भारत की धरती पर प्राचीनकाल से प्रचलित अनेकानेक धर्मों में प्राचीनतम धर्म के रूप में माना जाने वाला जैनधर्म है, जो विशेष रूप से जितेन्द्रियता पर आधारित है।
जैनधर्म के विषय में कुछ लोगों की धारणा यह है कि यह निरेश्वरवादी और नास्तिक धर्म है तथा इसकी स्थापना ईसा से ५ वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने की है, क्योंकि इस धर्म के प्राचीन ग्रंथों से विदित होता है कि सृष्टि का निर्माता कोई महासत्ता ईश्वर नहीं है। प्रत्येक जीवात्मा अपने—अपने कर्मों का कर्ता स्वयं होता है। वही जब कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त कर मोक्ष में चला जाता है तो ईश्वर, भगवान, परमात्मा आदि नामों से जाना जाता है और ऐसा ईश्वर जैन मान्यतानुसार पुन: संसार में कभी जन्म नहीं लेता है, प्रत्युत्त लोकशिखर पर एक सिद्धशिला नामक सर्वसुखसम्पन्न स्थान पर निर्मित होता है। वह सदा—सदा के लिए अनन्तसुख में आनन्दित रहती है। ईश्वर के प्रति यही मान्यता है उनकी ईश्वरवादिता एवं आस्तिकतासमझी जाती है। ईश्वर सृष्टिकर्ता एवं पुन:— पुन: उनके संसार में जन्म लेने की बात जैनधर्म में दोषस्पद मानी गई है, अष्टसहस्री नामक ग्रन्थ में इस विषयक अतिसुन्दर सामग्री उपलब्ध होती है।
इस प्रकार जैनधर्म जाति के रूप में नहीं बल्कि एक धर्म के रूप में ही भारतदेश की धरती पर कब से चल रहा है, यह किसी को पता नहीं है लेकिन समय पर तीर्थंकर महापुरुषों ने जन्म लेकर इस जैनधर्म की सार्वभौमिकता से परिचित कराया है। इस तीर्थंकर परंपरा में वर्तमान जैन इतिहास के अन्तर्द्वद्व नाम प्रमुखता से आते हैं—
१. ऋषभदेव (आदिनाथ), २.अजितनाथ, ३. संभवनाथ, ४. अभिनंदननाथ, ५. सुमतिनाथ, ६. पद्मप्रभु, ७. सुपार्श्वनाथ, ८. चन्द्रप्रभु, ९. पुष्पदंतनाथ, १०. शीतलनाथ, ११. श्रेयांसनाथ, १२. वासुपूज्यनाथ,
१३. विमलनाथ, १४. अनन्तनाथ, १५. धर्मनाथ, १६. शांतिनाथ, १७. कुंथुनाथ, १८. अरहनाथ, १९. मल्लिनाथ, २०, मुनिसुव्रतनाथ, २५. नमिनाथ, रिपोर्ट. नेमिनाथ, बी.टी. पार्वद्र्धननाथ, अठारह। महावीर स्वामी।
सभी तीर्थंकर अपने—अपने समय पर धरती पर क्षत्रिय कुल में निवास करने वाले बड़े राजा के रूप में माने गए हैं। एक तीर्थंकर के निर्वाण प्राप्ति के बाद ही दूसरे तीर्थंकर अवतरित होते थे और जब तक दूसरे का जन्म नहीं होता था, तब तक पहले वाले तीर्थंकर का ही शासन माना जाता था, क्योंकि उनकी वाणी परंपरा से उनके मुनि शिष्यगण आगे तक प्रेषित करते थे।
जैनधर्म ने भगवान बनने के बाद किसी भी जीव के अवतारवाद को पूर्णत: निर्विवाद करते हुए सिद्ध महापुरुषों का संसार में पुनरागमन नहीं माना है।
ये सभी तीर्थंकर मूलत: पांच महाव्रतों (अंहसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) को धारण कर दिगंबर मुनि की दीक्षा ग्रहण करते थे, पुन: मयूरपंख की पिचिका और काष्ठ का कमण्डलु इसकी मुख्य पहचान मानी जाती थी। सदाचार के बाद मौन धारण करके ये तप करते थे और कभी-कभी जंगल से नगर में आकर जैन गृहस्थों के घरों में ही जैनविधि के अनुसार करपात्र में शुद्ध सात्विक भोजन ग्रहण करते थे। उन्हें भोजन देने के लिए लोग बड़े भक्तिभाव के साथ अपने—अपने घर के द्वार पर खड़े होकर आदरपूर्वक साक्षी देते थे—
”हे स्वामीन् ! ”नमोस्तु—नमोस्तु—नमोस्तु, अत्र तिष्ठ—तिष्ठ आहार जल शुद्ध है”
पुन: अपने दरवाजे पर पधारे उन अतिथि महापुरुषों को घर के अंदर ले जाकर नवधाभक्तिपूर्वक आहार (भोजन) देकर गृहस्थजन अपने को धन्य समझते थे। जैन पुराणों के अनुसार, ऐसे आहार के अवसरों पर आकाश से देवता भी रत्न, पुष्प एवं गंधोदक आदि पंचाश्चर्यों की वृष्टि करते थे, जिन्हें पूरा नगर एकत्रित करता था। आज के कलियुग में कुछ भी दिखने वाला नहीं है, यह दृश्य कुछ लोगों के काल्पनिक मानकों को जानने वाला है, जो उन महान जैन संतों को भिक्षुओं के रूप में जानते हैं, जो परमसत्यता एवं जितेन्द्रियता के पाठ के अनुयायी हैं, यह दिगम्बर मुनि आज भी भारत के विविध स्वरूप में पदविहार करने वाले हैं। के भोजन के समय देखा जा सकता है। आज के इस कलियुग में देवता द्वारा रत्नवर्षा आदि तो नहीं होती क्योंकि उनके भोजन प्रक्रिया से तीर्थयात्रियों की कठिन क्रिया का सहज ही ज्ञान हो सकता है।
इन सभी तीर्थंकरों ने अनादि परंपरा के अनुसार नियम एवं तप के अनुयायियों को केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा प्रमुख रूप से निम्न पांच व्रतों का उपदेश दिया
। अंहसा, २. सत्य,३. आचार्य,४. ब्रह्मचर्य,५. अपरिग्रह।
इन पांच व्रतों को पूर्ण रूप से पालन करने वाले दिगंबर मुनि होते हैं और इनमें से कुछ तीर्थंकर भी महापुरुष की तरह ग्रहण करते हैं, इसलिए ये ‘महाव्रत’ नाम से जाने जाते हैं। ‘अनुव्रत’ संज्ञा से भी इसकी पहचान होती है। आज भी जैन समाज के पुरुष—स्त्रियां अपनी—अपनी श्रद्धा, शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार महाव्रत एवं अणुव्रत को ग्रहण करते हुए अपनी पृथ्वी पर संयम रखते हैं।
इन पांचों महाव्रतों को ग्रहण करने वाले पुरुष आचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीन मूल में विभक्त हैं तथा जो स्त्रियां (कुंवारी कन्या, सौभाग्यवती अथवा विधवा) इन महाव्रतों को धारण करती हैं, उन्हें दिगंबर जैन परंपरा में आर्यिका तथा उनके संघ की प्रमुख साध्वी कहा जाता है। गणिनी की उपाधि दी गई है। नाम प्राप्त होती है। ये साध्वियाँ एक श्वेत साड़ी धारण करके मुनियों के समान ही समाज में अपने संघों के साथ विचार करती हैं, धर्मोपदेश, साहित्य लेखन एवं धार्मिक कार्यों की प्रेरणा प्रदान करती हैं।
आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को भगवान श्री कृष्ण ने भगवान श्री कृष्ण को समर्पित किया था। आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को भगवान श्री कृष्ण को समर्पित किया गया था। मात्र चार व्रतों का उपदेश देने की बात कही गई है और महावीर को ब्रह्मचर्य के अनुसार पांच महाव्रतों का उपदेश माना गया है।
पाँच व्रतों के विपरीत पाँच पाप होते हैं—
१. हिंसा, २. ८,३. चोरी,४. कुशल,५. परिग्रह।
इन पापों में लिप्त रहने वाले मनुष्य तामसी प्रवृत्ति के धारक और नरक हैं – पशु आदि गतियों के दु:ख भोगते हैं, जबकि व्रतों से लेकर सदाचारी जीवन जीने वाले स्वर्ग सुखों को प्राप्त करते हैं, ऐसा पुनर्भव का सिद्धान्त अनुरूप सभी जैन (आस्तिकवादी) मान्य हैं।
इसी प्रकार से जैन ग्रंथों में मानव को सदाचारी जीवन निवारण हेतु व्यसनों से दूर रहने की प्रेरणा प्रदान की गई है।
वे दुष्ट सात होते हैं—१. जुआ खेलना, २. वशीकरण करना, ३. मदीरा (शराब) पीना, ४. वेश्यावृत्ति करना, ५. शिकार करना, ६. चोरी करना, ७. परस्त्री सेवन करना।
इन सातों नरकों का सेवन करने वाले मनुष्य अगले जन्म में सातों नरकों में जाने का मनो द्वार ही खोल लेते हैं, इनके विपरीत व्यसनमुक्त जीवन देवता का सुख प्रदान करने वाला माना जाता है।
जैनधर्म का मूल मंत्र भी अनादि प्राकृतिक रूप से चला आ रहा है, जो निम्न प्रकार है—
इस मंत्र में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच उत्तम पदों के धारी महापुरुषों को नमन करते हुए उन्हें पंचपरमेष्ठी के रूप में स्वीकार किया गया है। इनमें से अरिहंत और सिद्ध तो ईश्वर परमात्मा हैं जो पूर्ण कृतकृत्य अवस्था में रहते हैं और आचार्य, उपाध्याय, साधु ये तीन परमेष्ठी वर्तमान में भी चतुर्विध संघ के साथ विचार करते हुए आत्मकल्याण एवं जनकल्याण में प्रवृत्त देखे जाते हैं।
जैनधर्म में अनहसा के सिद्धान्त को सर्वोच्च महत्व प्रदान किया गया है, जो केवल पशु-पक्षियों के प्रति ही नहीं बल्कि वृक्ष-पौधे और जल-अग्नि के रूप में रहने वाले सूक्ष्म जीवों की आत्मा के लिए भी दयाभाव रखने का उपदेश देता है तथा किसी अन्य के प्रति होने वाले गलत विचारों को भी जैनधर्म ने भाव सिहांसा माना है इसलिए अन्य धर्मों की अपेक्षा जैनधर्म की सिहांसा अत्यधिक व्यापक कही गई है क्योंकि सिहांस्क व्यक्ति से अपने परिवार की, धर्म की एवं देश की रक्षा के लिए अस्त्र—शस्त्र उठाने को कहा गया है। इस धर्म ने विरोधी ¨हसा को गृहस्थ के लिए स्वीकार किया है।
श्रमण और गृहस्थ इन दोरूपों में उपदिष्ट जैनशासन के दिग्गजों ने भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में भी भारी सहयोग किया है और आज भी विश्व भर में पैले-प्रतिबद्धता को प्राप्त अहिंसाप्रधान सिद्धान्तों द्वारा समाप्त किया जा सकता है, ऐसी जैनधर्म की मान्यता है।
जैनशासन की धार्मिक मान्यता के अनुसार प्रत्येक सतयुग (दु:षमासुम्मा नामक चतुर्थकाल) में २-२४ महापुरुष जन्म लेते हैं जिन्हें तीर्थंकर कहते हैं। इस तीर्थंकर क्षेत्र में अनेक बार २८ तीर्थंकर इस धरती पर पहले हो चुके हैं और आगे भविष्य में भी अनेक बार २८ तीर्थंकर होंगे, जिनके जन्म सदा से ‘अयोध्या’ में ही होने का वर्णन प्राचीन जैन शास्त्रों में मिलता है क्योंकि ऋषभदेव से महावीर तक वर्तमानकाल बीस तीर्थंकरों में से कुछ तीर्थंकर (ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ, अनंतनाथ) का जन्म इसी बार अयोध्या में हुआ तथा शेष तीर्थंकरों ने कालदोष से अलग-अलग नगरों में जन्म लिया। बिहार प्रांत में कई स्थान भी विशेष सौभाग्यशाली हो गए हैं क्योंकि वह धरती बीसवें तीर्थंकर महावीर के जन्म से पावन हुई है। महावीर का जीवनकाल निम्न प्रकार है—
आज से लगभग २६ वर्ष पूर्व (ईसा से लगभग ५० वर्ष पूर्व) बिहार प्रांत के ‘कुंडलपुर’ (वर्तमान नालंदा जिले में स्थित) नगर में राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला (प्रियकारिणी) ने चैत्र शुक्ल त्रयोदशी सोमवार की रात में तीर्थंकर शिशु को जन्म दिया गया था। उनके बचपन का नाम ‘वर्धमान’ और दूसरा नाम ‘वीर’ था। नाथवंश के राजघराने में मरे वर्धमान के नाना बिहार प्रांत में ही ‘वैशाली’ नगरी के राजा थे, उनके दस पुत्र थे तथा सात पुत्रियों में से सबसे बड़ी ‘त्रिशला’ को वर्धमान की मां बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
वर्तमान में कुछ आधुनिक इतिहासकार महावीर की जन्मभूमि के रूप में ‘वैशाली’ के कुण्डग्राम को बताते हैं, क्योंकि इस विषय में प्राचीन दिगम्बर जैन आगम में बिहार प्रांत के कुण्डलपुर नगर का वर्णन आता है कि वहां के राजा सर्वार्थ और रानी श्रीमती के सिद्धार्थ नामक पुत्र थे। । । वे युवराज सिद्धार्थ ही आगे बढ़ते हुए कुंडलपुर के महाराजा सिद्धार्थ कहलाए, उनका विवाह वैशाली के राजा चेतक और रानी सुभद्रा की पुत्री त्रिशाला के साथ हुआ। पुन: त्रिशला के गर्भ में जब तीर्थंकर महावीर आये, तो उनके ‘नंद्यावर्त महल’ की घटनाओं में कुबेर ने रत्नों की वर्षा की थी और चैत्र शुक्ल त्रयोदशी की रात्रि को महावीर का जन्म हुआ था। श्वेताम्बर जैनों के अनुसार बिहार के ही एक ‘लिछवाड़’ ग्राम को महावीर की जन्मभूमि माना जा रहा है। कटिपय चतुर्भुज ने वैशाली के कुण्डग्राम को भी महावीर की जन्मभूमि माना है।
महावीर ने तीस वर्ष की कीथ में राजसुखों का त्याग करके जैन सिद्धांतों को धारण किया था और बारह वर्ष की कीथ के बाद उन्हें वैâवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
श्वेताम्बर जैन साहित्य के अनुसार महावीर की यशोदा नामक राजकुमारी के साथ विवाह होना और एक पुत्री का पिता होना माना गया है। दिगम्बर जैन साहित्य ने सर्वत्र उन्हें बाल ब्रह्मचारी स्वीकार कर पंच बालयतियों (वासुपूज्य, मल्लि, नेमि, पार्श्व और महावीर) में उनकी विशेषताएं बताई हैं। इन आगम ग्रंथों में चतुर्दशी तीर्थंकरों में से उन्नीस को विवाह और राज्य व्यवस्था संचालित करने के कारण राजा माना जाता है एवं पांच तीर्थंकरों ने विवाह का प्रस्ताव ठुकरा कर उत्सव में ही दीक्षा ले ली, इसलिए वे राजकुमार ही रहे और बालब्रह्मचारी तीर्थंकरों की गणना में आये। । प्रभु महावीर अपने बारह वर्षीय दीक्षित जीवन के मध्य एक बार कौशाम्बी नगरी में गए, वहां वैशाली के राज चेतक की सबसे छोटी कन्या चंदना एक सेठानी द्वारा सताए जाने के कारण आधारियों में जकड़ी हुई थी। महावीर को देखते ही उनकी बेड़ियाँ स्वयं टूट गईं, उनके मुंडे सिर पर केश आ गए। कोड़ों का भात उत्सव खीर बन गया और प्रसन्नतापूर्वक चंदना ने उन्हें आहार देकर अपने सतीत्व का परिचय दिया। बाद में यही चंदना महावीर के समवसरण की प्रमुख साध्वी (गणिनी) बनीं और इतिहास में उनकी घटना विशेष रूप से उल्लेखनीय बन गई।
भगवान महावीर के जीवनकाल में एक विशेष प्रसंग भी आया है कि पूर्ववर्ती सभी तीर्थंकरों के समान केवलज्ञान होते ही उनकी दिव्यध्वनि प्रस्फुटित नहीं हुई और वे ६६ दिन तक मौन रहकर ही विहार करते रहे। इसका कारण यह है कि उनके शिष्य रूप गणधर का अभाव बताया गया है: जब इंद्र ने अपनी बुद्धि से एक गौतम गोत्रीय विद्वान को वहां उपस्थित किया, तो वह महावीर के दर्शनमात्र से प्रभावित होकर अपने शिष्यों के साथ उनके शिष्य बन गए, उनका दीक्षा धारण करते हुए। वह महावीर की दिव्यध्वनि प्रगट हो गई, वह दिन श्रावक कृ. एक ऐसा दिन था, जिसे आज भी जैन समाज में ‘वीर शासन जयंती’ के रूप में मनाया जाता है। बिहार प्रांत में राजगृही नगर की पंचपहाड़ी से विपुलाचल नामक पर्वत है जहाँ महावीर देशना के प्रमाण आज भी विद्यामान हैं।
पुन: तीस वर्ष तक तीर्थंकर महावीर ने अपने दिव्य केवलज्ञान से समस्त संसार को उपदेश दिया और तीस वर्ष की आयु में कार्तिक कृष्ण अमावस के प्रभातकाल में बिहार के पावापुर नगर में उनका महानिर्वाण हो गया, अर्थात् उन्होंने दिव्य पद प्राप्त कर लिया। जैन पुराणों के अनुसार उस दिन स्वर्ग से देवता भी आकर अंधेरी रात को दीपमालिका से जगमगाया था, तभी से वीर निर्वाण के रूप में देवी पर्व मनाया जाने लगा और तब से वीर निर्वाण संवत भारत में सबसे प्राचीन संवत्सर के रूप में प्रचलित हुआ। है।
महावीर के उपदिष्ट समस्त सिद्धान्तों को उनके गणधर शिष्य इन्द्रभूति गौतम ने ग्यारह अंग, चौदह पूर्व रूप में प्रस्तुत किया, वही क्रम परम्परा से आज तक विभिन्न ग्रंथों में उपलब्ध हो रहा है। दिगम्बर जैन शासन ने इस श्रुतज्ञान चार अनुयोग रूप (प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग) में प्रतिपादित अंग और पूर्व का अंश माना है और श्वेताम्बर जैन मान्यता ने अंग और पूर्वरूप सभी आगम ग्रंथों का अपने आचार्यों द्वारा लेखन स्वीकार किया है। महावीर के समवसरण में प्रविष्ट होते ही सबसे पहले इन्द्रभूमि गौतम ने संस्कृत भाषा में स्तुति की थी, जो चैत्यभक्ति के रूप में ‘जयति भगवान् हेमभोजप्रचार—विजृम्भिता…..’ इत्यादि सुन्दर पठनीय है, पुन: उन्होंने भगवान की ऊँकारमयी वाणी को कहा । श्रमण और गृहस्थों तक पहुंचाने के लक्ष्य से प्राकृत भाषा में सुदं मे आसंतो!……. मूल्यवान शिष्ट और मिष्ट भाषा का प्रयोग करके उनके आचार—विचार की बात बताई गई।
जैन शास्त्रों के अनुसार महावीर के जन्म से लेकर निर्वाण जाने तक इन्द्र देवता और बड़े-बड़े सम्राट राजा सदैव उनकी भक्ति में तत्पर रहते थे तथा उनके व्यक्तित्व में ऐसा आकर्षक आकर्षण था कि पास आने वाला प्रत्येक प्राणी उनका भक्त बन जाता था। मनुष्य की बात तो दूर, शेर और गाय जैसे प्राणी भी अपने पास आकर जन्मजात वैर भाव छोड़कर एक घाट पर पानी पीने लगते थे।
ऐसे अनहसामयी जैनधर्म के भूतपूर्व भगवान महावीर की सर्वोदयी शिक्षाएं आज भी विश्वशांति के लिए महान उपयोगी हैं।
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