जो भव्य मुनिगण वंद्य ऋषभेश्वर चरण को वंदते।
वे निज अनंतानंत जन्मों के अघों को खंडते।।
इस हेतु से हम भक्ति श्रद्धा भाव से प्रभु को जजें।
आह्वान विधि से पूज कर निज आत्म समरस को चखें।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य त्रिकालदर्श्यादिशतनाममंत्रसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य त्रिकालदर्श्यादिशतनाममंत्रसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य त्रिकालदर्श्यादिशतनाममंत्रसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
नंदावापी का निर्मल जल, कंचन भृंग भराऊँ।
श्री जिनवर के चरण कमल में, धारा तीन कराउँâ।।
श्री जिनवर के नाममंत्र को, जिनप्रतिमा को पूजूँ।
निज समरस सुखसुधा पान कर, चारों गति से छूटूँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य त्रिकालदर्श्यादिशतनाममंत्रेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन केशर घिस, गंध सुगंधित लाऊँ।
जिनवर चरण कमल में चर्चूं, निजानंद सुख पाऊँ।।
श्री जिनवर के नाममंत्र को, जिनप्रतिमा को पूजूँ।
निज समरस सुखसुधा पान कर, चारों गति से छूटूँ।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य त्रिकालदर्श्यादिशतनाममंत्रेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोती सम उज्ज्वल तंदुल ले, तुम ढिग पुंज रचाऊँ।
अमल अखंडित सुख से मंडित, निज आतमपद पाऊँ।।
श्री जिनवर के नाममंत्र को, जिनप्रतिमा को पूजूँ।
निज समरस सुखसुधा पान कर, चारों गति से छूटूँ।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य त्रिकालदर्श्यादिशतनाममंत्रेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण की लता भूमि से, सुरभित पुष्प चुनाऊँ।
जिनवर चरणकमल में अर्पूं, निज गुण यश विकसाऊँ।।
श्री जिनवर के नाममंत्र को, जिनप्रतिमा को पूजूँ।
निज समरस सुखसुधा पान कर, चारों गति से छूटूँ।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य त्रिकालदर्श्यादिशतनाममंत्रेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
अमृतिंपड सदृश चरु ताजे, घेवर मोदक लाऊँ।
जिनवर आगे अर्पण करते, सब दुख व्याधि नशाऊँ।।
श्री जिनवर के नाममंत्र को, जिनप्रतिमा को पूजूँ।
निज समरस सुखसुधा पान कर, चारों गति से छूटूँ।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य त्रिकालदर्श्यादिशतनाममंत्रेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक में ज्योति जलाकर, करूँ आरती भगवन्।
निज घट का अज्ञान दूर हो, ज्ञान ज्योति उद्योतन।।
श्री जिनवर के नाममंत्र को, जिनप्रतिमा को पूजूँ।
निज समरस सुखसुधा पान कर, चारों गति से छूटूँ।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य त्रिकालदर्श्यादिशतनाममंत्रेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगुरु तगर चंदन से मिश्रित, धूप सुगंधित लाऊँ।
अशुभ कर्म को दग्ध करूँ मैं, अग्नी संग जलाऊँ।।
श्री जिनवर के नाममंत्र को, जिनप्रतिमा को पूजूँ।
निज समरस सुखसुधा पान कर, चारों गति से छूटूँ।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य त्रिकालदर्श्यादिशतनाममंत्रेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेब आम अंगूर सरस फल लाके थाल भराऊँ।
जिनवर सन्निध अर्पण करते, परमानंद सुख पाऊँ।।
श्री जिनवर के नाममंत्र को, जिनप्रतिमा को पूजूँ।
निज समरस सुखसुधा पान कर, चारों गति से छूटूँ।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य त्रिकालदर्श्यादिशतनाममंत्रेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत कुसुमावलि, आदिक अर्घ्य बनाऊँ।
उसमें रत्न मिलाकर अर्पूं, तीनरत्न निज पाऊँ।।
श्री जिनवर के नाममंत्र को, जिनप्रतिमा को पूजूँ।
निज समरस सुखसुधा पान कर, चारों गति से छूटूँ।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य त्रिकालदर्श्यादिशतनाममंत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
-दोहा-
पद्म सरोवर नीर से, जिनवर पद अरिंवद।
त्रयधारा विधि से करूँ, हो सुख शांति अिंनद।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
जुही गुलाब सुगंधियुत, वर्ण वर्ण के फूल।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य अनुकूल।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रत्येक अर्घ्य (१०० अर्घ्य)
ज्ञान चेतनारूप, परमेष्ठी चिद्रूप हैं।
पुष्पांजलि से पूज, सकल दु:ख दारिद हरूँ।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
स्वामी ‘त्रिकालदर्शी’ हो, सभी पदार्थ देखते।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०१।।
ॐ ह्रीं त्रिकालदर्शिने नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘लोकेश’ माने हो, तीन लोक प्रभु कहे।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०२।।
ॐ ह्रीं लोकेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘लोकधाता’ तुम्हीं माने, तीनों जगत् पोषते।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०३।।
ॐ ह्रीं लोकधात्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘दृढव्रत’ व्रतों में, स्थैर्य धारते।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०४।।
ॐ ह्रीं दृढव्रताय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वलोकातिग’ स्वामिन्! सभी जग में श्रेष्ठ हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०५।।
ॐ ह्रीं सर्वलोकातिगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजा के योग्य हो स्वामिन्! ‘पूज्य’ माने सभी सदा।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०६।।
ॐ ह्रीं पूज्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभीष्ट में पहुँचाते, ‘सर्वलोवैकसारथी’।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०७।।
ॐ ह्रीं सर्वलोवैकसारथये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्राचीन सबमें ही हो, माने ‘पुराण’ आपको।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०८।।
ॐ ह्रीं पुराणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुणों को श्रेष्ठ आत्मा के, पाया ‘पुरूष’ आप हैं।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०९।।
ॐ ह्रीं पुरुषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व प्रथम होने से ‘पूर्व’ माने तुम्हीं प्रभो!।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१०।।
ॐ ह्रीं पूर्वाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंग पूर्वादि विस्तारे, ‘कृतपूर्वांग-विस्तर:’।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८११।।
ॐ ह्रीं कृतपूर्वांगविस्तराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देवों में मुख्य होने से, ‘आदिदेव’ तुम्हीं कहे।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१२।।
ॐ ह्रीं आदिदेवाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुराणाद्य’ प्रभो! माने, प्राचीनों में सुआदि हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१३।।
ॐ ह्रीं पुराणाद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुरुदेव’ तुम्हीं माने, श्रेष्ठ देव महान हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१४।।
ॐ ह्रीं पुरुदेवाय नम:: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देवों के देव होने से, तुम्हीं हो ‘अधिदेवता’।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१५।।
ॐ ह्रीं अधिदेवतायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘युगमुख्य’ युगादी के, माने प्रधान आप हैं।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१६।।
ॐ ह्रीं युगमुख्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘युगज्येष्ठ’ कहे स्वामी, युग में सर्व श्रेष्ठ हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१७।।
ॐ ह्रीं युगज्येष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
युगादी में उपदेशा, ‘युगादिस्थितिदेशक:’।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१८।।
ॐ ह्रीं युगादिस्थितिदेशकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कल्याणवर्ण’ कांती से, सुवर्ण सम हो तुम्हीं।।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१९।।
ॐ ह्रीं कल्याणवर्णाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘कल्याण’ भव्यों के, हितकर्ता प्रसिद्ध हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२०।।
ॐ ह्रीं कल्याणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कल्य’ नीरोग होने से, तत्पर मुक्ति हेतु हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२१।।
ॐ ह्रीं कल्याय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लक्षण हितकारी हैं, अत: ‘कल्याणलक्षण:’।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२२।।
ॐ ह्रीं कल्याणलक्षणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कल्याणप्रकृती’ स्वामी, हो कल्याण स्वभाव ही।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२३।।
ॐ ह्रीं कल्याणप्रकृतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णवत् प्रभु दीप्तात्मा, ‘दीप्रकल्याणआतमा’।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२४।।
ॐ ह्रीं दीप्रकल्याणात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विकल्मष’ तुम्हीं स्वामी, कालिमाकर्म शून्य हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२५।।
ॐ ह्रीं विकल्मषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म कलंकादी निरमुक्ता, हो ‘विकलंका’ कर्म हरो मे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८२६।।
ॐ ह्रीं विकलंकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देह कला से हीन रहे हो ,नाथ! ‘कलातीते’ जग में हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८२७।।
ॐ ह्रीं कलातीताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘कलिलघ्न’ तुम्हीं अघ हीना, पाप हमारे क्षालन कीजे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८२८।।
ॐ ह्रीं कलिलघ्नाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘कलाधर’ सर्व कला से, पूर्ण तुम्हीं हो सर्व गुणों से।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८२९।।
ॐ ह्रीं कलाधराय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘देवदेव’ हो तीन जगत् में, नाथ! सुदेवों के अधिदेवा।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३०।।
ॐ ह्रीं देवदेवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘जगन्नाथा’ जगस्वामी, जन्म मरण के दु:ख हरोगे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३१।।
ॐ ह्रीं जगन्नाथाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘जगद्बंधू’ भवि बंधू, भव्यजनों के पूर्ण हितैषी।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३२।।
ॐ ह्रीं जगद्बंधवे नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘जगद्विभु’ तीन भुवन में, पालक हो सामर्थ्य समेता।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३३।।
ॐ ह्रीं जगद्विभवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगत्’ हितैषी तीन जगत में, सर्वजनों को सौख्य दिया है।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३४।।
ॐ ह्रीं जगद्धितैषिणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप कहे ‘लोकज्ञ’ जगत् को, जान लिया है पूर्ण तरह से।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३५।।
ॐ ह्रीं लोकज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वग’ तीनों लोक सभी में, व्याप्त हुये ये ज्ञान किरण से।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३६।।
ॐ ह्रीं सर्वगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘जगदग्रज’ ज्येष्ठ जगत में, सर्व दुखों को दूर करोगे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३७।।
ॐ ह्रीं जगदग्रजाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘चराचरगुरु’ कहे हो, स्थावर त्रस के पालक भी हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३८।।
ॐ ह्रीं चराचरगुरवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गोप्य’ मुनी रक्खें मन में ही, नाथ! करो रक्षा अब मेरी।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३९।।
ॐ ह्रीं गोप्याय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभु ‘गूढ़ात्मा’ तुम आत्मा, गोचर इन्द्री के नहिं होती।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आत्म ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४०।।
ॐ ह्रीं गूढ़ात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गूढ़ सुगोचर’ गूढ़ तुम्हीं हो, योगिजनों के गम्य तुम्हीं हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४१।।
ॐ ह्रीं गूढ़गोचराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभु ‘सद्योजात’ कहे हो, तत्क्षण जन्में रूप रहे हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४२।।
ॐ ह्रीं सद्योजाताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘प्रकाशात्मा’ मुनि मानें, ज्ञान सुज्योती रूप बखानें।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४३।।
ॐ ह्रीं प्रकाशात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘ज्वलज्ज्वलनसप्रभ’ हो, अग्निप्रभा सी कांति धरे हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४४।।
ॐ ह्रीं ज्वलज्ज्वलनसप्रभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रविव्रत् ‘आदित्यवरण’ स्वामी, हो प्रभु तेजस्वी जग नामी।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४५।।
ॐ ह्रीं आदित्यवर्णाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण छवी ‘भर्माभ’ कहाये, देह दिपे भास्वत् शरमाये।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४६।।
ॐ ह्रीं भर्माभाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुप्रभ’ शोभे कांति तुम्हारी, सूर्य शशी क्रोड़ों लजते हैं।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४७।।
ॐ ह्रीं सुप्रभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘कनकप्रभ’ स्वर्ण प्रभा सी, कांति दिखे उत्तुंग तनु हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४८।।
ॐ ह्रीं कनकप्रभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘सुवर्णवर्ण’ सुर गायें, देह सुवर्णी दीप्ति धराये।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४९।।
ॐ ह्रीं सुवर्णवर्णाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप प्रभो! ‘रुक्माभ’ कहाये, स्वर्ण छवी सी दीप्ति करो मे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८५०।।
ॐ ह्रीं रुक्माभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सूर्यकोटिसमप्रभ’ विभो! क्रोड़ सूरज लजाते।
दीप्ती ऐसी तुम तनु विषे आत्मदीप्ती अनोखी।।
पूजूँ नामावलि तुम प्रभो! सर्वव्याधी निवारो।
ज्ञानज्योति प्रगटित करो मोहशत्रू भगाके।।८५१।।
ॐ ह्रीं सूर्यकोटिसमप्रभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप्ते सोने सदृश ‘तपनीयनिभ’ दीप्ती धरे हो।
कर्मों का भी मल सब हटा स्वात्म निर्मल किया है।।पूजूँ.।।८५२।।
ॐ ह्रीं तपनीयनिभाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऊँचीदेही धर कर विभो! ‘तुंग’ माने गये हो।
ऊँचे भावों सहित तुमही मोक्ष प्रासाद पाया।।पूजूँ.।।८५३।।
ॐ ह्रीं तुंगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘बालार्काभो’ प्रभु तनु धरा ऊगते सूर्य कांती।
मेरी आत्मा सुवरण करो कर्म पंकील१धो दो।।पूजूँ.।।८५४।।
ॐ ह्रीं बालार्काभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा शुद्ध्या ‘अनलप्रभ’ हो अग्नि कांती सदृश हो।
मेरी आत्मा निरमल करो श्रेष्ठ तप से तपाके।।पूजूँ.।।८५५।।
ॐ ह्रीं अनलप्रभाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संध्यालाली सदृश छवि है नाथ!‘संध्याभ्रबभू’।
भक्ती लाली शुभ तम रहे नाथ मेरे हृदै में।।पूजूँ.।।८५६।।।
ॐ ह्रीं संध्याभ्रबभ्रवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा निर्मल सुवरण तनू आप ‘हेमाभ’ मानें।
रागादी को हृदयगृह से दूर कीजे अभी ही।।पूजूँ.।।८५७।।
ॐ ह्रीं हेमाभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तप्तचामीकरप्रभ’ तपे स्वर्ण जैसी प्रभा है।
मेरी आत्मा अतिशय धुला कर्म से मुक्त होवे।।पूजूँ.।।८५८।।
ॐ ह्रीं तप्तचामीकरप्रभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
शुद्धात्मा हो जिनवृषभ! ‘निष्टप्तकनकच्छाय’ हो।
कांती धारी अद्भुत महादीप्त त्रैलोक्य स्वामी।।पूजूँ.।।८५९।।
ॐ ह्रीं निष्टप्तकनकच्छायाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देदीप्यात्मा जिनवर ‘कनत्कांचनसन्निभ’ देही।
शैवल्यात्मा चमचम करे नथ! कीजे अबे ही।।पूजूँ.।।८६०।।
ॐ ह्रीं कनत्कांचनसन्निभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्तीकांतावर प्रभु ‘हिरण्यवर्ण’ इंद्रादि गायें।
दीजे शक्ती निजसम खिले चित्तपंकज सुहाये।।पूजूँ.।।८६१।।
ॐ ह्रीं हिरण्यवर्णाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
सोने जैसी छवि तुमहिं ‘स्वर्णाभ’ साधु जनों में।
व्याधी हीना मुझ तनु बने रत्नत्रै साध लूूूँ मैं।।पूजूँ.।।८६२।।
ॐ ह्रीं स्वर्णाभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव्यों को भी करत शुचि भो! ‘शातकुंभनिभप्रभ’ हो।
मेरी आत्मा स्वपर विद हो ज्ञानज्योति जला दो।।पूजूँ.।।८६३।।
ॐ ह्रीं शातकुंभनिभप्रभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुन्दर सोने सदृश तनु है आप ‘द्युम्नाभ’ स्वामी।
दीजे सिद्धी निजसुख मिले ना पुनर्भव कभी हो।।पूजूँ.।।८६४।।
ॐ ह्रीं द्युम्नाभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जन्में जैसे विकृति रहिते ‘जातरूपाभ’ स्वामी।
रागादी मुझ विकृति हरिये दीजिये मुक्ति लक्ष्मी।।पूजूँ.।।८६५।।
ॐ ह्रीं जातरूपाभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तप्तजाम्बुनदद्युति’ प्रभो! श्रेष्ठ स्वर्णिम शरीरी।
दीजे शक्ती द्विदश तप से आत्म शुद्धी करूँ मैं।।पूजूँ.।।८६६।।
ॐ ह्रीं तप्तजाम्बूनदद्युतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धोये उज्ज्वल कनक से हो पाप क्षालो हमारे।
दीपे आत्मा जिनवर ‘सुधौतकलधौतश्री’ हो।।पूजूँ.।।८६७।।
ॐ ह्रीं सुधौतकलधौतश्रिये नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपे देही जिनरवि ‘प्रदीप्त’ आप लोकाग्र राजें।
जो भी पूजें सकल दुख भी नाशते सौख्य देते।।पूजूँ.।।८६८।।
ॐ ह्रीं प्रदीप्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी हो ‘हाटकद्युति’ तनू स्वर्ण दीप्ती लजाते।
मैं भी ध्याऊँ हृदय धरके आपको शीश नाऊँ।।पूजूँ.।।८६९।।
ॐ ह्रीं हाटकद्युतये नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी सौ भी सुरपति जजें आप ‘शिष्टेष्ट’ मानें।
प्रीती से शिष्ट जन सब तुम्हें इष्ट भगवान् मानें।।पूजूँ.।।८७०।।
ॐ ह्रीं शिष्टेष्टाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्टी कर्ता त्रिभुवन जनों आप ‘पुष्टिद’ कहे हो।
स्वामिन्! पोषो दुखित मुझको पास आया इसी से।।पूजूँ.।।८७१।।
ॐ ह्रीं पुष्टिदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमौदारिक तनुधर प्रभो! ‘पुष्ट’ हो सौख्यभृत् हो।
मेरी पुुष्टी तुरत करिये रोग शोकादि हरके।।पूजूँ.।।८७२।।
ॐ ह्रीं पुष्टाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञानी युगपत् तुम्हीं लोक को जानते हो।
कर्मों का मुझ तुरत क्षय हो ‘स्पष्ट’ स्वामी तुम्हीं से।।पूजूँ.।।८७३।।
ॐ ह्रीं स्पष्टाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वाणी प्रभु की विशद अतिशै ‘स्पष्टाक्षर’ इसी से।
मेरी वाणी हितकर करो दिव्यवाणी बने भी।।पूजूँ.।।८७४।।
ॐ ह्रीं स्पष्टाक्षराय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सामर्थ्यात्मा प्रभु ‘क्षम’ तुम्हीं मोह शत्रू हना है।
शत्रू मृत्यू अति दुख दिया नाथ! नाशो इसे ही।।पूजूँ.।।८७५।।
ॐ ह्रीं क्षमाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म शत्रु को मारा, इसीलिये ‘शत्रुघ्न’ सुरेंद्र कहें।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८७६।।
ॐ ह्रीं शत्रुघ्नाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अप्रतिघ’ तुम्हीं हो, शत्रु न कोई रहा यहाँ जग में।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८७७।।
ॐ ह्रीं अप्रतिघाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अमोघ’ हो नित ही, स्वयं सफल हो किया सफल सबको।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८७८।।
ॐ ह्रीं अमोघाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रशास्ता’ तुम हो, सर्वोत्तम उपदेश दिया तुमने।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८७९।।
ॐ ह्रीं प्रशास्त्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो ‘शासिता’ तुमही, रक्षा करते सदैव भक्तों की।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८०।।
ॐ ह्रीं शासित्रे नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वभू’ स्वयं जन्मे हो, मात पिता बस निमित बने सच में।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८१।।
ॐ ह्रीं स्वभुवे नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शांतिनिष्ठ’ प्रभु तुम हो, पूर्ण शांति को पाया पाप हना।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८२।।
ॐ ह्रीं शांतिनिष्ठाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘मुनिज्येष्ठ’ कहाते, गणधर मुनि में बड़े तुम्हीं माने।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८३।।
ॐ ह्रीं मुनिज्येष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शिवताति’ जगत में, सब कल्याण परंपरा देते।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८४।।
ॐ ह्रीं शिवतातये नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शिवप्रद’ नाथ तुम्हीं हो, भविजन को सब सुख शिवसुख भी देते।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८५।।
ॐ ह्रीं शिवप्रदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शांतिद’ नाथ सभी को, शांति दिया है सुख भरपूर दिया।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८६।।
ॐ ह्रीं शांतिदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘शांतिकृत्’ जग में, शांति करो मुझको भी शांति करो।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८७।।
ॐ ह्रीं शांतिकृते नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘शांति’ हो जग में, त्रिभुवन में भी शांति करो भगवन् ।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८८।।
ॐ ह्रीं शांतये नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कांतिमान्’ प्रभु मानें, सर्व कांतियुत सभामध्य तेजस्वी।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८९।।
ॐ ह्रीं कांतिमते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कामितप्रद’ भगवंता, भक्तों के मनरथ पूर्ण किया है।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९०।।
ॐ ह्रीं कामितप्रदाय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रेयोनिधि’ जिनराजा, भविजन के हित तुम सब सुख के दाता।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९१।।
ॐ ह्रीं श्रेयोनिधये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अधिष्ठान’ तुमही हो, त्रिभुवन में दयाधर्म आधारा।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९२।।
ॐ ह्रीं अधिष्ठानाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अप्रतिष्ठ’ हो भगवन्! परकृत बिना प्रतिष्ठा के पूजित हो।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९३।।
ॐ ह्रीं अप्रतिष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रतिष्ठित’ जग में, नर सुरगण में महायशस्वी हो।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९४।।
ॐ ह्रीं प्रतिष्ठिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुस्थिर’ त्रिभुवन में, अतिशय थिरता मिली तुम्हें निज में।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९५।।
ॐ ह्रीं सुस्थिराय नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ! तुम्हीं ‘स्थावर’ हो, समवसरण में गमन रहित राजें।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९६।।
ॐ ह्रीं स्थावराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘स्थाणु’ कहाये, अचल रूपधर यहीं विराजे हो।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९७।।
ॐ ह्रीं स्थाणवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रथीयान्’ प्रभु मानें, अतिशय विस्तृत कहें सुरासुर भी।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९८।।
ॐ ह्रीं प्रथीयसे नम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! ‘प्रथित’ तुम्हीं हो, त्रिभुवन में भी प्रसिद्ध अतिशायी।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९९।।
ॐ ह्रीं प्रथिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पृथु’ ज्ञानादि गुणों से, गणि मुनिगण में महान हो प्रभुजी।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।९००।।
ॐ ह्रीं पृथवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु त्रिकालदर्शी से लेकर नाम शतक अतिशायी हैं।
गणधर मुनिगण चक्रवर्ति भी नाम जपें सुखदायी हैंं।।
सुरपति खगपति पूजन करते वंदन कर शिर नाते हैं।
हम भी पूजें अर्घ चढ़ाकर निज समकित गुण पाते हैं।।९।।
ॐ ह्रीं त्रिकालदर्श्यादिशतनामभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य—१. ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवाय सर्वसिद्धिकराय सर्वसौख्यं कुरु कुरु ह्रीं नम:।
२. ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवाय नम:। (दोनों में से कोई एक मंत्र जपें)
(सुगंधित पुष्पों से या लवंग से १०८ या ९ बार जाप्य करें।)
नित्य निरंजनदेव, अखिल अमंगल को हरें।
नित्य करूँ मैं सेव, मेरे कर्मांजन हरें।।१।।
जय जय जिन देव हमारे, जय जय भविजन बहु तारें।
जय मुक्तिरमापति देवा, शतइंद्र करें तुम सेवा।।२।।
मुनिवृंद तुम्हें चित धारें, भविवृंद सुयश विस्तारें।
सुरनर किन्नर गुण गावें, किन्नरियाँ बीन बजावें।।३।।
भक्तीवश नृत्य करे हैं, गुण गाकर पाप हरे हैं।
विद्याधर गण बहु आवें, दर्शन कर पुण्य कमावें।।४।।
भव भव के त्रास मिटावें, यम का अस्तित्त्व हटावें।
जो जिनगुण में मन पागे, तिन देख मोह रिपुभागे।।५।।
जो प्रभु की पूज रचावें, इस जग में पूजा पावें।
जो प्रभु का ध्यान धरे हैं, उनका सब ध्यान करे हैं।।६।।
जो करते भक्ति तुम्हारी, वे भव भव में सुखियारी।
इस हेतु प्रभो तुम पासे, मन के उद्गार निकासे।।७।।
जब तक मुझ मुक्ति न होवे, तब तक सम्यक्त्व न खोवे।
तब तक जिनगुण उच्चारूँ, तब तक मैं संयम धारूँ।।८।।
तब तक हो श्रेष्ठ समाधी, नाशे जन्मादिक व्याधि।
तब तक रत्नत्रय पाऊँ, तब तक निज ध्यान लगाऊँ।।९।।
तब तक तुम ही मुझ स्वामी, भव भव में हो निष्कामी।
ये भाव हमारे पूरो, मुझ मोह शत्रु को चूरो।।१०।।
जय जय चिन्मूरति, गुणमति पूरित, जय जिनवर वृषचक्रपती।
जय ‘ज्ञानमती’ धर, शिवलक्ष्मीवर, भविजन पावें सिद्धगती।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य त्रिकालदर्श्यादिशतनाममंत्रेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:
जो भव्य ऋषभदेव का विधान यह करें।
सम्पूर्ण अमंगल व रोग शोक दुख हरें।।
अतिशायि पुण्य प्राप्त कर ईप्सित सफल करें।
कैवल्य ‘‘ज्ञानमती’’ से जिनगुण सकल भरें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।