गणिनी अर्यिका ज्ञानमती माता जी स्याद्वाद-नयगर्भित अनेकान्तमय जिनषासन की अनन्य भक्त हैं। यद्यपि पूर्व से नियमसार पर तात्पर्यवृत्ति टीका विद्यमान थी जिसका हिन्दी अनुवाद माता जी कर चुकी थी परन्तु स्याद्वाद पद्धति से “व्यवहारी जीवों के लिए व्यवहार ही “शरण है” इस भावना को दृश्टिगत करते हुये व्यवहार सापेक्ष निष्चय के प्रतिपादन स्वरूप इस टीका का प्रणयन उन्होंने ‘स्याद्वाद’ शब्द युक्त ‘चन्द्रिका’ नामकरण से किया है। आ० समन्तभद्र की निम्न कारिका से वे अत्यन्त प्रभावित ज्ञात होती है,
अनवद्यः स्वाद्वादस्तव दृश्टेश्टाविरोधतः स्वाद्वादः।।
इतरो न स्याद्वादो सद्विवादो सद्वितयविरोधान्मुनीष्वराऽ स्याद्वादः।।
यहाँ अपनी बात न कहकर नामकरण के विशय में रचयित्री के शब्द उद्धृत करना ठीक होगा जो अत्यंत ललित एवं प्रभावक हैं
“अयं ग्रन्थो नियमकुमुदं विकासयितुं चन्द्रोदयस्ततो नियमकुमुदचन्द्रोदयो अथवायतिकैरवाणि प्रफुल्लीकत्र्तुं राकानिषीथिनीनाथत्वाद् यतिकैरवचन्द्रोदयोऽस्ति।
अस्मिन् पदे पदे व्यवहारनिष्चयनययो व्यवहारनिष्चयक्रिययोव्र्यावहारिकनिष्चय-मोक्षमार्गयोष्च परस्परमित्रत्वात् अस्य विशय स्याद्वाद गर्भीकृतो वत्र्ततोऽस्य टीकाचन्द्रोदयस्य चन्द्रिका इव विभासतेऽतो “स्याद्वाद चन्द्रिका” नाम्ना सार्थक्यं लभते।
अर्थ – यह ग्रन्थ नियमरूपी कुमुद को विकसित करने के लिये चन्द्रमा का उदय है अतः यह नियमकुमुदचन्द्रोदय है। अथवा यति रूपी कैरव-“वेतकमलों को खिलाने के लिये पूर्णिमा की अद्र्धरात्रि को चन्द्रमा का उदय होने से यह यतिकैरव चन्द्रोदय है इसमें पद-पद पर व्यवहार निष्चय नयों की, व्यवहार-निष्चय क्रियाओं की और व्यवहार-निष्चय मोक्षमार्ग की परस्पर में मित्रता होने से इसका विशयस्याद्वाद से सहित है। इसकी टीका चन्द्रमा के उदय की चाँदनी के समान शाभित हो रही है। इसलिये यह ‘स्याद्वाद चन्द्रिका’ नाम से सार्थकता को प्राप्त है।
स्याद्वाद जिनषासन का विषेश चिन्ह है जो परमतों से इसे पृथक् सिद्ध करता है। वस्तुतत्त्व की सिद्धि हेतु ‘अपितानर्पितसिद्धेः’ सूत्रानुसार एक नय को मुख्य एवं दूसरे विरोधी नय को गौण करना पड़ता है यही जैनी नीति है। जैन धर्म की प्रभावना तथा सहअस्तित्व के लिये यही एकमात्र उपयोगी है। इसी में सभी विद्यमान विरोधों का समाधान है इस भाव को सर्वत्र कायम रखने के कारण इसकी संज्ञा ‘स्याद्वाद चन्द्रिका’ सार्थक ही है।
जैसे चांदनी समस्त पदार्थो को प्रकाषित करती है वैसे ही यह टीका स्याद्वाद (अनेकान्त) की प्रकाषक अथवा स्याद्वाद से वस्तुसमूह को प्रकाषित करती है अतः यह ग्रन्थ की अन्वर्थ संज्ञा है। यह टीका नय पक्ष से रहित एवं स्वरूप सम्बोधन हेतु मील का पत्थर है इसके सम्यक् अनुषीलन से हम आत्म कल्याण के प्रयासों को तीव्रतर और तीव्रतम करने में सफल हो सकते हैं।
माता जी ने प्रस्तुत टीका का लेखन कार्य वैसाख शुक्ला तृतीया (भगवान् ऋशभदेव प्रथम पारणा दिवस अक्षय तृतीया) वीर निर्वाण सं० 2504 ईस्वी सन् 1978 को प्रारम्भ किया था। फाल्गुन शुक्ला वीर सं० 2505 (सन् 1979 ई0) तक 74 गाथाओं ओर 75 वीं गाथा के अद्र्धांष की टीका पूर्ण की थी? तदनन्तर अन्य प्रभावना कार्यों के कारण टीका में व्यवधान आ गया।
5 वर्श की दीर्घावधि पष्चात् पुनः ज्येश्ठ शुक्ला प्रतिपदा वीर सं० 2510 (सन् 1984 ई०) से लेखन कार्य प्रारम्भ कर 79 वीं गाथा की टीका ज्येश्ठ शुक्ला 5 (श्रुत पंचमी पर्व) को पूर्ण कर चार अध्याय पूर्ण किये। पुनः अवषिश्ट टीका कार्य प्रारम्भ कर मार्गषीशकृश्ण सप्तमी वीर सं० 2511 को पूर्ण किया। तत्पष्चात प्रषस्ति लेखन प्रारम्भ कर मार्गषीर्श शुक्ल 2 (24 नवम्बर) को मध्यान्ह में पूर्ण किया2। माता जी ने वैषाख सुदी 2 से (सन् नवम्बर 1978) अनुवाद प्रारम्भ कर दिया था वह भी मगसिर (मार्गषीर्श) सुदी पूर्णिमा तदनुसार 8 दिसम्बर 1984 को पूर्ण किया।
इस प्रकार आर्यिका ज्ञानमती ने स्याद्वाद चन्द्रिका का लेखन कार्य 6 वर्श 9 माह दिनों मे पूर्ण किया है। (वैसाख सुदी 2 या 3 सन्1978 से प्रारम्भ कर मगसिर सुदी 15 दि० 1984 को पूर्ण किया।) वैसे निरन्तरता की दृश्टि से 19 माह में यह श्रेश्ठ कार्य सम्पन्न हुआ। मध्य में व्यवधान के कारण लेखन न हो सका।
ग्रन्थ की पूर्णता होने पर ब्र० कु० माधुरी शास्त्री व ब्र० मोतीचन्द व श्री रवीन्द्र कुमार एवं संघस्थ मुमुक्षुओं ने ग्रन्थ की पूजा करके सरस्वती वन्दना समारोह पूर्वक ग्रन्थ को पालकी में विराजमान कर शोभयात्रा निकाली और विषेश उत्सव किया।
यह उक्ति प्रसिद्ध है कि श्रेश्ठ कार्यों में विघ्न आते ही हैं। किन्तु लक्ष्य पर दृढ रूप से चलने वाले भव्यात्माओं का कार्य पूर्ण ही होता है। माता जी के प्रस्तुत कार्य में व्यवधानों एवं देरी के बावजूद भी सफलता हुई। इसमें भी उनका पुण्य भाव एवं पुण्य फल साधक हुआ। हम लोगों को भी सरस्वती के इस अध्याय की प्राप्ति हुई यह हमारे सुकृतों का ही परिणाम है।