त्रिभुवन के ज्ञाता मोक्षमार्ग के नेता तीर्थंकर होते।
ये कर्मभूमिभृत् के भेत्ता, सब राग द्वेष विरहित होते।।
सर्वज्ञ वीतरागी हित के उपदेशी प्रभु त्रिभुवन गुरू हैं।
आह्वानन कर मैं नित पूजूँ, ये सर्व हितंकर जिनवर हैं।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य बृहद्वृहस्पत्यादिशतनाममंत्रसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य बृहद्वृहस्पत्यादिशतनाममंत्रसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य बृहद्वृहस्पत्यादिशतनाममंत्रसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
श्री जिनेंद्र की ध्वनी समान स्वच्छ नीर है।
तीन धार देत ही मिले भवाब्धि तीर है।।
आप नाम मंत्र को जजूँ स्वभक्ति धार के।
आप ही स्व भक्त को भवाब्धि से उबारते।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य बृहद्वृहस्पत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ के प्रतापसम सुगंध गंध सार है।
चर्ण में चढ़ावते मिले समस्त सार है।।
आप नाम मंत्र को जजूँ स्वभक्ति धार के।
आप ही स्व भक्त को भवाब्धि से उबारते।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य बृहद्वृहस्पत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
धौत शालिधान कीर्ति के समान श्वेत है।
पूर्ण सौख्य हेतु पुंज शोभते विशेष है।।
आप नाम मंत्र को जजूँ स्वभक्ति धार के।
आप ही स्व भक्त को भवाब्धि से उबारते।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य बृहद्वृहस्पत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंद केतकी गुलाब गंध से भरे खिले।
आप पादपद्म अर्च ज्ञान कौमुदी खिले।।
आप नाम मंत्र को जजूँ स्वभक्ति धार के।
आप ही स्व भक्त को भवाब्धि से उबारते।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य बृहद्वृहस्पत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मिष्ट मालपूप आदि स्वर्ण थाल में भरें।
स्वात्म सौख्य हेतु नाथ आप पास में धरें।।
आप नाम मंत्र को जजूँ स्वभक्ति धार के।
आप ही स्व भक्त को भवाब्धि से उबारते।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य बृहद्वृहस्पत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नदीप लेय के जिनेश आरती करूँ।
मोहध्वांत को निवार, ज्ञानभारती वरूँ।।
आप नाम मंत्र को जजूँ स्वभक्ति धार के।
आप ही स्व भक्त को भवाब्धि से उबारते।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य बृहद्वृहस्पत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्वेत चंदनादि धूप अग्निपात्र में जले।
अष्ट कर्म नष्ट हेतु आत्म स्वच्छता मिले।।
आप नाम मंत्र को जजूँ स्वभक्ति धार के।
आप ही स्व भक्त को भवाब्धि से उबारते।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य बृहद्वृहस्पत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेव आम दाडिमादि थाल में भरायके।
मुक्ति अंगना वरूँ सु आप को चढ़ाय के।।
आप नाम मंत्र को जजूँ स्वभक्ति धार के।
आप ही स्व भक्त को भवाब्धि से उबारते।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य बृहद्वृहस्पत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट द्रव्य में मिलाय रत्न अर्घ्य को लिया।
भेद औ अभेद तीन रत्न हेतु अर्चिया।।
आप नाम मंत्र को जजूँ स्वभक्ति धार के।
आप ही स्व भक्त को भवाब्धि से उबारते।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य बृहद्वृहस्पत्यादिशतनाममंत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनपद में धारा करूँ, चउसंघ शांती हेत।
शांतीधारा जगत में, आत्यंतिक सुख हेत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हर सिंगार बहु, पुष्प सुगंधित सार।
पुष्पांजलि से पूजते, होवे सौख्य अपार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रत्येक अर्घ्य (१०० अर्घ्य)
समवसरण प्रभु आप, त्रिभुवन की लक्ष्मी धरे।
पूजूँ तुम चरणाब्ज, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्
चाल—पूजों पूजों श्री……..
‘बृहद्वृहस्पति’ प्रभु नाम है। सुरपति के गुरु सरनाम हैं।
पूजते ही मिले मोक्षधाम है। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें जिनेश्वर नामा। जिससे पावें निजातम धामा।
सर्व कर्मों का होवे खातमा। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।७०१।।
ॐ ह्रीं बृहद्वृहस्पतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वाग्मी’ तुम्हीं त्रिभुवन में। शुभवचन द्वादशों गण में।
पूजते पाप नश जाय क्षण में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें जिनेश्वर नामा। जिससे पावें निजातम धामा।
सर्व कर्मों का होवे खातमा। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।७०२।।
ॐ ह्रीं वाग्मिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वाचस्पती’ आप जग में। वचनों के स्वामी सहज में।
नाम लेते मिले शांति मन में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७०३।।
ॐ ह्रीं वाचस्पतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम नाम ‘उदारधी’ है। ज्ञानदान का मूल वही है।
पूजते आप सुख ही मही हैं। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७०४।।
ॐ ह्रीं उदारधिये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘मनीषी’ कहाये। केवलज्ञान सद्बुुद्धि पाये।
शत इंद्र सदा गुण गायें। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७०५।।
ॐ ह्रीं मनीषिणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आपको ही ‘धिषण’ साधु कहते। सर्वज्ञानैक बुद्धी धरते।
भक्त पूजत स्वपर ज्ञान लहते। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७०६।।
ॐ ह्रीं धिषणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘धीमान्’ त्रैलोक्य में हैं। ज्ञान पंचम धरें श्रेष्ठ ही हैं।
भक्त भी स्वात्म ज्ञानी बने हैं। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७०७।।
ॐ ह्रीं धीमते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शेमुषीश’ आप ही हैं। सर्व ही ज्ञान के नाथ ही हैं।
दीजिये अब मुझे सुमती है। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७०८।।
ॐ ह्रीं शेमुषीशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘गिरांपति’ जग में। सर्वभाषामयी ध्वनि भवि में।
हो सत्य महाव्रत मुझमें। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७०९।।
ॐ ह्रीं गिरांपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘नैकरूप’ मुनिगण में। विष्णु ब्रह्म महेश्वर सच में।
भक्त नाशें करमरिपु क्षण में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७१०।।
ॐ ह्रीं नैकरूपाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘नयोत्तुंग’ मानें। सब नयों में श्रेष्ठ बखानें।
मन अनेकांत सरधाने। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७११।।
ॐ ह्रीं नयोत्तुंगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नैकात्मा’ तुम्हीं त्रिभुवन में। गुण बहुते धरें प्रभु निज में।
गुणपूर्व भरूँ मैं निज में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७१२।।
ॐ ह्रीं नैकात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘नैकधर्मकृत्’ तुम हो। बहुधर्म वस्तु के कह हो।
निजधर्म अनंत मुझे हों। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७१३।।
ॐ ह्रीं नैकधर्मकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘अविज्ञेय’ ही हो। जन जानन योग्य नहीं हो।
मुझ आत्म स्वभाव प्रगट हो। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७१४।।
ॐ ह्रीं अविज्ञेयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘अप्रतर्क्यात्मा’ । न तर्कादि गोचर महात्मा।
मुझे कीजे तुरत अंतरात्मा। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७१५।।
ॐ ह्रीं अप्रतर्क्यात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘कृतज्ञ’ कहे हो। सभी कृत्य तुम्हीं जानते हो।
नाथ! मुझमें यही गुण प्रगट हो। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें जिनेश्वर नामा। जिससे पावें निजातम धामा।
सर्व कर्मों का होवे खातमा। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।७१६।।
ॐ ह्रीं कृतज्ञाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कृतलक्षण’आप भुवन में। वस्तु लक्षण कहते हो ध्वनि में।
मैं धारूँ सुलक्षण हृदय में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७१७।।
ॐ ह्रीं कृतलक्षणाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘ज्ञानगर्भ’ तुम ही हो। सब ज्ञेय सुज्ञान मही हो।
मेरा भी ज्ञान सही हो। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७१८।।
ॐ ह्रीं ‘ज्ञानगर्भाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘दयागर्भ’ त्रिभुवन में। तुम दयासिंधु भविजन में।
मैं धरूँ दया निजपर में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७१९।।
ॐ ह्रीं दयागर्भाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘रत्नगर्भ’ मुनि नाथा। रत्नवर्षे पंचदश मासा।
मैं नमूँ नमाकर माथा। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७२०।।
ॐ ह्रीं रत्नगर्भाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘प्रभास्वर’ ही हो। त्रैलोक्य प्रकाशि रवी हो।
मुझ हृदय ज्ञान ज्योति हो।सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७२१।।
ॐ ह्रीं प्रभास्वराय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पद्मगर्भ’ तुम सच में। रहे कमलाकार गरभ मेंं।
लहूँ गर्भ प्रभो! तुम सम मैं। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७२२।।
ॐ ह्रीं पद्मगर्भाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘जगद्गर्भ’ तुम भासें। तुम ज्ञान में जग प्रतिभासे।
हो ज्ञान मेरा तम नाशे। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७२३।।
ॐ ह्रीं जगद्गर्भाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘हेमगर्भ’ तुम ही हो। गर्भ बसत स्वर्णमय भू हो।
मुझ रोग शोक हर तुम हो। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें. ।।७२४।।
ॐ ह्रीं हेमगर्भाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सुदर्शन’ मानें। तुम दर्शन सुखकर जानें।
पूजत सब संकट हानें। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७२५।।
ॐ ह्रीं सुदर्शनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘लक्ष्मीवन्’ भुवि गुरु हो।
अन्तर बहि संपद धर जिन हो।।
तुुम जजत सुनाम सकल सुख हो।
दुख दरिद्र विनाश, अतुलनिधि हो।।७२६।।
ॐ ह्रीं लक्ष्मीवते नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘त्रिदशाध्यक्ष’ सुर गणपति हो।
त्रिभुवन धर भानु अतुल रवि हो।।तुम.।।७२७।।
ॐ ह्रीं त्रिदशाध्यक्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु अतुल ‘दृढ़ीयन्’ इस जग में।
नहिं तुम सम हों दृढ़ मुनि जग में।।तुम.।।७२८।।
ॐ ह्रीं दृढीयसे नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब त्रिभुवन ईश तुमहि ‘इन’ हो।
मुझ सब अघ नाशत सुखप्रद हो।।तुम.।।७२९।।
ॐ ह्रीं इनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समरथयुत ‘ईशित’ तुमहि कहे।
मुझ अहित निवारण तुम पद हैं।।
तुुम जजत सुनाम सकल सुख हो।
दुख दरिद्र विनाश, अतुलनिधि हो।।७३०।।
ॐ ह्रीं ईशित्रे नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘मनोहर’ त्रिभुवन में।
हरि हर परब्रह्म न तुम सम हैं।।तुम.।।७३१।।
ॐ ह्रीं मनोहराय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तनु सुभग ‘मनोज्ञांग’ अतिशय ही।
भवि जपत तुम्हें दुख विनशत ही।।तुम.।।७३२।।
ॐ ह्रीं मनोज्ञांगाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय धृति ‘धीर’ भविक गण में।
तुम जपत हि पीर टरत क्षण में।।तुम.।।७३३।।
ॐ ह्रीं धीराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय ‘गंभीर शासन’ जग में।
शिवपद कर धर्म शरण जग में।।तुम.।।७३४।।
ॐ ह्रीं गंभीरशासनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभय ‘धरमयूप’ शुभ धरम हो।
सुर सुखप्रद नाथ! मुकति गृह हो।।तुम.।।७३५।।
ॐ ह्रीं धर्मयूपाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘दयायाग’ सुखप्रद हो।
सब अशुभ हरो सुअभयप्रद हो।।तुम.।।७३६।।
ॐ ह्रीं दयायागाय नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुखद ‘धर्मनेमि’ जिनवर हों।
इस जग मधि आप, धरम धुरि हो।।तुम.।।७३७।।
ॐ ह्रीं धर्मनेमये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘मुनीश्वर’ मुनिपति हो।
सब गुण मणि भूषित सुखनिधि हो।।तुम.।।७३८।।
ॐ ह्रीं मुनीश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘धरमचक्रायुध’ यम अरि हो।
तुम दरसन से मुझ अघ क्षय हो।।तुम.।।७३९।।
ॐ ह्रीं धर्मचक्रायुधाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निजगुणरत ‘देव’ सुरगप्रद हो।
मुझ गुणमणि देव परमगति हो।।तुम.।।७४०।।
ॐ ह्रीं देवाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुखद ‘कर्महा’ अघरिपु हन हो।
समरस सुखदा शिव तियपति हो।।तुम.।।७४१।।
ॐ ह्रीं कर्मघ्ने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुमहि ‘धर्मघोषण’ शिव भरता।
अतिशय शिव के गुणमणि करता।।तुम.।।७४२।।
ॐ ह्रीं धर्मघोषणाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘अमोघवच’ जगत में।
तुम विरथ न वाक्य कबहुँ सच में।।तुम.।।७४३।।
ॐ ह्रीं अमोघवाचे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भुवन मधि ‘अमोघाज्ञ’ तुमहि हो।
निष्फल नहिं आज्ञा सुर शिर धर्यो।। तुम.।।७४४।।
ॐ ह्रीं अमोघाज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु जिनवर ‘निर्मल’ शुचिकर हो।
मल विरहित कर्म रहित शिव हो।।तुम.।।७४५।।
ॐ ह्रीं निर्मलाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर सु ‘अमोघशासन’ तुम हो।
नहिं निष्फल शासन कबहुंक हो।। तुम.।।७४६।।
ॐ ह्रीं अमोघशासनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘सुरूप’ असुर सुर में।
नहिं तुम सम रूप दिखत जग में।। तुम.।।७४७।।
ॐ ह्रीं सुरूपाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम ‘सुभग’ महाप्रभु अतिशय हो।
बहुविध शुभ ऐश्वर गुण युत हो।।
तुुम जजत सुनाम सकल सुख हो।
दुख दरिद्र विनाश, अतुलनिधि हो।।७४८।।
ॐ ह्रीं सुभगाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कुछ पर त्याग वनन विचरें।
जिनवर तुम ‘त्यागी’ सुरन उचरें।। तुम.।।७४९।।
ॐ ह्रीं त्यागिने नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वपर जानकर शिव भये।
अनुपम प्रभु ‘ज्ञातृ’ शिवपद भये।। तुम.।।७५०।।
ॐ ह्रीं ज्ञात्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘समाहित’ सुसमाधि ध्यानी, प्राणी समाधान लहें तुम्हीं से।
पूजूँ सदा नाम सुमंत्र वंदूूँ, मोहारिशत्रू क्षण में नशेगा।।७५१।।
ॐ ह्रीं समाहिताय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘सुस्थित’ सुख से निवासा।
मुक्तीरमा आप स्वयं वरे हैं।।पूजूँ.।।७५२।।
ॐ ह्रीं सुस्थिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आरोग्य आत्मा प्रभु ‘ स्वास्थ्यभाक्’ हो।
संसार व्याधी नहिं पूर्णस्वस्था।।पूजूँ.।।७५३।।
ॐ ह्रीं स्वास्थ्यभाजे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘स्वस्थ’ स्वामी भवरोग नाहीं।
आत्मस्थ हो सर्वविकार शून्या।।पूजूँ.।।७५४।।
ॐ ह्रीं स्वस्थाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘नीरजस्को’ नहिं कर्मधूली।
मेरे प्रभो! कर्म समूल नाशो।।पूजूँ.।।७५५।।
ॐ ह्रीं नीरजस्काय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘निरूद्धव’ जग में कहाते।
संपूर्ण ही उत्सव इंद्र कीने।।पूजूँ.।।७५६।।
ॐ ह्रीं निरुद्धवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी तुम्हीं कर्म ‘अलेप’ मानें।
मेरे सभी लेप हटाय दीजे।।पूजूँ.।।७५७।।
ॐ ह्रीं अलेपाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘निष्कलंकात्मन्’ इन्द्र पूजें।
मैं भी सदा शीश नमाय वंदूूँ।।पूजूँ.।७५८।।
ॐ ह्रीं निष्कलंकात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘वीतरागी’ गतराग द्वेषा।
रागादि मेरे मन से हटा दो।।पूजूँ.।।७५९।।
ॐ ह्रीं वीतरागाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘गतस्पृह’ तुम ही यहाँ पे।
इच्छा निवारी जग के गुरु हो।।पूजूँ.।।७६०।।
ॐ ह्रीं गतस्पृहाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी सु ‘वश्येन्द्रिय’ आप ही हो।
पाँचों हि इन्द्री वश में किया था।।पूजूँ.।।७६१।।
ॐ ह्रीं वश्येन्द्रियाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मानें ‘विमुक्तात्मन्’ आप ही हैं।
कर्मारि बन्धन तुम काट डाले।।पूजूँ.।।७६२।।
ॐ ह्रीं विमुक्तात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘नि:सपत्ना’ नहिं शत्रु कोई।
संपूर्ण प्राणी तुम मित्र मानें।।पूजूँ.।।७६३।।
ॐ ह्रीं नि:सपत्नाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जीता स्व इन्द्रीय ‘जितेन्द्रियो हो।
जीतूं स्व इन्द्री प्रभु शक्ति देवों।।पूजूँ.।।७६४।।
ॐ ह्रीं जितेंद्रियाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्पूर्ण शांतीश ‘प्रशांत’ माने।
वंदूँ तुम्हें शांति मिले मुझे भी।।
पूजूँ सदा नाम सुमंत्र वंदूूँ,
मोहारिशत्रू क्षण में नशेगा।।७६५।।
ॐ ह्रीं प्रशांताय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘आनन्तधामर्षि’ ऋषी गणों में।
तेजस्विता आप अनंत धारो।।पूजूँ.।।७६६।।
ॐ ह्रीं अनंतधामर्षये नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी यहाँ ‘मंगल’ आप ही हैं।
नाशो अमंगल भवि प्राणियों के।।पूजूँ.।।७६७।।
ॐ ह्रीं मंगलाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पापारि नाशा ‘मलहा’ कहाये।
सम्पूर्ण धोये मल कर्म जैसे।।पूजूँ.।।७६८।।
ॐ ह्रीं मलघ्ने नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘अनघ’ पाप निमूल नाशा।
कीजे सभी पाप विनाश मेरा।।पूजूँ.।।७६९।।
ॐ ह्रीं अनघाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हूये ‘अनीदृक्’ नहिं आप जैसा।
इन्द्रादि वन्दे रुचि से तुम्हें ही।।पूजूँ.।।७७०।।
ॐ ह्रीं अनीदृशे नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘उपमाभुत’ इन्द्र भी तो।
दें आप की तो उपमा तुम्हीं से।।पूजूँ.।।७७१।।
ॐ ह्रीं उपमाभूताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो भव्य भाग्योदय हेतु स्वामी।
‘दिष्टी’ कहाते जग में इसी से ।।पूजूँ.।।७७२।।
ॐ ह्रीं दिष्टये नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘दैव’ प्राणी शुभ भाग्य होते।
वंदूँ तुम्हें दैव समस्त नाशूँ।।पूजूँ.।।७७३।।
ॐ ह्रीं दैवाय नम:अर्घ्यं नर्वपामीति स्वाहा।
शैवल्यज्ञानी नभ में विहारी।
होते ‘अगोचर’ नहिं सर्व जानें।।पूजूँ.।।७७४।।
ॐ ह्रीं अगोचराय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रूपादि से शून्य ‘अमूर्त’ स्वामी।
आत्मा अमूर्तीक मिले मुझे भी।।पूजूँ.।।७७५।।
ॐ ह्रीं अमूर्ताय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मूर्तीमन्’ की पूजा करिये, नाहीं मन में शंका धरिये।
नामावलि को पूजूँ नित ही, व्याधी तन से भागे झट ही।।७७६।।
ॐ ह्रीं मूर्तिमते नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘एक’ तुम्हें ही साधू कहते।
दूजा नहिं कोई भी तुमसे।।नामा.।।७७७।।
ॐ ह्रीं एकायनम: नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नानागुण की पूर्ती तुम में।
स्वामी तुम ही ‘नैक’ जगत में।।नामा.।।७७८।।
ॐ ह्रीं नैकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘नानैकतत्त्वदृक्’ तुम ही।
आत्मा तज ना देखे कुछ ही।।नामा.।।७७९।।
ॐ ह्रीं नानैकतत्त्वदृशे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अध्यातमगम्या’ हो प्रभु जी।
आत्म ग्रंथ से जाने मुनि जी।।नामा.।।७८०।।
ॐ ह्रीं अध्यात्मगम्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माने ‘अगम्यात्मा’ तुम हो।
मिथ्यादृश ना जाने तुम को।।नामा.।।७८१।।
ॐ ह्रीं अगम्यात्मने नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘योगविद्’ की जो शरणे।
मुक्ती तिय को निश्चित परणे।।
नामावलि को पूजूँ नित ही।
व्याधी तन से भागे झट ही।।७८२।।
ॐ ह्रीं योगविदे नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘योगिवंदित’ हो जग में।
योगी जन ध्याते भी मन में।।नामा.।।७८३।।
ॐ ह्रीं योगिवंदिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वत्रग’ व्यापा त्रै जग को।
सो ही ज्ञान अपेक्षा समझो।।नामा.।।७८४।।
ॐ ह्रीं सर्वत्रगाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘सदाभावी’ हो जग में।
तिष्ठो नित ना नाश स्वपन में।।नामा.।।७८५।।
ॐ ह्रीं सदाभाविने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘त्रिकालविषयार्थ’ सुदृक् ही।
त्रैकालिक जाना सब कुछ ही ।।नामा.।।७८६।।
ॐ ह्रीं त्रिकालविषयार्थदृशे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘शंकर’ भी भव्यन सुख दो।
नाशो मुझ दोषादी दुख को।।नामा.।।७८७।।
ॐ ह्रीं शंकराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘शंवद’ शं सौख्यंकर ही।
तीनों जग में वंदे मुनि भी।।नामा.।।७८८।।
ॐ ह्रीं शंवदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामिन्! चित्त अश्व का जीता।
‘दांत’ कहाये धर्म समेता।।नामा.।।७८९।।
ॐ ह्रीं दांताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामिन्! दमी इंद्रियाँ दमते।
पूरी मन की इच्छा करते।।नामा.।।७९०।।
ॐ ह्रीं दमिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘क्षान्तिपरायण’ मानें तुम ही, ध्याते तुम को मृत्यू नश ही।।
नामावलि को पूजूँ नित ही, व्याधी तन से भागे झट ही।।७९१।।
ॐ ह्रीं क्षान्तिपरायणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘अधिप’ बखाने जग में।
इंद्रादिक पूजें आनंद में।।नामा.।।७९२।।
ॐ ह्रीं अधिपाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘परमानंद’ तृपत हो।
आत्मा मुझ आनंद मगन हो।।नामा.।।७९३।।
ॐ ह्रीं परमानंदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो नाथ! ‘परात्मज्ञ’ अतुल ही।
जाना पर को आत्मा निज भी।।नामा.।।७९४।।
ॐ ह्रीं परात्मज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो आप ‘परात्पर’ भी जग में।
श्रेष्ठों मधि श्रेष्ठाधिप सब में।।नामा.।।७९५।।
ॐ ह्रीं परात्पराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘त्रिजगद्वल्लभ’ तुम हो।
तीनों जग में मनभावन हो।।नामा.।।७९६।।
ॐ ह्रीं त्रिजगद्वल्लभाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी तुम ‘अभ्यर्च्य’ सुरन से।
सौ इंद्रन से साधू गण से।।नामा.।।७९७।।
ॐ ह्रीं अभ्यर्च्याय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘त्रिजगन्मंगलोदय’ हो।
तीनों जग में मंगल कर हो।।नामा.।।७९८।।
ॐ ह्रीं त्रिजगन्मंगलोदयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रिजगत्पतिपूज्यांघ्री’ तुम हो।
सौ इंद्रन से पूज्य चरण हो।।नामा.।।७९९।।
ॐ ह्रीं त्रिजगत्पतिपूज्यांघ्रये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रीलोकाग्रशिखामणि’ जिन हो।
लोक शिखर के चूड़ामणि हो।।
नामावलि को पूजूँ नित ही।
व्याधी तन से भागे झट ही।।८००।।
ॐ ह्रीं त्रिलोकाग्रशिखामणये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वृहद्वृहस्पति आदि नाम सौ, भक्ति भाव से नित मैं पूजूँ।
सर्व अमंगल दोष नशाकर, आधि व्याधि संकट से छूटूँ।।
भूत प्रेत डाकिनि शाकिनि भी, तुम भक्तों से दूर भगे हैं।
नित नव मंगल संपति संतति यश भाग्योदय श्रेष्ठ जगे हैं।।८।।
ॐ ह्रीं वृहद्वृहस्पत्यादिशतनामेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य—१. ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवाय सर्वसिद्धिकराय सर्वसौख्यं कुरु कुरु ह्रीं नम:।
२. ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवाय नम:। (दोनों में से कोई एक मंत्र जपें)
(सुगंधित पुष्पों से या लवंग से १०८ या ९ बार जाप्य करें।)
हे नाथ! आप ही तो सकल इंद्र वंद्य हैं।
इस भू पे अत: आप ही तो धन्य धन्य हैं।।
सम्पूर्ण अतिशयों के आप ही तो सद्म हैं।
इस हेतु सभी पूजते तुम पाद पद्म हैं।।१।।
प्रभु आपके माहात्म्य से असमय में बगीचे।
सब ऋतु के फूल फल से वे फूले फले दिखें।।
रज आदि दूर करती सुखद वायु चले है।
सब जीव वैर छोड़ के आपस में मिले हैं।।२।।
दर्पण के सदृश भूमि स्वच्छ रत्नमय हुई।
गंधोद की वर्षा भी मेघ देवकृत हुई।।
शाल्यादि खेत भी फलों के भार से झुके।
सब जीव भी आनन्द से तो झूम ही उठे।।३।।
शीतल पवन वायुकुमार देव चलाते।
सरवर कुआँ भी स्वच्छ जल से पूर्ण हो जाते।।
उल्कादि धूम रहित गगन स्वच्छ सही है।
सब जीवों को रोगादि की बाधायें नहीं हैं।।४।।
सर्वाण्हयक्ष शिर पे धर्मचक्र काे धरें।
चारों तरफ के चक्र दिव्य रश्मियाँ धरें।।
शुभ श्रीविहार के समय तुम पाद के तले।
सुरकृत सुगंधि युक्त भी सुवरण कमल खिलें।।५।।
ये देव रचित तेरहों अतिशय महान हैं।
जो आपके अनंत गुणों में प्रधान हैं।।
कैवल्यज्ञान उदित हो जिस वृक्ष के नीचे।
वो ही अशोक वृक्ष कहाता है तभी से।।६।।
जो आपका आश्रय सदा लेते हैं भुवन में।
उनके कहो क्यों शोक रहेगा कभी मन में।।
इस हेतु से तुम पाद का आश्रय लिया मैंने।
निज ‘ज्ञानमती’ हेतु ही विनती किया मैंने।।७।।
भक्तों के वत्सल तुम्हीं, करुणासिंधु जिनेश।
करो पूर्ण यह याचना, फेर न माँगू लेश।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य बृहद्वृहस्पत्यादिशतनाममंत्रेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य ऋषभदेव का विधान यह करें।
सम्पूर्ण अमंगल व रोग शोक दुख हरें।।
अतिशायि पुण्य प्राप्त कर ईप्सित सफल करें।
कैवल्य ‘‘ज्ञानमती’’ से जिनगुण सकल भरें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।