श्री तीर्थंकर सिद्ध प्रभू को, नित प्रति शीश झुकाते हैं।
सिद्ध सदृश हम सिद्धात्मा हैं, इसकी याद दिलाते हैं।।
तीर्थंकर हों सिद्ध हुये, गणधर गुरु हों सिद्ध हुये।
ऋद्धि सहित ऋषि सिद्ध हुये, सूरि उपाध्याय सिद्ध हुये।।
द्विविध रत्नत्रय धारण कर, स्वात्म साधना में तत्पर।
ये ही कर्म जलाते हैं, मुक्तिरमा को पाते हैं।।
सभी सिद्ध संसारी थे, कर्मबंध से भारी थे।
छुटें बंध से मुक्त बने, इस विध सिद्ध प्रसिद्ध बनें।।
चहुँगति में भी भव्य कोई, संज्ञि पर्र्याप्त पंचेन्द्रिय ही।
काललब्धि को पा करके, पाँच लब्धि भी पा करके।।
उपशम सम्यक् प्रथम प्रगट कर, भ्रमण अनंत घटाते हैं।
सिद्ध सदृश हम सिद्धात्मा हैं, इसकी याद दिलाते हैं।।श्री तीर्थं.।।१।।
कर्मभूमिया मनुज बने, केवलि श्रुतकेवलि पद में।
सात प्रकृति का नाश करें, क्षायिक सम्यक् प्राप्त करें।।
केवलि द्विक से सन्निधि ही, सोलह भावन भाते ही।
तीर्थंकर प्रकृती बांधें, पंचकल्याणक को साधें।।
इंद्रवंद्य अवतार धरें, सुरगिरि पर सुर न्हवन करें।
तीर्थंकर या अन्य मनुज, मुनि दीक्षा लें मोक्षपथिक।।
गुणस्थान छट्ठम सप्तम, बार सहस्रों परिवर्तन।
क्षपक श्रेणि आरोहण कर, दशवें मोहकर्म हनकर।।
बारहवें में तीन घाति हन, केवलसूर्य उगाते हैं।
सिद्ध सदृश हम सिद्धात्मा हैं, इसकी याद दिलाते है।।श्री तीर्थं.।।२।।
भू से धनु पण सहस उपर, धनपति समवसरण रचकर।
गंधकुटी कमलासन में, जिनवर अधर वहाँ तिष्ठें।।
द्वादश गण निज निज कोठे, दिव्यध्वनी सुनते बैठें।
स्वात्मतत्त्व श्रद्धा करके, कोइ श्रावक कोइ मुनि बनते।।
श्रीविहार जिनराज करें, अगणित जन भवजलधि तिरें।
जिनवर योगनिरोध करें, कर्म अघाति निमूल करें।।
सिद्धशिला पर जा करके, सिद्ध अनंतों मधि तिष्ठें।
यही अनादी रीती है, जिन आगम की नीती है।।
ऐसे सिद्ध अनंतानंतों, की गुणगाथा गाते हैं।
सिद्ध सदृश हम सिद्धात्मा हैं, इसकी याद दिलाते हैंं।।श्री तीर्थं.।।३।।
कोई नर उस ही भव में, तीर्थंकर प्रकृती बांधें।
दो या त्रय कल्याण धरें, श्रीविहार कर मुक्ति वरें।।
अन्य मुनीश्वर तप तपके, नानाविध ऋद्धी वरते।
घाति नाश वैवल्य वरें, मृत्यु नाश शिवनारि वरें।।
कर्मभूमि इक सौ सत्तर, हुये अनंतानंतों नर।
जिनने कर्म विनाश किया, स्वयं सिद्धपद प्राप्त किया।।
वर्तमान में होते हैं, सिद्ध बनें मल धोते हैं।
होंगे भविष काल में भी, उनमें नाम हमारा भी।।
इन सब त्रैकालिक सिद्धों को, हृदय कमल में ध्याते हैं।
सिद्ध सदृश हम सिद्धात्मा हैं, इसकी याद दिलाते हैं।।श्री तीर्थं.।।४।।
नाथ! आपकी भक्ती से, मेरी आत्मज्योति चमके।
संयमशील प्रसून खिलें, अंत समाधीमरण मिले।।
निश्चयनय से देह रहित, द्रव्यभाव नोकर्म रहित।
स्वयं स्वयंभू परमात्मा, आधि व्याधि गत शुद्धात्मा।।
ज्ञायक एक स्वभावी हूँ, चिन्मय ज्योति प्रभावी हूँ।
गुण अनंत आनंदमयी, ज्ञान दर्श सुख वीर्यमयी।।
कर्म सहित संसारी हूँ, जन्म मरण दुख धारी हूँ।
यह व्यवहार नयाश्रित है, आत्मा बंधा अनादी है।।
प्रभु भक्ती से शक्ति प्रगट हो, इसीलिये गुण गाते हैं।
सिद्ध सदृश हम सिद्धात्मा हैं, इसकी याद दिलाते हैं।।श्री तीर्थं.।।५।।
एक एक सिद्धों के ही, सुगुण अनंतानंतों ही।
सुरगुरु भी नहिं गिन सकते, वर्षों तक नहिं कह सकते।।
सिद्धचक्र की पूजा में,किचित् गुण को गाते हैं।
प्रभु भक्ती ही कारण है, वही भवोदधि तारण है।।
अष्टगुणों का यजन करें, सोलह गुण को अर्घ्य करें।
बत्तिस गुण चौसठ ऋद्धी, इक सौ अट्ठाइस गुण भी।।
दो सौ छप्पन गुण गाते, पण सौ बारह गुण भाते।
इक हजार चौबिस गुण हैं, पूजा आठ कहीं शुभ हैं।।
सब मिल दो हजार चालिस गुण, हृदय कमल में ध्याते हैं।
सिद्ध सदृश हम सिद्धात्मा हैं, इसकी याद दिलाते हैंं।।श्री तीर्थं.।।६।।
सिद्ध गुणों की महिमा है, गुण रत्नों की गरिमा है।
भव्य जीव ही गुण गाते, कर्मनाश शिवपुर जाते।।
अंधे जिनवर को देखें, बहिरे गुण सुनकर हर्षें।
पंगू गुण गा नृत्य करें, लूले प्रभु अभिषेक करें।।
अंगहीन पूर्णांग धरें, निर्धन धन भंडार भरें।
विद्यार्थी विद्या धन लें, यश इच्छुक जन यश पालें।।
पुत्रार्थी सुत प्राप्त करें, सर्व मनोरथ सफल करें।
लौकिक सुख अति तुच्छ कहा, सौख्य अतीन्द्रिय फले अहा।।
जिनगुण संपत्ती हेतू हम, पूजा कर हर्षाते हैं।
सिद्ध सदृश हम सिद्धात्मा हैं, इसकी याद दिलाते हैं।।श्री तीर्थं.।।७।।
शरदपूर्णिमा का चंदा, उदित हुआ मन आनंदा।
सागर जल की वृद्धि करे, ज्योत्स्ना से तिमिर हरे।।
जिनवर अद्भुत चन्द्र कहे, भव्य कुमुुद को खिला रहे।
ज्ञान जलधि जल उद्बेले, तीनों लोकों में पैले।।
पचीस सौ अठरा वीर संवत्, वर्षे परमानंदामृत।
शरदपूर्णिमा तिथि उत्तम, संयमदाता अमृतसम।।
वर्ष अट्ठावन पूर्ण किया, उनसठवें में प्रवेश लिया।
‘सिद्धचक्र पूजाञ्जलि’ ये, जिन चरणों में अर्पण है।।
विविध वर्ण कुसुमाञ्जलि लेकर, जिनपदकमल चढ़ाते हैं।
‘ज्ञानमती’ कलिका खिल जावे, यही भावना भाते हैंं।।
श्री तीर्थंकर सिद्ध प्रभु को, नित प्रति शीश झुकाते हैं।
सिद्ध सदृश हम सिद्धात्मा हैं, इसकी याद दिलाते हैं।।८।।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं चत्वािंरशदधिकद्विसहस्रगुणसमन्वितसिद्धपर-मेष्ठिभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य सिद्धचक्र का विधान यह करें।
वे चित्स्वरूप गुण अनंतानंत को भरें।।
त्रयरत्न से ही उनको सिद्धिवल्लभा मिले।
रवि ‘‘ज्ञानमती’’ रश्मि से, जन मन कमल खिलें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
इति सिद्धचक्र विधानम्।
वर्धतां जिनशासनम्।।