निश्चय और व्यवहार इन दो नयों के द्वारा जिनागम में आत्मतत्व का वर्णन किया गया है। निश्चयनय से आत्मतत्व का अनुभव होता है न कि कथन, उसके कथन हेतु तो व्यवहार नय का ही आश्रय लेना पड़ता है। जैसे कि आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार रूपी व्यवहार कथन के माध्यम से वीतरागी मुनिराजों को निर्विकल्प आत्मा में लीन होने का उपदेश दिया है।
गाथा नं ८ में श्री कुन्दकुन्द आचार्य कहते हैं—
अर्थात् जैसे म्लेच्छ पुरुष को म्लेच्छ भाषा के बिना तो उपदेश का ग्रहण कराना शक्य नहीं है वैसे ही व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश देना भी अशक्य है।
इस गाथा की आत्मख्याति टीका लिखते हुए श्री अमृतचन्द्र सूरि ने कहा है—
यथा खलु म्लेच्छः स्वस्तीत्यभिहिते सति …… इसका अर्थ है कि ‘‘जैसे कोई म्लेच्छ पुरुष है उसको किसी ब्राह्मण ने ‘‘स्वस्ति हो’’ ऐसा कहा तब वह ‘‘स्वस्ति’’ शब्द के वाच्यवाचक सम्बन्ध के ज्ञान से शून्य होने से उसका कुछ भी अर्थ न समझता हुआ मेढ़े की तरह टकटकी लगाकर देखता ही रहा कि इसने क्या कहा है ? तब उस ब्राह्मण की भाषा और म्लेच्छ की भाषा को जानने वाले किसी अन्य ने उसे म्लेच्छ भाषा के आश्रय से समझाया कि ‘‘स्वस्ति’’ इस पद का यह अर्थ है कि ‘‘तुम्हारा कल्याण हो’’ । उस समय उसकी आँखों में आनन्द के अश्रु आ गए और वह उस अर्थ को समझकर अतिशय प्रसन्न हो गया। उसी प्रकार से ये सभी संसारी जन भी ‘‘आत्मा’’ ऐसा कहने पर वास्तविक रूप जो आत्मा का स्वरूप है उसके ज्ञान से शून्य होने से उसके अर्थ को कुछ भी न समझते हुए मेढ़े के समान ही टकटकी लगाकर देखते ही रह जाते हैं पुनः जब कोई महामुनि जो व्यवहार और परमार्थ के पथ पर अग्रसर हैं वे उस अज्ञानी प्राणी को ‘‘आत्मा’’ शब्द का अर्थ समझा देते हैं तब वे संसारी प्राणी आत्मा का अर्थ समझकर अन्तःकरण में उठने वाली शुद्धात्म तरंगों का आनन्द प्राप्त करते हैं।
यहाँ म्लेच्छ के स्थान पर जगत् के जीवों को समझना तथा म्लेच्छ भाषा के स्थान पर व्यवहार नय को जानना चाहिये। व्यवहार नय चूँकि परमार्थ का प्रतिपादक है इसलिये ग्रहण करने योग्य है किन्तु जैसे ब्राह्मण को म्लेच्छ के समान आचरण करना योग्य नहीं है उसी प्रकार व्यवहारनय भी शुक्लध्यानी महामुनियों के लिए अनुसरण करने योग्य नहीं है।
इस गाथा की टीका की ‘‘ज्ञानज्योति’’ हिन्दी टीका करते हुए पू. गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने ‘‘विशेषार्थ’’ में लिखा है—कि ‘‘जब व्यवहार नय बंध पर्याय का या भेद का कथन करने वाला है तब उसका उपदेश क्यों देना ? उपदेश तो सदा सर्वोत्कृष्ट ही होना चाहिये इसलिए आप एक परमार्थ रूप निश्चयनय का ही उपदेश दीजिये ? इस पर आचार्य कहते हैं कि शिष्य! व्यवहारनय के बिना निश्चयनय के विषयभूत परमार्थ का उपदेश ही असम्भव है। यहाँ पर भेदरत्नत्रय को व्यवहार कहा है और अभेद रत्नत्रय को परमार्थ या निश्चय संज्ञा दी है तथा भेद का कथन करने वाला जो व्यवहार नय है वह ऐसा ही है जैसे म्लेच्छ को समझाते समय उसकी म्लेच्छ भाषा का प्रयोग। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ तक सविकल्प अवस्था है, भेद रत्नत्रय का पालन हो रहा है, सराग चारित्र है वहाँ एक सरागसंयमी मुनियों के लिए भी व्यवहार नय का उपदेश होता है और वह उपदेश उन्हें परमार्थ रूप अभेदरत्नत्रय को प्राप्त कराने वाला है किन्तु जो निर्विकल्प समाधि रूप अभेद अवस्था में पहुँच चुके हैं ऐसे परमोपेक्षा संयमी मुनियों के लिए केवल परमार्थ का उपदेश है उनके लिए व्यवहार बिल्कुल हेय समझना चाहिये।’’
यहाँ कहने का तात्पर्य यही है कि म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा बोले बिना अपनी बात समझाई नहीं जा सकती है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी व्यवहारिक भाषा में ही ग्रन्थों का प्रतिपादन किया है। उन्होंने सरागी मुनियों को जहाँ समयसार में वीतरागी बनने की प्रेरणा दी है वहीं ‘‘प्रवचनसार’’ में उनकी व्यवहार चर्या बताते हुये कहा है—
अर्थात् छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती सरागी—व्यवहार रत्नत्रयधारी साधु सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान का उपदेश दें, शिष्यों का संग्रह तथा उनका पोषण करें एवं श्रावकों को जिनेन्द्र भगवान की पूजा आदि करने का भी उपदेश दें।
इससे यह प्रतिभासित होता है कि आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी स्वयं भी इन क्रियाओं को करते हुये सामायिक आदि काल में ही वीतराग आत्मा में लीन होते थे। बिना शिष्य संग्रह किये उनका संघ वैâसे बनता और संघस्थ शिष्यों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी भी आचार्य को निर्वाह करनी पड़ती है तभी स्वस्थ शिष्य परम्परा चलती है। उन्होंने स्वरचित भक्ति में भी जगह-जगह भगवान् से अपने संघ के लिए बोधिलाभ और समाधि की याचना की है। गृहस्थों के लिए भी उन्होंने रयणसार ग्रन्थ रचकर दान और पूजा उनके प्रमुख कर्त्तव्य बताए हैं।
समयसार ग्रन्थ के रचयिता कुन्दकुन्दाचार्य इस पंचमकाल के ही थे और पंचमकाल के मुनियों को ही सरागी से वीतरागी बनने का उपदेश दिया है, इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस काल में वीतरागी मुनि थे, आज भी विद्यमान हैं एवं आगे भी होंगे। बीसवीं सदी के प्रथम आच्ाार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शान्तिसागर जी महाराज इस बात के जीवन्त प्रमाण रहे हैं जिन्होंने सर्प के उपसर्ग को ध्यान के बल पर जीता, घण्टों तक उनके शरीर पर क्रीडा करता हुआ सर्प भी उन्हें ध्यान और वैराग्य से विचलित नहीं कर सका था। इसी प्रकार अगणित चीटियों ने एक बार उनके शरीर पर घाव कर दिये थे, उसे शान्तिपूर्वक सहन किया तब उन्हें ‘‘चारित्रचक्रवर्ती ’’ की पदवी प्राप्त हुई थी। वे अन्त तक भी अपने प्रवचन में श्रावकों को सम्बोधित करते हुये कहते थे कि—
पर उपदेश के लिए भाषा का प्रयोग आवश्यक है तथा जिस प्रदेश में जायें उस प्रान्तीय भाषा का ज्ञान भी आवश्यक है अन्यथा वक्ता और श्रोता दोनों ही दिग्भ्रमित हो जाते हैं।
राजस्थान के जयपुर शहर में एक बार उत्तर प्रदेश का एक व्यक्ति पहुँचा। वहाँ आचार्य श्री वीरसागर महाराज का संघ विराजमान था अतः वे सज्जन आहारदान देने एक श्रावक के घर गये। आहार के पश्चात् घर वालों ने उनसे कहा—‘‘भाई जी! अण्डे ही जीम लीजो’’। उन्होंने मना करते हुये अपना सिर हिला दिया कि मैं तो शुद्ध शाकाहारी हूँ अण्डा वैâसे खा लूँगा ? फिर घर के श्रावक ने पूछा—‘‘तो भाई! अण्डे कोनी खाओला तो कोड़े खाओला ? अब तो वे और घबरा गये कि ‘‘अण्डा नहीं खाऊंगा तो कोड़े की मार खानी पड़ेगी’’। फिर वे जल्दी वहाँ से भागे और मध्याह्न में एक महाराज जी के सामने सारी बात बताते हुये कहने लगे कि यहाँ जैन लोग अण्डे खाते हैं और नहीं खाने वालों को इस प्रकार बुरी तरह से प्रताड़ित करते हैं। उस समय संघ में खूब मजाक हुई, महाराज ने बताया कि आप राजस्थानी भाषा नहीं जानते हैं इसीलिए अर्थ का अनर्थ हुआ है किन्तु वे श्रावक तो आपको आदरपूर्वक अपने यहाँ भोजन करने का आमंत्रण दे रहे थे, पुनः वे पूछ रहे थे कि अण्डे अर्थात् यहाँ नहीं जीमोगे (खाओगे) तो कोड़े अर्थात् कहाँ भोजन करोगे, लेकिन आप गलत भाव समझकर भाग आये। वे उत्तर प्रदेश वाले सज्जन बड़े शर्मिन्दा हुये, अपनी अज्ञानता पर पश्चाताप करने लगे।
जब एक प्रदेश की भाषा को नहीं जानने वाला दूसरा प्रान्तीय पुरुष व्यवहारिक क्रिया में इतना दिग्भ्रमित हो सकता है तथा दोनों प्रान्तों की भाषा जानने वाले मुनिश्री के द्वारा समझाए जाने पर आल्हाद का अनुभव करता है तब शुद्धात्म तत्व की भाषा न समझने वालों को उनकी व्यवहार भाषा में समझाने पर कितना हर्ष होगा, इसका अनुमान साधारण मानव नहीं लगा सकता है इसीलिए आचार्यश्री ने उपर्युक्त गाथा में अनार्य भाषा का प्रयोग किया है। यहाँ अनार्य भाषा को व्यवहारनय समझना चाहिये और व्यवहारनय के अवलम्बन को लेकर निश्चयनय के विषयभूत आत्मतत्व को समझना चाहिये।