-गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी
-स्थापना-गीता छंद-
श्री शांति कुंथु अर जिनेश्वर, जन्म ले पावन किया।
दीक्षा ग्रहण कर तीर्थ यह, मुनिवृन्द मन भावन किया।।
निज ज्ञानज्योती प्रकट कर, शिवमार्ग को प्रकटित किया।
इस हस्तिनापुर क्षेत्र को, मैं पूजहूँ हर्षित हिया।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिनाथकुंथुनाथअरनाथजन्मभूमिहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्र!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिनाथकुंथुनाथअरनाथजन्मभूमिहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्र!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिनाथकुंथुनाथअरनाथजन्मभूमिहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्र!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक (चामर छंद)-
तीर्थ रूप शुद्ध स्वच्छ सिंधु नीर लाइये।
गर्भवास दुःखनाश तीर्थ को चढ़ाइये।।
हस्तिनापुरी पवित्र तीर्थ अर्चना करूँ।
तीर्थनाथ पाद की सदैव वंदना करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिकुंथुअरनाथजन्मभूमिहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंकुमादि अष्ट गंध लेय तीर्थ पूजिये।
राग आग दाह नाश पूर्ण शांत हूजिये।।
हस्तिनापुरी पवित्र तीर्थ अर्चना करूँ।
तीर्थनाथ पाद की सदैव वंदना करूँ।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिकुंथुअरनाथजन्मभूमिहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्र तुल्य श्वेत शालि पुंज को रचाइये।
देह सौख्य छोड़ आत्म सौख्य पुंज पाइये।।
हस्तिनापुरी पवित्र तीर्थ अर्चना करूँ।
तीर्थनाथ पाद की सदैव वंदना करूँ।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिकुंथुअरनाथजन्मभूमिहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंद केतकी गुलाब वर्ण वर्ण के लिये।
मार मल्लहारि तीर्थक्षेत्र को चढ़ा दिये।।
हस्तिनापुरी पवित्र तीर्थ अर्चना करूँ।
तीर्थनाथ पाद की सदैव वंदना करूँ।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिकुंथुअरनाथजन्मभूमिहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
खीर पूरिका इमर्तियाँ भराय थाल में।
तीर्थ क्षेत्र पूजते क्षुधा महाव्यथा हने।।
हस्तिनापुरी पवित्र तीर्थ अर्चना करूँ।
तीर्थनाथ पाद की सदैव वंदना करूँ।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिकुंथुअरनाथजन्मभूमिहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीप में कपूर ज्योति अंधकार को हने।
आरती करंत अंतरंग ध्वांत को हने।।
हस्तिनापुरी पवित्र तीर्थ अर्चना करूँ।
तीर्थनाथ पाद की सदैव वंदना करूँ।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिकुंथुअरनाथजन्मभूमिहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप गंध लेय अग्नि पात्र में जलाइये।
मोह कर्म भस्म को उड़ाय सौख्य पाइये।।
हस्तिनापुरी पवित्र तीर्थ अर्चना करूँ।
तीर्थनाथ पाद की सदैव वंदना करूँ।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिकुंथुअरनाथजन्मभूमिहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
मातुलिंग आम्र सेब संतरा मंगाइये।
तीर्थ पूजते हि सिद्धि संपदा सुपाइये।।
हस्तिनापुरी पवित्र तीर्थ अर्चना करूँ।
तीर्थनाथ पाद की सदैव वंदना करूँ।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिकुंथुअरनाथजन्मभूमिहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय मोक्ष-
फलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गंध अक्षतादि अर्घ्य को बनाइये।
‘‘ज्ञानमति’’ सिद्धि हेतु तीर्थ को चढ़ाइये।।
हस्तिनापुरी पवित्र तीर्थ अर्चना करूँ।
तीर्थनाथ पाद की सदैव वंदना करूँ।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिकुंथुअरनाथजन्मभूमिहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(इति मण्डलस्योपरि द्वादशमदले पुष्पांजल् क्षिपेत्)
-प्रत्येक अर्घ्य (रोला छंद)-
भादों कृष्णा पाख, सप्तमि तिथि शुभ आई।
गर्भ बसे प्रभु शांति, सब जन मन हरषाई।।
इन्द्र सुरासुर संग, उत्सव करते भारी।
हम पूजें धर प्रीति, तीरथ रज सुखकारी।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिनाथगर्भकल्याणक पवित्रहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जन्म लिया प्रभु शांति, ज्येष्ठ वदी चौदस में।
सुरगिरि पर अभिषेक, किया सभी सुरपति ने।।
शांतिनाथ यह नाम, रखा शांतिकर जग में।
हम नावें निजमाथ, जिनवर चरण कमल में।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिनाथजन्मकल्याणक पवित्रहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीक्षा ली प्रभु शांति, ज्येष्ठ वदी चौदस के।
लौकांतिक सुर आय, बहु स्तवन उचरते।।
इंद्र सपरिकर आय, तपकल्याणक करते।
गजपुर अर्घ्य चढ़ाय, हम दुख संकट हर लें।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिनाथदीक्षाकल्याणक पवित्रहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान विकास, पौष सुदी दशमी के।
समवसरण में नाथ, राजें अधर कमल पे।।
इन्द्र करें बहु भक्ति, बारह सभा बनी हैं।
अर्घ्य चढ़ावें भव्य, हस्तिनापुर नगरी है।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्रहस्तिनापुर-
तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा- श्रावण वदि दशमी तिथि, कुंथु गर्भकल्याण।
इन्द्र हस्तिनापुरि नमें, मैं पूजूँ वह थान।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीकुंथुनाथगर्भकल्याणक पवित्रहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकम सित वैशाख की, जन्मे कुंथु जिनेश।
मैं पूजूं वह जन्म भू, नमन करूँ सिर टेक।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीकुंथुनाथजन्मकल्याणक पवित्रहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सित एकम वैशाख की, दीक्षा ली जिनदेव।
वही हस्तिनापुर जजूँ, करूँ कुंथु प्रभु सेव।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीकुंथुनाथदीक्षाकल्याणक पवित्रहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र शुक्ल तिथि तीज में, प्रगट हुआ जहाँ ज्ञान।
हस्तिनापुर की वह धरा, पूजूँ हो कल्याण।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीकुंथुनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्रहस्तिनापुर-
तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सखी छन्द-
फाल्गुन कृष्णा तृतिया में, अर जिनवर गर्भ बसे थे।
जहाँ सुरपति उत्सव कीना, हम पूजें भवदुख हीना।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअरनाथगर्भकल्याणक पवित्रहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगशिर शुक्ला चौदश के, जहाँ जन्में प्रभु सुर हर्षे।
उस हस्तिनापुर की अर्चा, हम करें सदा प्रभु चर्चा।।१०।।
ॐ ह्रीं तीर्थकरश्रीअरनाथजन्मकल्याणक पवित्रहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगशिर सुदि दशमी तिथि में, दीक्षा धारी प्रभु वन में।
इन्द्रों से पूजा पाई, वह तीर्थ जजूँ सुखदाई।।११।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअरनाथदीक्षाकल्याणक पवित्रहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक सुदि बारस तिथि में, केवल रवि पाया प्रभु ने।
बारह गण को उपदेशा, हम पूजें भक्ति समेता।।१२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअरनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्रहस्तिनापुरतीर्थ-
क्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (शंभु छंद)-
जहाँ तीर्थंकरत्रय कामदेव, चक्री पद के धारी जन्मे।
छहखण्ड जीत कर हस्तिनागपुर, नगरी के राजा वे बने।।
उस भू पर उनके चार-चार, कल्याणक इन्द्र मनाते थे।
वह तीर्थ जजूँ पूर्णार्घ्य चढ़ा, जिसकी महिमा सुर गाते थे।।१३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिनाथकुंथुनाथअरनाथजिनेन्द्र गर्भजन्मदीक्षा-
केवलज्ञानचतुःचतुःकल्याणकपवित्रहस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरपंचकल्याणक तीर्थक्षेत्रेभ्यो नम:।
दोहा- समवसरण में राजते, ज्ञान ज्योति से पूर्ण।
शांति कुंथु अर नाथ को, पूजत ही दुःख चूर्ण।।१।।
-शंभु छंद-
श्री आदिनाथ को सर्व प्रथम, इक्षूरस का आहार दिया।
श्रेयांस नृपति ने यहाँ तभी से, दान तीर्थ यह मान्य हुआ।।
देवों ने पंचाश्चर्य किया, रत्नों की वर्षा खूब हुई।
वैशाख सुदी अक्षय तृतिया, यह तिथि भी सब जग पूज्य हुई।।२।।
श्री शांति कुंथु अर तीर्थंकर, इन तीनों के इस तीरथ पर।
हुए गर्भ जन्म तप ज्ञान चार, कल्याणक इस ही भूतल पर।।
अगणित देवी-देवों के संग, सौधर्म इन्द्र तब आये थे।
अतिशय कल्याणक पूजा कर, भव भव के पाप नशाये थे।।३।।
आचार्य अकंपन के संघ में, मुनि सात शतक जब आये थे।
उन पर बलि ने उपसर्ग किया, तब जन जन मन अकुलाये थे।।
श्री विष्णुकुमार मुनीश्वर ने, उपसर्ग दूर कर रक्षा की।
रक्षाबंधन का पर्व चला, श्रावण सुदि पूनम की तिथि थी।।४।।
गंगा में गज को ग्राह ग्रसा, तब सुलोचना ने मंत्र जपा।
द्रौपदी सती का चीर बढ़ा, सतियों की प्रभु ने लाज रखा।।
श्रेयांस सोमप्रभ जयकुमार, आदीश्वर के गणधर होकर।
शिव गये अन्य नरपुंगव भी, पांडव भी हुए इसी भू पर।।५।।
राजा श्रेयांस ने स्वप्ने में, देखा था मेरु सुदर्शन को।
सो आज यहाँ इक सौ इक फुट, उत्तुंग सुमेरु बना अहो।।
यह जंबूद्वीप बना सुन्दर, इसमें अट्ठत्तर जिनमंदिर।
इक सौ तेइस हैं देवभवन, उसमें भी जिनप्रतिमा मनहर।।६।।
जो भक्त भक्ति में हो विभोर, इस जम्बूद्वीप में आते हैं।
उत्तुंग सुमेरू पर चढ़कर, जिन वंदन कर हर्षाते हैं।।
फिर सब जिनगृह को अर्घ चढ़ा, गुण गाते गद्गद हो जाते।
वे कर्म धूलि को दूर भगा, अतिशायी पुण्य कमा जाते।।७।।
श्री आदिनाथ, भरतेश और, बाहूबलि तीन मूर्ति अनुपम।
श्री शांति कुंथु अर चक्रीश्वर, तीर्थंकर की मूर्ति निरुपम।।
वर कल्पवृक्ष महावीर प्रभू का, जिनमंदिर अतिशोभित है।
यह कमलाकार बना सुन्दर, इसमें जिनप्रतिमा राजित है।।८।।
जय शांति कुंथु अर तीर्थेश्वर, जय इनके पंचकल्याणक की।
जय जय हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र, जय जय हो सम्मेदाचल की।।
जय जंबूद्वीप तेरहों द्वीप, नंदीश्वर के जिन भवनों की।
जय भीम, युधिष्ठिर, अर्जुन और, सहदेव नकुल पांडव मुनि की।।९।।
-दोहा-
तीर्थक्षेत्र की अर्चना, हरे सकल दुख दोष।
‘‘ज्ञानमती’’ सम्पत्ति दे, भरे आत्म सुखकोष।।१०।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिकुंथुअरनाथजन्मभूमि हस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय
जयमाला पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शान्तये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
-शेर छंद-
तीर्थंकरों के पंचकल्याणक जो तीर्थ हैं।
उनकी यशोगाथा से जो जीवन्त तीर्थ हैं।।
निज आत्म के कल्याण हेतु उनको मैं नमूँ।
फिर ‘‘चन्दनामती’’ पुन: भव वन में ना भ्रमूँ।।
।। इत्याशीर्वाद:।।