यूँ तो आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने गोम्मटसार में कहा है—
अर्थात् जीव और कर्म का अनादिकाल से सम्बन्ध चला आ रहा है और यही उनका स्वभाव बन गया है। जिस प्रकार खान से निकले हुए स्वर्णपाषाण के ऊपर मल चढ़ा रहता है उसी प्रकार इस जीवात्मा के ऊपर भी अनादि से कर्ममल चढ़ा हुआ है।
जैसे, पुरुषार्थ के बल पर उस सोने को तपाकर शुद्ध किया जाता है अर्थात् उससे किट्टकालिमा को अलग कर दिया जाता है उसी प्रकार पुरुषार्थपूर्वक संयम और तप के द्वारा आत्मा को कर्मकालिमा से भिन्न करके शुद्ध परमात्मा बनाया जा सकता है।
यद्यपि आत्मा चैतन्य जीव है और कर्म पुद्गल हैं। दोनों एक दूसरे से छत्तीस के आंकड़े के समान भिन्न हैं फिर भी दोनों का एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध माना गया है और पुद्गल कर्म आत्मा को सुख-दुख देते हैं इस बात को अध्यात्मग्रन्थ समयसार भी स्वीकार करता है। जैसा कि ४५ नं. की गाथा में आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव कहते हैं—
अर्थात् ये आठों प्रकार के भी सभी कर्म पुद्गलमय हैं ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं क्योंकि जिस विपाक के समय उदय में आने वाले कर्म का फल दुःख है ऐसा कहा गया है।
आचार्य श्री अमृतचन्द्र सूरि ने इस गाथा की आत्मख्याति टीका में खुलासा किया है, जिसकी हिन्दी टीका करते हुए पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी लिखती हैं—
‘‘जो इन राग द्वेष आदि भावों को उत्पन्न करने वाले आठों प्रकार के ज्ञानावरण आदि भी कर्म हैं, वे समस्त ही पुद्गलमय हैं ऐसी निश्चित ही सर्वज्ञदेव की वाणी है। उस कर्म का उदय चरम सीमा को प्राप्त होने पर ‘‘फल’’ नाम से कहा जाता है, वह अनाकुलता लक्षण सुख नामक आत्मा के स्वभाव से विलक्षण होने से दुःख ही है। ये अध्यवसान आदि भाव आकुलता लक्षण वाले होने से उस दुःख के अन्तर्गर्भित ही हैं इसलिए ये चैतन्य से सम्बन्धित होने का भ्रम उत्पन्न कराते हैं तो भी ये आत्मा के स्वभाव नहीं हैं किन्तु पुद्गल के ही स्वभाव हैं ऐसा समझना चाहिए।
चैतन्यरूप का प्रतिभास होने पर भी ये रागादि परिणाम पुद्गल के स्वभाव वैâसे हो सकते हैं ? किसी की ऐसी आशंका होने पर आचार्य श्री जयसेन स्वामी भी उपर्युक्त गाथा की तात्पर्यवृत्ति टीका में लिखते हैं—
जिसका तात्पर्य इस प्रकार है—आठ प्रकार के पुद्गलमय कर्मों का जो कार्य है वह अनाकुलता लक्षण परमार्थ सुख से विलक्षण होने से आकुलता का उत्पादक दुःखरूप ही है और जो ये रागादि परिणाम हैं वे भी आकुलता के उत्पादक दुःख लक्षण वाले ही हैं इसलिए ये रागादि भाव पुद्गल के कार्य होने से शुद्ध निश्चयनय से पौद्गलिक ही हैं।
यहाँ रागादि भावों को भी पौद्गलिक कह दिया है किन्तु इन भावों का उपादान कारण आत्मा ही है, पुद्गल ही है, पुद्गल तो निमित्त मात्र हैं फिर भी निश्चयनय की अपेक्षा यह कथन है क्योंकि यहाँ पुद्गल के निमित्त से होने से ये पौद्गलिक कह दिये गये हैं। श्रीजयसेनाचार्य ने अपनी टीका में अंतिम पंक्ति में खोल दिया है कि ये विभाव भाव पुद्गल द्रव्य के कार्य हैं चूँकि उन्हीं पौद्गलिक कर्म के उदय से उत्पन्न हुए हैं अतः शुद्ध निश्चयनय से ये पौद्गलिक हैं ऐसा समझना चाहिए। आगे स्वयं आचार्य श्री कुंदकुंददेव ने इन्हें जीव के बतलाए हैं क्योंकि वे भी जानते थे कि कहीं संसारी प्राणी इतने कथन मात्र से एकांती दुराग्रही न बन जावें।
उनका कथन है कि—व्यवहारनय से ये सभी अध्यवसान आदि भाव जीव हैं, ऐसा सर्वज्ञदेव ने कहा है क्योंकि जैसे म्लेच्छ भाषा के द्वारा म्लेच्छों को वस्तु का स्वरूप समझाया जाता है वैसे ही व्यवहारनय के द्वारा व्यवहारीजनों को परमार्थ का उपदेश देना भी तीर्थप्रवृत्ति का निमित्त है अतः उसको बतलाना न्याय ही है। इस व्यवहार के बिना तो परमार्थ से शरीर और जीवात्मा का भेद देखा जाता है अर्थात् निश्चयनय से जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं अतः राख के समान त्रस और स्थावर जीवों का निःशंक-स्वच्छंद होकर घात कर देने पर भी िंहसा नहीं होगी और िंहसा के न होने से कर्मबन्ध का भी अभाव हो जावेगा उसी प्रकार से रागी, द्वेषी, मोही जीव कर्मों से बंध रहा है यह कर्मबन्धन से छुड़ाने योग्य है ऐसा जो कथन है वह भी नहीं बनेगा क्योंकि परमार्थ से तो राग, द्वेष, मोह से जीव भिन्न ही है अतः मोक्ष के उपाय को ग्रहण करने का अभाव हो जावेगा और जब मोक्ष का उपाय नहीं होगा तब मोक्ष का भी अभाव हो जावेगा।
गाथा का सारांश यही है कि जिन कर्मों का सम्बन्ध अनादिकाल से आत्मा के साथ चला आ रहा है उसे व्यवहारनय के अवलम्बन से ही संयम-तप आदि पुरुषार्थ के द्वारा जीव से अलग करके शुद्ध निश्चयनय को प्रत्यक्ष रूप में प्राप्त करना चाहिए।