-शंभु छंद-
जो पंच कल्याणक के स्वामी, तीर्थंकर पद के धारी हैं।
उनका ही समवसरण बनता, जिसकी शोभा अतिन्यारी है।।
यद्यपि उनके गुण हैं अनंत, फिर भी छ्यालिस गुण विख्याते।
उनका आह्वानन कर पूजें, वे मेरे सब गुण विकसाते।।१।।
ॐ ह्रीं षट्चत्वारिंशद्गुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं षट्चत्वारिंशद्गुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं षट्चत्वारिंशद्गुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-(चाल-हे दीन बंधू….)
सरयू नदी का नीर स्वर्णभृंग में भरूँ।
जिननाथ पाद पद्म में त्रयधार मैं करूँ।।
तीर्थेश गुण समूह की मैं अर्चना करूँ।
निजगुण समूह हेतु आज प्रार्थना करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं षट्चत्वारिंशद्गुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केशर कपूर को घिसा चंदन सुरभि लिया।
जिननाथ चरण चर्च मैं मनको सुवासिया।।तीर्थेश.।।२।।
ॐ ह्रीं षट्चत्वारिंशद्गुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
उज्ज्वल अखंड शालि धोय थाल में भरे।
जिन अग्र पुंज धारतें अखंड सुख भरें।।तीर्थेश.।।३।।
ॐ ह्रीं षट्चत्वारिंशद्गुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला गुलाब केतकी चंपा खिले खिले।
जिनपाद में चढ़ावते सम्यक्त्व गुण मिले।।
तीर्थेश गुण समूह की मैं अर्चना करूँ।
निजगुण समूह हेतु आज प्रार्थना करूँ।।४।।
ॐ ह्रीं षट्चत्वारिंशद्गुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूड़ी सोहाल मालपुआ थाल भर लिये।
जिन अग्र में चढ़ाय आत्म तृप्ति कर लिये।।तीर्थेश.।।५।।
ॐ ह्रीं षट्चत्वारिंशद्गुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणिदीप में कपूर ज्योति को जलावते।
जिन आरती करंत मोह तम भगावते।।तीर्थेश.।।६।।
ॐ ह्रीं षट्चत्वारिंशद्गुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
जो धूप पात्र में सुगंध धूप खेवते।
उन पाप कर्म भस्म होंय आप सेवते।।तीर्थेश.।।७।।
ॐ ह्रीं षट्चत्वारिंशद्गुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
केला अनार आम संतरा मंगा लिया।
जिन अग्र में चढ़ाय सर्वश्रेष्ठ फल लिया।।तीर्थेश.।।८।।
ॐ ह्रीं षट्चत्वारिंशद्गुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि अर्घ लेय श्रेष्ठ रत्न मिलाऊं।
जिन अग्र में चढ़ाय चित्त कमल खिलाऊं।।तीर्थेश.।।९।।
ॐ ह्रीं षट्चत्वारिंशद्गुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
पद्म सरोवर नीर ले, जिनपद धार करंत।
तिहुंजग में मुझ में सदा, करो शांति भगवंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
श्वेत कमल नीले कमल, अति सुगंध कल्हार।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जिनवर गुणमणि तेज, सर्व लोक में व्यापता।
हो मुझ ज्ञान अशेष, पुष्पांजलि कर पूजहूँ।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शंभु छंद-
तीर्थंकर प्रभु के जन्म समय से, दश अतिशय सुखदायी हैं।
उनके तनु में नहिं हो पसेव, यह अतिशय गुण मन भायी है।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।१।।
ॐ ह्रीं नि: स्वेदत्वसहजातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
माता की कुक्षी से जन्में, औदारिक तनु मानव का है।
फिर भी मल मूत्र नहीं तुममें, यह अतिशय पुण्य उदय का है।।मैं.।।२।।
ॐ ह्रीं निर्मलतासहजातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तन में श्वेत रुधिर पय सम, यह अतिशय तीर्थंकर के हो।
अतएव मात सम त्रिभुवन जन, पोषण करते उदार मन हो।।मैं.।।३।।
ॐ ह्रीं क्षीरसमधवलरुधिरत्वसहजातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम संहनन सुवज्रवृषभनाराच कहाता शक्ति धरे।
यह अन्य जनों को सुलभ तथापि तुममें अतिशय नाम धरे।।मैं.।।४।।
ॐ ह्रींवज्रवृषभनाराचसंहननसहजातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तन में एक एक अवयव, सब माप सहित अतिशय सुंदर।
यह सम चतुरस्र नाम का ही, संस्थान कहा त्रिभुवन मनहर।।मैं.।।५।।
ॐ ह्रीं समचतुरस्रसंस्थानसहजातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में उपमारहित रूप अतिसुंदर अणुओं से निर्मित।
सुरपति निज नेत्र हजार बना, प्रभु को निरखे फिर भी अतृप्त।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।६।।
ॐ ह्रीं अनुपमरूपसहजातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
नव चंपक की उत्तम सुगंध, सम देह सुगंधित प्रभु का है।
यह अतिशय अन्य मनुज तन में नहिं कभी प्राप्त हो सकता है।।मैं.।।७।।
ॐ ह्रीं सौगंध्यसहजातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ एक हजार आठ लक्षण, प्रभु तन का अतिशय कहते हैं।
यह तीन जगत् में भी उत्तम, अतएव इंद्र सब नमते हैं।।मैं.।।८।।
ॐ ह्रीं अष्टोत्तरसहस्रशुभलक्षणसहजातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तनु में अनंत१ बल वीर्य रहे, जन्मत ही यह अतिशय प्रगटे।
अतएव हजार हजार बड़े कलशों से न्हवन भि झेल सकें।।मैं.।।९।।
ॐ ह्रीं अनन्तबलवीर्यसहजातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
हितमित सुमधुर वाणी प्रभु की, जनमन को अतिशय प्रिय लगती।
त्रिभुवन हितकारी भावों से, यह अद्भुत वचन शक्ति मिलती।।मैं.।।१०।।
ॐ ह्रीं प्रियहितमधुरवचनसहजातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-नरेन्द्र छंद-
केवल ज्योति प्रगट होती इक दश२ अतिशय होते हैं।
चारों दिश में सुभिक्ष होवे, चउ चउसौ कोसों में।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूं।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूँ।।११।।
ॐ ह्रीं गव्यूतिशतचतुष्टयसुभिक्षताकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितचतुर्विंशति-
तीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान प्रगट होते ही जिनवर, गगन गमन करते हैं।
बीस हजार हाथ ऊपर जा, अधर सिंहासन पर हैं।।घाति.।।१२।।
ॐ ह्रीं गगनगमनत्वकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु के गमन शरीर आदि से, प्राणी वध नहिं होवे।
करुणा सिंधु अभय दाता को, पूजत निर्भय होवें।।घाति.।।१३।।
ॐ ह्रीं प्राणिवधाभावकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कोटी पूर्व वर्ष आयु में, कुछ कम ही वर्षों में।
केवलि का उत्कृष्ट काल यह, बिन भोजन है तन में।।घाति.।।१४।।
ॐ ह्रीं कवलाहाराभावकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देव मनुज तिर्यंच आदि उपसर्ग नहीं कर सकते।
केवलि प्रभु के कर्म असाता, साता में ही फलते।।घाति.।।१५।।
ॐ ह्रीं उपसर्गाभावकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण की गोल सभा में, चहुंदिश प्रभु मुख दीखे।
चतुर्मुखी१ ब्रह्मा यद्यपि ये, पूर्व उदङ् मुख तिष्ठे।।घाति.।।१६।।
ॐ ह्रीं चतुर्मुखत्वकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
परमौदारिक पुद्गल तनु भी, छाया नहीं पड़े है।
केवलज्ञान सूर्य होकर भी सबको छांव करे हैं।।घाति.।।१७।।
ॐ ह्रीं छायारहितकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेत्रों की पलकें नहिं झपकें, निर्निमेष दृष्टी है।
जो पूजें वे भव्य लहें तुम, सदा कृपा दृष्टी है।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूँ।।१८।।
ॐ ह्रीं पक्ष्मस्पंदरहितकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में जितनी विद्या हैं, सबके ईश्वर प्रभु हैं।
जो भवि पूजें वे सब विद्या, अतिशय प्राप्त करे हैं।।घाति.।।१९।।
ॐ ह्रीं सर्वविद्येश्वरकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केश और नख बढ़े नहिं प्रभु के, चिच्चैतन्य प्रभू हैं।
दिव्यदेह को धारण करते, त्रिभुवन एक विभू हैं।।घाति.।।२०।।
ॐ ह्रीं समाननखकेशत्वकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनुपम दिव्यध्वनी त्रय संध्या, मुहूर्त त्रय त्रय खिरती।
चारकोश तक सुनते भविजन, सब भाषामय बनती।।घाति.।।२१।।
ॐ ह्रीं अक्षरानक्षरात्मकसर्वभाषामयदिव्यध्वनिकेवलज्ञानातिशयगुणमंडित-
चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शंभु छंद-
प्रभु के श्रीविहार में दशदिश, संख्यात कोस तक असमय में।
सब ऋतु के फल फलते वे फूल, खिल जाते हैं वन उपवन में।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।२२।।
ॐ ह्रीं सर्वर्तुफलादिशोभिततरुपरिणामदेवोपनीतातिशयगुणमंडित-
चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कंटक धूली को दूर करे, जनमन हर सुखद पवन बहती।
प्रभु के विहार में बहुत दूर तक, स्वच्छ हुई भूमी दिखती।।तीर्थ.।।२३।।
ॐ ह्रीं वायुकुमारोपशमितधूलिकंटकादिदेवोपनीतातिशयगुणमंडित-
चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जीव पूर्व के बैर छोड़, आपस में प्रीती से रहते।
इस अतिशय पूजत निंदा कलह अशांति बैर निश्चित टलते।।तीर्थ.।।२४।।
ॐ ह्रीं सर्वजनमैत्रीभावदेवोपनीतातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पृथिवी दर्पण तल सदृश स्वच्छ, अरु रत्नमयी हो जाती है।
जहं जहं प्रभु विहरण करते हैं, वह भूमि रम्य मन भाती है।।तीर्थ.।।२५।।
ॐ ह्रीं आदर्शतलप्रतिमारत्नमयीमहीदेवोपनीतातिशयगुणमंडित-
चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुर मेघ कुमार सुगंध शीत, जल कण की वर्षा करते हैं।
इंद्राज्ञा से सब देववृंद, प्रभु का अतिशय विस्तरते हैं।।तीर्थ.।।२६।।
ॐ ह्रीं मेघकुमारकृतगंधोदकवृष्टिदेवोपनीतातिशयगुणमंडित-
चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाली जौ आदिक धान्यभरित, खेती फल से झुक जाती है।
सब तरफ खेत हों हरे भरे, यह महिमा सुखद सुहाती है।।तीर्थ.।।२७।।
ॐ ह्रीं फलभारनम्रशालिदेवोपनीतातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जनमन परमानंद भरें, जहं जहं प्रभु विचरण करते हैं।
मुनिजन भी आत्म सुधा पीकर, क्रम से शिवरमणी वरते हैं।।तीर्थ.।।२८।।
ॐ ह्रीं सर्वजनपरमानन्दत्वदेवोपनीतातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
वायू कुमार जिन भक्तीरत, सुख शीतल पवन चलाते हैं।
जिन विहरण में अनुकूल पवन उससे जन व्याधि नशाते हैं।।तीर्थ.।।२९।।
ॐ ह्रीं विहरणमनुगतवायुत्वदेवोपनीतातिशयगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कुंये सरोवर बावड़ियाँ, निर्मल जल से भर जाते हैं।
इस चमत्कार को देख भव्य, निज पुण्य कोष भर लाते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।३०।।
ॐ ह्रीं निर्मलजलपूर्णकूपसरोवरादिदेवोपनीतातिशयगुणमंडितचतुर्विंशति-
तीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आकाश धूम्र उल्कादि रहित, अतिस्वच्छ शरद्ऋतु सम होता।
जिनवर भक्ती वंदन करते, भविजन मन भी निर्मल होता।।तीर्थ.।।३१।।
ॐ ह्रीं शरत्कालवन्निर्मलाकाशदेवोपनीतातिशयगुणमंडितचतुर्विंशति-
तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जन ही रोग शोक संकट, बाधाओं से छुट जाते हैं।
जहं जहं प्रभु विहरण करते हैं, सर्वोपद्रव टल जाते हैं।।तीर्थ.।।३२।।
ॐ ह्रीं सर्वजनरोगशोकबाधारहितत्वदेवोपनीतातिशयगुणमंडितचतुर्विंशति-
तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यक्षेंद्र चार दिश मस्तक पर, शुचि धर्मचक्र धारण करते।
उनमें हजार आरे अपनी, किरणों से अतिशय चमचमते।।तीर्थ.।।३३।।
ॐ ह्रीं यक्षेंद्रशीशोपरिस्थितधर्मचक्रचतुष्टयदेवोपनीतातिशयगुणमंडितचतुर्विंशति-
तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दिश विदिशा में छप्पन सुवर्ण, पंकज खिलते सुरभी करते।
इक पाद पीठ मंगल सु द्रव्य, पूजन सुद्रव्य सुरगण धरते।।
प्रभु के विहार में चरण तले, सुर स्वर्ण कमल रखते जाते।
इन तेरह१ सुरकृत अतिशय को, हम पूजत ही सम सुख पाते।।३४।।
ॐ ह्रीं जिनचरणकमलतलस्वर्णकमलरचनादेवोपनीतातिशयगुणमंडितचतुर्विंशति-
तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
-गीता छंद-
वर प्रातिहार्य सु आठ में, तरुवर अशोक विराजता।
मरकत मणी के पत्र पुष्पों, से खिला अति भासता।।
निज तीर्थकर ऊँचाई से बारह गुणे तुंग फरहरे।
इसकी करें हम अर्चना, यह शोक सब मन का हरे।।५।।
ॐ ह्रीं अशोकवृक्षमहाप्रातिहार्यगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु शीश पर त्रय छत्र शोभें, मोतियों की हैं लरें।
प्रभु तीन जग के ईश हैं, यह सूचना करती फिरें।।
क्या चंद्रमा नक्षत्रगण, को साथ ले भक्ती करें।
इस कल्पना युत छत्र त्रय की, हम सदा अर्चा करें।।३६।।
ॐ ह्रीं छत्रत्रयमहाप्रातिहार्यगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निर्मल फटिक मणि से बना, बहुरत्न से चित्रित हुआ।
जिननाथ सिंहासन दिपे, निजतेज से नभ को छुआ।।
इस पीठ पर तीर्थेश, चतुरंगुल अधर ही राजते।
यह प्रातिहार्य महान जो जन पूजते निज भासते।।३७।।
ॐ ह्रीं सिंहासनमहाप्रातिहार्यगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणधर मुनीगण देव देवी, चक्रि नर पशु आदि सब।
निज निजी कोठे बैठ अंजलि जोड़ते१ सुप्रसन्न मुख।।
इन बारहों गण से घिरे तीर्थेश त्रिभुवन सूर्य हैं।
यह प्रातिहार्य महान इसको जजत जन जग सूर्य हैं।।३८।।
ॐ ह्रीं द्वादशगणपरिवेष्टितमहाप्रातिहार्यगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब आइये जिन शरण में, मानों कहे यह दुंदुभी।
सब देव गण मिलकर बजाते बहुत बाजे दुंदुभी।।
यह प्रातिहार्य महान इसको वाद्य ध्वनि से पूजते।
सुरगण बजावें वाद्य उनके सामने बहु भक्ति से।।३९।।
ॐ ह्रीं देवदुंदुभिमहाप्रातिहार्यगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरगण गगन से कल्पतरु के पुष्प बहु बरसा रहें।
यह वर्ण वर्ण सुगंध खिलते पुष्प जन मन भा रहे।।
यह प्रातिहार्य महान इसको सुमन अर्घ लिये जजूँ।
अतिशय सुयश सुख प्राप्तकर सब अशुभ अपयश से बचूँ।।४०।।
ॐ ह्रीं सुरपुष्पवृष्टिमहाप्रातिहार्यगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह कोटि भास्कर तेज हरता प्रभा मंडल नाथ का।
जन दर्श से निज सात भव को देखते उसमें सदा।।
यह प्रातिहार्य महान इसको पूजहूँ अतिचाव से।
निज आत्म तेज अपूर्व पाकर छूटहूँ भव दाव से।।४१।।
ॐ ह्रीं भामंडलमहाप्रातिहार्यगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुर यक्षगण चौंसठ चंवर जिनराज पर ढोरें सदा।
ये चंद्रसम उज्ज्वल चंवर हरते सभी मन की व्यथा।।
यह प्रातिहार्य महान इसको पूजहूँ श्रद्धा धरे।
जो जजें चामर ढोरकर वे उच्च पद के सुख भरें।।४२।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिचामरमहाप्रातिहार्यगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-नाराच छंद-
तीन लोक तीनकाल की समस्त वस्तु को।
एक साथ जानता अनंत ज्ञान विश्व को।।
जो अनंतज्ञान युक्त इन्द्र अर्चते जिन्हें।
पूजहूँ सदा उन्हें अनंतज्ञान हेतु मैं।।४३।।
ॐ ह्रीं अनन्तज्ञानगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
लोक अरु अलोक के समस्त ही पदार्थ को।
एक साथ देखता अनंत दर्श सर्व को।।
जो अनंत दर्श युक्त इन्द्र अर्चते उन्हें।
पूजहूँ सदा उन्हें अनंत दर्श हेतु मैं।।४४।।
ॐ ह्रीं अनन्तदर्शनगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
बाधहीन जो अनंत सौख्य भोगते सदा।
हो भले अनंतकाल आवते न ह्यां कदा।।
वे अनंत सौख्य युक्त इन्द्र अर्चते उन्हें।
पूजहूँ सदा तिन्हें अनंत सौख्य हेतु मैं।।४५।।
ॐ ह्रीं अनन्तसौख्यगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
जो अनंतवीर्यवान अंतराय को हने।
तिष्ठते अनंत काल श्रम नहीं कभी उन्हें।।
वे अनंत शक्ति युक्त इन्द्र अर्चते उन्हें।
पूजहूँ सदा तिन्हें अनंत वीर्य हेतु मैं।।४६।।
ॐ ह्रीं नन्तवीर्यगुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-शंभु छंद-
दश अतिशय जन्म समय से ग्यारह केवलज्ञान उदय से हों।
देवों कृत तेरह अतिशय हों, चौंतिस अतिशय सब मिलके हों।।
वर प्रातिहार्य हैं आठ कहें, सु अनंत चतुष्टय चार कहें।
ये छ्यालिस गुण तीर्थंकर के, हम पूजें वांछित सर्व लहें।।४७।।
ॐ ह्रीं षट्चत्वारिंशद्गुणमंडितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
-भुजंगप्रयात छंद-
क्षुधा व्याधि पीड़ा करे सर्व जन को।
ये आहार संज्ञा हरें घातिहर जो।।
प्रभो केवली के असाता उदय भी।
फले सौख्य में मैं जजूँ नित उन्हें ही।।१।।
ॐ ह्रीं क्षुधामहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तृषा वेदना से पिपासित सभी हैं।
प्रभो आपने स्वात्म अमृत पिया है।।
इसे नाशने हेतु प्रभु को जजूँ मैं।
सदा साम्य पीयूष रुचि से चखूँ मैं।।२।।
ॐ ह्रीं भयमहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महा दोष भीती सभी को सतावे।
प्रभू ने सभी भय डराकर भगाये।।
जजूँ सात भय नाश हेतू तुम्हीं को।
भजूँ सात उत्तम परं स्थान ही को।।३।।
ॐ ह्रीं भयमहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महा क्रोध अग्नी दहे सर्व जग को।
प्रभू ने महाशांति से नाशा उसको।।
इसी क्रोध आश्रित सभी दोष आते।
जजूँ आप को क्रोध को मूल नाशें।।४।।
ॐ ह्रीं क्रोधमहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिता से अधिक दु:ख चिंता करे है।
तनू स्वास्थ्य को हर महा दुख भरे है।।
इसे मूल से आपने नष्ट कीना।
जजूँ मैं न चिंता कभी हो हृदय मा।।५।।
ॐ ह्रीं चिंतामहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जरा जर्जरी देह करके सुखावे।
इसे नाश कर मूल से सौख्य पावें।।
प्रभो केवली आपको ही जजूँ मैं।
इसे नाश के स्वात्म सुख को भजूँ मैं।।६।।
ॐ ह्रीं जरामहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा राग संसार में ही भ्रमावे।
प्रभो आपमें राग मुक्ती दिलावे।।
तथापी तुम्हीं ने सभी राग नाशे।
जजूँ भक्ति से तो अशुभ राग भागे।।७।।
ॐ ह्रीं रागमहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीतिस्वाहा।
महा मोह सम्राट से सब दुखी हैं।
इसे मूल से प्रभु उखाड़ा सुखी हैं।।
इसी मोह के नाश हेतू जजूँ मैं।
महाध्वांत हर ज्ञान ज्योती भजू मैं।।८।।
ॐ ह्रीं मोहमहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीतिस्वाहा।
करोड़ों भरे रोग इस देह में हैं।
प्रभू रोग को नाश करके सुखी हैं।।
विविध भांति के रोग नित कष्ट देते।
तुम्हें पूजते ये मुझे छोड़ देते।।९।।
ॐ ह्रीं रोगमहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीतिस्वाहा।
महामल्ल मृत्यू ने त्रैलोक्य जीता।
इसे जीत तुम मुक्ति लक्ष्मी गृहीता।।
जजें आपको सर्व दुख के जयी हों।
वही लोक में शीघ्र मृत्युंजयी हों।।१०।।
ॐ ह्रीं मृत्युमहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पसीना न तन में प्रभू आप के हो।
प्रभो केवली आपके ये नहीं हो।।
इसे मूल से जो हरें वीतरागी।
उन्हीं को जजूँ मैं बनूँ सौख्यभागी।।११।।
ॐ ह्रीं स्वेदमहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! एक क्षण में त्रयी लोक लोका।
नहीं ‘‘खेद’’ श्रम रंच भी आपको था।।
विषादो महादोष जीता तुम्हीं ने।
नशे दोष मेरा जजूँ अर्घ से मैं।।१२।।
ॐ ह्रीं विषादमहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महामद कहें आठ विध या असंख्ये।
उन्हीं से लहें नीचगति जीव सब ये।।
हरें मान उनको सभी इंद्र वंदे।
जजूँ आपको सर्व मद को विखंडे।।१३।।
ॐ ह्रीं मदमहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रती दोषसे प्रीति हो इष्ट पर में।
इसे नाश निज में धरी प्रीति प्रभु ने।।
प्रभू केवली प्रीति नाहीं किसी में।
तथापी जगत् हित करो नित जजूँ मैं।।१४।।
ॐ ह्रीं रतिमहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुतूहलमयी विश्व को देख करके।
करें जो ऽतिविस्मय हरें पूर्ण सुख वे।।
सभी कर्मकृत फेर आश्चर्य कैसे।
जजूँ भक्ति से सौख्य हो आप जैसा।।१५।।
ॐ ह्रीं विस्मयमहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो निद्रा के वश वो स्वयं को न देखें।
निजातमदरश पूर्ण को रोक ले ये।।
इसे नष्टकर सर्व जग को विलोका।
जजूँ मैं दरश प्राप्त होवे प्रभू को।।१६।।
ॐ ह्रीं निद्रामहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंतों दफे जन्म धर-धर दु:खी मैं।
न हो जन्म फिर से करूँ यत्न वो मैं।।
तुम्हीं ने पुनर्जन्म नाशा जगत में।
अत: पूजहूँ तुम चरण नाथ अब मैं।।१७।।
ॐ ह्रीं जन्ममहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अरतिदोष से आकुलित चित्त होवे।
इसे नाशकर आपने कर्म धोये।।
यही दोष मुझको सदा दु:ख देता।
जजूँ आपको ये भगे शीघ्र भीता।।१८।।
ॐ ह्रीं अरतिमहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-शंभु छंद-
इन दोष अठारह ने जग में सबको दुख दे दे वश्य किया।
इनसे बच सका नहीं कोई इन त्रिभुवन में अधिपत्य किया।।
जो इनको जीते वे ‘‘जिनेंद्र’’ सौ इंद्रों से वंदित जग में।
मैं पूजूँ उनको अर्घ चढ़ा, हर दोष भरें गुण वे मुझमें।।१९।।
ॐ ह्रीं अष्टादशमहादोषरहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य:पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
समवसरण में भक्तियुत, तीर्थंकर के पास।
यक्ष यक्षिणी नित रहे, उन्हें बुलाउँ आज।।
श्रीआदिनाथ के निकट जो भक्ति से रहें।
‘गोवदन’ यक्ष नाम जिनका सूरिवर कहें।।
जिन नाथ के शासन के देव आइये यहाँ।
निज यज्ञ भाग लीजिए सुख कीजिए यहाँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवस्य शासनदेव गोमुखयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
श्री अजितनाथ के निकट जो नित्य ही रहे।
शासनसुदेव ‘महायक्ष’ नाम श्रुत कहे।।जिन.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथस्य शासनदेव महायक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादिa
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
संभव जिनेश के समोसरण में नित रहे।
जिनपाद कमल भक्त ‘त्रिमुख’ नाम यक्ष है।।
जिन नाथ के शासन के देव आइये यहाँ।
निज यज्ञ भाग लीजिए सुख कीजिए यहाँ।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथस्य शासनदेव त्रिमुखयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
तीर्थेश अभीनंदन के पास में सदा।
प्रभु पादकमलभक्ति ‘यक्षेश्वर’ करे मुदा।।जिन.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथस्य शासनदेव यक्षेश्वरयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
तीर्थेश सुमतिनाथ समवसरण में सदा।
नित पास रहे ‘तुंबुरव’ सुभक्त शर्मदा।।जिन.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथस्य शासनदेव तुंबुरवयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
श्री पद्मनाथ पास भक्तिभाव से रहे।
‘मातंग’ यक्षनाथ भक्त के विघन दहे।।जिन.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभनाथस्य शासनदेव मातंगयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
सुपार्श्वनाथ पाद ‘विजय’ यक्ष नित नमें।
ये नाथ भक्त भव्य के रक्षक सदा बनें।।जिन.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथस्य शासनदेव विजययक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
चन्दाप्रभू के पास ‘अजित’ यक्ष नित्य हैं।
जिन भक्तगणों के सभी विघ्नों को हरत हैं।।जिन.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभनाथस्य शासनदेव अजितयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
श्री पुष्पदंत भक्तिलीन ‘ब्रह्मयक्ष’ हैं।
प्रभु भक्त के समस्त कष्ट हरण दक्ष हैं।।जिन.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभनाथस्य शासनदेव अजितयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
शीतल जिनेश समवसरण में सदा रहें।
वो नाथ भक्ति लीन ‘ब्रह्मेश्वर’ सुयक्ष हैं।।जिन.।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथस्य शासनदेव ब्रह्मेश्वरयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
श्रेयांसनाथ पास में ‘कुमार यक्ष’ हैं।
तीर्थेश भक्त विपद् दूर करन दक्ष हैं।।जिन.।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथस्य कुमारयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
श्रीवासूपूज्य पास में ‘षण्मुख’ सुयक्ष हैं।
जिनपूजकों के विघ्न दूर करन दक्ष हैं।।जिन.।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यनाथस्य शासनदेव षण्मुखयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा
-दोहा-
सतत यक्ष ‘पाताल’ हैं, विमलनाथ के पास।
यज्ञ भाग उनके लिए, अर्पूं रुचि से आज।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथस्य शासनदेव पातालयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
श्री अनंत जिन पास में, ‘किन्नर’ यक्ष वसंत।
यज्ञ भाग उनके लिए, अर्पण करूं तुरंत।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथस्य शासनदेव किन्नरयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
धर्मनाथ का ‘किंपुरुष’, शासन देव प्रसिद्ध।
जिन भक्तों के कार्य सब, करे शीघ्र ही सिद्ध।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथस्य शासनदेव किंपुरुषयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
शांतिनाथ के पास में, ‘गरुड़’ यक्ष निवसंत।
जिन भक्तों का भक्त है, करे विघन घन अंत।।१६।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथस्य शासनदेव गरुड़यक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
कुंथुनाथ के पास में, यक्ष रहे ‘गंधर्व’।
जिन भक्तों के प्रेम से, पूरे वांछित सर्व।।१७।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथस्य शासनदेव गंधर्वयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
अरहनाथ के निकट में, रहें ‘कुबेर’ सुयक्ष।
जिन पूजा के विघ्न को, दूर करन में दक्ष।।१८।।
ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथस्य शासनदेव कुबेरयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
मल्लिनाथ के पास में, ‘वरुण’ यक्ष निवसंत।
जिन पूजक के प्रेम से, करें उपद्रव शांत।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथस्य शासनदेव वरुणयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
मुनिसुव्रत के पास में, ‘भृकुटि’ नाम के यक्ष।
जिनपद भक्तों के सतत, इष्ट सिद्धि में दक्ष।।२०।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथस्य शासनदेव भृकुटियक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
नमि जिनके सानिध्य में, रहे यक्ष ‘गोमेध’।
जिन शासन का भक्त ये, हरे भव्यजन खेद।।२१।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथस्य शासनदेव गोमेधयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
नेमिनाथ के पास में, ‘पार्श्वयक्ष’ निवसंत।
भक्तों को सुख शांति दे, हरे परस्पर द्वंद।।२२।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्य शासनदेव पार्श्वयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
समवसरण में पार्श्व के यक्ष रहें ‘मातंग’।
द्वितिय नाम ‘धरणेंद्र’ है, रहे भक्त के संग।।२३।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथस्य शासनदेव धरणेंद्रयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
महावीर जिन पास में, यक्ष रहे ‘मातंग’।
जिन शासन रक्षक कहा, अर्घ चढ़ा पूजंत।।२४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: शासनदेव मातंगयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-गीता छंद-
तीर्थंकरों के पास रहते सदा जिनवर भक्त हैं।
गोमुख१ प्रमुख ये यक्ष चौबिस धर्म में अनुरक्त हैं।।
ये जैन शासन की सतत रक्षा करें वृद्धी करें।
सम्यक्त्व धारी हैं स्वयं सब भव्य संकट परिहरें।।
-दोहा-
समवसरण के यज्ञ में, आवो शासनदेव।
यज्ञ भाग तुम अर्पिहूं, करो सहाय सदैव।।२५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरशासनदेवगोमुखप्रमुखसर्वयक्षा अत्र आगच्छत,
आगच्छत! इदं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं अर्घ्यं स्वस्तिकंयज्ञभागं
च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां इति स्वाहा।
चौबीस यक्षिणी के अर्घ
वृषभदेव के समवसरण में, ‘चक्रेश्वरी’ सुयक्षी।
सम्यग्दर्शन गुण से मंडित, खंडे सर्व विपक्षी।।
महायज्ञ पूजा विधान में, आवो आवो माता।
यज्ञ भाग मैं अर्पण करता, करो सर्व सुख साता।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवस्य शासनदेवि चक्रेश्वरीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
अजितनाथ के समवसरण में, रहे ‘रोहिणी’ यक्षी।
जिन भक्ती में रत महिलायें, पूजा करतीं अच्छी।।
महायज्ञ पूजा विधान में, आवो आवो माता।
यज्ञ भाग मैं अर्पण करता, करो सर्व सुख साता।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथस्य शासनदेवि रोहिणीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
संभव जिनके निकट भक्तिरत, ‘प्रज्ञप्ती’ यक्षी हैं।
जिन भक्तों के संकट हरतीं, अधर्म प्रति पक्षी हैं।।महा.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथस्य शासनदेवि प्रज्ञप्तीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
अभिनंदन के निकट रहें नित, ‘वङ्काशृंखला देवी’।
जिन पूजक के विघ्न निवारें, जिन चरणाम्बुज सेवी।।महा.।४।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथस्य शासनदेवि वङ्काशृंखलायक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
‘वज्रांकुशा’ यक्षिणी नितप्रति, सुमतिनाथ पदभक्ता।
जो जिनभक्त धर्म के प्रेमी, उन गुण में अनुरक्ता।।महा.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथस्य शासनदेवि वज्रांकुशायक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
‘अप्रतिचक्रेश्वरी’ यक्षिणी, पद्मप्रभू पद सेवें।
जो जिनशासन में अनुरागी, उनको सब सुख देवें।।महा.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभनाथस्य शासनदेवि अप्रतिचक्रेश्वरीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
श्री सुपार्श्व के पास रहें नित, सुरी ‘पुरुषदत्ता’ हैं।
जैनधर्म की वृद्धि करें नित, जिनगुण अनुरक्ता हैं।।महा.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथस्य शासनदेवि पुरुषदत्तायक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
चंद्रप्रभू के चरण लीन प्रभुभक्त ‘मनोवेगा’ हैं।
अपर नाम ‘ज्वालामालिनी’ ये धर्मनीतिवेत्ता हैं।।
महायज्ञ पूजा विधान में, आवो आवो माता।
यज्ञ भाग मैं अर्पण करता, करो सर्व सुख साता।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभनाथस्य शासनदेवि मनोवेगायक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
पुष्पदंत के चरण कमलरत, ‘काली देवी’ यक्षी।
सम्यग्दर्शन गुण से भूषित, भविजन विघ्न विपक्षी।।महा.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथस्य शासनदेवि कालीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
शीतल जिनकी ‘ज्वालामालिनि’, देवी प्रियंवदा है।
सुख संपति सौभाग्य बढ़ातीं, जिन भक्तों के सदा हैं।।महा.।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथस्य शासनदेवि ज्वालामालिनीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
नाम ‘महाकाली’ देवी ये, सम्यग्दर्शन युत हैं।
श्री श्रेयांस के समवसरण में, जिनपद पंकजरत हैं।।महा.।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथस्य शासनदेवि महाकालीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
वासुपूज्य जिनशासन देवी ‘गौरी’ नाम धरे है।
शुक्लवर्ण सम शुभ्र गुणों से जिनपद भक्ति करे है।।महा.।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यनाथस्य शासनदेवि गौरीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
-दोहा-
‘गांधारीयक्षी’ सदा विमलनाथ पद भक्त।
अर्घ समर्पूं प्रीति से, ग्रहण करो हे यक्षि।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथस्य शासनदेवि गांधारीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
‘वैरोटी’ यक्षी रहें, प्रभु अनंत जिन पास।
अर्घ समर्पूं प्रेम से, ग्रहण करो तुम आज।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथस्य शासनदेवि वैरोटीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
शासनदेवि ‘अनंतमती’ धर्मनाथ गुणलीन।
अर्घ समर्पूं नित्य मैं, करो विघन सब क्षीण।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथस्य शासनदेवि अनंतमतीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
शांतिनाथ की ‘मानसी’, शासन देवी मान्य।
पूजूँ अर्घ समर्प्य मैं, करो शांति जगमान्य।।१६।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथस्य शासनदेवि मानसीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
‘महामानसी’ यक्षिणी, कुंथुनाथ पद भक्त।
अर्घ समर्पूं प्रीति से, करो उपद्रव नष्ट।।१७।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथस्य शासनदेवि महामानसीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
अरहनाथ की यक्षिणी ‘जया’ नाम से ख्यात।
अर्घ समर्पूं यज्ञ में, करो विजय सुप्रभात।।१८।।
ॐ ह्रीं श्रीअरनाथस्य शासनदेवि जयायक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
मल्लिनाथ की यक्षिणी, ‘विजया’ विजय करंत।
रुचि से अर्घ समर्प्यते, धर्मविजय विलसंत।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथस्य शासनदेवि विजयायक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
मुनिसुव्रत शासनरता, ‘अपराजिता’ विख्यात।
अर्घ समर्पूं प्रेम से, करो पराजित पाप।।२०।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथस्य शासनदेवि अपराजितायक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
नमि जिनकी ‘बहुरूपिणी’ शासन देवी सिद्ध।
अर्घ समर्पूं प्रीति से, हो धन धान्य समृद्ध।।२१।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिन्थस्य शासनदेवि बहुरूपिणीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
‘कूष्मांडिनी’ यक्षिणी, नेमिनाथ पद भक्त।
रुचि से अर्घ चढ़ावते, नाशो सर्व अनिष्ट।।२२।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्य शासनदेवि कूष्मांडिनीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
माता ‘पद्मावती’ करें, पार्श्वनाथ गुणगान।
अर्घ समर्पण कर जजूँ, भरो सौख्य धनधान।।२३।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथस् शासनदेवि पद्मावतीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
महावीर जिन भक्तिका, ‘सिद्धायिनी’ प्रसिद्ध।
रुचि से अर्घ चढ़ावते, करो मनोरथ सिद्ध।।२४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: शासनदेवि सिद्धायिनीयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ,इदं जलादि
अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-गीता छंद-
तीर्थंकरों के निकट में, चौबीस शासन देवियाँ१।
सम्यक्त्व गुण से मंडिता, जिनपाद पंकज सेवियाँ।।
जिन धर्म वत्सल भाव से, जिनभक्त के संकट हरें।
उनको यहाँ यज्ञांश देकर, धर्म प्रीती विस्तरें।।२५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरशासनदेवीचक्रेश्वरीप्रमुखसर्वयक्ष्य:।अत्र आगच्छत
आगच्छत, इदं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकंयज्ञभागं
च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां इति स्वाहा।
जाप्य–ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
-त्रिभंगी छंद-
जय जय तीर्थंकर घातिक्षयंकर केवल सूर्य प्रभात खिला।
त्रिभुवन समुद्र महिं हर्ष लहर हुइ, सब जन को आनंद मिला।।
सुर कल्पतरू से सुमनस बरसें, इन्द्र सिंहासन डोल रहे।
सब दिशा प्रसन्ना, स्वच्छ सुगगना मंद सुगंधित पवन बहें।।१।।
-शंभु छंद-
जय केवलज्ञान उदित होते, तिहुंजग में अद्भुत शांति हुई।
सब जग में अतिशय क्षोभ उठा, नरकों में भी क्षण शांति हुई।।
सुर कल्पवासी गृह में घंटा, स्वयमेव बजे सुर नाच उठे।
ज्योतिषी गृहों में सिंहनाद, सुरललना के मन नाच उठे।।२।।
व्यंतर सुर गृह में भेरी और नगाड़े जोरों से बाजे।
सुर भवनवासि घर में शंखों की ध्वनी हुई, सब दिश गाजें।।
सुरगज सूँडों में कमल लिये ऊँचे कर करके नाच रहें।
मानों ये प्रभु को अर्घ करें भक्ती से सुरगण नाच रहें।।३।।
ऐरावत हाथी की शोभा, सुरगुरु वर्णन नहिं कर सकते।
वह एक लाख योजन प्रमाण, बत्तीस बने हैं मुख उसके।।
प्रतिमुख मे आठ आठ दंता, प्रतिदंत एक इक सरवर हैं।
प्रति सरवर में एकेक कमलिनी, स्वर्ण कमल से सुरभित हैं।।४।।
एकेक कमलिनी कमलिनि में, बत्तिस बत्तिस हैं कमल खिले।
प्रत्येक कमल में बत्तिस दल, वे बड़े बड़े लंबे पैâले।।
इक-इक दल पर बत्तिस बत्तिस, सुर अप्सरियाँ बहु नृत्य करें।
सब हावभाव शृंगार पूर्ण, नवरस में भक्ती स्तवन करें।।५।।
यह हाथी श्वेत वर्ण सुंदर, घंटा माला ककणियों से।
अति शोभ रहा मन मोह रहा, नर्तन करती अप्सरियों से।।
इसके उपर कामग विमान, रत्नों से बना चमकशाली।
मोती के हार पुष्पमाला, फन्नूसों से अतिशय शाली।।६।।
सौधर्म इन्द्र शचिदेवी सह इस गज, पर चढ़कर आते हैं।
ईशान इंद्र आदिक सब मिल, निज निज वाहन चढ़ आते हैं।।
सबसे आगे किल्विषक देव बहु वाद्य बजाते चलते हैं।
फिर सौधमेंद्र प्रभृति सुरगण निज निज वैभवयुत चलते हैं।।७।।
आगे आगे सुर अप्सरियाँ किन्नरियाँ नर्तन करती हैंं
जिन महिमा के स्तोत्र पढ़े जिनवर गुण वर्णन करती हैं।।
गज पर सत्ताइस कोटि प्रमित अप्सरियाँ नृत्य करें सर में।
सातों कक्षा की सेना के सब देव चलें निज निज क्रम में।।८।।
इंद्राज्ञा से धनपति आकर, इक क्षण में समवसरण रचता।
अतिशय रचना है जगह जगह, त्रिभुवन का वहाँ वैभव रखता।।
प्रभु समवसरण में सिंहासन पर चतुरंगुल से अधर रहें।
वैभव अनंत को पाकर भी, प्रभु उससे नित्य अलिप्त रहें।।९।।
चौंतीसों अतिशय सहित आप, वसु प्रातिहार्य के स्वामी हो।
आनंत्य चतुष्टय से मंडित, सब जग के अंतर्यामी हो।।
सुरपति प्रदक्षिणा दे करके जिनदेव वंदना करते हैं।
नरपति पशु भी आ वंदन कर, बारह कोठों में बसते हैं।।१०।।
यद्यपि यह क्षेत्र बहुत छोटा, फिर भी अवकाश सभी को है।
जिनवर माहात्म्य से यह अतिशय सब आपस में अस्पर्शित हैं।।
इन कोठों में मिथ्यादृष्टी, संदिग्ध विपर्यय नहिं जाते।
नहिं जाय असंज्ञी अरु अभव्य, पाखंडी द्रोही नहिं जाते।।११।।
नहिं वहां कभी आतंक रोग, क्षुध तृष्णा कामादिक बाधा।
नहिं जन्ममरण नहिं वैर कलह, नहिं शोक वियोग जनित बाधा।।
सब सीढ़ी एक हाथ ऊँची, जो बीस हजार प्रमाण कही।
बालक व वृद्ध पंगू आदिक, अंतर्मुहूर्त१ में चढ़ें सही।।१२।।
प्रभु की कल्याणी वाणी सुन निज भव त्रैकालिक जान रहे।
अतिशय अनंत गुण श्रेणि रूप, परिणाम विशुद्धी ठान रहे।।
सब असंख्यात गुणश्रेणी में कर्मों का खंडन करते हैं।
क्रम से जन बोधि समाधी पा, मुक्ती कन्या को वरते हैं।।१३।।
प्रभु क्षुधातृषादिक जन्म मरण अठरह दोषों से छूट गये।
सब दोष आप से त्यक्त अत: सारे जग में ही घूम रहे।।
गोमुख आदिक चौबीस यक्ष, चक्रेश्वरि आदिक यक्षी हैं।
जिनशासन देव देवियां ये, इनमें प्रभु भक्ती सच्ची है।।१४।।
तीर्थंकर के गुणमणि अनंत, निंह गणधर भी कह सकते हैं।
जो पूजें ध्यावें भक्ति करें, उनके मन पंकज खिलते हैं।।
मैं भी प्रभु आप कीर्ति सुनकर अब चरण शरण में आया हूँ।
अब जो कर्तव्य आपका हो, वह कीजे मैं अकुलाया हूँ।।१५।।
जय जय जिन भास्कर, सर्व सुखाकर ज्ञान ज्योति उद्योत भरें।
मुझ ‘ज्ञानमती’ को, तीन रतन दो, जिससे तुम पद प्राप्त करें।।
ॐ ह्रीं षट्चत्वारिंशद्गुणमंडितअष्टादशदोषविखंडितगोमुखचक्रेश्वर्या-
दियक्षयक्षीसेवितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो समवसरण विधान करते, भव्य श्रद्धा भाव से।
तीर्थंकरों की बाह्य लक्ष्मी, पूजते अति चाव से।।
फिर अंतरंग अनन्त लक्ष्मी, को जजें गुण प्रीति से।
निज ‘ज्ञानमति’ कैवल्य कर, वे मोक्षलक्ष्मी सुख भजें।।१।।
।। इत्याशीर्वाद: ।