जिस प्रकार जड़ के बिना कोई भी वृक्ष नहीं ठहर सकता उसी प्रकार मूलगुणों के बिना कोई भी गृहस्थ अपने श्रावक धर्म का पालन नहीं कर सकता। बालक जब माँ के गर्भ से जन्म लेता है, जन्म के ४० दिन के पश्चात् उसे जिनमंदिर ले जाने की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है।
मंदिर में भगवान के सामने उस बच्चे के कान में पंडित जी या कोई बुजुर्ग णमोकार मंत्र सुनाते हैं तथा यदि कोई गुरु उपलब्ध होते हैं तो वे भी बालक को संकल्पपूर्वक मूलगुण धारण कराते हैं। उसकी अज्ञान अवस्था होने के कारण उन मूलगुणों के पालन की जिम्मेदारी माता-पिता पर डाली जाती है और उस दिन से वह बालक जैन बन जाता है।
आठ वर्ष के पश्चात् मूलगुणों के पालन की जिम्मेदारी स्वयं बालक के ऊपर निर्भर हो जाती है क्योंकि सैद्धान्तिक नियम के अनुसार ८ वर्ष के पश्चात् कोई भी बालक दीक्षा लेकर केवलज्ञान भी प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है। आप श्रावक हैं अत: श्रावक को अपने मूलगुणों के विषय में जानना अति आवश्यक है। सर्वप्रथम तो यह ज्ञात करना है कि वे मूलगुण कितने होते हैं एवं उनके नाम क्या हैं?-
१. मद्य
२. मांस
३. मधु
४. बड़
५. पीपल
६. पाकर
७. कठूमर
८. गूलर।
इन आठों का त्याग अष्टमूलगुण है। इन आठों चीजों में अनंत त्रस जीव प्रतिक्षण उत्पन्न होते रहते हैं, इनके खाने से आत्मा के गुणों का घात होता है अत: इनका प्रयोग जीवन में कभी नहीं करना चाहिए। मद्य-शराब पीने वाले लोगों के हाल तो आप जानते ही हैं कि उनकी अपनी स्थिति और सारे परिवार की वैसी दुर्दशा होती है। सबसे अधिक तो पैसे की बर्बादी, पुन: स्वास्थ्य की खराबी और नैतिक पतन आदि इस जीव को नरक का पात्र बना देता है।
व्यसन का त्याग
मिलिट्री का एक नवयुवक मेरे पास दर्शन करने आया। आर्थिक परिस्थिति से वह परेशान था। अत: उसने उपाय पूछा। मैंने कोई उपाय बताने से पूर्व उससे एक प्रश्न किया-तुम्हारे अंदर कोई व्यसन तो नहीं है। युवक मौन रहा, मुझे कुछ संदेह हुआ किन्तु मैंने धीमे से पूछा-भैय्या! सिगरेट पीते हो? युवक ने हाँ में गर्दन हिलाई। मैंने पुन: पूछा-प्रतिदिन कितने पैसे की पीते हो? बोले-माताजी! दो रुपये की। मैं बोली-महीने में कितने हुए? युवक ने कहा-६०/-रु. की।
मैंने कहा-साल में कितना हुआ? वह बोले-७२०/-रु. हुए। बात होती रही, मैंने पुन: पूछा-महानुभाव! दस साल में कितने पैसों की सिगरेट पी गए? उसने थोड़ा हिसाब जोड़कर लज्जापूर्वक बताया-हाँ ७२००/- रु. तो हो ही जाते हैं? पास में ही एक बैंक मैनेजर बैठा था। मैंने उससे कहा-क्यों बाबू! यदि ७२००/-रु. बैंक में जमा हो जाते तो उसका ब्याज कितना होता? वे हँसने लगे। मैं सोचने लगी कि हमारे देश के नागरिकों की गरीबी कैसे दूर हो सकती है।
जब मात्र एक धूम्रपान के व्यसन ने एक व्यक्ति के दस साल में ७२००/-रु. नष्ट कर दिए, साथ में स्वास्थ्य की कितनी हानि हुई यह सर्वविदित ही है। फिर जो एक दिन में सैकड़ों रुपये की शराब, बीयर (अंग्रेजी शराब) पीते हैं उनके बारे में क्या कहा जाये? आज न जाने कितने परिवार इस व्यसन से परेशान एवं तबाह हो रहे हैं मांस के लोलुपी राजा बक की कैसी दुर्गति हुई कि उसे नरक जाना पड़ा।
उच्च कुल में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के लिए यह अनार्य कृतियाँ शोभास्पद नहीं हैं और मधु-शहद के खाने से मालूम है कितना दोष लगता है? हमारे आचार्य ने बतलाया है कि एक बिन्दु मात्र भी शहद खाने से सात गाँव जलाने का पाप लगता है। इसी प्रकार बड़, पीपल, पाकर, कठूमर और गूलर इन पाँच उदुम्बर फलों के खाने से भी अगणित त्रस जीवों का घात होता है अत: इन सबका त्याग आवश्यक है। इन्हीं नियमों का पालन करने से अष्ट मूलगुण का पालन हो जाता है और गृहस्थ सद्गृहस्थ (श्रावक) कहलाता है। गृहस्थ में रहते हुए यदि श्रावक अपने कर्तव्य का पालन करते हैं तो वे परम्परा से मोक्षमार्गी हैं।
पुरुरवा भील
एक बार पुरुरवा भील जंगल में शिकार खेल रहा था। सामने एक दिगम्बर मुनिराज को देखकर तीर मारने को उद्यत हुआ लेकिन उसकी स्त्री ने कहा-‘‘इन्हें मत मारो ये वन देवता हैं।’’ तब उसने मुनि को नमस्कार किया। मुनि ने आशीर्वाद दिया-‘‘धर्मलाभ हो’’।
भील बोला-धर्म क्या चीज है? तब मुनिराज ने कहा-मद्य, मांस, मधु का त्याग करना ही धर्म है पुन: उसे उपदेश देकर तीनों चीजें त्याग करा दीं। इसके प्रभाव से वह आयु के अंत में मरकर स्वर्ग में देव हो गया पुन: सम्राट भरत चक्रवर्ती का पुत्र मरीचि कुमार हुआ, कालांतर में यही भगवान महावीर हुआ। पुरुषार्थ सिद्धि उपाय ग्रंथ में आचार्य श्री अमृतचन्द्र सूरि ने भी कहा है-
अर्थात् ये आठों ही अभक्ष्य पदार्थ अनिष्टकारक हैं, पाप के उत्पन्न कराने वाले हैं अत: इनका त्याग करने वाला व्यक्ति ही जिनधर्म की देशना का पात्र हो सकता है।
सागारधर्मामृत में दूसरी प्रकार से आठ मूलगुण बताए हैं
मद्यपलमधुनिशासन, पंचफलीविरतिपंचकाप्तनुति:। जीवदयाजलगालनमिति व क्वचिदष्टमूलगुणा:।।
अर्थात् ३ मकार और रात्रि भोजन का त्याग ये ४ तथा पंचउदुम्बर फल का त्याग, पंचपरमेष्ठी की स्तुति, जीवदया, जल छानकर पीना ये ८
बताये हैं। रात्रिभोजन करने वाले कभी भी अहिंसा के पालक नहीं हो सकते हैं। वर्तमान समय में तो रात्रिभोजन की एक आम परम्परा चल गई है।
लोग अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए इस बात की दलील देते हैं कि पहले जमाने में बिजली का प्रकाश नहीं था इसलिए रात्रि में जीव दिखते नहीं थे किन्तु आज तो बल्ब की रोशनी में बारीक से बारीक जीव भी दिख जाते हैं अत: समय के अनुसार आगम में भी आज का मानव परिवर्तन करना चाहता है। किन्तु भैय्या! आचार्य कोई अज्ञानी नहीं थे वे तो बड़े दूरदर्शी होते थे तथा जीव के सर्वतोमुखी कल्याण की भावना से ही तत्व का प्रतिपादन करते थे।
अभी कुछ ही दिन पूर्व अखबार में छपी एक घटना मैंने सुनी कि एक महिला ने शाम को भोजन बनाकर रख दिया। रात्रि में पतिदेव देर से आये, पत्नी को सोई देखकर उसने सोचा मैं अपने हाथ से ही भोजन निकाल कर खा लूँगा और भोजन करके सो गया। प्रात:काल जब पतिदेव देर तक नहीं जगे तो पत्नी ने चादर खोलकर देखा। किन्तु वे साहब तो सदा के लिए सो चुके थे, सारा शरीर नीला पड़ा था। डाक्टर आया ज्ञात हुआ कि जहर फैल गया है।
सारे बदन में कहीं भी कोई जीव काटने का निशान नहीं दिख रहा था। अन्त में बेचारी महिला रसोई घर में पहुँची, सब्जी का बर्तन खोला तो देखते ही मूर्च्छित हो गई। आधी छिपकली उसमें मरी पड़ी थी, बस यही कारण बन गया और वे सज्जन मृत्यु को प्राप्त हो गये। देखो! यह तो रात्रि में भोजन करने मात्र से इतनी बड़ी हानि हुई और जो भोजन रात में ही बनाया जाता है उसमें तो न जाने कितने मच्छर आदि छोटे-छोटे जीवों के मरने की आशंका रहती है।
दूसरी बात विज्ञान भी इस बात को मानता है कि जो सूक्ष्म जीव (बैक्टीरिया) सूर्य की रोशनी में उत्पन्न नहीं होते हैं वे जीव बिजली की रोशनी में पैदा हो जाते हैं। कुल मिलाकर स्वास्थ्य और धर्म दोनों दृष्टि से रात्रिभोजन श्रेयस्कर नहीं है। यहाँ तक कि पक्षी भी रात्रि में अपने-अपने घोंसले में चले जाते हैं और भोजन नहीं करते हैं।
रात्रिभोजन त्याग
एक सियार ने एक बार सागरसेन मुनिराज के पास रात्रिभोजन का त्याग कर दिया। एक दिन वह सियार बहुत प्यासा था अत: वह पानी पीने के लिए एक बावड़ी में उतरा। वहाँ अंधेरा दिखने से रात्रि समझकर ऊपर आ गया। ऊपर प्रकाश देखकर फिर नीचे गया। नीचे बार-बार अंधेरा देखने से और रात्रि में पानी का त्याग होने से पानी नहीं पिया अत: मर गया। इस व्रत के प्रभाव से वह सियार मनुष्य गति में प्रीतिंकर कुमार हो गया।
उसी भव में मुनि दीक्षा लेकर वह कर्मों से छूट कर मुक्त हो गया। जब एक पशु भी रात्रिभोजन त्याग करके अगले भव में परमात्मा अवस्था प्राप्त कर सकता है तो आप तो मनुष्य हैं आपको तो जीवन में प्रत्येक कार्य विवेकपूर्वक करना चाहिए। पाँच उदुम्बर फलों के एवं ३ मकार के त्याग के विषय में तो मैंने पहले बता ही दिया है। इसके साथ ही पंचपरमेष्ठियों की नित्य ही स्तुति-वंदना करनी चाहिए एवं प्रत्येक प्राणी पर दया भाव रखना चाहिए।
क्योंकि अपने समान ही हर जीव का दुखदर्द समझने से आपसी प्रेमभाव बढ़ता है। मृगसेन नामक एक धीवर ने मुनिराज से नियम लिया कि आज मेरे जाल में जो मछली पहले आवेगी उसे नहीं मारुँगा। नियम के अनुसार उसने अपने जाल में आई हुई मछली के गले में काला धागा बांधकर पाँच बार उसे छोड़ा अत: उसके प्रभाव से अगले भव में धनकीर्ति सेठ की पर्याय में पाँच बार उसके प्राणों की रक्षा हुई।
जीव दया से बढ़कर संसार में दूसरा कोई धर्म नहीं है और जीव हिंसा से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है। आठवां मूलगुण बताया है जलगालन अर्थात् पानी को हमेशा छानकर पीना चाहिए क्योंकि जैन सिद्धांत के अनुसार पानी की एक बूंद में असंख्यात जीव होते हैं अत: बिना छना पानी पीने से उन जीवों का घात होता है और स्वास्थ्य भी बिगड़ता है।
वैज्ञानिक लोगों ने भी बिना छने पानी की एक बूंद में ३६४५० जीव बताये हैं, इसलिए पानी को फिल्टर करके तथा उबालकर पीने के लिए डॉक्टर लोग बताते हैं कि पानी छानने की भी अपने आप में एक विधि होती है। जिसका यथावत् पालन करने से अहिंसाधर्म का भलीभांति पालन होता है। मोटे कपड़े का दोहरा छन्ना होना चाहिए।
ऐसी मर्यादापूर्वक छना हुआ जल अड़तालीस मिनट तक जीव रहित रहता है उसके बाद पुन: उसमें त्रसजीव उत्पन्न हो जाते हैं अत: उसे फिर से छानना चाहिए। छने हुए पानी में लौंग, इलाइची आदि डाल देने से पानी प्रासुक हो जाता है तब उसकी मर्यादा छह घण्टे की हो जाती है। गरम किये हुए जल की मर्यादा चौबीस घंटे की होती है।
आपको यदि अपने मूलगुणों को यथावत पालन करना है तो सर्वप्रथम दुर्जनों की संगति का त्याग करना चाहिए ताकि शराब, मांस आदि बुरी चीजें खाने की आदत न पड़ने पाये। दूसरी बात अपनी जेब में हर समय एक रुमाल या छन्ना रखें और उससे छानकर पानी पियें।
रत्नकरण्डश्रावकाचार में अष्टमूलगुण
आचार्य समंतभद्र स्वामी ने विशेषरूप में अष्टमूलगुण बताये हैं-
अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील इन चारों का एक देश त्याग और परिग्रह का प्रमाण ये पाँच अणुव्रतों का पालन तथा मद्य, मांस, मधु इन तीन मकारों के त्याग करने को साधुओं ने अष्टमूलगुण कहा है। इसमें अलग से पाँच उदुम्बर फलों का त्याग नहीं बताया है क्योंकि अहिंसाणुव्रत में ही वह अन्तर्भूूत हो जाते हैं। इसी प्रकार से रात्रिभोजन त्याग को भी अहिंसा में ही शामिल कर दिया है।
पाँच अणुव्रतों का पालन
पाँच अणुव्रतों का पालन करने से एक सिंह जैसा क्रूर प्राणी भी तिर गया और वह दसवें भव में तीर्थंकर भगवान महावीर बन गया। जिसने भी अणुव्रतों को धारण किया उसने सदैव उन्नति की ओर कदम बढ़ाया। यह अकाट्य नियम देखा गया है कि अणुव्रत लेने वाला व्यक्ति कभी गरीब नहीं होता बल्कि दिन दूनी रात चौगुनी उसकी सम्पत्ति बढ़ती ही जाती है। अणुव्रत में सेठ पूनमचंद घासीलाल का उदाहरण वर्तमान में प्रसिद्ध है।
चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज से उन्होंने पाँच अणुव्रत ग्रहण किए, परिग्रह प्रमाण में उस समय की परिस्थिति के अनुसार वे दस हजार रुपये का प्रमाण करने लगे किन्तु आचार्यश्री ने एक लाख की सीमा कर दी। गुरु का आशीर्वाद और व्रत का माहात्म्य उसी वर्ष उन्होंने जवाहरात के व्यापार में लाखों रुपया कमा लिया, जिसकी उन्हें कभी उम्मीद भी नहीं थी।
अणुव्रत की महिमा
एक दिन सेठ जी महाराज के पास आए और बोले-महाराज! मेरा परिग्रह सीमा उल्लंघन कर रहा है, गुरुदेव! अब मैं उस पैसे का क्या करूँ? तभी एक साधु ने कहा-सेठ जी! संघ को सम्मेदशिखर की यात्रा करा दो। तभी आचार्य श्री का संघ उत्तर प्रान्त में आया और संघपति पूनमचंद घासीलाल ने साधुसंघ को सिद्धक्षेत्र की यात्रा कराकर अपने द्रव्य का सदुपयोग कर लिया तथा उनका नाम भी सदा के लिए अमर हो गया।
इसके पश्चात् उनके घर में संपत्ति इतनी बढ़ती चली गई कि मानों लक्ष्मी ने बसेरा ही कर लिया हो। तब उन्होंने बम्बई में कालबा देवी रोड़ पर एक बड़ा विशाल जिनमंदिर बनाया जिसकी मिशाल भारत के किसी भी जैन मंदिर से कर पाना अशक्य है। यह घटना अधिक नहीं, लगभग ५० वर्ष पुरानी है।
आज भी कितने ही लोग देखे जाते हैं कि अणुव्रत लेने के बाद उनकी सम्पत्ति बढ़ती ही जाती है किन्तु बात तो भावों की है कि वे सेठ जी लक्ष्मी बढ़ने पर गुरु के पास गये थे और लक्ष्मी का सदुपयोग कर लिया था और आज के लाला लोग क्या करते हैं कि धन बढ़ा तो अपने खाते में परिग्रह पूरा किया तथा उसके बाद पत्नी, बेटा, बेटी, बहू, नाती, पोते न जाने कितनों के नाम से उसे अपने सिर का बोझ बनाये रहते हैं और व्यर्थ ही अपने व्रत में अतिचार (दोष) लगाया करते हैं। इसलिए अपने जीवन को पापभीरू बनाने हेतु अभक्ष्य भक्षण से बचें और अष्टमूलगुणों को धारण करें। क्योंकि पंचअणुव्रतों को धारण करने वाला व्यक्ति देवगति को ही प्राप्त करता है यह अकाट्य नियम है।