हम पहले नियमसार के विशय को अधिकार क्रम में संक्षेप में सूचित कर आये है। इसकी टीका में टीकाकत्र्री ने जो विषेश वर्णन किया है उसमें जो पाठकों हेतु उपयोगी ज्ञात हुूआ है उसे अधिकार क्रम से उल्लिखित करना उपयोगी रहेगा।
प्रारम्भ में मंगलाचरण और उद्देष्य के पष्चात् पूरे ग्रन्थ की भूमिका संक्षेप में लिखी गई है। माता जी का कथन है पूर्वाचार्यों की परम्परा तथा नय विवक्षा का सर्वत्र ध्यान रखना चाहिए प्रकरणों को गुणस्थानों मंे घटित करना अधिक उपयोगी है। इस भावना के दर्षन चन्द्रिका के प्रत्येक स्थल पर हमें होते है।
उन्होंने कहा है कि सातवें गुणस्थानवर्ती प्रमत्त, अप्रमत्त मुनियों के भी मोक्षमार्ग व्यवहार नय से ही है। वह परम्परा कारण है। निष्चय नय से तो अयोग केवलियों का अन्तिम समयवर्ती रत्नत्रय परिणाम ही मोक्षमार्ग है वह साक्षात् कारण है। अथवा भाव मोक्ष की अपेक्षा से अध्यात्म भाशा में क्षीणकशायवर्ती मुनि का अन्तिम समयवर्ती परिणाम भी निष्चय मोक्षमार्ग है।
चैथी गाथा की टीका में प्रकट किया है कि मोक्षमार्ग चैथे गुणस्थान में नहीं है मात्र उस मार्ग का एक अवयव सम्यग्दर्षन है। इसको प्रवचनसार के आधार से स्पश्ट भी किया है। (यहाँ संभवतः उस दृश्टिकोण को गौण किया है जिसमें सम्यग्दर्षन के साथ चैथे गुणस्थान में सम्यकत्वचरण चारित्र की विद्यमानता है।)
माता जी ने न्यायकुमदचन्द्र के आधार से सिद्ध किया है कि जैनगम के सिवाय अन्य शास्त्र पूर्वापर विरोध सहित हैं। गाथा ग्यारहवीं की टीका में सर्वज्ञ के ज्ञान में भूत-भविश्यत् पदार्थ वर्तमान के समान झलकते है, यह स्पश्ट झलकाया है। गाथा 16 की टीका में तिलोयपण्णत्ती के आधार से कर्मभूमिज-भोगभूमिज मनुश्यों का वर्णन किया है।
गाथा 18 वीं में जीव के कत्र्तत्व-भोक्तृत्व में कर्मों के बन्ध उदय की दिङ्मात्र व्यवस्था बताई है। गाथा उन्नीसवीं में निष्चय व्यवहार नयों के भेद प्रभेद दिखलाये गये है। अधिकार के अन्त में महावीर भगवान के शासन को अविच्छिन्न रखने वाले श्री गौतम स्वामी से लेकर वीरागंज मुनि तक दिगम्बर महामुनियों को नमस्कार किया है।
टीकाकत्र्री ने सर्वप्रथम इस अधिकार में मध्यलोक के 458 कृत्रिम जिन चैत्यालयों की वन्दना की है। पुनः पुद्गल द्रव्य के संयोग से ही संसार परम्परा चलती है। अतः इसका सम्पर्क छोड़ने योग्य है, यह प्रकट किया है। आगे बताया है (30वीं गाथा में) कि धर्म और अधर्म के निमित्त से ही सिद्ध भगवान लोकाकाष के अग्रभाग पर स्थित हैं अलोकाकाष में नहीं जा सकते अतः सिद्ध भगवान भी कथंचित् निमित्ताधीन हैं।
इसी तरह ये सिद्ध परमेश्ठी हम लोगों की सिद्धि में भी निमित्त हैं। आगे गाथा 31-32 में काल द्रव्य का कुछ पाठभेद चर्चा का विशय है इसे गोम्मटसार के आधार से विवेचित व स्पश्ट किया है। गाथा 35-36 में अमूत्र्तिक द्रव्यों के भी प्रदेष मुख्य हैं, न कि कल्पित इसे तत्त्वार्थ राजवात्र्तिक के आधार से स्पश्ट किया है। अनन्तर गाथा 35वीं की टीका में संसारी जीवों का “ारीर कथंचित् चेतन है क्योंकि चैतन्य आत्मा का संसर्ग है, यह दिखया है।
18 गाथाओं वाले प्रस्तुत अधिकार की टीका में प्रथम ही स्वपर भेदविज्ञान से युक्त दर्षन विषुद्धि आदि सेालह भावना के बल से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करने वाले जिन महापुरुशों का अभिशेक पंचमेरुओं पर होता है उनको और उन मेरूओं के 80 जिन मन्दिरों को नमस्कार किया गया है। पुनः इसमें जीव के शुद्ध भावों का वर्णन करते हुए कहा है कि शुद्ध जीव के क्षायिक भाव भी नही हैं इसे पंचास्तिकाय का उदाहारण देकर पुश्ट किया है।
यद्यपि तत्वार्थसूत्र में क्षायिक भाव या केवलसम्ययक्त्व आदि का अस्तित्व वर्णित किया गया है। वह भी अपेक्षा भेद से दृश्टव्य है। गाथा 49 की टीका में आलाप पद्धति के आधार से नयों को स्पश्ट किया है। गाथा 53 में धवला के आधार से सम्यक्त्व के बहिरंग कारणों पर प्रकाष डाला है। गाथा 54 की टीका में व्यवहार-निष्चय चारित्र के कथन की प्रतिज्ञा की गई है। इस अधिकार के उपंसहार में मनुश्य लोक के तीन सौ अठानवे चैत्यालयों की वन्दना की है।
इसमें टीकाकत्री ने यह स्पश्ट किया है कि व्यवहार चारित्र के बाद ही निष्चय चारित्र होता है। यह मूल ग्रन्थ की निम्न गाथा के आधार से लिखा है।
एरिसय भावाणाए ववहारणयस्स होदि चारित्तं।
णिच्छयणयस्स चरणं एतो उडढं पवक्खामि।। 79।।
इस अधिकार की टीका के अन्तर्गत सर्वप्रथम जम्बूद्धीप के भरत क्ष्त्र के आर्यखण्ड में इस पंचम काल में भी तेरहविध चारित्र के धारक दि० मुनियों को नमस्कार किया है। आगे प्रथम महाव्रत की टीका में दयाधर्म को रत्नत्रय के अन्तर्गत कहकर उसे उपादेय कहा है।
गाथा 70 के अन्तर्गत निष्चय गुप्तियों के पात्र मुनियों का स्वरूप प्रकट किया है। गाथा 75 में आचार्य, उपाध्याय और साधु तीन परमेश्ठी, देव या पूज्य कैसे हैं इसे धवला के आधार से स्पश्ट किया है इस अधिकार में माता जी ने टीका रचना का इतिवृत्त लिखते हुए, विभिन्न अस्वास्थ्य आदि विघ्नों की उपस्थिति होने पर सुमेरु की परोक्ष वंदना करके, यह मेरी टीका निर्विघ्न पूरी होवे ऐसी प्रार्थना करके पुनः लिखना प्रारम्भ किया यह वृत्तान्त दिया है इस अधिकार के अन्त में शान्तिनाथ भगवान को नमस्कार किया है।
18 गाथाओं को अपने अन्तर में समेटे इस अधिकार में प्रथम ही गौतम स्वामी को नमस्कार किया है। इसमें प्रतिक्रमण में गौतम स्वामी रचित व्यवहार प्रतिक्रमण की पंक्तियों को विभिन्न स्थलों पर लिखा है। यह सिद्ध किया गया है कि व्यवहार प्रतिक्रमण पूर्वक ही निष्चय प्रतिक्रमण होता है।
गाथा 93 की टीका में माता जी ने कहा कि वर्तमान के साधुओं को सभी सातों प्रकार के प्रतिक्रमण करना चाहिए।यह मूलाचार के अनुसार स्पश्ट किया है। इस अधिकार के अन्त में श्री कुन्दकुन्द से लेकर अपने आर्यिका दीक्षा के गुरु आचार्य वीरसागर पर्यन्त गुरुओं को नमस्कार किया है।
इसकी टीका के प्रारम्भ में आर्यिका ज्ञानमती ने तीन कम नव करोड़ मुनियों को नमस्कार किया हैं। ग्रन्थकार के विशय के अनुरूप ही व्यवहार प्रत्याख्यान का लक्षण और भेद, मूलाचार, अनगार धर्मामृत आदि के आधार से बताकर अन्त में भगवान आदिनाथ का और दानतीर्थ प्रवत्र्तक राजा श्रेयांस का स्मरण किया है। निष्चय प्रत्याख्यान को स्पश्ट किया गया है।
इस अधिकार में आत्मध्यान को ही परम आलोचना कहा है, यह मुनियों को होती हैं। इसकी टीका में सर्वप्रथम और समयसार के आधार से भगवान आदिनाथ के 84 गणधरों केा नमस्कार किया है। पुनः मूलाचार व्यवहार-निष्चय आलोचना को बताया है। इसके अन्त में जम्बूद्वीप के अकृत्रिम 78 जिनमन्दिर और उनमें स्थित जिन प्रतिमाओं को नमस्कार किया है।
आ० कुन्दकुन्द के इस अध्याय के आषय के अनुरूप ही टीकाकत्र्री ने चारों कशायों का निग्रह करके आत्मा का ध्यान करना और श्रेश्ठतपष्चरण तथा कायोत्सर्ग में स्थित होकर निर्विकल्प ध्यान करने को ही निष्चय प्रायष्चित्त कहा है। इसकी टीका में भ० शन्तिनाथ को नमस्कार किया है।
पुनः व्यवहार प्रायष्चित्त के भेद बतलाकर इसका महत्व बतलाया है क्योंकि व्यवहार के बिना निष्चय नहीं होता हैं। ऐसे ही व्यवहार तपष्चरण को महत्व दिया है। अनन्तर गौतम स्वामी द्वारा रचित ध्यान के महत्व की सूचक गाथा देकर ध्यान की प्रेरणा दी है। गाथा 121 में शारीर से ममत्व छुडा़ने का अच्छा विवेचन है। अंत में एक वर्श तक ध्यान में लीन हुए भगवान बाहुबली को नमस्कार किया है।
12 गाथाओं वाले इस अधिकार की टीका में मूल विशय परम समााधि अर्थात् ध्यान-समता का विवेचन करने के साथ ही 24 तीर्थंकरा के चैदह सौ बावन गणधरों को नमस्कार किया है।गाथा 122 में भगवान आदिनाथ के निष्चल ध्यान को लेकर ध्यान पर प्रकाष डाला है तथा जिन-कल्पी और स्थविर-कल्पी मुनि की चर्या बतलाई हैं। पंचम काल में संभव ध्यान और वर्तमान मुनि का स्वरूप बतलाया है। अन्त में चारित्र चक्रवत्र्ती आचार्य शान्तिसागर महाराज को नमस्कार किया है।
आ० कुन्दकुन्द ने इस अधिकार में श्रमण और श्रावक दोनों के लिए रत्नत्रय की भक्ति आवष्यक निरूपित की है। टीकाकत्र्री ने इसमें विषेश तौर पर कैलाषगिरि आदि निर्वाण भूमियों को नमस्कार किया है दर्षन,ज्ञान,चारित्र की पूर्णता के क्षेत्र होने के कारण ऐसा उपक्रम किया है।
इसमें स्पश्ट किया है कि भक्ति ही सम्यग्दर्षन है। व्यवहार भक्ति से ही निष्चय भक्ति प्राप्त होती है। वर्तमान के साधुगण आ० कुन्दकुन्द द्वारा रचित प्राकृत भाशा की 10 भक्तियाँ तथा आ० पूज्यपाद द्वारा संस्कृत भाशा में रचित भक्तियाँ यथायोग्य कालों में पढ़ते है। गाथा 135 में संकेत मात्र कर निष्चय भक्ति को साध्य कहा है।
गाथा 140 की टीका में यह प्रकट किया है कि तीर्थंकर आदि महापुरुश भी भक्ति करके ही परमात्मा बने है। अध्याय के अन्त में लोक में सर्वोत्कृश्ट श्री ऋशभ से लेकर वद्र्धमान भगवान तक चैबीस तीर्थकर महाप्रभुओं को नमस्कार किया है।
आ० कुन्दकुन्द ने स्ववष के कर्म को आवष्यक कहा है। षुभ और अषुभ से हटकर जो निर्मल शुद्व आत्म स्वभाव का ध्यान करते हैं वे आत्मवष हैं। यह निष्चय परम आवष्यक है। इस अधिकार में माताजी ने स्पश्ट किया है कि व्यवहार आवष्यक से ही निष्चय आवष्यक होता है।
माता जी ने यह भी लिखा है कि चूंकि कुन्दकुन्द देव स्वयं भी ग्रन्थ लेखन, आहार, विद्या, उपदेष आदि “शुभ कार्य करते थे अतः कथचित् वे भी अन्यवष कहे जा सकते हैं और शुक्लध्यान से परिणत न होने के कारण उन्हे भी न तो निष्चय की प्राप्ति हुई थी न ही कुन्दकुन्द एवं पप्रभ मलधारी देव के कथनानुसार वे अन्तरात्मा ही सिद्ध होते है। क्योंकि इस प्रधान कथन की दृश्टि से बारहवाँ गुणस्थान ही अन्तर- आत्मा का है। इस निष्चय ध्यान या आवष्यक के होने पर शघ्र ही केवल ज्ञान नियम से होता है।
फिर भी आ० कुन्दकुन्द आदि को अन्यवष कहने का साहस जुटाना सामान्य से किसी का काम नहीं है अतः कुन्दकुन्द व्यवहार आवष्यक की दृश्टि से स्वस्थ ही हैं और इससे व्यवहार आवष्यक का महत्व स्थापित होता है। आ० कुन्दकुन्द के इस अधिकार में निष्चय निरूपण से एकान्त निष्चय नहीं पकड़ना चाहिए।
इस अधिकार में टीकाकत्र्री ने पùप्रभ मलधारी देव के कथन को प्रस्तुत किया है कि पंचमकाल में आत्मध्यान की शक्ति न होने के कारण श्रद्धान ही करना योग्य है।2 अतः निष्चय परमावष्यक श्रद्धेय है और व्यवहार आवष्यक का पालन करने वाला भी व्यवहार से स्ववष है। 18 गाथाओं वाले प्रस्तुत अधिकार की टीका की टीका में माता जी ने 34 कर्म भूमियों में विद्यमान सभी तीर्थंकर परमदेव, केवली व्यवहार श्रुतकेवली और निग्र्रन्थ मुनियों को नमस्कार किया है।
गाथा 141 की टीका में व्यवहार आवष्यकों के लक्षण बताकर पदानुकूल छठवें गुणस्थान में उनकी आवष्यक करणीयता निरूपित की है। उन्होने लिखा है कि ऋद्धिधारी महामुनि भी अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना करते रहते है। श्री गौतम स्वामी आदि आवष्यक क्रियाओं के समय, उपदेष, और ग्रन्थ लेखन के समय “ाुभभाव में रहते थे, ध्यान में शुद्धोपयोगी होते थे। तीर्थंकरों ने भी सिद्ध वन्दना आदि व्यवहार आवष्यकों को किया है। इस अधिकार के अन्त में माता जी ने अपने गुरु श्री वीरसागर आचार्य देव को नमस्कार किया है। उनके लिए यह व्यवहार आवष्यक है और उपादेय है।
इसकी टीका में लेखिका ने ज्ञान, दर्षन व आत्मा की स्वपर प्रकाषकता, सिद्धान्त की नय दृश्टि, अध्यात्म की नय दृश्टि आदि दार्षनिक विशयों का खुलासा किया है न्याय ग्रन्थों के दृश्टिकोण को भी समन्वित किया है। विवरण यह है कि आ० कुन्दकुन्द देव ने व्यवहार और निष्चय नय से केवली भगवान का स्वरूप बतलाकर ज्ञान को परप्रकाषी, दर्षन को स्वप्रकाषी और आत्मा को स्वपरप्रकाषी मानने वालों का निराकरण करते हुए
गााथा 164 में व्यवहार नय से ज्ञान, दर्षन और आत्मा को परप्रकाषी तथा गाथा 165 में निष्चय नय से तीनों को आत्मप्रकाषी कहा है। बात यह है कि धवला में पूर्वोक्त मान्यता है किन्तु यहाँ अध्यात्म दृश्टि से नयों की अपेक्षा से अलग वर्णन है। ऐसे ही न्याय ग्रन्थों में दर्षन को स्व का सत्तामात्रग्राही, ज्ञान को स्वपर का विषेशांष प्रकाषी और आत्मा को स्वपरप्रकाषी माना है। अतः सिद्धान्त, अध्यात्म और न्याय ग्रन्थ तीनों में अन्तर होते हुए भी अपेक्षाकृत मानने से कोई दोश नहीं है।
इस अधिकार की टीका में सर्व एक साथ में होने वाले अयोग केवली गुणस्थानवर्ती आठ लाख अठ्टानवे हजार पाँच सौ दो केवली भगवन्तों को नमस्कार किया है। इस अधिकार में मार्ग का फल निर्वाण होने से इसे टीकाकत्र्री ने मोक्षधिकार कहा है। साथ ही शुद्धोपयोगाधिकार भी सिद्ध किया है।
त्रेसठ प्रकृतियों के नाष से केवली हैं उन प्रकृतियों के नाम गिनाये है। आगे गाथा कंमाक 172 में केवली भगवान की क्रियायें अनच्छिापूर्वक होती हैं इसका स्पश्टीकरण किया हैं गाथा 174-75 की टीका में तीर्थंकर प्रकृति बन्ध के कारणों को उल्लिखित किया है। गाथा 185 में जैनागम व जैन आचार्यों के वचनों में अविरोध तथा गाथा 186 में यह निरूपित किया है कि हुण्डावसर्पिणी काल के दोश से धर्म द्वेशी लोग होते हैं फिर भी पंचम काल के अन्त तक जैनधर्म अविच्छिन्न रुप से प्रवत्र्तित रहेगाा।
अन्तिम गाथा 187 की टीका में आ० कुन्दकुन्ददेव की जीवन घटित कुछ विषेश घटनाओं का वर्णन किया है। इसी में आगम के आधार से प्रमाणित किया है कि आर्यिकायें भी ग्यारह अंग तक पढ़ने-पढ़ाने की अधिकारिणी हैं। टीकान्त में आर्यिका ज्ञानमती जी ने अपनी लघुता प्रदर्षित करते हुए भव्य जीवों को इस ग्रन्थ के पढ़ने की प्रेरणा की हैं।
टीका के नाम की सार्थकता इसी स्थल पर प्रकट की हैं जिसके शब्दो को हमनपूर्व में ‘सार्थकता‘ शर्शक में उद्धृत किया ही है। सबसे अन्त में सिद्ध षिला पर ठसाठस विराजमान एवं ढाई द्धीप से सर्वस्थानों से सिद्धगति प्राप्त समस्त सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार किया हैं क्योंकि सिद्ध भगवान ही हमारी सिद्धि में निमित्त हैं।
ग्रन्थ के अन्त में परम्परानुसार लेखिका ने प्रषस्ति लिखी हैं तथा ग्रन्थ समापन के मास मार्गषीर्श का महत्व समझते हुए प्रषस्ति को मार्गषीर्श शुक्ला द्वितीया को पूर्ण किया है। श्री कृश्ण ने गीता में मार्ग शेर्श को सर्वश्रेश्ठ कहा है।‘ भ० महावीर ने मगसिर कृश्णा 10 को दीक्षा ग्रहण ही थी। यह विचार व्यक्त किया है।1
सम्पूर्ण टीका पर दृश्टिपात करने पर ज्ञात होता है कि पू० मातुश्री ने सर्वंत्र भक्ति विनय प्रदर्षित किया है। इसका कारण उनका भक्तिमय सहज स्वभाव ही ज्ञात होता है जो कि किसी भी स्थल पर अनायास ही प्रकट हो जाता है। कदाचित पाठकों को अतिरिक्त ही ज्ञात होता होगा या रुचि की न्यूनता का जनक आभासित होता होगा परन्तु भक्ति योग्य स्थल देखकर ही यह भक्ति रस प्रवाहित हुआ है। भले ही एकादि स्थल अपवाद स्वरूप हों।
माता जी की कुल रचनाओं में भक्ति परकता का बाहुल्य है तथा तीर्थ वन्दना तथा नवीन सुमेरु, जम्बूद्वीप रचना तथा अन्य अनेकों तीर्थोद्धार के कार्य में सब उनके भक्ति मय अन्तस् का प्रभाव ही है। मैं विचार करता हूँ कि ग्रन्थ टीकाकत्र्री के कार्य में सब ओर गुण ही दर्षित होते है। पुनष्च माता जी ने टीका के मंगलचरण में ही ‘भक्ति‘ शब्द को प्रयोग करते हुए भक्ति प्रकट की है वह भी सहज स्वभाव के कारण है। प्रथम “लोक ही दृश्टव्य है।
सिद्वेः साधनमुमं जिनपतेः श्री पादपद्वयम्।
भव्यानां भवदावदाह – “शमने मेघं सुधावर्शणम्।
ज्ञानानन्दकरं सुबोधजननं प्रत्यूहविध्वंसनम्।
भक्त्याहं प्रणमाम्यसौ जिनपतिर्मे स्यात्सदा सिद्वये।।1।।
उपरोक्त प्रकार 12 अधिकारों में कुन्दकुन्द देव के मूल विशय के साथ एवं उसे पुश्ट करने हेतु ज्ञानमती माता के सम्पूर्ण कथ्य पर दृश्टिपात किया गया जो संक्षेप में स्याद्वाद चन्द्रिका पर प्रकाष डालेगा।