स्याद्वाद चन्द्रिका के लिखते समय पू० माता जी का यह दृश्टिकोण रहा है कि आ० कुन्दकुन्द के नियमसार के मन्तव्यों को सुगठित, सुस्पश्ट रूप में पाठकों को अवगत कराया जावे। आ० कुन्दकुन्द की प्रौढ़ लेखन शैली से अभ्यासी जन परिचित ही हैं। उनके कथन को जो कि सर्वत्र प्रवाहपूर्ण एवं तारतम्य को लिए हुए है, वर्गीकृत करना अभीश्ट ही लगता है। अतः माता जी ने स्वयं ही आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति का उपयोगी अनुसरण कर अन्तराधिकारों का निर्धारण विशयवार समाहित कर किया है।यदि अन्तराधिकारों पर दृश्टि डाली जाये तो सम्पूर्ण नियमसार मानों साक्षात् सा हो उठता ज्ञात होता है। यहाँ हम विस्तार के भय तथा अधिकारों के नाम की पुनरावृत्ति के भय को त्याग कर अन्तराधिकारों का सविशय वर्गीकरण या पातनिका पस्तुत कर रहे हैं। क्रमषः दृश्टव्य है।
1 – प्रथमगाथा से चारगाथा तक नियम शब्द का अर्थ करते हुए पीठिका व्याख्यान।
2 – ‘‘अत्तागम‘‘ इत्यादि गाथा सूत्र से प्रारम्भ करके पाँच गाथा सूत्रो में सम्यग्दर्षन का लक्षण और उसके विशयभूत आप्त,आगम तथा तत्व कथन की मुख्यता।
3 – दस गाथाओं में गुणपर्याय सहित जीव द्रव्य की प्रधानता का कथन तथा नयविवक्षा से जीव द्रव्य का व्याख्यान।
4 – ‘अणुखंधवियप्पेण इत्यादि गाथासूत्र को आदि में लेकर दस गाथाओं में पुद्गल द्रव्य का वर्णन।
5 – गमणणिमित्तं इत्यादि सूत्र से प्रारम्भ कर चार गाथाओं में धर्म ,अधर्म आकाष और काल द्रव्य के प्रतिपादन की मुख्यता।
6 – ‘एदे छद्दव्वाणि‘ आदि गाथा से लेकर द्रव्यों का अस्तिकायपना प्रदेषों का प्रमाण और मूर्-अमूर्पन कथन रूप चार गाथायें।
7 – आठ गाथा सूत्रों ‘जीवादिबहिच्चं हेयं‘ आदि गाथासूत्र से लेकर जीव से बाहरी भावों का प्रमुख रूप से व्याख्यान।
8 – पाँच गाथाओं में ‘ अरसमरूवमगंध‘ रूप से जीव का स्वरूप वर्णन।
9 – पुनष्च ‘विविरीयाभिणिवेस विवज्जिय‘ इत्यादि गाथा से प्रारम्भ कर सम्यग्दर्षन, ज्ञान का लक्षण ओेैर उनके उत्पति के कारणों की मुख्यता से तथा व्यवहार-निष्चय चारित्र की उत्थानिका रूप पाँचगाथाओं का अन्राधिकार। यहाँ तक 55 गाथायें।
10 – ‘कुलजोणि जीवमग्गण’ इत्यादि गाथासूत्र से लेकर पाँच महाव्रतों का प्रतिपादन करने वाला अन्तराधिकार इसमें 5 गाथायें हैं।
11 – पासुगमग्गेण आदि गाथा से प्रारम्भ करके पाँच समितियों का पाँच गाथाओं में वर्णन।
12 – अनन्तर व्यवहार-निष्चय गुप्ति के कथन की मुख्यता से कालुस्समोह इत्यादि सूत्र से लेकर पाँच गाथाओं में अन्तराधिकार।
13 – घणघाइकम्मस्स इत्यादि गाथा को प्रारम्भ कर पंच परमेश्ठी की प्रधानता से 5 सूत्र। एरिसभावणाए आदि एक सूत्र में व्यवहार चारित्र का उपसंहार और निष्चय चारित्र के कथन की प्रतिज्ञा। इसमें टीकाकत्र्री ने व्यवहार चारित्र की विषेश बातों का उल्लेख किया है।
14 – ‘णाहं णारयभावो इत्यादि गाथा से प्रारम्भ कर 5 सूत्रों से कृत-कारित -अनुमोदना से परभाव के कर्तत्व का निराकरण करने वालाअन्तराधिकार।
15 – एरिसभेदब्भास आदि गाथा सूत्र से लेकर प्रतिक्रमण का प्रयोजन सूत्र में तथा मोतूणवयणरयणं इत्यादि सात गाथाओं में रागादिभाव विराधना, अनाचार, उन्मार्ग, “शल्यभाव, अगुप्तिभाव और दुध्र्यान इन सभी से अपनी आत्मा को दूर करके शुद्धोपयोग रूप परमार्थ प्रतिक्रमण में स्थापित करते हैं। यह कथन है।
16 – पुनः चिरकाल से भाये गये भावों का त्याग कराकर पूर्व में नहीं भाये गये ऐसे भावों को स्थापित करने के लिए ‘मिच्छत्तपहुदिभाव’ इत्यादि रूप दो गाथा सूत्र पुनः शुद्धात्मा का ध्यान ही प्रतिक्रमण है इस कथन की मुख्यता से ‘उत्तम अट्ठं आदा’ इत्यादि दो गाथा सूत्र तथा उपसंहार रूप से ‘पडिकमणणामधेए’ इत्यादि द्रव्य प्रतिक्रमण के माहात्म्य वर्णन की मुख्यता से एक सूत्र कुल 5 सूत्रों में अन्तराधिकार।
17 – ‘मोतूणसयलजप्पं’ इत्यादि सूत्र से लेकर 4 गाथाओं में निष्चय प्रत्याख्यान का और सोऽहं शब्द का लक्षण निरूपण।
18 – अनंतर 6 गाथा सूत्रों द्वारा ममत्व से छुड़ाकर एकत्व और साम्य की भावना का वर्णन करने वाला अन्तराधिकार।
19 – ‘णिक्कसायस्स‘ इत्यादि अनुश्टप् सूत्र से लेकर 2 सूत्रों में प्रत्याख्यान करने वाले मुनि का स्वरूप और उपसंहार।
20 – इस अंतरधिकार में ‘णोकम्म कम्मरहियं’ इत्यादि से परम आलोचना का लक्षण तथा आलोयण इत्यादि सूत्र से आलोचना के चार भेद कुल 2 गाथा सूत्र।
21 – जो ‘पस्सदि अप्पाणं’ इत्यादि रूप 4 गाथाओं द्वारा 4 प्रकार की आलोचना का लक्षण।
22 – ‘वदसमिदि’ इत्यादि गाथा से आदि लेकर 3 गाथाओं में व्यवहार – निष्चय प्रायष्चित्त का लक्षण और निष्चय शुद्ध प्रायष्चित्त का उपाय वर्णन।
23 – ‘उक्किट्ठो जो बोहो’ इत्यादि गाथा से आदि लेकर 3 गाथाओं में भेद विज्ञान एंव घोर तपष्चरण ही प्रायष्चित्त है, यह निरूपण।
24 – ‘अप्पसरूवालम्बण’ इत्यादि रूप से 3 सूत्रों में ध्यान की शुद्ध निष्चय प्रायष्चित्तता और कायोत्सर्ग का लक्षण।
25 -इस अन्तराधिकार में ‘वयणोच्चारणकिरियं’ इत्यादि गाथासूत्र से लेकर दो सूत्रों में परमसमाधि का लक्षण और ‘किं काहदि वणवासो’इत्यादि एक सूत्र से समता परिणाम द्वारा स्वाध्याय सिद्धि का वर्णन है।
26 – इसमें नौ गाथा सूत्र हैं। ‘विरदो सव्वसावज्जे’ इत्यादि सूत्र से प्रारम्भ कर नौ सूत्रों में सामायिक का स्थायित्व वर्णन।
27 – सात गाथाओं में सर्वप्रथम ‘सम्मतणाणचरणे’ इत्यादि गाथा से लेकर 3 गाथाओं में निर्वाण के लिए परमनिर्वाण भक्ति कारण है उसका वर्णन।
28 – ‘रायदी परिहारे’ इत्यादि गाथा से प्रारम्भ कर चार गाथाओं में परमयोग भक्ति का लक्षण और उसके स्वामी का लक्षण वर्णन।
29 – ‘जोणहवदि अण्णवसो’ इत्यादि दो गााथा सूत्रों द्वारा आवष्यक शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ कर तथा 3 गाथाओं द्वारा ‘वट्टदि जो सोसमणो’ से लेकर कौन-कौन अन्यवष हैं, यह निरूपण।
30 – ‘परिचत्ता परभावं’ इत्यादि गाथा से प्रारम्भ कर 4 गाथाओं में आत्मवष साधु का लक्षण एवं आवष्यक क्रिया से लाभ हानि का प्रतिपादन।
31 – ‘अन्तर बाहिरजप्पे’ इत्यादि सूत्र को आदि में लेकर 4 गाथाओं से ध्यानमयी आवष्यक क्रिया का प्रतिपादन तथा जदि सक्कदि इत्यादि रूप से 2 गाथाओं में ध्यान क्रिया के अभाव में करणीय विशय निरूपण।
32 – ‘णाणा जीवा’ इत्यादि रूप से दो गाथाओं में निष्चय आवष्यक की प्रेरणा तथा सव्वे ‘पुराणपुरिसा’ आदि एक सूत्र से इस क्रिया का फल वर्णन।
33 – सात गाथाओं ‘जाणदि पस्सदि सव्वं’ इत्यादि गाथासूत्र से लेकर सात गाथाओ में केवली भगवान का स्वरूप तथा अनेकान्त दृश्टि से ज्ञान दर्षन का स्वरूप वर्णन।
34 – ‘अप्पसरूवं पेच्छदि’ इत्यादि रूप से छह गाथाओं में एकान्तवादी के मत का निराकण तथा केवली भगवान की ज्ञानदर्षन रूपता का वर्णन।
35 – जाणंतो पस्संतो इत्यादि गाथा से लेकर केवली भगवान की क्रियायें बिना इच्छा के होती हैं यह वर्णन।
36 – ‘आउस्स रवएण’ आदि 9 गाथाओं से निर्वाण पद का लक्षण और निर्वाण प्राप्त सिद्धों का स्वरूप व्याख्यान।
40 – ‘णियमं णियमस्स फलं’ इत्यादि तीन सूत्रों में ग्रन्थ रचना का उद्देष्य अपनी लघुता का प्रदर्षन तथा उपसंहार।
उपरोक्त प्रकार कुल 37 अन्तराधिकार की समुदाय पातनिका से माता जी ने नियमसार का परिचय कराया है।