(१६६)
इस ओर लखन के संग राम, लंकानगरी की ओर चले ।
निजप्रिया मिलन की उत्वंठा से, उनके दृग हर्ष विभोर भये।।
उस ओर आकुलित सीता भी, प्रिय के स्वागत के लिये बढ़ी।
दोनों कर जोड़ विनयपूर्वक, श्री राम निकट आ हुई खड़ी।।
(१६७)
सहसा सूरज हो गया गोल, नभ के बादल में बदल उठे।
रघुवर का आलिंगन पाकर, सीता के अश्रु छलक उठे।।
यह मिलन देख वन उपवन की, है झूम गयी हर डाली थी।
सुरनर किन्नर सब मिल करके,उन पर डाली पुष्पांजलि थी।।
(१६८)
नर नृप ही क्या सुर किन्नर ने, मिलकर उनका जयकार किया।
सीता का धैर्य देख करके, उन्हें बारम्बार प्रणाम किया।।
लक्ष्मण भामंडल कर जोड़े, पर नैना सबके बरस रहे।
सुग्रीव आदि सब विद्याधर, उनके दर्शन कर हरष रहे।।
(१६९)
सीता का हाथ पकड़ करके, ऐरावतगज पर बैठाकर।
श्रीराम चले लंकेश भवन, वहां शांति जिनालय में जाकर।।
स्तुति—वंदना करके वे फिर, थे चले विभीषण के घर में।
स्नान आदि से निर्वृत हो, फिर भोजन किया उन्हीं घर में।।
(१७०)
पश्चात् सभी विद्याधर मिल, अनुरोध राम से कहते हैं।
राज्याभिषेक स्वीकार करो, अब यही याचना करते हैं।।
रघुवर बोले श्रीभरतराज, हम सबके ही तो स्वामी हैं।
पर तभी विभीषण ये बोले, नहिं इसमें दोष कोई भी है।।
(१७१)
बलभद्र और नारायण पद, जो तुम दोनों ने पाया है।
इसमें हम सब क्या कर सकते, यह तो सब प्रभु की माया है।।
तब ओम् स्वीकृति पा करके, सबने मिल राज्याभिषेक किया।
और राजमुकुट पहना करके, उनको अनुपम ऐश्वर्य दिया।।।
(१७२)
अब सोचा सब बालाओं को भी, यही भेजकर बुलवायें ।
तब हनूमान और भामंडल, जाकर के सबको ले आये।।
जब सीता ने परिचय पूछा, तो रामप्रभु ने बतलाया।
यह सब कन्या हम दोनों से, ब्याही इस हेतू बुलवाया।।
(१७३)
इस तरह वहाँ रहते—रहते, छह वर्ष राम ने बिता दिए।
सुखभोगों में ऐसे डूबे, माताओं को भी भुला दिए।।
इक दिवस राम और लक्ष्मण की, मातायें छत पर बैठी थीं।
पुत्रों का कर स्मरण अश्रुओं, से अपना मुंह धोती थी।।
(१७४)
आ गये गगन से नारदजी, दोनों को जब रोते देखा।
माँ किसने तुम्हें रुलाया है, और किसने दिया तुम्हें धोखा।।
यह बात पूछते ही उनने, सब एक श्वांस में कह डाला।
क्या—क्या घटनाएँ घटी यहाँ क्या हुआ यहाँ गड़बड़झाला।।
(१७५)
वनवास राम की पति दीक्षा, और सीताहरण सुनाया था।
लक्ष्मण को लगी शक्ति कैसे ,यह सब भी उन्हें बताया था।।
अब जब से गयी विशल्या है, कुछ पता नही क्या हुआ वहां।
यह सुनकर नारद जी बोले, मैं जाता हूँ बस अभी वहां।।
(१७६)
जाकर लंका में नारदजी, श्री रामचंद्र से बोल उठे।
माताएं बहुत दुखी राजन!, यह शब्द दिलों में घोल उठे।।
दुख से विव्हल श्री रामलखन, नारद जी का सम्मान किया।
हे ऋषे! आपने याद दिलाकर, हम पर भारी अहसान किया।।
(१७७)
अब कहा विभीषण हे भ्राता!, तुम इतने दिन राज्य किया।
फिर बड़े प्यार और गौरव से, यह प्रगट तभी उद्गार किया।।
जब मांगी आज्ञा जाने की, उस क्षण थे सभी उदास हुए ।
सोलह दिन और रुकें स्वामी, इस हेतू बहुत प्रयास किए।।