हूँ कि जो सत्य हो वह आज आप मुझसे बताइये।
युवराज श्रेयांस उनकी उत्सुकता देखकर कहने लगे कि—राजन! जिस प्रकार रोगी मनुष्य रोग को दूर करने वाली किसी उत्कृष्ट औषधि को पाकर प्रसन्न होता है अथवा प्यासा मनुष्य स्वच्छ जल से भरे हुए और कमलों से सुशोभित तालाब को देखकर प्रसन्न होता है उसी प्रकार भगवान के उत्कृष्ट रूप को देखकर मैं अतिशय प्रसन्न हुआ था और इसी कारण मुझे अपने आठ भव पूर्व का जातिस्मरण हो गया था जिससे मैंने भगवान का अभिप्राय जान लिया था।
पूर्वभव में जब ये भगवान विदेह-क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी में राजा वङ्कासंघ की पर्याय में थे तब मैं इनकी श्रीमती नामकी प्रिय स्त्री के रूप में हुआ करता था। उस समय वङ्कासंघ की पर्याय को धारण करने वाले इन भगवान के साथ-साथ मैंने दो चारणमुनियों के लिये आहार दान दिया था। हे सम्राट! अतिशय विशुद्ध, दोषरहित और प्रसिद्धि का कारण ऐसा महादान देना और काव्य करना ये दोनों ही वस्तुएँ बड़े पुण्य से प्राप्त होती हैं।
हे भरतक्षेत्र के स्वामी भरत महाराज! दान की विशुद्धि का कुछ थोड़ा-सा वर्णन आपको भी सुनाता हूँ—‘स्व’ और ‘पर’ के उपकार के लिये मन-वचन-काय की विशुद्धतापूर्वक जो अपना धन दिया जाता है उसे दान कहते हें। दान देने वाले अर्थात् दाता की विशुद्धता, दान में दी जाने वाली वस्तु तथा दान लेने वाले पात्र को पवित्र करती है। दी जाने वाली वस्तु की पवित्रता देने वाले और लेने वाले को पवित्र करती है और इसी प्रकार लेने वाले की विशुद्धि देने वाले पुरुष को तथा दी जाने वाली वस्तु को पवित्र करती है इसलिये जो दान नौ प्रकार की विशुद्धतापूर्वक दिया जाता है वही अनेक फल देने वाला होता है अर्थात् दान देने में दाता, देय और पात्र की शुद्धि का होना आवश्यक है। पुण्य प्राप्ति के कारण स्वरूप, श्रद्धा आदि गुणों से सहित पुरुष दाता कहलाता है और आहार, औषधि, शास्त्र तथा अभय से चार प्रकार की वस्तुएँ देय कहलाती हैं।
जो रागादि दोषों से रहित हो और अनेक गुणों से सहित हो ऐसा पुरुष पात्र कहलाता है, वह पात्र जघन्य, मध्यम और उत्तम के भेद से तीन प्रकार का होता है। जो पुरुष मिथ्यादृष्टि है परन्तु मन्दकषाय होने से व्रत, शील आदि का पालन करता है वह जघन्य पात्र कहलाता है और जो व्रत, शील आदि की भावना से रहित सम्यग्दृष्टि है वह मध्यम पात्र कहा जाता है। जो व्रत, शील आदि से सहित सम्यग्दृष्टि है वह उत्तम पात्र कहलाता है और जो व्रत, शील आदि से रहित मिथ्यावृष्टि है वह पात्र नहीं माना गया है अर्थात् अपात्र है।
जो अनेक विशुद्ध गुणों को धारण करने से पात्र के समान हो वही पात्र कहलाता है। इसी प्रकार जो जहाज के समान इष्ट स्थान में पहुँचाने वाला हो वही पात्र कहलाता है। जिस प्रकार लोहे की बनी हुई नाव समुद्र से दूसरे को पार नहीं कर सकती और न स्वयं ही पार हो सकती है उसी प्रकार कर्मों के भार से दबा हुआ दोषवान पात्र किसी को संसार-समुद्र से पार नहीं कर सकता और न स्वयं ही पार हो सकता है। इसलिये जो मोक्ष के साधनस्वरूप दिगम्बर वेश को धारण करते हैं, जो शरीर की स्थिति और ज्ञानादि गुणों की सिद्धि के लिये आहार की इच्छा करते हैं, जो बल, आयु, स्वाद अथवा शरीर को पुष्ट करने की इच्छा नहीं करते, जो केवल प्राण धारण करने के लिये थोड़े-से ग्रासों से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं और जो निज तथा पर को तारने वाले हैं ऐसे ऊपर लिखे हुये गुणों से सहित मुनिराज ही पात्र हो सकते हैं। उनके लिये दिया हुआ आहार अपुनर्भव अर्थात् मोक्ष का कारण है। दानरूपी पुण्य के माहात्म्य को प्रकट करने के लिये सबसे बड़ा और पुष्ट उदाहरण यही है कि मैंने दान के माहात्म्य से ही पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये हैं। इसलिये हे राजर्षि भरत! हम सबको उत्तम दान देना चाहिये। अब भगवान ऋषभदेव के तीर्थ के समय सब जगह पात्र पैâल जायेंगे अर्थात् भगवान के सदुपदेश से अनेक मनुष्य मुनिव्रत धारण करेंगे, उन सभी के लिये हमें आहार आदि दान देना चाहिये। राजकुमार श्रेयांस ने उन सब सदस्यों के लिये अपने स्वामी भगवान ऋषभदेव के पूर्वभव को विस्तार से कहा जिससे उन सबके उत्तम दान देने में रुचि उत्पन्न हुई थी।
श्रेयांस राजा पुन: बोले कि राजन्! आपका और हमारा सम्बन्ध बहुत पहले से कई जन्मों से चला आ रहा है। अब ये भगवान ऋषभदेव तीन लोक के नाथ तीर्थंकर हुये हैं और मैं श्रेयांस के रूप में आज उन्हें आहार देकर धन्य हो गया हूँ।

प्रीत: संपूज्य तं भूय: परं सौहार्दमुद्वहन्।
गुरोर्गुणाननुध्यायन् प्रत्यगात् स स्वमालयम्।।

अतिशय प्रसन्न हुये महाराज भरत ने राजा सोमप्रभ और श्रेयांस कुमार का खूब सम्मान किया, उन पर बड़ा स्नेह प्रकट किया और फिर गुरुदेव—ऋषभनाथ के गुणों का चिन्तवन करते हुये अपने घर के लिये वापस अयोध्या गये।
भव्यात्माओं! आज भी हस्तिनापुर तीर्थ के इस करोड़ों वर्ष पूर्व का इतिहास आप लोगों को स्मरण करना चाहिये और वर्तमान में साधुओं को आहार देकर सातिशय पुण्य का संचय करना चाहिये।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-५९

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भगवान ऋषभदेव इस धरती के प्रथम योगी मुनिराज हुये हैं, उन्हीं से योग-ध्यान आदि की परम्परा प्रारम्भ हुई है। एक वर्ष ३९ दिन के उपवास के पश्चात् आहार लेकर जब ऋषभदेव महामुनिराज वन में जाकर पुन: तपस्या में लीन हो गये थे, उस समय का वर्णन श्रीजिनसेनाचार्य ने आदिपुराण में किया है—
अतिशय बुद्धिमान भगवान ऋषभदेव ने पापरूपी योगों से पूर्ण विरक्ती धारण की थी तथा उसके भेद जो कि व्रत कहलाते हैं उनका वे पालन करते थे। दयारूपी स्त्री का आलिंगन करना, सत्यव्रात में सदा अनुरक्त रहना, अचौर्यव्रत में तत्पर रहना, ब्रह्मचर्य को ही अपना सर्वस्व समझना, परिग्रह में आसक्त नहीं होना और असमय में भोजन का परित्याग करना, भगवान इन व्रतों को धारण करते थे और उनकी सिद्धि के लिये निरन्तर व्रतों को वृद्धिंगत करने वाली भावनाओं का चिन्तवन करते थे।
मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, ईर्यासमिति, कायनियन्त्रण अर्थात् देखभाल कर किसी वस्तु का रखना-उठाना और आलोकित पान-भोजन ये पाँच प्रथम अिंहसा-व्रत की भावनाएँ हैं। क्रोध, लोभ, भय और हास्य का परित्याग करना तथा शास्त्र के अनुसार वचन कहना ये पाँच द्वितीय सत्यव्रत की भावनाएँ हैं। परिमित—थोड़ा आहार लेना, तपश्चरण के योग्य आहार लेना, श्रावक के प्रार्थना करने पर आहार लेना, योग्य विधि के विरुद्ध आहार नहीं लेना तथा प्राप्त हुए भोजन-पान में सन्तोष रखना ये पाँच तृतीय अचौर्यव्रत की भावनाएँ हैं। स्त्रियों की कथा का त्याग, उनके सुन्दर अंगोंपांगों को देखने का त्याग, उनके साथ रहने का त्याग, पहले भोगे हुए भोगों के स्मरण का त्याग और गरिष्ठ रस का त्याग इस प्रकार ये पाँच चतुर्थ ब्रह्मचर्य-व्रत की भावनाएँ हैं। जिनके बाह्य अभ्यन्तर इस प्रकार दो भेद हैं ऐसे पाँचवें परिग्रह त्याग के विषयभूत सचित्त अचित्त पदार्थों में आसक्ति का त्याग करना पाँचवें परिग्रह त्याग व्रत की पाँच भावनाएँ हैं। धैर्य धारण करना, क्षमा रखना, ध्यान धारण करने में निरन्तर तत्पर रहना और परीषहों के आने पर मार्ग से च्युत नहीं होना ये इन चार व्रतों की उत्तर भावनाएँ हैं।
समस्त जीवों की रक्षा करने वाले भगवान ऋषभदेव अपने पापों को नष्ट करने के लिये इन भावनाओं से सुसंस्कृत—शुद्ध ऐसे व्रतों को पालन करते थे। इसी प्रकार अन्य बुद्धिमान मनुष्यों को भी आलस्य छोड़कर मातृकापद अर्थात् पाँच समिति और तीन गुप्तियों से युक्त तथा चौरासी लाख उत्तरगुणों से सहित अिंहसा आदि पाँचों महाव्रतों का पालन करना चाहिये।
यद्यपि स्थविरकल्पी और जिनकल्पी नाम से मुनियों के दो भेद बताये हैं किन्तु भगवान तो साक्षात् जिन ही होते हैं, अत: उनकी तपस्या की महिमा को भला कौन बतला सकता है।

अप्रतिक्रमणे धर्मे जिना: सामायिकाह्वये।
चरन्त्येकयमे प्रायश्चतुज्र्ञानविलोचना:।।

मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इस प्रकार चार ज्ञानरूपी नेत्रों को धारण करने वाले तीर्थंकर परमदेव प्राय: प्रतिक्रमण रहित एक सामायिक नाम के चारित्र में ही रत रहते हैं अर्थात् तीर्थंकर भगवान के किसी प्रकार का दोष नहीं लगता इसलिये उन्हें प्रतिक्रमण-छेदोपस्थापना चारित्र धारण करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। वे केवल सामायिक चारित्र ही धारण करते हैं। भावपाहुड़ ग्रन्थ में श्रीकुन्दकुन्द देव ने कहा है—

धुवसिद्धी तित्थयरो, चउणाणजुदो करेइ तवयरणं।
णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं णाणजुत्तोवि।।

अर्थात् देखो! तीर्थंकर भगवान की सिद्धि निश्चित है। उनका मोक्ष जाना निश्चित है तथापि उन्हें भी तपस्या करनी पड़ती है, तो भला हम और आप जैसे अल्पज्ञ और छद्मस्थों को दीक्षा के बिना मोक्ष वैâसे मिल सकता है? अर्थात् प्रत्येक मोक्षार्थी को दीक्षा तो एक न एक दिन धारण करना ही पड़ेगा। भगवान के ध्यान का कुछ वर्णन आदिपुराण में आया है—
वे भगवान कभी अत्यन्त कठिन वृत्तिपरिसंख्यान नाम का तप तपते थे। इसके सिवाय वे आदिपुरुष आलस्यरहित हो दूध, घी, गुड़ आदि रसों का परित्याग कर नित्य ही रस-परित्याग नाम का घोर तपश्चरण करते थे। वे योगिराज वर्षा, शीत और ग्रीष्म इस प्रकार तीनों कालों में शरीर को क्लेश देते थे अर्थात् कायक्लेश नाम का तप करते थे। वास्तव में गणधर देव ने शरीर के निग्रह करने अर्थात् कायक्लेश करने को ही उत्कृष्ट और कठिन तप कहा है, क्योंकि इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है कि शरीर का निग्रह होने से चक्षु आदि सभी इन्द्रियों का निग्रह हो जाता है और इन्द्रियों का निग्रह होने से मन का निरोध हो जाता है अर्थात् संकल्प-विकल्प दूर होकर चित्त स्थिर हो जाता है। मन का निरोध हो जाना ही उत्कृष्ट ध्यान कहलाता है तथा यह ध्यान ही समस्त कर्मों के क्षय हो जाने का साधन है और समस्त कर्मों का क्षय हो जाने से अनन्त सुख की प्राप्ति होती है इसलिये शरीर को कृश करना चाहिये।
यद्यपि वे भगवान ऋषभदेव मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों को गर्भ से ही धारण करते थे और मन:पर्यय ज्ञान उन्हें दीक्षा के बाद ही प्राप्त हो गया था, इसके अलावा सिद्धत्व पद उन्हें अवश्य ही प्राप्त होने वाला था तथापि सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रों को धारण करने वाले धीर-वीर भगवान ने हजार वर्ष तक अतिशय उत्कृष्ट और उग्र तपस्या की थी। इससे मालूम होता है कि महामुनियों को कायक्लेश नाम का तप अतिशय अभीष्ट है अर्थात् उसे वे अवश्य ही करते हैं। जिस प्रकार प्राणियों के शरीर में मस्तक प्रधान होता है उसी प्रकार कायक्लेश नाम का तप समस्त बाह्य तपश्चरणों में प्रधान होता है।
महानुभावों! आज भी इस औदारिक शरीर से आचार्य शांतिसागर महाराज जैसे मुनियों ने कठोर तपस्या का उदाहरण प्रस्तुत किया है। मैंने उस परम्परा के द्वितीय पट्टाचार्य आचार्य श्री शिवसागर महाराज को अपनी आँखों से जेठ की भरी गर्मी में खुले मैदान में खड़े होकर तपस्या करते देखा है। मेरी शिष्या पद्मावती आर्यिका ने दो बार सोलहकारण के ३२-३२ उपवास किये थे। आप लोगों के लिये भी मेरी प्रेरणा है कि सभी गृहस्थों को भी अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार थोड़ा-थोड़ा व्रत-उपवास करके तपस्या का अभ्यास करते रहना चाहिये, तभी एक दिन उग्र तपस्या की शक्ति प्राप्त हो सकती है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-६०

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण ग्रन्थ में भगवान ऋषभदेव की योगसाधना का प्रकरण चल रहा है। वे तीर्थंकर प्रभु अलग-अलग स्थानों पर तपस्या किया करते थे, इसका वर्णन श्रीजिनसेनाचार्य ने किया है—
कभी-कभी पानी के छींटे उड़ाते हुये समीप में बहने वाले निर्झर झरनों से जहाँ बहुत ठण्ड पड़ रही थी ऐसे पर्वत के ऊपरी भाग पर वे ध्यान में तल्लीनता को प्राप्त होते थे। कभी-कभी रात के समय जहाँ अनेक राक्षस अपनी इच्छानुसार नृत्य किया करते थे ऐसी श्मशान भूमि में वे भगवान ध्यान करते हुए विराजमान होते थे। कभी शुक्ल अथवा पवित्र बालू से सुन्दर नदी के किनारे पर, कभी सरोवर के किनारे, कभी मनोहर वन के प्रदेशों में और कभी मन की व्याकुलता न करने वाले देशों में ध्यान का अभ्यास करते हुए उन क्षमाधारी भगवान ने इस समस्त पृथ्वी में विहार किया था। मौनी, ध्यानी और मान से रहित वे अतिशय बुद्धिमान भगवान धीरे-धीरे अनेक देशों में विहार करते हुये किसी दिन पुरिमतालपुर नाम के नगर के समीप जा पहुँचे। उसी नगर के समीप एक शकट नाम का उद्यान था जो कि उस नगर से न तो अधिक समीप था और न अधिक दूर ही था। उसी पवित्र, आकुलतारहित, रमणीय, एकान्त और जीवरहित वन में भगवान ठहर गये। शुद्ध बुद्धि वाले भगवान ने वहाँ ध्यान की सिद्धि के लिये वटवृक्ष के नीचे एक पवित्र तथा लम्बी-चौड़ी शिला पर विराजमान होकर चित्त की एकाग्रता धारण की। वहाँ पूर्व दिशा की ओर मुख कर पद्मासन से बैठे हुये तथा लेश्याओं की उत्कृष्ट शुद्धि को धारण करते हुए भगवान ने ध्यान में अपना चित्त लगाया।
यह पुरिमतालपुर नगर भी वर्तमान में शोधकर्ताओं ने प्रयाग में ही माना है वे वहाँ पहुँचकर वटवृक्ष के नीचे भगवान ध्यानलीन हो गये थे। जिनका पापरूपी पराग धुल गया है और राग-द्वेष आदि विभाव नष्ट हो गये हैं ऐसे योगिराज ऋषभदेव के अन्त:करण में उस समय ज्ञान, दर्शन आदि शक्तियों के कारण किसी भी जगह प्रमाद नहीं रह सकता था अर्थात् धर्मध्यान के समय जिनेन्द्रदेव प्रमादरहित हो ‘अप्रमत्त संयत’ नामक सातवें गुणस्थान में विद्यमान थे। ज्ञान आदि परिणामों में परम विशुद्धता को प्राप्त हुये जिनेन्द्र देव के क्लेश उत्पन्न करने वाली अशुभ लेश्याएँ अंशमात्र भी नहीं थींं अर्थात् उस समय भगवान के शुक्ल लेश्या ही थीं। उस समय दैदीप्यमान हुई भगवान की ध्यानरूपी शक्ति ऐसी दिखाई देती थी मानो मोहरूपी शत्रु के नाश को सूचित करने वाली बढ़ी हुई बड़ी भारी उल्का ही हो।
जिस प्रकार कोई राजा अपने मन्त्री आदि से पूछकर, अपनी सेना के जघन्य, मध्यम और उत्तम ऐसे तीन भेद करता है और उनको आगे कर मरण-भय से रहित हो सब सामग्री के साथ शत्रु की सेना को जीतने के लिये उठ खड़ा होता है उसी प्रकार भगवान ऋषभदेव ने अपनी अन्त:प्रकृति अर्थात् मन को शुद्ध कर, संकल्प-विकल्प दूर कर अपनी विशुद्धिरूपी सेना के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे तीन भेद किये और फिर उस तीनों प्रकार की विशुद्धिरूपी सेना को आगे कर यमराज द्वारा की हुई विक्रिया अर्थात् मृत्यु-भय को दूर करते हुये सब सामग्री के साथ मोहरूपी शत्रु की सेना अर्थात् मोहनीय कर्म के अट्ठाइस अवान्तर भेदों को जीतने के लिये तत्पर हो गये।
ऐसे ध्यान के समय का वर्णन पाश्र्वाभ्युदय काव्य में बड़ा सुन्दर आया है।

कोऽयं नाथ! जिनो भवेत् तव वशी हुं हुं प्रतापी प्रिये।
हुं हुं तर्हि विमुंच्य कातरमते! शौर्यावलेपक्रियाम्।।
मोहोऽनेन विनिर्जित: प्रभुरसौ तत्विंâकर: के वयं।
इत्येवं रतिकामजल्पविषय: पाश्र्वप्रभु: पातु न:।।

भव्यात्माओं! जैनधर्म के अनुसार कामदेव और रति नाम के कोई पुरुष-स्त्री नहीं है। पंचेन्द्रिय के विषय भोग ही कामदेव नाम से जाने जाते हैं और उनके प्रति प्रीति-स्नेह को रति शब्द से संबोधित किया गया है। इन लोगों के राजा के समान मोह कर्म है, उसको ही जीतने वाले जिनेन्द्र भगवान कहलाते हैं।
संसार के विषय भोगों को भोगने वाले मोही प्राणी क्षणिक सुख को ही सबकुछ मान लेते हैं किन्तु वास्तविक सुख तो आत्मा में ही है। उसी आत्मसुख की प्राप्ति के लिये भगवान ऋषभदेव ध्यान करते-करते आठवें गुणस्थान में पहुँचकर क्षपक श्रेणी पर चढ़ गये, अत: अन्तर्मुहूर्त में १२वें गुणस्थान में जाकर ६३ कर्म प्रकृतियों को नष्ट कर दिया और तेरहवें गुणस्थान में पहुँच गये अर्थात् उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।

सर्वप्रथम उन्होंने प्रमादरहित हो अप्रमत्तसंयत नाम के सातवें गुणस्थान में अध:करण की भावना की और फिर अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में प्राप्त होकर अनिवृत्तिकरण नामक नौंवें गुणस्थान में प्राप्त हुये। वहाँ उन्होंने पृथक्तववितर्वâ नाम का पहला शुक्लध्यान धारण किया ओर उसके प्रवाह से विशुद्धि प्राप्त कर निर्भय हो मोहरूपी राजा की समस्त सेना को पछाड़ दिया। उन्होंने मोहरूपी राजा के अंगरक्षक के समान अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण सम्बन्धी आठ कषायों को चूर्ण किया, फिर नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और पुरुषवेद ऐसे तीन प्रकार के वेदों को तथा नौ-्नाौ कषाय में हास्यादि छह योद्धाओं को नष्ट किया था। पुन: सबसे मुख्य और सबके आगे चलने वाले संज्वलन क्रोध को, उसके बाद मान को, माया को और बादर लोभ को भी नष्ट कर दिया था।
इस प्रकार कर्म-शत्रुओं को नष्ट कर महाध्यानरूपी रंगभूमि में चारित्ररूपी ध्वज फहराते हुये ज्ञानरूपी तीक्ष्ण हथियार बाँधे हुए और दयारूपी कवच को धारण किये हुये महायोद्धा भगवान ने अनिवृत्ति अर्थात् जिससे पीछे नहीं हटना पड़े ऐसी नवम गुणस्थान रूप अनिवृत्ति नाम की जयभूमि प्राप्त की, क्योंकि पीछे नहीं हटने वाले शूर-वीर योद्धाओं के आगे शत्रु की सेना आदि नहीं ठहर सकती। अब अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनों करणों का यथार्थ स्वरूप प्रकट करने के लिये आगम के यथार्थ भाव को जानने वाले गणधरादि देवों ने जो ये अर्थसहित पद कहे हैं वे अनुक्रम से जानने योग्य हैं अर्थात् उनका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। अध:प्रवृत्तिकरण के प्रथम क्षण में जो परिणाम होते हैं वे ही परिणाम दूसरे क्षण में होते हैं तथा इसी दूसरे क्षण में पूर्व परिणामों से भिन्न और भी परिणाम होते हैं। इस प्रकार द्वितीय क्षणसम्बन्धी परिणामों का जो समूह है वही तृतीय क्षण में होता है तथा उससे भिन्न जाति के और भी परिणाम होते हैं, यही क्रम चतुर्थ आदि अन्तिम समय तक होता है इसीलिये इस करण का अध:प्रवृत्तिकरण ऐसा सार्थक नाम कहा जाता है। परन्तु अपर्वूकरण में यह बात नहीं है क्योंकि वहाँ प्रत्येक अपूर्व ही परिणाम होते हैं इसलिये इस करण का भी अपूर्वकरण यह सार्थक नाम है।
अनिवृत्तिकरण में जीवों की निवृत्ति अर्थात् विभिन्नता नहीं होती क्योंकि इसके प्रत्येक क्षण में रहने वाले सभी जीव परिणामों की अपेक्षा परस्पर में समान ही होते हैं इसलिये इस करण का भी अनिवृत्तिकरण यह सार्थक नाम है। इन तीनों करणों में से प्रथम करण में स्थिति घात आदि का उपक्रम नहीं होता, किन्तु इसमें रहने वाला जीव शुद्ध होता हुआ केवल स्थिति-बन्ध और अनुभाग-बन्ध को कम करता रहता है। दूसरे अपूर्वकरण में भी यही व्यवस्था है किन्तु विशेषता इतनी है कि इस करण में रहने वाला जीव गुण-श्रेणी के द्वारा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का संक्रमण तथा निर्जरा करता हुआ उन दोनों के अग्रभाग को नष्ट कर देता है। इसी प्रकार तीसरे अनिवृत्तिकरण में प्रवृत्ति करने वाला कर्मरूपी अतिशय बुद्धिमान जीव भी परिणामों की विशुद्धि में अन्तर न डालकर सोलह और आठ शत्रुओं को उखाड़ पेंâकता है।
पुन: योगिराज भगवान ऋषभदेव ने नरक और तिर्यंचगति में नियम से उदय आने वाली नामकर्म की तेरह (१. नरकगति, २. नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, ३. तिर्यग्गति, ४. तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी, ५. एकेन्द्रिय जाति, ६. द्वीन्द्रियजाति, ७. त्रिन्द्रियजाति, ८. चतुरिन्द्रियजाति, ९. आतप, १०. उद्योत, ११. स्थावर, १२. सूक्ष्म और १३. साधारण) और स्त्यानगृद्धि आदि तीन तथा १. स्त्यानगृद्धि, २. निद्रानिद्रा और ३. प्रचलाप्रचला इस प्रकार सोलह प्रकृतियों को एक ही प्रहार से नष्ट किया। पुन: अध्यात्मतत्त्व के जानने वाले भगवान ने आठ कषायों अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण सम्बन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ को नष्ट किया और फिर कुछ अन्तर लेकर शेष बची हुई (नपुंसक वेद, स्त्री वेद, पुरुष वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, संज्वलन क्रोध, मान और माया) प्रकृतियों को भी नष्ट किया। फिर वे सूक्ष्मसाम्पराय नाम के दसवें गुणस्थान में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने अतिशय सूक्ष्म लोभ को भी जीत लिया और इस तरह समस्त मोहनीय कर्म पर विजय प्राप्त कर ली क्योंकि बलवान शत्रु भी दुर्बल हो जाने पर सबकुछ अनायास ही जीत लिया जाता है। उस समय क्षपक श्रेणी रूपी रंगभूमि में मोहरूपी शत्रु के नष्ट हो जाने से अतिशय दैदीप्यमान होते हुए मुनिराज ऋषभदेव ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे किसी कुश्ती के मैदान से प्रतिमल्ल (विरोधी मल्ल) के भाग जाने पर विजयी मल्ल सुशोभित होता है। पुन: अविनाशी गुणों का संग्रह करने वाले भगवान क्षीणकषाय नाम के बारहवें गुण-स्थान में प्राप्त हुये। वहाँ उन्होंने सम्पूर्ण मोहनीय कर्म की धूलि उड़ा दी अर्थात् उसे बिल्कुल नष्ट कर दिया और स्वयं स्नातक अवस्था को प्राप्त हो गये। तदनन्तर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म की जो कुछ उद्धत प्रकृतियाँ थीं उन सबको उन्होंने एकत्ववितर्वâ नाम के दूसरे शुक्लध्यान से नष्ट कर डाला और इस प्रकार वे मुनिराज ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा अतिशय दु:खदायी चारों घातिया कर्मों को जलाकर केवलज्ञानी हो लोकालोक के देखने वाले सर्वज्ञ हो गये।
इन्द्र को उसी समय अवधिज्ञान से ज्ञात हो गया और उसने कुबेर को आज्ञा दी, अत: आकाश में तत्क्षण ही समवसरण बन गया। भगवान अधर आकाश में निर्मित उस समवसरण के मध्य गंधकुटी में विराजमान हो गये।
वह समवसरण सम्पूर्ण जगत के लिये कल्याणकारी होता है। उसमें विराजित तीर्थंकर भगवान जगत का कल्याण करें यही मंगल भावना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिन्

महापुराण प्रवचन-६१

(पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा)
प्रस्तुति-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भगवान ऋषभदेव का केवलज्ञान कल्याणक इन्द्रों ने बड़े महोत्सव के साथ मनाया था। भगवान को उस समय नवलब्धियाँ प्राप्त हो गयी थीं। जैसा कि कहा भी है—

‘‘णवकेवललद्धुग्गम सुजणिय परमप्पववएसो’’
अर्थात् नवकेवल लब्धियों को प्राप्त करते ही वे भगवान परमात्मा की संज्ञा से समन्वित हो जाते हैं। जैन शास्त्रों में आत्मा के तीन भेद माने गये हैं—बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा। मिथ्यादृष्टि प्राणी बहिरात्मा होते हैं, चतुर्थ गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक के जीव अंतरात्मा हैं और उससे आगे परमात्मा होते हैं।
वे भगवान ऋषभदेव एक हजार वर्ष तक तपस्या करके फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन केवलज्ञानी परमात्मा बन गये थे। उस समय उनके दश अतिशय प्रगट हो गये थे।
तत्त्वार्थ सूत्र में द्वितीय अध्याय के अन्दर जीव के पाँच स्वतत्त्वों में क्षायिक भाव के जो नवभेद माने हैं वे ही नवक्षायिक लब्धियाँ कही जाती हैं। देखो! इन लब्धियों को पाने के लिये भगवान ऋषभदेव ने भी १० भवों तक पुरुषार्थ किया, तब वे भगवान बन पाये। नवलब्धि का एक व्रत भी है उसे करके आप सभी को उन क्षायिक लब्धि प्राप्त करने हेतु अपना पुण्य जागृत करना चाहिये। इसकी विधि इस प्रकार है—
नवलब्धि व्रत (नवकेवललब्धि व्रत)
तीर्थंकर भगवन्तों को जब केवलज्ञान प्रगट हो जाता है तब अर्हंत अवस्था में उन्हें नव केवललब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। ज्ञानावरणकर्म के नाश से केवलज्ञानलब्धि, दर्शनावरण के क्षय से केवलदर्शनलब्धि, दर्शनमोहनीय के अभाव से क्षायिक सम्यक्त्वलब्धि, चारित्रमोहनीय के अभाव से क्षायिक चारित्रलब्धि, अंतरायकर्म के पाँच भेदों में से क्रमश: दानान्तराय के विनाश से क्षायिक अनंतदानलब्धि, लाभान्तराय कर्म के क्षय से क्षायिक अनंतलाभलब्धि, भोगान्तराय के अभाव से क्षायिक अनंतभोगलब्धि, उपभोगान्तराय के नाश से क्षायिक अनंतउपभोगलब्धि और वीर्यान्तरायकर्म के क्षय से क्षायिक अनंतवीर्यलब्धि ये नव क्षायिक अनंतलब्धियाँ प्रगट हो जाती हैं। इन्हीं नवकेवललब्धियों को प्राप्त करने के लिए इस व्रत को ाqकया जाता है। तीर्थंकर भगवन्तों की केवलज्ञान तिथि या किसी भी तिथि को अथवा अष्टमी, चतुर्दशी आदि को इस व्रत को करना होता है।
उत्तम विधि में व्रत के पूर्व दिन एक बार शुद्ध भोजन करके व्रत के दिन उपवास करें पुन: पारणा के दिन भी एक बार भोजन—एकाशन करें। व्रत के दिन चौबीस तीर्थंकर की पूजा करके अर्हंत परमेष्ठी की पूजा करें। पुन: समुच्चय जाप्य करके व्रत की एक-एक जाप्य करें। नवव्रत पूर्ण होने पर तीर्थंकर भगवन्तों की कल्याणकभूमि की वंदना करें। चौबीस तीर्थंकर विधान करें तथा शक्ति के अनुसार नव-नव उपकरण मंदिर में भेंट करें।
मध्यम विधि में व्रत के दिन एक बार अल्पाहार और जघन्यव्रत में एक बार शुद्ध भोजन—एकाशन करके व्रत करना चाहिए।
समुच्चय मंत्र—ॐ ह्रीं अर्हं नवकेवललब्धि प्राप्तये श्री अर्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:।
प्रत्येक व्रत की पृथक्-पृथक् जाप्य—
१. ॐ ह्रीं अर्हं केवलज्ञानलब्धिप्राप्तये श्री अर्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:।
२. ॐ ह्रीं अर्हं केवलदर्शनलब्धि प्राप्तये श्री अर्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:।
३. ॐ ह्रीं अर्हं क्षायिकसम्यक्त्वलब्धिप्राप्तये श्री अर्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:।
४. ॐ ह्रीं अर्हं क्षायिकचारित्रलब्धिप्राप्तये श्री अर्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:।
५. ॐ ह्रीं अर्हं अनंतदानलब्धिप्राप्तये श्री अर्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:।
६. ॐ ह्रीं अर्हं अनंतलाभलब्धिप्राप्तये श्री अर्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:।
७. ॐ ह्रीं अर्हं अनंतभोगलब्धिप्राप्तये श्री अर्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:।
८. ॐ ह्रीं अर्हं अनंतोपभोगलब्धिप्राप्तये श्री अर्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:।
९. ॐ ह्रीं अर्हं अनंतवीर्यलब्धिप्राप्तये श्री अर्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:।
इस व्रत का उत्कृष्ट फल अर्हंत अवस्था को प्राप्त करना है। परंपरा फल संसार के अनेक प्रकार के अभ्युदय चक्रवर्ती आदि के वैभव तथा स्वर्ग के उत्तम सुखों को प्राप्त करना है। इस व्रत के प्रभाव से दरिद्रता, रोग, शोक आदि दु:ख दूर होंगे और परभव में नियम से स्वर्ग आदि के वैभव प्राप्त होंगे पुन: परंपरा से ये नव केवललब्धियाँ जहाँ प्रगट होती हैं, ऐसे परमात्मपद की प्राप्ति होगी।
इस व्रत को करने से परम्परा से लब्धियाँ तो प्राप्त होंगी ही, इस भव में भी धन-धान्य, वैभव आदि भौतिक संपत्ति प्राप्त होती है। अत: आप लोग इस व्रत को करें और जिनेन्द्र भक्ति में अपने समय का सदुपयोग करें तथा यथायोग्य अपनी आत्मशक्ति को प्रगट करके आध्यात्मिक ऊर्जा को भी प्राप्त करें।
प्रत्येक संसारी प्राणी अनादिकाल से संसार की चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण कर रहा है, उससे छूटने के लिये व्रतादि को ग्रहण किया जाता है। करणानुयोग के ग्रन्थों से जीव के भटकने वाले स्थानों का ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिये ताकि उनसे छूटने का पुरुषार्थ कर सवेंâ।
गोम्मटसार जीवकाण्ड में जीवसमास के ५७ भेद बताये गये हैं—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, साधारण वनस्पति के नित्यनिगोद, इतरनिगोद ये दो भेद। इन छह के बादर और सूक्ष्म से १२ भेद हुये। प्रत्येक वनस्पति के दो भेद हैं—सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित। त्रस के पाँच भेद—दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञिपंचेन्द्रिय और संज्ञिपंचेन्द्रिय। ये सब मिलाकर उन्नीस भेद हुये। यथा—१२ ± २ ± ५ · १९। ये सभी भेद पर्याप्त निर्वृत्यपर्याप्त एवं लब्ध्यपर्याप्त के भेद से तीन-तीन प्रकार के होते हैं। इसलिये १९ का ३ के साथ गुणा करने पर ५७ भेद हो जाते हैं।
इन्हें जानकर सोचना है कि हम सभी संसारी प्राणियों का मूलस्थान तो निगोद है किन्तु अब मनुष्य बनकर इस पर्याय का सदुपयोग करना है। देखो! चक्रवर्ती भरत के विवद्र्धन कुमार आदि ९२३ पुत्र नित्यनिगोद से सीधे मनुष्य बनकर ऋषभदेव के समवसरण में दीक्षा लेकर सीधे उसी भव से मोक्ष चले गये थे। उन्होंने एक ही बार मनुष्य पर्याय पाई और उसे सार्थक कर लिया। ऐसे उदाहरणों से हम सभी को बोध प्राप्त करना है।
भगवान ऋषभदेव का ध्यान, उनका समवसरण आदि जगत कल्याण के लिये ही हैं, उनकी भक्ति से जगत में शांति की स्थापना हो यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-६२

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! आप मनुष्य जन्म की दुर्लभता को जानते हैं कि कितनी कठिनता से वह प्राप्त होता है, अत: उसे प्राप्त करके अब ऐसा पुरुषार्थ करना है कि पुन: निगोद में न जाना पड़े।
भगवान ऋषभदेव ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया और देवतागण को उनका ज्ञानकल्याणक मनाने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। प्रयाग में आज भी ‘मिलिट्री एरिया’ में वटवृक्ष है जहाँ भगवान ऋषभदेव ने केवलज्ञान प्राप्त किया था, उसे लोग पवित्र मानकर पूजते हैं। कुबेर ने वहीं अधर आकाश में समसरण की रचना कर दी थी।
केवलज्ञान का समाचार अपने अवधिज्ञान से जानकर सौधर्म इन्द्र ने सर्वप्रथम वहीं से नतमस्तक होकर भगवान को नमस्कार किया। पुन: वह अपने देव परिकर के साथ वहाँ से मध्यलोक में आने को तैयार हुआ। आदिपुराण में वर्णन आया है—
जो आभियोग्य जाति के देवों में मुख्य था ऐसे नागदत्त नाम के देव ने विक्रिया ऋद्धि से एक ऐरावत हाथी बनाया। वह हाथी शरद ऋतु के बादलों के समान सपेâद था, बहुत बड़ा था और उसने अपनी सपेâदी से समस्त दिशाओं को सपेâद कर दिया था। पुन: सौधर्मेन्द्र ने अपनी इन्द्राणी और ऐशान इन्द्र के साथ-साथ विक्रिया ऋद्धि से बने हुए उस दिव्य वाहन पर आरुढ़ होकर प्रस्थान किया। सबसे आगे किल्विषिक जाति के देव जोर-जोर से सुन्दर नगाड़ों के शब्द करते जाते थे और उनके पीछे इन्द्र, सामानिक, त्रायस्ंित्रश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक और प्रकीर्णक जाति के देव अपनी-अपनी सवारियों पर आरूढ़ होकर इच्छानुसार जाते हुए सौधर्मेन्द्र के पीछ-पीछे जा रहे थे। उस समय अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं, गन्धर्व देव बाजे बजा रहे थे और किन्नरी जाति की देवियाँ गीत गा रही थीं। इस प्रकार वह देवों की सेना बड़े वैभव के साथ जा रही थी।
इन इन्द्र आदि के बारे में भी आपको जानना है कि यद्यपि स्वर्ग में सभी का सुख निर्बाध और दिव्य होता है फिर भी इनके स्वामित्व, वैभव आदि में जो भेद है उसे भी करणानुयोग ग्रन्थों से जानना चाहिये।
अब यहाँ पर इन्द्र आदि देवों के कुछ लक्षण आप जानिये—अन्य देवों में न पाये जाने वाले अणिमा, महिमा आदि गुणों से जो परम ऐश्वर्य को प्राप्त हों उन्हें इन्द्र कहते हैं। जो आज्ञा और ऐश्वर्य के बिना अन्य सब गुणों से इन्द्र के समान हों और इन्द्र भी जिन्हें बड़ा मानता हो वे सामानिक देव कहलाते हैं। ये सामानिक जाति के देव इन्द्रों के पिता, माता और गुरु के तुल्य होते हैं तथा ये अपनी मान्यता के अनुसार इन्द्रों के समान ही सत्कार प्राप्त करते हैं। इन्द्रों के पुरोहित, मन्त्री और अमात्यों अर्थात् सदा साथ में रहने वाले मन्त्रियों के समान जो देव होते हैं वे त्रायिंस्त्रश कहलाते हैं। ये देव एक-एक इन्द्र की सभा में गिनती के तैंतीस-तैंतीस ही होते हैं।
जो इन्द्र की सभा में उपस्थित रहते हैं उन्हें पारिषद कहते हैं। ये पारिषद जाति के देव इन्द्रों के मित्रों के तुल्य होते हैं और जो देव अंगरक्षक के समान तलवार ऊँची उठाकर इन्द्र के चारों ओर घूमते रहते हैं उन्हें आत्मरक्ष कहते हैं। यद्यपि इन्द्र को कुछ भय नहीं रहता तथापि ये देव इन्द्र का वैभव दिखलाने के लिये ही उसके आसपास घूमा करते हैंं। जो दुर्गरक्षक के समान स्वर्गलोक की रक्षा करते हैं उन्हें लोकपाल कहते हैं और सेना के समान पियादे आदि जो सात प्रकार के देव हैं उन्हें अनीक कहते हैं।
हाथी, घोड़े, रथ, पियादे, बैल, गन्धर्व और नृत्य करने वाली देवियाँ यह सात प्रकार की देवों की सेना है। नगर तथा देशों में रहने वाले लोगों के समान जो देव हैं उन्हें प्रकीर्णक कहते हैं और जो नौकर-चाकरों के समान हैं वे आभियोग्य कहलाते हैं। जिनके किल्विष अर्थात् पापकर्म का उदय हो उन्हें किल्विषिक देव कहते हैं। ये देव अन्य देवों से बाहर रहते हैं। उनके जो कुछ थोड़ा-सा पुण्य का उदय होता है उसी के अनुरूप उनके थोड़ी-सी ऋद्धियाँ होती हैं। इस प्रकार प्रत्येक निकाय में दस-दस प्रकार के देव होते हैं, परन्तु व्यन्तर और ज्योतिषीदेव त्रायिंस्त्रश तथा लोकपाल भेद से रहित होते हैं।
ाqजस प्रकार किसी पर्वत के शिखर पर पूâले हुए कमलों से युक्त सरोवर सुशाभित होता है उसी प्रकार उस ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हुआ इन्द्र भी अतिशय सुशोभित हो रहा था। उस ऐरावत हाथी के बत्तीस मुख थे, प्रत्येक मुख में आठ-आठ दाँत थे, एक-एक दाँत पर एक-एक सरोवर था, एक-एक सरोवर में एक-एक कमलिनी थी, एक-एक कमलिनी में बत्तीस-बत्तीस कमल थे, एक-एक कमल में बत्तीस-बत्तीस दल थे और उन लम्बे-लम्बे प्रत्येक दलों पर, जिनके मुखरूपी कमल मन्द हास्य से सुशोभित हैं, जिनकी भौंहें अतिशय सुन्दर हैं और जो दर्शकों के चित्तरूपी वृक्षों में आनन्दरूपी अंकुर उत्पन्न करा रही हैं ऐसी बत्तीस-बत्तीस अप्सराएँ लय सहित नृत्य कर रही थीं।
इस प्रकार जब सब देव अपनी-अपनी देवियों सहित सवारियों और विमानों के साथ-साथ आ रहे थे उस समय समस्त आकाश को घेरकर आये हुये सुर और असुरों से यह जगत ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो उत्पन्न होता हुआ कोई दूसरा दिव्य स्वर्ग ही हो।
भव्यात्माओं! भगवान के केवलज्ञान कल्याणक का यह उत्सव तो अति संक्षिप्त बताया है किन्तु जैसा महोत्सव उस समय मनाया गया था उसको तो वर्णन ही करना अशक्य है। भगवान के समवसरण की रचनायें प्राय: अनेक स्थानों पर बनी हैं। उसमें आप उनका वैभव जान लेते हैं किन्तु उस वास्तविक समवसरण का वर्णन ही शास्त्रों में पढ़कर ऐसा लगता है कि वह दिव्य समवसरण हमें कब देखने को मिलेगा। आदिपुराण में भी बताया है—
जो बारह योजन विस्तार वाला है और जिसका तलभाग अतिशय दैदीप्यमान हो रहा है ऐसा इन्द्रनील मणियों से बना हुआ वह भगवान का समवसरण बहुत ही सुशोभित हो रहा था। इन्द्रनील मणियों से बना और चारों ओर से गोलाकार वह समवसरण ऐसा जान पड़ता था मानो तीन जगत की लक्ष्मी के मुख देखने के लिये मंगलरूप एक दर्पण ही हो।
उस समवसरण की चारों दिशाओं में एक-एक मानस्तम्भ थे। वे मानस्तम्भ आकाश का स्पर्श कर रहे थे, महाप्रमाण के धारक थे, घण्टाओं से घिरे हुये थे और चमर तथा ध्वजाओं से सहित थे इसलिये दिग्गज पर्वतों के समान सुशोभित हो रहे थे क्योंकि दिग्गज भी आकाश का स्पर्श करने वाले, महाप्रमाण के धारण, घण्टाओं से युक्त तथा चमर और ध्वजाओं से सहित होते हैं। चार मानस्तम्भ चार दिशाओं में सुशोभित हो रहे थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो उन मानस्तम्भों के छल से भगवान के अनन्ततुष्टय ही प्रकट हुये हों। उन मानस्तम्भों के मूल भाग में जिनेन्द्र भगवान की सुवर्णमय प्रतिमाएँ विराजमान थीं जिनकी इन्द्र लोग क्षीरसागर के जल से अभिषेक करते हुए पूजा करते थे।
समवसरण का और भी विशद वर्णन आदिपुराण से जाना जा सकता है। उस समवसरण के अधिनायक भगवान ऋषभदेव जगत में शांति करें यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-६३

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

भव्यात्माओं! महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण ग्रन्थ में भगवान ऋषभदेव के समवसरण का वर्णन चल रहा है। समवसरण में चारों दिशाओं में सीढ़ियाँ हैं, जिनपर चढ़कर वहाँ पर पहुँचा जाता है। चार परकोटे हैं, पाँच वेदिकाएँ हैं। इनके अन्तराल में आठ भूमियाँ हैं। इनके बाद गंधकुटी है, उसके बीचोंबीच कमलासन पर भगवान चार अंगुल अधर विराजमान रहते हैं। भगवान को चतुर्मुखी ब्रह्मा कहा जाता है सो ध्यान रखना है कि उनका मुख तो एक ही होता है किन्तु सब ओर से भव्यों को ऐसा लगता है कि भगवान मेरी ओर देख रहे हैं, सो यह भगवान का अतिशय ही प्रगट होता है, इसीलिये वे चतुर्मुखी कहलाते हैं। वहाँ निर्मित मानस्तम्भव बड़े अतिशयकारी होते हैं। उनको देखते ही मान गलित हो जाता है। आदिपुराण में समवसरण का वर्णन करते हुये श्री जिनसेनाचार्य ने लिखा है—
जो अनेक प्रकार के कमलों से सहित थीं, जिनमें स्वच्छ जल भरा हुआ था और जो भव्य जीवों की विशुद्धता के समान जान पड़ती थीं, ऐसी बावड़ियाँ उन मानस्तम्भों के समीपवर्ती भू-भाग को अलंकृत कर रही थीं। उन बावड़ियों में मणियों की सीढ़ियाँ बनी हुई थीं, उनके किनारे की ऊँची उठी हुई जमीन स्फटिक मणि की बनी हुई थी और उनमें पृथ्वी से निकलता हुआ लावण्यरूपी जल भरा हुआ था। इस प्रकार वे प्रसिद्ध बावड़ियाँ कृत्रिम नदी के समान सुशोभित हो रही थीं। वे बावड़ियाँ भ्रमरों की गुंजार से ऐसी जान पड़ती थीं मानों अच्छी तरह से अरहन्त भगवान के गुण ही गा रही हों, उठती हुई बड़ी-बड़ी लहरों से चकवा-चकवियों के शब्दों से ऐसी जान पड़ती थीं मानो जिनेन्द्र देव का स्तवन ही कर रही हों, स्वच्छ जल धारण करने से ऐसी जान पड़ती थीं मानों सन्तोष ही प्रकट कर रही हों, और किनारे पर बने हुए पाँव धोने के कुण्डों से ऐसी जान पड़ती थीं मानो अपने-अपने पुत्रों से सहित ही हों। इस प्रकार नन्दोत्तरा आदि नामों को धारण करने वाली वे बावड़ियाँ बहुत ही अधिक सुशोभित हो रही थीं।
मैंने कल्पदु्रम विधान में मानस्तम्भ की पूजा वाली जयमाला में इनका कुछ वैभव संजोया है—
प्रभु समवसरण गगनांगण में, बस अधर बना महिमाशाली।
यह इन्द्र नीलमणि रचित गोल आकार बना गुणमणिमाली।।
सीढ़ी इक एक हाथ ऊँची, चौड़ी सब बीस हजार बनी।
नर बाल-वृद्ध लूले, लंगड़े, चढ़ जाते सब अतिशााqय घनी।।
पहला परकोटा धूलिसाल, बहुवर्ण रत्न निर्मित सुंदर।
कहिं पद्मराग कहिं मरकतमणि, कहिं इन्द्रनीलमणि से मनहर।।
इसके अभ्यंतर चारों दिश, हैं मानस्तम्भ बने ऊँचे।
ये बारह योजन से दिखते, जिनवर से द्विदश गुणे ऊँचे।।
इनमें चारों दिश जिनप्रतिमा उनको सुरपति नरपति यजते।
ये सार्थक नाम धरें दर्शन से मानो मान गलित करते।।
इस समवसरण में चार कोट अरु पाँच वेदिकायें ऊँची।
इनके अन्तर में आठ भूमि फिर प्रभु की गंधकुटी ऊँची।।
इस धूलिसाल अभ्यंतर में है भूमि चैत्य प्रासाद प्रथम।
एकेक जैन मन्दिर अन्तर से पाँच पाँच प्रासाद सुगम।।
चारों गलियों में उभय तरफ दो दोय नाट्यशालायें हैं।
अभिनय करतीं जिनगुण गातीं सुर भवनवासि कन्यायें हैं।।
फिर वेदी वेढ़ रही ऊँची गोपुर द्वारों से युक्त वहाँ।
द्वारों पर मंगलद्रव्य निधि ध्वज तोरण घंटा ध्वनी महा।।
फिर आगे खाई स्वच्छ नीर से भरी दूसरी भूमि है।
पूâले कुवलय कमलों से युत हंसों के कलरव की ध्वनि है।।
फिर दूजी वेदी के आगे तीजी है लताभूमि सुन्दर।
बहुरंग बिरंगे पुष्प खिले जो पुष्पवृष्टि करते मनहर।।
फिर दूजा कोट बना स्वर्णिम, गोपुर द्वारों से मन हरता।
नवनिधि मंगल घट धूप घटों युत में प्रवेश करती जनता।।
महानुभावों! समवसरण के अन्दर अचिन्त्य वैभव रहता है क्योंकि तीर्थंकर भगवान के सम्पूर्ण जीवन का पुण्य वहीं पर फलित रूप में प्रगट होता है। वहाँ नाटक गृह भी हैं जहाँ जाकर लोग नाटक देखकर खुश होते हैंं। यहाँ ध्यान रखना है कि शास्त्रोक्त विधि से समवसरण एक समतल गोल भूमि पर ही बनाना चाहिये, वर्तमान में आठ कटनी वाले समवसरण बनाने की परम्परा न जाने कहाँ से चल गई है। प्राचीन मन्दिरों में अजमेर, नागौर आदि अनेक स्थानों पर समतल भूमि के ही समवसरण हैं। मैंने भी अयोध्या और प्रयाग में समतल भूमि वाले ही समवसरण बनाने की प्रेरणा दी है जो वहाँ-वहाँ विराजमान हैं।
आप लोग आज ऐसे समवसरणों को नहीं देख पाते हैं क्योंकि आज इस भरतक्षेत्र में तीर्थंकरों के जन्म नहीं होते हैं। विदेह क्षेत्रों में आज भी सीमंधर भगवान आदि के समवसरण विद्यमान हैं, वहीं आचार्य कुन्दकुन्ददेव पादलेप ऋद्धि के द्वारा गये थे ऐसा वर्णन जैन शिलालेखों में आया है। हमारे इस देश में आज समवसरण के प्रतीक में ही जिनमन्दिर बनाने की परम्परा है। उन मन्दिरों के दर्शन करके आप अपने जन्म को सार्थक करें।
भगवान के मन्दिर एवं वहाँ होने वाली पूजा-भक्ति जगत में शांति की स्थापना करे यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-६४

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

भव्यात्माओं! भगवान ऋषभदेव के समवसरण का प्रकरण चल रहा है। समवसरण के अन्दर जो सिद्धार्थ वृक्ष, चैत्यवृक्ष, कोट, वनवेदिका, स्तूप, तोरणसहित मानस्तम्भ और ध्वजाओं के खंभे हैं वे तीर्थंकरों के शरीर की ऊँचाई से बारह गुने ऊँचे होते है, ऐसा आदिपुराण में कहा है।
आप भी मन से समवसरण में बैठे हुये हैं ऐसा अनुभव कीजिये। यहाँ से २० करोड़ मील की दूरी पर विदेह क्षेत्र में आज भी सीमंधर स्वामी का समवसरण लगा हुआ है जैसा कभी यहाँ भगवान ऋषभदेव का था। मैंने कल्पदु्रम विधान की एक जयमाला में उस समवसरण का वर्णन करते हुये लिखा है—
आगे उद्यान भूमि चौथी चारों दिश बने बगीचे हैं।
क्रम से अशोक वन सप्तपर्ण चंपक अरु आम्र तरू के हैं।।
प्रत्येक दिशा मे एक एक तरु चैत्य वृक्ष अतिशय ऊँचे।
इनमें जिन प्रतिमा प्रातिहार्ययुत चार चार मणिमय दीखें।।
इसके आगे वेदी सुन्दर फिर ध्वजाभूमि ध्वज से शोभे।
फिर रजतवर्णमय परकोटा गोपुर द्वारों से युत शोभे।।
फिर कल्पवृक्ष भूमी छट्ठी दशविध के कल्पवृक्ष इसमें।
प्रतिदिश सिद्धार्थ वृक्ष चारों हैं सिद्धों की प्रतिमा उनमें।।
चौथी वेदी के बाद भवन भूमी सप्तमि के उभय तरफ।
नव नव स्तूप रत्न निर्मित, उनमें जिनवर प्रतिमा सुखप्रद।।
परकोटा स्फटिकमयी चौथा मरकत मणि गोपुर से सुन्दर।
उस आगे श्रीमंडप भूमी बारह कोठों से जनमनहर।।
समवसरण की चतुर्थ भूमि चैत्यभूमि कहलाती है। उन वृक्षों के मूलभागों में भगवन्तों की प्रतिमाएँ विराजमान हैं इसीलिये इन वृक्षों को चैत्यवृक्ष कहते हैं। ये रत्नों से निर्मित पृथ्वीकायिक वृक्ष होते हैं, वनस्पतिकायिक नहीं हैं, इसलिये ये दिखते तो वनस्पति जैसे ही हैं, किन्तु उनके पत्ते आदि झड़ते नहीं हैं। इसके आगे वेदिका है, पुन: ध्वजभूमि है, जिसमें माला, गरुड़ आदि दस प्रकार के चिन्हों से सहित ध्वजाएँ हैं। इसके आगे चाँदी का बना हुआ तीसरा परकोटा है जिसकी चारों दिशाओं में तोरण द्वार हैं। छठी भूमि कल्पवृक्ष भूमि कहलाती है। इसमें बहुत सारे कल्पवृक्ष हैं तथा चारों दिशाओं में एक-एक सिद्धार्थ वृक्ष हैं जिनमें सिद्ध भगवान की प्रतिमा विराजमान रहती हैं।
पुन: आगे वेदिका है और सातवीं भवनभूमि है जिसमें चारों दिशाओं में नौ-नौ स्तूप बने हैं जो भगवन्तों से सहित नौ लब्धियों के समान लगते हैं। पुन: स्फटिक स्फटिक मणि का पंचम परकोटा है और उसके बाद आठवीं श्रीमण्डप भूमि है, उसी में बारह सभाएँ लगती हैं।
बन्धुओं! भगवान का समवसरण ही एक ऐसा स्थान है जहाँ पशुओं के लिये भी एक कोठा निश्चित है जिसमें पशुगण बैठकर भगवान की दिव्यध्वनि सुनते हैं। कोई-कोई पशु वहाँ भगवान का उपदेश सुनकर और अणुव्रत धारण कर सोलह स्वर्ग तक भी जाने का पुण्य बन्ध कर लेते हैं।
करणानुयोग ग्रन्थों से आप समवसरण का विशेष वर्णन जानें और उसका ध्यान करके सातिशय पुण्य प्राप्त करें, यही भगवान जिनेन्द्र के पुण्य चरित्र को सुनने का सार है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-६५

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! समवसरण की श्रीमण्डपभूमि में बारह सभाओं का प्रकरण चल रहा है। वहाँ पंचमवेदी के बाद तीन कटनी के ऊपर गंधकुटी के मध्य तीर्थंकर भगवान चार अंगुल अधर में विराजमान रहते हैं।
फिर पंचम वेदी के आगे त्रय कटनी सुन्दर दिखती हैं।
पहली कटनी पर यक्ष शीश पर धर्मचक्र चारों दिश हैं।।
दूजी कटनी पर आठ महाध्वज नवविधि मंगल द्रव्य धरे।
तीजी कटनी पर गंधकुटी पर जिनवर दर्शन पाप हरें।।
जय जय जिनवर सिंहासन पर चतुरंगुल अधर विराज रहे।
जय जय जिनवर की दिव्यध्वनी सुनकर सब भविजन तृप्त भये।।
सब जातविरोधी प्राणीगण, आपस में मैत्री भाव धरें।
जो पूजें ध्यावें गुण गावें वे जिनगुण संपति प्राप्त करें।।
—दोहा—
चतुर्मुखी ब्रह्मा तुम्हीं, ज्ञान व्याप्त जग विष्णु।
देवों के भी देव हो, महादेव अरि जिष्णु।।
इस प्रकार से मैंने संक्षेप में समवसरण का वर्णन किया है। तीर्थंकर प्रकृति का उदय आने पर ही यह बाह्य वैभव के रूप में समवसरण की लक्ष्मी प्राप्त होती है और अंतरंग वैभव के रूप में अनंत चतुष्टय प्राप्त होते हैं। हरिवंश पुराण में भगवान नेमिनाथ के समवसरण का बड़ा ही सुन्दर वर्णन आया है कि समवसरण में एक हजार खम्भों पर खड़ा एक महोदय नाम का मण्डप है। आगे सुवर्णमय पीठ में लोग भगवान की पूजा करते हैं, उसके आगे लोक, मध्यलोक, मंदर, कल्पवास आदि नामों वाले अनेक स्तूप हैं। वहाँ गणधर देव की इच्छा करते ही एक दिव्य पुर बन जाता है क्योंकि मन:पर्यय ज्ञान के धारक गणधर भगवन्तों का प्रभाव महान होता है।

अथ त्रैलोक्यसारैकसंदोहमयमद्भुतम्।
भाति भर्तृप्रभावोत्थं तत्पदं बहुविस्मयम्।।

भगवान के प्रभाव से उत्पन्न वह नगर, तीन लोक के समस्त श्रेष्ठ पदार्थों के समूह से युक्त, बहुत भारी आश्चर्य उत्पन्न करता हुआ सुशोभित होता है।

कृतावधानस्तत्सिद्धिं भूय: स्रष्टापि चिन्तयन्।
ध्रुवं मोमुह्यतेऽन्यस्य तथा चेत्तत्र का कथा।।

उसका बनाने वाले कुबेर भी एकाग्रचित्त हो उसके बनाने का पुन: विचार करे तो वह भी नियम से भूल कर जायेगा फिर अन्य मनुष्य की बात ही क्या है?
हरिवंश पुराण में बारह सभाओं का क्रम इस प्रकार बताया है—१. मुनि, २. कल्पवासी देवियाँ, ३. आर्यिका, ४. ज्योतिषी देवियाँ, ५. व्यंतर देवियाँ, ६. भवनवासी देवियाँ, ७. भवनवासी देव, ८. व्यन्तर देव, ९. ज्योतिषी देव, १०. कल्पवासी देव, ११. मनुष्य, १२. तिर्यंच पशुगण।
इस समवसरण रचना का वर्णन जब मैं कल्पद्रुम विधान में लिखती थी तो मुझे बाह्य व्यवस्था का कोई भान नहीं रहता था। मैं मन से पूर्णरूपेण समवसरण में ही पहुँच जाती थी अत: मुझे लगता था कि मैं इस धरती पर नहीं, बल्कि कहीं आकाश में भ्रमण कर रही हूँ। आप भी समवसरण का दर्शन मन से अवश्य करें। सन् १९९७ में जब दिल्ली में चौबीस कल्पद्रुम विधानों का महान आयोजन हुआ था तो धरती पर मानो स्वर्ग उतर आया था, चौबीस-चौबीस समवसरणों का दर्शन-पूजन करके लाखों भक्तों ने अपना जन्म सफल किया था। केसरिया परिधान में स्वर्ग से उतरते हुए इन्द्रों जैसा वातावरण बन गया था।
उस समवसरण का समाचार जब भरत चक्रवर्ती ने सुना था तब दो अन्य समाचार अंत:पुर में पुत्र रत्न की उत्पत्ति और आयुधशाला में चक्ररत्न की उत्पत्ति को सुनकर भी पहले उन्होंने धर्मपुरुषार्थ का सेवन करते हुए समवसरण में जाने का निर्णय लिया था, यह उनके महान पुण्य का ही उदय कहना पड़ेगा अन्यथा संसारी मानव सर्वप्रथम जाकर पुत्र का मुख देखेगा, पुन: अपने चक्ररत्न को देखेगा उसके बाद कहीं वह समवसरण में जाकर प्रभु की उपासना करेगा। आप भी पुण्यशाली भरत के समान अपनी धर्मभावना का परिचय देते हुए सातिशय पुण्य का संचय करें और अपने स्वर्ग-मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करें यही मंगल कामना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-६६

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! आदिपुराण ग्रन्थ भगवान ऋषभदेव के पुण्य कथानकों से भरा हुआ रत्नों के खजाने के समान है। उसमें ऋषभदेव के समवसरण का वर्णन मैंने बताया है। भगवान का समवसरण बना है और इधर अयोध्या नगरी में राजा भरत को भी ज्ञात होता है, उस समय का वर्णन श्री जिनसेनाचार्य ने किया है—

श्रीमान् भरतराजर्षिर्बुबुधे युगपत्त्रयम्।
गुरो: कैवल्य सूतिं च सुतचक्रयो:।।

राज्यलक्ष्मी से युक्त राजर्षि भरत को एक ही साथ तीन समाचार ज्ञात हुये कि पूज्य पिता को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, अन्त:पुर में पुत्र का जन्म हुआ है और आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ है।

धर्मस्थाद् गुरु कैवल्यं चक्रमायुधपालत:।
काञ्चुकीयात् सुतोत्पत्तिं विदामास तदा विभु:।।

उस समय भरत महाराज ने वनमाली से पिता को केवलज्ञान होने का समाचार, आयुधशाला की रक्षा करने वाले पुरुष से चक्ररत्न प्रकट होने का वृतान्त और वंâचुकी से पुत्र उत्पन्न होने का समाचार मालूम किया था।
ये तीनों ही कार्य एकसाथ हुये हैं, इनमें से पहले किसका उत्सव करना चाहिये यह सोचते हुये राजा भरत क्षणभर के लिये िंचतित हो गये। पुण्यतीर्थ अर्थात् भगवान को केवलज्ञान उत्पन्न होना, पुत्र की उत्पत्ति होना और चक्ररत्न का प्रकट होना ये तीनों ही धर्म, अर्थ, काम तीन वर्ग के फल मुझे एकसाथ प्राप्त हुये हैं। इनमें से भगवान के केवलज्ञान उत्पन्न होना धर्म का फल है, पुत्र का होना काम का फल है और दैदीप्यमान चक्र का प्रकट होना अर्थ प्राप्त कराने वाले अर्थ पुरुषार्थ का फल है अथवा यह सभी धर्मपुरुषार्थ का पूर्ण फल है क्योंकि अर्थ धर्मरूपी वृक्ष का फल है और काम उसका रस है। सब कार्यों में सबसे पहले धर्मकार्य ही करना चाहिये क्योंकि वह कल्याणों को प्राप्त कराने वाला है और बड़े-बड़े फल देने वाला है इसलिये सर्वप्रथम जिनेन्द्र भगवान की पूजा ही करनी चाहिये। इस प्रकार राजाओं के इन्द्र भरत महाराज ने सबसे पहले भगवान की पूजा करने का निश्चय किया क्योंकि धर्मात्मा पुरुषों की चेष्टाएँ प्राय: पुण्य उत्पन्न करने वाली ही होती हैं।
पुन: महाराज भरत अपने छोटे भाई, अन्त:पुर की स्त्रियाँ और नगर के मुख्य-मुख्य लोगों के साथ पूजा की बड़ी भारी सामग्री लेकर जाने के लिये तैयार हुये। गुरुदेव भगवान ऋषभदेव में उत्कृष्ट भक्ति को बढ़ाते हुये और धर्म की प्रभावना करते हुये महाराज भरत भगवान की वन्दना के लिये चल पड़े। देखो! भरत को यह सब वैभव प्राप्त होना भी उनके पूर्व पुण्य का ही प्रतिफल था। श्रीगुणभद्राचार्य ने आत्मानुशासन ग्रन्थ में कहा है—
‘‘धर्मारामतरूणां फलानि सर्वेन्द्रियार्थ सौख्यानि।’’
अर्थात् समस्त इन्द्रिय-सुख धर्मरूपी बगीचे के ही फल होते हैं।
राजा भरत अपने पूरे परिकर के साथ समवसरण में पहुँच गये और भगवान की वृहत् पूजा की। भरत के एक भाई—वृषभसेन, जो पुरिमतालपुर के राजा थे वे भी आ गये और ब्राह्मी-सुन्दरी बहनें भी समवसरण में आ गयीं। वृषभसेन ने मुनि दीक्षा धारण कर ली तथा ब्राह्मी-सुन्दरी ने आर्यिका दीक्षा ले ली।
इसमें मुनि वृषभसेन भगवान के प्रथम गणधर हो गये, राजकन्या ब्राह्मी माता आर्यिकाओं में प्रमुख गणिनी बन गयीं। पुन: सुन्दरी कन्या ने भी दीक्षा धारण कर ली। इस प्रकार राजा भरत समवसरण के प्रमुख श्रोता बने। श्रुतकीर्ति नाम के श्रावक ने श्रावक व्रत ग्रहण किये अत: मुख्य श्रावक हुआ एवं प्रियव्रता नाम की सती महिला ने श्राविका व्रतों से प्रमुख श्राविका का पद प्राप्त कर लिया। फाल्गुन कृष्णा एकादशी को भगवान का प्रथम देशना दिवस है इसे ‘‘ऋषभ शासन जयन्ती’’ के रूप में मनाना चाहिये। मैं हमेशा कहा करती हूँ कि इस पर्व पर देशना दिवस के उपलक्ष्य में ऋषभ शासन व्रत भी करना चाहिये, यह व्रत ११ वर्ष तक फाल्गुन कृष्णा एकादशी को किया जाता है।
वर्तमान में जितना भी श्रुत है वह सब भगवन्तों की दिव्य ध्वनि से प्राप्त द्वादशांग का अंश ही ‘‘नद्या नवघटे जलं’’ की भाँति ही जानना चाहिये। महापुराण ग्रन्थ भी उसी में से प्रथमानुयोग का आर्ष ग्रन्थ माना जाता है। इस रत्नाकरस्वरूप ग्रन्थ की वाणी से आप सभी को अपना मन पावन करना चाहिये।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-६७

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! समवसरण के अधिनायक भगवान ऋषभदेव बारह सभाओं से वेष्टित गंधकुटी के ऊपर विराजमान थे और आठ प्रातिहार्यों से समन्वित होकर सुमेरु पर्वत के समान सुशोभित होते थे। आठ प्रातिहार्यों में दिव्यध्वनि भी एक प्रातिहार्य है। सहस्रनाम विधान की एक जयमाला में मैंने इन प्रातिहार्यों का वर्णन गूँथा है—
—दोहा—
तीन लोक में श्रेष्ठतम, जिनवर विभव प्रधान।
प्रातिहार्य की संपदा, तीर्थंकर पहिचान।।
—चामरछंद—
अशोक वृक्ष रत्नकाय चित्रवर्ण का धरे।
हरितमणी की पत्तियाँ हवा लगे हि थरहरें।।
नवीन कोपलों समेत राग को स्वयं धरे।
तथापि भक्त के समस्त राग भाव को हरे।।
अर्थात् प्रथम प्रातिहार्य अशोक वृक्ष है। पृथ्वीकायिक रत्नों से निर्मित वह अशोक वृक्ष हरी-हरी पत्तियों और लाल-लाल कोंपलों से सहित होता है जिसे देखकर सभी भव्यों का शोक दूर हो जाता है।
सुपूर्णचन्द्र के समान तीन छत्र शोभते।
अनेक मोतियों समेत भव्य चित्त मोहते।।
जिनेन्द्र के त्रिलोक ऐश्वर्य को बतावते।
भवाग्नि ताप भव्य जीव का सभी नशावते।।
दूसरा प्रातिहार्य है ‘‘तीन छत्र’’। ये तीन छत्र भगवान के तीनों लोकों की ईश्वरता को बताते हैं। संसार ताप को दूर करने वाले ये छत्र सभी भव्यों का ताप हरण करते हैं।
तीसरा प्रातिहार्य ‘‘सिंहासन’’ है। उस पर भगवान चार अंगुल अधर विराजमान रहते हैं।
चतुर्थ ‘‘दिव्यध्वनि’’ नाम का प्रातिहार्य है।
अनेक रत्न के समूह युक्त सिंह पीठ है।
सपेâद सुस्फटीकरत्न से बना प्रसिद्ध है।।
अपूर्व पद्म पे अधर जिनेंद्र देव राजते।
नमो नमो पदारिंवद सर्व पाप नाशते।।
प्रगाढ़ भक्ति से समस्त भव्य मोद से भरे।
स्वहस्त जोड़ आपके सभी तरफ रहें घिरे।।
सुधा झरी ध्वनी सुने स्वकर्म कालिमा हरें।
शनै: शनै: निजात्म ध्याय सिद्धि कन्यका वरें।।
अर्थात् ७१८ भाषारूप भगवान की दिव्यध्वनि खिरती है जिसे सुनकर सभी भव्यजन अपनी-अपनी भाषा में भगवान की वाणी समझ लेते हैं।
पाँचवें ‘‘देवदुंदुभी’’ नामक प्रातिहार्य में देवतागण आगे-आगे सभी को भगवान के समवसरण की सूचना देते हैं। पुष्पवृष्टि छठा प्रातिहार्य है। भगवान के आस-पास बारह योजन तक देवतागण पुष्पवृष्टि करते हैं।
विषय कषाय शून्य नाथ पाद शर्ण आइये।
अनंत जन्म के समस्त कर्म को नशाइये।।
इतीव सूचना करंत देव दुंदुभी बजे।
सुभव्यजीव कर्ण से सुने प्रमोद को भजें।।
अनेक देव भक्ति से सुपुष्प वृष्टि को करें।
समस्त पुष्प वृंत्त को अधो किये धरा गिरे।।
खिले खिले सुवर्ण पुष्प हर्ष को बढ़ावते।
सुदेख देख भक्त वृंद, पुण्य को बढ़ावते।।
सातवाँ प्रातिहार्य ‘भामण्डल’’ है। इसमें भव्य जीव अपने सात भव देख लेते हैं। पिछले तीन भव, अगले तीन भव और वर्तमान का एक भव। ये सात भव भामण्डल में दिखते हैं। जो उसी भव से मोक्ष जाने वाले हैं वे भामण्ड में उसी भव का वर्णन देखते हैं और पिछले तीन भवों का तो देखते ही हैं।
प्रभासुचक्र नाथ आप ज्योतिपुंज रूप हैं।
अनेक सूर्य कोटि की प्रभा हरे अनूप हैं।।
सुभव्य को सदैव सात भव दिखावता रहे।
जिनेंद्र का अपूर्व तेज नित्य पावता रहे।।
सुवुंâद पुष्प के समान श्वेत चामरों लिये।
सुयक्षदेव ढोरते अतुल्य भक्ति को लिये।।
चंवर सदैव ऊध्र्व जाय भव्य सूचना करें।
जिनेंद्र भक्त नित्य एक ऊध्र्व ही गती धरें।।
आठवाँ प्रातिहार्य है ‘‘६४ चंवर ढुराना’’। इन सभी प्रातिहार्यों से युक्त तीर्थंकर भगवान समस्त संसार का कल्याण करते हैं और स्वयं भी आत्मसुख में लवलीन रहते हैं। इस वर्णन वाली पूजन की जयमाला में मैंने अंत में भावना संजोयी है—
सुआठ प्रतिहार्य औ अनंत विभव धारते।
स्वभक्त को भवाब्धि से तुरन्त आप तारते।।
सुनी सुकीर्ति आपकी इसीलिए खड़ा यहाँ।
बस एक आश पूरिये न आवना हो फिर यहाँ।।
—दोहा—
स्वात्म सौख्य पीयूष रस, निर्झरणी वच आप।
‘ज्ञानमती’ सुख पूरिये, मिटे सकल संताप।।
बन्धुओं! इन जयमाला की पंक्तियों से बहुत ही आत्मिक शांति का अनुभव करती हूँ। जब-जब मुझे शारीरिक अस्वस्थता होती है तब मैं कभी इंद्रध्वज, कभी कल्पद्रुम, कभी सहस्रनाम आदि विधान पूजन की जयमालाएँ सुनती हूँ और मुझे अमृतपान जैसी स्वस्थता महसूस होती है। आप लोग भी हमेशा इन पूजन की जयमालाओं को पढ़-सुनकर शारीरिक और आत्मिक सुख प्राप्त कर सकते हैं। भगवान की भक्ति सबके लिये मंगलकारी हो यही मंगल भावना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-६८

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण ग्रन्थ में भगवान ऋषभदेव के समवसरण का प्रकरण आपने जाना है। सभी को समान रूप से शरण दे्नो वाला स्थान समवसरण कहलाता है। अयोध्या के सम्राट भरत ऋषभदेव के समवसरण में पहुँचकर अपने मनुष्यों के कोठे में बैठ गये। बारह सभाओं में ग्यारहवीं सभा श्रावकों की होती है उसी में उन्होंने स्थान ग्रहण किया और हाथ जोड़कर भगवान से उन्होंने प्रश्न किया—

भगवन् बोद्धुमिच्छामि कीदृशस्तत्त्वविस्तर:।
मार्गो मार्गफलं चापि कीदृक् तत्त्वविदां वर।।

हे भगवन्! तत्त्वों का विस्तार वैâसा है? मार्ग वैâसा है? और उसका फल भी वैâसा है? हे तत्त्वों को जानने वालों में श्रेष्ठ! मैं आपसे यह सब सुनना चाहता हूँ।

तत्प्रश्नावसितावित्थं भगवानादितीर्थकृत्।
तत्त्वं प्रपञ्चयामास गम्भीरतरया गिरा।।

इस प्रकार भरत का प्रश्न समाप्त होने पर प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने अतिशय गम्भीर वाणी के द्वारा तत्त्वों का विस्तार के साथ विवेचन किया।
कहते समय भगवान के मुखकमल पर कुछ भी विकार उत्पन्न नहीं हुआ, क्योंकि पदार्थों को प्रकाशित करते समय क्या दर्पण में कुछ विकार उत्पन्न होता है? अर्थात् नहीं होता है। उस समय भगवान के न तो तालु, होंठ आदि स्थान ही हिलते थे और न उनके मुख की कान्ति ही बदलती थी तथा जो अक्षर उनके मुख से निकल रहे थे उन्होंने प्रयत्न को छुआ भी नहीं था अर्थात् इन्द्रियों पर आघात किये बिना ही निकल रहे थे। जिसमें सब अक्षर स्पष्ट हैं ऐसी वह दिव्यध्वनि भगवान के मुख से इस प्रकार निकल रही थी जिस प्रकार कि किसी पर्वत की गुफा के अग्रभाग से प्रतिध्वनि निकलती है। भगवान की वह वाणी बोलने की इच्छा के बिना ही प्रकट हो रही थी, क्योंकि योगबल से उत्पन्न हुई महापुरुषों की शक्तिरूपी सम्पदाएँ अचिन्तनीय होती हैं अर्थात् उनके प्रभुत्व का कोई चिन्तवन नहीं कर सकता।
भगवान की दिव्यध्वनि की यही विशेषता होती है कि हम और आप जैसे साधारण मनुष्यों की तरह से शब्द आदि के द्वारा वाणी नहीं बोलते हैं, ॐकाररूप निरक्षरी उनकी ध्वनि सर्वांग से प्रगट होती है।
समन्तभद्रस्वामी ने भी रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है—

अनात्मार्थ विना रागे: शास्ता शास्ति सतो हितम्।
ध्वनन् शिल्पिकर-स्पर्शान्मुरज: किमपेक्षते।।

अर्थात् वे बिना राग-द्वेष के भव्यों के लिये हितकारी वाणी भगवान की दिव्यध्वनि के रूप में खिरती है। जैसे कि मुरज—ढोलक किसी की अपेक्षा किये बिना ही बजाने वाले के हाथ के स्पर्श से बजने लगता है। भगवान ऋषभदेव भरत के प्रश्नों का उत्तर देते हुए अपनी दिव्यध्वनि द्बारा उन्हें सम्बोधित करते हैं—
भगवान कहने लगे कि हे आयुष्मन्! अनेक भेद-प्रभेदों तथा पर्यायों से सहित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन द्रव्यों को सुनो। जीव आदि पदार्थों का यथार्थ स्वरूप ही तत्त्व कहलाता है, यह तत्त्व ही सम्यग्ज्ञान का अंग अर्थात् कारण है और यही जीवों की मुक्ति का अंग है। वह तत्त्व सामान्य रीति से एक प्रकार का है, जीव और अजीव के भेद से दो प्रकार है तथा जीवों के संसारी और मुक्त इस प्रकार दो भेद करने से संसारी जीव, मुक्त जीव और अजीव इस प्रकार से तीन भेद वाला भी कहा जाता है।
संसारी जीव दो प्रकार के माने गये हैं—एक भव्य और दूसरा अभव्य। इसलिये मुक्त जीव, भव्य जीव, अभव्य जीव और अजीव इस तरह वह तत्त्व चार प्रकार का भी माना गया है, अथवा जीव के दो भेद हैं—एक मुक्त और दूसरा संसारी। इसी प्रकार अजीव के भी दो भेद हैं—एक मूर्तिक और दूसरा अमूर्तिक। दोनों को मिला देने से भी तत्त्व के चार भेद निश्चित किये गये हैं।
पाँच अस्तिकायों के भेद से वह तत्त्व पाँच प्रकार का भी कहा है। अपनी-अपनी पर्यायों से सहित जीवास्तिकाय, पुदगलास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये पाँच अस्तिकाय कहे जाते हैं। उन्हीं पाँचों अस्तिकायों में काल के मिला देने से तत्त्व के छह भेद भी हो जाते हैं।
इस प्रकार विस्तारपूर्वक जानने की इच्छा करने वालों के लिये तत्त्वों का विस्तार अनन्त भेद वाला हो सकता है। जिसमें चेतना अर्थात् जानने-देखने की शक्ति पायी जाती है उसे जीव कहते हैं, वह अनादि निधन है अर्थात् द्रव्य-दृष्टि की अपेक्षा न तो वह कभी उत्पन्न हुआ है न कभी नष्ट ही होगा। इसके सिवाय वह ज्ञाता है—ज्ञानोपयोग से सहित है, दृष्टा है—दर्शनोपयोग से युक्त है, कर्ता है—द्रव्यकर्म और भाव कर्मों को करने वाला है, भोक्ता है—ज्ञानादि गुण तथा शुभ-अशुभ कर्मों के फल को भोगने वाला है और शरीर के प्रमाण के बराबर है—सर्वव्यापक और अणुरूप नहीं है।
वह अनेक गुणों से युक्त है, कर्मों का सर्वथा नाश हो जाने पर ऊध्र्वगमन करना उसका स्वभाव है और वह दीपक के प्रकाश की तरह संकोच तथा विस्ताररूप परिणमन करने वाला है अर्थात् नामकर्म के उदय से उसे जितना छोटा-बड़ा शरीर प्राप्त होता है वह उतना ही संकोच विस्ताररूप हो जाता है। उस जीव का अन्वेषण करने के लिये गति आदि चौदह मार्गणाओं का निरूपण किया गया है। इसी तरह चौदह गुणस्थान और सत्संख्या आदि अनुयोगों के द्वारा भी वह जीवतत्त्व अन्वेषण करने के योग्य है अर्थात् मार्गणाओं, गुणस्थानों और सत्संख्या आदि अनुयोगों के द्वारा जीव का स्वरूप समझा जाता है।
भगवान ने अपनी दिव्यध्वनि से प्रत्येक प्राणी के लिये हितकारी वाणी में उपदेश देकर सभी को आत्मा का सार बताया। जो पर्याय पहले नहीं थी उसका उत्पन्न होना ‘‘उत्पाद’’ कहलाता है, किसी पर्याय का उत्पाद होकर नष्ट हो जाना ‘‘व्यय’’ कहलाता है और दोनों पर्यायों में उस रूप होकर रहना ‘‘ध्रौव्य’’ कहलाता है। इस प्रकार यह आत्मा उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य इन तीनों लक्षणों से सहित है। अपने-अपने स्वभाव से युक्त आत्मा को नहीं जानते हुए मिथ्यादृष्टि पुरुष उसका स्वरूप अनेक प्रकार से मानते हैं और परस्पर में विवाद करते हैं। कितने ही मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि आत्मा नाम का पदार्थ ही नहीं है, कोई कहते हैं कि वह अनित्य है, कोई कहते हैं कि वह कर्ता नहीं है, कोई कहते हैं कि वह भोक्ता नहीं है, कोई कहते हैं कि आत्मा नाम का पदार्थ है तो सही परन्तु उसका मोक्ष नहीं है, और कोई कहते हैं कि मोक्ष भी होता है परन्तु मोक्ष प्राप्ति का कुछ उपाय नहीं है।
इसलिये हे आयुष्मन् भरत! इन अनेक मिथ्या नयों को छोड़कर समीचीन नयों के अनुसार जिसका लक्षण कहा गया है ऐसे जीवतत्त्व का तू श्रद्धान कर। उस जीव की दो अवस्थायें मानी गयी हैं—एक संसारी और दूसरी मोक्ष। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चार भेदों से युक्त संसाररूपी भँवर में परिभ्रमण करना ‘‘संसार’’ कहलाता है और समस्त कर्मों का बिलकुल ही क्षय हो जाना ‘‘मोक्ष’’ कहलाता है। वह मोक्ष अनन्त सुखस्वरूप है तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप साधन से प्राप्त होता है। सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और समीचीन पदार्थों का बड़ी प्रसन्नतापूर्वक श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना गया है। यह सम्यग्दर्शन मोक्ष-प्राप्ति का पहला साधन है।
जीव, अजीव आदि पदार्थों के यथार्थस्वरूप को प्रकाशित करने वाला तथा अज्ञानरूपी अन्धकार की परम्परा के नष्ट हो जाने के बाद उत्पन्न होने वाला जो ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है।
इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में समताभाव धारण करने को सम्यक्चारित्र कहते हैं। वह सम्यक्चारित्र यथार्थरूप से तृष्णा रहित, मोक्ष की इच्छा करने वाले, वस्त्र रहित और हिंसा का सर्वथा त्याग करने वाले दिगम्बर मुनिराज के ही होता है।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर ही मोक्ष के कारण कहे गये हैं। यदि इनमें से एक भी अंग की कमी हुई तो वह अपना कार्य सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकते। सम्यग्दर्शन के होते हुए ही ज्ञान और चारित्र फल देने वाले होते हैं और इसी प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के रहते ही सम्यग्ज्ञान मोक्ष का कारण होता है।
भव्यात्माओं! संसार में कोई ऐसी चीज नहीं है जो भगवान की दिव्यध्वनि से पृथक् हो अर्थात् उन्होंने समस्त संसार और मोक्ष का उपदेश देकर भव्यात्माओं का पथ प्रशस्त किया था।। ऐसी उस जिनेन्द्रवाणी को शास्त्रों से पढ़कर आप भी अपने जीवन का कल्याण करें यही मंगल भावना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-६९

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! समवसरण में भगवान ऋषभदेव की दिव्यध्वनि को समस्त जनता के साथ-साथ सम्राट् भरत ने भी श्रद्धापूर्वक श्रवण किया—
अनन्त चतुष्टय लक्ष्मी के धारक भगवान ऋषभदेव ने तिरेसठ पटलों से युक्त स्वर्ग, देवों की आयु और उनके भोगों का विस्तार, मोक्ष-स्थान तथा लोक-नाड़ी का भी वर्णन किया। जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव ने तीर्थंकर, चक्रवर्ती और अर्ध-चक्रवर्तियों के पुराण, तीर्थंकरों के कल्याणक और उनके हेतु स्वरूप सोलह कारण भावनाओं का भी निरूपण किया। जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव ने, अमुक जीव मर कर कहाँ-कहाँ पैदा होता है ? अमुक जीव कहाँ-कहाँ से आकर पैदा हो सकता है ? जीवों की उत्पत्ति, विनाश, भोग सामग्री, विभूतियाँ अथवा मुनियों की ऋद्धियाँ तथा मनुष्यों के करने और न करने योग्य काम आदि सबका निरूपण किया था। सबको जानने वाले और सबका कल्याण करने वाले भगवान ऋषभदेव ने भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल सम्बन्धी सब द्रव्यों का स्वरूप भरत के लिये बतलाया था। इस प्रकार जगद्गुरु परमपुरुष भगवान ऋषभदेव से तत्त्वों का स्वरूप सुनकर भक्ति से भरे हुए महाराज भरत परम आनन्द को प्राप्त हुये।
उस समय भरत के परिणामों में अत्यन्त विशुद्धि उत्पन्न हो गयी और उन्होंने क्षायिक सम्यग्दर्शन के साथ-साथ अणुव्रतों को ग्रहण कर लिया पुन: अपने समस्त भाइयों एवं परिजनों के साथ वे वापस अयोध्या लौट आये।
महानुभावों! यह तो इस कर्मयुग की आदि में भगवान ऋषभदेव की दिव्यध्वनि का िंकचित् वर्णन आपने सुना है। इसी प्रकार सभी तीर्थंकर भगवन्तों की दिव्यध्वनि खिरी है जिसमें अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर की दिव्यध्वनि के अनुसार गौतम गणधर ने द्वादशांग की रचना की, उसी वाणी के अंशरूप जिनवाणी—ग्रंथ आज विद्यमान हैं। मैं आपको यहाँ एक विशेष बात बताती हूँ कि भगवान ऋषभदेव के काल में प्रयाग में १२ बातें प्रथम बार हुई हैं—
१. प्रथम बार भगवान ने केशलोंच किया।
२. भगवान ने प्रथम बार जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की।
३. दीक्षा लेते ही भगवान को प्रथम बार मन:पर्यय ज्ञान उत्पन्न हुआ।
४. छह माह का योग लेकर ध्यान का सूत्रपात किया।
५. वहाँ से चलकर प्रथम आहार हस्तिनापुर में हुआ, पुन: केवलज्ञान वहीं प्रयाग में हुआ।
६. प्रथम बार वहाँ आकाश में अधर भगवान के समवसरण की रचना बनी।
७. उनके पुत्र वृषभसेन प्रथम गणधर वहीं बने।
८. वहीं पर दीक्षा लेकर ब्राह्मी प्रथम आर्यिका गणिनी हुई।
९. भरत प्रथम एवं मुख्य श्रोता बने।
१०. प्रथम श्रावक श्रुतकीर्ति बने।
११. प्रियव्रता प्रथम श्राविका बनीं।
१२. भगवान की प्रथम दिव्यध्वनि प्रयाग में खिरी।
ऐसी पावन पुण्यभूमि प्रयाग तीर्थ के दर्शन आप अवश्य करें। वहाँ बनारस हाइवे पर निर्मित तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ पर ये सब कथानक दर्शाये गये हैं।
आज कुछ अध्यात्मप्रेमी लोग कह देते हैं कि ये सब पुराण ग्रन्थ तो कथाओं के ग्रन्थ हैं। इनको पढ़ने से क्या लाभ होगा? अरे भाई! ये पुराणग्रन्थ हमारे आदर्श हैं, इन्हें अवश्य ही पढ़ना चाहिये जिससे जीवन निर्माण की दिशा मिलती है। मैंने बचपन में ऐसी अनेक छोटी-छोटी कथाओं को ही पढ़कर अपना उत्थान किया है। शीलकथा, दर्शन कथा, ब्राह्मी-सुन्दरी, चंदना आदि सतियों के कथानक पढ़कर मैंने अपने पिता को समझाया था कि देखो! संसार में प्रत्येक मनुष्य दीक्षा लेने का अधिकारी होता है। वे जब भी मुझे ब्रह्मचर्य व्रत लेने से रोकते थे तो मैं ऐसी प्राचीन कथाएँ सुनाकर उन्हें उत्तर देते थी। मेरे मामा ने आकर मुझे समझाया तो मैं कभी पद्मनंदिपंचविंशतिका के श्लोक और कभी ब्राह्मी-सुन्दरी आदि की कथा सुनाती। मेरे हृदय में अकलंक-निकलंक ही यह पंक्ति बैठी थी—
‘‘प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरं’’
अर्थात् कीचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा कीचड़ में पैर नहीं रखना अच्छा है….. इत्यादि। अत: मेरा कहना है कि आप भी कभी प्रथमानुयोग की उपेक्षा न करें, वही संकट के समय उद्बोधन प्रदान करता है। ऐसा प्रथमानुयोग का वर्णन करने वाला आर्षग्रन्थ आदिपुराण आप सबका कल्याण करे यही मंगल भावना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-७०

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण ग्रन्थ के आधार से आपने जाना है कि भगवान ऋषभदेव को केवलज्ञान के पश्चात् आकाश में अधर समवसरण की रचना हो गयी थी, पुन: उन्होंने अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा संसारी प्राणियों को मोक्षमार्ग का उपदेश दिया था। वही वाणी द्वादशांग के नाम से प्रसिद्ध हुई। उस द्वादशांग को श्रुतदेवी के रूप में भी आचार्यों ने स्वीकार किया है।

बारह अंगंगिज्जा दंसणतिलया चरित्तवत्थहरा।
चोद्दसपुव्वाहरणा, ठावयदव्वा य सुयदेवी।।

अर्थात् बारह अंगों से समन्वित श्रुतदेवी सम्यग्दर्शनरूपी तिलक से, चारित्ररूपी वस्त्र से एवं चौदहपूर्वरूपी आभरणों से शोभायमान होती हैं।
प्रामाणिक वक्ता तीन प्रकार के होते हैं—तीर्थंकर भगवान, गणधर देव और उनके परम्परागत आचार्य। गणधर देव ने जिस द्वादशांग वाणी को गूँथा था वह लिपिरूप नहीं थी, लिपिबद्ध तो उनके पश्चात्वर्ती आचार्यों ने किया है। उस द्वादशांग के नाम इस प्रकार हैं—आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्तिअंग, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग।
आज दिगम्बर जैन परम्परा में द्वादशांगरूप ग्रन्थ नहीं माने हैं। हाँ, जो भी ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध हैं वे उसके अंश अवश्य हैं।
देखो! प्रथम आचारांग में मुनि एवं श्रावकों के आचार का वर्णन है जैसे कि—

कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सए।
कधं भुंजेज्ज भासेज्ज कधं पावं ण बज्झई।।

अर्थात् किस प्रकार चलना चाहिये ? किस प्रकार खड़े रहना चाहिये ? किस प्रकार बैठना चाहिये ? किस प्रकार शयन करना चाहिये ? किस प्रकार भोजन करना चाहिये ? किस प्रकार संभाषण करना चाहिये ? कि जिससे पापकर्म नहीं बंधता है।
इस तरह गणधर देव के प्रश्नों के अनुसार भगवान उत्तर देते हैं—

जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सए।
जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झई।।

यत्न से चलना चाहिये, यत्नपूर्वक खड़े रहना चाहिये, यत्नपूर्वक बैठना चाहिये, यत्नपूर्वक शयन करना चाहिये, यत्नपूर्वक भोजन करना चाहिये, यत्नपूर्वक संभाषण करना चाहिये। इस प्रकार आचरण करने से पापकर्म का बंध नहीं होता है। इत्यादि रूप से मुनियों के आचार का, मूलगुण और नाना प्रकार के उत्तरगुणों का वर्णन इस अंग में पाया जाता है।
दूसरा अंग है—सूत्रकृतांग। इस अंग में ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्याकल्प्य, छेदोपस्थापना और व्यवहार धर्मक्रिया का प्ररूपण होता है तथा यह स्वसमय और परसमय का भी निरूपण करता है।
तीसरा स्थानांग है। यह अंग उत्तरोत्तर एक-एक अधिक स्थानों का वर्णन करता है। जैसे कोई महात्मा अर्थात् यह जीवद्रव्य निरन्तर चैतन्यरूप धर्म से उपयुक्त होने के कारण उसकी अपेक्षा एक ही है। ज्ञान और दर्शन के भेद से वह दो प्रकार का है। कर्मफलचेतना, कर्मचेतना और ज्ञानचेतना से लक्ष्यमाण होने के कारण तीन भेदरूप है। चारों गतियों में परिभ्रमण की अपेक्षा इसके चार भेद हैं। औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन पाँच प्रधान गुणों से युक्त होने के कारण इनके पाँच भेद हैं। भवान्तर में जाते समय पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर और नीचे इस तरह छह संक्रमण लक्षण अपक्रमों से युक्त होने के कारण छह प्रकार है। अस्ति, नास्ति इत्यादि सात भंगों से युक्त होने की अपेक्षा सात प्रकार का है। ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के आश्रय से सहित होने के कारण आठ प्रकार का है। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप इन नौ पदार्थों को विषय करने वाला अथवा इन नौ पदार्थोंरूप परिणमन करने वाला होने की अपेक्षा से नौ प्रकार का है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येक वनस्पतिकायिक, साधारण वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियजाति, इन दस भेद से दस स्थानगत होने की अपेक्षा दस प्रकार का कहा जाता है। इत्यादिरूप से जितने भी भेद संभव हैं उन सबका यह अंग वर्णन करता है।
चौथा अंग समवायांग है। यह अंग सम्पूर्ण पदार्थों के समवाय का वर्णन करता है, अर्थात् सादृश्य-सामान्य से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा जीवादि पदार्थों का ज्ञान कराता है। वह समवाय चार प्रकार का है—द्रव्यसमवाय, क्षेत्रसमवाय, कालसमवाय और भावसमवाय। उनमें से द्रव्यसमवाय की अपेक्षा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश समान हैं। क्षेत्र समवाय की अपेक्षा प्रथम नरक के प्रथम पटल का सीमंतक नाम का इन्द्रक बिल, ढाई द्वीप प्रमाण मनुष्य क्षेत्र, प्रथम पटल का ऋजु नामक इन्द्रक विमान और सिद्धक्षेत्र ये समान हैं। काल की अपेक्षा एक समय एक समय के बराबर है और एक मुहूर्त एक मुहूर्त के बराबर है। भाव की अपेक्षा केवलज्ञान केवलदर्शन के समान है, क्योंकि ज्ञेयप्रमाण ज्ञान है और ज्ञानमात्र चेतना की उपलब्धि होती है।
पांचवाँ अंग व्याख्या प्रज्ञप्ति अंग है। यह अंग क्या जीव है ? क्या जीव नहीं है ? इत्यादिरूप से साठ हजार प्रश्नों का व्याख्यान करता है।
छठा ज्ञातृधर्मकथांग है। इस अंग का नाथधर्मकथा नाम भी है। यह सूत्र पौरुषी अर्थात् सिद्धान्तोक्त विधि से स्वाध्याय की प्रस्थापना हो इसलिये, तीर्थंकरों की धर्मादेशना का, संदेह को प्राप्त गणधर के संदेह को दूर करने की विधि का तथा अनेक प्रकार की कथा और उपकथाओं का वर्णन करता है।
सातवाँ अंग है—उपासकाध्ययन। यह अंग दार्शनिक, व्रतिक, सामायिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तिविरत, ब्रह्मचारी, आरम्भविरत, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरत इन ग्यारह प्रकार के श्रावकों के लक्षण, उन्हीं के व्रत धारण करने की विधि और उनके आचरण का वर्णन करता है।
इस अंग के अनुसार दो प्रतिमा से लेकर सातवीं प्रतिमा तक को धारण करने वाले श्रावकगण घर में भी रह सकते हैं। उससे आगे आठवीं प्रतिमाधारी, नवमी-दशवीं प्रतिमा का पालन करने वाले श्रावक लोग साधु संघ में रहते हैं और ग्यारहवीं प्रतिमाधारी क्षुल्लक-क्षुल्लिका होते हैं जो साधु-साध्वी कहलाते हैं।
महाराज श्रेणिक के पुत्र वारिषेण घर में रहकर भी अष्टमी-चतुर्दशी को जंगल में जाकर नग्न होकर ध्यान करते थे। एक दिन वे ध्यान में लीन थे, तब विद्युच्चर नामक चोर एक हार चुराकर भागा और द्वारपालों के पीछा किये जाने पर वह वारिषेण के पास डालकर भाग गया। सिपाहियों ने वारिषेण के पास हार देखकर उसे चोर समझा। तब राजा ने अपने पुत्र वारिषेण को जान से मारने का आदेश दे दिया। उनके ऊपर तलवार का प्रहार होने के बावजूद भी वह (तलवार) पुष्पमाला बन गई। पुन: उन्होंने माता-पिता द्वारा क्षमायाचना करने पर भी दीक्षा धारण कर ली।
महानुभावों! वर्तमान में ऐसे तपस्वी श्रावक नहीं है, फिर भी आप सभी को ऐसे उदाहरणों को सुनकर अपने हृदय में संसार से थोड़ा वैराग्य धारण करना चाहिये।
इस प्रकार के उपासकाध्ययन अंग के अंशरूप शास्त्र पढ़कर उन्हें अपने जीवन में उतारें यही मंगल प्रेरणा है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिन्श्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-७१

(पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा)
प्रस्तुति-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

महानुभावों! भगवान की दिव्यध्वनि से नि:सृत द्वादशांग के अन्तर्गत आठवें अंग के विषय में आपको जानना है। युग की आदि में भगवान ऋषभदेव के समवसरण में उन्हीं के तृतीय पुत्र वृषभसेन भगवान के प्रथम गणधर बनकर उनकी दिव्यवाणी को ग्रहण कर रहे हैं, भरत सम्राट् वहाँ प्रमुख श्रोता के रूप में सुन रहे हैं।
आठवें अंतकृद्दशांग अंग में एक-एक तीर्थंकर के तीर्थ में नाना प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहन कर और प्रातिहार्य अर्थात् अतिशय विशेषों को प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त हुये दश-दश अंतकृत केवलियों का वर्णन है।
तत्त्वार्थ भाष्य में भी कहा है—जिन्होंने संसार का अन्त किया उन्हें अन्तकृत् केवली कहते हैं। वद्र्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में नमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यमलीक, वलीक, किष्वंâबिल, पालम्ब, अष्टपुत्र ये दस अन्तकृत् केवली हुए हैं। इसी प्रकार ऋषभदेव आदि तेईस तीर्थंकरों के तीर्थ में अन्य दूसरे दस-दस अनगार मुनि दारुण उपसर्गों को जीतकर सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से अन्तकृत् केवली हुये। इन सबकी दशा का जिसमें वर्णन किया जाता है उसे अन्तकृद्दशा नाम का अंग कहते हैं।
पुन: नवमाँ अंग है अनुत्तरौपपादिकदशांग। यह अंग एक-एक तीर्थ में जो नाना प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहकर और प्रातिहार्य अर्थात् अतिशय विशेषों को प्राप्त करके पाँच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुये हैं उन दस-दस अनुत्तरौपपादिकों का वर्णन करता है। तत्त्वार्थ भाष्य में भी कहा है—उपपादजन्म ही जिनका प्रयोजन है उन्हें औपपादिक कहते हैं। विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पाँच प्रकार के अनुत्तर विमान हैं। जो अनुत्तरों में उपपाद जन्म से पैदा होते हें उन्हें अनुत्तरौपपादिक कहते हैं। ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिकेय, आनन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय, वारिषेण और चिलातपुत्र ये दस अनुत्तरौपपादिक वर्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में हुए हैं। इसी तरह ऋषभनाथ आदि तेईस तीर्थंकरों के तीर्थ में अन्य दस-दस महासाधु दारुण उपसर्गों को जीतकर विजय आदिक पाँच अनुत्तरों में उत्पन्न होने वाले दस साधुओं का जिसमें वर्णन किया जाये उसे अनुत्तरौपपादिक नाम का अंग कहते हैं।
इसमें मैं आपको संक्षेप में चिलाती कुमार के बारे में बताती हूँ—
राजगृही में श्रेणिक के पिता उपश्रेणिक हुए हैं। अपनी तिलकवती रानी को पूर्व में दिये गये वचन के अनुसार वे अपनी उस रानी के पुत्र चिलाती को राजगृही का राजा बनाना चाहते थे किन्तु योग्यता के अनुसार उनके पुत्र श्रेणिक राज्य संभालने में सक्षम थे। तब उपश्रेणिक ने एक दिन ज्योतिषी एवं मंत्रियों से परामर्श करके परीक्षा लेने हेतु सभी पुत्रों के भोजन के समय शिकारी कुत्ते छुड़वा दिये। उससे घबराकर सभी तो भोजन छोड़-छोड़कर भाग गये किन्तु श्रेणिक ने चतुराई से काम लिया और अपने बाएँ हाथ से वे थाली से भोजन निकाल-निकालकर कुत्तों के लिये दूर डालने लगे तथा दाहिने हाथ से स्वयं भोजन करने लगे, इससे उनका निर्विघ्न भोजन हो गया। अत: वे राज्य के अधिकारी बन गये किन्तु उन्हें आरोप लगाकर कि इन्होंने कुत्तों का झूठा भोजन खाया है, उन्हें राज्य के लिये अयोघ्य घोषित कर दिया गया।
पुन: राजा ने रानी तिलकवती के पुत्र चिलाती को राज्य सौंप दिया किन्तु वह राज्य संभाल न सका, तब वह कहीं जंगल में जाकर किला बनाकर अलग रहने लगा। एक दिन उसने एक कन्या का हरण कर लिया और संघर्ष के कारण उससे विवाह होते न देखकर उसने कन्या को मार डाला। वह कन्या मरकर व्यंतर देवी हो गयी। पुन: एक बार चिलाती ने मुनि के उपदेश से जैनेश्वरी दीक्षा ले ली, वह तपस्या कर रहे थे तब वह व्यंतर देवी ने कुअवधिज्ञान से पूर्व भव की बात जान ली और वैर का बदला लेने हेतु उसने मुनि की दोनों आँखें निकाल लीं तथा सात दिन तक उनके ऊपर खूब उपसर्ग किया फिर भी मुनिराज चिलाती अपने ध्यान से नहीं डिगे और उपशम श्रेणी में जाकर ग्यारहवें गुणस्थान में मरकर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र देव हो गये। ऐसे दारुण उपसर्ग सहन करके अनुत्तर विमानों में जन्म लेने वालों का वर्णन करने वाला नवमां अंग है।
आगे दसवाँ अंग है प्रश्नव्याकरणांग। यह अंग आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी इन चार कथाओं का तथा भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल सम्बन्धी धन, धान्य, लाभ, अलाभ, जीवित, मरण, जय और पराजय सम्बन्धी प्रश्नों के पूछने पर उनके उपाय का वर्णन करता है।
आक्षेपणी कथा का क्या मतलब ?
जो नाना प्रकार की एकान्त दृष्टियों का और दूसरे मतों का निराकरणपूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्य और नव प्रकार के पदार्थों का प्ररूपण करती है उसे आक्षेपणी कथा कहते हैं।
विक्षेपणी कथा क्या होती है ?
जिसमें पहले परसमय के द्वारा स्वसमय के दोष बताये जाते हैं। अनन्तर परसमय की आधारभूत अनेक एकान्त दृष्टियों का शोधन करके स्वसमय की स्थापना की जाती है और छह द्रव्य-नौ पदार्थों का प्ररूपण किया जाता है उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं।
पुण्य के फल का वर्णन करने वाली कथा को संवेदनी कथा कहते हैं।
पुण्य के फल कौन से हैं ?
तीर्थंकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं।
पाप के फल का वर्णन करने वाली कथा को निर्वेदनी कथा कहते हैं।
पाप के फल कौन से हैं?
नरक, तिर्यंच और कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दरिद्रता आदि की प्राप्ति पाप के फल हैं।
इन कथाओं का प्रतिपादन करते समय जो जिनवचन को नहीं जानता है अर्थात् जिसका जिनवचन में प्रवेश नहीं है, ऐसे पुरुष को विक्षेपणी कथा का उपदेश नहीं देना चाहिये। अभिप्राय यह है कि अन्य सम्प्रदाय का पूर्व पक्ष रखकर जिसमें उनका खण्डन करके अपने पक्ष का मंडन किया जाता है उन्हें ही विक्षेपणी कथा कहते हैं। जिसने स्वसमय के रहस्य को नहीं जाना है और परसमय का प्रतिपादन करने वाली कथाओं को सुनने से व्याकुलित चित्त होकर वह मिथ्यात्व को स्वीकार न कर लेवे, इसलिये स्वसमय के रहस्य को नहीं जानने वाले पुरुष को विक्षेपणी कथा का उपदेश न देकर शेष तीन कथाओं के द्वारा जिसने स्वसमय को भली-भांति समझ लिया है, जो पुण्य और पाप के स्वरूप को जानता है, जिस तरह मज्जा अर्थात् ह़िड्डयों के मध्य में रहने वाला रस हड्डी से संसक्त होकर ही शरीर में रहता है, उसी तरह जो जिनशासन में अनुरक्त है, जिनवचन में जिसको किसी प्रकार की विचिकित्सा नहीं रही है, जो भोग और रति से विरक्त है और जो तप, शील और नियम से युक्त है ऐसे पुरुष को ही इन सबको जानने के बाद विक्षेपणी कथा का उपदेश देना चाहिये। प्ररूपण करके उत्तम रूप से ज्ञान कराने वाले के लिये यह अकथा भी तब कथारूप हो जाती है।
भव्यात्माओं! इन अंगों का वर्णन जानने हेतु खूब स्वाध्याय कीजिये। भले ही आज अंगरूप शास्त्र नहीं हैं फिर पूर्वरूप ग्रन्थों के अंश विद्यमान हैं उन्हें पढ़कर ऐसे महापुरुषों के चारित्र जानकर अपनी आत्मा में भी उपसर्ग सहने की शक्ति प्रगट करनी चाहिये।
भगवान तीर्थंकर की दिव्यध्वनि जगत का कल्याण करें यही मंगल भावना है।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-७२

श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।

भव्यात्माओं! भगवान ऋषभदेव की दिव्यध्वनि से जो द्वादशांगरूप जिनवाणी खिरी थी उसके बारे में आपने जाना है कि एक-एक अंग में क्या-क्या सार भरा है। दश अंगों के बारे में मैंने बताया है, अब ग्यारहवें अंग को जानना है कि उसमें क्या वर्णन है।
विपाकसूत्रांग नाम का ग्यारहवाँ अंग है। इसमें कर्मबन्ध और उसके फलस्वरूप पुण्य-पाप आदि का वर्णन है। मेरे दीक्षा गुरु आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के जीवन की घटना है कि उनकी पीठ में अदीठ का बहुत बड़ा फोड़ा हो गया था। तब एक वैद्य ने बिना औषधि या इंजेक्शन के फोड़े का ऑपरेशन किया। तब उतनी देर तक आचार्य श्री कर्मप्रकृतियों के बंध, उदय, सत्त्व आदि का चिन्तन करते रहे और फोड़े का ऑपरेशन हो गया। उस भीषण वेदना में भी उन्होंने अपने कष्ट को प्रदर्शित नहीं होने दिया। यद्यपि ऐसा सोचकर भी रोम सिहर उठता है फिर भी मैंने आचार्य श्री के मुख से स्वयं सुना है कि कर्मों के बन्ध आदि वर्णन सबको गोम्मटसार कर्मकाण्ड को अवश्य पढ़ना चाहिये तभी कर्मों को जीतने की प्रक्रिया जानी जा सकती है।
यही कर्मों का फल पुण्य-पाप, सुख-दु:ख आदि का वर्णन विपाक सूत्रांग में रहता है। किस गुणस्थान में कितनी कर्मप्रकृतियाँ बंध रही हैं, कितनी छूट रही हैं, यह सब जानकर ही आप लोग उनसे छूटने का प्रयत्न करेंगे, क्योंकि इन ग्रन्थों में बताया है कि अणुव्रत और महाव्रतों को धारण करने वाले मनुष्य नरक तिर्यंच गति में नहीं जाते हैं, वे देवगति में ही जाते हैं। यदि आपको देवगति में जाना है तो कम से कम पाँच अणुव्रत अवश्य धारण करो।
बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य शांतिसागर महाराज ने अपने जीवन में सर्प का, चींटी का कठोर उपसर्ग सहन किया है। उन्होंने मूलाचार ग्रन्थ को पढ़कर उसके अनुसार अपनी चर्या को चतुर्थकालीन मुनियों के समान ही बनाया था और अपने दीक्षित मुनि जीवन में उन्होंने ३६ बार भगवती आराधना का स्वाध्याय किया, इसीलिये अन्तकाल में बारह वर्षीय सल्लेखनापूर्वक समाधिकरण करके निराकुलतापूर्वक नश्वर शरीर का परित्याग किया था।
महानुभावों! समयसार में अध्यात्म का मात्र पाठ पढ़ने वाले लोग विषम परिस्थितियाँ आने पर डिग जाते हैं किन्तु करणानुयोग-चरणानुयोग का स्वाध्याय करने वाले, उसे अपने जीवन में पालने वालों के जीवन में अध्यात्म साकाररूप में प्रगट होता है। विपाकसूत्रांग का सार ग्रहण करने वालों को आचार्य श्री वीरसागर जी के जीवन से शिक्षा ग्रहण करके शास्त्रों का खूब स्वाध्याय करके कर्मों की विचित्रता का चिन्तन अवश्य करते हुए जीवन में सत्कर्म करने का संकल्प लेना चाहिये।

प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।

महापुराण प्रवचन-७३
(पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा)
प्रस्तुति-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती
श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
महानुभावों! द्बादशांग के अन्तर्गत अब बारहवें अंग का प्रकरण चलेगा। बारहवें अंग का नाम है—दृष्टिवादांग। इस अंग में कौत्कल, काण्ठेविद्धि, कौशिक, हरिश्मश्रु, मांधपिक, रोमश, हारीत, मुण्ड और अश्वलायन आदि क्रियावादियों के एक सौ अस्सी मतों का वर्णन और निराकरण है। मरीचि, कपिल, उलूक, गाग्र्य, व्याध्रभूति, वाद बलि, माठर और मौद्गल्यायन आदि अक्रियावादियों के चौरासी मतों का वर्णन और निराकरण किया गया है। शकल्य, बल्कल, कुथुमि, सात्यमुग्रि, नारायण, कण्व, माध्यन्दिन, मोद, पैप्पलाद, बादरायण, स्वेष्टकृत, ऐतिकायन, वसु और जेमिनी आदि अज्ञानवादियों के सरसठ मतों का वर्णन और निराकरण किया गया है तथा वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, बाल्मीकि, रोमहर्षिणी, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यु, ऐन्द्रदत्त और अयस्थूण आदि वैनयिकवादियों के बत्तीस मतों का वर्णन और निराकरण किया गया है। इस प्रकार से क्रियावादी के १८० ± अक्रियावादी के ८४, अज्ञानवादी के ६७ ± वैनयिकवादी के ३२ मिलाकर · ३६३ पाखंड मत होते हैं। दृष्टिवाद अंग इन मतों का वर्णन करके उनका खण्डन करता है।
इस दृष्टिवाद अंग के पाँच अधिकार हैं—परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका।
इनमें से प्रथम परिकर्म नामक भेद के भी पाँच भेद माने गये हैं—चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्राज्ञप्ति।
चन्द्रप्रज्ञप्ति नामका परिकर्म चन्द्रमा की आयु, परिवार, ऋद्धि, गति और बिम्ब की ऊँचाई आदि का वर्णन करता है।
सूर्यप्रज्ञप्ति नामका परिकर्म सूर्य की आयु, भोग, उपभोग, परिवार, ऋद्धि, गति, बिम्ब की ऊँचाई, दिन की हानि-वृद्धि, किरणों का प्रमाण और प्रकाश आदि का वर्णन करता है।
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति नामका परिकर्म जम्बूद्वीपस्थ भोगभूमि और कर्मभूमि में उत्पन्न हुए नाना प्रकार के मनुष्य तथा दूसरे तिर्यंच आदि का और पर्वत द्रह,नदी, वेदिका, वर्ष (क्षेत्र), आवास, अकृत्रिम जिनालय आदि का वर्णन करता है।
द्वीपसागरप्रज्ञप्ति नामका परिकर्म उद्धारपल्य से द्वीप और समुद्रों के प्रमाण का तथा द्वीपसागर के अंतर्भूत नाना प्रकार के दूसरे पदार्थों का वर्णन करता है।
व्याख्याप्राज्ञप्ति ्नाामका परिकर्म रूपी अजीवद्रव्य अर्थात् पुद्गल, अरूपी अजीवद्रव्य अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश और काल, भव्यसिद्ध और अभव्यसिद्ध जीव इन सबका वर्णन करता है।
लगभग २०-२५ वर्ष पूर्व एक विद्वान् ने जम्बूद्वीप के विरोध में लेख लिखा कि जम्बूद्वीप पूज्य नहीं है किन्तु नन्दीश्वर द्वीप पूज्य है। जम्बूद्वीप एक छोटे गाँव के समान है और नन्दीश्वर द्वीप बहुत बड़े प्रदेश के समान है,… इत्यादि। पुन: एक बार वे मेरे पास आये तो मैंने उनसे पूछा कि पंडितजी! नन्दीश्वर द्वीप में कितने मन्दिर हैं ? वे बोले ५२ मन्दिर हैं। मैंने पूछा—जम्बूद्वीप में कितने अकृत्रिम मन्दिर हैं ? वे बोले—७८ मन्दिर हैं। मैंने पुन: पूछा कि नन्दीश्वर द्वीप में कितने देवता हैं ? सोचकर उन्होंने कहा कि जिन चैत्यालय और जिनप्रतिमा ये दो देवता हैं, किन्तु जम्बूद्वीप में पूरे ९ देवता हैं अर्थात् अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और जिन चैत्यालय ये नौ देवता जम्बूद्वीप की कर्मभूमियों में होते हैं। नन्दीश्वर द्वीप से कोई मोक्ष नहीं जा सकता है जबकि जम्बूद्वीप में सतत मोक्ष परम्परा चलती है। ढाई द्वीप के आगे मनुष्य होते ही नहीं हैं केवल तिर्यंच जीव वहाँ रहते हैं और देवता-इन्द्रगण वहाँ मन्दिरों के दर्शन करने जाते हैं,… इत्यादि। यह सबकुछ सुनकर पंडितजी बोले कि माताजी! मैंने किसी से गुमराह होकर यह लेख लिख दिया था, अब आगे कभी ऐसा विरोध अपनी लेखनी से नहीं लिखूँगा।
भव्यात्माओं! आपको जानना है कि ढाई द्वीपों में १७० कर्मभूमियाँ हैं, वहाँ तीर्थंकर जन्म लेते हैं। भगवान अजितनाथ के समय सभी कर्मभूमियों में एक साथ १७० तीर्थंकरों के समवसरण बने थे। इसलिये मैंने हस्तिनापुर में तेरहद्वीप रचना के अन्दर पूरे १७० समवसरण बनाने की प्रेरणा दी है, आप उनका दर्शन करके आत्मा को पवित्र बनावें।
करणानुयोग की इन बातों का वर्णन करने वाला बारहवाँ अंग हम सबके लिये प्रयोजनीभूत है। भगवान जिनेन्द्र की दिव्यध्वनि से नि:सृत ये बारहों अंग तथा समस्त प्राणियों के हित-अहित का वर्णन जगत के लिये मंगलकारी होवे, यही मंगल कामना है।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।
महापुराण प्रवचन-७४
(पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा)
प्रस्तुति-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती
श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
महानुभावों! आदिपुराण ग्रन्थ के आधार से भगवान ऋषभदेव की दिव्यध्वनि का प्रकरण चल रहा है। श्री वृषभसेन प्रमुख गणधर और भरत सम्राट् प्रमुख श्रोता के रूप में उस दिव्यध्वनि का पान कर रहे हैं। द्वादशांग के अर्थकर्ता तीर्थंकर भगवान तथा ग्रन्थकर्ता गणधर स्वामी कहे जाते हैं।
द्वादशांग में बारहवें अंग के परिकर्म का वर्णन हो चुका है, आगे सूत्र नामका द्वितीय अर्थाधिकार है। जीव अबन्धक ही है, अलेपक ही है, अकत्र्ता ही है, अभोक्ता ही है, निर्गुण ही है, अणु प्रमाण ही है, जीव नास्ति स्वरूप ही है, जीव अस्ति स्वरूप ही है, पृथ्वी आदि पाँच भूतों के समुदायरूप से जीव उत्पन्न होता है, चेतना रहित है, ज्ञान के बिना भी सचेतन है, नित्य है, अनित्य ही है, इत्यादि रूप से क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादियों के तीन सौ त्रेसठ पाखण्ड मतों का पूर्वपक्ष रूप से वर्णन करता है पुन: उत्तर पक्ष से उनका निराकरण करता है। यह त्रैराशिकवाद, नियतिवाद, विज्ञानवाद, शब्दवाद, प्रधानवाद, द्रव्यवाद और पुरुषवाद का भी वर्णन करता है।
इस सूत्र का नाम अर्थाधिकार के अठासी अधिकारों में से चार अधिकारों का अर्थनिर्देश मिलता है। उनमें पहला अधिकार अबन्धकों का, दूसरा त्रैराशिकवादियों का, तीसरा नियतिवाद का तथा चौथा अधिकार स्वसमय का प्ररूपक है।
इस सूत्र नामक अधिकार के अन्तर्गत एक श्रुतज्ञान नामका व्रत है जिसे ज्ञानवृद्धि के लिये किया जाता है—श्रुतज्ञान व्रत में सोलह प्रतिपदाओं के १६ उपवास, तीन तृतीया तिथि के ३, चार चतुर्थी के ४, पाँच पंचमी के ५, छह षष्ठी के ६, सात सप्तमी के ७, आठ अष्टमी के ८, नौ नवमी के ९, बीस दशमी के २०, ग्यारह एकादशी के ११, बारह द्वादशी के १२, तेरह त्रयोदशी के १३, चौदह चतुर्दशी के १४, पन्द्रह पूर्णमासी के १५ एवं पन्द्रह अमावस्या के १५ उपवास या एकाशन किये जाते हैं। इस प्रकार १६ ± ३ ± ४ ± ५ ± ६ ± ७ ± ८ ± ९ ± २० ± ११ ± १२ ± १३ ± १४ ± १५ ± १५ · १५८ व्रत किये जाते हैं।
अब तीसरा अधिकार आता है प्रथमानुयोग। इस अधिकार में पुराणों का वर्णन ाqकया गया है। जिनेन्द्रदेव ने जगत में बारह प्रकार के पुराणों का उपदेश दिया है। वे समस्त पुराण जिनवंश और राजवंश का वर्णन करते हैं। पहला अरिहंत अर्थात् तीर्थंकरों का, दूसरा चक्रवर्तियों का, तीसरा विद्याधरों का, चौथा नारायण-प्रतिनारायणों का, पाँचवाँ चारणों (चारण ऋषियों) का, छठा प्रज्ञाश्रमणों का वंश है तथा सातवाँ कुरुवंश, आठवाँ हरिवंश, नवाँ इक्ष्वाकुवंश, दसवाँ काश्यपवंश, ग्यारहवाँ वादियों का वंश और बारहवाँ नाथवंश है।
आप उसी प्रथमानुयोग के अन्तर्गत आदिपुराण का वर्णन सुन रहे हैं। दृष्टिवाद अंग का पूर्वगत नामका चौथा अर्थाधिकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य आदि का वर्णन करता है। इस अर्थाधिकार के चौदह भेद हैं—उत्पादपूर्व, अग्रायणीयपूर्व, वीर्यानुप्रवादपूर्व, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व, सत्यप्रवादपूर्व, आत्मप्रवादपूर्व, कर्मप्रवादपूर्व, प्रत्याख्यानपूर्व, विद्यानुवादपूर्व, कल्याणवादपूर्व, प्राणावायपूर्व, क्रियाविशालपूर्व और लोकबिन्दुसारपूर्व।
उत्पादपूर्व—यह पूर्व द्वारा जीव, काल और पुद्गल द्रव्य के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का वर्णन करता है। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य क्या है ? जैसे कोई जीव मनुष्य पर्याय में उत्पन्न हुआ तो उसके मनुष्य पर्याय का उत्पाद, उससे पूर्व की पर्याय (देव या पशु अथवा नरक पर्याय) का व्यय और दोनों अवस्थाओं में उसके जीवतत्त्व का ध्रौव्यरूप से सत्त्व विद्यमान रहता है। इसी प्रकार से पुद्गल द्रव्य में भी जानना चाहिये कि किसी ने वंâकण तुड़वाकर कुण्डल बनवाया तो उसमें कुण्डल पर्याय का उत्पाद, वंâकण पर्याय का विनाश—व्यय और दोनों चीजों में स्वर्णरूप—धातु की ध्रौव्य अवस्था है।
दूसरा अग्रायणीय पूर्व है। अग्र अर्थात् द्वादशांगों में प्रधानभूत वस्तु के अयन अर्थात् ज्ञान को अग्रायण कहते हैं। उसका कथन करना जिसका प्रयोजन हो उसे अग्रायणीयपूर्व कहते हैं। यह पूर्व अंगों के अग्र अर्थात् परिमाण का कथन करता है।
अग्रायणीय पूर्व के अन्तर्गत षट्खण्डागम ग्रन्थ आता है, क्योंकि इसकी पंचम चयनलब्धि के महाकर्मप्रकृतिप्राभृत का ज्ञान श्री धरसेनाचार्य को था। उन्होंने वह ज्ञान पुष्पदंत और भूतबली मुनियों को प्रदान किया था। इस महा कर्मप्रकृतिप्राभृत में २४ अनुयोग द्वार हैं। ये चौबीसों अनुयोग द्वारा षट्खण्डागम के चतुर्थ और पंचम खण्ड में निहित हैं।
आप षट्खण्डागम की उत्पत्ति की कथा जानते हैं कि धरसेनाचार्य ने अपने एक ब्रह्मचारी को पत्र लिखकर मुनि संघ में भेजा था कि किन्हीं दो मुनियों को मेरे पास भेजें, मैं उन्हें अपना ज्ञान देना चाहता हूँ। तब जिन दो मुनियों को भेजा गया वे ही आगे पुष्पदंत-भूतबली कहलाये। उसके बाद षट्खण्डागम की रचना हुई और इन कठिन ग्रन्थों के साररूप श्री नेमिचन्द्राचार्य द्वारा रचित गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसार ये पंचसंग्रह ग्रन्थ हैं। इन सबको पढ़कर आप अपने श्रुतज्ञान की वृद्धि करें, यही प्रेरणा है।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।
महापुराण प्रवचन-७५
(पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा)
प्रस्तुति-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती
श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भत्र्रे, नम: संसारभीमुषे।।
भव्यात्माओं! दिव्यध्वनि के अन्तर्गत चौदह पूर्वों में तृतीय वीर्यानुवादपूर्व का वर्णन चल रहा है। राजगृही नगर के विपुलाचल पर्वत पर यह सम्पूर्ण द्वादशांग भगवान महावीर की दिव्यध्वनि से निकला था और गौतम गणधर ने उसे निबद्ध किया था। मुझे सन् २००३-०४ में वहाँ जाकर बहुत ही प्रसन्नता हुआ करती थी। मैं कुण्डलपुर प्रवास के मध्य २२ बार राजगृही गई और वहाँ बैठकर गणधर गौतम स्वामी द्वारा रचित चैत्यभक्ति, गणधर वलय मंत्र आदि अवश्य पढ़ा करती थी। षट्खण्डागम की धवलाटीका की नवमीं पुस्तक में बड़ा सुन्दर वर्णन भी आया है—
सौधर्मेन्द्र के प्रश्न से संदेह को प्राप्त हुए, पाँच सौ-पाँच सौ शिष्यों से सहित तीन भ्राताओं से वेष्टित, मानस्तम्भ को देखने से ही मान से रहित हुए, वृद्धि को प्राप्त होने वाली विशुद्धि से संयुक्त, वर्धमान भगवान के दर्शन करने पर असंख्यात भवों में अर्जित महान कर्मों को नष्ट करने वाले जिनेन्द्र देव की तीन प्रदक्षिण करके पंच मुष्टियों से अर्थात् पाँच अंगों द्वारा भूमिस्पर्शपूर्वक वंदना करके एवं हृदय से जिन भगवान का ध्यान कर संयम को प्राप्त हुए, विशुद्धि के बल से मुहूर्त के भीतर उत्पन्न हुए समस्त गणधर के लक्षणों से संयुक्त तथा जिनमुख से निकले हुए बीजपदों के ज्ञान से सहित ऐसे गौतम गोत्र वाले इन्द्रभूति ब्राह्मण द्वारा चूँकि आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्तिअंग, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग व दृष्टिवादांग, इन बारह अंगों तथा सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निषिद्धिका, इन अंगबाह्य चौदह प्रकीर्णकों की श्रावण मास के कृष्ण पक्ष में युग के आदि में प्रतिपदा के पूर्व दिन में रचना की थी, अतएव इन्द्रभूति भट्टारक वर्धमान जिनके तीर्थ में ग्रन्थकर्ता हुए। कहा भी है—
वासस्स पढमसासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले।
पाडिवदपुव्वदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजिम्मि।।
अर्थात् वर्ष के प्रथम मास व प्रथम पक्ष में श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के पूर्व दिन में अभिजित नक्षत्र में तीर्थ की उत्पत्ति हुई।
आगे और भी कहा है—कार्तिक मास में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि के पिछले भाग में महावीर भगवान के मुक्त होने पर केवलज्ञान को धारण करने वाले गौतम स्वामी हुए । बारह वर्ष तक केवली अवस्था में विहार करके गौतम स्वामी के मुक्त हो जाने पर लोहाचार्य को केवलज्ञान प्राप्त हो गया। बारह वर्ष विहार करके लोहार्य भट्टारक के मुक्त हो जाने पर जम्बूस्वामी भट्टारक केवलज्ञान की परम्परा के धारक हुए। अड़तीस वर्ष केवलविहार से विहार करके जम्बूस्वामी के मुक्त हो जाने पर भरतक्षेत्र में केवलज्ञान परम्परा का व्युच्छेद हो गया। इस प्रकार भगवान महावीर के निर्वाण को प्राप्त होने पर बासठ वर्षों से केवलज्ञानरूपी सूर्य भरतक्षेत्र में अस्त हो गया।
विशेष बात यह है कि उस काल में सकल श्रुतज्ञान की परम्परा को धारण करने वाले विष्णु नाम के आचार्य हुए। पश्चात् अविछिन्न सन्तानस्वरूप से नन्दि आचार्य, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु, ये सकल श्रुत के धारक हुए। इन पाँच श्रुतकेवलियों के काल का योग सौ वर्ष है। पश्चात् भद्रबाहु भट्टारक के स्वर्ग को प्राप्त होने पर भरतक्षेत्र में श्रुतज्ञानरूपी पूर्ण चन्द्र अस्त हो गया। इसलिये अब भरतक्षेत्र अज्ञान अन्धकार से परिपूर्ण हो गया है अर्थात् अब यहाँ कोई श्रुतकेवली नहीं है।
इस प्रकार भरतक्षेत्र में बारह सूर्यों के अस्तमित हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग पूर्वों के एकदेशभूत ‘पेज्जदोस’ और ‘महाकम्म्पयडिपाहुड’ आदिकों के धारक हुए। इस प्रकार प्रमाणीभूत महर्षिरूप प्रणाली से आकर महाकम्मपयडिपाहुडरूप अमृत-जल-प्रवाह धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ। उन्होंने भी गिरिनगर की चन्द्र गुफा में सम्पूर्ण महाकम्मपयडिपाहुड भूतबलि और पुष्पदन्त को अर्पित किया। पश्चात् श्रुतरूपी नदी प्रवाह के व्युच्छेद से भयभीत हुए भूतबली भट्टारक ने भव्य जनों के अनुग्रहार्थ महाकम्मपयडिपाहुड का उपसंहार कर छह खण्ड (षट्खण्डागम) की रचना करके प्रदान किये। अतएव त्रिकाल विषयक समस्त पदार्थों को विषय करने वाले प्रत्यक्ष अनन्त केवलज्ञान के प्रभाव से प्रमाणीभूत आचार्यरूप प्रणाली से आने के कारण प्रत्यक्ष व अनुमान से चूँकि विरोध से रहित है अत: यह ग्रन्थ प्रमाण है। इस कारण मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों को इसका अभ्यास करना चाहिये। चूँकि यह ग्रन्थ स्तोक—बहुत कम संख्या में है अत: वह मोक्षरूप कार्य को उत्पन्न करने के लिये असमर्थ है, ऐसा विचार नहीं करना चाहिये, क्योंकि अमृत के सौ घड़ों के पीने का फल चुल्लू भर अमृत के पीने में भी पाया जाता है।
यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि काल परिवर्तन के साथ-साथ मनुष्यों की बुद्धि अल्प होती गई और श्रुतज्ञान का ग्रहण उनके द्वारा असंभव होने लगा। इसीलिये अब शास्त्रों में निबद्ध करके उन्हें प्रदान किया गया है। उन्हें पढ़-पढ़कर ही स्वाध्यायप्रेमी लोग अपनी ज्ञानपिपासा तृप्त करते हैं। किसी ने इन ग्रन्थों के विषय में प्रश्न किया कि ये ग्रन्थ तो द्वादशांग की दृष्टि से बहुत ही अल्प हैं तो इसका उत्तर देते हुए वीरसेन स्वामी ने कहा है कि अल्पता होते हुए भी ये अमृत की बूँदों के समान गुणकारी हैं।
छत्रचूड़ामणि में कहा भी है—‘‘पीयूषं नहि नि:शेषं पिबन्नेव सुखायते’’ अर्थात् थोड़ा सा अमृत भी पीने से सुख की प्राप्ति हो जाती है। अत: जो ग्रन्थ आज उपलब्ध हैं कम से कम उनका स्वाध्याय करके ही ज्ञानामृत का रसास्वादन करना चाहिये।
महानुभावों! अब चौथा पूर्व है—अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व। यह पूर्व जीव और अजीव के अस्तित्व और नास्तित्व धर्म का वर्णन करता है। जैसे जीव स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा कथंचित् अस्तिरूप है। परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा कथंचित् नास्तिरूप है। जिस समय वह स्वद्रव्य चतुष्टय और परद्रव्यचतुष्टय के द्वारा अक्रम से अर्थात् युगपत विवक्षित होता है, उस समय स्यादवक्तव्यरूप है। स्वद्रव्यादिरूप प्रथम धर्म और परद्रव्यादिरूप द्वितीय धर्म से जिस समय क्रम से विवक्षित होता है उस समय कथंचित् अस्तिनास्तिरूप है। स्यात् अस्तिरूप प्रथम धर्म से और स्यात् अवक्तव्य रूप तृतीय धर्म से जिस समय विवक्षित होता है उस समय कथंचित् अस्ति अवक्तव्यरूप है। स्यात् नास्तिरूप द्वितीय धर्म और स्यात् अवक्तव्यरूप तृतीय धर्म से जिस समय क्रम से विवक्षित होता है उस समय कथंचित् नास्ति अवक्तव्यरूप है। स्यात् अस्तिरूप प्रथम धर्म, स्यात् नास्तिरूप द्वितीय धर्म और स्यात् अवक्तव्यरूप तृतीय धर्म से जिस समय क्रम से विवक्षित होता है उस समय कथंचित् अस्तिनास्ति अवक्तव्यरूप जीव है। इसी तरह अजीव आदि का भी कथन करना चाहिये।
पाँचवाँ ज्ञानप्रवादपूर्व है। यह पूर्व पाँच ज्ञान और तीन अज्ञानों का वर्णन करता है तथा द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा अनादि-अनंत, अनादि-सान्त और सादि-सान्तरूप ज्ञानादि तथा इसी तरह ज्ञान और ज्ञान के स्वरूप का वर्णन करता है।
छठा सत्यप्रवादपूर्व है। यह पूर्व वचनगुप्ति, वाक् संस्कार के कारण वचनप्रयोग, बारह प्रकार की भाषा, अनेक प्रकार के वक्ता, अनेक प्रकार के असत्य वचन और दस प्रकार के सत्य वचन इन सबका वर्णन करता है।
असत्य नहीं बोलने को अथवा वचन संयम—मौन को धारण करने को वचनगुप्ति कहते हैं। मस्तक, कण्ठ, हृदय, जिह्वा का मूल, दाँत, नासिका, तालु और होंठ ये आठ वचन संस्कार के कारण हैं।
शुभ और अशुभ लक्षणरूप वचन प्रयोग का स्वरूप सरल है। बारह प्रकार की भाषा के नाम हैं—(१) अभ्याख्यानवचन, (२) कलहवचन, (३) पैशून्यवचन, (४) अबद्धप्रलापवचन, (५) रतिवचन, (६) अरतिवचन, (७) उपधिवचन, (८) निकृतिवचन, (९) अप्रणतिवचन, (१०) मोषवचन, (११) सम्यग्दर्शनवचन और (१२) मिथ्यादर्शनवचन।
‘‘यह इसका कर्ता है’’ इस तरह अनिष्ट करने को अभ्याख्यान भाषा कहते हैं।
— कलह का अर्थ स्पष्ट ही है अर्थात् परस्पर विरोध के बढ़ाने वाले को कलह कहते हैं।
— पीछे से दोष प्रकट करने को पैशून्य वचन कहते हैं।
— धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सम्बन्ध से रहित वचनों को अबद्धप्रलाप वचन कहते हैं।
— इन्द्रियों के शब्दादि विषयों में राग उत्पन्न करने वाले वचनों को अरति वचन कहते हैं।
— जिस वचन को सुनकर परिग्रह रक्षण और अर्जन करने में आसक्ति उत्पन्न होती है उसे उपधि वचन कहते हैं।
— जिस वचन को अवधारण करके जीव व्यापार करते समय ठगनेरूप प्रवृत्ति करने में असमर्थ होता है उसे निकृति वचन कहते हैं।
— जिस वचन को सुनकर तप और ज्ञान से अधिक गुण वाले पुरुषों में भी जीव नम्रीभूत नहीं होता है उसे अप्रणति वचन कहते हैं।
— जिस वचन को सुनकर चौर्य कर्म में प्रवृत्ति होती है उसे मोष वचन कहते हैं।
— समीचीन मार्ग के उपदेश देने वाले वचनों को सम्यग्दर्शन कहते हैं।
— मिथ्या मार्ग के उपदेश देने वाले वचनों को मिथ्यादर्शन वचन कहते हैं।
जिनमें वत्तृâपर्याय प्रगट हो गयी है ऐसे द्वीन्द्रिय आदि से लेकर सभी जीव वक्ता हैं।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा असत्य अनेक प्रकार का है।
सत्यवचन के दस भेद होते हैं—(१) नामसत्य, (२) रूपसत्य, (३) स्थापनासत्य, (४) प्रतीत्यसत्य, (५) संवृतिसत्य, (६) संयोजनासत्य, (७) जनपदसत्य, (८) देशसत्य, (९) भावसत्य और (१०) समयसत्य।
— मूल पदार्थ के नहीं रहने पर भी सचेतन और अचेतन द्रव्य को व्यवहार के लिये जो संज्ञा दी जाती है उसे नामसत्य कहते हैं। जैसे ऐश्वर्य आदि गुणों के न होने पर भी किसी का नाम ‘इन्द्र’ ऐसा रखना नामसत्य है।
— पदार्थ के नहीं होने पर भी रूप की मुख्यता से जो वचन कहे जाते हैं उसे रूपसत्य कहते हैं। जैसे, चित्रलिखित पुरुष आदि में चैतन्य और उपयोगादि रूप अर्थ के नहीं रहने पर भी ‘पुरुष’ इत्यादि कहना रूपसत्य है।
— मूल पदार्थ के नहीं रहने पर भी कार्य के लिये जो द्यूत सम्बन्धी अक्ष (जुये सम्बन्धी पासा) आदि में स्थापना की जाती है उसे स्थापनासत्य कहते हैं।
— सादि और अनादि भावों की अपेक्षा जो वचन बोला जाता है उसे प्रतीत्यसत्य कहते हैं।
— लोक में जो वचन संवृति—कल्पना के आश्रित बोले जाते हैं उन्हें संवृतिसत्य कहते हैं। जैसे, पृथ्वी आदि अनेक कारणों के रहने पर भी जो पंक—कीचड़ में उत्पन्न होता है उसे पंकज कहते हैं इत्यादि।
— धूप के सुगंधीपूर्व अनुलेपन और प्रघर्षण के समय अथवा पद्म, मकर, हंस, सर्वतोभद्र और क्रौंच आदिरूप व्यूहरचना के समय सचेतन-अचेतन द्रव्यों के विभागानुसार विधिपूर्वक रचना विशेष के प्रकाशक जो वचन हैं उन्हें संयोजना सत्य कहते हैं।
— आर्य और अनार्य के भेद से बत्तीस देशों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त कराने वाले वचन को जनपदसत्य कहते हैं।
— ग्राम, नगर, राजा, गण, पाखण्ड, जाति और कुल आदि के धर्मों के उपदेश करने वाले जो वचन हैं उन्हें देशसत्य कहते हैं।
— छद्मस्थों का ज्ञान यद्यपि द्रव्य की यथार्थता का निर्णय नहीं कर सकता है तो भी अपने धर्म के पालन करने के लिये ‘यह प्राासुक है, यह अप्रासुक है’ इत्यादि रूप से जो संयत और श्रावक के वचन हैं उन्हें भावसत्य कहते हैं।
— आगम गम्य प्रतिनियत छह प्रकार के द्रव्य और उनके पर्यायों की यथार्थता को प्रगट करने वाले जो वचन हैं उन्हें समयसत्य कहते हैं।
इन सत्यवचनों की परिभाषाएँ जानकर य