स्थापना (शंभु छंद)
श्री मल्लिनाथ नमिनाथ जिनेश्वर, जन्मभूमि मिथिलानगरी।
तीर्थंकर द्वय के चार-चार, कल्याणक से पावन नगरी।।
उस मिथिलापुरि की पूजन का, मैंने शुभ भाव बनाया है।
स्थापन विधि द्वारा मैंने, निज मन को तीर्थ बनाया है।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमल्लिनाथनमिनाथजन्मभूमिमिथिलापुरीतीर्थक्षेत्र!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमल्लिनाथनमिनाथजन्मभूमिमिथिलापुरीतीर्थक्षेत्र!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमल्लिनाथनमिनाथजन्मभूमिमिथिलापुरीतीर्थक्षेत्र!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
लेकर विमल जल तीर्थ पूजूँ, कर्ममल हट जाएगा।
अध्यात्म रस होगा प्रगट, आनन्द अनुभव आएगा।।
मिथिलापुरी दो जिनवरों की, जन्मभूमि को जजूँ।
भव भव दुखों से छूटने के, हेतु जिनपद को भजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमल्लिनाथनमिनाथजन्मभूमिमिथिलापुरी-
तीर्थक्षेत्रायजन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर मिश्रित गंध लेकर, पदकमल चर्चन करूँ।
आत्मीक समतारस मगन हो, तीर्थ का अर्चन करूँ।।
मिथिलापुरी दो जिनवरों की, जन्मभूमि को जजूँ।
भव-भव दुखों से छूटने के, हेतु जिनपद को भजूँ।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमल्लिनाथनमिनाथजन्मभूमिमिथिलापुरी-
तीर्थक्षेत्रायसंसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदा किरण सम धवल अक्षत, पुंज प्रभु सम्मुख धरूँ।
शुभ ध्यान में लवलीन होकर, आत्म अक्षयनिधि भरूँ।।
मिथिलापुरी दो जिनवरों की, जन्मभूमि को जजूँ।
भव भव दुखों से छूटने के, हेतु जिनपद को भजूँ।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमल्लिनाथनमिनाथजन्मभूमिमिथिलापुरी-
तीर्थक्षेत्रायअक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चम्पा चमेली पुष्प सुरभित, लाय जो प्रभु पद जजें।
उन आत्मगुण कलिका खिले, अतिशीघ्र कामव्यथा नशे।।
मिथिलापुरी दो जिनवरों की, जन्मभूमि को जजूँ।
भव भव दुखों से छूटने के, हेतु जिनपद को भजूँ।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमल्लिनाथनमिनाथजन्मभूमिमिथिलापुरी-
तीर्थक्षेत्रायकामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
गुझिया समोसे आदि व्यंजन, लाय प्रभु सम्मुख धरूँ।
अध्यात्मरस अमृत विमिश्रित, अतुल अनुपम सुख वरूँ।।
मिथिलापुरी दो जिनवरों की, जन्मभूमि को जजूँ।
भव भव दुखों से छूटने के, हेतु जिनपद को भजूँ।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमल्लिनाथनमिनाथजन्मभूमिमिथिलापुरी-
तीर्थक्षेत्रायक्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृतदीप की ज्योती जलाकर, आरती प्रभु की करूँ।
अज्ञानतिमिर हटाय अन्तर, ज्ञान की ज्योति भरूँ।।
मिथिलापुरी दो जिनवरों की, जन्मभूमि को जजूँ।
भव भव दुखों से छूटने के, हेतु जिनपद को भजूँ।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमल्लिनाथनमिनाथजन्मभूमिमिथिलापुरी-
तीर्थक्षेत्रायमोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध सुरभित धूप लेकर, अग्नि प्रज्ज्वालन करूँ।
जड़कर्म को कर दग्ध अपनी, आतमा पावन करूँ।।
मिथिलापुरी दो जिनवरों की, जन्मभूमि को जजूँ।
भव भव दुखों से छूटने के, हेतु जिनपद को भजूँ।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमल्लिनाथनमिनाथजन्मभूमिमिथिलापुरी-
ङतीर्थक्षेत्रायअष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अखरोट किसमिस आम्र आदिक, फल चढ़ा पूजन करूँ।
फल मोक्ष की अभिलाष लेकर, तीर्थ का अर्चन करूँ।।
मिथिलापुरी दो जिनवरों की, जन्मभूमि को जजूँ।
भव भव दुखों से छूटने के, हेतु जिनपद को भजूँ।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमल्लिनाथनमिनाथजन्मभूमिमिथिलापुरीतीर्थ
क्षेत्रायमोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध तंदुल पुष्प नेवज, दीप धूप व फल लिया।
प्रभु पदकमल में ‘‘चन्दनामति’’ अर्घ मैं अर्पण किया।।
मिथिलापुरी दो जिनवरों की, जन्मभूमि को जजूँ।
भव भव दुखों से छूटने के, हेतु जिनपद को भजूँ।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमल्लिनाथनमिनाथजन्मभूमिमिथिलापुरीतीर्थ
क्षेत्रायअनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
कंचन कलशा में भरा, गंग नदी का नीर।
तीर्थ पाद धारा करूँ, मिले भवोदधि तीर।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
प्रभु के उपवन से चुना, बेला जुही गुलाब।
पुष्पांजलि अर्पण किया, मिला निजातम लाभ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलिः
(इति मण्डलस्योपरि त्रयोदशमदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
प्रत्येक अर्घ्य- (दोहा) चैत्र सुदी एकम जहाँ, हुआ गर्भ कल्याण।
मल्लिनाथ की वह धरा, पूजूँ हो कल्याण।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमल्लिनाथगर्भकल्याणक पवित्रमिथिलापुरी-
तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगशिर सुदी ग्यारस जहाँ, हुआ जन्मकल्याण।
अर्घ्य चढ़ाकर मैं जजूँ, मिथिला जन्मस्थान।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमल्लिनाथजन्मकल्याणक पवित्रमिथिलापुरी-
तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जन्मतिथी को ही जहाँ, उपजा प्रभु वैराग।
पूजूँ मैं मिथिलापुरी, दीक्षास्थल आज।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमल्लिनाथदीक्षाकल्याणक पवित्रमिथिला-
पुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पौष वदी दुतिया तिथि, पाया केवलज्ञान।
मल्लिनाथ की वह धरा, पूजूँ सौख्य महान।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमल्लिनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्र-
मिथिलापुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आश्विन कृष्णा दूज, नमि प्रभु आये गर्भ में।
वह मिथिलापुरि पूज्य, अतः चढ़ाऊँ अर्घ्य मैं।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीन्मिनाथगर्भकल्याणक पवित्रमिथिलापुरी-
तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दशमी वदि आषाढ़, नमि जिनवर जन्मे जहाँ।
जजूूँ जन्मस्थान, मिथिला में उत्सव हुआ।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनमिनाथजन्मकल्याणक पवित्रमिथिला-
पुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जन्मदिवस ही त्याग, लिया नमीप्रभु ने जहाँ।
पूजूँ दीक्षाधाम, मिथिलापुरि तीरथ महा।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनमिनाथदीक्षाकल्याणक पवित्रमिथिला-
पुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वा:
ग्यारस मगसिर शुक्ल, केवलज्ञान प्रकाश था।
नमिप्रभु हुए विशुद्ध, पूजूँ मिथिला की धरा।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनमिनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्रमिथिला-
पुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मिथिलापुरि की जिस धरती पर, श्री मल्लि व नमिप्रभु जन्मे हैं।
उन दोनों प्रभु के गर्भ जन्म, तप ज्ञान कल्याण वहीं पे हैं।।
उस नगरी को मैं अर्घ्य चढ़ाकर, एक यही प्रार्थना करूँ।
रत्नत्रय निधि हो पूर्ण मेरी, तब भव सन्तति खंडना करूँ।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमल्लिनाथनमिनाथगर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञान चतुः
चतुःकल्याणक पवित्रमिथिलापुरीतीर्थक्षेत्राय पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शान्तये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं मिथिलापुरीजन्मभूमि पवित्रीकृत श्रीमल्लिनाथनमिनाथ जिनेन्द्राभ्यां नमः।
हे नाथ ! तेरे जन्म से भू धन्य हुई है।
हे नाथ ! तेरे जन्म मरण कुछ भी नहीं है।। टेक०।।
तुमने अनादिकाल से जग में भ्रमण किया।
पुरुषार्थ करके उसका अब अंत कर दिया ।।हे नाथ०।।१।।
भव भव से आत्मतत्व के चिन्तन में लग गये।
इस हेतु ही प्रभु एक दिन भगवान बन गये।।हे नाथ०।।२।।
श्री मल्लिप्रभु उन्नीसवें तीर्थेश जैन के।
जन्मे थे जो मिथिलापुरी में स्वर्ग से आके।।हे नाथ०।।३।।
पितु कुम्भराज एवं माता प्रजावती।
थे धन्य तथा मिथिला की धन्य प्रजा थी।।हे नाथ०।।४।।
जातिस्मरण से प्रभु को वैराग्य जब हुआ।
बन बालयती तप कर वैâवल्य वर लिया।।हे नाथ०।।५।।
नमिनाथ जी इक्कीसवें तीर्थेश भी जन्मे।
समझो कि तीस माह वहाँ रत्न थे बरसे।।हे नाथ०।।६।।
माँ वप्पिला की महिमा का पार नहीं था।
राजा विजय का हर्ष भी अपार वहीं था।। हे नाथ०।।७।।
जातिस्मरण से उनको भी वैराग्य हो गया।
सब राजपाट छोड़ शिव से राग हो गया।। हे नाथ०।।८।।
तीर्थंकरों की धरती ही तीर्थ कहाती।
तीर्थों की वन्दना ही आत्मकीर्ति बढ़ाती।।हे नाथ०।।९।।
मैं तीर्थक्षेत्र मिथिला की वन्दना करूँ।
जयमाल का पूर्णार्घ्य लेके अर्चना करूँ।। हे नाथ०।।१०।।
मैं भी मनुष जनम का सार प्राप्त कर सकूं।
वरदान दो निज आत्म का उद्धार कर सवूँ।। हे नाथ०।।११।।
अतएव ‘‘चन्दना’’ प्रभु से प्रार्थना करे।
हो रत्नत्रय की प्राप्ति यही याचना करे।। हे नाथ०।।१२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीमल्लिनाथनमिनाथजन्मभूमिमिथिलापुरीतीर्थक्षेत्राय
जयमाला पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
जो भव्यप्राणी जिनवरों की जन्मभूमी को नमें।
तीर्थंकरों की चरणरज से शीश उन पावन बने।।
कर पुण्य का अर्जन कभी तो जन्म ऐसा पाएंगे।
तीर्थंकरों की श्रँखला में ‘‘चन्दना’’ वे आएंगे।।
इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिः ।