पंचम वेदी के बाद पीठ, पहला वैडूर्य मणी का है।
बारह कोठे अरु चार गली, से सोलह बनी सीढ़ियाँ हैं।।
चूड़ी सम गोल इसी ऊपर, चारों दिश में यक्षेंद्र खड़े।
वे शिर पर धर्मचक्र धारें, उन पूजत सुख सौभाग्य बढ़े।।१।।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितयक्षेन्द्रमस्तकोपरिविराजमान-चतुश्चतुर्धर्मचक्रसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितयक्षेन्द्रमस्तकोपरिविराजमान-चतुश्चतुर्धर्मचक्रसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुा\वशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितयक्षेन्द्रमस्तकोपरिविराजमान-चतुश्चतुर्धर्मचक्रसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
मुनिराज के मनसमपवित्र नीर लिया है।
जिनधर्मचक्र को हि तीन धार दिया है।।
मैं धर्मचक्र की सदैव अर्चना करूँ।
जिनधर्म से हि मृत्यु की भि खंडना करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितचतुश्चतुर्धर्मचक्रेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जिननाथ के तन सम सुगंध गंध को लिया।
जिनधर्मचक्र चर्च के मन शांतकर लिया।।
मैं धर्मचक्र की सदैव अर्चना करूँ।
जिनधर्म से हि मृत्यु की भि खंडना करूँ।।२।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितचतुश्चतुर्धर्मचक्रेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनधर्मचक्र सदृश श्वेत शालि धवल हैं।
जिनधर्मचक्र अग्रपुंज धरूँ विमल हैं।।
मैं धर्मचक्र की सदैव अर्चना करूँ।
जिनधर्म से हि मृत्यु की भि खंडना करूँ।।३।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितचतुश्चतुर्धर्मचक्रेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनयश समान सुरभि भरे फूल चुन लिये।
जिनधर्मचक्र के निकट अर्पण सुमन किये।।
मैं धर्मचक्र की सदैव अर्चना करूँ।
जिनधर्म से हि मृत्यु की भि खंडना करूँ।।४।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितचतुश्चतुर्धर्मचक्रेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
अमृत सदृश पूआ जलेबियां सोहाल लें।
जिनधर्मचक्र को चढ़ाऊँ क्षुधा टालने।।
मैं धर्मचक्र की सदैव अर्चना करूँ।
जिनधर्म से हि मृत्यु की भि खंडना करूँ।।५।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितचतुश्चतुर्धर्मचक्रेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणिदीप में कर्पूर ज्योति आरती करूँ।
जिनधर्मचक्र पूजते अज्ञान तम हरूँ।।
मैं धर्मचक्र की सदैव अर्चना करूँ।
जिनधर्म से हि मृत्यु की भि खंडना करूँ।।६।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितचतुश्चतुर्धर्मचक्रेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं धूपघट में धूप खेय धूम्र उड़ाऊँ।
जिनधर्मचक्र पूजते हि कर्म जलाऊँ।।
मैं धर्मचक्र की सदैव अर्चना करूँ।
जिनधर्म से हि मृत्यु की भि खंडना करूँ।।७।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितचतुश्चतुर्धर्मचक्रेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर अनन्नास सेव लेय के भले।
जिनधर्मचक्र को चढ़ाउॅँâ मोक्षफल मिले।।
मैं धर्मचक्र की सदैव अर्चना करूँ।
जिनधर्म से हि मृत्यु की भि खंडना करूँ।।८।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितचतुश्चतुर्धर्मचक्रेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जलगंध अक्षतादि लेप रत्न मिलाऊँ।
जिनधर्मचक्र के समक्ष अर्घ चढ़ाऊँ।।
मैं धर्मचक्र की सदैव अर्चना करूँ।
जिनधर्म से हि मृत्यु की भि खंडना करूँ।।९।।
ॐ ह्रीं चतुावशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितचतुश्चतुर्धर्मचक्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्म सरोवर नीर ले, जिनपद धार करंत।
तिहुँ जग में मुझमें सदा, करो शांति भगवंत।।
शांतये शांतिधारा।
श्वेत कमल नीले कमल, अति सुगंध कल्हार।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य भंडार।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
धर्मचक्रचमकंत, तिहुंजग को उद्योतते।
पुष्पांजलि अर्पंत, पूजत भेद विज्ञान हो।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
समोसरण जिनेश आदिनाथ का विशाल है।
सुपीठ उपरि धर्मचक्र सहस रश्मि जाल है।।
जिनेन्द्र के विहार में सुअग्र अग्र ये चलें।
सहस्रआर धर्मचक्र पूजहूँ सदा भले।।१।।
ॐ ह्रीं वृषभदेवसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेंद्र आदिनाथ पीठ दाहिनी दिशी दिपे।
सुधर्मचक्र भव्य के हजार पाप को खिपे।।जिनेन्द्र.।।२।।
ॐ ह्रीं वृषभदेवसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समोसरण जिनेश के सुपीठ पे अपर दिशा।
सुधर्मचक्र भक्त के हजार दोष टालता।।जिनेन्द्र.।।३।।
ॐ ह्रीं वृषभदेवसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र आदिनाथ के हि उत्तरीय पीठ पे।
सुयक्ष शीश पे विराजमान चक्र बहु दिपे।।जिनेन्द्र.।।४।।
ॐ ह्रीं वृषभदेवसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अजित जिनेन्द्र का समोसरण अजेय विश्व में।
हजार रश्मि से चमक रहा अपूर्व पूर्व में।।जिनेन्द्र.।।५।।
ॐ ह्रीं अजितनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश के समवसरणविषे सुदूर से दिखे।
हजार खंड मोह के करे अपूर्व तेज से।।जिनेन्द्र.।।६।।
ॐ ह्रीं अजितनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अपूर्व तेज से सुभक्त चित्त अंधकार को।
क्षणेक में भगावता सहस्रआर चक्र जो।।जिनेन्द्र.।।७।।
ॐ ह्रीं अजितनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महानदीप्तिमान चक्र रात्रि भी न हो वहां।
अनेक कोटि सूर्य तेज देख लाजते१ वहां।।
िजनेन्द्र के विहार में सुअग्र अग्र ये चलें।
सहस्रआर धर्मचक्र पूजहूँ सदा भले।।८।।
ॐ ह्रीं अजितनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश सम्भवेश का समोसरण चकासता२।
वहीं पे पूर्व में हि धर्मचक्र खूब भासता३।।जिनेन्द्र.।।९।।
ॐ ह्रीं सम्भवनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनीश शीश नावते अपूर्व भक्तिभाव से।
गणीशकीर्ति धर्मचक्र की सदैव गावते।।जिनेन्द्र.।।१०।।
ॐ ह्रीं सम्भवनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरेश पूजते सदैव अष्टद्रव्य लाय के।
नरेश वंदते सदैव धर्मचक्र भाव से।।जिनेन्द्र.।।११।।
ॐ ह्रीं सम्भवनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंत जन्म के अनंत कर्म नष्ट होयंगे।
सूचक्र पूजते अनंत ज्ञान सौख्य होयंगे।।जिनेन्द्र.।।१२।।
ॐ ह्रीं सम्भवनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश अभिनंदनेश का समोसरण दिपे।
वहां सुपूर्वदिक्क में सुचक्र तेज से दिपे।।जिनेन्द्र.।।१३।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
असंख्य देव देवियां सुचक्र पूजते वहां।
सुअप्सरायें बांसुरी बजाय गावती वहां।।जिनेन्द्र.।।१४।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निजात्म तत्व प्राप्ति हेतु साधु वंदना करें।
सुचक्र के समीप आर्यिकायें स्तोत्र उच्चरें।।जिनेन्द्र.।।१५।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शशीकिरण हजार से अधीक रश्मियां धरे।
सुचक्र सौम्यकांति से दिशा प्रसन्न भी करे।।जिनेन्द्र.।।१६।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुमतिनाथ जिनराज का, समवसरण अभिराम।
धर्मचक्र पूरब दिशी, झुक झुक करूँ प्रणाम।।१७।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरि पूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरणदक्षिणदिशी, धर्म चक्र चमकंत।
इक हजार आरों सहित, जजत उसे अघ अंत।।१८।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रथम पीठ पर अपर दिश, धर्म चक्र भास्वान्।
सूर्यचंद्र फीका करे, पूजत स्वात्म निधान।।१९।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मचक्र उत्तरदिशी, आरे एक हजार।
चमचम करते शोभते, जजत मिले भवपार।।२०।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मप्रभ जिनराज का, समवसरण विलसंत।
पूजूँ श्रद्धा भक्ति से, मिले सुज्ञान अनंत।।२१।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में पीठ पर, धर्मचक्र अभिनंद्य।
अर्घ चढ़ाकर मैं जजूँ, सुर नर मुनिगण वंद्य।।२२।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रथमपीठ वैडूर्यमणि, निर्मित शोभावान्।
धर्मचक्र को निज जजूँ, रोग शोक दुख हान।।२३।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मा लक्ष्मी तुम चरण, सेवे भक्ति भरंत।
धर्मचक्र की अर्चना, करते सौख्य भरंत।।२४।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीसुपार्श्व जिनदेव का, समवसरण सुर मान्य।
धर्मचक्र पूरब दिशी, जजत बनूं जग मान्य।।२५।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नत्रय निधि के धनी, वीतराग जिनदेव।
धर्मचक्र पूजूँ मुझे, एक रत्न ही देव।।२६।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दशधर्मों के हेतु मैं, करूँ आपकी सेव।
धर्मचक्र पूजूँ सदा, पूरो वांछा देव।।२७।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध मान मायादि मुझ, दोष हरो जिनदेव।
परम शांति हित मैं करूँ, धर्मचक्र की सेव।।२८।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्रनाथ भगवान का, समवसरण अतिशायि।
धर्मचक्र पूजूं सदा, जिनवर वृष सुखदायि।।२९।।
ॐ ह्रीं चन्द्रप्रभजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्र कांति सम आपके, गुणमणि धवल अनंत।
हजार आरा से दिपे, जजत चक्र भव अंत।।३०।।
ॐ ह्रीं चन्द्रप्रभजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व व्याधि पीड़ा नशे, धर्मचक्र पूजंत।
अंत समाधी हो भली, यही आश भगवंत।।३१।।
ॐ ह्रीं चन्द्रप्रभजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्म सुखामृत पीवते, ऋद्धिधारि मुनिसंत।
धर्मचक्र को सेवते, निजगुणरत्न भरंत।।३२।।
ॐ ह्रीं चन्द्रप्रभजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पदंत नाथ का समोसरण अपूर्व है।
हजार आर से दिपंत धर्म चक्र पूर्व है।।
रोग शोक भी टलें हजार पाप शांत हो।
धर्मचक्र पूजते निजात्म सौख्य लाभ हो।।३३।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध मान छद्म लोभ राग द्वेष मोह ये।
आतमा को कष्ट दें इन्हें निकाल दीजिये।।रोग.।।३४।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप पाद पद्म सेय मैं निहाल हो गया।
तीन रत्न पाय के हि भाग्यशाली हो गया।।रोग.।।३५।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध वर्ण रस स्पर्श शून्य आतमा अमूर्त।
आप पाद पूजते हि प्राप्त होय निज स्वरूप।।रोग.।।३६।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतलेश का समोसरण शतेन्द्र पूज्य है।
वाक्य भी अतीव शीत सर्व दोष दूर हैं।।रोग.।।३७।।
ॐ ह्रीं शीतलजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंतरातमा जजें जिनेन्द्र पाद भक्ति से।
सर्व दोष टाल के हि सिद्ध आतमा बनें।।रोग.।।३८।।
ॐ ह्रीं शीतलजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सार्व भौम चक्रवर्ति संपदा लहें वही।
भक्ति से जिनेन्द्र पाद पूजते सदा यहीं।।रोग.।।३९।।
ॐ ह्रीं शीतलजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जन्म मृत्यु नाश के अपूर्व धाम दीजिये।
नाथ आप पास में मुझे स्थान दीजिये।।रोग.।।४०।।
ॐ ह्रीं शीतलजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री श्रेयांसनाथ समोसर्ण में अधर रहें।
भव्य जीव के अनंत पाप को तुरत दहें।।रोग.।।४१।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साधुवृन्द आप पाद वंदते सुयश लहें।
आत्म रस पियूष का प्रवाह चित्त में बहे।।रोग.।।४२।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चार ज्ञान धारि भी गणेश आप वंदते।
भव्य जीव वंद वंद सर्व दोष खंडते।।रोग.।।४३।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो गृहस्थ नित्य अर्चना करें व दान दें।
वे तुरंत खार भव समुद्र पार पा सकें।।रोग.।।४४।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वासुपूज्य कीर्ति को सरस्वती सदा कहे।
आप पाद पूज भव्य सर्व आपदा दहें।।रोग.।।४५।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट द्रव्य आदि से१ सुलेश पाप हो सही।
विन्दु मात्र विष समुद्र नीर दूषता नहीं।।
रोग शोक भी टलें हजार पाप शांत हो।
धर्मचक्र पेजते निजात्म सौख्य लाभ हो।।४६।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो गृहस्थ आप बिंब औ निलय बनावते।
वे दु तीन ही भवों में सिद्धि सौख्य पावते।।रोग.।।४७।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सप्त भंग की तरंग से ध्वनी तरंगिणी।
भव्य पाप पंक धोय के करे पवित्रनी।।रोग.।।४८।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थेश श्रीविमल के सुसमोसरण में।
यक्षेश शीश पर धर्म सु चक्र धारें।।
श्री धर्मचक्र यजते मन ध्वांत१ भागे।
सज्ज्ञानसूर्य चमके शिव सौख्य जागे।।४९।।
ॐ ह्रीं विमलनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आरे हजार चमकें जिनधर्म पैâले।
मोहारि शीश झट काट स्वराज्य ले लें।।श्री.।।५०।।
ॐ ह्रीं विमलनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक्त्व रत्न अनमोल त्रिलोक में है।
जो आप भक्त उनको क्षण में मिले हैं।।श्री.।।५१।।
ॐ ह्रीं विमलनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मोपदेश प्रभु का अद्भुत जगत् में।
जो पा लिये भुवन में धन धन्य वो हैं।।श्री.।।५२।।
ॐ ह्रीं विमलनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी अनंत यम अंतक नांत गुणभृत्।
सौधर्म इंद्र तुम किन्नर है शिरोनत।।श्री.।।५३।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीचक्र का सहज तेज अपूर्व ऐसा।
कोटी रवी शशि व अगनी में न वैसा।।श्री.।।५४।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हैं आप में विमल दर्शन ज्ञान शक्ती।
निर्बाध सौख्य गुणमणिनिधियां अनंती।।श्री.।।५५।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो आपके चरण में नमते सदा ही।
वे गुण अनंत निज के धरते सदा ही ।।श्री.।।५६।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीधर्मनाथ निज आसन से अधर हैं।
मृत्युंजयी पद सरोज नमें मुनी हैं।।श्री.।।५७।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो जन्म मृत्यु भव दु:ख विनाश चाहें।
वे धर्म तीर्थ जल में नित ही नहावें।।श्री.।।५८।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचेन्द्रियाँ मन छहों वश में करें जो।
छै द्रव्य को श्रद्धहें सुख से तिरें वो।।
श्री धर्मचक्र यजते मन ध्वांत भागे।
सज्ज्ञानसूर्य चमके शिव सौख्य जागे।।५९।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो साधु नित्य रमते जिनपाद में ही।
वे पावते निज सुधारस धाम जल्दी।।श्री.।।६०।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री शांतिनाथ जिनके सु समोसराण में।
भक्ती धरें परम शांत बने क्षणों में।।श्री.।।६१।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो आपके चरण पंकज में नमें हैं।
वे सर्व वैर कलहादि स्वयं वमें हैं।।श्री.।।६२।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो पूर्ण शांति मन में इस हेतु वंदूं।
संपूर्ण ज्ञान सुख से निज आत्म मंडूं ।।श्री.।।६३।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री शांतिनाथ तिहुं लोक सुशांति दाता।
तुम नाम मंत्र जपते मिटती असाता।।श्री.।।६४।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री वुँथुनाथ जग त्राता, तुम समवसरण सुखदाता।
वैडूर्यमणी कटनी पे, जजूंं धर्मचक्र अतिदीपे।।६५।।
ॐ ह्रीं वुँथुनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पहली कटनी मन मोहे, अठ मंगल द्रव्य सु सोहें।
जिन धर्मचक्र अति चमके, सब पुण्य फले अतिदमके।।६६।।
ॐ ह्रीं वुँथुनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस धर्मचक्र कटनी पे, पूजन सामग्री शोभे।
जिनधर्म चक्र मैं पूजूँ, भवभव के दुख से छूटूँ।।६७।।
ॐ ह्रीं वुँथुनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धन धान्य स्वजन की वृद्धी, जिन पूजत सर्व समृद्धी।
जिनधर्म चक्र मैं पूजूँ, भवभव के दुख से छूटूँ।।६८।।
ॐ ह्रीं वुँथुनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अष्टद्रव्य ले करके, जिन पूजें मन वच तन से।
वो पावें सुख अतिशायी, जिनधर्मचक्र सुखदायी।।६९।।
ॐ ह्रीं अरहनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अरहनाथ भगवंता, उन समवसरण विलसंता।
जिनधर्म चक्र मैं पूजूँ, भवभव के दुख से छूटूं।।७०।।
ॐ ह्रीं अरहनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहारिजयी अरनाथा, मुनि नित्य नमाते माथा।
जिनधर्म चक्र मैं पूजूँ, भवभव के दुख से छूटूं।।७१।।
ॐ ह्रीं अरहनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब विघ्न अरी झट भागे, पूजा से सब सुख सागे।
जिनधर्म चक्र मैं पूजूँ, भवभव के दुख से छूटूं।।७२।।
ॐ ह्रीं अरहनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीमल्लिनाथ भवविजयी, इन समवसरण सुखभरई।
जिनधर्म चक्र मैं पूजूँ, भवभव के दुख से छूटूं।।७३।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिन्मय चिंतामणि देवा, चिंतित फलती प्रभुसेवा।
जिनधर्म चक्र मैं पूजूँ, भवभव के दुख से छूटूं।।७४।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन कल्पतरु फलदाता, बिन मांगे सब सुखदाता।
जिनधर्म चक्र मैं पूजूँ, भवभव के दुख से छूटूं।।७५।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब इष्ट फलें पूजा से, सब विघ्न भगें पूजा से।
जिनधर्म चक्र मैं पूजूँ, भवभव के दुख से छूटूं।।७६।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिसुव्रत जिनवर भक्ती, इससे प्रगटे निज शक्ती।
जिनधर्म चक्र मैं पूजूँ, भवभव के दुख से छूटूं।।७७।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नत्रय अनघ निधी है, जिनपूजा से मिलती है।
जिनधर्म चक्र मैं पूजूँ, भवभव के दुख से छूटूं।।७८।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो तपश्चरण नित करते, वे भी जिन भक्ती धरते।
जिनधर्म चक्र मैं पूजूँ, भवभव के दुख से छूटूं।।७९।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनभक्ती समकित निधि है, इस बिन सिद्धी नहिं हो है।
जिनधर्म चक्र मैं पूजूँ, भवभव के दुख से छूटूं।।८०।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में नमि जिनराज विराजते।
प्रथम पीठ पर धर्म, चक्र शुभ राजते।।
सप्त परम स्थान, हेतु पूूजा करूँ।
धर्मचक्र को जजूँ, मुक्ति लक्ष्मी वरूँ।।८१।।
ॐ ह्रीं नमिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अशुभ कर्म के बंध, उदय सत्ता टले।
ऋद्धि सिद्धि भरपूर, होय अतिशय भले।।सप्त.।।८२।।
ॐ ह्रीं नमिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सौम्य छवी नासाग्र दृष्टि मन को हरे।
सम्यग्दृष्टि भाव भक्ति से सुख भरें।।सप्त.।।८३।।
ॐ ह्रीं नमिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अशुभ योग से बचूं प्रवृत्ती शुभ करूँ।
देश चरित को धार कर्म हल्के करूँ।।
सप्त परम स्थान, हेतु पूूजा करूँ।
धर्मचक्र को जजूँ, मुक्ति लक्ष्मी वरूँ।।८४।।
ॐ ह्रीं नमिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेमिनाथ जिन समवसरण में राजते।
पूजत ही निजज्ञान ज्योति हृदि भासते।।सप्त.।।८५।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्न जटित सिंहासन, छवि जन मन हरे।
अधर राजते जिनवर, त्रिभुवन सुख करें।।सप्त.।।८६।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन छत्र शिर ऊपर, शोभें कांति से।
त्रिभुवन प्रभुता कहें, सभी को भाव से।।सप्त.।।८७।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ढोरें चौंसठ चंवर यक्ष भक्ती भरे।
जो जन भक्ती करें सुयश निज विस्तरें।।सप्त.।।८८।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पार्श्वनाथ जिनराज, सर्व सरताज हैं।
समवसरण में आप, सर्व जन तात हैं।।सप्त.।।८९।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संकट मोचन शोकहरन, भविशर्ण हैं।
आप एक भववारिधि तारण तर्ण हैं।।सप्त.।।९०।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षमा मार्दव आर्जव शौच सुधर्म हैं।
तुम भक्ती से धर्म करें शिव शर्म हैं।।सप्त.।।९१।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सच संयम तप त्याग, अकिंचन ब्रह्मव्रत।
जिन भक्ती से पूरण हों, ये धर्म सब।।सप्त.।।९२।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महावीर जिन समवसरण अतिशय भरा।
खाई लता बगीचे से चहुंदिश हरा।।सप्त.।।९३।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अन्धे लंगड़े लूले बहिरे स्वस्थ हों।
बीस हजार सीढ़ियाँ चढ़ जिन भक्त हों।।सप्त.।।९४।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म चक्र के हजार आरे चमकते।
अंधकार जन मन का हरते दमकते।।सप्त.।।९५।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्चिमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो परोक्ष में समवसरण को पूजते।
वे निश्चित प्रत्यक्ष दर्श को पावते।।।।सप्त.।।९६।।
ॐ ह्रीं महावीरजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एक एक जिनराज के, चार-चार वृष१चक्र।
चौबीसों के छ्यानवे, पूजत हो मम भद्र।।९७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिविराजमानषण्ण-वतिधर्मचक्रेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं समवसरणपद्मसूर्यवृषभादिवर्द्धमानान्तेभ्यो नम:।
धर्मचक्र जिनदेव का, कहा अनादि अनंत।
समवसरण में राजता, अत: आदि भी अंत।।१।।
जय जय श्रीजिनदेव, जय जय श्री भगवंता।
जय जय तुमपद सेव, करते मुनिगण संता।।
जय जय सुर नर वंद्य, चरण कमल अतिशायी।
मिले निजातम सद्म, साम्य सुधारस पायी।।२।।
जो तुम भक्ति करंत, पुण्य भंडार भरे हैं।
कटते पाप अनंत, गुण भंडार धरे हैं।।
विष निर्विष हो जाय, सर्प बने सुम२ माला।
शत्रु मित्र हो जाय, अग्नि बने जल कमला।।३।।
नदी सिंधु तालाब, पार करें इक क्षण में।
स्थल सम बन जाय, नहिं डूबे जन जल में।।
जो जन हों प्रतिकूल, सब अनुकूल बने हैं।
व्यंतर भूत पिशाच, क्षण में दूर भगे हैं।।४।।
कुष्ठ भंगदर आदि, व्याधि नशें भक्ती से।
नहिं टिक सकती आधि, आर्त भगे शक्ती से।।
बंधे असाता कर्म, सातामय परिणते।
जो पूजें जिन चर्ण, अशुभकरमं शुभ बनते।।५।।
इष्ट वियोग न होय, नहिं अनिष्ट संयोगा।
इच्छित पूरें होय, कभी न हो दुख शोका।।
राजादिक सब वश्य, सब जग में यश पैले।
करें सभी सन्मान, शांति स्वस्थता मीले।।६।।
धन धान्यादिक वृद्धि, वंश फले संतति से।
भार्या पुत्र सुतादि, बढ़ें धर्म नीति से।।
श्रावक धर्म बढ़ाय, दान, शील उपवासा।
जिन पूजा सुखदाय, करो गृहस्थ निवासा।।७।।
समवसरण में पीठ, नीलमणी का सुंदर।
धर्म चक्र हैं चार, आरे सहस मनोहर।।
इनको पूजें भव्य, अतिशय पुण्य बढ़ावें।
करें करमवन ध्वस्त, शिव रमणी को पावें।।८।।
नमूं नमूं नित भक्ति से, धर्म चक्र तिहुंकाल।
ज्ञानमती सुख संपदा, देकर करो निहाल।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिविराजमानषण्ण-वतिधर्मचक्रेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, यह ‘‘कल्पद्रुम’’ पूजा करें।
मांगे बिना ही वे नवों निधि, रत्न चौदह वश करें।।
फिर पंचकल्याणक अधिप, हो धर्मचक्र चलावते।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करें, जिनगुण अनंतों पावते।।
इत्याशीर्वाद:।