-स्थापना-अडिल्ल छंद-
सोलहकारण में ग्यारहवीं भावना।
श्री आचार्यभक्ति नामक है भावना।।
उसकी पूजन हेतु करूँ स्थापना।
मन पावन हेतू करलूँ मैं साधना।।१।।
ॐ ह्रीं आचार्यभक्तिभावना! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं आचार्यभक्तिभावना! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं आचार्यभक्तिभावना! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
तर्ज-बाबा! हम तो आए…….
गुरुवर! हम तो आए तेरे द्वार पे, गुरुवर तेरे द्वार पे, तेरी हम पे……
तेरी हम पे नजर कब होगी।।टेक.।।
प्रासुक नीर कलश में भरकर, त्रयधारा पद में डालूँ।
जन्म मृत्यु का नाश करूँ सब, कर्म मलों को धो डालूँ।।
गुरुवर! हम तो आए…..।।१।।
ॐ ह्रीं आचार्यभक्तिभावनायै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुवर! हम तो आए तेरे द्वार पे, गुरुवर तेरे द्वार पे, तेरी हम पे……
तेरी हम पे नजर कब होगी।।टेक.।।
केशरचंदन युत घिस करके, जिनपद में चर्चन कर लूँ।
भव आताप विनाशन करके, आत्म सुगंधी को भर लूँ।।
गुरुवर! हम तो आए…..।।२।।
ॐ ह्रीं आचार्यभक्तिभावनायै संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुवर! हम तो आए तेरे द्वार पे, गुरुवर तेरे द्वार पे, तेरी हम पे……
तेरी हम पे नजर कब होगी।।टेक.।।
मोती सम अक्षत ले करके, जिनवर की पूजन कर लूँ।
अक्षय पद मिल जाय मुझे, गुरुपद का अर्चन कर लूँ।।
गुरुवर! हम तो आए…..।।३।।
ॐ ह्रीं आचार्यभक्तिभावनायै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुवर! हम तो आए तेरे द्वार पे, गुरुवर तेरे द्वार पे, तेरी हम पे……
तेरी हम पे नजर कब होगी।।टेक.।।
कल्पवृक्ष के पुष्प सुगंधित, ले करके अर्चना करूँ।
कामबाण विध्वंसन हेतू, गुरुपद में वन्दना करूँ।।
गुरुवर! हम तो आए…..।।४।।
ॐ ह्रीं आचार्यभक्तिभावनायै कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुवर! हम तो आए तेरे द्वार पे, गुरुवर तेरे द्वार पे, तेरी हम पे……
तेरी हम पे नजर कब होगी।।टेक.।।
षट्रस के नैवेद्य बनाकर, पूजन में अर्पण कर लूँ।
क्षुधारोग के नाशन हेतु, श्री गुरु को वंदन कर लूँ।।
गुरुवर! हम तो आए…..।।५।।
ॐ ह्रीं आचार्यभक्तिभावनायै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुवर! हम तो आए तेरे द्वार पे, गुरुवर तेरे द्वार पे, तेरी हम पे……
तेरी हम पे नजर कब होगी।।टेक.।।
जगमग जगमग दीप जलाकर, श्री गुरु की आरति कर लूँ।
मोहकर्म का विध्वंसन कर, भव भव का आरत हर लूँ।।
गुरुवर! हम तो आए…..।।६।।
ॐ ह्रीं आचार्यभक्तिभावनायै मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुवर! हम तो आए तेरे द्वार पे, गुरुवर तेरे द्वार पे, तेरी हम पे……
तेरी हम पे नजर कब होगी।।टेक.।।
गंध सुगंधित धूप बनाकर, अग्नी घट में दहन करूँ।
अष्ट कर्म विध्वंस कराकर, आतमगुण में मगन रहूँ।।
गुरुवर! हम तो आए…..।।७।।
ॐ ह्रीं आचार्यभक्तिभावनायै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुवर! हम तो आए तेरे द्वार पे, गुरुवर तेरे द्वार पे, तेरी हम पे……
तेरी हम पे नजर कब होगी।।टेक.।।
अनंनास अंगूर फलों को, पूजन में अर्पण कर दूँ।
मोक्ष महाफल प्राप्त करन को, गुरुपद में वंदन कर लूँ।।
गुरुवर! हम तो आए…..।।८।।
ॐ ह्रीं आचार्यभक्तिभावनायै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरुवर! हम तो आए तेरे द्वार पे, गुरुवर तेरे द्वार पे, तेरी हम पे……
तेरी हम पे नजर कब होगी।।टेक.।।
अर्घ्य थाल ‘‘चन्दनामती’’, ले करके मैं अर्चना करूँ।
पद अनर्घ्य की प्राप्ती हेतू, गुरुपद में वंदना करूँ।।
गुरुवर! हम तो आए…..।।९।।
ॐ ह्रीं आचार्यभक्तिभावनायै अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
शांतीधारा के लिए, निर्मल जल भर लाय।
आतमशांति के लिए, गुरु पूजन सुखदाय।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पुष्पांजलि के हेतु मैं, पुष्प सुगंधित लाय।
आतमगुण के हेतु है, गुरुपूजन सुखदाय।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(ग्यारहवें वलय में ३६ अर्घ्य, १ पूर्णार्घ्य)
-दोहा-
छत्तिस गुण युत सूरि की, भक्ति भावना भाय।
रत्नत्रय आराधना, हेतू पुष्प चढ़ाय।।
इति मण्डलस्योपरि एकादशदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
तर्ज-हे वीर तुम्हारे…….
सच्चे गुरुओं के चरणों में, हम सादर शीश झुकाते हैं।
आचार्य भक्तिपूर्वक गुरु को, हम मन से अर्घ्य चढ़ाते हैं।।टेक.।।
बारह तप करके निज तन को, जो कुन्दन सम कर लेते हैं।
उनमें पहले अनशन तप से, निज शक्ति प्रगट कर लेते हैं।।
उन अनशन तप युत गुरुवर को, हम हृदय कमल में ध्याते हैं।
आचार्यभक्तिपूर्वक गुरु को, हम मन से अर्घ्य चढ़ाते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं अनशनतपयुतआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सच्चे गुरुओं के चरणों में, हम सादर शीश झुकाते हैं।
आचार्य भक्तिपूर्वक गुरु को, हम मन से अर्घ्य चढ़ाते हैं।।टेक.।।
बारह तप करके निज तन को, जो कुन्दन सम कर लेते हैं।
उनमें द्वितीय अवमौदर तप से, शक्ति प्रगट कर लेते हैं।।
उन अवमौदर्य तपस्वी को, हम हृदय कमल में ध्याते हैं।
आचार्यभक्तिपूर्वक गुरु को, हम मन से अर्घ्य चढ़ाते हैं।।२।।
ॐ ह्रीं अवमौदर्यतपयुतआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सच्चे गुरुओं के चरणों में, हम सादर शीश झुकाते हैं।
आचार्य भक्तिपूर्वक गुरु को, हम मन से अर्घ्य चढ़ाते हैं।।टेक.।।
बारह तप करके निज तन को, जो कुन्दन सम कर लेते हैं।
उनमें तृतीय व्रतपरिसंख्या से, शक्ति प्रगट कर लेते हैं।।
उन व्रतपरिसंख्या युत गुरु काे, हम हृदय कमल में ध्याते हैं।
आचार्यभक्तिपूर्वक गुरु को, हम मन से अर्घ्य चढ़ाते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं व्रतपरिसंख्यानतपयुतआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सच्चे गुरुओं के चरणों में, हम सादर शीश झुकाते हैं।
आचार्य भक्तिपूर्वक गुरु को, हम मन से अर्घ्य चढ़ाते हैं।।टेक.।।
बारह तप करके निज तन को, जो कुन्दन सम कर लेते हैं।
उनमें चतुर्थ रस परित्याग कर, शक्ति प्रगट कर लेते हैं।।
उन रसत्यागी तपयुत गुरु को, हम हृदय कमल में ध्याते हैं।
आचार्यभक्तिपूर्वक गुरु को, हम मन से अर्घ्य चढ़ाते हैं।।४।।
ॐ ह्रीं रसपरित्यागतपयुतआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सच्चे गुरुओं के चरणों में, हम सादर शीश झुकाते हैं।
आचार्य भक्तिपूर्वक गुरु को, हम मन से अर्घ्य चढ़ाते हैं।।टेक.।।
बारह तप करके निज तन को, जो कुन्दन सम कर लेते हैं।
उनमें विविक्तशय्यासन तप से, शक्ति प्रगट कर लेते हैं।।
उन विविक्तशय्यासन युत को, हम हृदय कमल में ध्याते हैं।
आचार्यभक्तिपूर्वक गुरु को, हम मन से अर्घ्य चढ़ाते हैं।।५।।
ॐ ह्रीं विविक्तशय्यासनतपयुतआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सच्चे गुरुओं के चरणों में, हम सादर शीश झुकाते हैं।
आचार्य भक्तिपूर्वक गुरु को, हम मन से अर्घ्य चढ़ाते हैं।।टेक.।।
बारह तप करके निज तन को, जो कुन्दन सम कर लेते हैं।
उनमें छट्ठा तप कायक्लेश कर, शक्ति प्रगट कर लेते हैं।।
उन कायक्लेश तप युत गुरु को, हम हृदय कमल में ध्याते हैं।
आचार्यभक्तिपूर्वक गुरु को, हम मन से अर्घ्य चढ़ाते हैं।।६।।
ॐ ह्रीं कायक्लेशतपयुतआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शेर छंद-
इन बाह्य तप के साथ, अन्तरंग तप को भी।
पालन करें स्वयं तथा, कराते सबको भी।।
श्री सूरि प्रायश्चित्त, तप की साधना करें।
अतएव हम आचार्यभक्ति, भावना करें।।७।।
ॐ ह्रीं प्रायश्चित्ततपयुतआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनके हृदय में विनयगुण, भण्डार भरा है।
उनने ही अन्तरंग तप का, सार गहा है।।
आचार्यदेव उन्हीं की, मैं अर्चना करूँ।
उनके चरण में बार-बार, वन्दना करूँ।।८।।
ॐ ह्रीं विनयतपयुतआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो वैयावृत्ति तप की, सदा साधना करते।
अपने सभी शिष्यों में, तप की भावना भरते।।
इस तप सहित आचार्य की, मैं वंदना करूँ।
चरणों में अर्घ्य को चढ़ाके, अर्चना करूँ।।९।।
ॐ ह्रीं वैय्यावृत्त्यतपयुतआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वाध्याय तप से ज्ञान का, भण्डार जो भरते।
आचार्यदेव वे जगत, उद्धार हैं करते।।
इस तप सहित आचार्य की, मैं वंदना करूँ।
चरणों में अर्घ्य को चढ़ाके, अर्चना करूँ।।१०।।
ॐ ह्रीं स्वाध्यायतपयुतआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तन से ममत्व छोड़ जो, व्युत्सर्ग तप करें।
आचार्यदेव वे सभी, शिष्यों को नत करें।।
इस तप सहित आचार्य की, मैं वंदना करूँ।
चरणों में अर्घ्य को चढ़ाके, अर्चना करूँ।।११।।
ॐ ह्रीं व्युत्सर्गतपयुतआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आतम मगन हो करके ध्यान, तप को जो करें।
एकाग्रपरिणती से आत्म-लक्ष्य को वरें।।
इस तप सहित आचार्य की, मैं वंदना करूँ।
चरणों में अर्घ्य को चढ़ाके, अर्चना करूँ।।१२।।
ॐ ह्रीं ध्यानतपयुतआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
दश धर्मों में है क्षमा, प्रथम धर्म विख्यात।
इस गुणयुत आचार्य का, अर्चन है सुखकाज।।१३।।
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्मसहित आचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दशधर्मों में है दुतिय, मार्दव धर्म महान।
इससे युत आचार्य को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।१४।।
ॐ ह्रीं उत्तममार्र्दवधर्मसहित आचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दशधर्मों में है तृतिय, आर्जव धर्म महान।
इससे युत आचार्य को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।१५।।
ॐ ह्रीं उत्तमआर्जवधर्मसहित आचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम शौच धरम कहा, चौथा धर्म महान।
इससे युत आचार्य को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।१६।।
ॐ ह्रीं उत्तमशौचधर्मसहित आचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दशधर्मों में पाँचवाँ, उत्तम सत्य महान।
इससे युत आचार्य को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।१७।।
ॐ ह्रीं उत्तमसत्यधर्मसहित आचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दशधर्मों में है छठा, संयम धर्म महान।
इससे युत आचार्य को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।१८।।
ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्मसहित आचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दशधर्मों में सातवाँ, उत्तम तपो महान।
इससे युत आचार्य को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।१९।।
ॐ ह्रीं उत्तमतपधर्मसहित आचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दशधर्मों में आठवाँ, उत्तम त्याग महान।
इससे युत आचार्य को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।२०।।
ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्मसहित आचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नवमां आकिंचन्य है, परिग्रहत्याग प्रधान।
इससे युत आचार्य को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।२१।।
ॐ ह्रीं उत्तमआकिंचन्यधर्मसहित आचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्मचर्य दशवाँ धरम, सबका मूल प्रधान।
इससे युत आचार्य को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आन।।२२।।
ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्मसहित आचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-नरेन्द्र छंद-
षट् आवश्यक में सामायिक, पहला आवश्यक है।
तीन काल में देववंदना, करना सामायिक है।।
इस आवश्यक का पालन, आचार्य स्वयं करते हैं।
अर्घ्य समर्पण करके हम, उनको वंदन करते हैं।।२३।।
ॐ ह्रीं सामायिक आवश्यकसहित आचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
षट् आवश्यव में द्वितीय, स्तव आवश्यक माना।
चौबिस जिनवर स्तुति इसमें, पढ़ना और पढ़ाना।।
इस आवश्यक का पालन, आचार्य स्वयं करते हैं।
अर्घ्य समर्पण करके हम, उनको वंदन करते हैं।।२४।।
ॐ ह्रीं स्तव आवश्यकसहित आचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
षट्आवश्यक में तृतीय, वंदना नाम आवश्यक।
किसी एक तीर्थंकर की, स्तुति इसमें आवश्यक।।
इस आवश्यक का पालन, आचार्य स्वयं करते हैं।
अर्घ्य समर्पण करके हम, उनको वंदन करते हैं।।२५।।
ॐ ह्रीं वंदनाआवश्यकसहित आचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ, आवश्यक कहा गया है।
प्रतिदिन के दोषों को हटाने, हेतू इसे कहा है।।
इस आवश्यक का पालन, आचार्य स्वयं करते हैं।
अर्घ्य समर्पण करके हम, उनको वंदन करते हैं।।२६।।
ॐ ह्रीं प्रतिक्रमणआवश्यकसहित आचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचम प्रत्याख्यान नाम का, आवश्यक होता है।
मन वच तन से पाप का इसमें, परित्याग होता है।।
इस आवश्यक का पालन, आचार्य स्वयं करते हैं।
अर्घ्य समर्पण करके हम, उनको वंदन करते हैं।।२७।।
ॐ ह्रीं प्रत्याख्यान आवश्यकसहित आचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कायोत्सर्ग नामक छट्ठा, आवश्यक जो पालें।
काया से निर्मम होकर, वे पापकर्म को टालें।।
इस आवश्यक का पालन, आचार्य स्वयं करते हैं।
अर्घ्य समर्पण करके हम, उनको वंदन करते हैं।।२८।।
ॐ ह्रीं कायोत्सर्ग आवश्यकसहित आचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-स्रग्विणी छंद-
ज्ञान आचार को जो सदा पालते, पंच ज्ञानों को क्रमश: वही धारते।
ऐसे आचार्य परमेष्ठि को मैं जजूँ, अर्घ्य अर्पण करूँ स्वात्मसुख को भजूँ।।२९।।
ॐ ह्रीं ज्ञानाचारसहितआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दर्शनाचार पच्चीस दोषों रहित, पालकर बनते जो सर्वगुण से सहित।
ऐसे आचार्य परमेष्ठि को मैं जजूँ, अर्घ्य अर्पण करूँ स्वात्मसुख को भजूँ।।३०।।
ॐ ह्रीं दर्शनाचारसहितआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तेरहों विध जो चारित्र पालन करें, वे ही चारित्र आचारि गुरुवर कहे।
ऐसे आचार्य परमेष्ठि को मैं जजूँ, अर्घ्य अर्पण करूँ स्वात्मसुख को भजूँ।।३१।।
ॐ ह्रीं चारित्राचारसहितआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बाह्य अन्तर तपाचार जो पालते, कर्मपर्वत को कर चूर शिव पावते।
ऐसे आचार्य परमेष्ठि को मैं जजूँ, अर्घ्य अर्पण करूँ स्वात्मसुख को भजूँ।।३२।।
ॐ ह्रीं तपाचारसहितआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मबल को प्रगट कर करें साधना, जो गुरु वीर्याचारी उन्हें मानना।
ऐसे आचार्य परमेष्ठि को मैं जजूँ, अर्घ्य अर्पण करूँ स्वात्मसुख को भजूँ।।३३।।
ॐ ह्रीं वीर्याचारसहितआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा छंद-
मनगुप्ती को पाल, जो मन को वश में करें।
वे आचार्य प्रधान, उनकी भक्ती दुख हरे।।३४।।
ॐ ह्रीं मनोगुप्तिसहितआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वचनगुप्ति को पाल, जिह्वा इन्द्रिय वश करें।
वे आचार्य प्रधान, उनकी भक्ती दुख हरे।।३५।।
ॐ ह्रीं वचनगुप्तिसहितआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कायगुप्ति को पाल, तन चेष्टा को वश करें।
वे आचार्य प्रधान, उनकी भक्ती दुख हरे।।३६।।
ॐ ह्रीं कायगुप्तिसहितआचार्यभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-दोहा-
छत्तिस गुण युत सूरि की, भक्ति करूँ मन लाय।
मैं पूर्णार्घ्य चढ़ाय के, पाऊँ सुख अधिकाय।।१।।
ॐ ह्रीं षट्त्रिंशत् गुणसहित आचार्यभक्तिभावनायै पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं आचार्यभक्तिभावनायै नम:।
तर्ज-हे वीर तुम्हारे द्वारे पर………….
हे गुरुवर! तेरी काया ही, तेरा अन्तर दरशाती है।
यह नग्न दिगम्बर मुद्रा ही, प्राकृतिक रूप दरशाती है।।टेक.।।
बिन बोले ही इस काया से, मुक्ती का पथ बतलाते हो।
निज वीतराग छवि के द्वारा, आत्मानुभूति झलकाते हो।।
तव रत्नत्रय की आभा ही, सबको शिवपथ बतलाती है।
यह नग्न दिगम्बर मुद्रा ही, प्राकृतिक रूप दरशाती है।।१।।
तेरे सम्मुख आकर ध्याता, जब ध्यानमग्न हो जाता है।
जग के संकल्प विकल्पों से, तब मुक्त स्वयं हो जाता है।।
गुरुचरणों में आकर भक्तोें को, परमशांति मिल जाती है।
यह नग्न दिगम्बर मुद्रा ही, प्राकृतिक रूप दरशाती है।।२।।
दिखते हैं जग में रूप बहुत, पर तुझसा रूप नहीं मिलता।
जिनवर के लघुनन्दन मुनिवर को, लखकर आत्मकमल खिलता।
कलियुग में तेरी छवि में ही, भगवान की छवि दिख जाती है।
यह नग्न दिगम्बर मुद्रा ही, प्राकृतिक रूप दरशाती है।।३।।
मुनियों में प्रमुख आचार्यदेव, छत्तिसगुण धारक होते हैं।
कर संघ चतुर्विधसंचालन, सबके ही नायक होते हैं।।
इनकी भक्ती ही भक्तों को, क्रमश: शिवपथ दिलवाती है।
यह नग्न दिगम्बर मुद्रा ही, प्राकृतिक रूप दरशाती है।।४।।
सोलह कारण में ग्यारहवीं, भावना की यह जयमाला है।
पूर्णार्घ्य थाल लेकर मैंने, गाई गुरु की गुणमाला है।।
‘‘चन्दनामती’’ गुरुभक्ती ही, प्रभु के सम्मुख पहुँचाती है।
यह नग्न दिगम्बर मुद्रा ही, प्राकृतिक रूप दरशाती है।।५।।
ॐ ह्रीं आचार्यभक्तिभावनायै जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो रुचिपूर्वक सोलहकारण, भावना की पूजा करते हैं।
मन-वच-तन से इनको ध्याकर, निज आतम सुख में रमते हैं।।
तीर्थंकर के पद कमलों में जो, मानव इनकाे भाते हैं।
वे ही इक दिन ‘चन्दनामती’, तीर्थंकर पदवी पाते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।