-स्थापना (चौबोल छंद)-
सोलहकारण में तेरहवीं, भावना की पूजा करना है।
उसके माध्यम से जिनवर की, वाणी निज मन में धरना है।।
प्रवचन भक्ती मोक्ष महल की, सीढ़ी प्राप्त कराएगी ।
इसमें अनुरक्ती सचमुच, इक दिन शिवतिय दिलवाएगी।।१।।
-दोहा-
आह्वानन स्थापना, सन्निधिकरण रचाय।
प्रवचनभक्ति भावना, हृदय कमल में ध्याय।।२।।
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्तिभावना! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्तिभावना! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्तिभावना! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक (कुसुमलता छंद)-
गंगा सिंधु नदी का निर्मल, जल भर कर ले आए।
जन्मजरामृत्यू विनाश हित, प्रभु पद धार कराएँ।।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, सोलहकारण ध्याएँ।
इक दिन तीर्थंकर पद पाकर, निजगुण में रम जाएँ।।१।।
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्तिभावनायै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन केशर घिस, स्वर्ण कटोरी लाए।
जिनवर चरण कमल में चर्चत, भव आतप नश जाए।।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, सोलहकारण ध्याएँ।
इक दिन तीर्थंकर पद पाकर, निजगुण में रम जाएँ।।२।।
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्तिभावनायै संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल उज्वल चन्द्रकिरण सम, ले प्रभु पास चढ़ाएँ।
अमल अखण्डित सुख से मण्डित, अक्षय पद मिल जाए।।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, सोलहकारण ध्याएँ।
इक दिन तीर्थंकर पद पाकर, निजगुण में रम जाएँ।।३।।
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्तिभावनायै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला चंपक कमल केवड़ा, पुष्प सुगंधित लाए।
प्रभु के चरण कमल को पूजत, कामबाण नश जाए।।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, सोलहकारण ध्याएँ।
इक दिन तीर्थंकर पद पाकर, निजगुण में रम जाएँ।।४।।
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्तिभावनायै कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
अमृतपिण्ड समान चरू अरु, घेवर आदि बनाए।
जिन पूजन में अर्पण करते, रोग क्षुधा नश जाए।।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, सोलहकारण ध्याएँ।
इक दिन तीर्थंकर पद पाकर, निजगुण में रम जाएँ।।५।।
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्तिभावनायै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक का थाल सजाकर, आरति करने आए।
श्री जिनवर की पूजन करते, मोहतिमिर नश जाए।।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, सोलहकारण ध्याएँ।
इक दिन तीर्थंकर पद पाकर, निजगुण में रम जाएँ।।६।।
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्तिभावनायै मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगर तगर चंदन से मिश्रित, धूप सुगंधित लाए।
अशुभ कर्म के दग्ध हेतु ही, अग्नी माँहि जलाएँ।।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, सोलहकारण ध्याएँ।
इक दिन तीर्थंकर पद पाकर, निजगुण में रम जाएँ।।७।।
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्तिभावनायै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेव आम अंगूर सरस फल, लेकर थाल भराएँ।
जिनवर सम्मुख अर्पण करके, मोक्ष महाफल पाएँ।।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, सोलहकारण ध्याएँ।
इक दिन तीर्थंकर पद पाकर, निजगुण में रम जाएँ।।८।।
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्तिभावनायै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत कुसुमादिक, अष्टद्रव्य ले आए।
प्रभु पद में ‘‘चन्दनामती’’, अर्पण कर शिवसुख पाएँ।।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, सोलहकारण ध्याएँ।
इक दिन तीर्थंकर पद पाकर, निजगुण में रम जाएँ।।९।।
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्तिभावनायै अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
केसरि द्रह का नीर ले, श्री जिनवर पादाब्ज।
शांतिधारा करत ही, मिले शांति साम्राज्य।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
जुही गुलाब सुगंधि युत, वर्ण वर्ण के फूल।
पुष्पांजलि जिनपद करत, मिलें सौख्य अनुकूल।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(तेरहवें वलय में 15 अर्घ्य, 1 पूर्णार्घ्य)
-दोहा-
प्रवचन भक्ति भावना, को निज मन में ध्याय।
रत्नत्रय आराधना, हेतू पुष्प चढ़ाय।।१।।
इति मण्डलस्योपरि त्रयोदशदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-कुसुमलता छंद-
ग्यारह अंग चतुर्दश पूरब, सहित कही जिनवाणी है।
इनमें ही श्रुत समाविष्ट है, जन जन मन कल्याणी है।।
प्रवचन भक्ति भावना के प्रति, अर्घ्य चढ़ाने आए हैं।
अंगपूर्व श्रुत ज्ञान प्राप्त हो, यही भाव संग लाए हैं।।१।।
ॐ ह्रीं एकादशांगचतुर्दशपूर्वसहित प्रवचनभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगबाह्य श्रुत के अनेक, भेदों का वर्णन है आता।
उनमें कहा प्रकीर्णक जो, चौदह भेदों को समझाता।।
प्रथम प्रकीर्णक सामायिक में, साम्य भावना कही गई।
अर्घ्य चढ़ाकर पूजन करके, प्रवचनभक्ति प्राप्त हुई।।२।।
ॐ ह्रीं सामायिकप्रकीर्णकसहित प्रवचनभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौबिस तीर्थंकर का स्तव, कहा द्वितीय प्रकीर्णक है।
इसमें चौबीसों जिनवर के, पंचकल्याण का वर्णन है।।
अंगबाह्य श्रुत की पूजा कर, मन में उसे बसाएंगे।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, तीर्थंकर पद पाएंगे।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतिस्तवप्रकीर्णकसहित प्रवचनभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनप्रतिमा को वंदन करना, कहा तृतीय प्रकीर्णक है।
मन वच तन से शीश झुकाकर, नमन करें जिनवर पद में।।
अंगबाह्य श्रुत की पूजा कर, मन में उसे बसाएंगे।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, तीर्थंकर पद पाएंगे।।४।।
ॐ ह्रीं वंदनाप्रकीर्णकसहित प्रवचनभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अपने दोषों को कहकर, क्षालन करना प्रतिक्रमण कहा।
गुरु के सम्मुख प्रात: सायं, इसको करना कहा गया।।
अंगबाह्य श्रुत की पूजा कर, मन में उसे बसाएंगे।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, तीर्थंकर पद पाएंगे।।५।।
ॐ ह्रीं प्रतिक्रमणप्रकीर्णकसहित प्रवचनभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देव धर्म अरु गुरुओं के प्रति, विनयभाव बतलाता है।
वही कहा वैनयिक प्रकीर्णक, साधु इसे अपनाता है।।
अंगबाह्य श्रुत की पूजा कर, मन में उसे बसाएंगे।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, तीर्थंकर पद पाएंगे।।६।।
ॐ ह्रीं वैनयिकप्रकीर्णकसहित प्रवचनभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचपरमेष्ठी के वंदन में, यथायोग्य कृतिकर्म कहे।
उस वर्णन कृतिकर्म प्रकीर्णक, के अन्दर आचार्य करें।।
अंगबाह्य श्रुत की पूजा कर, मन में उसे बसाएंगे।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, तीर्थंकर पद पाएंगे।।७।।
ॐ ह्रीं कृतिकर्मप्रकीर्णकसहित प्रवचनभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनियों की चर्यादिक का, वर्णन जिस श्रुत में माना है।
दशवैकालिक नामक एक, प्रकीर्णक उसको माना है।।
अंगबाह्य श्रुत की पूजा कर, मन में उसे बसाएंगे।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, तीर्थंकर पद पाएंगे।।८।।
ॐ ह्रीं दशवैकालिकप्रकीर्णकसहित प्रवचनभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तराध्ययन प्रकीर्णक में, उपसर्ग परीषह वर्णन है।
इन शास्त्रों के अंश आज, उपलब्ध नहीं श्रुतपूरण है।।
अंगबाह्य श्रुत की पूजा कर, मन में उसे बसाएंगे।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, तीर्थंकर पद पाएंगे।।९।।
ॐ ह्रीं उत्तराध्ययनप्रकीर्णकसहित प्रवचनभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि के योग्य अयोग्य आचरण, का वर्णन आता जिसमें।
उन्हें कल्पव्यवहार प्रकीर्णक, कहें मुनी उनको पढ़ते।।
अंगबाह्य श्रुत की पूजा कर, मन में उसे बसाएंगे।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, तीर्थंकर पद पाएंगे।।१०।।
ॐ ह्रीं कल्पव्यवहारप्रकीर्णकसहित प्रवचनभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्रव्यक्षेत्र अरु काल भाव, अनुसार कही चर्या जिसमें।
कल्पाकल्प प्रकीर्णक संज्ञा, वाला श्रुत कहते हैं उन्हें।।
अंगबाह्य श्रुत की पूजा कर, मन में उसे बसाएंगे।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, तीर्थंकर पद पाएंगे।।११।।
ॐ ह्रीं कल्पाकल्पप्रकीर्णकसहित प्रवचनभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनकल्पी स्थविरकल्पि मुनि, वैâसे करें समाधी हैं।
महाकल्प शास्त्रों को पढ़कर, शमन करें भवव्याधी है।।
अंगबाह्य श्रुत की पूजा कर, मन में उसे बसाएंगे।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, तीर्थंकर पद पाएंगे।।१२।।
ॐ ह्रीं महाकल्पप्रकीर्णकसहित प्रवचनभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चारों प्रकार के देवों में, यह जीव जनम वैâसे लेता।
यह पुण्डरीक श्रुत बतलाता, मुनि इससे भवदुख हर लेता।।
अंगबाह्य श्रुत की पूजा कर, मन में उसे बसाएंगे।
प्रवचनभक्ति भावना भाकर, तीर्थंकर पद पाएंगे।।१३।।
ॐ ह्रीं पुण्डरीकप्रकीर्णकसहित प्रवचनभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्र और अहमिन्द्र पदों की, प्राप्ति तपस्या से होती।
इसे महापुण्डरीक प्रकीर्णक, कहे तपोवृद्धि हेतू।।
अंगबाह्य श्रुत की पूजा कर, मन में उसे बसाएंगे।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, तीर्थंकर पद पाएंगे।।१४।।
ॐ ह्रीं महापुण्डरीकप्रकीर्णकसहित प्रवचनभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आलस अरु प्रमाद से पापों, का अर्जन करते प्राणी।
निषद्यका में यह वर्णन पढ़ पापकर्म तजते ज्ञानी।।
अंगबाह्य श्रुत की पूजा कर, मन में उसे बसाएंगे।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, तीर्थंकर पद पाएंगे।।१५।।
ॐ ह्रीं निषद्यकाप्रकीर्णकसहित प्रवचनभक्तिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
अंगप्रविष्ट व अंगबाह्य श्रुत, दिव्यध्वनि से ही निकले।
इन सबके शुभ अंश आज भी, जिनशास्त्रों में हैं मिलते।।
इस श्रुत को पूर्णार्घ्य चढ़ाकर, मन में उसे बसाएंगे।
प्रवचन भक्ति भावना भाकर, तीर्थंकर पद पाएंगे।।१।।
ॐ ह्रीं अंगप्रविष्टअंगबाह्यश्रुतप्रकीर्णकसहितप्रवचनभक्तिभावनायै पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं प्रवचनभक्तिभावनायै नम:।
तर्ज-दिनरात मेरे स्वामी……….
जिनवाणि मात तेरी, जयमाल आज गाऊँ। जयमाल…….
श्रुतज्ञान निधि को पाकर, पूर्णार्घ्य मैं चढ़ाऊँ।।पूर्णार्घ्य……।।टेक.।
वैसी भी स्थिती हो, धीरज मेरा न छूटे।
स्वाध्याय ध्यान करके, सब विघ्न मैं भगाऊँ।।जिनवाणि…..।।१।।
दीनों के प्रति हो करुणा, दुखियों के प्रति दया हो।
उपकार पर का करके, निज को सुखी बनाऊँ।।जिनवाणि…..।।२।।
निज शत्रु से कभी भी, बदला न लेना चाहूँ।
समकित की पाई शिक्षा, मन में सदा बसाऊँ।।जिनवाणि…..।।३।।
अनमोल श्रुत वचन को, जब-जब पढ़े हैं मैंने।
इच्छा सदा है मन में, उनको सदा निभाऊँ।।जिनवाणि…..।।४।।
पथ भ्रष्ट होने से माँ, तू ही बचाने वाली।
मैं ‘‘चन्दनामती’’ माँ, तुझमें ही रमना चाहूँ।।जिनवाणि…..।।५।।
एकादशांग चौदह, पूर्वों में बद्ध श्रुत है।
अनुयोग द्वार पढ़के, श्रुतज्ञान को बढ़ाऊँ।। जिनवाणि…..।।६।।
श्रुतज्ञान में ही प्रवचन, की भक्ति भावना है।
इस भक्ति में ही रहकर, निज आत्मतत्त्व पाऊँ।।जिनवाणि…..।।७।।
ॐ ह्रीं प्रवचनभक्तिभावनायै जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो रुचिपूर्वक सोलहकारण, भावना की पूजा करते हैं।
मन-वच-तन से इनको ध्याकर, निज आतम सुख में रमते हैं।।
तीर्थंकर के पद कमलों में जो, मानव इनको भाते हैं।
वे ही इक दिन ‘चन्दनामती’, तीर्थंकर पदवी पाते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।