तर्ज-फूलों सा……..
मुनिसुव्रत जन्मस्थली, राजगृही धाम है।
बीसवें जिनेन्द्र हैं, इन्द्रगण से वंद्य हैं, त्रैलोक्य में मान्य हैं।।टेक.।।
जिस भूमि को ग्यारह लाख वर्षों, पहले ही यह सौभाग्य मिला।
सोमावती माता के महल में, पूरब दिशा का सूरज खिला।।
सूर्य चमकता है, तीर्थ महकता है, राजगृही के शुभ नाम से।
तीरथ की कीरत अमर, होती है प्रभु नाम से।
बीसवें जिनेन्द्र हैं, इन्द्रगण से वंद्य हैं, त्रैलोक्य में मान्य हैं।।
मुनिसुव्रत.।।१।।
सबसे प्रथम पूजन में करूँ, आह्वानन व स्थापना तीर्थ की।
सन्निधिकरण से अर्चन करूँ, शुद्धातम की आराधना हेतु ही।
मन में बसा लूँ मैं, प्रभु को बिठा लूँ मैं, हो जाएगा पावन मन मेरा।
तीरथ अरु तीर्थंकरों की, पूजन का फल मान्य है।
बीसवें जिनेन्द्र हैं, इन्द्रगण से वंद्य हैं, त्रैलोक्य में मान्य हैं।।
मुनिसुव्रत.।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथजन्मभूमिराजगृहीतीर्थक्षेत्र!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथजन्मभूमिराजगृहीतीर्थक्षेत्र!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथजन्मभूमिराजगृहीतीर्थक्षेत्र!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
तर्ज-जैनधर्म के हीरे मोती……..
तीर्थंकर मुनिसुव्रत प्रभु की, जन्मभूमि है राजगृही।
मुनियों से वन्दित नगरी को, पूजूँ पाऊँ सौख्यमही।।
क्षीरोदधि का जल लेकर, जलधारा कर लूँ भक्ति से।
जन्मजरामृत्यू का क्षय हो, प्रगटे आतम शक्ति है।।
इसी भावना को लेकर मैं, मन से जाऊँ राजगृही।
मुनियों से वन्दित नगरी को, पूजूँ पाऊँ सौख्य मही।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथजन्मभूमिराजगृहीतीर्थक्षेत्राय जन्म-
जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरी केशर घिसकर, जिनवर पद में चर्चन कर लूँ।
भवआतप हो जाय नष्ट, इस हेतु तीर्थ अर्चन कर लूँ।।
इसी भावना को लेकर, मैं मन से जाऊँ राजगृही।
मुनियों से वंदित नगरी को, पूजूँ पाऊँ सौख्यमही।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथजन्मभूमिराजगृहीतीर्थक्षेत्राय संसार-
तापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत के पुंजों में ही, गजमोती की कल्पना करूँ।
अक्षयपद की प्राप्ति हेतु, मैं तीरथ की अर्चना करूँ।।
इसी भावना को लेकर मैं, मन से जाऊँ राजगृही।
मुनियों से वंदित नगरी को, पूजूँ पाऊँ सौख्यमही।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथजन्मभूमिराजगृहीतीर्थक्षेत्राय अक्षय-
पदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला आदि पुष्प में ही, मैं दिव्य पुष्प कल्पना करूँ।
कामबाण के नाश हेतु, मैं तीरथ की अर्चना करूँ।।
इसी भावना को लेकर मैं, मन से जाऊँ राजगृही।
मुनियों से वंदित नगरी को, पूजूँ पाऊँ सौख्यमही।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथजन्मभूमिराजगृहीतीर्थक्षेत्राय कामबाण-
विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
कल्पवृक्ष के भोजन की, कल्पना करूँ नैवेद्य बना।
पूजन में वह अर्पण कर, क्षुधरोग विनाशन हो अपना।।
इसी भावना को लेकर मैं, मन से जाऊँ राजगृही।
मुनियों से वंदित नगरी को, पूजूँ पाऊँ सौख्यमही।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथजन्मभूमिराजगृहीतीर्थक्षेत्राय क्षुधारोग-
विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक में ही रत्नों के, दीपक की कल्पना किया।
मोह नाश हेतू आरति कर, तीरथ की अर्चना किया।।
इसी भावना को लेकर मैं, मन से जाऊँ राजगृही।
मुनियों से वंदित नगरी को, पूजूँ पाऊँ सौख्यमही।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथजन्मभूमिराजगृहीतीर्थक्षेत्राय मोहांधकार-
विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगर तगर चंदन से मिश्रित, धूप जलाई अग्नी में।
कर्म भस्म करने हेतू, तीरथ की पूजा करनी है।।
इसी भावना को लेकर मैं, मन से जाऊँ राजगृही।
मुनियों से वंदित नगरी को, पूजूँ पाऊँ सौख्यमही।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथजन्मभूमिराजगृहीतीर्थक्षेत्राय अष्टकर्म-
दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
मीठे सुस्वादू फल मैंने, जाने कितने खाये हैं।
शिवफल हेतू अब पूजन में, उन्हें चढ़ाने आये हैं।।
इसी भावना को लेकर मैं, मन से जाऊँ राजगृही।
मुनियों से वंदित नगरी को, पूजूँ पाऊँ सौख्यमही।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथजन्मभूमिराजगृहीतीर्थक्षेत्राय मोक्षफल-
प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
हे भगवन् ! आठों द्रव्यों को, मिला अर्घ्य अर्पण कर लूँ।
पद अनर्घ्य के हेतु ‘‘चन्दनामती’’ तीर्थ अर्चन कर लूँ।।
इसी भावना को लेकर मैं, मन से जाऊँ राजगृही।
मुनियों से वंदित नगरी को, पूजूँ पाऊँ सौख्यमही।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथगर्भकल्याणक पवित्रराजगृहीतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा-गंग नदी की धार का, प्रासुक जल भर लाय।
शांतिधारा मैं करूँ, निज पर को सुखदाय।।
शान्तये शांतिधारा
राजगृही उद्यान के, विविध पुष्प मंगवाय।
पुष्पांजलि कर पूजहूँ, जीवन हो सुखदाय।।
दिव्य पुष्पांजलिः
(इति मण्डलस्योपरि चतुर्दशमदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
श्रावण कृष्णा दूज, राजगृही नगरी में।
सोमावति के गर्भ, आये त्रिभुवनपति हैं।।
मैं भी अर्घ्य चढ़ाय, उस नगरी को पूजूँ।
पाऊँ पद सुखदाय, भवबंधन से छूटूँ।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथगर्भकल्याणक पवित्रराजगृहीतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वदि वैशाख सुमास, की द्वादशि तिथि आई।
मुनिसुव्रत भगवान, जन्मे खुशियाँ छाईं।।
जन्मकल्याण पवित्र, उस नगरी को अर्चन।
कर हो पावन चित्त, राजगृही का वंदन।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथजन्मकल्याणक पवित्र राजगृहीतीर्थक्षेत्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दशमी वदि वैशाख, को दीक्षा जहाँ धारी।
जातिस्मृति से नाथ, ने सम्पत्ति बिसारी।।
नीलबाग से प्रसिद्ध, था राजगृहि उपवन।
पूजूँ उसको नित्य, खिल जावे मन उपवन।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथदीक्षाकल्याणक पवित्रराजगृही-
तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नवमी वदि वैशाख, चंपक तरुतल तिष्ठे।
केवलज्ञान प्रकाश, पाया मुनिसुव्रत ने।।
राजगृही उद्यान, समवसरण से पावन।
पूजूँ जिनवर थान, हो मेरा मन पावन।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्रराजगृही-
तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य (रोला छंद)
मुनिसुव्रत भगवान, के चारों कल्याणक।
हुए राजगृह माँहि, अतः धरा वह पावन।।
ले पूर्णार्घ्य सुथाल, श्रद्धा सहित चढ़ाऊँ।
मन का मैल उतार, तीरथ का फल पाऊँ।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथगर्भजन्मदी क्षाकेवलज्ञानचतुः
कल्याणक पवित्रराजगृहीतीर्थक्षेत्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य मंत्र- ॐ ह्रीं राजगृहीजन्मभूमिपवित्रीकृत श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय नमः।
हे नाथ! तेरी जन्मभूमि को प्रणाम है।
हे नाथ! तेरे जन्म की महिमा महान है।।टेक.।।
यूँ तो जगत में जन्मते हैं प्राणि अनन्ते।
मरते हैं प्रतिक्षण भी यहाँ प्राणि अनन्ते।।
हे नाथ! तेरी जन्मभूमि को प्रणाम है।
हे नाथ! तेरे जन्म की महिमा महान है।।१।।
एकेन्द्रि से पंचेन्द्रि तक जो जीव आतमा।
उन सबमें छिपा शक्ति से भगवान आतमा।। हे नाथ.।।२।।
भगवान आतमा प्रगट पुरुषार्थ से होता।
पुरुषार्थ बिना मात्र जग में खाना है गोता।। हे नाथ.।।३।।
तीर्थंकरों का सिद्धपद निश्चित है यद्यपी।
फिर भी तपस्या करके वे पाते हैं शिवगती।।हे नाथ.।।४।।
मैंने भी मनुष जन्म जो पाया अमोल है।
वह मोक्षमार्ग के लिए सचमुच ही मूल है।।हे नाथ.।।५।।
इस काल में निर्वाणपद की प्राप्ति नहीं है।
पर जन्म सार्थ करने की युक्ति यहीं है।।हे नाथ.।।६।।
पुरुषार्थ के द्वारा प्रथम तो कार्य शुभ करें।
जीवन में सदाचार से सारे अशुभ टलें।।हे नाथ.।।७।।
प्रभु जन्मभूमि अर्चन का अर्थ है यही।
आत्मा में रागद्वेष अल्प होवें शीघ्र ही।।हे नाथ.।।८।।
इस राजगृही में जनम मुनिसुव्रतेश का।
प्रभु वीर की खिरी यहीं पे प्रथम देशना।।
हे नाथ! तेरी जन्मभूमि को प्रणाम है।
हे नाथ! तेरे जन्म की महिमा महान है।।९।।
है पंच पहाड़ी में एक विपुलाचल गिरी।
जिस पर बनी रचना है प्रभू गंधकुटी की।।हे नाथ.।।१०।।
गणधर सुधर्मा ने यहीं से सिद्धपद लिया।
कुछ मुनि के सिद्धपद से सिद्धक्षेत्र यह हुआ।।हे नाथ.।।११।।
जिननाथ मुनिसुव्रतेश की बड़ी प्रतिमा।
श्री ज्ञानमती मात प्रेरणा की है महिमा।।हे नाथ.।।१२।।
जयमाल में यह अर्घ्य थाल मैं सजा लाया।
अर्पण करूँ अनर्घ्यपद की प्राप्त हो छाया।। हे नाथ.।।१३।।
भगवान श्री जिनेन्द्र से विनती यही मेरी।
मिट जावे ‘‘चन्दनामती’’ संसार की फेरी।।हे नाथ.।।१४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमुनिसुव्रतनाथजन्मभूमिराजगृहीतीर्थक्षेत्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
जो भव्यप्राणी जिनवरों की जन्मभूमी को नमें।
तीर्थंकरों की चरणरज से शीश उन पावन बनें।।
कर पुण्य का अर्जन कभी तो जन्म ऐसा पाएंगे।
तीर्थंकरों की श्रृँखला में ‘‘चन्दना’’ वे आएंगे।।
इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिः।