प्रवाह की दृष्टि से जैनधर्म अनादि है। समय का चक्र अनादिकाल से अविभाजितगति से चल रहा है। वह सब पर है। चेतना और अचेतन-सब उससे प्रभावित हैं। धर्म भी इसका अपवाद नहीं है। धर्म शाश्वत होता है, पर उसकी व्याख्या समय के साथ रहती है। वर्तमान में जैन धर्म में भगवान ऋषभदेव को माना जाता है। कुछ विद्वान इसे वैदिक धर्म की शाखा मानते हैं, तो कुछ इसे बौद्ध धर्म की शाखा मानते हैं। पर वर्तमान में हुए शोध-अनुसंधानों से ज्ञात होता है कि यह न वैदिक धर्म की शाखा है और न बौद्ध धर्म की शाखा है। यह एक स्वतंत्र धर्म है।
विश्व के प्राचीन धर्मों में जैनधर्म प्राचीन धर्म है। प्राचीन भारत के पुरातनता तथा इतिहास का पर्यवेक्षण करने पर यह ज्ञात होता है कि जैन विचारधारा प्राचीन काल से ही अनवरत चल रही है। जैनधर्म सार्वभौमिक एवं सर्वकालिक धर्म है। यह किसी सम्प्रदाय विशेष का नहीं है। क्योंकि यह तो आत्मा के लिए है आत्मा द्वारा प्राप्त किया जाता है, आत्मा में प्रतिष्ठित होता है, इसलिए इसे ‘आत्म-धर्म’ भी कहा जाता है।
जन-जन को सम्यक सुख एवं शांति का, जिसमें पौरुष बताया जाए, वह ‘जनधर्म’ कहलाता है। यह धर्म अस्तित्व की अपेक्षा से आनन्दनिधान अपौरुषेय नाम स्वयंसिद्ध है।
भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर हुए हैं जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना नहीं की और जैन तीर्थयात्रियों (धर्म) को उपस्थित नहीं किया। लोक भाषा में जन-जन तक कार्य किया। जिसके माध्यम से अगणित भव्यात्माओं ने अक्षय शांति का साम्राज्य प्राप्त किया। भगवान ऋषभदेव पूर्व अगणित बार २-२२४ तीर्थंकर एक-एक काल में हो चुके हैं, जो धर्म ध्वजा को फहराया।
जैनधर्म वैदिक धर्म की शाखा नहीं है, क्योंकि वैदिक मत में वेद सबसे प्राचीन माने जाते हैं। विद्वान वेदों को ५००० वर्ष प्राचीन मानते हैं। वेदों में ऋषभ, अरिष्टनेमि आदि श्रमणों का उल्लेख मिलता है। वेदों के अनुयायी उपनिषद, आरण्यक, पुराण आदि में भी इनका वर्णन आता है। यदि इन ग्रंथों की उत्पत्ति से पूर्व जैनधर्म न होता, भगवान ऋषभदेव न होते, तो उनका उल्लेख इन ग्रंथों में यथावत ही होता ? इससे ज्ञात होता है कि जैन धर्म वैदिक धर्म से अधिक प्राचीन है।
जैनधर्म बौद्धधर्म की भी शाखा प्राचीन नहीं है। जैनधर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर हैं, यह भ्रांत दृष्टिकोण ही इसे बौद्धधर्म की शाखा के अनुरूप बना रहा है। पर अब इस विषय में हुए शोधों से यह स्पष्ट हो गया कि भगवान महावीर से पूर्व भी जैनधर्म का अस्तित्व था।
डॉ. हरमन जैकोबी ने अपने ग्रंथ ”जैन सूत्रों की प्रस्तावना” में इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। आज पार्श्वनाथ पूर्णत: ऐतिहासिक पुरुष सिद्ध हो चुके हैं तब भगवान महावीर से जैनधर्म का प्राचीन मिथ्या ही है। जैकोबी लिखते हैं ”इस बात से अब सब सहमत हैं कि नाथपुत्त जो वर्धमान या महावीर के नाम से प्रसिद्ध हुए, वे बुद्ध के समकालीन थे।” बौद्ध ग्रंथों में मिलने वाले उल्लेख हमारे इस विचार को और दृढ़ करते हैं कि नाथपुत्त से पहले ”भी निर्ग्रन्थों का जो धर्म आज अर्हत् या जैन नाम से प्रसिद्ध हैं-उसका अस्तित्व था।”
यह सत्य है कि ”जैनधर्म” इस शब्द का प्रयोग वेदों में, त्रिपिटकों में और आगमों में देखने को नहीं मिलता, जिसके कारण भी कुछ लोग जैनधर्म को प्राचीन न मानकर पुरातन मानते हैं। प्राचीन साहित्य में ”जैनधर्म” का नामोल्लेख न मिलने का कारण यह था कि उस समय तक इसे जैनधर्म के नाम से जाना ही नहीं जाता था। इसके बाद उत्तर आधुनिक साहित्य में ‘जैन’ शब्द व्यापक रूप से प्रचलित हुआ। ऋषभ से लेकर महावीर तक इसके प्राचीनतम नाम हमें जो उपलब्ध होते हैं, वे हैं-श्रमण, निर्ग्रन्थ, अर्हत्, व्रत्य आदि।
जैनधर्म का मुख्य उद्देश्य है-सत्य का साक्षात्कार करना। प्राचीन और नवीन में सत्य की कोई महत्ता नहीं होती। जिसके द्वारा आत्म-साक्षात्कार हो सके, उसी का महत्त्व होता है, फिर चाहे वह प्राचीन हो या अर्वाचीन। पर इतिहास की दृष्टि में प्राचीन और अर्वाचीन का महत्त्व होता है। प्राप्त प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैनधर्म प्राग्वैदिक है। जैनधर्म के प्राचीन होने की संपुष्टि हम पापों के आधार पर कर सकते हैं-१. साहित्य के आधार पर, २. पुरातत्त्व के आधार पर।
वेद भारतीय साहित्य में सबसे प्राचीन माने जाते हैं। वेदों तथा उनके पाश्र्ववर्ती ग्रंथों में वर्णित शब्द यथा-श्रमण, केशी, व्रत्य, अर्हत्, निर्ग्रन्थ आदि जैनधर्म की प्राचीनता को सिद्ध करते हैं।
श्रमण- ऋग्वेद में ‘वातार्शण मुनि’ शब्द का प्रयोग किया गया है। ये अर्हत ऋषभ के ही शिष्य हैं। श्रीमद्भागवत में ऋषभ को श्रमणों के धर्म का प्रवर्तक बताया गया है। उसके लिए श्रमण, ऋषि, ब्रह्मचारी आदि विशेष प्रयोग किये गये हैं। वातार्शन शब्द भी श्रमणों का संकेत है। ‘वातार्शण ह वा ऋषभ: श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनो बभूतु:’ तैत्तिरीयारन्यक और श्रीमद्भागवत द्वारा इस तथ्य की पुष्टि होती है। वहाँ वात्स्यायन मुनियों को श्रमण और ऊर्ध्वमंथी कहा गया है। आचार्य ने वातारण शब्द का अर्थ निर्वस्त्र किया है। श्रमण शब्द का उल्लेख वृहदारण्यक उपनिषद और रामायण आदि में भी होता रहा है।
केशी-ऋग्वेद के जिस प्रकरण में वार्तान मुनि का उल्लेख है, उसी में केशी की स्तुति की गई है-
नाम केशी अग्नि, जल, स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करता है। केशी समस्त विश्व के तत्त्वों का दर्शन करता है। केशी ही प्रकाशमान ज्योति (केवलज्ञानी) कहता है। यह केशी भगवान ऋषभदेव का वाचक है। उनके केशी होने की परम्परागत जैन साहित्य आज भी उपलब्ध है।
व्रत्य- वैदिक साहित्य में व्रत्य संस्कृति एवं उसके तपस्वियों के उल्लेख आते हैं, विशेष संबंध श्रमण संस्कृति से होना चाहिए। व्रतों का आचरण करने के कारण वे व्रत कहते थे। संहिता काल में व्रतियों को बड़े सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। ऋग्वेद में व्रतियों की स्तुति में अनेक मंत्रों की रचना की गई है। व्रतियों की यह स्तुति ऋग्वेद से लेकर अथर्ववेद काल तक प्राप्त होती है। अथर्ववेद में तो स्वतंत्र ‘व्रत सूक्त’ की रचना होती है। व्रत सूक्त के १५वें काण्ड में २२० मंत्रों द्वारा व्रतियों की स्तुति की गई है।
ऋषभदेव की स्तुति करते हुए उनके प्रजापति रूप की स्तुति इस प्रकार की गई है-”व्रत्य नाम का एक राजा हुआ, उसने राज्य धर्म की शुरुआत की।” प्रजा, बंधु-बांधव और प्रजातंत्र सभी का उसी से उदय हुआ। व्रात्य ने सभा, समिति, सेना आदि का निर्माण किया।
अर्हन्- वातारण, मुनि आदि के समान ऋग्वेद में जैनों के लिए अर्हन् शब्द का प्रयोग भी हुआ है। जो अर्हत के उपासक थे वे अर्हत कहलाते थे। अर्हन् शब्द श्रमण संस्कृति का बहुत प्रिय शब्द है। वे अपने तीर्थंकरों को वीतराग आत्माओं को अर्हन् कहते हैं। ऋग्वेद में अर्हन् शब्द का प्रयोग श्रमिक नेता के लिए ही हुआ है-
ऋग्वेद में प्रयुक्त प्रथम शब्द से यह प्रमाणित होता है कि श्रमण संस्कृति ऋग्वेदिक काल से पूर्ववर्ती है।
यजुर्वेद में तीन तीर्थंकरों ऋषभदेव, अजितनाथ एवं अरिष्टनेमि के नामों का उल्लेख है। भागवतपुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभ जैनमत के संस्थापक थे। इस प्रकार के साहित्य में ये प्रमाण जैनधर्म की प्राचीनता को सिद्ध करते हैं।
पुराणत्ववेत्ता भी अब इस बात को स्वीकार करने लगे हैं कि जब भारत में वैदिक सभ्यता का प्रचार-प्रसार हुआ, उससे पहले यहाँ जो सभ्यता थी, वह अत्यन्त समृद्ध एवं समुन्नत थी। प्राग्वैदिक काल का कोई साहित्य नहीं मिलता क्योंकि पुरातनता की खोजों और उत्खनन के परिणामस्वरूप कुछ नये चरणों पर प्रकाश पड़ता है। सन् १९२२ में और उसके बाद मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई भारत सरकार की ओर से की गई थी। इन स्थानों पर जो पुरातनता उपलब्ध हुई है, वह प्राचीन भारतवासियों के रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और धार्मिक आश्चर्य पर प्रकाश डालती है। यद्यपि इन स्थानों पर कोई देवालय-मंदिर नहीं मिले हैं, क्योंकि वहां मोहब्बत, ताम्रपत्र और मनुष्यों से उनके धर्म का पता चलता है।
मोहन-जोड़ों में कुछ ऐसी मोहतरमाएँ मिली हैं, जिन पर योगमुद्राओं में योगी-मूर्तियाँ अंकित हैं। एक ऐसी मुहर भी प्राप्त हुई है, जिसमें एक योगी कायोत्सर्ग मुद्राओं में ध्यानलीन हैं। उसके सिर के ऊपर त्रिशूल है। वृक्ष का एक पृष्ठ मुख के पास है। योगी के चरणों में एक भक्त को हार्दिक बधाई दे रहा है। उस भक्त के पीछे वृषभ (बैल) खड़ा है। वृषभ के ऊपर वृक्ष है। नीचे सामने की ओर सात योगी कायोत्सर्ग की मुद्राओं में भुजाएं लटकी हुई ध्यानमग्न हैं। प्रत्येक के मुख के पास वल्लरी के पत्र लटक रहे हैं।
विद्वान उक्तिलेखक की व्याख्या इस प्रकार करते हैं-भगवान ऋषभदेव कायोत्सर्ग में ध्यानारूढ़लते हैं। कल्पवृक्ष हवा में हिल रहा है और उसका एक पत्ता भगवान के मुख के पास डोल रहा है। उनके सिर पर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र यह त्रिरत्नरूप त्रिशूल है। सम्राट भरत भगवान के चरणों में भक्ति से मोहित होकर आनन्दाश्रुओं से उनके चरण प्रशिक्षण कर रहे हैं। उनके पीछे वृषभ लांछन है। नीचे सात मुनि भगवान के बाद कायोत्सर्ग की मुद्राओं में ध्यानलीन हैं। जो चार हजार व्यक्ति ऋषभदेव के साथ मुनि बने थे, वे प्रतीक स्वरूप सात मुनि हैं। ये भी कल्पवृक्ष के नीचे खड़े हुए हैं और उनके मुख के पास भी पत्ता हिल रहा है। इस आदर्श की अधिक व्याख्या कोई दूसरी नहीं हो सकती।
कायोत्सर्ग मुद्रा जैन परम्परा की ही विशेष देन है। मोहन-जोड़ों की खुदाई में प्राप्त होने की यह विशेषता है कि वे प्रिय: कायोत्सर्ग मुद्राओं में हैं, ध्यानलीन हैं और नग्न हैं। पहाड़ कायोत्सर्ग करने की घटना जैन परंपरा में बहुत प्रचलित है।
धर्मपरंपराओं में योगमुद्राओं में भी भेद होता है। लपेट या पद्मासन जैन लोगों की विशेषता है। इसी संदर्भ में आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा-प्रभो! यदि आप अपने प्रयोग आसन और नासाग्र दृष्टि वाली योगमुद्रा को भी पारतीर्थिक-अन्य मतावलम्बी नहीं सीख सकते, तो अवश्य पढ़ें और जानें। प्रोफेसर प्राणनाथ ने मोहन-जोदड़ो की एक मुद्रा पर ‘जिनेश्वर’ शब्द भी पढ़ा है।
डेल्फी से प्राप्त प्राचीन आर्गिव मूर्ति, जो कायोत्सर्ग मुद्रा में है, ध्यानलीन और उसके दोनों पर ऋषभ की मुद केश-राशि लटकती हुई है। डॉ. कालिदास नाग ने उसे जैन मूर्ति बताया है। वह लगभग दस हजार वर्ष पुराना है।
मोहन-जोदड़ो से प्राप्त मुटियों के सिर पर नाग फन का अंकन है। वह नाग वंश के संबंध में संकेत है। सातवें तीथंकर भगवान सुपाश्र्वनाथ के सिर पर सपमंडल का छत्र था।
इस प्रकार मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा आदि में जो ध्यानस्थ प्रतिमाएँ मिली हैं, वे जैन तीथं&करों की हैं। ध्यानमग्न वीतराग मुद्रा, त्रिशूल और धाम, पशु, वृक्ष, नाग, ये सभी जैन कलाओं की अपनी विशेषताएं हैं। खुदाई में यह ऐतिहासिक रूप से निश्चित रूप से जैनधर्म की प्राचीनता को सिद्ध करते हैं।
साहित्य और पुरातनता के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जैनधाम विश्व का प्राचीनतम धाम है।
वीर निवास और संवत में भी सभी संवत्सरों में सबसे प्राचीन माना जाता है।
विष्णुपुराण- अध्याय १८, अ-पूर्ण
मत्स्यपुराण-अध्याय २
वैदिक पद्मपुराण-प्रथम सृष्टि खण्ड १३, पृ. गत
वैदिक पद्मपुराण-अध्याय-१
भारतवर्ष में वैदिक आयों के पूव काल में प्रजापति (ऋषभदेव) के लिए ज्ञान यज्ञ का प्रचार किया गया था। ऋग्वेद और वैदिक इसके समथक हैं। ऋग्वेद में भी ऐसे श्रमणों का उल्लेख है।
मुनि को नग्न क्षपंक व शांतिपव में भी (मोक्ष धाम अ.२संकलित, श्लोक ६) सप्तभंगी का उल्लेख है, जिसके आठ जैन धाम में थे।
विख्यात विद्वान श्री विनोबा भावे द्वारा रचित ”जैन विचार नि:संशय प्राचीनकाल से है” (वेद मंत्र १२, मक्, १०१ के अनुसार)
डॉ. जैकोबी के अनुसार ‘इण्डो-आयन-इतिहास के अत्यन्त आरंभ काल में जैनधम का उद्भव हुआ था (घ्हूर्दलम्गूग्दह दलूत्ग्हो दफ वग्घेस, ज.ज.ए&ई&ई&ऊद इ&ई&ग्ग्ग)
”डॉ. हेनरिक जिमर ने जैनधर्म को आयों का पूववती धर्म कहा है। जैनधर्म द्रविड़कालीन है जिसका ज्ञान सिंधु की उपत्यका में उपलब्ध सामग्री से होता है। (उप झ्प्ग्त्देदज्पगे दफ घ्घ्ग् ज्. २७७)
श्री विसेंट स्मिथ के अनुसार ”इस बात के स्पष्ट व अकाट्य प्रमाण हैं कि जैनधर्म प्राचीन है और वह प्रारंभ से भी वत्मान स्वरूप में था।”
यजुवेद में ऋषभ, अजित और अरिष्टनेमी नामक तीन तीथंकरो का उल्लेख मिलता है। इनका उल्लेख जैनों के पहले, दूसरे और चौथे तीथंकर के रूप में किया गया है। भागवत पुराण भी इस बात की पुष्टि करता है कि जैनधर्म के संस्थापक ऋषभ ही थे।
विश्वशांति का संवाह प्राचीनतम जैनदर्शन जन-जन का दर्शन बन गया और इसीलिए देश में ही नहीं, अपितु विश्व में भी इनके सिद्धान्तों के प्रति पूर्ण समादर रहा। इंडोनेशिया में स्थित बोरोबुदूर (नंदीश्वरद्वीप/समवसरण मंदिर), कंबोडिया, थाईलैंड में भी जैन पुरातत्त्व के अवशेष प्राप्त हुए हैं। वियतनाम, म्यांमार (बर्मा), मैक्सिको से प्राप्त पुरातनता के आधार पर जैन संस्कृति के व्यापक प्रमाण मिले हैं।
दिनाँक ५ माचिस को जैनधम को अन्तर्राष्ट्रीय धमों के संगठन (घ्र्ध) में १०वें धम के रूप में मान्यता प्रदान की गई।
अमेरिकी संसद ने दिनाँक १०-२० यहूदियों को ट्विटर क्र. 7 साल पहले, जब अमेरिका और विश्व में दिवाली के त्यौहार को अन्य धामों की तरह जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के निवास के उपलक्ष्य में जैनों द्वारा महात्त्व के रूप में मनाया जाता था, तब ऐसा माना जाता है।
र : श