जो गणधरों से वंद्य हैं बारह सभा के नाथ हैं।
निज भक्त को संसार में करते सदैव सनाथ हैं।।
उन तीर्थंकर जिनदेव को मैं आज पूजूँ भाव से।
निज आत्म निधि की प्राप्ति हो अतएव थापूँ चाव से।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य असंस्कृतसुसंस्कारादिशतनाममंत्रसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य असंस्कृतसुसंस्कारादिशतनाममंत्रसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य असंस्कृतसुसंस्कारादिशतनाममंत्रसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
चाल-नंदीश्वर पूजा……….
यमुना नदि का शुचिनीर, झारी पूर्ण भरूँ।
मैं पाऊँ भवदधि तीर, तुम पद धार करूँ।।
तीर्थंकर देव महान, बारह गण वंदित।
हो स्वपर भेदविज्ञान, पूजूँ मैं संप्रति।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य असंस्कृतसुसंस्कारादिशतनाममंत्रेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन सार, गंध सुगंध करे।
चर्चूं जिनपद सुखकार, मन की तपन हरे।।
तीर्थंकर देव महान, बारह गण वंदित।
हो स्वपर भेदविज्ञान, पूजूँ मैं संप्रति।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य असंस्कृतसुसंस्कारादिशतनाममंत्रेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीसम अक्षत लाय, पुंज चढ़ाऊँ मैं।
निज अक्षयपद को पाय, यहाँ न आऊँ मैं।।
तीर्थंकर देव महान, बारह गण वंदित।
हो स्वपर भेदविज्ञान, पूजूँ मैं संप्रति।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य असंस्कृतसुसंस्कारादिशतनाममंत्रेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला मचकुंद गुलाब, चुन चुन के लाऊँ।
अर्पूं जिनवर चरणाब्ज, निजसुखयश पाऊँ।।
तीर्थंकर देव महान, बारह गण वंदित।
हो स्वपर भेदविज्ञान, पूजूँ मैं संप्रति।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य असंस्कृतसुसंस्कारादिशतनाममंत्रेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं लड्डू मोतीचूर, थाली भर लाऊँ।
हो क्षुधा वेदना दूर, अर्पत सुख पाऊँ।।
तीर्थंकर देव महान, बारह गण वंदित।
हो स्वपर भेदविज्ञान, पूजूँ मैं संप्रति।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य असंस्कृतसुसंस्कारादिशतनाममंत्रेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृतमय दीपक की ज्योति, जग अंधेर हरे।
मुझ मोहतिमिर हर ज्योति, ज्ञानउद्योत करे।।
तीर्थंकर देव महान, बारह गण वंदित।
हो स्वपर भेदविज्ञान, पूजूँ मैं संप्रति।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य असंस्कृतसुसंस्कारादिशतनाममंत्रेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध सुगंधित धूप, खेऊँ अगनी में।
उड़ती दशदिश में धूम्र, फैले यश जग में।।
तीर्थंकर देव महान, बारह गण वंदित।
हो स्वपर भेदविज्ञान, पूजूँ मैं संप्रति।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य असंस्कृतसुसंस्कारादिशतनाममंत्रेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
केला अंगूर अनार, श्रीफल भर थाली।
अर्पूं जिन आगे सार, मनरथ निंह खाली।।
तीर्थंकर देव महान, बारह गण वंदित।
हो स्वपर भेदविज्ञान, पूजूँ मैं संप्रति।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य असंस्कृतसुसंस्कारादिशतनाममंत्रेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल आदिक अर्घ्य बनाय उसमें रत्न मिला।
जिन आगे नित्य चढ़ाय, पाऊँ सिद्ध शिला।।
तीर्थंकर देव महान, बारह गण वंदित।
हो स्वपर भेदविज्ञान, पूजूँ मैं संप्रति।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य असंस्कृतसुसंस्कारादिशतनाममंत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुवरण झारी में भरूँ, गंगा नदि को नीर।
शांती धारा मैं करूँ, मिले भवोदधि तीर।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंप चमेली केवड़ा, बेला बकुल गुलाब।
पुष्पांजलि अर्पण करत, शीघ्र स्वात्म सुख लाभ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रत्येक अर्घ्य (१०० अर्घ्य)
परमानंद पियूष घन, वर्षा करें जिनंद।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले सर्वसुखकंद।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
‘असंस्कृतसुसंस्कार’ नामा तुम्हीं।
बिना संस्कारे सुसंस्कृत तुम्हीं।।
जजूँ नाम मंत्रावली भक्ति से।
पिऊँ आत्म पीयूष भी युक्ति से।।६०१।।
ॐ ह्रीं असंस्कृतसुसंस्काराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अप्राकृत’ तुम्हीं तो स्वभावीक हो।
धरा अष्टमें वर्ष व्रत देश को।।जजूँ.।।६०२।।
ॐ ह्रीं अप्राकृताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘वैकृतांतकृत’ आप ही।
विकारादि दोषा विनाशा तुम्हीं।।जजूँ.।।६०३।।
ॐ ह्रीं वैकृतांतकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अंतकृत’ दु:ख को नाशिया।
जनम मृत्यु का भी समापन किया।।जजूँ.।।६०४।।
ॐ ह्रीं अंतकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘कांतगू’ श्रेष्ठ वाणी धरो।
मुझे हो वचोसिद्धि ऐसा करो।।जजूँ.।।६०५।।
ॐ ह्रीं कांतगवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महारम्य सुंदर प्रभो! ‘कांत’ हों।
त्रिलोकीपती साधु में मान्य हो।।जजूँ.।।६०६।।
ॐ ह्रीं कांताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘चिंतामणी’ रत्न हो।
सभी इच्छती वस्तु देते सदा।।जजूँ.।।६०७।।
ॐ ह्रीं चिंतामणये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अभीष्टद’ अभीप्सित लहें भक्त ही।
मुझे दीजिये नाथ! मुक्ती मही।।जजूँ.।।६०८।।
ॐ ह्रीं अभीष्टदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
न जीते गये हो ‘अजित’ आप हो।
प्रभो! मोह जीतूँ यही शक्ति दो ।।जजूँ.।।६०९।।
ॐ ह्रीं अजिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘जितकामअरि’ लोक मेंं।
विषय काम क्रोधादि जीता तुम्हीं।।जजूँ.।।६१०।।
ॐ ह्रीं जितकामारये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अमित’ माप होता नहीं आपका।
अनंते गुणों की खनी आप हो।।जजूँ.।।६११।।
ॐ ह्रीं अमिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अमितशासना’ धर्म अनुपम कहा।
मुझे आप सम नाथ कीजे अबे।।
जजूँ नाम मंत्रावली भक्ति से।
पिऊँ आत्म पीयूष भी युक्ति से।।६१२।।
ॐ ह्रीं अमितशासन्य नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जितक्रोध’ हो आप शांती सुधा।
महा शांति से क्रोध जीता सभी।।जजूँ.।।६१३।।
ॐ ह्रीं जितक्रोधाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जितामित्र’ कोई न शत्रु रहा।
प्रभो! आप ही सर्वप्रिय लोक में।।जजूँ.।।६१४।।
ॐ ह्रीं जितामित्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जितक्लेश’ सब क्लेश जीता तुम्हीं।
सभी क्लेश मेरे निवारो अबे।।जजूँ.।।६१५।।
ॐ ह्रीं जितक्लेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जितांतक’ प्रभो! मृत्यु को नाशियां।
समाधी मिले अंत में भी मुझे।।जजूँ.।।६१६।।
ॐ ह्रीं जितांतकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘जिनेन्द्र’ हो विश्व मेंं
तुम्हीं श्रेष्ठ हो कर्मजयि साधु में।।जजूँ.।।।६१७।।
ॐ ह्रीं जिनेंद्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो !आप ही ‘परमआनंद’ हो।
मुझे आत्म आनंद दीजे अबे।।जजूँ.।।६१८।।
ॐ ह्रीं परमानंदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘मुनींद्र’ हो लोक में।
मुनीनाथ मानें नमें साधु भी ।।जजूँ.।।६१९।।
ॐ ह्रीं मुनींद्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘दुंदुभीस्वन’ ध्वनी आपकी।
सुगंभीर दुंदभि सदृश ही खिरे।।जजूँ.।।६२०।।
ॐ ह्रीं दुंदुभिस्वनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महेन्द्रासुवंद्या’ प्रभो आपही।
सभी इंद्र से वंद्य हो पूज्य हो।।जजूँ.।।६२१।।
ॐ ह्रीं महेन्द्रवंद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘योगीन्द्र’ हो विश्व में।
सभी ध्यानियों में तुम्हीं श्रेष्ठ हो।।जजूँ.।।६२२।।
ॐ ह्रीं योगीन्द्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘यतीन्द्रा’ मुनी साधु में।
सदा श्रेष्ठ मानें गणाधीश में।।जजूँ.।।६२३।।
ॐ ह्रीं यतीन्द्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘नाभिनन्दन’ तुम्हीं मान्य हो।
नृपति नाभि के पुत्र विख्यात हो।।जजूँ.।।६२४।।
ॐ ह्रीं नाभिनंदनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘नाभेय’ हो पूज्य हो।
महानाभिराजा से उत्पन्न हो।।जजूँ.।।६२५।।
ॐ ह्रीं नाभेयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! आप ‘नाभिजा’ शतेंद्रवृन्द पूज्य हो।
त्रिलोक में महान् हो सभासरोज सूर्य हो।।
मुनीन्द्र आप नाममंत्र ध्यावते सुध्यान में।
जजूँ सदैव मैं यहाँ लहूँ निजात्म धाम मैं।।६२६।।
ॐ ह्रीं नाभिजाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अजात’ हो जिनेश! जन्मशून्य आप सिद्ध हो।
मुझे प्रभो! भवाब्धि से निकालिये समर्थ हो।।मुनीन्द्र.।।६२७।।
ॐ ह्रीं अजाताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! ‘सुव्रत’ आप श्रेष्ठ संयमादि धारियो।
महाव्रतादि पूर्ण कीजिये मुझे सुतारियो।।मुनीन्द्र.।।६२८।।
ॐ ह्रीं सुव्रताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं ‘मनू’ समस्त कर्मभूमि को सुथापिया।
कुलंकरों से जन्म लेय तीर्थ चक्र धारिया।।
मुनीन्द्र आप नाममंत्र ध्यावते सुध्यान में।
जजूँ सदैव मैं यहाँ लहूँ निजात्म धाम मैं।।६२९।।
ॐ ह्रीं मनवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! ‘उत्तमा’ त्रिलोक में महान श्रेष्ठ हो।
मुनीशवृन्द पूज्य हो असंख्य जीव ज्येष्ठ हो।।मुनीन्द्र.।।६३०।।
ॐ ह्रीं उत्तमाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अभेद्य’ हो किन्हीं जनों से छेद भेद योग्य ना।
समस्त जन्म मृत्यु रोग नाश के सुखी घना।।मुनीन्द्र.।।६३१।।
ॐ ह्रीं अभेद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनत्ययो’ न नाश हो अनंत काल आपका।
मुझे सुखी सदा करो न अंत हो सुज्ञान का।।मुनीन्द्र.।।६३२।।
ॐ ह्रीं अनत्ययाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनाशवान्’ भोजनादि से विहीन आप हैं।
महान तप किया प्रभो समस्त वीश्वास्य हैं।।मुनीन्द्र.।।६३३।।
ॐ ह्रीं अनाश्वते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अधीक’ उत्कृष्ट आत्मा तुम्हीं कहे।
सुपाय वास्तवीक सौख्य को अधिक तुम्हीं रहें।।मुनीन्द्र.।।६३४।।
ॐ ह्रीं अधिकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोक के गुरु ‘अधीगुरु’ तुम्ही महान हो।
नमाय माथ को सदा सुआप को प्रणाम हो।।मुनीन्द्र.।।६३५।।
ॐ ह्रीं अधिगुरवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुगी’ सुवाणि आपकी अतीव शोभना कही।
अनंत दुख से निकाल मोक्ष में धरे वही।।मुनीन्द्र.।।६३६।।
ॐ ह्रीं सुगिरे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुमेधसा’ महान् बुद्धि से सुकेवली भये।
प्रभो! अपूर्व ज्ञान दो अनंत गुण मिले भये।।मुनीन्द्र.।।६३७।।
ॐ ह्रीं सुमेधसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पराक्रमी समस्त कर्म नाशहेतु शूर हो।
अतेव ‘विक्रमी’ कहावते अपूर्व सूर्य हो।।मुनीन्द्र.।।६३८।।
ॐ ह्रीं विक्रमिणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोक ‘स्वामि’ हो समस्त भव्य जीव पालते।
अनंत धाम में धरो भवाब्धि से निकालते।।मुनीन्द्र.।।६३९।।
ॐ ह्रीं स्वामिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘दुरादिधर्ष’ कोई ना अनादरादि कर सके।
प्रभो! तुम्हीं समस्त भव्य बन्धु हो जगत् विषे।।मुनीन्द्र.।।६४०।।
ॐ ह्रीं दुराधर्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘निरुत्सुको’ तुम्हीं समस्त आश शून्य हो।
सुमुक्तिवल्लभा विषे हि औत्सुक्य पूर्ण हो।।मुनीन्द्र.।।६४१।।
ॐ ह्रीं निरुत्सुकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विशिष्ट’ आप ही विशेष रूप श्रेष्ठ विश्व में।
गणीन्द्र शीश नावते न फेर विश्व में भ्रमें।।मुनीन्द्र.।।६४२।।
ॐ ह्रीं विशिष्टाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! ‘शिष्टभुक्’ तुम्हीं सुसाधुलोक पालते।
अनिष्ट को निकाल सत्य ज्ञान आप धारते।।मुनीन्द्र.।।६४३।।
ॐ ह्रीं शिष्टभुजे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! ‘शिष्ट’ श्रेष्ठ आचरण तुम्हीं धरा यहाँ।
अशेष मोहशत्रु नाश के अनिष्ट को दहा।।मुनीन्द्र.।।६४४।।
ॐ ह्रीं शिष्टाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! ‘प्रत्ययो’ प्रतीति योग्य आप एक ही।
समस्त ज्ञानरूप हो पुनीत पुण्यरुप ही।।मुनीन्द्र.।।६४५।।
ॐ ह्रीं प्रत्ययाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरम्य ‘कामनो’ प्रभो! त्रिलोक चित्तहारि हो।
न आपके समान रूप इंद्र नेत्रहारि हो।।मुनीन्द्र.।।६४६।।
ॐ ह्रीं कामनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनघ’ जिनेश! पापहीन पुण्य के निधान हो।
अनंत जीवराशि आपको नमें प्रमाण हो।।
मुनीन्द्र आप नाममंत्र ध्यावते सुध्यान में।
जजूँ सदैव मैं यहाँ लहूँ निजात्म धाम मैं।।६४७।।
ॐ ह्रीं अनघाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! ‘क्षेमि’ सर्वक्षेम युक्त आप विश्व में।
समस्त रोग शोक दु:ख मेट दो तुम्हें नमें।।मुनीन्द्र।।६४८।।
ॐ ह्रीं क्षेमिणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! ‘क्षेमंकरो’ त्रिलोक क्षेमकारि हो।
दरिद्र दु:ख मेट सौख्य दो सदैव भारि हो।।मुनीन्द्र.।।६४९।।
ॐ ह्रीं क्षेमंकराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! ‘अक्षयो’ तुम्हीं सदैव क्षय विहीन हो।
मुझे अखंडधाम दो सदा स्वयं अधीन जो।।मुनीन्द्र.।।६५०।।
ॐ ह्रीं अक्षयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘क्षेमधरमपति’ क्षेम करो हो, सर्व अमंगल दोष हरो हो।
आप सुनाम जजूँ मन लाके, सर्व अमंगल दूर भगाके।।६५१।।
ॐ ह्रीं क्षेमधर्मपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘क्षमी’ सुसहिष्णु कहे हो।
श्रेष्ठ क्षमा उपदेश रहे हो।।आप.।।६५२।।
ॐ ह्रीं क्षमिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप जिनेश! ‘अग्राह्य’ कहाते।
अल्प सुज्ञानी जान न पाते।।आप.।।६५३।।
ॐ ह्रीं अग्राह्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ज्ञान निग्राह्य’ प्रभो! जग में हों।
ज्ञान स्वसंविद से ग्रह ही हो।।आप.।।६५४।।
ॐ ह्रीं ज्ञाननिग्राह्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ज्ञानसुगम्य’ सुध्यान करें जो, नाथ तभी तुम जान सके वो।।
आप सुनाम जजूँ मन लाके, सर्व अमंगल दूर भगाके।।६५५।।
ॐ ह्रीं ज्ञानगम्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘निरुत्तर’ आप कहे हो।
सर्व जगत् उत्कृष्ट भये हो।आप.।।६५६।।
ॐ ह्रीं निरुत्तराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘सुकृती’ तुम पुण्य धरन्ता।
पुण्य करें जन भक्ति करन्ता।।आप.।।६५७।।
ॐ ह्रीं सुकृतिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धातु’ तुम्हीं सब शब्द जनंता।
चिन्मय धातु तनू भगवंता।।आप.।।६५८।।
ॐ ह्रीं धातवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! तुम्हीं ‘इज्यार्ह’ कहाये।
इन्द्र मुनी गण पूज्य सुगायें।।आप.।।६५९।।
ॐ ह्रीं इज्यार्हाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘सुनय’ सहपेक्ष नयों से।
सत्य सुधर्म कहा अति नीके।।आप.।।६६०।।
ॐ ह्रीं सुनयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीसुनिवास’ तुम्हीं प्रभु माने।
सम्पति धाम तुम्हें मुनि जाने।।आप.।।६६१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुनिवासाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! तुम्हीं ‘चतुरानन’ ब्रह्मा।
दीख रहे मुख चार सभा मा।।आप.।।६६२।।
ॐ ह्रीं चतुराननाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘चतुर्वक्त्र’ तुमको सुर पेखें।
नाथ! समोसृति में तुम देखें।।आप.।।६६३।।
ॐ ह्रीं चतुर्वक्त्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘चतुरास्य’ तुम्हें भवि वंदे, जन्म जरा मृति तीनहिं खंडे।।
आप सुनाम जजूँ मन लाके, सर्व अमंगल दूर भगाके।।६५४।।
ॐ ह्रीं चतुरास्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘चतुर्मुख’ चौमुख धर्ता।
द्वादश गण जनता मन हर्ता।आप.।।६६५।।
ॐ ह्रीं चतुर्मुखाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यात्मा’ प्रभु सत्य स्वरूपी।
दिव्यध्वनी मय वाक्य निरूपी।।आप.।।६६६।।
ॐ ह्रीं सत्यात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यविज्ञान’ प्रभो! तुम ही हो।
केवलज्ञान लिये चिन्मय हो।।आप.।।६६७।।
ॐ ह्रीं सत्यविज्ञानाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यसुवाक्’ प्रभो सत भंगी।
वाक्यसुधा तुम गंगतरंगी।।आप.।।६६८।।
ॐ ह्रीं सत्यवाचे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यसुशासन’ नाथ तुम्हारा।
भव्य जनों हित एक सहारा।।आप.।।६६९।।
ॐ ह्रीं सत्यशासनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्याशिष्’ शुभ आशिस् देते।
सर्व अमंगल भी हर लेते।।आप.।।६७०।।
ॐ ह्रीं सत्याशिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यसन्धान’ विभु तुम नामा।
सत्य प्रतिज्ञ तुम्हें सुर माना।।आप.।।६७१।।
ॐ ह्रीं सत्यसंधानाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्य’ प्रभो! तुम सत्पथदर्शी।
भव्य जनों हित वाक्य प्रदर्शी।।आप.।।६७२।।
ॐ ह्रीं सत्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यपरायण’ नाथ! हितैषी, तीन जगत के हित उपदेशी।।
आप सुनाम जजूँ मन लाके, सर्व अमंगल दूर भगाके।।६७३।।
ॐ ह्रीं सत्यपरायणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्थेयान्’ प्रभु नित स्थिर हो,
नाथ! मुझे स्थिर धाम दिला दो।।आप.।।६७४।।
ॐ ह्रीं स्थेयसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्थवीयान्’ प्रभु आप बड़े हो।
सर्व गणी गण में भि बड़े हो।।आप.।।६७५।।
ॐ ह्रीं स्थवीयसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘नेदिययान’ निज भक्तन के।
अति सन्निधि हो मन में बसते।।
तुम नाम सुमंत्र जपूँ नित ही।
भव वारिध पार करो अब ही।।६७६।।
ॐ ह्रीं नेदीयसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘दवीयान्’ पाप हना।
निज आत्म सुधारस पीय घना।।तुम.।।६७७।।
ॐ ह्रीं दवीयसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘दूरसुदर्शन’ हो तुम ही।
अणुरूप नहीं मुनि के मन ही।।तुम.।।६७८।।
ॐ ह्रीं दूरदर्शनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम नाथ! ‘अणोरणियान्’ कह्यो।
अति सूक्ष्म योगि सुगोचर हो।।तुम.।।६७९।।
ॐ ह्रीं अणोरणीयसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनणू’ तुम ज्ञान शरीर कहे।
अणु-पुद्गल नाहिं महान् कहें।।तुम.।।६८०।।
ॐ ह्रीं अनणवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गुरुराद्यगरीयस’ के जग में।
गुरुओं मधि श्रेष्ठ गुरु प्रभु हैं।।
तुम नाम सुमंत्र जपूँ नित ही।
भव वारिध पार करो अब ही।।६८१।।
ॐ ह्रीं गरीयसामाद्यगुरवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सदयोग’ सदा तुम योग धरा।
सब योगि सदा तुम ध्यान धरा।।तुम.।।६८२।।
ॐ ह्रीं सदायोगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सदभोग’ सुपुष्प सदा बरसें।
सुर दुंदुभि आदि करें हरसें।।तुम.।।६८३।।
ॐ ह्रीं सदाभोगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सद्तृप्त’ सदाप्रभु तृप्त रहो।
क्षुध प्यास नहीं प्रभु तुष्ट रहो।।तुम.।।६८४।।
ॐ ह्रीं सदातृप्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सदाशिव’ हो जग में।
नहिं कर्म कलंक छुआ तुमने।।तुम.।।६८५।।
ॐ ह्रीं सदाशिवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सदागति’ ज्ञानमयी।
गति पंचम मोक्ष लिया तुमही।।तुम.।।६८६।।
ॐ ह्रीं सदागतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सदसौख्य’ सदा प्रभु सौख्य लह्यो।
सब सात असात सुखादि हर्यो।।तुम.।।६८७।।
ॐ ह्रीं सदासौख्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सदाविद्य’ हो जग में।
शुचि केवलज्ञान धरो निज में।।तुम.।।६८८।।
ॐ ह्रीं सदाविद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिननाथ! ‘सदोदय’ आप रहें।
नित उदितरूप रवि आप कहें।।तुम.।।६८९।।
ॐ ह्रीं सदोदयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ध्वनि उत्तमनाथ! ‘सुघोष’ तुम्हीं।
इक योजन जीव सुनें सबहीं।।
तुम नाम सुमंत्र जपूँ नित ही।
भव वारिध पार करो अब ही।।६९०।।
ॐ ह्रीं सुघोषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सुमुख’ सुंदर मुख हो।
विकसंत कमल मंदस्मित हो।।तुम.।।६९१।।
ॐ ह्रीं सुमुखाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सौम्य’ तुम्हीं शशि सुंदर हो।
तुम गावत गीत पुरंदर हो।।तुम.।।६९२।।
ॐ ह्रीं सौम्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुखदं’ सब जीव शुभंकर हो।
सुखदायि जिनेश्वर आपहि हो।।तुम.।।६९३।।
ॐ ह्रीं सुखदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुहितं’ प्रभु सर्वहितंकर हो।
मुझको निज दास करो शिव हो।।तुम.।।६९४।।
ॐ ह्रीं सुहिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सुहृत्’ सबके मितु हो।
मुझ चित्त बसों सब ही वश हों।।तुम.।।६९५।।
ॐ ह्रीं सुहृदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सुगुप्त’ सुरक्षित हो।
तुम भक्त सभी अरि रक्षित हों।।तुम.।।६९६।।
ॐ ह्रीं सुगुप्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘गुप्तिभृता’ त्रयगुप्ति धरी।
तुम भक्ति किया मुझ धन्य घरी।।तुम.।।६९७।।
ॐ ह्रीं गुप्तिभृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘गोप्ता’ रक्षक हो जग के।
मुझ पे अब नाथ कृपा कर दे।।
तुम नाम सुमंत्र जपूँ नित ही।
भव वारिध पार करो अब ही।।६९८।।
ॐ ह्रीं गोप्त्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘लोकअध्यक्ष’ त्रिलोकपती।
मुझ व्याधि उपाधि हरो जलदी।।तुम.।।६९९।।
ॐ ह्रीं लोकाध्यक्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘दमेश्वर’ हो नित ही।
सब इंद्रिय जीत अतीन्द्रिय ही।।तुम.।।७००।।
ॐ ह्रीं दमेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु असंस्कृतादि से लेकर सौ नाम पढ़े जो भव्य सदा।
सब भूत पिशाच उपद्रव भी नश जांय सभी नशती विपदा।।
ज्वर कुष्ठ भंगदर कामल आदिक रोग सभी नशते क्षण में।
पूर्णार्घ चढ़ाकर वंदत हूँ प्रभु आप बसो नित मुझ मन में।।७।।
ॐ ह्रीं असंस्कृतसुसंस्कारादिशतनामभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—१. ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवाय सर्वसिद्धिकराय सर्वसौख्यं कुरु कुरु ह्रीं नम:।
२. ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवाय नम:। (दोनों में से कोई एक मंत्र जपें)
(सुगंधित पुष्पों से या लवंग से १०८ या ९ बार जाप्य करें।)
तीन लोक में श्रेष्ठतम, जिनवर विभव प्रधान।
प्रातिहार्य की संपदा, तीर्थंकर पहिचान।।१।।
अशोक वृक्ष रत्नकाय चित्रवर्ण का धरे।
हरितमणी की पत्तियाँ हवा लगे हि थरहरें।।
नवीन कोपलों समेत राग को स्वयं धरे।
तथापि भक्त के समस्त राग भाव को हरे।।२।।
सुपूर्णचन्द्र के समान तीन छत्र शोभते।
अनेक मोतियों समेत भव्य चित्त मोहते।।
जिनेन्द्र के त्रिलोक ऐश्वर्य को बतावते।
भवाग्नि ताप भव्य जीव का सभी नशावते।।३।।
अनेक रत्न के समूह युक्त सिंह पीठ है।
सफेद सुस्फटीकरत्न से बना प्रसिद्ध है।।
अपूर्व पद्म पे अधर जिनेंद्र देव राजते।
नमो नमो पदारिंवद सर्व पाप नाशते।।४।।
प्रगाढ़ भक्ति से समस्त भव्य मोद से भरे।
स्वहस्त जोड़ आपके सभी तरफ रहें घिरे।।
सुधा झरी ध्वनी सुने स्वकर्म कालिमा हरें।
शनै: शनै: निजात्म ध्याय सिद्धि कन्यका वरें।।५।।
विषय कषाय शून्य नाथ पाद शर्ण आइये।
अनंत जन्म के समस्त कर्म को नशाइये।।
इतीव सूचना करंत देव दुंदुभी बजे।
सुभव्यजीव कर्ण से सुने प्रमोद को भजें।।६।।
अनेक देव भक्ति से सुपुष्प वृष्टि को करें।
समस्त पुष्प वृंत्त को अधो किये धरा गिरे।।
खिले खिले सुवर्ण पुष्प हर्ष को बढ़ावते।
सुदेख देख भक्त वृंद, पुण्य को बढ़ावते।।७।।
प्रभासुचक्र नाथ आप ज्योतिपुंज रूप हैं।
अनेक सूर्य कोटि की प्रभा हरे अनूप हैं।।
सुभव्य को सदैव सात भव दिखावता रहे।
जिनेंद्र का अपूर्व तेज नित्य पावता रहे।।८।।
सुकुंद पुष्प के समान श्वेत चामरों लिये।
सुयक्षदेव ढोरते अतुल्य भक्ति को लिये।।
चंवर सदैव ऊर्ध्व जाय भव्य सूचना करें।
जिनेंद्र भक्त नित्य एक ऊर्ध्व ही गती धरें।।९।।
सुआठ प्रतिहार्य औ अनंत विभव धारते।
स्वभक्त को भवाब्धि से तुरन्त आप तारते।।
सुनी सुकीर्ति आपकी इसीलिए खड़ा यहाँ।
बस एक आश पूरिये न आवना हो फिर यहाँ।।१०।।
स्वात्म सौख्य पीयूष रस, निर्झरणी वच आप।
‘ज्ञानमती’ सुख पूरिये, मिटे सकल संताप।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य असंस्कृतसुस्स्कारादिशतनाममंत्रेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य ऋषभदेव का विधान यह करें।
सम्पूर्ण अमंगल व रोग शोक दुख हरें।।
अतिशायि पुण्य प्राप्त कर ईप्सित सफल करें।
कैवल्य ‘‘ज्ञानमती’’ से जिनगुण सकल भरें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।