श्री विजयमेरु दक्षिणोत्तर, षट् कुलाचल जानिये।
तिन पूर्व दिश में षट् जिनालय, जैनप्रतिमा मानिये।।
सम्यक्त्व निर्मल हेतु मैं, प्रभु आपको थापूँ यहाँ।
हे नाथ! भक्तों पर कृपा, करके तुरत आवो यहाँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिदक्षिणोत्तरषट्कुलाचलस्थितसिद्धकूटजिना-लयस्थसर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिदक्षिणोत्तरषट्कुलाचलस्थितसिद्धकूटजिना-लयस्थसर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिदक्षिणोत्तरषट्कुलाचलस्थितसिद्धकूटजिना-लयस्थसर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
सुरगंगा को उज्ज्वल नीर भराइये।
आप पूज जन्मादिक ताप मिटाइये।।
षट् कुलपर्वत के जिनगृह जिनबिंब को।
रत्नत्रय निधि हेतु जजों जगवंद्य को।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिषट्कुलाचलस्थितसिद्धकूटजिनालय-स्थजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट गंध वर गंध सुगंधित लाइये।
आप पूज शोकादिक ताप मिटाइये।।षट्.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिषट्कुलाचलस्थितसिद्धकूटजिनालय-स्थजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अमल अखंडित सुरभित तंदुल लाइये।
पाप पुंज क्षय हेतू, पुंज चढ़ाइये।।
षट् कुलपर्वत के जिनगृह जिनबिंब को।
रत्नत्रय निधि हेतु जजों जगवंद्य को।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिषट्कुलाचलस्थितसिद्धकूटजिनालय-स्थजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
वकुल केतकी कमल पुष्प बहु लाइये।
भवहर जिनपद पूज, कामशर दाहिये।।षट्.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिषट्कुलाचलस्थितसिद्धकूटजिनालय-स्थजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मालपुआ सोहाल गिंदोड़ा लाइये।
आप चरण को पूज, स्वात्मसुख पाइये।।षट्.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिषट्कुलाचलस्थितसिद्धकूटजिनालय-स्थजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णदीप तम हारि वर्तिका ज्वालिये।
मोहध्वांत नश जाय दीप अवतारिये।।षट्.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिषट्कुलाचलस्थितसिद्धकूटजिनालय-स्थजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
सित चंदन मिल धूप, हुताशन में जले।
आप निकट ही दुष्ट, कर्म शत्रू जलें।।षट्.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिषट्कुलाचलस्थितसिद्धकूटजिनालय-स्थजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम बिजौरा श्रीफल पिस्ता थाल में।
फल तुम चरण चढ़ाकर नाऊँ भाल मैं।।षट्.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिषट्कुलाचलस्थितसिद्धकूटजिनालय-स्थजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत सुम चरु दीपक सजे।
धूप फलों में रत्न मिला तुम पद जजें।।
षट् कुलपर्वत के जिनगृह जिनबिंब को।
रत्नत्रय निधि हेतु जजों जगवंद्य को।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरसंबंधिषट्कुलाचलस्थितसिद्धकूटजिनालय-स्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्म सरोवर नीर कंचन झारी में भरूँ।
जिनपद धारा देय, भव वारिधि से उत्तरूं।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सुवरण पुष्प मंगाय, प्रभु चरणन अर्पण करूँ।
वर्ण गंधरस फास, विरहित जिनपद को वरूँ ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
द्वीप धातकी पूर्व में, षट् कुलगिरि जिनधाम।
पूजन हेतू मैं करूं, पुष्पांजलि इत ठाम।।१।।
इति श्रीविजयमेरुसंबंधिषट्कुलाचलस्थाने मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
द्वीपधातकी में ‘हिमवन गिरि’ कांचन कांती धारे।
बीच सरोवर पद्म तास में, कमल मणीमय सारे।।
मध्य कमल पर ‘श्रीदेवी’ हैं, नग पर कूट सुग्यारे।
पूर्व दिशागत सिद्धकूट पर, जिनपद पूजों सारे।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरुसंबंधिहिमवत्कुलाचलस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयमेरु दक्षिण ‘महहिमवन’ रजत वर्ण तामें हैं।
महापद्मद्रह मध्य कमल में, ‘ह्रीदेवी’ यामें हैं।।
नग पर आठ कूट में इक पर, चैत्यालय सुखकारी।
अर्घ्य चढ़ाकर जिनपद पूजें, गुण गावे नर नारी ।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरुसंबंधिमहाहिमवत्कुलाचलस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थ-जिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयमेरु दक्षिण ‘निषधाचल’, तप्त स्वर्ण छवि मोहे।
द्रह तिगिञ्छ तामध्य कमल में, ‘धृतिदेवी’ अति सोहे।।
गिरि पर हैं नवकूट एक के, सिद्धकूट मंदिर में।
मृत्युजयी श्री जिनप्रतिमा को, पूजत ही सुख क्षण में।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरुसंबंधिनिषधकुलाचलस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयमेरु उत्तर ‘नीलाचल’, छवि वैडूर्यमणी है।
बीच केसरी द्रह कमलों में, मध्य ‘कीर्तिदेवी’ है।।
नवकूटों में सिद्धकूट पर, जिनगृह में जिनप्रतिमा।
अर्घ्य चढ़ाकर जजूँ निरन्तर, भवविजयी जिनप्रतिमा।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरुसंबंधिनीलकुलाचलस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थ-जिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयमेरु उत्तर ‘रूक्मीगिरि’, रजतवर्ण छवि छाजे।
पुण्डरीक द्रह मध्य कमल में, ‘बुद्धीदेवी’ राजे।।
कूट आठ में सिद्धकूट पर जिनमंदिर मन भावे।
कामजयी जिनप्रतिमा पूजे, इन्द्र देवगण आवें।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरुसंबंधिरूक्मिकुलाचलस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयमेरु के उत्तर ‘शिखरी’, पर्वत कांचन छवि है।
महापुण्डरीकहिं हृद कमलों, में, ‘लक्ष्मी’ निवसत हैं।।
ग्यारह कूट उन्हों में इक पर, जिनवरनिलय बखानो।
अर्घ्य चढ़ाकर भक्ति भाव से, पूजूँ मैं दु:ख हानो।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरुसंबंधिशिखरिपर्वतस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थ-जिनबिंबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
षट् कुलगिरि के जिनभवन, रत्नमयी जिनबिंब।
पूर्ण अर्घ्य ले पूजिये, हरो करम अरिदंभ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरुसंबंधिषट्कुलाचलस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थसर्वजिन-बिंबेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं अर्हं शाश्वतजिनालयस्थसर्वजिनबिंबभ्यो नम:।
षट्कुलगिरि मनहर, सबमें सरवर, सरवर में बहु कमल खिले।
कमलनि में सुरगृह, उनमें जिनगृह, पूजत ही मन कमल खिले।।
जय जय जिनप्रतिमा, अंतक हरना, पाप पुंज अंधेर टले।
पाई मैं साता, मेटि असाता, हुआ पुण्य बहु ढ़ेर भले।।१।।
नमो नमो जिनेश तो पदारविंद भक्ति तें।
मुनीन्द्रवृन्द तोहि ध्याय कर्म कालिमा हने।।
अनाथनाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो मुझे भवाब्धि तें अबे निकाल लीजिये।।२।।
अनंत ज्ञान दर्श वीर्य सौख्य से सनाथ हो।
अनादि हो अनंत हो प्रसिद्धि सिद्धि नाथ हो।।अनाथ.।।३।।
अनादि मोह वृक्ष के लिये तुम्हीं कुठार हो।
प्रधान राग द्वेष शत्रु के लिये प्रहार हो।।अनाथ.।।४।।
महान रोग शोक कष्ट को महौषधी तुम्हीं।
अनिष्ट योग इष्ट का वियोग दुख हरो तुम्हीं।।अनाथ.।।५।।
तुम्हीं अनेक व्याधि हेतु सर्व श्रेष्ठ वैद्य हो।
तुम्हीं विषापहार मन्त्र हो मणी विशेष हो।।
अनाथनाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिये।
प्रभो मुझे भवाब्धि तें अबे निकाल लीजिये।।६।।
महान तेज पुुंज हो अनंत सौख्य धाम हो।
असंख्य जीव सौख्य हेतु एक ही प्रधान हो।।अनाथ.।।७।।
हुआ जु कष्ट भक्त पे तबे सहाय तूँ करी।
प्रभो! अबेर क्यों अबे, बताइये इसी घरी ।।अनाथ.।।८।।
मुनीश मानतुंग ने जिनेश! भक्ति तें किया।
तुम्हीं तो नाथ! यतिपती कि काट दीनि बेड़ियाँ।अनाथ.।।९।।
तुम्हें हि ध्याय अग्नि कुण्ड में गिरी थी जानकी।
हुआ अपार नीर औ खिले सरोज भी तभी।।अनाथ.।।१०।।
तुम्हें सुध्याय लाख गेह माहिं पांडवा सभी।
सुरंग मार्ग से बचे न अग्नि भी जला सकी।।अनाथ.।।११।।
मनोवती जु आप ध्याय आप दर्श पा लिया।
तुम्हें ही ध्याय द्रौपदी ने शील रत्न राखिया।।अनाथ.।।१२।।
मनोरमा ने आप ध्याय वङ्का द्वार खोलिया।
तुम्हें हि ध्याय अंजना ने सर्व कष्ट धो लिया।।अनाथ.।।१३।।
गिनाऊँ मैं कहाँ तके अनन्त जीव राशि को।
सु आपके प्रताप वे तिरे भवाम्बु राशि को।।अनाथ.।।१४।।
अनंत तीर्थ आप पाद के तले कहें मुनी।
इसी निमित्त आप की सहाय चाहते मुनी।।अनाथ.।।१५।।
सुज्ञानमती मो करो निजैक संपदा भरो।
अनंत दु:ख सिंधु से निकाल मुक्ति में धरो।। अनाथ.।।१६।।
अकृत्रिम जिननाथ तनी यह वर जयमाला।
मन वच काय लगाय पढ़ें जो भव्य त्रिकाला।।
ऋद्धि सिद्धि भरपूर रहे ताके घर माहीं।
‘ज्ञानमती’ वर बुद्धि भरें नव निद्धि सदा ही।।१७।।
ॐ ह्रीं श्रीविजयमेरुसंबंधिषट्कुलाचलसंस्थितसिद्धकूटजिनालयस्थ-जिनबिंबेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भक्ति श्रद्धा भाव से यह ‘इन्द्रध्वज’ पूजा करें।
नव निद्धि रिद्धि समृद्धि पा देवेन्द्र सुख पावें खरे।।
नित भोग मंगल सौख्य जग में, फेर शिवललना वरें।
जहं अंत नाहीं ‘‘ज्ञानमति’’ आनंद सुख झरना झरें।।
।।इत्याशीर्वाद:।।